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________________ पुलाक ७२ पुष्पसेन वक्रवार पुलविके भीतर स्थित द्रव्योंके समान अलग-अलग अनन्ता पुष्पदंत-१. उत्तर क्षीरवर द्वीपका रक्षक व्यन्तर देव। -दे० नन्त निगोद जीवोसे आपूर्ण होते है। (विशेष दे० वनस्पति/३/७)। व्यन्तर/४ । २. म. पु/१०/२-२२ "पूर्वके दूसरे भवमें पुष्कर द्वीपपुलाक के पूर्व दिग्विभागमें विदेह क्षेत्रकी पुण्डरोकिणी नगरीके राजा स. सि./१/४६/४६०/उत्तरगुणभावनापेतमनसो वतेष्वपि क्वचित्कदा- महापद्म थे। फिर प्रागत स्वर्गमें इन्द्र हुए। वर्तमान भवमें वे चित्परिपूर्णतामपरिप्राप्नुवन्तोऽविशुद्धपुलाकसादृश्यात्पुलाका इत्यु- तीर्थकर हुए। अपरनाम सुविधि था। विशेष परिचय-दे० तीर्थच्यन्ते। कर/५ । ३. यह एक कवि तथा काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे। केशव स. सि /8/४७/४६१/११ प्रतिसेवना-पञ्चानां मूलगुणानां रात्रिभोजन- उनके पिता और मुग्धा उनको माता थी। वे दोनों शिवभक्त वर्जनस्य च पराभियोगाद् बलादन्यतमं प्रतिसेवमान' पुलाको थे। उपरान्त जैनी हो गये थे। पहले भैरव राजाके आश्रय थे, भवति ।-१. जिनका मन उत्तर गुणोंकी भावनासे रहित है, जो पीछे मान्यखेट आ गये। वहाँके नरेश कृष्ण तृ० के भरतने इन्हें कही पर और कदाचित बतोंमें भी परिपूर्णताको नहीं प्राप्त होते है अपने शुभतुङ्ग भवनमें रखा था। महापुराण ग्रन्थ श.१५(ई. वे अविशुद्ध पुलाकके समान होनेसे पुलाक कहे जाते है। (रा वा./ १०४३ ) में समाप्त किया था। इसके अतिरिक्त यशोधर चरित्र व १/४६/२/६३६/१६), (चा. सा./१०१/१) । २. प्रतिसेवना-दूसरों- नागकुमार चरित्रकी भी रचना की थी। यह तीनों प्रन्थ अपके दबाव वश जबर्दस्तीसे पाच मूल गुण और रात्रि भोजन वर्जन- भ्रंश भाषामें थे। समय-ई. श. ११ (जै.हि.सा. इ/२७ कामता) वतमेंसे किसी एक को प्रतिसेवना करनेवाला पुलाक होता है (रा.वा./ ई.६६५ (जीवन्धर चम्पू/प्र. ८/A N. Up.); ई. १५६ (पउम ६/४७/६३८/४) (चा.सा./१०४/१) चरिउ/प्र. देवेन्द्रकुमार ), (म. पु/प्र.२०/पं. पन्नालाल)। ४. आप रा. वा. हि/8/४६/७६३ मूलगुणानि विर्षे कोइ क्षेत्र कालके वशते राजा जिनपालितके समकालीन तथा उनके मामा थे। इस परसे विराधना होय है तातै मूलगुण में अन्यमिलाप भया, केवल न भये । यह अनुमान किया जा सकता है कि राजा जिनपालितकी राजधानी तातै परालसहित शाली उपमा दे संज्ञा कही है। वनवास ही आपका जन्म स्थान है। आप वहाँसे चलकर पुण्ड्रवर्धन * पुलाकादि पाँचों साधु सम्बन्धी विषय-दे० साधु/५ । अर्हदबलि आचार्य के स्थान पर आये और उनसे दीक्षा लेकर तुरत पुष्कर-१. मध्य लोकका द्वितीय द्वीप-दे० लोक/४/४ । २. मध्य उनके साथ ही महिमानगर चले गये जहाँ अर्हलिने बृहद् यति सम्मेलन एकत्रित किया था। उनका आदेश पाकर ये वहाँसे ही लोकका तृतीय सागर -दे० लोक/५/१। एक अन्य साधु भूतबलि ( आचार्य) के साथ धरसेनाचार्यकी सेवार्थ ३. पुष्कर द्वोपके नामकी सार्थकता गिरनार चले गये, जहाँ उन्होंने धरसेनाचार्यसे षट्खण्डका ज्ञान प्राप्त किया। इनकी साधनासे प्रसन्न होकर भूत जातिके व्यन्तर स सि /३/३४/४ यत्र जम्बूवृक्षस्तत्र पुष्करं सपरिवारम् । तत एव तस्य देवोने इनकी अस्त-व्यस्त दन्तपंक्तिको सुन्दर कर दिया था। द्वीपस्य नाम रूढे पुष्करद्वीप इति। मानुषोत्तरशैलेन