Book Title: Anekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अप्रेल १९७१ *********** ********************* নীকান वर्ष २४ : किरण १ ग्वालियर सग्रहालय में प्रदर्शित ग्वालियर किले से प्राप्त मध्यकालीन तीर्थकर प्रतिमा समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र Ans: Read MENT NO हैमासिक ********** Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्र० १. जिनवर स्तवनम् मुनि पचनन्दि २. भारतीय दर्शन की एक प्रप्राप्ति कृति भ्रष्टसहस्री- -डा० दरबारी लाल कोठिया ३. जैन शिल्प में बाहुवलीमारुतिनंदन प्रसाद तिवारी ४. दशबाह्य परियह पं० रतनलाल कटारिया ५. ग्वालियर में जैन धर्म - गोपीलाल अमर ६. सम्यग्दर्शन एक अध्ययन प० बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री ७. जैन परम्परा के कुछ अज्ञात साधुश्री रामवल्लभ सोमानी ८. अज्ञात जैन कवि और उनकी रचनाएडा० गंगाराम गर्ग ६. त्रिपुरी की कलचुरि कालीन जैन प्रतिमाए - कस्तूरचन्द 'सुमन' एम. ए. १०. मानव की स्वाधीनता का संघर्ष प० बलभद्र जैन ११. हिन्दी के कुछ रचनाएं परमन्दिरजने शास्त्री १२. साहित्य समीक्षा-रमन शास्त्री जैन कवि और अप्रकाशित सम्पादक मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ सा पृ० १ २ ε १० १७ २१ १ ३८ ४० ४२ ४३ ४७ अनेकान्त के ग्राहकों से अनेकान्त पत्र के ग्राहकों से निवेदन है कि वे अने कान्त का वार्षिक मूल्य ६ ) रुपया मनीग्रार्डर से शीघ्र भिजवा दे, अन्यथा वी. पी. से १.२५ पैसे अधिक देना पड़ेगा। जिन ग्राहको ने अपने पिछले २३ वे वर्ष का चन्दा अभी तक भी नहीं भेजा है, ये अब २१वें और २४वे दोनो वर्षों का १२ रुपया मनी आर्डर से अवश्य भिजवा व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर, २१ दरियागज दिल्ली पुस्तक प्रकाशकों से जैन समाज मे अनेक सस्थाए जैन साहित्य का प्रकाशन कार्य कर रही है। वीर सेवा मन्दिर की नारी अन्वेषक विद्वानों के लिए अत्यन्त उपयोगी है । अनेक शोध-खोज करने वाले विद्वान अपनी थीसिस के लिए योग्य सामग्री वीर सेवा मन्दिर के पुस्तकालय से प्राप्त करते है । विद्वानों को चाहिए कि वे उससे अधिक से अधिक लाभ उठायें। प्रकाशको को चाहिए वे अपने-अपने प्रकाशन की प्रतियाँ यहाँ भिजवा कर पुण्य लाभ ले । अनेकान्त में प्रकाशित मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं । व्यवस्थापक वीर सेवामन्दिर, दरियागज विचारों के लिए सम्पादक -व्यवस्थापक अनेकान्त Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमवनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २४ वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० सं० २०२७ अप्रेल किरण १ १९७१ जिनवरस्तवनम् दिठे तुमम्मि जिरणवर वज्जइ पट्टो दिरणम्मि प्रज्जयणे । सहलत्तणेग मज्झे सव्वदिपारणं पि सेसाणं ॥११॥ दिठे तुमम्मि जिरणवर भवरणमिणं तुज्झ मह महग्यतरं । सव्वाणं पि सिरोणं संकेयघरं व पडिहाइ ॥१२॥ -मुनि पपनन्दि अर्थ-हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर शेष सबही दिनों के मध्य में आज के दिन सफलता का पट्ट बांधा गया है । अभिप्राय यह है कि इतने दिनों में आज का यह मेरा दिन सफल हुआ है, क्योंकि, आज मुझे चिरसंचित पाप को नष्ट करने वाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर यह तुम्हारा महा-मूल्यवान घर (जिनमन्दिर) मुझे सभी लक्ष्मियों के संकेत गृह के समान प्रतिभासित होता है । अभिप्राय यह है कि यहाँ आपका दर्शन करने पर मुझे सब प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त होने वाली है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची अनेकान्त के ग्राहकों से क्र० पृ० अनेकान्त पत्र के ग्राहकों से निवेदन है कि वे अने कान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मनीआर्डर से शीघ्र १. जिनवर-स्तवनम्-मुनि पद्मनन्दि भिजवा दे, अन्यथा वी. पी. से १.२५ पैसे अधिक देना २. भारतीय दर्शन की एक अप्राप्ति कृति पडेगा। ___ अष्टसहस्री-डा० दरबारी लाल कोठिया २ जिन ग्राहकों ने अपने पिछले २३ वे वर्ष का चन्दा ३. जैन शिल्प में बाहुवली | अभी तक भी नही भेजा है, वे अब २३वें और २४वे मारुतिनदन प्रसाद तिवारी दोनो वर्षों का १२ रुपया मनी प्रार्डर से अवश्य भिजवा ४. दशबाह्य-परिग्रह-पं० रतनलाल कटारिया ५. ग्वालियर में जैन धर्म-गोपीलाल अमर व्यवस्थापक 'अनेकान्त' ६. सम्यग्दर्शन एक अध्ययन वीर सेवामन्दिर, २१ दरियागज प. बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री दिल्ली ७. जैन परम्परा के कुछ अज्ञात साधु-- श्री रामवल्लभ सोमानी ८. अज्ञात जैन कवि और उनकी रचनाए डा० गंगागम गर्ग ६. त्रिपुरी की कलचुरि कालीन जैन प्रतिमाए पुस्तक काशकों से कस्तूरचन्द 'सुमन' एम. ए. जैन समाज मे अनेक सस्थाए जैन साहित्य का १०. मानव को स्वाधीनता का सघर्ष प्रकाशन कार्य कर रही है। बीर सेवा मन्दिर की लायब्रेरी ५० बलभद्र जैन अन्वेषक विद्वानो के लिए अत्यन्त उपयोगी है। अनेक ११. हिन्दी के कुछ अनाव जैन कवि और अप्रकाशित शोध-खोज करने वाले विद्वान अपनी थीसिस के लिए रचनाए-परमाद जनशास्त्री योग्य सामग्री वीर सेवा मन्दिर के पुस्तकालय से प्राप्त १२. साहिय-समीक्षा-परमानंद शास्त्री करते है। विद्वानों को चाहिए कि वे उससे अधिक से अधिक लाभ उठावे । प्रकाशको को चाहिए वे अपने-अपने प्रकाशन की प्रतियाँ यहाँ भिजवा कर पुण्य लाभ ले । व्यवस्थापक वीर सेवामन्दिर, दरियागज सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा. प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा __ अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम महम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्षसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष २४ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० सं० २०२७ अप्रेल १९७१ किरण १ ॥ जिनवरस्तवनम् दिठे तुमम्मि जिरणवर वज्जइ पट्टो दिम्मि प्रज्जयणे। सहलत्तणेण मज्झे सव्वदिपारणं पि सेसाणं ॥११॥ दिढे तुमम्मि जिरणवर भवरणमिणं तुझ मह महग्यतरं । सव्वाणं पि सिरोणं संकेयघरं व पडिहाइ ॥१२॥ -मुनि पद्मनन्दि अर्थ-हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर शेष सबही दिनों के मध्य में आज के दिन सफलता का पट्ट बांधा गया है । अभिप्राय यह है कि इतने दिनों में आज का यह मेरा दिन सफल हुआ है, क्योंकि, आज मुझे चिरसंचित पाप को नष्ट करने वाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। हे जिनेन्द्र ! प्रापका दर्शन होने पर यह तुम्हारा महा-मूल्यवान घर (जिनमन्दिर) मुझे सभी लक्ष्मियों के सकेत गृह के समान प्रतिभासित होता है । अभिप्राय यह है कि यहाँ आपका दर्शन करने पर मुझे सब प्रकार की लक्ष्मी प्राप्त होने वाली है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० दरबारीलाल कोठिया भारतीयदर्शन की एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहस्त्री प्राचार्य विद्यानन्द-रचित 'भ्रष्टसहस्त्री' जनदर्शन की ही नहीं, समग्र भारतीय दर्शन की एक प्रपूर्व, अद्वितीय श्रौर उच्चकोटि की व्याख्या कृति है । भारतीय दर्शन वाङ्मय मे जो विशेष उल्लेखनीय उपलब्ध रचनाए है उनमे यह निःसन्देह बेजोड़ है। विषय, भाषा और शैली तीनो से यह अपनी साहित्यिक गरिमा और स्वस्थ, प्रसन्न तथा गम्भीर विचारधारा को विद्वन्मानस पर श्रकित करती है । सम्भवत: इसी से यह प्रतीत में विद्वद्-ग्राह्म मौर उपास्य रही है तथा भाज भी निष्पक्ष मनीषियों द्वारा अभिनन्दनीय एवं प्रशंसनीय है । यहा पर हम उसी का कुछ परिचय देने का प्रयत्न करेंगे । मूलग्रन्थ : देवागम -- यह जिस महत्त्वपूर्ण मूल ग्रन्थ को व्याख्या है वह विक्रम संवत् की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान् प्रभावक दार्शनिक प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित 'देवागम' है। इसी का दूसरा नाम 'प्राप्तमीमांसा' है। अतः यह 'भक्तामर', 'कल्याणमन्दिर' प्रादि स्तोत्रों की तरह 'देवागम' पद से प्रारम्भ होता है, अतः यह 'चैवागम' कहा जाता है और प्रकलङ्क, विद्यानन्द', वादिराज, हस्तिमल्ल" प्रादि प्राचीन ग्रन्थकारों ने इसका इसी नाम से उल्लेख किया है । और 'प्राप्तमीमांसा' नाम स्वयं समन्तभद्र ने ग्रन्थान्त मे दिया है, इससे यह 'प्राप्तमीमांसा' नाम से भी विख्यात है। विद्यानन्द ने इस नाम का १. 'देवागम- नभोयान... ' - देवागम का ० १ । २. 'कृत्वा विव्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ।' -भ्रष्टश० प्रार० १०२ । ३. 'इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेदे शास्त्र...' - प्रष्टस० पृ० २६४ । ४. 'देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदश्यंते ।' पाश्वनाथचरित । ५. 'देवागमन सूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्वितः ।' - विक्रान्तकौरव | ६. ' इतीवमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् ।' - देवा० का० ११४ । ७. भ्रष्टस० पृ० १, मङ्गलपद्य, प्राप्तपरीक्षा पृ० २३३, २६२ । भी अपने ग्रन्थों में उपयोग किया है। इस तरह यह कृति जैन साहित्य मे दोनो नामो से विश्रुत है । इसमे श्राचार्य समन्तभद्र ने प्राप्त ( स्तुत्य ) कौन हो सकता है, उसमे प्राप्तत्व के लिए अनिवार्य गुण ( असाधारण विशेषताए) क्या होना चाहिए, इसकी युक्ति पुरस्सर मीमासा (परीक्षा) की है और यह सिद्ध किया है कि पूर्ण निर्दोषता, सर्वज्ञता और युक्तिशास्त्राविरोधिवक्तृता ये तीन गुण प्राप्तत्व के लिए नितान्त वांछनीय और अनिवार्य है । अन्य वैभव शोभामात्र है । अन्ततः ऐसा प्राप्तत्व उन्होने वीर जिन में उपलब्ध कर उनकी स्तुति की तथा भन्यो ( एकान्तवादियों) के उपदेशो - एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक उनके उपदेश की है। स्याद्वाद की स्थापना इसे हम जब उस युग के सन्दर्भ मे देखते हैं तो प्रतीत होता है कि वह युग ही इस प्रकार का था। इस काल में प्रत्येक सम्प्रदाय प्रवर्तक हमें अन्य देव तथा उसके मत की आलोचना और अपने इष्ट देव तथा उसके उपदेश की ८. दोषावरणयोर्हानिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥ - देवागम का० ४, ५, ६ ६. . इति स्याद्वाद - संस्थितिः ॥ ' - देवागम का. ११३ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन की एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहस्त्री सिद्धि करता हुमा मिलता है। बौद्धदर्शन के पिता कहे हुए प्रा. वादिराज ने उसे सर्वज्ञ का प्रदर्शक और हस्तिजाने वाले प्रा. दिग्नाग ने भी अन्य के इष्टदेव तथा मल्ल ने सम्यग्दर्शन का समुत्पादक बतलाया है। उनके उपदेश (क्षणिकवाद) की स्थापना करते हुए इसमें दश परिच्छेद है, जो विषय-विभाजन की 'प्रमाणसमुच्चय' मे बुद्ध की स्तुति की है। इसी 'प्रमाण- दृष्टि से स्वयं ग्रन्थकार द्वारा अभिहित हैं। वह स्तवरूप समुच्चय' के समर्थन मे धर्मकीर्ति ने 'प्रमाणवातिक' और रचना होते हए भी दार्शनिक कृति है। उस काल में प्रज्ञाकर ने 'प्रमाणवातिकालंकार' नाम की व्याख्याएं दार्शनिक रचनाएं प्रायः पद्यात्मक तथा इष्टदेव की गुणलिखी हैं । पाश्चर्य नहीं कि समन्तभद्र ने ऐसी ही स्थिति स्तुति कप में रची जाती थी, बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की में प्रस्तुत 'देवागम' की रचना की है और उस पर माध्यमिक कारिका और विग्रहव्यावर्तनी, वसुबन्धु की प्रकलह देव ने धर्मकीर्ति की तरह 'देवागमभाष्य' (अष्ट. विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि (विशतिका व त्रिशत्का), दिग्नाग शती) तथा विद्यानन्द ने प्रज्ञाकर की भांति 'देवागमा- का प्रमाण समुच्चय प्रादि रचनाएं इसी प्रकार की दार्शलङ्कार' (प्रस्तुत प्रष्टसहस्री) रचा है। 'देवागम' एक निक हैं और पद्यात्मक शैली में रची गयी हैं । समन्तभद्र स्तव ही है, जिसे प्रकलङ्क ने स्पष्ट शब्दों मे 'भगवत्स्तव' ने स्वयं अपनी (देवागम, स्वयम्भूस्तोत्र पोर युक्त्यनुकहा है। इस प्रकार 'देवागम' कितनी महत्त्व की रचना शासन) तीनों दार्शनिक रचनाएं कारिकात्मक और है, यह सहज में अवगत हो जाता है। स्तुतिरूप में ही रची हैं। यथार्थ मे यह इतना अर्थगर्भ और प्रभावक ग्रन्थ है प्रस्तुत देवागम में भावकान्त-प्रभावकान्त, द्वेतकान्तकि उत्तरकाल मे इस पर अनेक प्राचार्यों ने भाष्य व्याख्या- अद्वतकान्त. नित्यकान्त-अनित्यकान्त, अन्यतैकान्त-मनन्यटिप्पण प्रादि लिखे है। प्रकलङ्कदेव की अष्टशती, उल्लेख अपने 'प्रष्टसहस्री टिप्पण' (पृ. १) में विद्यानन्द की अष्टसहस्री और वसुनन्दि की देवागमवृत्ति किया है । उनके इस उल्लेख से किसी अन्य देवागमइन तीन उपलब्ध टीकामों के अतिरिक्त कुछ व्याख्याए व्याख्या के भी होने की सूचना मिलती है। पर वह पोर लिखी गयी हैं, जो प्राज अनुपलब्ध है और जिनके भी प्राज अनुपलब्ध है। प्रकलदेव ने मप्टशती सकेत मिलते हैं । देवागम की महिमा को प्रदर्शित करते (का० ३३ विवृति) में एक स्थान पर 'पाठान्तर १. '...स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः। मिदं बहुसंगहीतं भवति' वाक्य का प्रयोग किया है, अष्टश० मंग० प० २। जो देवागम के पाठ-भेदों और उसकी अनेक व्याविद्यानन्द ने प्रष्टसहस्री (पृ. २६४) के अन्त में ख्यानों का स्पष्ट संकेत करता है। 'देवागम के प्रकलङ्क देव के समाप्ति-मङ्गल से पूर्व केचित्' शब्दों महत्त्व, गाम्भीर्य और विश्रुति को देखते हुए कोई के साथ 'देवागम' के किसी व्याख्याकार की प्राश्चर्य नहीं कि उस पर विभिन्न कालों में अनेक व्याख्या का 'जयति जगति' मादि समाप्ति- टीका टिप्पणादि लिखे गये हों। मङ्गल पद्य दिया है । और उसके बाद ही प्रकलङ्क ३. स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देब की अष्टशती का समाप्ति-मङ्गल नि है। इससे प्रतीत होता है कि प्रकलङ्क से पूर्व भी ४. देवागमनसूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्वितः।-वि. को। 'देवागम' पर किसी प्राचार्य की व्याख्या रही है, ५. विद्यानन्द ने प्रकलङ्क के 'स्वोक्तपरिच्छेवे' (भ. जो विद्यानन्द को प्राप्त थी या उसकी उन्हें जान- श. का. ११४) शब्दों का अर्थ "स्वेनोक्ताः परि. कारी थी और उसी पर से उन्होंने उल्लिखित च्छेदा वश यस्मिस्तत् स्वोक्तपरिच्छेदमिति (शास्त्र) समाप्ति-मङ्गल पद्य दिया है। लघु समन्तभद्र (वि. तत्र' (प्र० स० पृ. २६४) यह किया है। उससे सं० १३वीं शती) ने प्रा. वादीभसिंह द्वारा 'प्राप्त- विदित है कि देवागम में दश परिच्छेद स्वयं समन्तमीमांसा' के उपलालन (व्याख्यान) किये जाने का मद्रोक्त हैं। PR का Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, वर्ष २४,कि.१ अनेकान्त तैकान्त, अपेक्षेकान्त-अनपेक्षकान्त, हेत्वकान्त-महेत्वकान्त, च्छेद के मारम्भ में जो ग्रन्थ-प्रशंसा में पद्य दिया है उसमें विज्ञानकान्त - बहिरकान्त, देवकान्त - पौरुषेयकान्त, उन्होंने इसका 'प्रष्टशती' नाम भी निर्दिष्ट किया है।' पापैकान्त - पुण्यकान्त, बन्धकारणकान्त - मोक्षकारणकान्त सम्भवत: आठ सौ श्लोक प्रमाण रचना होने से इसे उन्होने जसे एकान्तवादों की समीक्षापूर्वक उनमें सप्तभंगी (सप्त- 'अष्टशती' कहा है। इस प्रकार यह व्याख्या देवागम-विवृति, कोटियों की योजना द्वारा स्यावाद (कचिद्वाद) की प्राप्तमीमांसाभाष्य और प्रष्टशती इन तीन नामों से जैन स्थापना की गई है । स्याद्वाद की इतनी स्पष्ट और वाङ्गमय में विश्रुत है। इसका प्रायः प्रत्येक स्थल इतना विस्तृत विवेचना इससे पूर्व जैन दर्शन के किसी प्रथ में जटिल एवं दुरवगाह है कि साधारण विद्वानों का उसमे उपलब्ध नही होती।' सम्भवतः इसी से 'देवागम' स्याद्वाद प्रवेश सम्भव नहीं है। उसके मर्म एवं रहस्य को अवगत की सहेतुक स्थापना करने वाला एक अपूर्व एवं प्रभावक करने के लिए प्रष्टसहस्री का सहारा लेना अनिवार्य है। ग्रन्थ माना जाता है और उसके स्रष्टा प्राचार्य समन्तभद्र भारतीय दर्शन-साहित्य में इसके जोड़ की रचना मिलना को 'स्याद्वादमार्गाग्रणी" कहा जाता है। व्याख्याकारों ने दुर्लभ है। न्याय-मनीषी उदयन की न्याय कुसुमांजलि से इसपर अपनी व्याख्याएँ लिखना गौरव समझा और अपने इसकी कुछ तुलना की जा सकती है । अष्टसहस्री के को भाग्यशाली माना है। अध्ययन मे जिस प्रकार कष्टसहस्री का अनुभव होता है व्याल्याएं उसी प्रकार इस अष्टशती के एक-एक स्थल को समझने इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गयी है, जैसा कि मे भी कष्टशती का अनुभव उसके अभ्यासी को होता है । हम पहने उल्लेख कर पाए है । पर माज तीन ही उपलब्ध २. देवागमालकार हैं और वे निम्नप्रकार है: यह दूसरी व्याख्या ही इस निबन्ध का विषय है। १. देवागमविवृति (मष्टशती), २. देवागमा- इस पर हम आगे प्रकाश डाल रहे है। लंकार (प्रष्टसहस्री) और ३. देवागमवृत्ति । ३. देवागम-वृत्ति १. देवागमविवृति यह लघु परिमाण की व्याख्या है। इसके कर्ता प्रा. इसके रचयिता प्रा० प्रकलंकदेव हैं । यह उपलब्ध वसुनन्दि है। यह न प्रष्टशती की तरह दुरवगम है और व्याख्याओं में सबसे प्राचीन और प्रत्यन्त दुरूह व्याख्या है। न प्रष्टसहस्री के समान विस्तृत एवं गम्भीर है। कारिपरिच्छेदों के अन्त में जो समाप्ति पुष्पिका वाक्य पाये जाते कानों का व्याख्यान भी लम्बा नही है और न दार्शनिक हैं उनमे इसका नाम 'प्राप्त-मीमांसा-भाष्य' (देवागम-भाष्य) विस्तृत ऊहापोह है। मात्र कारिकाओं और उनके पदभी उपलब्ध होता है।' विद्यानद ने प्रष्टसहस्रीके तृतीय परि वाक्यों का अर्थ तथा कही-कहीं फलितार्थ प्रतिसक्षेप में प्रस्तुत किया गया है । पर हाँ, कारिकानों के हार्द को १. 'षटखण्डागम' में 'सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता' समझने में यह वृत्ति देवागम के प्राथमिक अभ्यासियों के (ध० पू० १ पृ) जैसे स्थलों में स्यावाद का स्पष्टतया लिए अत्यन्त उपकारक एव विशेष उपयोगी है । वृत्तिकार विधि और निषेध द्रन दो ही वचन प्रकारों प्रति- ने अपनी इस वृत्ति के अन्त मे लिखा है कि 'मै मन्द बुद्धि पादन पाया जाता है। प्रा० कुन्दकुन्द ने इन दो में । ४. अष्टशती प्रथितार्था साष्टसहस्री कृतापि सक्षेपात् । पाँच वचन प्रकार और मिलाकर सात वचन प्रकारों विलसद कलंकधिषणः प्रपंचनिचितावबोद्धव्या ।। से वस्तु-निरूपण का निर्देश किया है। पर उसका सष्टस० पृ० १७८। विवरण एवं विस्तृत विवेचन नहीं किया । (पंचास्ति 'श्रीमत्समन्तभद्राचार्यस्य.............