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मीमासा दर्शन
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मीमासा दर्शन
७०/६६-७०) । २.धर्म व अधर्मका विशेष प्रकारसे नाश हो जानेपर देहकी आत्यन्तिको निवृत्ति हो जाना मोक्ष है। सासारिक दु खोसे उद्विग्नता, लौकिक सुखोसे पराड्मुखता, सासारिक कर्मोका त्याग, वेद विहित शम, दम आदिका पालन मोक्षका उपाय है। तब अदृष्टके सर्व फलका भोग हो जानेपर समस्त संस्कारोका नाश स्वतः हो जाता है । ( स्या. म./परि० ड./४३३), (भारतीय दर्शन )। २. कुमारिल भट्ट या 'भट्टमत' को अपेक्षा १ बेदाध्ययनसे धर्म की प्राप्ति होती है। धर्म तर्कका विषय नही। वेद विहित यज्ञादि कार्य मोक्षके कारण है-षड्दर्शन समुच्चय/६६७०/६९-७०) २ सुख दु.ख के कारण भूत शरीर, इन्द्रिय व विषय इन तीन प्रपचो की आत्यन्तिक निवृत्ति; तथा ज्ञान, सुख, दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म व संस्कार इन सबसे शून्य, स्वरूपमै स्थित आरमा मुक्त है वहाँ शक्तिमात्रसे ज्ञान रहता है । आत्मज्ञान भी नहीं होता। ३ लौकिक कर्मोंका त्याग और वेद विहित कर्मोंका ग्रहण ही मोक्षमार्ग है ज्ञान नहीं। वह तो मोक्षमार्ग की प्रवृत्तिमे
कारणमात्र है। ( सा प./परि० उ./४३३); (भारतीय दर्शन )
७. प्रमाण विचार १. वेदप्रमाण सामान्य दानो मत वेदको प्रमाण मानते है। वह नित्य व अपौरुषेय होनेके कारण तर्कका विषय नहीं है। अनुमान आदि अन्य प्रमाण उसकी अपेक्षा निम्नकोटिके है। (षड्दर्शन समुच्चय/६९-७०/६९-७०), (स्या. म /परि-ड./४२८-४२६)। (२) वह पॉच प्रकारका हैमन्त्र वेदविधि, ब्राह्मण वेद विधि, मन्त्र नामधेय, निषेध और अर्थवाद। 'विधि' धर्म सम्बन्धी नियमोको बताती है । मन्त्र' से याज्ञिक देवी, देवताओंका ज्ञान होता है। निन्दा, प्रशसा, परकृति और पुराकल्पके भेदसे 'अर्थवाद' चार प्रकारका है। (म्या म/परि ड/४२-४३०)। २. प्रभाकर मिश्र या 'गुरुमत'की अपेक्षा ( षड्दर्शन समुच्चय/७१-७५/७१-७२ ); (स्या म./परि-ड./४३२ ), ( भारतीय दर्शन ) । (१) स्वप्न व संशयसे भिन्न अनुभूति प्रमाण है। वह पाँच प्रकारका है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द व अर्यापत्ति । (२) प्रत्यक्षमें चार प्रकारका सन्निकर्ष होता हैआत्मासे मनका, मनसे इन्द्रियका, इन्द्रियसे द्रव्यका, तथा इन्द्रियसे उम द्रव्य के गुणका । ये द्रव्य व गुणका प्रत्यक्ष पृथक्-पृथक् मानते है। वह प्रत्यक्ष दो प्रकारका है-सविकल्प और निर्विकल्प । सविकल्प प्रत्यक्ष निर्विकल्प पूर्वक होता है। योगज व प्रातिभ प्रत्यक्ष इन्ही दोनोमें गर्भित होजाते है। (३) अनुमान व उपमान नेयाधिक दर्शनपत है। (४) केवल विध्यर्थक वेदवाक्य शब्दप्रमाण है, जिनके सन्निवर्ष से परोक्ष त विषयो का ज्ञान होता है। १५) दिनमें नही खाकर भी देवदत्त मोटा है तो पता चलता है कि यह अवश्य रातको खाता होगा' यह अर्थापत्तिका उदाहरण है। ३ कुमारिल भट्ट या 'भाट्टमत' की अपेक्षा ( षड्दर्शन समुच्चय ७१-७६/७१-७३), (स्या. मं/परि-ड/०६२); (भारतीय दर्शन ) । (१) प्रमाके करण को प्रमाण कहते है वह छह प्रकार है-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति व अनुपलब्धि । (२) प्रत्यक्ष ज्ञानमें केवल दो प्रकारका सन्निकर्ष होता है-संयोग व संयुक्ततादात्म्य । समवाय नामका कोई तीसरा सम्बन्ध नही है। अन्य सब कथन गुरुमतवत् है। (३) अनुमानमें तीन अवयव है-प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण, अथवा उदाहरण,
