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पुद्गल
मरण ये भी पुद्गलोके उपकार है | २०| ये सुखादि जीवके पुद्गल कृत उपकार है, क्योकि मूर्त कारणोंके रहनेपर ही इनकी उत्पत्ति होती है।
९. पुद्गलमें अनन्त शक्ति है
पं.
१२६ नेोऽनङ्गोऽसि
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तापिरमशक्ति प्रतिकर्म प्रकृता यैर्नानारूपासु वस्तुत १६२५| इस प्रकार कथन ठीक नहीं है। क्योकि वास्तवमें प्रत्येक कर्मकी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग द्वारा अनेक रूप होकी अयि शक्तियों के विषय में तुम अनभिज्ञ हो |२५|
१०. पृथिवीजल आदि सभी में सर्वगुणोंकी सिद्धि
प्र. स. १३२ वरगंधफासा विज्जेते पुग्लास्मादोडीपरियत्तस्य सहो सो पोरगलो चित्तो ११३२ | =वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श (गुण) सूक्ष्मसे लेकर पृथ्वी पर्यन्तके (सर्व) पुइगलके होते है, जो विविध प्रकारका शब्द है वह पुद्गल अर्थात पौगलिक पर्याय है | १३२
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रा. मा /५/१५/१६/४१३/६ पृथिवी तानद पटादिलक्षणा स्पर्शादिशब्दाचारिमा सिद्धा अम्भोऽपि तद्विकारस्यात् तदात्मक साक्षाद गन्धोपलब्धेश्च । तत्संयोगिनां पार्थिवद्रव्याणां गन्धः तद्गुण श्योपलभ्यत इति चेत नः साध्यत्वाय तद्वियोगकालादर्शनात् तदविनाभावाच्च तद्गुण एवेति निश्चय कर्तव्य. - गन्धवदम्भ रसवत्त्वात् आम्रफलवत् । तथा तेजोऽपि स्पर्शादिशब्दादिस्वभाव तत्कार्यवाद घटपद स्पर्शादिमतां हि काष्ठादीनां कार्यं तेज' । किंच तत्परिणामात । उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्म विपरिणाम। पितं च जठराग्नि तस्मात् स्पर्शादिमत्तेज. । तथा स्पर्शादिशब्दादिपरिणामो वायुः स्पर्शवाद पटादिवत् किच तत्परिणामात उपयुक्तस्य हि आहारस्य स्पर्शादिगुणस्य वातपित्तश्लेष्मविपरिणाम' । वातश्च प्राणादि ततो वायुरपि स्पर्शादिमान् इत्यवसेयः । एतेन 'चतुस्त्रिगुगा पृथिव्यादव पार्थिवादिजातिभिन्ना 'इति दर्शन प्रत्युक्तस्पट पट आदि स्पर्शादिमान पदार्थ पृथिमी है। जल भी गलका विकार होनेसे पुद्गलात्मक है। उसमें गन्ध भी पायी जाती है । 'जलमें संयुक्त पार्थिव द्रव्योंकी गन्ध आती है, जल स्वयं निर्गन्ध है यह पक्ष असिद्ध है। क्योंकि कभी भी गन्ध रहित जल उपलब्ध नहीं होता और न पार्थिव द्रव्योंके संयोगसे रहित हो । गन्धस्पर्शका अविनाभावी है । अर्थात पुद्गलका अविनाभावी है। अत' वह जलका गुण है । जल गन्धवाला है, क्योंकि वह रसवाला है। जैसे कि आम अग्नि भी स्पर्शादि और शब्दादि स्वभाववाली है खोकि वह पृथिवीवासी पृथ्वीका कार्य है जैसे कि घा स्पर्शादिवाली लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है यह सर्व विदित है।
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गल परिणाम होनेसे खाये गये स्पर्शादिगुणवाले बाहारका बात पित्त और कफरूपसे परिणाम होता है। पित्त अर्थात् जठराग्नि । अत' तेजको स्पर्श आदि गुणवाला ही मानना ठीक है । इसी तरह वायु भी स्पर्शादि और शन्दादि पर्यायवाची है, खोकि उसमें स्पर्श गुण पाया जाता है जैसे कि घटमें। खाये हुए अन्नका वात पित्त श्लेष्म रूपसे परिणमन होता है। बात अर्थाद वायु अत वायुको भी स्पर्शादिमान मानना चाहिए। इस प्रकार नैयायिकों का यह मत खण्डित हो जाता है कि पृथ्वी में चार गुण, जलमें गन्ध रहित तीन गुण, अग्निमें गन्ध रस रहित दो गुण, तथा वायुमें केवल स्पर्श गुण है ( रा या /२/२०/४/९२३/१०). (रा. मा./३/३/२/०४१/५): (रा. वा./ ५/२३/३/४०४/२०)।
