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मोहनीय
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कसायदणीय कम्मं तं सोलसहि अनंताबाधको हमाणमायासोई, अपचवाणावरणीयको मा माया लोहं पञ्चवाणावरणीयको माग-माया कोण माणसंजणं, मायासंजजल दि २३॥ [ से शोकसागवेदनीय कम्म गवि इरिथवे पुरिसवेदं ण समवेदं हस्त-रदि-अरदि-सोगभवदुषादि २४] - जो चारित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है- कषाय वेदनीय और नोकषाय वेदनीय २२ - जो कषायवेदनीय कर्म है यह १६ प्रकारका है अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ; अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ; प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, क्रोधसंज्वलन, मानसंज्वलन, मायासंज्वलन, और २३-जो मोकषायवेदनीय कर्म है वह भी प्रकारका है - स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद हास्य, रति, अरति शोक, भय और जुगुप्सा २४ प. स. १२/२.२ / सूत्र ६४-१६ २५-२६१); (सू. आ / १२२६-१२२१ ) ( सू /-/ १) (पं. स प्रा./२/४ व उसकी व्याख्या ); (गो. क/जी प्र./२६/१६/३: ३३/२७/ २३), (१००६-१००७)।
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३. कषाय व अकपायवेदनीयके लक्षण
घ. १३/५५,६४/३५६/७ जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदर्याद तं कम्मे कसायवेदणीयं णाम । जस्स कम्मस्स उदरण जीवो णोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम । जिस कर्मके उदयसे जीव कषायका वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव मायावेदन करता है, वह नोकवाय वेदनीय कर्म है ।
४. चारित्रमोहक सामर्थ्य कषायोपादनमें है स्वरूपाचरणके विच्छेद में नहीं
पं. ध. /उ. श्लोक नं कार्य चारित्रमोहस्य चारित्रयतिरात्मनः । नात्मदृष्टेस्तु दृष्टित्वान्न्यायादितरदृष्टिवत | ६० कषायाणामनुब्रेकश्चारित्र तावदेव हि । नानुद्रेक कषायाणां चारित्राच्युतिरात्मन । ६१२ अस्ति चारित्रमोऽपि शक्ति निसर्गत एक चासंयतव्यं स्यात् कषायत्वमथापरम् | ११३१ | यौगपद्य द्वयोरेव कषायासयत - वयोः । सम शक्तिद्वयस्योच्चै कर्मणोऽस्य तथोदयात् | ११३७॥ न्यायानुसार आत्माको चारित्रसे च्युत करना ही चारित्रमोहका कार्य है, किन्तु इतरकी दृष्टि के समान दृष्टि होनेसे शुद्धात्मानुभवसे च्युत करना चारित्रमोहका कार्य नहीं है | १०| निश्चयसे जितना कमायो का अभाव है, उतना ही चारित्र है और जो कषायोका उदय है वही आत्माका चारित्रले युत होना है । ६६२॥ चारित्र मोहमें स्वभाव । दो प्रकारकी शक्तियाँ हैं- एक असंयतत्वरूप और [दूसरी कषायत्वरूप | ११३१ | इन दोनो कषाय व असंयत पनेमें युगपतता है, क्योंकि, वास्तव में युगपत् उक्त दोनो ही शक्तिवाले इस कर्मका ही उस रूपसे उदय होता है | ११३१ ॥
५. कषायवेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम
स. सि./६/१४/३३२/८ स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजन वृत्तदूषणं संक्लिष्टलिङ्गतधारणादि कषायवेदनीयस्यास्रव' । स्वयं कषाय करना, दूसरोमे कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजन के चारित्रमें दूषण लगाना, क्लेशको पैदा करनेवाले लिग (वेष ) और व्रतको धारण करना आदि कषाय वेदनीयके आसव है । रामा/६/१४/३/२२६/६ जगदनुपहतचशीसमभावितात्मतपि
गज-धर्मावणं तदन्तराकरणशीलन समितियावनमधुमद्यमांसविरतपित्तविभ्रमापादन] वृशसंदूषण --
धारणस्यपरकषायोदकपायवेदनीयस्यासमः -
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मौद्गलायन
