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मन
पयोगं करोति एवंविधरूपं पश्यामि रसमास्वादयामि' इति, ततस्तइाधानीकृष्ण चक्षुरादीनि विषमेषु व्याप्रियन्ते ततश्चास्यानिन्द्रियत्वम् । प्रश्न-मन अपने विचारात्मक कार्यमें किसी अन्य इन्द्रकी सहायताको अपेक्षा नहीं करता, अतः उसे पशु इन्द्रियकी तरह इन्द्रिय ही कहना चाहिए अनिन्द्रिय नही । उत्तर- १. सूक्ष्मद्रव्यकी पर्याय होनेके कारण वह अन्य इन्द्रियोंकी भाँति प्रत्यक्ष व व्यक्त नहीं है, इसलिए अनिन्द्रिय है (गो. जी. ४४४/८६२) । (दे० मन / ७) २ चक्षु आदि इन्द्रियों के रूपादि विषयोग उपयोग करनेसे पहले मनका व्यापार होता है । वह ऐसे कि - 'मै शुक्लादि रूपको देख ऐसे पहले मनका उपयोग करता है। पीछे उसको निमित्त बनाकर 'मै इस प्रकारका रूप देखता हूँ या रसका आस्वादन करता हूँ' इस प्रकार से चक्षु आदि इन्द्रियाँ अपने विषयो में व्यापार करती है । इसलिए इसको अनिन्द्रियपना प्राप्त है ।
९. द्रव्य व भाव मनका कथंचित् अवस्थायी व अनवस्थायीपना
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रा. या /२/११/६/४६८/३० स्वान्मतम् - यथा चक्षुरादि व्यपदेशभाज आत्मप्रदेशा अवस्थिता नियतदेशत्यासन तथा मनोमस्थितमस्ति अतएव तदनिन्द्रियमित्युच्यते, ततोऽस्य न पृथग्रहणमिति तज्ञ कि कारणम् । अनवस्थानेऽपि तन्निमित्तत्वात् । यत्र यत्र प्रणिधानं तत्र तत्र आत्मप्रदेशाला संख्येयभागमिता मनोव्यपदेशभा । रा बा /५/१६/२२-२३/४७२/११ स्यादेतत्-अस्थायि मन न तस्य निवृत्तिरिति न कि कारणम्। अनन्तरसमयप्रच्युते । मनस्त्वेन हि परिणताः गला गुणदोषविचारस्मरणादिकार्य कृत्वा तदनन्तरसमय एव मनस्त्वात् प्रच्यवन्ते । नायमेकान्तः -- अवस्था यैव मन. इति कृत...द्रव्यायदिशान्मनः स्यादमस्थायि पर्यायार्यादेशाय स्वादनवस्थायि पक्ष आदि इन्द्रियोंके आत्मप्रदेश नियतदेशमै अवस्थित है, उस तरह मनके नहीं है, इसलिए उसे अनिन्द्रिय भी कहते है और इसीलिए उसका पृथ ग्रहण ही किया गया है। उत्तर- यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनवस्थित होनेपर भी वह क्षयोपशमनिमित्तक तो है ही जहाँ जहाँ उपयोग होता है, वहाँ-वहाँ अंगुल असंख्यात भाग प्रमाण आत्मप्रदेश मनके रूपसे परिणत हो जाते है। प्रश्न-मन अवस्थायी है, इसलिए उसकी (उपरोक्त प्रकार) निवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर--नहीं, क्योंकि, जगल मनरूपसे परिणत हुए थे उनकी मनपा गुणदोष मनरूपता, विचार और स्मरण आदि कार्य कर लेनेपर, अनन्तर समय में नष्ट हो जाती है, आगे वे मन नहीं रहते । यहाँ यह एकान्स भी नहीं समझना चाहिए कि मन अवस्थायी ही है। द्रव्यार्थिकनयसे वह कच अस्थायी है और पर्यायार्थिक नयसे अनवस्थायी (जन्मसे मरण पर्यन्त जीवका क्षयोपशमरूप सामान्य भावमन तथा कमलाकार द्रव्यमन वह वह ही रहते हैं, इसलिए वे अवस्थायी हैं, और प्रत्येक उपयोग के साथ विवक्षित आत्मप्रदेशो में ही भावमनकी निर्वृति होती है तथा उस द्रव्य मनको मनपना प्राप्त होता है, जो उपयोग अनन्तर समयमें ही नष्ट हो जाता है, इसलिए वे दोनो अनवस्थायी है)
१०. मनको अन्त:करण करनेमें हेतु
सि./१/१४/१०/- तदन्तकरणमिति चोच्यते । गुणदोषविचारस्मरणादिव्यापारे इन्द्रियानपेक्षत्वाच्चक्षुरादिवत् बहिरनुपलब्धेश्च अन्तर्गत करणमन्तकरणमित्युच्यते । इसे गुण और दोषोके विचार और स्मरण करने आदि कार्यों में इन्द्रियोंकी अपेक्षा नहीं सेनी पडती, तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंके समान इसकी बाहर में उपलब्धि भी नहीं होती, इसलिए यह अन्तर्गत करण होनेसे अन्तःकरण कहलाता है । ( रा. वा./१/१४/३/५/२१:५४/११/३१/४०२/३१