उपनय व निगमन । (४) ज्ञात शब्दमे पदार्थका स्मरणात्मक ज्ञान होने पर जो वाक्यार्थका ज्ञान होता है, वह शब्द प्रमाण है। वह दो प्रकारका है-पौरुषेय व अपौरुषेय । प्रत्यक्ष-द्रष्टा ऋषियों के वाक्य पौरुषेय तथा वेदवाक्य अपौरुषेय है। वेदवाक्य दो प्रकारके है-सिद्धयर्थक व विधायक । स्वरूपप्रतिपादक वाक्य सिद्धयर्थक है। आदेशात्मक व प्रेरणात्मक वाक्य विधायक है। विधायक भी दो प्रकार है-उपदेश व आदेश या अतिदेश । (१) अर्थापत्तिका लक्षण प्रभाकर भट्टवत है, पर यहाँ उसके दो भेद है-दृष्टार्थापत्ति
और श्रुतार्थापत्ति । दृष्टार्थापत्ति का उदाहरण पहले दिया जा चुका है। श्रुतार्थापत्तिका उदाहरण ऐसा है कि 'देवदत्त घर पर नहीं है' ऐसा उत्तर पानेपर स्वतः यह ज्ञान हो जाता है कि 'वह याहर अवश्य है। (६) प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे जो सिद्ध न हो वह पदार्थ है ही नहीं' ऐसा निश्चय होना अनुपलब्धि है। ८. प्रामाण्य विचार (स्या. मं /परि-ड./४३२): (भारतीय दर्शन)। १. प्रभाकर मिश्र या गुरुमतकी अपेक्षा ज्ञान कभी मिथ्या व भ्रान्ति रूप नहीं होता। यदि उसमे सशय न हो तो अन्तर ग झंयकी अपेक्षा वह सम्यक् ही है। सीपीमें रजतका ज्ञान भी ज्ञानाकारकी अपेक्षा सम्यक् ही है। इसे अख्याति कहते है। स्वप्रकाशक होनेके कारण वह ज्ञान स्वय प्रमाण है। इस प्रकार यह स्वत प्रामाण्यवादी है। २. कुमारिलभट्ट या 'भाट्टमत' की अपेक्षा मिध्याज्ञान अन्यथाख्याति है। रज्जूमें सर्पका ज्ञान भी सम्यक् है, क्योकि, भय आदिको अन्यथा उत्पत्ति सम्भव नहीं है। पीछे दूसरेके अतलानेसे उसका मिथ्यापना जाना जाये यह दूसरी बात है। इतना मानते हुए भी यह ज्ञानको प्रकाशक नही मानता। पहले 'यह घट है ऐसा ज्ञान होता है, पीछे 'मै ने घट जाना है। ऐसा ज्ञातता नामक धर्म उत्पन्न होता है। इस ज्ञाततासे ही अर्थापत्ति द्वारा ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध होता है। इसलिए यह परत' प्रामाण्यवादी है। ३. मण्डन-मुरारी या 'मिश्रमत'की अपेक्षा पहले 'यह घट है। ऐसा ज्ञान होता है, फिर 'मैं घट को जाननेवाला हूँ' ऐसा ग्रहण होता है। अत. यह भी ज्ञानको स्वप्रकाशक न माननेके कारण परत. प्रामाण्यवादी है। ६. जैन व मीमांसा दर्शनकी तुलना ( स्था. म /परि-ड./पृ. ४३४) । (१) मीमासक लोग वेदको अपौरुषेय व स्वतः प्रमाण वेदविहित हिसा यज्ञादिकको धर्म, जन्मसे ही वर्ण व्यवस्था तथा ब्राह्मणको सर्वपूज्य मानते है। जैन लोग उपरोक्त सर्व बातोका कडा विरोध करते हैं। उनकी दृष्टिमें प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग ही चार वेद है, अहिंसात्मक हवन व अग्निहोत्रादिरूप पूजा विधान ही सच्चे यज्ञ हैं, वर्ण व्यवस्था जन्मसे नहीं गुण व कर्मसे होती है, उत्तम श्रावक ही यथार्थ ब्राह्मण है। इस प्रकार दोनोंमें भेद है। (२) कुमारिलभट्ट पदार्थों को उत्पादव्ययधौव्यात्मक, अवयव अवयवीमें भेदाभेद, वस्तुको स्वकी अपेक्षा सत् और परकी अपेक्षा असद तथा सामान्य विशेषको सापेक्ष मानता है । अत किसी अंशमें वह अनेकान्तवादी है । इसकी अपेक्षा जैन व मीमांसक तुल्य है। (३) [तत्त्वोकी अपेक्षा जैन व मीमांसकोकी तुलना वैशेषिकदर्शनवत् ही है।] (दे० वैशेषिक दर्शन)। अन्य विषयोमे भी दोनोंमै भेद व तुल्यता है। जैसे - दोनों ही जरायुज, अण्डज व स्वेदज (संमूर्च्छन) शरीरोको पॉप
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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