देवागमाख्यायाः गा० १४)। कृतेः संक्षेपभूतं विवरणं कृतं श्रुतविस्मरणशीलेन २. विद्यानन्द, अष्टस० पृ० २६५ । वसुनन्दिना जडमतिनाऽऽत्मोपकाराय।'-देवागमवृत्ति ३. 'इत्याप्तमीमांसाभाष्ये दशमः परिच्छेदः ॥छ०१०॥' पृ० ५०, स. जैन ग्रन्थमाला, काशी। १० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन को एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहस्त्री और विस्मरणशील व्यक्ति हैं। मैंने अपने उपकार के लिए सहस्री' देवागम की दूसरी उपलब्ध व्याख्या है। देवागम ही 'देवागम' कृति का यह सक्षेप मे विवरण किया है।' का अलकरण (व्याख्यान) होने से यह देवागमालकार या उनके इस स्पष्ट प्रात्म-निवेदन से इस वत्ति की लघुरूपता देवागमल कृति तथा प्राप्तमीमासालकार या प्राप्तमीमासाऔर उसका प्रयोजन प्रवगत हो जाता है। लकृति नामो से भी उल्लिखित है और ये दोनो नाम यहाँ उल्लेखनीय है कि वसुनन्दि के समक्ष देवागम की अन्वर्थ हैं। 'प्रष्ट सहस्री' नाम भी पाठ हजार श्लोक ११४ कारिकानों पर ही मष्टशती और प्रष्टसहस्री उप- प्रमाण होने से सार्थक है । पर इसकी जिस नाम से विद्वानों लब्ध होते हुए तथा 'जयति जगति' आदि श्लोक को में अधिक विश्रुति है पौर जानी-पहचानी जाती है वह विद्यानन्द के निर्देशानुसार किसी पूर्ववर्ती प्राचार्य की नाम 'अष्टसहस्री' ही है : उपर्युक्त दोनों नामों की तरह देवागम व्याख्या का समाप्ति-मङ्गलपद्य जानते हुए भी 'अष्ट सहस्री' नाम भी स्वयं विद्यानन्द प्रदत्त है।' मुद्रित उन्होने उसे देवागम की ११५ वीं कारिका किस प्राधार प्रति' के अनुसार उसके दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, पर माना और उसका भी विवरण किया? यह चिन्तनीय सातवे, आठवे और दशवे परिच्छेदो के प्रारम्भ में तथा है। हमारा विचार है कि प्राचीन काल मे साधुप्रो मे दशवे के अन्त मे जो अपनी व्याख्या-प्रशंसा मे एक-एक देवागम का पाठ करने तथा उसे कण्ठस्थ रखने की पद्य विद्यानन्द ने दिए हैं उन सब मे 'प्रष्टसहस्री नाम परम्परा रही है। जैसा कि पात्रकेशरी (पात्रस्वामी) की उपलब्ध है। नववें परिच्छेद के प्रादि में जो प्रशसा-पद्य कथा में निर्दिष्ट चारित्रभूषण मुनि को उसके कण्ठस्थ है उसमें भी 'प्रष्टसहस्री' नाम अध्याहृत है क्योंकि वहाँ होने और अहिच्छत्र के श्री पार्श्वनाथ मन्दिर मे रोज पाठ 'सम्पादयति' क्रिया तो है, पर उसका कर्ता कण्ठत: उक्त करने का उल्लेख है। वसुनन्दि ने देवागम की ऐसी प्रतिपर नहीं है. जो अष्टसहस्री के सिवाय अन्य सम्भव नही है। से उसे कण्ठस्थ कर रखा होगा, जिस मे ११४ कारिकाओं रचना शैली और विषय-विवेचन के साथ उक्त अज्ञात देवागम व्याख्या का समाप्ति मङ्गल इसकी रचना-शैली बडी गम्भीर और प्रसन्न है। भाषा पद्य भी किसी के द्वारा सम्मिलित कर दिया गया होगा पनिमाजित और संयत है। व्याख्येय के अभिप्राय को व्यक्त और उस पर ११५ का संख्याङ्क डाल दिया होगा। वसुनन्दि करने के लिए जितनी पदावली की अावश्यकता है उतनी ने अष्टशती और अष्टसहस्री टीकाप्रो पर से जानकारी ही पदावली प्रयुक्त की गई है। वाचक जब इसे पढ़ता है एव खोज बीन किये विना देवागम का अर्थ हृदयगम रखने तो एक अविच्छिन्न और अविरल गति से प्रवाहपूर्ण के लिए यह देवागमवृत्ति लिखी होगी और उस मे कण्ठस्थ घारा उसे उपलब्ध होती है जिसमें वह अवगाहन कर सभी ११५ कारिकानों का विवरण लिखा होगा । और प्रानन्द-विभोर हो उठता है। समन्तभद्र और प्रकलंक इस तरह ११५ कारिकामों की वृत्ति प्रचलित हो गयी के एक-एक पद का मर्म तो स्पष्ट होता ही जाता है जान पड़ती है। १. प्राप्तपरीक्षा वृ. २३३, २६२, अष्टस. पृ. १ मङ्गल यह वृत्ति एक बार सन् १९१४, वी० नि० स०२४४० पद्य तथा परिच्छेदान्त में पाये जाने वाले समाप्ति में भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था काशी से पुष्पिकावाक्य । सनातन जैन ग्रन्थ माला के अन्तर्गत ग्रन्थाङ्क ७ के रूप मे २. 'जीयादष्टसहस्री...' (प्रष्ट. पृ. २१३), 'साष्टसहस्री तथा दूसरी बार निर्णय सागर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हो सदा जयतु ।' (प्रष्ट. २३१)। चुकी है। पर अब वह अलभ्य है। इसका पुन: अच्छे ३. १४५४ वि. सं. की लिखी पाटन-प्रति में ये प्रशंसा. संस्करण के रूप में मुद्रण अपेक्षित है। पद्य परिच्छेदों के अन्त में हैं। देवागमालंकारः प्रष्टसहस्त्री ४. सम्यगवबोधपूर्व पौरुषमपसारिताखिलानर्थम । प्रब हम अपने मूल विषय पर पाते हैं । पीछे हम देवोपेतमभीष्टं सर्व सम्पादयत्याशु ।।-प्रष्टस. यह निर्देश कर पाए है कि भा० विद्यानन्द की 'प्रष्ट पृ. २५६। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६, वर्ष २४, कि० १ अनेकान्त उसे कितना ही नव्य, भव्य पोर सम्बद्ध चिन्तन भी मिलता प्रस्तुत की एवं विस्तृत विशेष समीक्षा की है। इसी तरह है। विद्यानन्द ने इसमें देवागम की कारिकामो पोर विरोध', वैयधिकरण्य प्रादि पाठ दोषों की अनेकान्तवाद उनके प्रत्येक पद-वाक्यादि का विस्तार पूर्वक अर्थोदाटन में उद्भावना और उसका समाधान दोनों हमें सर्वप्रथम किया है। साथ में प्रकलंकदेव की उपयुक्त 'अष्टशती' के इस 'प्रष्टसहस्री' में ही उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक स्थल की मोर पद-वाक्यादि का भी विशद मर्य प्रष्टसहस्री में विद्यानन्द ने कितना ही नया चिन्तन और एवं मम प्रस्तुत किया है। 'प्रष्टशती' को 'प्रष्टसहस्री' में विषय-विवेचन समाविष्ट किया । विषय-नि ममानित इस तरह पात्मसात् कर लिया है कि यदि दोनो को महत्व एवं गरिमा भेद-सूचक पृथक्-पृथक् टाइपों (शीषाक्षरों) में न रखा। इसका सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन करने पर प्रध्येता जाय पोर 'प्रष्टशती' का टाइप बड़ा न हो तो पाठक को को यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति प्रतीव महत्त्वयह भेद करना दुस्साध्य है कि यह 'प्रष्टशती' का प्रश है पूर्ण और गरिमामय है। विद्यानन्द ने इस व्याख्या के पौर यह 'प्रष्टसहस्री' का। विद्यानन्द ने 'प्रष्टशती' के महत्व की उद्घोषणा करते हुए लिखा हैमागे, पीछे और मध्य की मावश्यक एवं प्रकृतोपयोगी श्रोतव्याऽष्टसहस्त्री श्रुतः किमन्यः सहस्र संख्यानः । सान्दभिक वाक्य रचना करके 'मष्टशती' को प्रष्टसहस्री विज्ञायते ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।। में मणि-प्रवालन्याय से अनुस्यूत किया है और अपनी 'हजार शास्त्रों का पढ़ना-सुनना एक तरफ है और तलस्पशिनी अद्भुत प्रतिभा का चमत्कार दिखाया है। एक मात्र इस कृति का अध्ययन एक पोर है, क्योकि इस वस्तुतः यदि विद्यानन्द यह 'प्रष्टसहस्री' न लिखते तो एक के अभ्यास से ही स्वसमय और परसमय दानों का अष्टशती का गूढ़ रहस्य उसी में ही छिपा रहता और विज्ञान हो जाता है।' मेधावियों के लिए वह रहस्यपूर्ण बनी रहती। इसकी व्याख्याकार की यह घोषणा न मदोक्ति है और न रचना शैली को विद्यानन्द ने स्वय 'जियावष्टसहस्री... अतिशयोक्ति । प्रष्टसहस्री स्वय इसकी यह निर्णायिका प्रसन्न-गम्भीर-पदपदवी' (प्रष्टस० पृ० २१३) शब्दो द्वारा है। और हाथ कंगन को प्रारसी क्या' इस लोकोक्ति को प्रसन्न और गम्भीर पदावली युक्त बतलाया है। चरितार्थ करती है। हमने इसका गुरुमुख से अध्ययन ___ इसमें व्याख्येय देवागम का मोर अष्टशती प्रतिपाद्य करने के उपरान्त अनेक बार इसे पढ़ा और पढ़ाया है । विषयों का विषदतया विवेचन किया गया है। इसके इसमे वस्तुतः वही पाया जो विद्यानन्द ने उक्त पद्य में अतिरिक्त विद्यानन्द के काल तक विकसित दार्शनिक व्यक्त किया है। प्रमेयों और अपूर्व चर्चानों को भी इसमे समाहित किया दो स्थलों पर इसका जयकार करते हुए विद्यानन्द गया है। उदाहरणार्थ नियोग, भावना और विधि वाक्यार्थ ने जो पद्य दिये है उन से भी प्रष्टसहस्री की गरिमा की चर्चा', जिसे प्रभाकर और कुमारिल मीमांसक विद्वानों स्पष्ट प्रकट होती है। वे पद्य इस प्रकार हैंतथा मण्डनमिश्र प्रादि वेदान्त दार्शनिकों ने जन्म दिया है (क) जीयावष्टसहस्रीदेवागमसंगतार्थमकलङ्कम् । और जिसकी बौद्ध मनीषी प्रज्ञाकर ने सामान्य पालोचना की है, जैन वाङ्मय में सर्वप्रथम विद्यानन्द ने ही इसमें २. 'इति कि नश्चिन्तया, विरोषादिषणस्यापि तथ वापसारितत्वात् ।...ततो न वैयधिकरण्यम् । एते. १. भावना यदि वाक्यार्थी नियोगो नेति का प्रमा। नोभयदोष प्रसङ्गोऽप्यपास्तः,...एतेन सशयप्रसङ्गः तावुभौ यदि वाक्याथो हतो भट्ट-प्रभाकरी ॥ प्रत्युक्तः,...तत एव न संकर प्रसङ्गः,...एतेन व्यतिकार्येऽर्थे चोदनाशानं स्वरूपे किन्न तत्प्रमा। कर प्रसङ्गोव्युदस्तः,...तत एव नानवस्था....'द्वयोश्चे द्धन्त तो नष्टौ भद्र-वेदान्तवादिनी। मष्टस. पृ. २०४-२०७। -प्रष्टस. पृ. ५-३५। ३. प्रष्टस. पृ. १५७ । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दर्शन की एक अप्रतिम कृति प्रष्टसहनी गमयन्ती सन्नयतः प्रसन्न-गम्भीर-पदपदवी ।। स्थल पर सर्व पदार्थों को 'मायोपम', 'स्वप्नोपम' मानने (ख) स्फुटमकलापवं या प्रकटयति परिष्टचेतसाम वाले सौगत को प्रकलदेव की तरह विद्यानन्द ने मात्र समम् । वशित-समन्तभद्र साष्टसहस्री सदा जयतु।' 'प्रमादी' और 'प्रज्ञापराधी' कहा है। इन दोनों शब्दों के प्रयोग में कितनी सौम्यता, सन्तुलन और सद्भावता प्रथम पद्य में कहा गया है कि प्रसन्न और गम्भीर निहित है, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। इन सब पदों की पदवी (उच्च स्थान अथवा शैली) को प्राप्त यह बातों से 'प्रष्टसहस्री' की गरिमा निश्चय ही विदित हो प्रष्टसहस्री जयवन्त रहे-चिरकाल तक मनीषिगण जाती है। इसका अध्ययन-मनन करें, जिसकी विशेषता यह है कि वह देवागम मे सम्यक रीत्या प्रतिपादित और अकलङ्क इस पर लघु समन्तभद्र (१३वी शती) का एक 'प्रष्टसहस्री विषमपद-तात्पर्य टीका' नामक टिप्पण और समर्थित अर्थ को सन्नयों (सप्तभङ्गो) से अवगत कराती दूसरी श्वेताम्बर विद्वान यशोविजय (१७वी शती) की 'प्रष्टसहस्री तात्पर्य विवरण' सज्ञक व्याख्या उपलब्ध दूसरे पद्य में प्रतिपादित है कि जो पटुबुद्धियों एवं प्रकाशित हैं। इसका प्रकाशन सन् १७१५. वी. नि. प्रतिभाशालियों के लिए प्रकलङ्कदेव के विषय-दुरूह सं. २४४१ में प्राकलूज निवासी सेठ श्री नाथारंग जी पदों का, जिनमें स्वामी समन्तमद्र का हार्द अभिप्राय गांधी द्वारा एक बार हुअा था । अब वह संस्करण अप्राप्य प्रदर्शित है, अर्थोद्धाटन स्पष्टतया करती है वह प्रष्ट सहस्रो है। दमग नया संस्करण प्राधुनिक सम्पादनादि के साथ सदा विजयी रहे। प्रकाशनाई है । हम इसका सम्पादनादि कर रहे है । और भारतीय ज्ञानपीठ से उसका प्रकाशन होगा। परिच्छेदों के अन्त मे पाये जाने वाले पद्यों में विद्यानन्द ने उस परिच्छेद मे प्रतिपादित विषय का जो इसके रचयिता निचोड दिया है उससे भी व्याख्या की गरिमा का हम प्रारम्भ में ही निर्देश कर पाये हैं कि इस महमाभास मिल जाता है। एकान्तवादों की समीक्षा और नीय कृति की रचना जिस महान प्राचार्य ने की वे ताकिक पूर्व पक्षियों की माशंकामों का समाधान इसमे जिस शिरोमणि विद्यानन्द हैं। ये भारतीय दर्शन विशेषतः जैन शालीनता एवं गम्भीरता से प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय दर्शनाकाश के देदीप्य मान सूर्य हैं, जिन्हें सभी भारतीय है प्रायः उत्तरदाता प्रशकानों का उत्तर देते समय सन्तु. दर्शनों का तल स्पर्शी प्रनगम था, यह उनके उपलब्ध लन खो देता है और पूर्व पक्षी को 'पशु', 'जड', 'अश्लील' अन्थोंसे स्पष्ट प्रवगत होता है। इन का अस्तित्व-समय हम जैसे मानसिक चोट पहुँचाने वाले अप्रिय शब्दों का भी ने ई. ७७५ से १४० ई. निर्धारित किया है। इन के और प्रयोग कर जाता है। जैसा कि दर्शन-ग्रन्थों में उपलब्ध इनकी कृतियों के सम्बन्ध में विशेष विचार अन्यत्र किया होता है। पर 'मष्टसहस्री' में प्रारम्भ से अन्त तक गया है।' शालीनता दृष्टिगोचर होती है और कहीं भी असन्तुलन ३. अष्टस० पृ० ११६ । नहीं मिलता। और न उक्त प्रकार के कठोर शब्द । एक ४. प्राप्तप० प्रस्ता० पृ. ५३, वीरसेवा मन्दिर, दरिया१. वही, पृ. २१३ । गंज, दिल्ली-६। २. वही, पृ. २३१ । ५. वही, प्रस्ता० पृ.७-५४ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारुतिनंदन प्रसाद तिवारी जैन शिल्प में बाहुबली प्रथम तीर्थकर आदिनाथ के पुत्र बाहुबली की महान व्यक्तियों के वध को रोकने की दृष्टि से दोनों ने द्वन्तु युद्ध व कठोर तपश्चर्या ने ही श्वेतांबरों और दिगंबरों को करने का निश्चय किया। अन्ततः जब बाहुबली की विजय मंदिरों में बहाबली के पूजन के लिए प्रेरित किया। उनके निश्चित सी हो गई थी, उनके मस्तिष्क में संसार की सत्ता महान तपस्वी होने के कारण ही जैन शिल्प के विभिन्न और साम्राज्य की निर्थकता की बात बौधी । फलतः बाहु. माध्यमों में उनको तपस्या में लीन और लतावल्लरियों बली ने उसी स्थल पर अपने केशों को लोंचकर जैन दीक्षा से वेष्टित कायोत्मर्ग मुद्रा में व्यक्त किया गया। यह ले ली। स्वयं भरत को भी अपनी भूल का अहसास हुमा सर्वधा स्वीकार्य तथ्य है कि बाहुबली दिगंबरों के और वह अपनी सेना सहित राजधानी लौट प्राया। उधर मध्य विशेष प्रचलित हुए और उसमे भी विशेष कर बाहबली ने कठोर तपस्या प्रारंभ कर दी। कायोत्सर्ग दक्षिण भारत मे । श्वेताबरों के मध्य उनके विशेष मुद्रा में खडे बाहबली ठंड, उष्ण, वर्षा, वायू और बिजली प्रचलित न होने का कारण उनका नग्न रूप मे अंकित की कड़क प्रादि से जरा भी विचलित नही हए । हेमचन्द्र किया जाना है। उत्तर भारत से बाहुबली की कुछ ने त्रिषष्ठिशलाका पुरुष-चरित्र में बाहुबली की तपस्या सीमित प्रतिमाएं ही प्राप्त होती है, जब कि परवर्ती का उल्लेख करते हुए कहा है, कि उनका संपूर्ण शरीर मंदिरों से बाह बली चित्रण के उदाहरण अनेकशः प्राप्त लतावल्लरियो से घिर गया था, जिसमे विभिन्न पक्षियों होते हैं । बाहुबली की मूर्तियों के अध्ययन के प्रारम के ने अपने घोसले बना लिये थे । उनके चरण वर्षा के कीचड़ पूर्व प्रथो मे उनसे सबधित प्राप्त उल्लेखो का सक्षिप्त मे घस गये थे। सर्प उनके शरीर से इस प्रकार लटक रहे अध्ययन प्रधिक समीचीन होगा, क्योकि उन्ही कथानको थे, जो उनके हजार भुजाओं वाले होने का प्राभास देते के आधार पर बाहुबली को विभिन्न युगो मे व्यक्त किया थे। वल्मीक (ant hills) से ऊपर उठते सर्प चरण के गया। समीप नुपुर की तरह बधे थे। इस प्रकार की कठोर ___ मादिनाथ और सुनन्दा के पुत्र बाहुबली के सौतेले तपस्या के एक वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरान्त भी बाहुअग्रज भरत चकवर्नी ही पिता के पश्चात् उनके उतरा- बली को केवल ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका, जिसका कारण धिकारी नियुक्त हुए, जो विनीता से शासन करता था। उनका गर्व था, जो एक प्रकार का मोहनीय कर्म था। बाहुबली को राजधानी बहली देश में स्थित तक्षशिला तदुपरान्त प्रादिनाथ ने अपनी दो पुत्रियों, ब्राह्मी छ थी। दिगंबर परंपरा में बहबली को पोडनस या पोडनपुर सुन्दरी, को बाहुबली के पास इस तथ्य से अवगत कराने का शासक बताया गया है। अनेक शासकों पर विजय के लिए भेजा। अपनी भूल अनुभव करने और दर्प से प्राप्ति के उपरान्त भरत ने अपने समस्त ६६ भ्रातामों से मुक्त हो जाने पर बाहुबली को केवलज्ञान प्राप्त हो उसके प्रति प्रादर व्यक्त करने की मांग की। बाहुबली के गया। प्रारम्भिक दिगंबर ग्रन्थों में ब्राह्मी व सुन्दरी के अतिरिक्त सभी भ्राता पहले ही संसार का परित्यागकर आगमन का उल्लेख अनुपलब्ध है। इन प्रथों में वर्णित है जैनधर्म की दीक्षा ले चुके थे। बाहुबली ने भरत की कि दर्प और संक्लेश के कारण बाहूबली केवलज्ञान से सत्ता स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिस पर क्रुद्ध वंचित थे, और उनको केवलज्ञान तभी प्राप्त हुघा, जब वे होकर भरत प्रपनी विशाल सेना सहित बाहुबली के वर्ष के अंत में साधु की उपासना को पहुंचे। प्रादिपुराण साम्राज्य की ओर चल पड़ा। किन्तु अनेक निरपराध में भी बाहुबली की तपस्चर्या का विस्तृत उल्लेख प्राप्त Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन मिल्म में बाहुबली होता है। होल प्रतिमा के समान है, किन्तु निर्मिती मे यह उससे बाहुबली को इस अवसर्पिणी का प्रथम कामदेव भी श्रेष्ठ है। प्रयहोल का चित्रण बादामी के कुछ पूर्व प्रतीत बताया गया है। प्रादिपुराण में बाहबली को हरे रंग व होता है । एलोरा की जैन गुफापो जिनकी तिथि ८ वीं से हरिवंशपुराण में श्याम रंग का बताया गया है। वाहबली १०वी शती के मध्य निर्धारित की गयी है, में बाहुबली को अन्य कई नामो-गोम्मटेश्वर, भुजबली. डोर बली, के कई प्रकन देखे जा सकते है। प्रतिम जैन गुफा मे कुक्कुटेश्वर प्रादि से भी सबोधित किया गया है। दक्षिण उत्कीर्ण एक विशाल चित्रण मे बाहबली के दोनों पाश्वों भारत में बाहुबली की प्रारम्भिक मूर्तियां प्रयहोल. बादामी मे ब्राह्मी व सुन्दरी की प्राकृतियां सनाल कमलों पर व एलोरा की जैन गुफाओं में देखी जा सकती है। पश्चिम अवस्थित है। बाह बली की प्राकृति के समक्ष, अर्थात् भारत में परिवर्ती गुफापो मांगीतंगी और अनकाइ कमलासन के नीचे, दो हरिणों को चित्रित किया गया है, तनन्काई, मे भी बाहुबली की प्रतिमाये उत्कीर्ण है । जो शान्तिपूर्ण वातावरण का बोध कराते है । बाहुबली के __अयहोल की जैन गुफा मे बाहबली की कायोत्सर्ग मुद्रा मस्तष्क पर एक छत्र उत्कीर्ण है । ऊपरी भाग मे पूजन में खडी एक नग्न प्रतिमा अवस्थित है, जिसमे लता के लिए आती हुई उड्डायमान गन्धर्व प्राकृतियो को मूर्तिवल्लरियों को बाहबली की भजायों व पैरों में लिपटा गत किया गया है। साथ ही राजसी वस्त्रों व मुकुट हुमा प्रदर्शित किया गया है। साथ ही पैरों के समीप से युक्त भरत की प्राकृति को समीप ही हाथ जोड़े प्रकित वल्मीक से सो को अपना फण उठाते चित्रित दाहिनी ओर अकित किया गया है। ब्राह्मी व सुन्दरी किया गया है । मुख्य प्राकृति के दोनों पावों में ब्राह्मी व की उपस्थिति के सम्बन्ध में श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही उल्लेख सुन्दरी की प्राकृतियां चित्रित हैं, जो राजकुमारियों के मिलता है, जब कि प्रारम्भिक दिगम्बर ग्रन्थो में पूजन परिधानो, मुकुटों व प्राभूषणों से सुसज्जित है । इस चित्रण करते हुए भरत के चित्रित किये जाने का उल्लेख प्राप्त होता है। के सम्पूर्ण ऊपरी भाग मे वृक्षों और उड्डायमान गन्धर्व तिन्नेवेल्ली जिले के काल मलाई गुफा में बाहुबली की प्राकृतियां प्रदर्शित है, जो वास्तव में बाहुबली की उपासना करते हए से प्रतीत होते है। बाहुबली की जटा के रूप ध्यान मुद्रा में खडी मूर्ति उत्कीर्ण है, जिनके दोनों पाश्र्वो में ब्राह्मी व सुन्दरी की प्राकृतियां अवस्थित है । इसे हवीं में उत्कीर्ण केश लटो के रूप मे स्कन्धों तक लटक सदी में निर्मित बताया गया है। इस प्रकार का चित्रण रहे है । देवता की मुखाकृति कुछ अण्डाकार है, और नेत्र किल कुड्डी, रम्मन्नमलाई पहाडी मदुरा जिला और मदुरा ध्यान की मुद्रा में प्राधे खुले व प्राधे बन्द है । पैरो के जिले के ही समन र कोयिल और अन्नमलाई से भी प्राप्त ऊपर के भाग का मण्डन उत्कृष्ट है। देवता के स्कन्ध होते है बाहुबली की एक कांस्य प्रतिमा (१०x"३x" कुछ घुमावदार है। सभी प्राकृतियो की निर्मिती कटोर ३") कन्नड रिचर्स इन्सटीट्यूट म्यूजिम, घारवाड (न. है इस उभड़े हुए चित्रण को छठी-सातवी शती के मध्य व्य एम ७८) मे सगृहीत है।' एक वृत्ताकार पीठिका पर तिथ्यांकित किया गया है। बादामी की जैन गुफा निर्वस्त्र बाहबली को सीघा खडा प्रदर्शित किया गया है । नं. ३ के बाद की प्रतीत होती है, जिसमे ५७३ ईसवी में तिथ्यांकित मगलेश का लेख उत्कीर्ण है। बाहबली का 3. Shah, U.P., op. Cit., p. 35; Goswami, A., चित्रण करने वाले फलक' मे देवता की केश रचना अय Indian Temple Sculpture, Calcutta, 1956, p. 37. 