दुपकारी शीलवती तपस्वियोंकी निन्दा, धर्मध्वंस, धर्म में अन्तराय करना, किसीको शीलगुण देशयम और सकलसंयमसे च्युत करना, मद्य मास आदिसे विरत जीवोंको इससे विचकाना, चरित्रदूषण क्लेशोत्पादक मठ और वैषोंका धारण, स्व और परमें कथायोंका उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आसव के कारण हैं ।
६. अकषायवेदनीयके बन्धयोग्य परिणाम
रा. वा. / ६ /१४/३/५२५/८ उत्प्रहासादीनाभिहासित्व- कन्दर्पो पहसनबहुलपोपहासशीलता हास्यवेदनीयस्य निचित्रपरक्रीडन परसौचित्यावर्जन-मपी भाव- देशापौरपयप्रीतिजननादिरतिवेदनीयस्य । परतिप्रादुर्भावनतिविनाशन- पापशीतसताकुल क्रियात्साहनादि अरतिवेदनीयस्य स्वशोकामोदशोचनपरखाविष्करण शोकाभिनन्दनादि शोकवेदनीयस्य स्वयं भयपरिणामपरभयोत्पादन निर्दयत्यत्रासनादिर्भय वेदनीयस्य । सद्धर्मापचतुर्वर्णविशिष्टवर्ग कुल क्रिया चारप्रवणजुगुप्सा परिवादश्रीदर्जुगुप्सादनीयस्य प्रकृष्टको परिणामातिमानितेष्यव्यापारालीकाभिधायिता - तिसन्धानपरत्व - प्रवृद्धराग - पराङ्गनागमनादर-वामलोचनाभावाभिष्वङ्गतादि स्त्रीवेदस्य स्तोकोष-पेनिवृत्त्यनुत्सिक्तरवा लोभभावा अनासमवायात्परागत्व - स्वदारसंतोषेर्ष्याविशेषोपरमस्नानगन्धमाव्याभरणानादरादि चंवेदनी
यस्य ।
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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प्रचुरकोधमानमायालोभपरिणाम गुह्येन्द्रियव्यपरोपणस्त्रीव्यसनीलम गुणधारिया) पुनर नामस्कन्दनगतीमानाचारादिर्मक वेदनीयस्य । - उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी कामविकार पूर्वक हँसी बहुप्रलाप तथा एककी हंसी मजाक करना हास्यवेदनीयके आसवके कारण है। विभिन क्रीडा, दूसरेके free आकर्षण करना, बहूपीडा देशादिके प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना रतिवेदनीयके आसवके कारण हैं । रतिविनाश, पापशील व्यक्तियोंकी संगति, अकुशल क्रियाका प्रोत्साहन देना आदि अरतिवेदनीयके आसन के कारण है। स्वशोक, प्रीतिके लिए परका शोक करना, दूसरोंको दुःख उत्पन्न करना, शोक का अभिनन्दन आदि शोकवेदनीयके आपके कारण है। स्वयं भयभीत रहना, दूसरोंको भय उत्पन्न करना, निर्दयता त्रास आदि भयवेदनीयके आसवके कारण है। धर्मात्मा चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदिकी क्रिया और आचारर्म तत्पर पुरुषोंसे ग्लानि करना, दूसरेकी बदनामी करनेका स्वभाव आदि जुगुप्सावेदनीयके आसवके कारण है अत्यन्त कोमके परिणाम, अतिमान, अत्यन्त ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छल कपट तीबराग, परंगनागमन, स्त्रीभावो में रुचि आदि स्त्री आपके कारण है। मन्दक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदारसन्तोष, ईर्ष्या-रहित भाव, स्नान, गन्ध, माला, आभरण आदिके प्रति आदर न होना आदि पुंवेदके आसवके कारण है। प्रचुर कोच मान माया लोभ, गुप्त इन्द्रियोका विनाश, स्त्री पुरुषोंमें अनंगकीदादा व्यसन, शीलवत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषोंको बिचकाना, परस्त्रीपर आक्रमण, तीव्र राग, अनाचार आदि नपुंसक वेद के आसके कारण है ( स. सि /६/९/२३२/६)।
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मौखयं स सि./०/१२/२०० / ९ पाप्रायं यरिकचनानर्धक महूप्रलापित्वं मौखर्यम् । धोठताको लिये हुए नि सार कुछ भी बहुत बकवास करना मौखर्य है ( रा. ना./०/१२/२/५५६/२०)। मौद्गलायन - १. भगवाद पार्श्वनाथको शिष्य परम्परा में एक बड़े जैन आचार्य थे। पीछे महात्मा बुद्धके शिष्य हो गये और बोधमतका प्रवर्तन किया । 'महावग्ग' नामक बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार आप बुद्धदेन के प्रधान शिष्य थे। इन्हे संजय नामके राजकने महात्मा
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