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पूजा
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१. भेद व लक्षण
अर्हदाद्य दिश्य
वाचा गुणसंस्तवन बक्षिणीकरण-प्रणम
१.भेद व लक्षण
सन्ध्याओंमें उपासना करना तथा इनके समान और भी जो पूजाके
प्रकार है वे उन्हीं भेदोमें अन्तर्भूत है ।३२-३३। १. पूजाके पर्यायवाची नाम म. पु./६७/१६३ यागो यज्ञ' क्रतु. पूजा सपर्येज्याध्वरो मख । मह
४. नाम, स्थापनादि पूजाओंके लक्षण इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधे ।१६३। याग, यज्ञ, क्रतु. पूजा, १. नामपूजा सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह ये सब पूजा विधिके पर्यायवाची
वसु. श्रा./३८२ उच्चारिऊण णाम अरुहाईण विसुद्धदेसम्मि। पुप्फाणि जं शब्द है ।१३।
खि विज्जंति वणिया णामपूया सा ।३८२। -अरहन्तादिका नाम २. पूजाके भेद
उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेशमें जो पुष्प क्षेपण किये जाते है वह नाम १. इज्या आदिको अपेक्षा
पूजा जानना चाहिए ।३८२। ( गुण. श्रा./२१३ )। म. पु/३८/२६ प्रोक्ता पूजाई तामिज्या सा चतुर्धा सदार्चनम् । चतुर्मुख
२ स्थापना पूजा मह' कल्पद्रुमाश्चाष्टाह्निकोऽपि च ।२६। -पूजा चार प्रकारकी है बसु. श्रा./३८३-३८४ सम्भावासभावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सदार्चन (नित्यमह), चतुर्मुख (सर्वतोभद्र), कल्पद्रुम और अष्टाह्निक । सायारवंतवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढमा ।३८३। अक्खय-बराडओ वा (ध.८/३, ४२/१२/४) (इसके अतिरिक्त एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ भी अमुगो एसो त्ति णियबुद्धीए । संकप्पिऊण वयणं एसा विझ्या असहै जिसे इन्द्र किया करता है। तथा और भी जो पूजाके प्रकार है वे भावा ।३८४ =जिन भगवान्ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थाइन्हीं भेदोमें अन्तर्भूत है। (म. पु./२८/३२-३३), (चा. सा./४३/१);
पना यह दो प्रकारकी स्थापना पूजा कही है। आकारवाच वस्तुमें (सा घ./१/१८; २/२५-२६)
अरहन्तादिके गुणोका जो आरोपण करना, सो यह पहली सद्भाव २. निक्षेपोंकी अपेक्षा
स्थापना पूजा है । और अक्षत, वराटक ( कौडी या कमलगट्टा आदिमे
अपनी बुद्धिसे यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण वसु. श्रा/३८१ णाम-ट्ठवणा-दवे-खित्ते काले वियाणाभावे य। छवि
करना, सो यह असद्भाव स्थापना पूजा जानना चाहिए ।३८३-३८४। हपूया भणिया समासओ जिणवरिदेहि ।३८१नाम, स्थापना, (गुण, श्रा./२१४-२१५) । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा संक्षेपसे छह प्रकारको पूजा जिनेन्द्रदेवने कही है।३८१ (गुण. श्रा./२१२) ।
३. द्रव्यपूजा ३. द्रव्य व भावकी अपेक्षा
भ. आ./वि./४७/१५९/२१ गन्धपुष्पधूपाक्षतादिदानं अहंदाद्य दिश्य भ. आ./वि./४७/१५६/२० पूजा द्विप्रकारा द्रव्यपूजा भावपूजा चेति ।
__ द्रव्यपूजा । अभ्युत्थानप्रदक्षिणीकरण-प्रणमनादिका-कायक्रिया च ।
वाचा गुणसंस्तवनं च। -अर्हदादिको के उद्देश्यसे गंध, पुष्प, धूप, - पूजाके द्रव्यपूजा और गावपूजा ऐसे दो भेद है।
अक्षतादि समर्पण करना यह द्रव्यपूजा है। तथा उठ करके खडे ३. इज्या आदि पाँच भेदोंके लक्षण
होना, तीन प्रदक्षिणा देना, नमस्कार करना वगैरह शरीर क्रिया
करना, वचनोंसे अहं दादिकके गुणोको स्तवन करना, यह भी द्रव्यम. पु/३८/२७-३३ तत्र नित्यमहो नाम शश्वज्जिनग्रहं प्रति ।
पूजा है। (अ. ग. श्रा./१२/१२ । स्वगृहान्नीयमानार्चा गन्धपुष्पाक्षतादिका ।२७। चैत्यचैत्यालयादीनां