प.सा./त/ १३२ सर्व पुलाना स्पर्शादिचतुष्कोपेतत्वाभ्युपगमात् । व्यक्तस्पर्शादिकानां चन्द्रकान्तारनियवानामारम्भकैरेव पुग
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लैरव्यक्तगन्धाव्यक्तगन्धरसाव्यक्तगन्धरसवर्णानामब् ज्योतिरुदरमरुता मारम्भदर्शनात् । =सभी पुद्गल स्पर्शादि चतुष्क युक्त स्वीकार किये गये हैं। क्योकि जिनके स्पर्शादि चतुष्क व्यक्त है ऐसे चन्द्रकान्त मणिको, अरणिको और जौ को जो पुद्गल उत्पन्न करते है उन्होंके द्वारा जिसको गन्ध अव्यक्त है ऐसे पानी की, जिसकी गन्ध तथा रस अव्यक्त है ऐसी अग्निकी, और जिसकी गन्ध, रस तथा वर्ण अव्यक्त है ऐसी उदर वायुकी उत्पत्ति होती देखी जाती है ।
११. अन्य सम्बन्धित विषय
१. पुद्गलका स्वपरके साथ उपकार्य उपकारक मान ।
पुन्नाग
- दे० कारण / III / १ -दे० अस्तिकाय ।
२. पुद्गल द्रव्यका अस्तिकायपना ।
३. वास्तवमें परमाणु दो पुद्गल द्रव्य है। ४. पुद्गक मूर्त है।
५. पुद्गल अनन्त व क्रियावान है। ६. अनन्तों पुद्गलोंका छोकने अवस्थान व अनगाह । -३० आकाश/१।
- दे० गति / ११ सम्भावना । -३० पर्याय / ३ |
७. पुद्गलकी स्वभाव व विभाव गति । ८. पुद्गमें स्वभाव व विभान दोनों पर्यायोंकी
११. जीवको कचित् पुद्गल व्यपदेश । १२. पुद्गल विपाकी कर्म प्रकृतियाँ। ११. द्रव्यभावकर्म, कार्मणशरीर, द्रव्यभाव मन, व वचनमें पुद्गलपना ।
९. पुद्गल सर्वगुणोंका परिणमन स्व जातिको उल्लंघन नहीं कर सकता ।
- दे० गुण / २० १०. संसारी जीव व उसके भाव भी पुद्गल कहे जाते हैं ।
- ३० मूर्त | - दे० जीव / १/३०
- दे० प्रकृति बंध / २ ।
- दे० परमाणु / २ | - ० मूर्त / ४ ।
-- दे० द्रव्य |
जेवेन्द्र सिद्धान्त कोश
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-६० पूर्व / २०
पुद्गल क्षेप - स. सि./७/३१/३६६ / ११ लोष्टादिनिपात. ग क्षेप प्रमाणके किये हुए स्थान से बाहर देता आदि फेंकनाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना पुद्गलक्षेप नामका देशव्रतका अतिचार है ।
पुद्गल परिवर्तन दे० संसार/२ |
पुदगल बन्ध दे० स्कन्ध/२ पुनरक्त निग्रहस्थान
श्या सू./टी./३/२/१४-१५ / २१२ शब्दार्थयो] पुनर्वचनं पुनरुक्तमयत्रानुवादा। ९४॥ अदापन्नस्य स्वशन्देन पुनर्वचनम् ॥१५- पुन रुक्त दो प्रकारका है— शब्द पुनरुक्त व अर्थ पुनरुक्त। उनमें से अनुवाद करनेके अतिरिक्त जो शब्दका पुन' कथन होता है, उसे शब्द पुनरुक्त कहते है । १४ एक शब्दसे जिस अर्थ की प्रतीति हो रही हो उसी अर्थ को पुनः अन्य शब्दसे कहना अर्थपुनरुक्त है | १५ | ( श्लो. वा. ४/ न्या. / २३२/४०८/१३ पर उद्धृत) ।
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स. मंत/१४/४ स्वजन्यनो समानाकारबोधन क्यो तरकालीनवाक्यत्वमेव हि पुनरुक्तत्वम् । एक वाक्य जन्य जो बोध है, उसी बोधके समान बोध जनक यदि उत्तरकालका वाक्य हो तो यही पुनरुक्त शेष है (प. प्र./टी./२/२११) ।
पुनर्वसु नक्षत्र दे० नक्षत्र ।
पुन्नाग-मध्य आर्य खण्डका एक देश-३० मनुष्य / ४ ।
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