1, Shah, U.P., Bahubali : A Unique Bronze 4. Shah, U.P., op. cit., pp. 34-35. in the Museum, Bull. Prince of Wales 5. Annigeri, A M. A Guide to the Kannada Museum of Western India, No. 4, 1953-54, Researeh Institute, Museum, Dharwar, p 34. 2. Loc.Cit. 1958, p. 30. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०, वर्ष २४ कि.१ अनेकान्त माधवी वल्लरी उनके पैरों और हाथों में स्कन्धों तक पूर्णतः नग्न है। उत्तर दिशा की पोर खडी प्रतिमा के लिपटी हैं। देवता का ध्यान निमग्न अंकन चित्ताकर्षक स्कन्ध चौड़े व भुजाएं सीधी नीचे लटक रही हैं । कटि है। काफी कुछ मग्न मस्तक पर सभवतः धुमावदार केश प्रदेश संक्षिप्त है। घुटनो के नीचे का भाग तुलनात्मक रचना प्रदर्शित थी। दृष्टि से कुछ छोटा व मोटा है। बांबी (anthills) से प्रिन्स प्राफ वेल्स म्यूजियम, बबई में स्थित २०" घिरी प्राकृति से सर्पो व माधवी वल्लरियों को प्रसारित ऊंची एक कांस्य मूति मे' बाहुबली को मण्डल पर खड़ा होते हुए दिखाया गया है। पीठिका एक खुले कमल के चित्रित किया गया है। उसके पैरो, भुजामों व जघो में रूप मे उत्कीर्ण है। मूखमण्डल सौम्य और शांत दीख डंठलों व पत्तियों से युक्त लतावल्लरियां लिपटी है। रहा है। इस प्राकृति का मुख्य भाग इसकी मुखाकृति है। नियमित पंक्तियों मे चित्रित केश रचना वृत्ताकार जिसपर व्यक्त मंदस्मित व चिन्तन का भाव इस रूप में छल्लों के रूप में देवता के स्कन्धों व पृष्ठ भाग मे प्रदर्शित व्यक्त है मानों बाहुबली सघर्षरत ससार की ओर देख रहे है। अण्डाकार मुखाकृति, भरे व संवेदनशील निचले होंठ हों। संसार से विरक्ति की भावना का पूर्ण निर्बाह इस भारी ठढी, तीखी नासिका, नितम्बो, सीधे परों व घुटनों चित्रण में किया गया है। देवता की केश-रचना चक्राकार की निर्मिती स्वाभाविक है। लम्बी भुजामो की हथेलियां घुमावों के रूप में निर्मित है। प्राकृति की नग्नता जहाँ शरीर से सटी हुई हैं। पृष्ठ भाग में देवता का मण्डन देवता के प्रात्म-त्याग की भावना का उद्बोधक है. वही काफी श्रेष्ठ है । प्राकृति की मुखाकृति से ही उसके प्रतर उसकी कायोत्सर्ग मुद्रा प्रात्म-नियन्त्रण की भोर सकेत में होने वाले ऊर्जा के प्रवाह का भाव स्पष्ट है जो बाह- करती है। कारकल से प्राप्त होने वाली दूसरी विशाल बली के गहन चिन्तन का परिणाम है । मूर्ति की निर्मिती प्रतिमा में भी सौम्यता व आत्म-त्याग की भावना व्यक्त इसके प्रारंभिक तिथि की पुष्टि करती है । डा०यू० पी० है। ४१ फीट ऊंची मूर्ति १४३२ ईसवी में प्रतिष्ठित शाह की धारणा है कि इस मूर्ति को ७ वीं शती के बाद की गई थी। अन्तिम प्रतिमा मद्रास के दक्षिणी कन्नड़ निर्मित नही बताया जा सकता है, जबकि अन्य विद्वान जिले के वेलूर नामक स्थल से प्राप्त होती है। ३५ फीट एलोरा-बादामी की बाहुबली प्रतिमानों से इसकी साम्यता ऊंची इस प्रतिमा को तिम्म या तिम्मराज मोडिया ने के प्राधार पर इसे पाठवी शती के पूर्व निर्मित मानना १६०४ ईसवी में स्थापित किया था। श्रवण बेलगोला की उचित नहीं समझते हैं। प्रतिमा के विपरीत इसमें बांबी नहीं चित्रित है। इस दक्षिण भारत से प्राप्त होने वाली तीन विशाल चित्रण के बायीं ओर काफी संख्या मे सो को उत्कीर्ण प्राकृतियों में विशालतम ५६ फीट ६ इंच ऊंची प्रतिमा किया गया है, उनमें से दो काफी लम्बे व तीन फणो मंसूर राज्य के श्रवणबेलगोला नामक स्थल पर उत्कीर्ण वाले सर्प, जो मूर्ति के काफी समीप उत्कीर्ण है, देवता के है।' १८१-८३ ईसवी में गंग शासक के प्रमुख चामुण्डराय चरणों से घुटनों तक प्रसारित है। दोनों पाश्वों में अंकित द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी प्राकृति छोटे-छोटे सौ का उद्देश्य कुक्कुट सर्प का अंकन रहा 6. Shah, U.P., op.Cit. pp. 35-36 Eight All India Oriental Conference 7. Editorial Notes. A Unique Metal Image Mysore, Dec. 1935, Banglore, 1937, pp. of Bahubali, Lalit-Kala, Nos. 1-2, April 690-91; Krishna M.H. The Mastaka1955-March 1956, p. 37. bhisheka of Gommateswara of Sravana Belgola, Jaina Ant. Vol. V. No. IV, March 8. Sravana Belgola, Mysore Information 1940. pp. 101-106. Bnll., Vol. XII, No. 2, Feb. 1949, pp. 9. Pai, M Govind. Venur and its Gommata 53-55; Krishna, M.H.. The Art of Colossus Jaina Ant., Vol. II, No. II, Sept. Gomata Colossus, Pro. & Transe. of the 1936, pp. 45-50. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिल्प में बाहुबली होगा। लतावल्लरियो की कतार देवता के चरणों से देखा जा सकता है । " लेख के प्रारम्भ में वणित कथानकों जाघों तक लिपटी है। साथ ही कलाइयो व भुजाओं में के ही कुछ वणित दृश्यों को इसमे उत्कीर्ण किया गया वाल्लर देखी जा सकती है। देवता की केशसज्जा है। एक अन्य मूर्ति शत्रुजय गिरि स्थित मादिनाथ मन्दिर जमशाली । कर्ण लम्बे व नासिका कुछ झुकी हुई सी के गर्भगृह मे प्रतिष्ठित है, जिसमें बाहवली को चिन्तन है । देवता की मुखाकृति पर प्रदर्शित मदस्मित के भाव से की मुद्रा मे खड़ा प्रदर्शित किया गया है। उनके पैरों ऐसा प्रतीत होता है मानो वे ससार से विदा ले रहे हों। मे लतावल्लरियां लिपटी है । साथही ब्राह्मी मौर सुन्दरी मैसूर के १४ मील दक्षिण-पश्चिम मे स्थित गोम्मट. की प्राकृतियां भी उत्कीर्ण हैं । यह मति पादपीठ पर गिरी से गोम्मटेश्वर की एक १८ फीट ऊँची मनोज्ञ प्रतिमा उत्कीर्ण लेख के अाधार पर १२३४ ईसवी में निर्मित प्राप्त होती है, जिसमे देवता को प्रभावपूर्ण मुद्रा मे प्रतीत होती है । प्राबू और शत्रुजय दोनों ही स्थलों पर खडा किया गया है। नग्न आकृति की मुखाकृति श्रवण बाहुबली को धोती पहने हुए चित्रित किया गया है । यहाँ वेलगोला मति के काफी कुछ समान है, मात्र कुछ यह ध्यातव्य है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित यही विभिन्नतापो को छोड़कर । इस प्रतिमा की मुखाकृति से दो मूर्तियाँ प्राप्त हो सकी है। एक नवयुवक साधु का प्राभास होता है। बाबियों का बाहुबली व भरत का अंकन करने वाले चित्रों की इसमे पूर्णरूपेण प्रभाव है व हाथो की मुद्रा भी भिन्न संख्या अधिक नही है । बड़ोदा के हस विजय जी के संग्रह है। लतावल्लरियो को परो-हाथो में लिपटा हुमा प्रदर्शित में स्थित १५२२ सवत् के कल्पसूत्र के चित्र मे, और जन किया गया है। मुखमण्डल पर प्रदर्शित विशिष्ट प्रकार चित्र कल्पद्रुम के चित्र संख्या १८१ मे भी पाहबलीका की शान्ति व सौम्यता का भाव बाहुबली के आन्तरिक चित्र प्राप्त होता, किन्तु कल्पसूत्र में बाइबली की कथा आनन्द की अनुभूति और कठोर चिन्तन का परिणाम वणित नही है।" इस संक्षिप्त चित्र में सम्पूर्ण दृश्य को है। यह बिंब १४२३ ईसवी मे प्रतिष्ठित किया गया था। चार भागो में व्यक्त किया गया है। कारी भाग में भरत दक्षिण भारत की तेरिन बस्ती से भी मच्चीकण्वे द्वारा व बाहुबली को दृष्टि व वाक युद्ध करते हुए प्रदर्शित १११५ ईसवी में प्रतिष्ठित एक बाहबली चित्रण (५ फीट किया गया है । दूसरे में मुष्टि डण्ड युद्ध प्रदर्शित है । ऊंचा) प्राप्त होता है। तीसरे भाग के प्रथम खण्ड में भरत को बाहबली का खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर के प्रदक्षिणा पथ की सामना करते हुए चक्र धारण किए प्रकित किया गया भित्ति पर कठोर तपश्चरण के प्रतीक बाह बली की एक है और द्वितीय खण्ड में बाहुबली को अपना मुकुट उतार सुन्दर प्रतिमा प्रकित है। पेरों से लेकर हाथों तक कर फेकते हुए चित्रित किया गया है। अन्तिम भाग में लिपटे हुए नागो तथा शरीर पर रेगते हुए वृश्चिकों का बाहुबली को धोती पहने हुए चिन्तन की मुद्रा में खड़ा चित्रण इस बिंब की ध्यातव्य विशेषता है। दिलवाड़ा व्यक्त किया गया है। बाहुबली के दोनो पाश्वों में एक स्थित विमल वसही मन्दिर के सभा-मण्डप को इस छत पर वृक्ष व सर्पो को पैरों के नीचे से हाथों तक लिपटा प्रदर्शित भरत और बाहुबली के मध्य हुए युद्ध का विस्तृत चित्रण किया गया है । बाहुबली के स्कन्धों पर पक्षियों के घोंसले देखे जा सकते है । दो जैन भिक्षुणियो, ब्राह्मी व सुन्दरी, 10. Jain, Surendranath Sripalji Colossus of को वाम पार्श्व मे हाथ जोड़े अकित किया गया है। भरत Shrabanbelgola and other Jain Shrines of Decean, Nutan Jain Sahitya Series-I, व बाहुबला दाना हा का व बाहुबली दोनों ही की प्राकृतियाँ इस चित्र में स्वणिम है। Bombav, 1953, pp. 41-42. 11. Ibid., p. 32. 13. Jayantavijayaji Muni Shri, Holy Abu 12. Jaina, Niraj, Khajuraho Ka Parsvanatha (trans in to Eng. by U.P. Shah), BhavJinalaya. In Hindi. Anekanta, yr.16, No. nagar, 1954, pp. 56-60. 4,Oct. 1963, p. 153. 14. Shah, U.P.op.Cit, p.36. 15. Ibid., p.37. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० रतनलाल कटारिया दश बाह्य-परिग्रह जैन शास्त्रो मे परिग्रह दो प्रकार का बताया है एक यानं शय्यासनं कुप्य, भांडं चेति बहिर्वश ॥६॥ बाह्य और दूसरा ग्राभ्यतर । बाह्य-परिग्रह के १० भेद ६. सागार धर्मामृत (प. प्राशाधर कृत अध्याय ४ श्लोक बताए है और प्राम्यतर के १४ । नीचे-दश प्रकार के ६२ की टीका)बाह्य-परिग्रह पर समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत किया वास्तु क्षेत्र धनधान्य द्विपद चतुष्पद शयनासन यान जाता है। कुप्य भांडं लक्षणं दशविध बाह्यग्रथं ॥ शास्त्रो में बाह्य-परिग्रह के दश भेद इस प्रकार १०. रत्नकरण्डश्रावकाचार की प्रभाचन्द्र कृत टीका बताये है : (श्लोक १४५)१. मूलाचार (पंचाचाराधिकार, प्रथम भाग पृ० ३२०)- क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं, द्विपदं च चतुष्पदं । खेत्तं वत्थुधणं धण्णगद दुप्पद चतुप्पद गद च । शयनासनं च यानं, कुप्प भांडममीदश ॥ जाण सयणासणाणि य, कुप्पे भडेसु वस होति ॥२११ ११. प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (सकलकीर्ति कृत) सर्ग १६२. भगवती आराधना (शिवार्यकृत) क्षेत्रं गृहं धनं धान्यं, द्विपदं च चतुष्पदं । प्रासनं शयन वस्त्र, भांड स्याद् गहमेधिनां ॥५॥ बाहिर संगा खेत्त वत्थं घणधण्ण कुप्पभंडानि । दुपय चउप्पय जाणाणि चेव सयणासणे य तहा ॥११॥ १२. त्रिवर्णाचार (सोमसेनकृत) अध्याय १० क्षेत्रं वास्तु धनं धान्य दासी दासश्चतुष्पद । ३. हरिवशपुराण (जिनसेन कृत) सग ३४ यानं शय्यासनं कुप्य भांडं चेति बहिर्वश ॥१४०।। चतुष्कषाया नव नोकषाया, मिथ्यात्वमेते द्विचतुष्पदे च । क्षेत्र च धान्यं गहकुप्पभांड, धनं च यान शयनासन च। १३. श्रावकाचार (उमास्वामी, पूज्यपाद के नाम से) क्षेत्रं वास्तु धन धान्य, द्विपदं च चतुष्पदं । ४. ज्ञानार्णव - (शुभचन्द्राचार्य कृत) सर्ग १६ प्रासन शयनं कुप्यं, भांडं चेति बहिवंश ॥१६, ७॥ वस्तु क्षेत्र धन धान्यं, द्विपदं च चतुष्पद । १४. देवसेन कृत माराधनासार की लिनदि कृत टीका शाय्यासनं च यान च, कुप्यं भांड ममीदश ॥४॥ (गाथा ३० मे उक्त च)५. यस्तिलक चम्पू (उपासकाध्ययन) सयणासण घर खित्त, सुवण्ण-धणधण्ण कुप्य भडाई। क्षेत्रं धान्यं धनं वास्तु, कुप्यं शयनमासनं । दुपय च उप्पय जाणसु, एदे बस बाहिरा गंथा । द्विपदाः पशवो भांडं, बाह्या वश परिग्रहाः ॥४३३॥ १५. चर्चासमाधान (प. भूधर जी मिश्र) पृ० ५६६. चारित्रसार (चामुडगय कृत) पत्र पृष्ठ ६३ भूमि यान धन धान्य गृह, भाजन कुप्य अपार । "क्षेत्र वास्तु धनधान्य द्विपद चतुष्पद यान शयनासन शयनासन चौपब दुपद, परिग्रह वश परकार ।। कुप्य भांडानि वविधश्चेतनाचेतन भेद लक्षणो बाह्यपरिग्रहः।" क्षेत्र वास्तु चौपद द्विपद, धान्य द्रव्य कुप्यादि । ७. सस्कृत आराधना (अमितगति कृत रूपान्तर) भाजन पासन सेज ये, दश पर कार अनादि ॥७००। क्षेत्र वास्तु धन धान्य, द्विपदं च चतुष्पवं। १७. बनारसी विलास पृ० २०६यानं शय्यासन कुप्यं, भांडं संगा बहिवंश॥११४६।। भूमि यान धन धान्य गृह, भाजन कुप्य अपार । ८. प्राचार सार (वीरनदिकृत) अधिकार ५ शयनासम चौपद द्विपद, परिग्रह वश परकार ॥२६॥ क्षेत्र वास्तु धन धान्यं, विपदं च चतुष्पदं । १८. ज्ञानानद श्रावकाचार पृष्ठ ३६ मे भी इसी प्रकार Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वश बाह्य-परिग्रह A १० परिग्रह बताए है। इन प्रमाणो में--खेत, घर, धन, दिए हैं उनकी संख्या भी ही हैं, दस नही। ये नाम धान्य, दोपाये चौपाये, सवारी, शयनासन, कुप्य और भी सामान्य है पन्ग्रिह के व्यावर्तक भेद रूप नहीं है भांड ये दश प्रकार के बाह्य परिग्रह बताये है। इनमे क्योकि इनमें जो "हिरण्य-सुवर्ण" नाम है वे तो 'धन में संसार के यावन्मात्र चेतन अचेतन मिश्र सभी प्रकार के गभित हो जाते है, 'दासीदास' 'द्विपद' मे मा जाते हैं पदार्थों का समावेश हो जाता है। प्रमाण न० ५, ११, इसके सिवा चोपाये, यान, शयनासन और भाड ये नाम १३. और १६ मे "यान"-(सवारी) नही दिया है। हैं ही नहीं। फिर भी कुछ ग्रंथकारो ने परिग्रह परिमाण "शयनासन" के शयन और प्रासन ऐसे दो भेद करके व्रत के इन अतिचार नामो मे "भाड" और मिलाकर उन्ही में 'यान' को गभित कर दिया है। कुल १० सख्या बना दी है और उन्हे दश बाह्य परिवह १६. प्रबोधसार (यश.कीतिकृत) अध्याय २ बना दिया है जो ममुचित प्रतीत नहीं होता। विद्वानों को भूमिर्वास्तु धनं धान्यं, वस्त्रादि शयनासनं । इस पर विचार करना चाहिए। पं० भूधर जी मिश्र को द्विपदाः पशु रत्नादि, बाह्योऽयं दशधोपधिः ॥१०॥ भी इस विषय मे शंका हई है उन्होने "चर्चासमाषान" इसमे 'चतुष्पद' की जगह 'पशु' शब्द दिया है और पृ० ५६ पर बाह्यपरिग्रह के वास्तविक १० भेद देते हा 'कूप्य' की जगह 'वस्त्रादि' दिया है तथा 'भांड' की जगह (जो पूर्व म प्रमाण न. १७ मे उद्धृत किए गए हैं) 'रत्नादि' दिया है जो सब समनार्थक ही है। लिखा है कि-"इहा कोई कहे सूत्र जी में परिग्रह के ३०. घवला पुस्तक १३ पृष्ठ ६५ मे-"खेत्त वत्थ भेद मोर भांति कहे है सो क्यो? तिसका उत्तर-कुप्य धण घण्ण दुवय च उप्पय जाण सयणासण सिरस कुल गण नाम भेद मे सब गभित है"। सधेहि' बाह्य परिग्रह बताये है । इनमे दश भेद की दृष्टि प. भूधर जी ने जो समाधान दिया है वह सम्यक से कथन नही है फिर भी उन्ही का समर्थन किया गया है। प्रतीत नही होता; क्योकि-कृप्य मे सब गभित नही होते अगर होत है तो १० भंद करने की जरूरत नही थी फिर क्योकि ८ नाम तो क्रमशः वे ही है। तो १ 'कुप्य' हो दे देना चाहिए था व्ययं अन्य नाम क्यो मोक्षशास्त्र अ० ७ सूत्र २६ दिए ? इसस अच्छा तो 'धन' रहता जिसमे सब गभित क्षेत्रवास्तु हिरण्यसुवर्ण धनधान्य, दासीवास कुप्य हो जात। प्रमाणाति क्रमाः सही बात तो यह है कि-मिश्र जो का शका समाइस सूत्र मे परिग्रह परिमाणवत के ५ प्रतिचार धान ही व्यथ है कारण कि-तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ७ बताए है । जिनका खुलासा इस प्रकार है : सूत्र २६ म परिग्रह क दश भेद नहीं बताय है वहाँ तो सागार धर्मामृत अध्याय ४ ५ प्रतिचार बताये है जो परिग्रह वस्तुमो के माघार वास्तुक्षेत्र योगाधन धान्ये बंधनात्कनक रूप्ये। पर है। दानात्कुप्ये भावान्न गवादी गर्भतो मितिमतीयात् ॥६४॥ ऐसा प्रतीत होता है कि-इस तथ्य को ठीक तरह श्रावकधर्म विधि प्रकरण (हरिभद्र श्वे.) से नही समझने के कारण कुछ अर्वाचीन अथकारो ने खेताह हिरण्णाई घणाइ दुपयाइ कुप्प पमाण कमे। भ्रमवश इन्हे परिग्रह के भेद समझ लिया है और इसो से जोयण पयाण बधण कारण भावे हि नो कुणइ ।।८।। इनमे 'भाड' पौर मिला कर बाह्य परिग्रह के १० मंद इनमे बताया है कि-क्षेत्र और गृह को परस्पर कर दिए है जो कितने गलत है यह पूर्व में बता पाए है संबद्ध करके, हिरण्य और सुवर्ण का दान करके, धन और र धान्य को बधक-गिरवी रखके, दोपाये चौपाये को गर्भा- अब उनका नीचे परिचय प्रस्तुत किया जाता है :धान से और कुप्य को भाव (परिमाणान्तर) से अतिक्रम (१) द्रव्य संग्रह की ब्रह्मदेव रचित टीका (गाथा ५५/नहीं करना चाहिए। इस तरह युग्म रूप से ५ अतिचार क्षेत्रवास्तु हिरण्य सुवर्णधन धान्य वासी वास कर बताए हैं। परिग्रह के भेद नहीं बताये है। जो नाम भांडाभिधान वशविष बहिरंग परिग्रहेण च रहितं । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त सिमांतसार संग्रह (नरेन्द्रसेनाचार्य) परिच्छेद ३- अर्थ किसी शब्दकोश में नहीं पाया जाता। शायद वास्त क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं, दासी दासस्तथा पुनः । को वस्तु (चीज) समझ लिया हो)। सुवर्ण रजतं भांड, हिरण्यं च परिग्रहं ॥३॥ हिन्दी प्रन्थ बाह्यो वश प्रकारोऽयं संख्यादि विशेषत: ॥१४॥ ८. उमास्वामी श्रावकाचार श्लोक ३८१ की हलायुध (इसमे 'कुप्य' न देकर 'रजत' दिया है) जी कृत हिन्दी टीका पृ० १३१ । (३) देवसेन कृत माराघनासार की रत्ननंदि कृत टीका ६. श्रावक धर्मसंग्रह (दरयावसिंह जी सोषिया कृत) (गाथा ३०) पृ० ३८ पृ० २१६, १३२ । "क्षेत्रवास्तु हिरण्य सुवर्ण धनधान्य दासीदास कुप्य १०. रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १० की सदासूख जी भांड बाह्य परिग्रहाणां"। कृत वचनिका मे। (४) दर्शन पाहुड गाथा १४ और भाव पाहुड गाथा ५६ ११. धर्म शिक्षावलो चतुर्थ भाग। की श्रुतसागरी टीका मे १२. सरल जैनधर्म चतुर्थ भाग पृ० २३ । क्षेत्र वास्तु धनं धान्यं, द्विपदं च चतुष्पदं । १३. वरागचरित का हिन्दी अनुवाद (गोरा बाला जी) हिरण्य च सुवर्ण च, कुप्यं भाडं बहिर्वश ।। पृ० ३४६ । -इति पागम भाषया १४. पुरुषार्थ सिद्धघुपाय की सत्यधर जी कृत हिन्दी टीका (दासी दास की जगह यहाँ द्विपद चतुष्पद कर दिया (श्लोक १२८)। है और इन्हें आगम का कथन बताया है किन्तु दि. १५. "विश्वशांति और अपरिग्रहवाद" पृ० २१ । मागम में तो ऐसा कथन देखा नही जाता, सभवत: "पागम १६. पाराधनासार की हिन्दी टीका १०६१ । भाषया,' से तात्पर्य श्वे. मागम-ग्रन्थों से हो; क्योंकि श्वे. १७. जैन धर्मामृत (पं० हीरालाल जी) पृ० १५० । ग्रन्थों में ऐसे कथन पाये जाते है)। १८. नागकुमार चरित हिन्दी (उदयलाल जी काशली(५) बोधपाहुड गाथा ४५ की श्रुतसागरी टीका में वाल) १० ६५, ६६ ।। केते दश बाह्य परिग्रहा: ? क्षेत्र, वास्तु, हिरण्यं, १६. योगसार टीका (ब० शीतलप्रसाद जी कृत) १० सुवर्ण, धनं, धान्यं दासी, दासः, कुप्य । १७६, १६६-१९७। (तत्त्वार्थ सूत्र के इन नामो को ही प्रोर वह भी २०. जैनधर्म प्रकाश (ब० शीतल प्रसाद जी कृत) १० बिना 'भांड' नाम मिलाये ही दश परिग्रह बता दिये है १५१-१५२ । और हिन्दी अनुवादक जी ने भी कुप्य का जो चन्दना- २१. मोक्षमार्ग प्रकाश भाग २ (५० शीतलप्रसाद जी कृत) गुरु' प्रर्थ दिया उसे १०वा भेद बना डाला है)। पृ. ३५। (६) भावसंग्रह संस्कृत (वामदेव कृत) पृ० ११२- २२. श्री वर्धमान महावीर (दिगंबरदास जी मुख्तार) क्षत्रं गृह धनं धान्यं, सुवर्ण रजत तथा । पृ. २६८। बास्यो वासाश्च भांड च, कुप्यं बाह्य परिग्रहाः ॥६२५ २३. छहढाला-हिन्दी टीका (पं. बुद्धिलाल जी, देवरी) (७) लाटीसंहिता (प. रायमल्लजी कृत) सर्ग ६ श्लोक १०१६ । ९८ से १०७ २४. छहढाला-हिन्दी टीका (पं० मनोहरलाल जी, (पूर्ववत् कथन ही दिया है किन्तु क्षेत्र में गृह को जबलपुर) परिशिष्ट पु० ७६ । भी सामिल कर दिया है। "क्षेत्र स्याद् वसतिस्थानं २५. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्रकृत संस्कृत धान्याधिष्ठानमेव वा" । और वास्तु का प्रथं गृह न देकर टीका का हिन्दी अनुवाद पृ० २०३ पौर २८३ । वस्त्रादि दिया है "वास्तु वस्त्रादि सामान्य"। किन्तु (संस्कृत टीका मे सही है)। वास्तु' का अर्थ वसतिस्थान 'गृह' होता है, 'वस्त्रादि' २६. पचलब्धि (मूलशंकर जी देशाई) पृ. ६४ ॥ ' तुम Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वश बाह-परिग्रह जी. २७. रलकरंड श्रावकाचार की हिन्दी टीका (क्षीरसागर भ्रमवश परिग्रह के भेद समझ कर की है जब कि ये कथन जी महाराज कृत) १० ३५ । परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचार है देखिए :२८. बृहज्जैन शब्दार्णव भाग २ (ब. शीतलप्रसाद जी) पच प्रतिक्रमण पृ०६:पृ० ५३१ । धण षण्ण खित्त वत्थ, रुप्य सुवण्णेष कुविन परिमाणे । इन २८ ग्रन्थों में गलत दश बाह्य परिग्रह दिये गये दुपए चउपयम्मिय, पडिकम्मे देसि सव्वं ॥१८॥ हैं। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ७ सूत्र २६ के कथन को परिग्रह इच्छा परिमाणस्स समणोवासएणं इमे पंच-षणके प्राचीन भेद समझ लिया गया है जो भ्रम-मूलक है। घण्ण पमाणा इक्कमे, खित्त वत्थ पमाणाइक्कमे, हिरण अगर सूत्रकार १० नाम देते तो कदाचित् भ्राति सभव सुबष्ण पमाणाइक्कमे, दुपय चउप्पय पमाणाइक्कमे, कुविय थी; किन्तु सूत्रकार ने ही नाम दिये है और वे भी अति- पमाणाइक्कमे । (आवश्यक सूत्र पृ० ८२५)। चार रूप में दिये हैं परिग्रह के भेद रूप में नहीं, फिर भी तत्त्वार्थ सूत्र के परिग्रह परिमाण अतिचार मे और इस भ्रांति का प्रचार दीर्घकाल से हो रहा है और अब उपरोक्त मे सिर्फ यह अन्तर है कि उपरोक्त के "दुपय तो पाठ्यपुस्तकों तक में यह गलती प्रचलित हो गई है चउप्पय" की जगह तत्त्वार्थ सूत्र मे 'दासी दास" है तदअत: विचारक विद्वानों को इस पोर ध्यान देना चाहिए नुसार ही श्वे० दि० ग्रथकारों के गलत परिग्रह भेदों मे ताकि इस गलती की पुनरावृत्ति न हो। बाह्य परिग्रह के अन्तर पड गया है इस विषय में एक अन्तर और है दि. वास्तविक दशभेद वे ही है जो निबघ के प्रारम्भ मे २० ग्रथकारो ने तो "भाड" और मिला कर कुल १० बाह्य शास्त्र प्रमाणों द्वारा प्रस्तुत किए गए है। परिग्रह बताए है क्योंकि दि० सप्रदाय मे बाह्य परिग्रह इस विषय में श्वे. शास्त्रों में कैसा कथन है वह की १० संख्या प्राचीन काल से प्रचलित रही है जैसा कि नीचे संक्षेप में बनाया जाता है : रत्नकरड श्रावकाचार कारिका १४५ से भी सूचित होता (i) तत्त्वार्थसूत्र अ०७ सूत्र १२ की सिद्धसेन गणी है "बाह्य षुदशसु वस्तुषु"। जब कि श्वे० ग्रन्थकारों ने कृत टीका (भाग २ पृ० ८०) बिना कोई परिवर्धन किए ही बाह्यपरिग्रह बताए हैं। "बहिरपि वास्तु क्षेत्र धनधान्य शय्यासन यान कुप्य यहाँ एक बात और ज्ञातव्य है कि-'परिग्रह परिद्वित्रि चतुःपादभांडाख्य इति"। माण' व्रत मे सामान्य परिग्रह का ही ग्रहण किया है शेष यह उल्लेख बाह्य परिग्रह के वास्तविक दश भेदों के भोगोपभोग सामग्री, 'भोगोपभोग परिमाण' गुणव्रत में कथनानुसार है अत: सही है किन्तु कुछ दि० ग्रंथकारों की गभित की गई है जब कि दश बाह्य परिग्रहों में सभी तरह कुछ श्वे० ग्रन्थकारों ने भी इस विषय मे भूल की परिग्रह और सभी भोगोपभोग-सामग्री गर्भित की गई है। है, देखिए : बाह्य परिग्रह के वास्तविक दश भेद-क्षेत्र, वास्तु, (i) मोक्षशास्त्र-अध्यात्मोपनिषद (हेमचन्द्राचार्य) धन, धान्य, द्विपद चतुष्पद, यान, शय्यासन, कुप्य, भांड द्वितीय प्रकाश के श्लोक नं०११५ का स्वोपज्ञ भाष्य का नोच थोड़ा विवरण प्रस्तुत किया । का नीचे थोड़ा विवरण प्रस्तुत किया जाता है। जिससे पत्र १५५-- यह जाना जा सकेगा कि किस भेद में क्या पदार्थ गर्भित धन धान्यं स्वर्णरूप्य, कुप्यानि क्षेत्र वास्तुनी। द्विपाच्चतुष्पादचेतिस्य, नव बाह्याः परिपहाः ॥१॥ १. क्षेत्र-सभी प्रकार की जमीन-खेत, खला, डोहली, (ii) पच प्रतिकृमण (प. सुखलाल जी संघवी) १० प्लाट, पर्वत, नदी, नाला, समुद्र, बावड़ी, कुमां, ३११३१२। बांध, बाग, बगीचा आदि। "धन, धान्य, क्षेत्र, वास्तु, सोना, चांदी, वर्तन, विपद, २. वास्तु-सभी प्रकार के मकान-मंदिर, मकान, चतुष्पद' ये नव प्रकार के परिग्रह बताए है। नोहरा, (निकटगृह), महल, भवन, कोठार, तलघर, यह भूल इन ग्रन्थकारों ने निम्नाकित कथनों को अटारी, खाई, गुफा, कोटर, घंटाघर मादि । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ वर्ष २४ कि.१ प्रनेकान्त ३. धन-गणिम, परिम, मेय और परीक्ष्य के भेद से ४ १०. भांड-लोहा, तांबा, पीतल, कांसी, एलमोनियम, प्रकार का है यथा गणिम-रुपैया, पैसा. नोट, मोहर, भरय, स्टेनलेस स्टील, जरमन सिलवर प्रादि धातुओं नारेल, सुपारी, ग्राम नारगी, मोसमी, चीकू, पुस्तक, के तथा पत्थर, कांच, काष्ठ प्लास्टिक आदि के बने कॉपी, पेन प्रादि सब प्रकार को गिनने योग्य वस्तुएं। वर्तन उपकरण-प्रौजार-हथियार-मशीन तथा खिलौने धरिम-कंकुम, कपूर, दवाई, प्रादि धरने योग्य सब ग्रादि । छत्र, चमर, झाड़, फानूस मादि गोभाकारी वस्तुएं। सामग्री । रेडियो, टेलिविजन, सिनेमा, हारमोनियममेय-तेल, लण, घृत, दूध, दही, सब्जी, शक्कर, गुड, तबला, सारंगी, पियानो-बैजो, बेला-वीणा ग्रामोफोन दाल, लकडो, प्रादि तोलने-मापने के सब प्रकार के कार्ड-लाउड स्पीकर प्रादि वाद्य सामग्री जूते, सूटपदार्थ । के स, तिजोरी, पालमारी आदि । हीग मि च, नमक, परीक्ष्य-सोना, चांदी, जवाहरात प्रादि जाँच कर लिए जीरा, हलदी, घणियां, सौंफ, लोग, डोडा प्रादि जाने वाले पदार्थ । मगाले । हेमचन्द्र कृत अनेकार्थ सग्रह-मांड मूल४. धान्य-चावल, गेहूँ, चणा जुवार, बाजरा, मक्की, वणिगविते तुरंगाणां च मंडने, नबीकूल द्वयीमध्ये जौ, मटर, मूग, उरद, तूर, मोठ, कुलथ, मसूर, तिल, भूषणे भाजनेऽपि च ॥१२७" मंगफली आदि खेती की सब पैदावार और इनसे (सभी प्रकार के बर्तन, प्राभूषण और महाजनी बनी खाद्य सामग्री। दुकानदारी की वस्तुए-नेल, लूण, लकी प्रादि द्विपद-दासी, दास, नौकर, चाकर, स्त्री, पुत्र, भांड, कहलाती है)। रत्नकरड की प्रभाचन्द्र टीकामनुष्य, तोता, मैना आदि पक्षी उपलक्षण से एक "भांडं श्री खंड मंजिष्ठा कांस्य ताम्रादि' लिखा है । पाद वाले सभी प्रकार के वृक्ष, वेल, पौधे आदि और भी अवशिष्ट वस्तुएं कुप्य एवं भांड मे ग्रहण वनस्पतियाँ । करना चाहिए कूप्य और भांड का क्षेत्र बहुत व्यापक चतुष्पद-हाथी, घोडा, ऊंट, बैल, गाय, भैस, पाड़ा, गदहा, खच्चर, बकरी, भेड आदि चौपाये पशु । क्रिया कलाप पृ० १०१, ८० में पांचवे महाव्रत के उपलक्षण से छह पांव वाले भ्रमर प्रादि और पाठ प्रकरण मे जो श्रमणो के योग्य न हो ऐसा "प्रश्रमण पांव वाले अप्पाद प्रादि जतु । प्रायोग्य परिग्रह" बताया है उसमें बाह्य परिग्रह विषयक ७. पान-डोली, पालकी, गाडी, रथ, नाव जहाज, अनेक वस्तुप्रो के नाम दिए है। बोट, साइकिल, मोटर कार, जीप, टेम्पू, स्कूटर, . इसी तरह तत्त्वार्थमूत्र अ० ७ स० १७ को श्रुतसागरी रिक्सा, उड़न खटोला, वायुयान प्रादि । वृत्ति में चेतनाचेतन बाह्य परिग्रह का वर्णन किया है। ८. शय्यासन -- खाट, पलंग, सोफा, तख्ता, ब्रेच, मेज, "स्त्री द्वारा जिनाभिषेक" नाम के ट्रेक्ट पृ० ६७ पर कुरसी, मड्ढा, पीढा, सिंहासन, पाटा, चौकी, तिपाई, 5. सूरजमल जी ने पचामृताभिषेक का समर्थन करते चटाई आदि सोने बैठने के सामान । हुए लिखा : "ये दूध दही घृतादि पदार्थ दश प्रकार के ६. कुप्य-सूती, ऊनी, रेशमी, सणी, टेरेलिन, नाइलोन, परिग्रहों में भी नहीं।" मखमल प्रादि के वस्त्रादि । कुंकुम, चन्दन, अगुरु, अपने पक्ष के व्यामोह में मनुष्य सिद्धांत का भी किस इत्र प्रादि सुगंधित द्रव्य । सभी प्रकार की प्रसाधन तरह हनन कर देता है यह इसका ज्वलंत उदाहरण है। सामग्री ।। चौवा चन्दन अगर सुगंध, अतर, अगरजा अगर दूध दही घृतादि परिग्रह नही है तो फिर क्या हैं। प्रादि प्रबन्ध । तेल फुलेल घृतादिक जेह, बहुरि वस्त्र यह बताने का कष्ट ब्रह्मचारी जी सा० ने नही किया सब भाँति कहेह। ये सब कुप्य परिग्रह कहे ससारी । अन्यथा सिद्धांत विधान की उनकी कलई स्वयमेव खुल जीव नेनि गहे ॥७१३॥-क्रियाकोश(दौलतरामजी) जाती। (शेष पृ० २० पर) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोपीलाल अमर (१लीरो, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, बिल्ली-३२) ग्वालियर में जैन धर्म ग्वालियर ऐतिहासिक, प्रौद्योगिक तथा राजनीतिक महत्त्व के कारण प्रसिद्ध है। यह शहर तीन विभिन्न क्षेत्रों को मिलाकर बना है : ग्वालियर जो पहाड़ी पर किले के उत्तर में है और जो अपने मध्यकालीन स्थापत्य के लिए विख्यात है, लश्कर जो किले के दक्षिण में है मौर सन् १८१० में दौलतराव सिन्धिया के लश्कर या फौजी छावनी के रूप में बस गया था तथा मोरार जो किले के पूर्व में है और जिसमे पहले अंग्रेजों की छावनी थी। यह भूतपूर्व ग्वालियर स्टेट का मादर्श नगर था । सन् १९५६ मे मध्यप्रदेश के बनने तक यहाँ मध्यभारत की शीतकालीन राजधानी रहती थी। यहाँ मध्यकाल और प्राधुनिक काल में निर्मित अनेक इमारतें दर्शनीय हैं जिनमें स्टेशन, जामामस्जिद, मुहम्मद गौस का मकबरा, तानसेन की समाधि, किला, लक्ष्मण दरवाजा, हथियापौर दरवाजा, फूल बाग, जयविलास महल, मोती महल, कम्पू कोठी मुख्य है। किले में चार हिन्द्र और दो मुस्लिम इमारतें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं : मान मन्दिर, गुजरी महल, करण मन्दिर, विक्रम मन्दिर, जहाँगीर महल और शाहजहानी महल । कुछ महत्त्वपूर्ण हिन्दू मन्दिर भी किले में दर्शनीय हैं जैसे सूर्यदेव, ग्वालिया, चतुर्भुज, जयन्ती थोरा, तेली का मन्दिर, सास-बहू (बड़ा) सास-बहू (छोटा), मातादेवी, धोन्धदेव और महादेव । इनके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण जैन मन्दिर भी किले में है जिसका पता सन् १८४४ में श्री कनिंघम ने लगाया था। प्राचीन काल में ग्वालियर नाग, कुषाण, हूण, प्रतिहार और चम्देल शासकों के अधिकार में रहा है । मध्यकाल में इस पर सुल्तान, खिलजी, तोमर, तुगलक, लोधी और मुगल शासकों का अधिकार रहा है । इसके पश्चात् यहां काफी समय तक सिन्धिया वंश का और फिर अग्रेजों का शासन रहा। यहां के दुर्ग का अपना इतिहास है । कुछ लोगों का कथन है कि यह दुर्ग (किला) ईसा से कोई ३००० वर्ष पूर्व का बना था कुछ पुरातत्त्वज्ञ इसे ईसा की तीसरी शताब्दी में बना हुमा मानते हैं। कुछ भी हो, इस दुर्ग की गणना भारत के प्राचीन दुगों में की जाती है। ग्वालियर में जैन वाङ्मय में, जैनेतर वाङ्मय की कोष मोर वाक्पतिराज के गोडवष तथा महामहविजय भांति गोपगिरि गोवगिरि, गोपाचल, गोपालाचल, गोवाल- में प्राम नरेश मौर बप्पभद्रसरि की विस्तृत चर्चा मिलती गिरि, गोपालगिरि, गोवाल चलदु मादि नामों से उल्लि- है। बप्प भट्टसरि के उपदेश से भाम नरेश जैन श्रावक खित किया गया है। बना । उसने कन्नौज में ४०६ गज का विशाल जैन मंदिर बप्पभट्ट सरि बनवाया और उसमें १८ भार सूवर्ण की प्रतिमा स्थापित ग्वालियर इतिहास के जैन स्रोत पर्याप्त मात्रा करायी। ग्वालियर में भी उसने २३ हाथ ऊंचा जैन मंदिर में उपलब्ध हैं। पाठवीं शती ई. के उत्तरार्ष में हुए बनवाकर उसमें लेप्यमयी जैन प्रतिमा स्थापित की। कन्नौज नरेश नागावलोक, जिसे अधिकांश स्थानों पर प्रतिष्ठा के समय जब उसने सूरि जी को नमस्कार किया माम नाम से उल्लिखित किया गया है, का ग्वालियर के तब उन्होंने ११ पद्यों के स्तोत्र द्वारा उसे पाशीर्वाद जैन प्राचार्य वप्पमाद्रि सूरि के साथ इतना घनिष्ट संबंध दिया। यह स्तोत्र पन्द्रहवीं शती तक पाया जाता था। रहा है जितना चाणक्य और चन्द्रगुप्त का था।" प्रभा- इस नरेश ने तीर्थराज शत्रुजय के लिए एक यात्रासंघ चन्द्र देव के प्रभावक परित, राजशेखर सूरि के प्रबन्ध निकाला जिसमें श्वेताम्बर जैनों के साथ दिगम्बर जैन भी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनेकान्त करने के लिए स्वयं ग्वालियर प्राये मौर तत्कालीन शासक भुवनपाल कच्छपघट को प्रभावित कर उन्होंने उस मंदिर की सुव्यवस्था करवायी । १८ वर्ष २४, कि० १ सम्मिलित थे । " राजा श्राम ने एक वणिक् कन्या से विवाह किया जिसकी सन्तान कोष्ठागारिक ( कोठरी ) कहलायी और बाद को श्रोसवाल वंश मे मिल गई ।" ८६० वि. में इसका देहान्त हुआ। इसके पुत्र दुन्दुक का पुत्र भोजदेव कदाचित् वही भोज था जिसका उल्लेख देवगढ़ के एक शिलालेख में हुआ है । यह भोजदेव जैनधर्मानुयायी प्रौर भट्टसूरि के गुरु भाई श्री नन्नसूरि का परम भक्त था । इसने उक्त सूरिजी के पास श्रावक के व्रत लिए और तीर्थ यात्रा में संघ भी निकाला ।" यह वंश १६वीं शती ई० तक विद्यमान था । स्वयं वप्पभट्टसूरि एक अच्छे श्राचार्य थे । उसका जन्म ८०७ वि. में और मृत्यु ८६५ वि. में हुई । प्रभावकचरित के अनुसार इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे, यद्यपि उनमें से अब सरस्वती स्तोत्र और चौवीसस्तवन ही उपलब्ध हैं । कन्नौज नरेश नाम के अतिरिक्त लक्षणावती के नरेश धर्मराज को भी इन्होंने जैन बनाया । धर्मराज की सभा में इन्होंने किसी बौद्ध विद्वान् वर्धनकुञ्जर को शास्त्रार्थ में पराजित कर "वादिकुञ्जरकेशरी ” उपाधि प्राप्ति की । मथुरा में इन्होंने प्रतिष्ठा भी करायी । जैन साहित्य में इन्हें 'राजपूजित' के नाम से संबोधित किया गया है, कदाचित् इसलिए कि ये अपने जीवन के अधिकांश भागमें राजाओं द्वारा पूजित रहे । धर्मराज की सभा के भारत प्रसिद्ध कवि वाक्पतिराजने गोडबघ श्रौर महामहविजय नाम के दो काव्य-ग्रन्थों का निर्माण कर बप्पभट्टसूरि श्रौर श्राम नरेश को अमर कर दिया । मध्यकाल में कच्छपघट शासक वज्रदामन ( १०३४ वि०) ने ग्वालियर में एक जैन मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी । प्राचार्य प्रद्म ुम्नसूरि ने ११वीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा को अपनी वादशक्ति से रंजित किया और १२वीं शताब्दी के विद्वान् वादिदेवसूरि ने गंगाधर द्विज को ग्वालियर मे परास्त किया, ऐसा तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है । गुर्जर नरेश सिद्धराज द्वारा सम्मानित वोराचार्य ने ग्वालियर प्राकर वहाँ के राजा द्वारा भी सम्मान पाया । मलघारी अभयदेवसूरि जो वीराचार्य के समकालीन थे, पूर्वोक्त नरेश श्राम द्वारा निर्मित मन्दिर की दुर्व्यवस्था दूर • किसी संस्कृत कवि द्वारा १३वीं शती ई० में रचित सकलतर्क स्तोत्र में ग्वालियर की गणना तीर्थों में की गयी । मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवालवंशी श्रावक वाह कूकेक, सूर्पट, देवधर, महीचन्द्र श्रादि चतुर श्रावकों ने वि. सं. ११४५ में विशाल जैन मन्दिर का निर्माण कराया। उसके पूजन, संरक्षण एवं जीर्णोद्धार आदि कार्यों के लिए कच्छपवशी राजा विक्रमसिंह ने महाचक्र नाम के ग्राम में कुछ जमीन आदि भी प्रदान की । त्रिक्रम की १५वी शताब्दी के अन्त में भट्टारक यश: कीर्ति ने (वि.