विभक्तार्ध इसीसे इनका नाम पुष्पदन्त पड गया। विबुध श्रीधर के श्रुतावत्वात्पुष्कराधसंज्ञा । जहाँ पर जम्बू द्वीपमें जम्बू वृक्ष है पुष्कर द्वीप मे अपने वहाँ परिवारके साथ पुष्करवृक्ष है। और इसीलिए इस द्वीप तारके अनुसार आप वसुन्धरा नगरी के राजा नरवाहन थे। गुरु से का नाम पुष्करद्वीप रूढ हुआ है ।.. इस द्वीपके (मध्य भागमें मानु ज्ञान प्राप्त करके अपने सहधर्मा भूतमलिजी के साथ आप गुरु से षोत्तर पर्वत है उस, मानुषोत्तर पर्वतके कारण ( इसके) दो विभाग विदा लेकर आषाढ शु ११ को पर्वत से नीचे आ गए और उसके हो गये है अत. आधे द्वीपको पुष्कराध यह संज्ञा प्राप्त हुई। निकट अकलेश्वर में चातुर्मास कर लिया। इसकी समाप्ति के * पुष्कर द्वीपका नकशा-दे० लोक/४/२१ पश्चात् भूतमलि को वहां ही छोडकर आप अपने स्थान बनवास' लौट आये, जहां अपने भानजे राजा जिनपालित को दीक्षा देकर पुष्करावर्त-वर्तमान हस्तनगर । अफगानिस्तानमें है । (म. पु/ आपने उन्हे सिद्धान्त का अध्ययन कराया। उसके निमित्त से आपने प्र.५०/प. पन्नालाल)। 'वीसदि सूत्र' नामक एक ग्रन्थ की रचना की जिसे अवलोकन के लिये आपने उन्हीं के द्वारा भूतबलि जी के पास भेज दिया। समयपुष्कल-१. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक५/२,२. पूर्व विदेहस्थ वी. नि. ५६३-६३३ (ई०६६-१०६) । (विशेष दे० कोश १ एकशिल वक्षारका एक कूट-दे० लोक/४,३. पूर्व विदेहस्थ एक परिशिष्ट २/११)। शिल वक्षारपर स्थित पुष्कलकूटका रक्षक देव-दे० लोक/५/४। पूष्कलावती-पूर्व विदेहके पुष्कलावर्त क्षेत्रको मुख्य नगरी। अपर- पुष्पदंत पुराण-आ. गुणवर्म (ई. १२३० )कृत (ती./४/३०६) । नाम पुण्डरी किनी। -दे० लोक/५।२। पूष्पनंदि-१. आप तोरणाचार्यके शिष्य और प्रभाचन्द्र के गुरु थे। पुष्कलावत-१. पूर्व विदेहस्य एक क्षेत्र-दे० लोक/७। २. पूर्व समय-वि ७६० (ई.७०३) (जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था विदेहस्थ एकशिल वक्षारका एक कूट व उसका रक्षक देव। -दे० लोक/७। द्वारा प्रकाशित समयसारकी प्रस्तावनामें K. B. Pathak)। २. राष्ट्रकूट वंशी राजा गोविन्द तृतीयके समयके अर्थात श. स. ७२४ पुष्प-पुष्प सम्बन्धी भक्ष्याभक्ष्य विचार-दे. भक्ष्याभक्ष्य/४।। और ७१६ केदो ताम्र पत्रोंके अनुसार आप तोरणाचार्य के शिष्य और पुष्पक-आनत प्राणत स्वर्गका तृतीय पटल व इन्द्रक। -दे० प्रभाचन्द्र नं.२ के गुरु थे। तथा कुन्दकुन्दान्वयमें थे। तदनुसार स्वर्ग/५/३। आपका समय शक सं.६५०(ई,७२८) होना चाहिए। (प. प्रा./पुष्पक विमान-राजा वैश्रवणको जीतकर रावणने अत्यन्त सुन्दर प्र. ४-५/प्रेमीजी), (स. सा./प्र./K. B. Pathak)। पुष्पक विमानको प्राप्त किया। (प.पु/८/२५८)। पुष्पमाल-विजयार्धकी उत्तरश्रेणीका एक नगर - दे० विद्याधर । पुष्पचारण ऋद्धि-दे० ऋद्धि। पुष्पमाला-नन्दन वनमें स्थित सागर कूटको स्वामिनी दिक्कुमारी पुष्पचल-विजयाधकी उत्तर श्रेणीका एक नगर। -दे० विद्या देवी-दे० लोका धर। पुष्पसेन-आप एक दिगम्बर आचार्य थे। मूल संघकी गुर्वावलीके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016010
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages639
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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