वसु. श्रा/४४५-४५१ दव्वेण य दव्वस्स य जा पूजा जाण दवपूजा सा । भक्त्या निर्मापणं च यत् । शासनीकृत्य दानं च ग्रामादीना सदार्चनम्
दव्वेण गंध-सलिलाइपुश्वभणिएण कायव्वा ।४४८१ तिविहा दव्वे पूजा १२ या च पूजा मुनीन्द्राणां नित्यदानानुषङ्गिणी। स च नित्यमहो
सच्चित्ताचित्तमिस्सभेएण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूजा जहाजोग्ग। ज्ञेयो यथाशक्त्युपकल्पितः ॥२६॥ महामुकुटबद्धश्च क्रियमाणो
४४६ तेसि च सरीराणं दव्वसुदस्सवि अचित्तपूजा सा : जा पुण महामहः । चतुर्मुखः स विज्ञेय. सर्वतोभद्र इत्यपि ॥३०) दत्वा
दोण्हं कीरइ णायव्वा मिस्सपूजा सा ।४५० अहवा आगम-णोआगकिमिच्छकं दानं सम्राभिर्य. प्रवर्त्यते। कल्पद्रुममह सोऽयं जगदा
माइभेएण बहुविहं दव्वं । णाऊण दव्वपूजा कायव्वा मुत्तमग्गेण । शाप्रपूरणः ॥३१॥ आष्टाह्निको मह सार्वजनिको रूढ एव सः । महा
१४५१। =जलादि द्रव्यसे प्रतिमादि द्रव्यकी जो पूजा की जाती है, नैन्द्रध्वजोऽन्यस्तु सुरराजै' कृतो मह' ॥३२॥ बलिस्नपनमित्यन्य.
उसे द्रव्यपूजा जानना चाहिए। वह द्रव्यसे अर्थात जल गन्धादि त्रिसन्ध्यासेवया समम् । उक्तेष्वेव विकल्पेषु ज्ञयमन्यच्च तादृशम् ।
पूर्वमें कहे गये पदार्थ समूहसे करना चाहिए ।४४८(ब. ग. श्रा./१२ 1३३।-प्रतिदिन अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर
१३) द्रव्यपूजा, सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारकी है। जिनालयमें श्री जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना सदार्चन अर्थात नित्यमह
प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान् और गुरु आदिका यथायोग्य पूजन कहलाता है ।२७॥ अथवा भक्ति पूर्वक अर्हन्त देवकी प्रतिमा और
करना सो सचित्तपूजा है। उनके अर्थात जिन तीर्थकर आदिके मन्दिरका निर्माण कराना तथा दानपत्र लिखकर ग्राम, खेत आदि
शरीरकी और द्रव्यश्रुत अर्थात् कागज आदिपर लिपिबद्ध शास्त्रकी का दान भी देना सदार्चन कहलाता है ।२८। इसके सिवाय अपनी जो पूजा की जाती है, वह अचित्तपूजा है। और जो दोनोकी पूजा शक्तिके अनुसार नित्यदान देते हुए महामुनियोकी जो पूजा की जाती
को जाती है वह मिश्रपूजा जानना चाहिए ।४४६-४५०॥ अथवा आगमहै उसे भी नित्यमह समझना चाहिए ।२६॥ महामुकुटबद्ध राजाओके
द्रव्य और नोआगमद्रव्य आदिके भेदसे अनेक प्रकारके द्रव्य निक्षेपद्वारा जो महायज्ञ किया जाता है उसे चतुर्मुख यज्ञ जानना चाहिए। को जानकर शास्त्र प्रतिपादित मार्गसे द्रव्यपूजा करना चाहिए। इसका दूसरा नाम सर्वतोभद्र भी है।३०। जो चक्रवर्तियों के द्वारा
॥४५( गुण, श्रा./२१६-२२१)। किमिच्छक दान देकर किया जाता है और जिसमें जगत्के सर्व जीवोंकी आशाएँ पूर्ण की जाती है, वह कल्पद्रुम मामका यज्ञ
४. क्षेत्रपूजा कहलाता है।३१। चौथा अष्टाह्निक यज्ञ है जिसे सब लोग करते है और बसु. श्रा./४५२ जिणजम्मण-णिक्खमणे णाणुप्पत्तीए तित्थचिण्हेसु । जो जगत में अत्यन्त प्रसिद्ध है। इनके सिवाय एक ऐन्द्रध्वज महायज्ञ णिसिहीसु खेत्तपूजा पुव्वविहाणेण कायव्वा ।-जिन भगवानकी जन्म भी है जिसे इन्द्र किया करता है। (चा. सा./४३/२); (सा. घ./२/ कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवलज्ञानोत्पत्तिस्थान, २५-२६) । बलि अर्थात् नैवेद्य चढाना, अभिषेक करना, तीन तीर्थ चिह्न स्थान और निषीधिका अर्थात निर्वाण भूमियोंमें पूर्वोक्त
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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