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११. भावमनके अस्तित्वकी सिद्धि
रा. मा./१/११/५-०/६१/१२ अत्राह कथमवगम्यते अप्रत्यक्षं तह 'अस्ति' इति अनुमानात्तस्याधिगम...डोसानुमान युगपज्ज्ञानक्रियापर्मिनस हेतुः | ६|... अनुस्मरणदर्शनाच 100 रा. वा./५/११/११/४०२/२८ पृथगुपकारानुपलम्भादभावइति यः न गुणदोषविचारादिदर्शनात् । ३११ प्रश्न- मन यदि अप्रत्यक्ष है तो उसका ग्रहण कैसे हो सकता है। उत्तर- अनुमानसे उसका अधिगम होता है। 1 प्रश्न - यह अनुमान क्या है। उत्तर- इन्द्रियाँ व उनके विषय पदार्थोंके होनेपर भी जिसके न होनेसे युगपद्य ज्ञान और क्रियाएं नहीं होतीं, वही मन है। मन जिस-जिस इन्द्रिय को सहायता करता है उसी उसीके द्वारा क्रमश ज्ञान और क्रिया होती है । ( न्या. सू /९/१/१६) तथा जिसके द्वारा देखे या सुने गये पदार्थोंका स्मरण होता है, वह मन है। प्रश्न- मनका कोई पृथक कार्य नहीं देखा जाता इसलिए उसका अभाव है। उत्तर- नहीं, क्योंकि, गुण दोषोंका विचार व स्मरण आदि देखे जाते है। वे मनके ही कार्य है।
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१२. वैशेषिक मान्य स्वतन्त्र 'मन' का निरास ससि./५/१९/२८७/४ कश्चिदाह मनो व्यान्तर रूपादिपरिणामरहितमणुमात्रं तस्य पौद्गलिकत्वमयुक्तमिति । तदयुक्तम् । कथम् । उच्यते--- सदिन्द्रियेणारमना च समद्ध वा स्यादसंमद्ध था । मद्य तथात्मन उपकारकं भवितुमर्हति इन्द्रियस्य च साचिव्यं न करोति । अथ संभद्रम्, एकस्मिन्प्रदेशे संबद्ध सत्तवतु इतरेषु प्रदेशेषु उपकारं न कुर्याद अनवादस्य अलातचक्रवत्परिभ्रमणमिति चेत् नः तरसामध्यभागात अमूर्तस्यात्मनो निष्क्रियस्यादृष्ट गुण निष्क्रिय' सन्नम्यत्र क्रियारम्भे न समर्थ । प्रश्न( वैशेषिक मतका कहना है कि ) मन एक स्वतन्त्र द्रव्य है । वह रूपादिरूप परम रहित है. और अनुमात्र है, इसलिए उसे पौगलिक मानना अयुक्त है। उत्तर- यह कहना अयुक्त है । वह इस प्रकार कि - मन आत्मा और इन्द्रियोंसे सम्बद्ध है या असम्बद्ध । यदि असम्बद्ध है तो वह आत्माका उपकारक नही हो सकता और इन्द्रियोकी सहायता भी नहीं कर सकता। यदि सम्बद्ध है तो जिस प्रदेशमें वह अणु मन सम्बद्ध है, उस प्रदेशको छोडकर इतर प्रदेशोंका उपकार नहीं कर सकता। प्रश्न -- अदृष्ट नामक गुणके बरासे यह मन अलातचक्रवत् सर्व प्रदेशो में घूमता रहता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि जर नामके गुणमें इस प्रकारको सामर्थ्य नहीं पायी जाती। यह अमूर्त और निष्क्रिय आत्माका अदृष्ट गुण है । अत: यह गुण भी निष्क्रिय है, इसलिए अन्यत्र क्रियाका आरम्भ करनेमें असमर्थ है ( रा मा./५/११/२४-२६/४०२/१) (मो. जी. जी. प्र. ६०६/ / १०६२/७) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
मन
SWIS
रा. वा./५/११/२४/४७२ / १६ स्यादेतत - एकद्रव्यं मनः प्रत्यात्मं वर्तते इति न कि कारण परमाणुमाया।..उदं विचार्यतेतव आत्मेन्द्रियाभ्यां सर्वात्मना वा संबन्ध्येत्, तदेकदेशेन वा । यदि सर्वाना सोरात्मेन्द्रिययोरन्तरभावाद व्यतिरितयोरन्यतरेण सर्वात्मना संबन्धः स्यात अणोर्मनस' नोभयाभ्यां युगपत् विरोधाद अन्येन देन आमना संबध्यते अन्न देनेद्रियेण एवं सति प्रदेश त्वं मनस' प्रसक्तम् । किंच यद्यात्मा मनसा सर्वात्मना संगध्यते; मनसोऽणुत्वात आत्मनोऽप्यणुत्वम्, आत्मनो विभुत्वात मनसो या विभुर प्रसज्यते यदेकदेशेमात्मा मनसा संयुज्यते नमु प्रदेशमश्वमात्मन' प्रस..प्रदेशतिवाद वामन कश्चिद प्रवेशो ज्ञातावियुक्त कश्चित प्रदेशो ज्ञानादिविरहित इति [...] थेन्द्रियेण मनो यदि सर्वात्मना संयुज्यते इन्द्रियस्याशुमा मनसो वेन्द्रियमात्रमागरम अर्थकदेशेन मम इन्द्रियेण संयुज्यते
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