________________
योग
३७९
घ. ६/१,६-८, १६ एतो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरका यजोगेण वादरमणजोगं णिरु भदि । तो अंतोषेण नादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण मादरउस्सासणिस्सा निभदि तदो अंतोन मादरकायजोगेण तमेव नादरकायजोगं णिरु भदि । तदो अंतोमुहुत्तं गं तूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरु भदि । तदो अंतो मुहुत्तं तूण चिजो भिदि दो तो मकान हुमा भिदिदीका दुमकायजोग मिरु'भमाणो (४९४/५)। इमाणि करणानि करेदि पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुब्बफद्दयाण हे ठादो (४१५/२) | एचो तो किट्टीओ करेदि बिट्टीकरणे निउ दो से काले पुयफदयाणि अल्फयामि चणादि अंतोकिहोगी होदि] ( ४१६/१) तदो तो जोगापासतो.. सम्म विमुको एगसमएण सिद्धि गच्छदि (४१७/१) । - १. यहाँसे अन्तर्मुहूर्त जाकर बादरकाय योगसे बादरमनोयोगका निरोध करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त जाकर बादरकाय योगसे बादर वचन योगा निरोध करता है। तुम अन्तर्मुहर्त से बाहर कामयोग चादर उच्छवास - निश्वास का निरोध करता है । पुनः अन्तर्मुहूर्त से बादर काय योगसे उसी बादर काययोगका निरोध करता है । तत्पश्चात अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म मनोनिरोध करता है। पुन अन्त मुहूर्त जाकर सूक्ष्म वचनयोगका निरोध करता है। पुन बन्र्मुहुर्त जाकर सूक्ष्मकाय योगसे उच्छवास मिश्यासका निरोध करता है। पुनः अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म काययोग सूक्ष्म काययोगका निरोध करता हुआ । २. इन करणो को करता है- प्रथम समय में पूर्व स्वर्ध को के नीचे पूर्ण स्पर्धकोको करता है. फिर अन्तर्मुहूर्त का पर्यन्त दृष्टिको करता है...उसके अनन्तर समय में पूर्व स्पर्य कोको और कोको नष्ट करता है। अन्तर्मुहूर्तकाल तक कृष्टिगत योग वाला होता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक अयोगि केवली - के योगका अभाव हो जानेसे आसवका निरोध हो जाता है। तब सर्व कर्मो वियुक्त होकर आत्मा एक समयमे सिद्धिको प्राप्त करता है ( घ. १३/५,४,२६/८४ / १२ ) ( ध १० / ४,२,४१०७/३२१/८ ); (क्ष. सा./ /६२७-६५६/०३१-०५८ ) ।
·
४. योगका स्वामित्व व सत्सम्बन्धी शंकाएँ
१. योगों में सम्भव गुणस्थान निर्देश
१/११/०-१५/२०२-३०० मणजोगो मोगो असम नमयोगी सणमिच्छाम्पिटि जाय जोगतिति ॥५०॥ मोसमणजोगो सञ्चमो समणजोगो सणिमिच्छाइटिठ पहुडि जाव खीण-कसायवीयराय-छदुमत्था ति । ५१ । वचिजोगो असमोसवचिजोगो मोईदियहूडि जान सजोगपति सि ॥५२॥
जोग समजा जोगकेवल ति ॥४॥ मोजोगी समोसवचिजोगो मठपहुड जाव खीणकसाय - वीयराय-छदुमत्था चि १५५ कायजोगो ओरालियकायजोगी बोरातियभिस्सका लोगो दिय-हडि जाव सजोगिकेवलित्ति । ६१ । वेउवयकायजोगो वेउब्वियमिस्स
योगो सभ्यमिच्छाट्पिटि जाव अदसम्माि ति । आहारकायजोगो आहार मिस्साजोगो एकहि चै पच जागे |3| कम्मइयाजोगी एईदिय-पड जाव सजोगिकेवलिति । ६४ | मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सणमिच्याइ डि जान जोगिन ति ६१ १. सामान्य से मनोयोग और विशेष रूपसे सत्य मनोयोग तथा असत्यमृषा मनोयोग संज्ञी मिभ्यासे लेकर सपोनिनली पर्यन्त होते है |५० असत्य मनोयोग और उभय मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि
पान
Jain Education International
४. योगका स्वामित्व व तत्सम्बन्धी शंकाएं
गुणस्थान से लेकर क्षीणकाय वीतराग पदमस्थ गुणस्थान तक पाये जाते है । ५१ । २. सामान्यसे वचनयोग और विशेषरूपसे अनुभय वचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ५ सय वचनयोग ही मिध्यादृष्टिसे लेकर योगकेवली गुणस्थान तक होता है । मृषावचनयोग और सत्यमुपावचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय- वीतराग छद्मस्थ-गुणस्थान तक पाये जाते है एस २ सामान्य से काययोग और विशेषकी अपेक्षा ओपारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग एकेन्द्रियसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते है ६१० मेकिय कामयोग और वैयिक मिश्र काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते है ६२ बाहारककाययोग और आहारकमि काययोग एक प्रमन्त गुणस्थान में ही होते है। कार्मणयोग एकेन्द्रिय जीवोसे लेकर योगकेवली तक होता है । ४. तीनों योग- मनोयोग, वचनयोग और काययोग ही मध्यसे लेकर रायोगिकेवली तक होते है|६| श्री गुणस्थान में भी निष्काम किया सम्भव है। - दे अभिलाषा ।
२. गुणस्थानोंमें सम्म योग
(पं. सं/प्र/५/१२८) (गो. जी. / /००४/१९४०), (पं.सं./
5/2/845) 1
गुणस्थाम
मिथ्यादृष्टि
सासादन मिश्र
अस्यत देशविरत
प्रमत्त
अप्रमत्त अपूर्वकरण
अनिवृत्ति
सूक्ष्म सा
उपशान्त श्रीमकमाय सयोगि
सम्भव योग
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
१३
For Private & Personal Use Only
כ
१०
१३
ह
११
ह
כל
93
"
92
ॐ
७
असम्भव योगके नाम
आहारक, आहारक मिश्र = २
आहारक आहारक मिश्र, बौवारिक, वैक्रियक मिश्र कार्मण ५
आहारक व आहारक मिश्र - २ औदारिक मिश्र क
आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण ६ दारिक मिश्र किक क्रिक मिश्र, कार्मण = ४
देशविरतवत्
३. योगों में सम्भव जीवसमास
१/११/६६-०८/३०१-३१० चिजोगो कायजोगो मीदिय डि जान असणर्वचिदिया । ६६॥ कायजोगा मणजोगो वचिजोगो पज्जत्ताण अस्थि, अपज्जत्ताण णत्थि ॥६८॥ कायजोगो पज्जत्ताणं वि अस्थि, अपज्जन्ताणं वि अस्थि । ६६ । ओसियाजोगी ओरालियमका योगी अप ताणं ॥७६॥ वेत्रियकायजोगो पज्जत्ताण वेउब्वियमिस्सकायजोगो अपना आहारकायजोगो पमाण आहारमिस्सकाय जोगो अपज्जत्ताणं ७८) वचनयोग और काययोग द्वीन्द्रिय जीवोसे लेकर असंज्ञी पचेन्द्रिय जीवो तक होते है । ६६ । काययोग
वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, असत्य व उभय मनोवचनयोगट
www.jainelibrary.org