सं. १४६७ में ) पाण्डव पुराण और (सं. १५०० मे) हरिवशपुराण की रचना अपभ्रंश भाषा मे की। जिन रात्रिकथा और रबिव्रतकथा भी इन्हीने बनायी है । चन्द्रप्रभचरित्र भी इन्हीं यशः कीर्ति का बनाया हुआ कहा जाता है । स्वयभूदेव के हरिवंशपुराण की जीर्णशीर्ण खण्डित प्रति का समुद्धार भी इन्होंने किया था । यह भट्टारक गुणकीर्ति के लघुभ्राता धौर शिष्य थे । तोमर शासकों का योगदान ग्वालियर पर सन् १३७५ से लगभग सवा सौ वर्ष तोमरों का शासन रहा। इस वंश के वीरसिंह, उद्धरणदेव, विक्रमदेव, गणपतिदेव, डूंगर रेन्द्रसिंह, कीर्तिसिंह श्रोर मानसिंह के नाम श्रद्वितीय वीरों एवं कला के श्राश्रयदाताओं के रूप में आज भी प्रसिद्ध है । डूंगरेन्द्रदेव अपनी राजनीतिक चातुरी एवं वीरता के लिए तो प्रसिद्ध है ही, उसका नाम ग्वालियर गढ़ की जैनमूर्तियों के निर्माता के रूप में भी भ्रमर रहेगा । उसके राज्यकाल में इन अद्वितीय मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था । अनेक समृद्ध भक्तों ने भी अपनी श्रद्धा एवं सामर्थ्य के अनुरूप विशाल जैन मूर्तियों का निर्माण कराया और इन मूर्तियों के पादपीठों पर अपने साथ अपने नरेश का भी उल्लेख किया। १४६७ वि०, १५१० वि० प्रादि की कुछ मूर्तियों के पादपीठों पर उनके निर्माण संवत् के साथ गोपाचल दुर्ग और महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह का उल्लेख है । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर में जन धर्म महाराज डूंगरेन्द्रदेव के तीस वर्षीय शासनकाल के इसी प्रकार उत्तर-पूर्व समूह भी कलाकी दृष्टि से महत्वहीन पश्चात् उनके पुत्र कीर्तिसिंह का राज्य प्रारम्भ हुमा, है । मूर्तियां छोटी है और उन पर कोई लेख नहीं है । जिसे अपने २५ वर्ष के लम्बे शासनकाल में कभी जौनपुर दक्षिण-पूर्व समूह मूर्तिकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण और कभी दिल्ली के सुल्तानों को मित्र बनाना पड़ा। है। मूर्ति समूह फूल बाबा के ग्वालियर दरवाजे से इसके शासनकाल मे ग्वालियर गढ़ की शेष जैन प्रतिमाओं निकलते ही लगभग प्राध मील तक चट्टानों पर उत्कीर्ण का निर्माण हुआ। दीखती है। इसमें लगभग २० प्रतिमाएं २० से ३० फुट प्रतिमानों पर एक वृष्टि तक ऊंची हैं और इतनी ही ८ से १५ फुट तक । इनमें ग्वालियर गढ़ की इन प्रतिमानों को ५ भागों में आदिनाथ, नेमिनाथ, पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, सम्भवनाथ, विभाजित किया जा सकता है :-(१) उरवाही समूह, नेमिनाथ, महावीर, कुन्थुनाथ की मूर्तियां हैं। इनमें से (२) दक्षिण-पश्चिम समूह, (३) उत्तर-पश्चिम समूह, कुछ दूर पर संवत् १५२५ से १५३० तक के अभिलेख (४) उत्तर-पूर्व समूह, (५) दक्षिण-पूर्व समूह । इनमें से उत्कीर्ण हैं। उरवाही द्वार के एवं किंग जार्ज पार्क के पास के समूह प्रतिमानों की महत्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उरवाही समूह अपनी विशालता से जैसा कि लिखा जा चुका है, डुंगरेन्द्रसिंह तथा एवं दक्षिण-पूर्व समूह अपनी अलकृत कला द्वारा ध्यान कीर्तिसिंह के शासनकाल में ईसवी सन् १४४० तथा प्राकृष्ट करता है। १४७३ के बीच ग्वालियर गढ़ की सम्पूर्ण प्रतिमानों का उरवाही समूह में २२ प्रतिमाएं हैं जिनमें ६ पर निर्माण हुआ। इस विशाल गढ़ की प्रायः प्रत्येक चटान सं० १४६७ से १५१० के बीच के अभिलेख है। इनमे को खोदकर उत्कीर्णकर्ता ने अपने अपार धैर्य का परिचय सबसे ऊंची खड़ी प्रतिमा २० नवम्बर की है। इसे बाबर दिया है। इन दो नरेशों के राज्य में जैनधर्म को जो ने २० गज का समझा था, वास्तव में यह ५७ फीट ऊंची प्रश्रय मिला और उनके द्वारा मूर्तिकला का जो विकास है। चरणों के पास यह ६ फुट चौड़ी है। २२ नम्बर हुआ उसकी ये भावनामयी प्रतिमाएं प्रतीक हैं। तीस वर्ष की नेमिनाथ जी की पद्मासन मृति ३० फुट ऊंची है। के थोड़े समय में ही गढ़ की प्रत्येक मूक एवं बेडोल चट्टान १७ नम्बर की प्रतिमा पर तथा प्रादिनाथ की प्रतिमा भव्यता, शान्ति एवं तपस्या की भावना से मुखरित हो की चरण चौकी पर इंगरेन्द्रसिंह के राज्यकाल के संवत् उठी। प्रत्येक निर्माणकर्ता ऐसी प्रतिमा का निर्माण १४६७ का लम्बा अभिलेख है। करना चाहता था जो उसकी श्रद्धा एवं भक्ति के अनुपात दूसरा दक्षिण-पश्चिम समूह एकखम्भा ताल के नीचे में ही विशाल हो और उत्कीर्णकर्ता ने उस विशालता में उरवाही दीवाल के बाहर की शिला पर है। इस समूह सौन्दर्य का पुट देकर कला की अपूर्व कृतियां खडी करदी। मे पाँच मतियाँ प्रधान है। दो नम्बर की लेटी हुई छोटी मूर्तियों में जिस बारीकी और कौशल की प्रावश्यप्रतिमा ८ फूट लम्बी है। इस पर मोप है। यह प्रतिमा कता होती है वह इन प्रतिमानों में विद्यमान है। तीर्थंकर की माता की है। देवगढ़ प्रादि में ऐसी ही अनेक प्रतिमानों का भंजन प्रतिमाएं हैं। तीन नम्बर की प्रतिमा समूह में एक स्त्री. इन मूर्तियों के निर्माण के लगभग ६० वर्ष पश्चात पुरुष तथा बालक है। कुछ लोग इसे महाराज सिद्धार्थ, ही बाबर ने अपने साथियों के साथ इन सबके मुख मादि नाना महावीर स्वामी की मानते है, पर खण्डित कर दिये । सन् १५२७ मे उसने उरवाही द्वार की यह धरणेन्द्र-पमावती की है, ऐसी प्रतिमाएं भी देवगढ़ प्रतिमानों को भी नष्ट कराया। इस घटना का बाबर ने मादि में सैकड़ों की संख्या में है। अपनी प्रात्मकथा में बड़े गौरव के साथ उल्लेख किया है। उत्तर-पश्चिम समूह में केवल एक मादिनाय की प्रतिमा महाकवि रह महत्वपूर्ण है। इस पर सं० १५२७ का अभिलेख है। महाराज डूंगरेन्दसिंह और उनके पुत्र कीतिसिंह के Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०, वर्ष २४, कि० १ शासनकाल में अपभ्रंश के उत्कृष्ट साहित्यकार महाकवि रइबू ने अपने जन्म से ग्वालियर को धन्य किया । सहाकवि र संघपति देवराय के पौत्र मौर विजयश्री तथा हरिसिंह संपति के पुत्र थे। इनके दो भाई और थे, बाहोल और माणसिंह | महाकवि रद्दधू ने प्राकृत भौर अपभ्रंश में लगभग २३ रचनाएँ कीं । महाराज डूंगरेन्द्र सिंह मोर कीर्तिसिंह महाकवि रद्दषू के परम भक्त थे । इनके समय में निर्मित पूर्वोक्त ५७ फुट ऊंची प्रतिमा की प्रतिष्ठा रद्दधू ने ही करायी थी । उन्होंने दिल्ली तथा हिसार तक की यात्रा की। हिसार में रहकर उन्होंने कुछ लिखना भी चाहा किन्तु ग्वालियर के प्रबल आकर्षण ने उन्हें वहाँ रहने न दिया । उन्होंने ग्वालियर को मालव जनपद के गले का हार और श्रेष्ठ नगरों के गुरुनों का भी गुरु ( गुरुणं वरणपरहं एहु गुरु ) कहा । यहाँ के नारी समाज के शीलव्रत, श्राचार, विचार, अतिथि सत्कार एवं उदार स्वभाव से वे इतने प्रभावित थे कि उसके विषय में उन्हें स्वतन्त्र रूप से ही कुछ पंक्तियां लिखनी पड़ीं। ग्वालियर में कुछ जैन उपाश्रय भी बने। इनमें से दो मुख्य उपाश्रय नेमिनाथ मन्दिर धौर वर्षमान मन्दिर के पास थे। इन दोनों में बैठकर रद्द ने अपनी कुछ रचनाएं लिखी, भतः उन्होंने उन भाश्रयों को सुन्दर कवितारूपी रसायन से रसाल ( सुकवित्त रसायण - णिहि-रसालु) कहा है । महाकवि रद्दधू की एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि उन्होंने पती प्रायः सभी कृतियों में विस्तृत प्रशfear frखी हैं जिनके माध्यम से ग्वालियर, पद्मावती; मनेकान्त संसार में जितने जीव अजीव पदार्थ है वे सब परिग्रह हैं । अतः दूध दही घृतादि भी स्पष्टतः परिग्रह हैं । ये सब संसार में ही हैं संसार से बाहर नहीं। दूध तो गाय भैस से उत्पन्न होता है घोर दूध से दही जमाया जाता है और दही से घृत तैयार किया जाता है। लाटी सहिता सर्ग ६ श्लोक १०७ में "कुप्प शब्दों घृतोद्यर्थः” । तत्त्वार्थ की श्रुतसागरी वृत्ति (प्र० ७ सू० १७) में— "घृत तेल गुड़ शर्करा प्रभृतिरचेतनो बाह्य परिग्रहः" उज्जयनी, दिल्ली, हिसार प्रादि से सम्बन्ध रखने वाली राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक प्रादि सभी प्रकार की परिस्थितियों पर प्रकाश पड़ता है । अपने प्राश्रयदातानों, राजाओं, नगरसेठों, पूर्ववर्ती, एवं समकालीन कवियों, विद्वानों और भट्टारकों के महत्व - पूर्ण उल्लेख भी उन्होंने किये । सन्धिकालीन कवि होने के नाते उनकी रचनाएं भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी प्रत्यंत महत्व की हैं। रहधू का साहित्य मभी पूरा प्रकाशित नहीं हो सका है। उत्तरवर्ती साहित्यकार सं० १५३१ में ग्वालियर के एक श्रावक पद्मसिंह ने महाकवि पुष्पदन्त (१०वीं शती) के भादि पुराण की प्रतिलिपि करायी। इस प्रतिलिपि के दानकर्ता की प्रशस्ति में लिखा है कि पद्मसिंह ने प्रादिनाथ का एक मन्दिर बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करायी । उसने एक लाख ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ भी करायीं मौर चौबीस जन मन्दिर भी बनवाये, वह विविध गुणों से सम्पन्न था । सं० १५२१ में ही यहाँ के किसी लुहाडियागोत्रीय खंडेलवाल श्रावक ने पउमचरिउ की प्रतिलिपि करायी । भट्टारक गुणभद्र ने १६वी शती के उत्तरार्ध में लगभग १५ कथाग्रन्थों की रचना की । संवत् १६५१ में यहाँ के निवासी श्री परिमल प्रागरा चले गये और वहाँ उन्हों श्रीपाल चरित्र की रचना की । इसके पश्चात् भी ग्वालियर में जन धर्म की अच्छी प्रभावना रही मोर आज भी है । (शेष पृ० १६ ) fear है तथा क्रिया कलाप पृ० ८० मे - "तथ्य बाहिरो परिग्गहो" भस्तपाणादिभेषण प्रणेमविहो" (बाह्य परिग्रह भोजन पान के भेद से अनेक प्रकार का है) ऐसा लिखा है जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूध दही घृतादि को शास्त्रकारों ने बाह्य परिग्रह माना 1 प्राशा है विद्वद्गण इस लेन पर गम्भीरता से विचार कर दस बाह्य परिग्रह के नामों में जो गलती प्रचलित हो रही है उसका संशोधन करने का प्रयत्न करेंगे। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालचन्द्र सिदान्त-शास्त्री सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन सम्यग्दर्शन का महत्व सम्यग्दर्शन से ही प्राप्त होता है। ____ सम्यग्दर्शन, दर्शन, सदृष्टि, सम्यक्त्व, तत्त्वरुचि और यह उस सम्यग्दर्शन का ही प्रभाव है जो सम्यक्त्व तत्त्वश्रद्धा आदि शब्द समनाथंक हैं। प्रस्तुत सम्यग्दर्शन से संयुक्त चाण्डालकुलोत्पन्न (हिंसक) मनुष्य को भी पूज्य समस्त धर्माचरण का मूल-प्रधान-कारण माना गया तथा उस सम्यक्त्व के बिना मुनिधर्म का परिपालन करने है। इस सम्यग्दर्शन से जो भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट ही हैं, उन्हें वाले साधु (द्रव्यलिंगी) को एक सम्यग्दृष्टि गृहस्थ की कभी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । कारण कि जो सम्यग- प्रपेक्षा भी हीन माना गया है। सम्यग्दृष्टि जीव परभव दर्शन से भ्रष्ट होते हैं वे ज्ञान और चारित्र से भी नियमतः में नारफ मादि निकृष्ट पर्याय को भी पर्याप्त नहीं करता, भ्रष्ट होते हैं । इस प्रकार वे जब मोक्षमार्ग से ही दूर हैं। यदि सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व उसने मन्य किसी मायु का तब भला उन्हें मुक्ति की प्राप्ति हो ही कैसे सकती है? बन्ध नही कर लिया है तो वह सम्यक्त्व के प्रभाव से जिस प्रकार मूल (जड़) के विनष्ट होने पर वृक्ष के उत्तम देव ही होता है। परिवार की शाखा, पत्र, पुष्प और फल प्रादि की । फल प्रादि की- जो जीव अन्त मुहूर्त मात्र सम्पग्दृष्टि रहकर पश्चात वृद्धि नहीं होती उसी प्रकार धर्म के मूलस्वरूप सम्यग्- उस सम्यक्त्व से व्युत हो गया है वह भी मनातानम्त दर्शन के विनष्ट होने पर धर्म के परिवारस्वरूप ज्ञान और कास संसार में नहीं रहता-अधिक से अधिक प्रर्वपक्षणल चारित्र प्रादि की भी वृद्धि सम्भव नहीं है। इस प्रकार परिवर्तनमात्र संसारी रहकर मुक्त हो जाता। यह व्यवहार सम्यक्त्व का प्रभाव समझना चाहिए। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीब कभी मुक्त नही हो सकते। र निश्चयसम्यग्दृष्टि तो दुष्ट पाठकों जिस ज्ञान के द्वारा सेव्य-प्रसेव्य या हेयाहेय के स्वरूप को को नष्ट करके मुक्ति को प्राप्त करता है। निश्चयसम्यग्दृष्टि परद्रव्य जानकर प्राणी हेय को छोड़कर महेय (उपादेय) में प्रवृत्त से भिन्न स्वद्रव्य में ही निरत रहता है। कर्म-मल से होता है-चारित को स्वीकार करता है-वह ज्ञान इस रहित ज्ञानस्वरूप जो शुद्ध पारमा है वह स्वद्रव्य है तथा १. दसणमलो धम्मो उबटो जिणवरेहि सिस्साणं। उस प्रात्मस्वभाव से भिन्न जो बेतन, प्रचेतब और मिश्र द. प्रा.२ द्रव्य हैं उन्हें परखम्म जानना चाहिए। २. जह मूलम्मि विण? दुमस्स परिवार त्यि परिवड्ढी। र पत्थि पारवड्ढो। ३. सम्मत्तादो गाणं गाणादो सव्वभाउवलधी। तह जिणदसणभट्ठा मुलविणष्ट्रा ण सिझति॥ उवलद्धपयत्ये पुण सेयासुयं वियाणेदि। द.प्रा. १५ ६.प्रा. १० ४. रत्नकरण्डक २८, ३३ पौर ३५. विद्या-वृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः । ५. भ. मा. ५३. न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ र.क.३२ ६. जीवो सहावणियदो मणियदगुणपज्जमोऽध परसममो। मोह-तिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । जदि कुणदि सगं समयं पम्भस्सदि कम्मबंबायो। रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।। र.क. ४७ पंचा.१२ त्र्यशानशुद्धिप्रदम् । प्रात्मानु.१०० अन.ब. २.४७ सबब्बरमो सवणो सम्माइट्री हवेहणियमेण। तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाययणीयमखिलयलेन । सम्मतपरिणदो उण सवेह दुट्टकम्माणि । मोप्रा.१४ तस्मिन सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरिषं च ।। ७. द्रट्रकम्मरहियं मणोवर्म जाणविगणि पु. सि. २१ सुखं विहिपहिया हतिसरा .१५ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. वर्ष २४, कि० १ सम्यग्दर्शन का स्वरूप अनेक प्रकार 1 सम्यग्दर्शन का स्वरूप विविध ग्रंथों में का देखा जाता है । ये प्रकार देखने में अनेक हैं, पर अभिप्राय उनका एक ही है । यह भागे निर्दिष्ट किये जाने वाले उसके लक्षणों के अध्ययन से स्वयं स्पष्ट हो जाता है । यथा अनेकान्त दर्शनप्रभूत औौर गो. जीवकाण्ड में छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय श्रौर सात तत्त्व इनका जो श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि कहा गया है' । सूत्रप्राभूत में जिनप्रणीत सूत्रार्थं, बहुत प्रकार के जीवादि पदार्थ तथा हेय श्रहेय को जो जानता है उसे सम्यग्दृष्टि कहा गया है। मोक्षप्राभूत में ऐसे गृहस्थ को भी गया है जो उस सम्यग्दर्शन का ध्यान और जो उस सम्यक्त्व से परिणत हो माठों कर्मों को नष्ट कर डालता है' । सम्यग्दृष्टि कहा मात्र करता है । जाता है वह तो नियमसार में सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्राप्त, भागम और तत्वों के श्रद्धान से निर्दिष्ट की गई है । आगे यहाँ नाना गुण-पर्यायों से युक्त जीव, पुद्गलकाय, धर्म, श्रधर्म, काल और प्राकाश इन द्रव्यों को ही तस्वार्थ कहा गया है । पश्चात् इन्हें द्रव्य भी कहा गया है । प्रादसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्वयं हवदि । तं परद्रव्यं भणियं भवितत्थं सम्बदरसीहि ॥ मो. प्रा. १७ १. व्य व पयत्या पंचस्थी सततच्च गिट्ठिा । सहहह ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो । पंचा, का. १६, गो. जी. ५६० जीवादी द्दणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । बवाहारा पिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥ दर्श. प्रा. २० २. सुतत्यं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं प्रत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जागई सो सट्ठी ||५|| ३. सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो । सम्मत परिणदो उण खत्रेइ दुद्रुठ्ठ कम्माणि ॥ ८७ ४. प्रत्तागमत्तच्चाणं सद्दद्दणादो हुवेइ सम्मत ||५|| (पू.) जीवा पोग्गलकाया धम्माघम्मा य काल प्रायास । तवत्था इदि भणिदा णाणागुणजएहि संजुत्ता | पंचास्तिकाय में भावों ( पदार्थों) के श्रद्धानकों सम्यक्त्व बतलाते हुए जीव, प्रजीव, पुष्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध प्रोर मोक्ष इनको अर्थ कहा गया है । भागे यह भी कहा गया है कि धर्मादि द्रव्यों का जो श्रद्धान है, वही सम्यक्त्व है। इसी प्रकार भगवती श्राराधना में भी धर्मादि द्रव्यों का श्रद्धान करने वालों को सम्यक्त्वाधक (सम्यग्दृष्टि ) बतलाया है । तस्वार्थ सूत्र, श्रावकप्रज्ञप्ति, पंचाशक, तस्वार्थसार और पुरुषार्थ सिद्धघुपाय में तस्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व बतलाये हुए जीव प्रजीवादि सात को तस्वार्थ कहा गया है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय मे आगे यह भी स्पष्ट कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मे सर्वप्रथम उस सम्यग्दर्शन का ही श्राश्रय लेना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र होते है । ७. ८. रत्नकरण्डक में परमार्थभूत प्राप्त, भागम भोर तपोसूत (गुरु) के तीन मूढ़ताओं से रहित, माठ अंगों से सहित और माठ मदों से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है । आगे उसे यहाँ ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति व स्थिति प्रादि का प्रमुख कारण भी कहा गया है। भात्मानुशासन में नौ व सात तत्वों से श्रद्धान को सम्यक्त्व बतलाते हुए उसे तीन प्रकार के प्रज्ञान की शुद्धि का कारण एवं प्रथम प्राराधना निर्दिष्ट किया गया है । प्रागे वहाँ उक्त सम्यक्त्व के बिना शम ( कषायों का ५. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं X XX। पंचा. का. १०७ (पू.); भ. प्रा. ३८; जीवाजीवा भावा पुष्णं पावं च प्रासवं तेसि । संवर- णिज्जर- बंधो मोक्खो य हवंति ते भट्ठा || १०८ || धम्मादीसहहणं सम्मतं । १६० (पू.) ; धम्माम्मागासाणि पोग्यला कालदव्व जीवे य । प्राणाए सद्दहंतो सम्मत्त राम्रो भणिदो ॥ भ. प्रा. ३६. ६. त. मू. प्र. १, सू. २ व ४; श्रा. प्र. ६२-६३; पंचा. १-३; त. सा. १-४ व १-६; पु. सि. २२. पु. सि. २१. र. क. ४ व ३२. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन दमन), ज्ञान, चारित्र और तप को निरर्थक भार (बोझ ) स्वरूप बतलाया गया है ।' उपासकाध्ययन में प्राप्त भागम और पदार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। पूर्वोक्त रत्नकरण्ड में जो प्राप्त, श्रागम और तपस्वी के श्रद्धान को सम्यग्दन कहा गया है उसका अनुसरण करते हुए यहां 'तपोभूत' के स्थान में 'पदार्थ' को ग्रहण किया गया है । रत्नकरण्डक में तीन मूढ़ताओं से रहित और आठ प्रगो से सहित ये जो दो विशेषण श्रद्धान के लिए दिए गए हैं वे यहां भी है । विशेष यहां इतना है कि रत्नकरण्डक में श्रद्धान का अस्मय तीसरा विशेषण जहां ममय ( पाठ मदो से रहित) है, वहा प्रकृति उपासकाध्ययन में वह तीसरा विशेषण प्रशमादिभाक् - प्रशम - संवेगादि गुणों से युक्त है । प्रज्ञपना (पण्णवणा) धौर उत्तराध्ययन सूत्र में निर्दिष्ट सरागदर्शनार्यो के दस भेदों में प्रथम निःसर्गरुचि है । इसके स्वरूप का निरूपण करते हुए वहाँ कहा गया है कि जीवाजीवादि पदार्थ जिसे भूतार्थरूप से पदार्थ सद्भूत हैं इस प्रकार - सहसमति ( श्रात्मसंगतमति ) परोपदेशनिरपेक्ष जातिस्मरण व प्रतिभा प्रादि रूप मति से प्रधिगत (ज्ञात) है उसे निसर्गरुचि कहा जाता है' यहां जिस गाया द्वारा यह स्वरूप कहा गया है उसका पूर्व प्रा० कुन्दकुन्दविरचित समयप्राभूत की गा० १५ के पूर्वार्ध से सर्वथा समान है । प्रज्ञापना की उस गाथा में बन्ध, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का निर्देश नहीं है। उसकी टीका में भाचार्य मलयगिरि ने उन्हें 'च' शब्द से सूचित बतलाया है। १. भारमानु. १० व १५० २. प्राप्तागमपदार्थानां बद्धानं कारणमात् गूढाचपोळ मष्टांग सम्यक्त्व प्रशमादिभाक् ।। ४८, पृ. १३. ३. भूयत्थेणहिगया जीवाजीवे य पुण्णपावं च । सहसंमुइया प्रासव संवरे य रोएइ उनिसग्गो ॥ प्रज्ञाप. गा. ११६, पृ. ५६; उत्तरा ३८-१७. ४. भूवत्येणाभिगदा जीवाजीवा व पुष्णं-पावं च प्रासव संवर णिज्जर बघो मोक्खो य सम्मत्त ॥ समयप्रा. १५; मूलाचार ५-६० • १३ गो. जीवकाण्ड में कहा गया है कि जो न तो इन्द्रियविषयों से विरत है और न त्रस स्थावर जीवों के विषय में भी विरत है, पर जिन भगवान् के द्वारा प्ररूपित तत्व पर श्रद्धा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है। में यहाँ तक जो सम्यग्दर्शन का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है वह व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप है, निश्चय नया की अपेक्षा यह सम्भव नहीं है। उक्त लक्षणों में जो भिन्नता दिखती है उसका कारण विवक्षाभेद है, अभिप्राय कुछ भेद नहीं है । सामान्य से सात तत्व व नौ पदार्थ जीव और अजीव इन दो के ही सगंत है, उनसे भिन्न हैं नहीं है। नौ पदार्थों में जो पुण्य और पाप अधिक वे माधव पर बाध के मन्तर्गत है, विशेष विवक्षा से उन्हें पृथक स्वीकार कर नौ पदार्थ माने गये है। सात तत्व या नोपदार्थरूप यह विभाग ग्रात्मप्रयोजन को लक्ष्य में रखकर किया गया है । आत्मा का प्रयोजन मोक्ष है, जो जन्म-मरणरूप संसार का प्रतिपक्षी है उस ससार के कारण हैं प्रास्रव मौर बन्ध तथा मोक्ष के कारण हैं संवर और निर्जरा। उक्त मानव श्रोर बन्ध ये जीव और अजीव के प्राश्रित हैं। इस प्रकार श्रात्मप्रयोजन की सिद्धि में उक्त सात तत्त्व या नौ पदार्थ उपयोगी ठहरते हैं। घतएव इनके श्रद्धान को सम्यक्य कहना सर्वथा उचित है। इसी प्रकार छह द्रव्यों में जीव के प्रतिरिक्त शेष पांच अजीव ही हैं। अतः उक्त छह द्रव्य भी जीव धौर भजीव के ही अन्तर्गत हैं। उनकी पृथक्-पृथक् उपयोगिता को प्रकट करने के लिए ही उक्त भेद स्वीकार किये गये हैं। प्राप्त, धागम और गुरु या पदार्थ की घड़ा को जो सम्यक्त्व कहा है वह भी अन्य लक्षणों से भिन्न नहीं है । कारण यह कि जब प्राप्त के ऊपर दृढ़ श्रद्धा हो जाती है तब उसके द्वारा प्ररूपित गुरु और पदार्थ विषयक श्रद्धा तो स्वमेव होने वाली है। इन सबके मूल में एक यही अभिप्राय रहा है कि श्रात्महितैषी इस तत्वव्यवस्था को समझ कर स्व मौर ५. गो. जी. २८, सागारधर्मामृत (१-१३) में भी लग भग यही अभिप्राय प्रगट किया है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४, वर्ष २४,कि.. अनेकान्त घर के भेद को समझे प्रौर पर में राग-द्वेष को छोड़ कर ज्ञान भौर उपेक्षा होती है। यह सम्यक्त्व, ज्ञान और पर से भिन्न शुद्ध मात्मा के विषय में रुचि करें। यही चारित्रस्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है। अपने पुरुषार्थ तो निश्चय सम्यग्दर्शन है। इसी अभिप्राय को लक्ष्य में सिद्धघुपाय में उक्त प्रमतचन्द्र सूरि ने किसी एक धर्म को रखकर ही तो यथार्थस्वरूप से जाने गये जीव, मजीव, प्रधान और दूसरे धर्म को गौण करके वस्तुस्वरूप को पुण्य, पाप, मानव, संवर, निर्जरा, बन्ध मोर मोक्ष को प्रकट करने वाली इस प्रनेकान्तमयी जैनी नीति के विषय सम्यक्त्व कहा गया है। में, एक पोर से मथानी की रस्सी को खींचने वाली और _ निश्चय पोर व्यवहार के भेद से मोक्षमागं दो प्रकार दूसरी भोर से उसे ढीली करने वाली ग्वालिन का, उदाका है। जीव का स्वभाव निरावरण शान-दर्शन है जो हरण देते हुए उस जैनी नीति का जयकार मनाया है। उससे भिन्न है। शान-दर्शनरूप इस स्वभाव में जो सम्यक्त्व की प्राप्ति नियम से प्रनिन्दित-राग-द्वेष से रहित-उत्पाद, व्यय प्रनादि मिथ्यादष्टि जीव प्रर्ष पुद्गलपरिवर्तन मात्र पौर प्रीव्यस्वरूप अस्तित्व है, यह निश्चय मोक्षमार्ग है। के शेष रहने पर सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त जो पभिन्नस्वरूप पात्मा का स्वयं भाचरण करता है - करता है। उसकी प्राप्ति के अभिमुख हपा जी नियम स्वभावनियत उस भस्तित्व का अनुभव करता है से पंचेन्द्रिय, संजी, मिथ्यादृष्टि, भव्य और पर्याप्त होता (चारित्र), स्वप्रकाशकस्वरूप से जानता है (ज्ञान) और है एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी, पंचेन्द्रिय और अपर्याप्त देखता है-यथार्थस्वरूप का अवलोकन करता है (सम्यर- जीव उस सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकते। इस दर्शन) वही निश्चयसे चारित्र, ज्ञान और दर्शन है-मात्मा प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और वेदकसे भिन्न वे चारित्र, ज्ञान व दर्शन नहीं है। इन तीनों सम्यग्दष्टि भी उक्त प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त स्वरूप मात्मा को ही, जो कि अन्य कुछ भी नहीं करता है, नहीं होते । पूर्वोक्त जीव भी जब अधःकरण, अपूर्वकरण निश्चयनय की अपेक्षा मोक्ष मार्ग कहा गया है। इसी को और अनिवतिकरणरूप तीन प्रकार की विशुद्धि से विशुद्ध स्वचरित या स्वसमय कहा जाता है। यह निश्चय मोक्ष होता है तब वह अनिवृत्तिकरणरूप विशुद्धि के मन्तिम मार्ग साध्य है और उसका साधक है पूर्वोक्त व्यवहार समय में उस प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होता है। मोक्षमार्ग। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पंचारितकाय गा. सम्यक्त्वग्रहण के पूर्व जीव के ये पांच लब्धियाँ होती है१६० की उत्थानिका में निश्चय और व्यवहार में साध्य क्षयोपशम, विशद्धि,देशना, प्रायोग्य भौर करण लब्धि । सापकभाव को प्रगट करते हुए पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्धक जब विशुद्धि के बल को उक्त दोनों नयों के अधीन बतलाया है। से उत्तरोतर प्रत्येक समय में अनन्तगुणे हीन होते हुए प्राचार्य ममतचन्द्र ने तत्वार्थसार में भी स्पष्ट रूप से उदय को प्राप्त होते है तब क्षयोपशमलब्धि होती है। यह कहा है कि निश्चय और व्यवहाररूप से मोक्षमार्ग ४. निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो विधा स्थितः । दो प्रकार का है। उनमें प्रथम (निश्चय मोक्षमार्ग) साध्य तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ मोर दूसरा साधन है। शुद्ध मात्मविषयक जो श्रद्धान, श्रवानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । १. समयप्रा. १५. सम्यक्त्व-ज्ञान-वृत्तामा मोक्षमार्गः स निश्चयः॥ २. पंचास्तिकाय गा. १५४ व १६१-६२. श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना । ३. यत्तु पूर्वमुद्दिष्टं तत् स्व-परप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसा- सम्भक्त्व-शान-वृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ।। ध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् । न चैत त. सा. उपसं. २-४. विप्रतिषितम्, निश्चय-व्यवहारनयोः साध्य-साधनभाव. ५. एकनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतस्वभितरेण । त्वात सुवर्ण-सुवर्णपाषाणक्त् । प्रत एवोभयनयायत्ता मन्तेन जयति जैनी नीतिमन्याननेत्रमिव गोपी। पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति । पु. सि. २२५० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन प्रतिसमय मनन्तगुणे हीन क्रम से उदय को प्राप्त होने वाले प्रध:करण और अपूर्वकरणकाल (अन्तर्मुहूर्त प्रमाण) के उक्त अनुभागस्पधको स सातावेदनीयादिपिण्य प्रतियो के बीत जाने पर जब अनिवृत्तिकरण के काल का भी संख्यात बन्ध का कारणभूत तथा सातावेदनीय ग्रादि पापप्रतियो बहुभाग बीत जाता है तब मिथ्यात्व का अन्तरकरण किया के बन्ध का विरोधी जो परिणाम होता है उसकी प्राप्ति जाता है । इस अन्तरकरण के द्वारा उदय मे पाने योग्य का नाम विशुद्धिलब्धि है। छह द्रव्य मोरनी पदार्थों के अन्तमुहूतं प्रमाण स्थिति को छोड कर ऊपर की अन्तउपदेशरूप देशना में व्याप्त प्राचार्य प्रादि को प्राप्ति के मुहतं प्रमाण स्थिति वाले निषेको का परिणामविशेष के साथ उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, घारण एवं चिन्तन योग्य द्वारा अन्तमहतं प्रमाण नीचे की (प्रथमस्थिति) और शक्ति की प्राप्ति को देशनालब्धि कहा जाता है। कर्मों ऊपर की (द्वितीयस्थिति) स्थिति मे मिला कर बीच की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति के होने पर प्रथमोपगम- मे अन्तम हर्त काल तक मिथ्यात्व के उदय को रोक सम्यक्त्व का प्राप्त होना सम्भव नहीं है। इसलिए दिया जाता है। इस अन्तरकरण के अन्तिम समय में सब कमी की उत्कष्ट स्थिति को घातकर जब उन्हें अन्तः- मिथ्यादर्शन को तीन भागों विभक्त करता है-सम्यवत्व, कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण स्थिति में स्थापित कर दिया मिथ्यात्व और सम्यड मिथ्यात्व । इन तीनों के साथ जाता है तथा उनके उत्कृष्ट अनुभाग को भी घातकर जब अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ के भी उदय लता और दारुरूप (अप्रशस्त अघाति कर्मों के अनुभाग का अभाव हो जाने पर अन्तम हर्त काल के लिए प्रथमोको नीम और काजीररूप) दो स्थानो मे स्थापित पशम सम्यग्दर्शन होता है। कर दिया जाता है तब प्रायोग्यलब्धि होती है। वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व चारों गतियों में से किसी भी ये चार लब्धियाँ साधारण है--वे भव्य के समान गति में प्राप्त किया जा सकता है। विशेष इतना है कि प्रभव्य के भी सम्भव है। पर पाचवी करणलब्धि भव्य नारकियों और देवो में वह पर्याप्त होने के अन्तमृहूर्त बाद के ही होती है, अभव्य के वह नही होती। प्राप्त किया जा सकता है। तिर्यो मे गर्भज सज्ञी पचे___ भव्य के भी वह तभी होती है जब वह सम्यक्त्व- न्द्रिय तिर्यच जीव ही पर्याप्त होते हुए दिवसपृथक्त्व के बाद ग्रहण के समुख होता है। करण का अर्थ परिमाण है। उसे प्राप्त कर सकते है। मनुष्य यदि उसे उत्पन्न पूर्वोक्त चार लब्धियो के होने पर जीव करणलब्धि के करते है तो वे पर्याप्त होकर आठ वर्ष की प्रायु के बाद पाग्य भाववाला हो जाता है। प्रध:करण, अपूर्वकरण ही उत्पन्न कर सकते है। धार अनिवृत्तिकरण इन तीन प्रकार के परिणामो की पूर्वनिदिष्ट दर्शनमोहनीय का उपशम उसका अन्तरंग प्राप्ति का नाम ही करणलब्धि है। कारण है । उसके साथ यथासम्भव कुछ पृथक्-पृथक् बाह्य उक्त करणलब्धि मे प्राप्त होने वाले वे अधःप्रवृत्त कारण भी है। जैसे-जातिस्मरण, धर्मश्रवण, वेदनाभिमादि परिणाम उत्तरोत्तर अनन्तगणी विशद को प्राप्त भव, जिनबिम्बदर्शन व देवद्धिदर्शन प्रादि'। करते है। इस विशुद्धि के बल से प्रायोग्यलब्धि मे जो विशेषावश्यक भाष्य में इस सम्यक्त्व की प्राप्ति के अप्रशस्त कर्मप्रकृतियों का अनुभाग दो स्थानों में विषय में कहा गया है कि प्रायु को छोड़कर शेष सात स्थापित किया गया था, उसे अब प्रत्येक समय में कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति में सम्यक्त्व, श्रुत, देशव्रत और उत्तरोत्तर अनन्तगुणा हीन बांधता है तथा प्रशस्त सर्वव्रत इन चार सामायिकों में से एक भी प्राप्त नही प्रकृतियो के चतुःस्थान वाले अनुभाग को प्रत्येक समय होता । इसी प्रकार उक्त कर्मों की जघन्य स्थिति में भी में उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अधिक बांधता है। इस प्रकार उनका लाभ नहीं होता। किन्तु जब उक्त कर्मों की स्थिति १. जिज्ञासुमों को इन करणों का विशेष विवरण षट. २./तं. वा. ६, १, १२ खण्डागम की धवला टीका (पु. ६, पृ. २१४ प्रादि) ३... देखिने पखण्डागम' १, ६-६, १.४३, पु. ६, पृ. ३. में देखना चाहिए। ४ -३७त. वा. २ ३, २. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६, वर्ष २४, कि.१ अनेकान्त को कोडाकोड़ि के भीतर करके उस अन्तःकोडाकोडि मे मी के भेदने मे अशक्त जीव पूनः कर्मों की स्थिति को वृद्धिजब पल्योपम का असख्यातवां भाग क्षीण हो जाता है तब गत करते है। ग्रन्थि का प्राविर्भाव होता है। यह ग्रन्थि उत्कट राग- दसरा दष्टान्त तीन पथिकों का भी दिया गया देष परिणामरूप है। जिस प्रकार किसी लकड़ी की कठोर है-जिस प्रकार कोई तीन पथिक स्वाभाविक गमन गांठ कठिनता से तोड़ी जा सकती है, उसी प्रकार प्रकृत करते हए किसी सघन वन को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ सघन राग-द्वेष को भी कठिनता से नष्ट किया जा सकता भयस्थान को देख कर शीघ्रगति से लबा मार्ग लांघने में है। इसी से उन्हे प्रन्थि के समान होने से 'ग्रन्थि' नाम से उद्यत होते है । इतने में दो चोर प्राप्त होते हैं। उन्हें कहा गया है। इस ग्रन्थि के विदीर्ण होने पर ही मोक्ष के देखकर उक्त तीन पथिकों मे मे ॥ देखकर उक्त तीन पथिकों में से एक तो पीछे लोट पड़ता हेतुभूत उक्त सम्यक्त्वादि का लाभ होता है। है, दूसरा उनके द्वारा पकड़ लिया जाता है, तथा तीसरा उस ग्रन्थि का विदारण करणविशेप के द्वारा होता उनसे अस्पृष्ट होकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त हो जाता है। करण से अभिप्राय परिणाम का है। वह तीन प्रकार है। प्रकृत मे यहाँ तीन पथिकों के समान तीन प्रकार के का है-प्रथाप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। ससारी प्राणी है, मार्ग के समान अतिशय दीर्घ कर्मस्थिति इनमें प्रयाप्रवृत्त करण भव्य के समान प्रभव्य के भी है, भयस्थान ग्रन्थिदेश है, दो चोर राग-द्वेष है, लौटने सम्भव है। पर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये दो वाले पथिक के समान कर्म स्थिति को बढ़ाने वाला अनिष्ट करण तो भव्य के ही होते हैं, अभव्य के नहीं। प्रथम परिणाम है, चोरों से पकडा गया प्रबल राग-द्वेषयुक्त प्रथाप्रवृत्तकरण ग्रन्थिस्थान तक रहता है। जिस प्रकार ग्रन्थिकसत्त्व है-ग्रन्थिभेदन में अशक्त अथवा उसके भेदन पहाड़ी नदी के अन्तर्गत पाषाण परस्पर के संघर्षण से में संलग्न जीव है, और अभीष्ट स्थान को प्राप्त हुप्रा बिना किसी प्रकार के अभिप्राय के स्वयमेव अनेक प्रकारों सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाला जीव है। मे परिणत होते है उसो प्रकार प्रथाप्रवृत्तकरण के द्वारा जिस प्रकार कोई ज्वर तो स्वय नष्ट हो जाता है, कोई ग्रन्थिस्थान तक कर्मों की प्रतिशय दीर्घ स्थिति की हीनता औषधि के प्रयोग से नष्ट होता है, और कोई ज्वर नष्ट भी स्वयमेव होती है। पर अपूर्वकरण परिणाम उस होता ही नही है। इसी प्रकार कोई मिथ्यादर्शनरूप ज्वर ग्रन्थि के भेदन करने वाले के ही होता है। और अनि- स्वय नष्ट हो जाता है, कोई जिनवचनरूप औषधि के वत्तिकरण परिणाम उसी के होता है जो सम्यक्त्व के प्रयोग से नष्ट होता है, और कोई नष्ट होता ही नही है। अभिमुख है। इन तीनों करणों के लिए चीटियो के दृष्टान्त सम्यक्त्व के अभिमुख जीव अपूर्वकरण परिणाम के इस प्रकार दिये गये है-जिस प्रकार चीटियों का स्वा- द्वारा कोदो (एक प्रकार का छोटे दाने वाला धान्य) के भाविक गमन पृथिवी के ऊपर होता है इसी प्रकार पूर्व समान मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है-अनुभाग को प्रवृत्त या प्रथाप्रवृत्त करण स्वभाव से होता है । वे ही अपेक्षा उसे सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व मे चीटियां जिस प्रकार ठूठ के ऊपर चढती है, इसी प्रकार परिणत करता है। और अनिवृत्तिकरण के द्वारा वह से अपूर्वकरण परिणाम ग्रन्थि के भेदन करने वाले के सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। होता है । जिस प्रकार चीटियां उड़कर ठूठ के ऊपर जा सम्यग्दर्शन के भेद बैठती हैं उसी प्रकार अनिवृत्तिकरण परिणाम के द्वारा वह सम्यग्दर्शन निसर्गज व अधिगमज के भेद से दो जीव सम्यक्त्व-शिखर पर जा बैठता है। ठूठ ग्रन्थि के प्रकार का है। जो सम्यग्दर्शन स्वभाव से-परोपदेश के समान है। जिस प्रकार चीटियां ढूठ से लौट कर पुनः २. विशेषा. १२०५-७. प्रथिवी पर परिभ्रमण करती हैं उसी प्रकार उक्त ग्रन्थि ३. वही १२०८-११. १. विशेषा. (ला. द. भा. सं. विद्यामन्दिर अहमदावाद) ४. वही १२१३. से ११८८.६३. ५. वही १२१५. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन २७ बिना-उत्पन्न होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो और परमावगाढ सम्यग्दर्शन । वीतराग सर्वज्ञ की प्राज्ञा परोपदेशपूर्वक जीवादिविषयक अधिगम (ज्ञान) के निमित्त मात्र के प्राश्रय से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे प्राज्ञासे होना है उसे अधिगमज कहा जाता है । अन्तरग कारण सम्यक्त्व कहते है। निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग के सुनने मात्र से जो दर्शनमोहनीय का उपशमादि है वह इन दोनों ही मे जो रुचि होती है उसे मार्गसम्यग्दर्शन कहा जाता है। समान है-पावश्यक है। तीर्थकर व बलदेव प्रादि के पवित्र चरित्रविषयक उप___प्रौपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से देश के आलम्बन से जो श्रद्धा होती है वह उपदेशसम्पवह तीन प्रकार का भी है। इनमे प्रौपशमिक दो प्रकार क्त्व कहलाता है । दीक्षा और मर्यादा के प्ररूपक प्राचारका है, प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम । प्रथमोपशम का शास्त्र के सुनने मात्र से उत्पन्न होने वाले तत्त्वश्रद्धान स्वरूप कहा जा चुका है। सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती को सूत्रसम्यक्त्व कहा जाता है। बीजपदों के निमित्त से जीव जब उषशमश्रेणिपर प्रारूढ़ होने के अभिमुख होता जो सूक्ष्म तत्त्वो का श्रद्धान उत्पन्न होता है, इसका नाम है तब वह अनन्तानुबन्धिचतुष्टय का विसयोजन करता बीजसम्यक्त्व है। जीवादि पदार्थों का सक्षिप्त ज्ञान हुमा क्षायोपशमिक सम्यवत्व से जिस उपशम सम्यवत्व को कराने से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा को संक्षेपसम्यवस्व प्राप्त करता है वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है। कहते है । अंग-पूर्वो के विषयभूत जीवादि पदार्थों का दर्शनमोहनीय के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता प्रमाण व नयादि के साथ विस्तार से निरूपण करने पर है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है। इस दर्शनमोहनीय की जो तत्त्वश्रद्धा होती है उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते है। क्षपणा को पढ़ाई द्वीपों में वर्तमान कर्मभूमि का मनुष्य वचनविस्तार के बिना अर्थ के ग्रहण से जो तत्त्वरुचि ही प्रारम्भ करता है। अढाई द्वीपो मे भी जहां तीर्थंकर उत्पन्न होती है उसे अर्थसम्यग्दर्शन कहा जाता है। केवली जिन (अथवा जिन-श्रुतकेवली, सामान्य केवली द्वादशांग के विषय में जो स्थिर अभिप्रायपूर्वक श्रद्धान या तीर्थकर केवली) विद्यमान हों वहाँ उनके पादमूल में ही होता है उसे प्रवगाढसम्यग्दर्शन कहते है। परमावधि. वह उसे प्रारम्भ करता है। परन्तु उस क्षपणा की समाप्ति केवलज्ञान और केवलदर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थों चारों गतियो में भी सम्भव है, प्रारम्भ उसका केवल मनुष्य के प्राश्रय से जो पात्मा मे निर्मलता होती है, इसका गति मे होता है। नाम परमावगाढ़सम्यग्दर्शन है। __ अनन्तानुबन्धिचतुष्टय, मिथ्यात्व पोर सम्यमिथ्या- सम्यक्त्व के दस भेद प्रज्ञापनासूत्र और उत्तराध्ययन त्व के उदयक्षय से, सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्य- मे भी उपलब्ध होते है, पर उनमे वे इनसे कुछ भिन्न भी क्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय से जो तत्त्वार्थ- हैं। यथा-निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, प्राज्ञारुचि, सूत्ररुचि, श्रद्धान होता है उसे क्षायोपशामक या वेदकसम्यक्त्व कहा बीजरुचि, अधिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपजाता है। इसमें चूंकि सम्यक्त्वप्रकृति का वेदन (अनुभवन) रुचि और धर्मरुचि । जैसे तत्त्वार्थवातिक में दर्शनमार्यों होता है, अतः क्षायोपशमिक के समान उसको वेदक सज्ञा के प्रसंग मे उक्त दस भेद निर्दिष्ट किए गये है वैसे ही भी सार्थक है। यहाँ भी सराग दर्शनार्यों के ये सम्यक्त्वभित दस भेद उक्त सम्यग्दर्शन दस प्रकार का भी है-प्राज्ञा, कहे गये हैं। उनका स्वरूप यहां इस प्रकार कहा गया मार्ग, उपदेश, सूत्र, वीज, सक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ हैं-ये पदार्थ सद्भूत है, इस प्रकार से जिसे जीवाजीवादि १. दसणमोहणीयं कम्म खवेदमाढवेंतो कम्हि साढवेदि ? नौ पदार्थ प्रात्मसंगतमति से-जातिस्मरणादिरूप बुद्धि मड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्दे सु पण्णारसकम्मभूमीसु जम्हि से-ज्ञात हैं, उसे निसर्गरुचि कहा जाता है। इसी को जिणा केवली तिस्थयरा तम्हि पाढवेदि ।। णिट्रवनो १. त. वा. ३-३६, पृ. २०१ प्रात्मानु. ११-१४; उत्तर. पुण चदुसु वि गदीसु णिटुवेदि ।। (षट्खं. १, ६-८, पु. ७४, ४३६-४६; उपासका. पृ. ११३-१४; अन. ११-१२. पु. ६, पृ. २४३-४७.) घ. २-६२. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त स्पष्ट करते हुए पुनः का गया है कि द्रव्य-क्षेत्राद अथवा नाम कारक (कराने वाला) सम्यक्त्व है। जो प्रागमोक्त नाम-स्थापनादि के भेद से चार भेदों में विभक्त उक्त अनुष्ठान में रुचि मात्र कराता है उसे रोचक सम्यग्दर्शन जीवाजीवादि पदार्थ जिस प्रकार से जिनदेव के द्वारा देखे कहते हैं। स्वयं मिथ्यादष्टि होकर भी जिस परिणाम के गये है वे उसी प्रकार है, अन्यथा नही है। इस प्रकार से द्वारा घर्मकथा (धर्मोपदेश) प्रादि के निमित्त से श्रोता को जो स्वय-परोपदेश के विना-~श्रद्धान करता है उसे सम्यक्त्व प्रगट कराता है उसे कारण मे कार्य के उपचार निसर्गरुचि जानना चाहिए। २. जो पर से-दमस्थ से दीपक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। अथवा जिनसे-उपदिष्ट इन्ही पदार्थों का श्रद्धान करता है उस सम्यग्दर्शन के सामान्य से सराग और वीतराग उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए। ३. जो विवक्षित ये दो भेद भी निर्दिष्ट किये गये है। सराग जीव केअर्थ के ज्ञापक हेतु को न जानता हुमा प्राज्ञा मात्र से असंयतसम्यग्दृष्टि से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक-जो प्रागमोक्त पदार्थो का श्रद्धान करता है उसे प्राज्ञारुचि प्रशम-संवेगादि गुणों की अभिव्यक्तिरूप सम्यग्दर्शन होता कहा जाता है। ४. जो सूत्रों को पड़ता हुअा अग और है उसे सराग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। उपशान्तकषाय अगबाह्य श्रुत से सम्यक्त्वका अवगाहन करता है उसे सूत्र. आदि वीतराग जीवों के जो आत्मविशुद्धिस्वरूप है उसका रुचि जानना चाहिए । ५. जिस प्रकार तेल की एक बद नाम वीतरागसम्यग्दर्शन है। जल के एक देश में गिरकर समस्त जल के ऊपर फैल प्रज्ञापनासूत्र मे दर्शनार्यों के दो भेद निर्दिष्ट जाती है इसी प्रकार जो सम्यक्त्व-सम्यग्दृष्टि जीव-- किये गये है-सरागदर्शन-पार्य और वीतरागदर्शनएक पद से जीवादि अनेक पदो मे फैलता है-उन्हे जानता आर्य । इनमे सरागदर्शन-आर्यों के जो दस भेद है-वह बीजरुचि कहलाता है। ६. जिसका श्रुतज्ञान निर्दिष्ट किये गये है वे ऊपर कहे जा चुके है। अर्थतः ग्यारह अगो, प्रकीर्णको (उत्तराध्ययनादि) और वीतरागदर्शन-पार्यो के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं, दृष्टिवाद को विषय करता है उसका नाम अधिगमहाच उपशान्तकषायवीतरागदर्शन-आर्य और क्षीणकषायवीतहै। ५. जिसे द्रव्यों को सब पर्यायें प्रमाण और नयों के रागदर्शन-प्रार्य । आगे इनके भी अवान्तरभेदों को गिनाते पाश्रय से उपलब्ध (ज्ञात) है उसे विस्ताररुचि जानना हए क्षीणकषाय-वीतरागदर्शन-मार्यो के छद्मस्थक्षीणकषायचाहिए। ८. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय तथा सब वीतरागदर्शन-प्रार्य और केवलिक्षीणकषायवीतरागदर्शनसमितियो व गुप्तियो के आचरण मे जिसे भाव से रुचि २. दर्शनप्राभृत में (२२) कहा गया है कि जो अनुहै उसे क्रियारुचि कहा जाता है। ६. जो मिथ्याबुद्धि से प्ठान शक्य है-किया जा सकता है-उसे किया गृहीत नही है तथा जो प्रवचन (जिनागम) में निपुण जाता है, पर जो शक्य नही है उसका श्रद्धान करना नही है, पर शेष मे-कपिलादिप्रणीत दर्शनों में-अनभि चाहिए-उसमे रुचि अवश्य रखना चाहिए । इस गृहीत है -उन्हे उपादेय मानकर ग्रहण नहीं करता है-- प्रकार से श्रद्धा या रुचि रखने वाले जीव के सम्यक्त्व उसे संक्षेपरुचि जानना चाहिए । १०. जो जीवादि अस्ति कहा गया है। कायों के धर्म (स्वभाव) का, श्रुतधर्म का और चारित्र ३. श्रा. प्र. ४६-५०; धर्मसंग्रहणी ८०२-३. धर्म का श्रद्धान करता है उसका नाम धर्मरुचि है। इनके अतिरिक्त उक्त सम्यग्दर्शन के कारक, रोचक ४. तद्विविधम्-सराग-वीतरागविषयभेदात् । प्रशमऔर दीपक आदि अन्य भी कुछ भेद देखे जाते है। जिस सवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । सम्यग्दर्शन के होने पर पागम में जहाँ जैसा अनुष्ठान आत्मशुद्धिमात्रमितरत् । स. सि. १-२ त. वा. १, कहा गया है उसे उसी प्रकार से जो किया जाता है, इसका २, २६.३१; तत् सरागं विरागं च द्विधाxxxm ज्ञे सरागे सरागं स्याच्छमादिव्यक्तिलक्षम् । विरागे १. प्रज्ञापना १, गा. ११५-२६, उत्तराध्ययन २८, दर्शन स्वात्सशुद्धिमात्र विरागकम् ।। अन. घ. २, १६-२७. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन २९ प्रार्य ये दो भेद कहे गये है। इनमे भी केवलिक्षीणकषाय वर्ती और इन्द्र के सुख को परिणामतः दुख ही मानता है। वीतरागदर्शन-मार्य सयोगिकेवलिक्षीणकपाय वीतरागदर्शन- इस प्रकार से वह सवेग गुण से विभूषित होकर मोक्ष के प्रार्य और अयोगिकेवलिक्षीणकषाय वीतरागदर्शन-पार्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहता है । नारक आदि भेद से दो प्रकार कहे गये है। चारो गनियो में रहता हुआ वह परलोक में हितप्रद अनुसम्यक्त्व को पहिचान प्ठान को छोड़कर अन्य सबको असार मानता है । इस सम्यक्त्व यह प्रमूतिक आत्मा का परिणाम है, अतएव निर्वेद गुण के कारण वह ममत्वभाव से रहित होता है। उसे छद्मस्थ देख तो नहीं सकता, पर सम्यग्दृष्टि मे जो वह ससार मे परिभ्रमण करते हुए दुखी जीवों के विषय कुछ विशेष गुण हा करते है उनके द्वारा उसका--- मे स्वकीय प्रौर परकीय की कल्पना से रहित होकर सराग सम्यक्त्वका- अनुमान किया जा सकता है । वे गुण शक्ति के अनुसार सबसे दयापूर्ण व्यवहार करता है। वह है प्रशम, सवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य । रागादि की निःशक होकर उसी को सत्य मानता है, जिसे जिनेन्द्र ने तीव्रता का न होना, इसका नाम प्रशम है । ससार से कहा है। वह काक्षा आदि सम्यक्त्वविरोधी प्रतिकूल भयभीत रहना, इसे सवेग कहा जाता है। समस्त प्राणियो परिणामों से दूर रहता है । इस प्रकार की शुभ परिणति में मित्र जैसा स्नेह रखना, इसे अनुकम्पा कहते है । जीवा- वाला सम्यग्दष्टि जीव थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त दिक पदार्थ यथायोग्य अपने-अपने स्वभाव के अनुसार है, कर लेता है। अन्त में यहाँ इस प्रकार के सम्यक्त्व को ऐसा निश्चय करना; इसका नाम प्रास्तिक्य है। ये ऐसे ही मनिधर्म और मनिधर्म को ही सम्यक्त्व निर्दिष्ट किया हेत है, जिनके द्वारा उस सम्यक्त्व के अस्तित्व का अनुमान गया है। मात्र किया जा सकता है। पर उनके प्रभाव में सम्यक्त्व गुण-दोषविचार के अभाव का निश्चय अवश्य किया जा सकता है । सम्यक्त्व के परिचायक उपर्युक्त प्रशमादि गुणो के श्रावकज्ञप्ति और धर्म संग्रहणी' में सम्यग्दृष्टि अतिरिक्त उसको विशुद्ध बनाने वाले नि शकित आदि जीव की परिणति को प्रगट करते हुए कहा गया है कि पाठ अगो या गुणों का परिपालन भी सम्यग्दष्टि के लिए सम्यक्त्व, जो प्रात्मा का परिणाम है, वह उपशम (प्रशम) आवश्यक बतलाया गया है। प्राचार्य समन्तभद्र ने कहा और संवेग आदि (निर्वेद, अनुकम्पा व आस्तिक्य) प्रशस्त । है कि जिस प्रकार एक प्राध अक्षर से विहीन मंत्र कभी व्यापारस्वरूप बाह्य उपायो के द्वारा जाना जाता है । यहाँ सदि के विष की वेदना को दूर नही कर सकता है उसी उदाहरण देते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कीट प्रकार निःशकतादि अगों से रहित सम्यग्दर्शन ससारकालिमा से रहित सुवर्ण कभी मलिन नही होता है, उसी परिभ्रमण को नष्ट नहीं कर सकता है। इसे दूसरे प्रकार प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव का परिणाम दर्शनमोहादिरूप मल- से भी समझा जा सकता है - जिस प्रकार हमारे शरीर कलक से रहित हो जाने के कारण कभी अशुभ-रागद्वेषादि का यदि कोई अग-हाथ-पांव प्रादि-खण्डित हो जाता रूप-नही होता है, किन्तु वह प्रशमादिरूप शुभ ही होता है तो उससे सम्पन्न होने वाले कार्य को हम नही कर है । वह स्वभाव से कर्मों के प्रशभ परिपाक को जानता सकते है, इसी प्रकार सम्यक्त्व के अगभूत उक्त निःशकिहमा अपराधी के भी ऊपर कभी क्रोध नहीं करता । यह तादि अंगों में किसी एक के न होने पर वह सम्यक्त्व उसके उपशम (प्रशग) गुण का परिणाम है । वह चक्र- जन्म-मरण के विनाशरूप अपने कार्य को पूरा नही कर १. प्रज्ञापना सूत्र ३७, पृ. ५६-५७. सकता है। अतः दर्शनविशुद्धि के लिए अगों का परि२. इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वाच्छवस्थेन दुर्ल पालन आवश्यक है। वे अंग पाठ ये है-निःशकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिध्यमिति लक्षणमाह-श्रा. प्र. टीका (गा. ५३ की करण, वात्सल्य और प्रभावना। उत्थानिका) ३. त. वा. १, २, ३०. ४. टा. प्र. ५३-६१. ५. घ. स. ८०६.१४. ६. रत्नकरण्डक २१. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०, वर्ष २४, कि०१ बनेकान्त निशंकित-समयप्राभूत मे निःशकित का स्वरूप वेदना का भय नहीं रहता, वह तो अपने स्वाभाविक ज्ञान दिखलाते हुए कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव शंका से काही वेदन किया करता है ।४ जो सत् है उसका रहित होने के कारण निर्भय होते है। और कि वे सात कभी नाश नहीं होता, यह वस्तुस्थिति है-अकाट्य भयों से रहित होते है, अतएव निःशक होते है। शका नियम है । अब जब ज्ञान स्वयं सत् है तब उसका नाश का अर्थ सन्देह और भय भी होता है। सम्यग्दृष्टि जीव असम्भव है। इस प्रकार से वह स्वय सुरक्षित है, फिर सर्वज्ञ जिन प्ररूपित आगम पर श्रद्धा रखता है, अतएव भला उसे प्रत्राण (अरक्षण) का भय कहाँ से हो सकता वह अमुक तत्त्व ऐसा ही है, अन्यथा नही है। ऐसा दृढ है ? ५ वस्तु का जो निजी रूप है वही उसकी उत्कृष्ट श्रद्धानी होता है। इसके अतिरिक्त वह इहलोकभय, गुप्ति है। अपने उस स्वरूप में दूसरा कोई प्रवेश नहीं परलोकभय, अत्राणभय, अगुप्तिभय, मरणभय, वेदनाभय कर सकता है। प्रात्मा का स्वरूप अनादि-निधन ज्ञान है। और माकस्मिकभय--इन सात भयों से भी रहित होता उसके लिए गप्ति (दुर्ग प्रादि) की अावश्यकता नहीं है । है। कारण यह कि उसने बाधा के कारणभूत मिथ्यात्व, फिर भला उसे अप्तिभय कैसे बाधित कर सकता अविरति, कषाय और योग; इन चारों को नष्ट कर है? ६ प्राणो के विनाश को मरण कहा जाता है। दिया है। आत्मा के प्राण वह ज्ञान है जो स्वय शाश्वत (अविनश्वर) सम्यग्दृष्टि के उक्त सात भय किस कारण से नही होते है, वह किसी के द्वारा छेदा भेदा नहीं जा सकता है। हैं, इसका सुन्दर विवेचन अमृतचन्द्र सूरि ने नाटक समय- इस प्रकार जब ज्ञानी का मरण सम्भव नहीं है तब उसे सार-कलश में इस प्रकार से किया है-१-२ शुद्ध प्रात्मा उसका भय कहाँ से हो सकता है ? असम्भव है वह 1७ का जो यह एक केवलज्ञानरूप चेतनलोक है उसे स्वयं ही अनादि, अनन्त व स्थिर जो एक ज्ञान है वह स्वतः सिद्ध अकेला देखता है-अनुभव करता है, इसके अतिरिक्त प्रात्मा होने से सदा ही रहने वाला है, यहां दूसरे किसी का का और कोई दूसरा लोक नही है। ऐसी अवस्था मे शुद्ध उदय नहीं है । इसलिए यहाँ आकस्मिक-अकस्मात् प्राप्त मात्मा का अनुभव करने वाले सम्यग्दृष्टि को भला इस होने वाला-कुछ भी नहीं है। ऐसी अवस्था मे ज्ञानी लोक और परलोक से कैसे भय हो सकता है ? नही हो सम्यग्दष्टि के प्राकस्मिक भय असम्भव है। वह तो निर्भय सकता। वह सदा उस स्वाभाविक ज्ञान को ही प्राप्त होकर निरन्तर स्वाभाविक ज्ञान का स्वयं वेदन करता है-अनुभव करता है ।३ निश्चल जो ज्ञान किया करता है। इस प्रकार ज्ञान-सर्वस्व से सम्पन्न है, जहाँ वेद्य-वेदक का भी भेद नहीं है, यही एक वेदना सम्यग्दष्टि के परिचायक ये निःशंकितत्व प्रादि गुण उसके है और उसी एक का वेदन निराकुल सम्यग्दृष्टि किया कर्म को नष्ट करते है। उसके नवीन कर्म का वन्ध तो करते है। पर पदार्थों से सम्बद्ध अन्य कोई वेदना है ही होता नहीं, साथ ही पूर्वोपाजित कर्म की अनुभवपूर्वक नहीं। इस प्रकार ज्ञानी सम्यग्दृष्टि के अन्य किसी भी निर्जरा भी होती है। १. समयप्रा. २४६. तत्त्वार्थवातिक' और निष्कांक्षित-समयप्राभत २. रत्नक. ११. ३. त.वा. (६,२४,१) में ये सात भय इस प्रकार निर्दिष्ट पुरुषायात पुरुषार्थसिद्धयुपाय मे निष्काक्षित के स्वरूप को प्रगट किए गये है-इहलोकभय, परलोकभय, व्याधिभय, करते हुए कहा गया है कि जो कर्म के फल मे-विषयमरणभय, पसंयमभय, अरक्षणभय और माकस्मिकभय । भोगजनित सुख के विषय मे-तथा सब धर्मों मेआवश्यक सूत्र की हरि. वृत्ति (भा. १५४, पृ. ४७२ वस्तुस्वभावों के विषय मे-इच्छा नहीं करता है उसे व ४७३) मे ये सात भय इस प्रकार कहे गये हैं कांक्षा से रहित (निष्काक्षित) सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। इहलोकभय, परलोकभय, आदान भय, अकस्माद्भय, रत्नकरण्डक मे पराधीन, विनश्वर, दुखप्रद और पाप के अश्लोकभय, आजीविकाभय और मरणभय । ५. समयप्रा. २४८. ६. त. वा. ६,२४,१. ४. नाटक समयसारकलश (प्रथम गुच्छक) ७,२३-२८. ७. पु. सि. २४. Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन कारणभूत सुख में विश्वास न करना-उसे हेय समझना, उपगृहन या उपबृहण-समयप्राभृत में कहा गया है इसे अनाकांक्षणा (निष्काक्षित) अग कहा गया है। कि जो सिद्धभक्ति से युक्त होकर समस्त धर्मों को निविचिकित्सा-समयप्राभत में निविचिकित्सा का प्रात्मशक्तियों को बढ़ाता है अथवा मिथ्यात्व आदि लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि जो सभी धर्मों में विभाव भावों का प्राच्छादन करता है उसे उपग्रहनकारी -विविध प्रकार के वस्तुस्वभावो के विषय में-घृणा सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। रत्नकरण्डक के अनुसार नही करता है उसे निविचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना स्वयं शुद्ध मोक्षमार्ग के विषय मे यदि अज्ञानी या प्रसचाहिए। रत्नकरण्डक में उसका लक्षण इस प्रकार मर्थ जनों के कारण निन्दा होती है तो उसे दूर करना, निर्दिष्ट किया गया है-शरीर यद्यपि स्वभाव से ही अप- इसका नाम उपग्रहन है"। वित्र है, फिर भी वह (मनुष्यशरीर) चूकि रत्नत्रय की तत्त्वार्थवातिक मे मार्दव आदि की भावना से प्रात्मप्राप्ति का कारण है, अत: उससे घृणा न करके गुणों के धर्म के बढाने को तथा पुरुषार्थसिद्धयुपाय में उसके साथ कारण जो तद्विषयक अनुराग होता है इसे निर्विचिकित्सा प्रग दसरों के दोषों के प्राच्छादित करने को भी उपबृ हण माना गया है। तत्त्वार्थवातिक मे उसके लक्षण को दिख- कहा गया है"। लाते हुए कहा गया है कि शरीर प्रादि के अपवित्र स्थितिकरण-जो कुमार्ग मे जाते हुए अपने को स्वभाव को जानकर वह पवित्र है' इस प्रकार की मिथ्या (आत्मा को) मोक्षमार्ग में स्थापित करता है उस सम्यरकल्पना न करना, अथवा 'यहां तपश्चरण प्रादिविषयक दष्टि को स्थितिकरण से युक्त जानना चाहिए। पुरुषार्थघोर कष्ट का विधान है जो योग्य नहीं है, यदि यह न सिद्धयपाय मे अपने साथ परके भी स्थितिकरण का निर्देश होता तो सब संगत था' इस प्रकार आहेत मतके विषय में किया गया है"। रत्नकरण्डक के अनुसार सम्यग्दर्शन निन्द्य बिचार न करना, इसे निविचिकित्सता कहा जाता अथवा चारित्र से च्युत होते हुए प्राणियो को जो धर्मानुरागी है। पुरुषार्थसिद्ध घुपाय मे भूख, प्यास, शीत व उष्ण विद्वज्जनो के द्वारा पुन. उसमे स्थापित किया जाता है, प्रादि अनेक प्रकार के भावों मे तथा मल-मूत्रादि द्रव्यो में इसे स्थितिकरण कहा गया है। घृणा न करने को निविचिकित्सित अंग कहा गया है। वात्सल्य -जो मोक्षमार्ग के विषय में साधकभूत अमूढदृष्टि-जो सब कर्मभावो मे-कर्मजनित बाह्य- सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनो मे अनुराग करता विषयों मे-मूढता को प्राप्त नहीं होता है वह अमूढदृष्टि है, अथवा मोक्षमार्ग के साधक साधु जनो से अनुराग करता सम्यग्दष्टि कहलाता है। रत्नकरण्डक में कहा गया है है उसे वात्सल्य गुण से युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। कि दुःखो के मार्गभूत कुमार्ग-मिथ्यादर्शन, ज्ञान और रत्नकरण्डक के अनुमार अपने समूह में वर्तमानचारित्र-की तथा उक्त कुमार्ग के प्राराधकों की मन, साधर्मिक-जनों का भक्तिपूर्वक निष्कपटता से यथायोग्य वचन व काय से प्रशंसा व स्तुति प्रादि न करना, इसे प्रादर-सत्कार करना, यह वात्सल्य का लक्षण है" । तत्त्वार्थअमूढदृष्टि कहा जाता है । एकान्तवादियो के द्वारा प्रणीत वातिक मे जिनप्रणीत धर्मविषयक अनुराग को तथा पुरुमिथ्या मतों की योग्य परीक्षा करते हुए उनमे युक्ति- पार्थसिद्धयपाय में अहिंसाधर्म के साथ सामिकविषयक हीनता को देखकर मोह को प्राप्त न होना-उन्हे अग्राह्य अनुराग को भी वात्सल्य कहा गया है। समझना, यह तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार उक्त प्रमूढ ६. समयप्रा. २५१. १०. रत्नक. १५ दृष्टि का स्वरूप है। ११. त. वा. ६, २४,१, पु. सि. २७. १. रत्नक. १२. २. समयप्रा. २४६. ३. रत्नक. १३. १२. समयप्रा. २५२; त. वा. ६, २४, १. ४. त. वा. ६, २४, १. ५. पु. सि. २५. १३. पु.सि. २८. १४. रत्नक. १६. १५. समयप्रा. २५३. ६. समयप्रा. २५०. ७. रत्नक.१४. १६. रत्नक. १७; दशवं. नि. ह. वृत्ति १५२, पृ. १०३. ५. त. वा. ६, २४, १. १७. त. वा. ६, २४, १; पु. सि. २६. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त प्रभावना-जो स्वात्मोपलब्धिरूप ज्ञान-रथ पर चढ़ पुरुषार्थसिदधुपाय के निर्माता अमृतचन्द्र सूरि यद्यपि कर मनोरथ के वेगों को-राग-द्वेषादिरूप अनेक प्रकार आध्यात्मिक सत रहे है, पर उन्होने भी व्यवहार की के सकल्प-विकल्पों को नष्ट करता है उसे जिनज्ञान- उपेक्षा नहीं की है। यथास्थान उसको भी उन्होंने प्रधाप्रभावी सम्यग्दष्टि जानना चाहिए। रत्नकरण्डक के नता दी है। उनके द्वारा जो वे लक्षण किये गये है उनमे अनुसार जनमतविषयक अज्ञान को दूर करके उसके प्राय: प्रथमतः प्रात्मा को प्रधानता दी गई है और तत्पमाहात्म्य को प्रकाशित करना, यह प्रभावना का लक्षण है। श्चात् बाह्य को भी। अन्तिम उद्देश्य सबका यही रहा दशवकालिक नियुक्ति की हरिभद्र विरचित टीका में भी है कि ससारी प्राणी अपने प्रात्मस्वरूप को पहिचाने और लगभग ऐसा ही उसका लक्षण देखा जाता है। तत्त्वार्थ- फिर यथासम्भव पर की ओर से निर्ममत्व होकर उसे वातिक मे उसका लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया गया प्राप्त करने का प्रयत्न करे। है-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय के प्रभाव उक्त गुणों के अतिरिक्त सम्यक्त्व को मलिन करने से आत्मा को प्रकाशित करना, इसे प्रभावना कहते है। वाले कुछ दोष भी है, जिनसे बचकर उसे निर्मल रखा पुरुषार्थसिद्धयुपाय मे प्रात्मप्रभावना के साथ ही दान, जा सकता है। वे दोष २५ है जो इस प्रकार है-तीन तप, जिनपूजा और ज्ञान के अतिशय द्वारा जिनधर्म को मढता, पाठ मद, छह अनायतन और उक्त पाठ अगो के भी प्रभावित करना अभीष्ट रहा है। विपरीत पाठ शका आदि। इस प्रकार यहाँ जिन कुछ ग्रन्थों के आधार से उक्त रत्नकरण्डक में जो सम्यग्दर्शन का लक्षण निर्दिष्ट निःश कितादि अगो के लक्षण दिये गये है उनमे समय किया गया है उसमें इन दोपो को भी सूचना की गई है। प्राभृत एक अध्यात्मप्रधान ग्रन्थ है। कर्ममलीमस प्रात्मा कारण कि वहाँ जिस प्राप्तादि के श्रद्धान को सम्यग्दको शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति कराना, यह उसका एक ही र्शन बतलाया है उसे पाठ मगसहित तथा तीन मूढ़तामो लक्ष्य रहा है। यहाँ भेद को गौण रखकर अभेद की और पाठ मदों से रहित वतलाया है । यहाँ तीन मूढ़तामो प्रधानता से उक्त लक्षण किये गये है। निश्चयनय की और पाठ मदो का तो स्पष्टतया उल्लेख किया गया है । अपेक्षा ज्ञायकभावस्वरूप आत्मा के अन्यत्र कही भी शका. साथ ही आठ अंगों के निर्देश से उनके विपरीत पाठ काक्षा प्रादि सम्भव नहीं है। दोषो की भी सूचना कर दी गई है । अब केवल छह शेष प्रन्य व्यवहारप्रधान है, अतः वहां अभेद को अनायतन रह जाते है सो आगे जाकर जहा सम्यग्दृष्टि गौण कर भेद की प्रधानता से उक्त लक्षण निर्दिष्ट किये के लिए भयादि के वश भी कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु गये है। हरिभद्र सूरि ने दशवकालिक नियुक्ति की टीका को प्रणाम एवं उनकी विनय करने का निषेध किया गया में गुण-गुणी के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त है वहाँ इन अनायतनो की भी सूचना कर दी गई निःशकितादिकों का यह पृथक-पृथक निर्देश गुण की समझना चाहिए। प्रधानता से गुण और गुणी में कथचित् भेद के ज्ञापनार्थ निर्देशो गुण-गुणिनोः कथंचिद् भेदख्यापनार्थः, एकान्तकिया गया है। सर्वथा उनमे अभेद मानने पर गुण के भेदे तन्निवृत्ती गुणिनोऽपि निवृत्तेः शून्यतापत्तिः । प्रभाव का प्रसग प्राप्त होता है, और तब वैसी अवस्था नि. १८२, पृ. १०३।२. मे गुण के बिना गुणी के भी प्रभाव का प्रसग प्राप्त होने ६. मूढत्रय मदाश्चाष्टो तथानायतनानि षट् । पर शून्यता को प्रापत्ति दुनिवार होगी। अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषा: पविशतिः ।। उपासका. २४१. (प. पाशाधर ने इसे अनगार१. समयप्रा. २५४. धर्मामृत (२-१०३) को अपनी टीका में उद्धृत २. रत्नक. १८; दशवै. नि. ह. वृत्ति १८२, पृ. १०१.३. किया है) ३. त. वा. ६, २४, १. ४ पु. सि. ३०. ७. भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । ५. प्रकाराश्चोक्ता एव निःशङ्कितादयः । गुणप्रधानश्चायं प्रणाम विनयं चैव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ॥३०॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभ्यग्दर्शन : एक अध्ययन मूढतायें ३ दर्शन, मिथ्या ज्ञान, मिथ्या चारित्र और इन तीनों के १ लोकमूढता-लोकरूढ़ि के अनुसार नदी या समुद्र पाराधक; इन्हें भी अनायतन कहा जाता है। कहीं पर को पवित्र मानकर उसमें स्नान करने में, बालु व पत्थरो प्रसर्वज्ञ देव, असर्वज्ञ का आयतन, असर्वज्ञ का ज्ञान, प्रादि का ढेर करने मे, पर्वत से गिरने में और अग्नि प्रवेश प्रसर्वज्ञज्ञान सहित पुरुष, प्रसर्वज्ञानुष्ठान और प्रसर्वज्ञा(सती प्रादि की प्रथा) में धर्म मानना इत्यादि लोक- नुष्ठान सहित पुरुष ; इन्हें प्रनायतन माना गया है'। मूढता के अन्तर्गत हैं। पतिवार २ देवमूढता-प्रभीष्टप्राप्ति की इच्छा से राग-द्वेष शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा भो प्रादि से मलिन देवतानों-काली, दुर्गा, भवानी एवं अन्यदृष्टिसंस्तव; ये उक्त सम्यग्दर्शन के पांच प्रतिचार अन्य भूत-पिशाचादि की पाराधना करना; इसे देवमूढता है। प्रतिचार, प्रतिक्रम, व्यतिक्रम पोर स्खलन ये समझना चाहिए। समानार्थक शब्द हैं। अभिप्राय यह है कि व्रत का जो ३ गुरुमूढ़ता-प्रारम्भ व परिग्रह में आसक्त रहकर कुछ अंश में भंग हो जाना है अथवा उससे कुछ स्खलित हिंसादि में प्रवृत्त पूर्त साधुओं का आदर-सत्कार करना, होना है, उसे अतिचार जानना चाहिए। यह गुरुमूडता कही जाती है। उक्त शंकादि अतिचार यद्यपि पूर्वोक्त शंकादि दोषों पं. माशापर ने श्रावक को भी संयमविहीन माता- के अन्तर्गत हैं, फिर भी विशेष विवक्षा से उनका उल्लेख पिता, गुरु, राजा, वेषधारी साधु (तापस व पार्श्वस्थ कहीं-कहीं पर पृथक से भी किया गया है। तरवार्थसूत्र आदि) और कुदेवों (रुद्र प्रादि व शामन देवता) की का २. भ.मा विजयो. टी. ४४; अन. प. २.८४. वन्दना करने का निषेध करते हुए संयतों को तो उक्त । ३. षडनायतनानि मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणि श्रीणि, माता-पितादि के साथ शास्त्रोपदेश के अधिकारी श्रावक त्रयश्च तद्वन्तः पुरुषाः । अथवा प्रसर्वज्ञ-प्रसर्वज्ञायतनकी भी वन्दना करने का निषेध किया है। प्रसर्वज्ञज्ञान - प्रसर्वज्ञज्ञानसमवेतपुरुषाऽसर्वज्ञानुष्ठाना मदद सर्वज्ञानुष्ठानसमवेतपुरुषलक्षणानि । प्रात्मानु. टीका ज्ञान प्रतिष्ठा, कुल (पितृवश), जाति (मातृवश), १०, पृ० ११; चा.प्रा. टीका ६. बल (शारीरिक शक्ति), धन-सम्पत्ति, अनशन प्रादि तप ४. त. सू. ७-२३, भ.पा. (४४) में मन्यदृष्टिसंस्तव और शरीर की सुन्दरता इन पाठ के प्राश्रय से जो के स्थान में 'अनायतनसेवना' को ग्रहण किया गया है। अभिमान हुप्रा करता है वह ज्ञान मद व प्रतिष्ठामद प्रादि ५. अतिचारो व्यतिक्रमः स्खलितमित्यनन्तरम् । त.भा. के भेद से पाठ प्रकार का मद माना जाता है। ७१५, दर्शन मोहोदयात्तत्वार्थश्रद्धानादतिचरणमती. शंका-कांक्षा प्रादि चार: अतिक्रम इत्यनर्थान्तरम् । त. वा. ७, २३, ३; निःशकित आदि पाठ अगों के लक्षण निर्दिष्ट किए प्रतिचा : व्रतशथिल्यम् ईषदसंयमसेवनं च। मूला. जा चुके हैं। उनके विरुद्ध क्रमश: शंका प्रादि के लक्षण चार वृत्ति ११.११. (आचार्य अभिवगतिने द्वात्रि. समझना चाहिए। शिका [6] में विषयो में वर्तन को प्रतिचार अनायतन ६ बतलाया है।) मायतन का अर्थ स्थान होता है । जो धर्म के प्राय ६. सापेक्षस्य व्रते हि स्यादतिचारोंऽशमंजनम् । तन नहीं हैं, वे अनायतन कहलाते है। वे छह हैं -कुदेव, मंत्र-तंत्रप्रयोगाद्या: परेऽप्यूहास्तथाऽत्ययाः ।। कुगुरु, कुधर्म और इन तीनों के भक्त । अथवा मिथ्या सा. घ.४.१८ १. श्रावकेणापि पितरी गुरू राजाप्यसंयताः । ७. यथा-उपासकाध्ययन (१४६) में शंकादि भतिकुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोऽपि संयतः ॥ चारों का निर्देश किया गया है । इसी में प्रागे मन.प.-५२. (२४१) पच्चीस दोषों का भी निवेश किया गया है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४, वष २४, कि.१ अनेकान्त और उसकी टीकामो में पूर्वोक्त २५ दोषो का उल्लेख जो शका होती है वह सर्वशका कहलाती है। देशशंका उपलब्ध नही होता। वहाँ केवल निःशंकित प्रादि पाठ और सर्वशका के दूसरे उदाह ण इस प्रकार भी उपलब्ध अंगों और इन पांच अतिचारो का ही उल्लेख किया गया होते है-जीवत्व के समान होने पर भी एक भव्य और है। वहाँ इन दोषों का अन्तर्भाब उन पांच प्रतिचारों में दूसरा प्रभव्य कैसे होता है? यह देशशका का उदाहरण समझना चाहिए । प्राचार्य कुन्दकुन्द विरचित दर्शन- है। सर्वशंका-प्राकृतनिबद्ध होने से यह सब ही परिप्राभूतादि प्रन्थों में भी उनका उल्लेख देखने में नहीं कल्पित होगा। इस प्रकार की शका करने वाला यह माता । पाठ अगों का उल्लेख समयप्राभूत' और चारित्र. विचार नही करता है कि कुछ पदार्थ हेतु ग्राह्य है और प्राभन' में भी दखा जाता है । शंकादि दोषों का मामान्य कुछ अहेतु ग्राह्य भी है। जीव के अस्तित्वादि हेतुग्राह्य है, निर्देश चारित्रप्राभूत में किया गया है। उक्त शकादि किन्तु भव्यत्व प्रादि हेतुग्राह्य नहीं है, क्योकि उनके जो दोषों का स्वरूप इस प्रकार है हेतु है वे हम जैसों की अपेक्षा प्रकृष्ट ज्ञान के विषयभूत १. शंका-तत्त्वार्थभाष्य में शंका के स्वरूप को हैं। प्राकृतनिबन्ध भी बाल ग्रादि के लिए साधारण है। बतलाते हुए कहा गया है कि जिसने जीवाजीवादि तत्त्वों कहा भी है -- बालक, स्त्री और मूर्ख तथा चारित्र की का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो भगवान महावीर के शासन इच्छा रखने वालों के अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञो द्वारा प्राकृतनिबन्ध को भावतः स्वीकार चुका है. तथा जिसकी बुद्धि परकीय स्वीकार किया गया है। मागम की प्रक्रिया से अपहृत नही है-अर्थात् जो अरहंत के योगशास्त्र के स्वो. विवरण मे मर्वांका का उदाहरण द्वारा प्रणीत तत्त्वों पर ही श्रद्धा रखता है, ऐसे सम्पग्दृष्टि यह दिया गया है-धर्म है अथवा नही है ? एक वस्तुजीव के भी केवलज्ञान और आगम से गम्य अतिशय सूक्ष्म प्रतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में 'ऐसा होगा कि नही' । धर्म को विषय करने वाली देशशंका का उदाहरण देते इस प्रकार का जो सन्देह होता है, उसे शका कहते है। हुए हुए कहा गया है कि जीव केवल सर्वगत है या असर्वगत, अथवा वह प्रदेश सहित है या प्रदेश रहित। इसमे सम्यक्त्व मलिन होता है । श्रावकप्रज्ञप्ति मे । २ काक्षा-तत्त्वार्थभाष्य मे इम लोक सम्बन्धी और इस को अतिचारिता को दिखलाते हुए कहा गया है कि परलोक सम्बन्धी विषयों की प्राकाक्षा को काक्षा नामक उा प्रकार की शंका से चूकि अन्तःकरण मे मलिनता सम्यग्दृष्टि का अतिचार बतलाया है । काक्षा के अतिचार उत्पन्न होती है और साथ ही जिन भगवान् के विषय मे प्रश्रद्धा भी होती है जो सम्यकत्व के योग्य नहीं है, होने का कारण यह बतलाया गया है कि विपयाभिलाषी अतएव इसे उसका अतिचार जानना चाहिए। चूंकि गुण-दोष के विचार मे शून्य होता है, अतः वह इस तत्त्वार्थवार्तिक में इन शंकादि अतिचारो के विषय में । प्रकार से-निषिद्ध के सेवन से-सिद्धान्त का उल्लघन करता है। यह कहा गया है कि उनका स्वरूप पूर्वोक्त निःशंकितादि के विपरीत समझना चाहिए। ७. श्रा. प्र. टीका ८७; पचाशक चूणि पृ. ४५. वह शका देशशंका और सर्वशका के भेद से दो प्रकार ८. दशवै. नि. हरि. वृत्ति १८२, पृ. १०१.२, धर्मबिन्दु की है । प्रात्मा क्या प्रसख्यातप्रदेशी है अथवा प्रदेशों से मुनि-टीका २-११, पृ. १८. रहित निरवयव है. इस प्रकार की देशविषयक शंका को ६. सर्व विषया अस्ति वा नास्ति वा धर्म इत्यादि । देशशका कहा जाता है। पोर समस्त अस्तिकायविषयक देशशङ्का एकैकवस्तुधर्मगोचरा । यथा-अस्ति १. स. सि. ६.२४ व त. वा. ६, २४, १. जीव केवलं सर्वगतोऽसर्वगतो वा सप्रदेशोऽप्रदेशो २. समयप्रा. २४६-५४. वेति । यो. शा. २-१७, पृ. १८६.८७. ३. चा. प्रा. ७. चा.प्रा.६. ५. श्रा. प्र. ८६. १०. ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वाशसा कांक्षा । निःशंकितादयो व्याख्याता दर्शनविशुद्धिरित्यत्र, सोऽतिचार: पम्यग्दृष्टेः । कुतः ? काक्षिता विचा. तत्पतिपक्षभूताः शंकादयो वेदितव्याः । त. बा. ७.२३ रितगुण-दोषः समयमतिकामति । त. भा. ७.१८. . Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन श्रावक ज्ञप्ति में अन्य अन्य दर्शनो के ग्राह को काक्षा श्रावकप्रज्ञप्ति मे इस विचिकित्सा प्रतिचार का स्वका लक्षण बतलाया है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए रूप बतलाते हुए कहा है कि 'यह मेरा अर्थ सिद्ध होगा उसकी टंका में कहा गया है कि सुगतादि प्रणीत दर्शनों या नही' इस प्रकार सत् (समीचीन) अर्थ मे भी जो के विषय मे अभिलाषा करना, इसे काक्षा कहते हैं । यह बुद्धिभ्रम होता है उसका नाम विचिकित्सा है। टीका में सम्यक्त्व का दूसरा अतिचार है। उक्त कांक्षा देश व इसे स्पष्ट करते हुए वहाँ कहा गया है कि युक्ति और सर्व के भेद से दो प्रकार की है । सौगत (बौद्ध) दर्शन में प्रागम से सगत भी अर्थ मे जो फल के प्रति संमोह या , चित्तजय का प्रतिपादन किया गया है और वही चित्तजय भ्रान्त बुद्धि होती है वह विचिकित्सा कहलाती है। इस मुक्ति का प्रधान कारण होने से संगत है व दूरापेत- प्रकार भ्रान्ति को प्राप्त हुग्रा व्यक्ति विचार करता है अतिशय विरुद्ध-नही है। इस प्रकार विचार करते हुए कि बालके भक्षण के समान क्लेश को उत्पन्न करने वाल एक ही बौद्ध दर्शन की प्राकाक्षा करना, इसे देशकाक्षा इन कनकावली प्रादि तपों का फल भविष्य मे कुछ प्राप्त कहा जाता है। कपिल, कणाद और अक्षपादादि प्रणीत होगा या नहीं, क्योकि खेती मादि की क्रियाये फल वाली मव ही दर्शन अहिंसा के प्रतिपादक है। उनमें इस लोक- और फल से रहित दोनो ही प्रकार की देखी जाती है। सम्बन्धी क्लेश का प्रतिपादन सर्वथा नही किया गया है, प्रागे वहाँ विचिकित्सा को विद्वज्जुगुप्सा भी बतला कर इसी से वे उत्तम दर्शन है। ऐसा मानकर सभी दर्शनो की उसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो संसार के स्वभाव के इच्छा करना, यह सर्वकाक्षा कहलाती है। ज्ञाता व सर्व परिग्रह से रहित है ऐसे विद्वान् साधुनों की तत्त्वार्थभाष्य के उक्त कथन को स्पष्ट करते हुए निन्दा करना, यह विद्वज्जुगुप्सा है। जैसे-उनका शरीर उसको प्रा. हरिभद्र और सिद्धसेन गणि विरचित वृत्तियो मे स्नान न करने के कारण पसीने से मलिन और दुर्गन्ध से कहा गया है कि इस लोक सम्बन्धी विषय शब्दादिक है। युक्त रहता है । यदि वे प्रासुक जल से स्नान कर लिया * सुगत ने भिक्षुमो को स्नान, अन्न-पान, आच्छादन और करे तो कौनसा दोष है ? शयनीय आदि के सुखानुभव द्वारा क्लेशरहित धर्म का अन्य दृष्टिप्रशंसा-पाहत मत से भिन्न मत के उपदेश दिया है। वह भी घटित होता है, दूरापेत नहीं मानने वाले क्रियावादी, प्रक्रियावादी, प्रज्ञानिक और है । तथा परिव्राजक आदिको के उपदेशानुसार ऐहिक वनयिक मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना-ये बहुत पुण्यविपया का उपभोग करने वाले ही परलोक मे भी सुख शाली है, इनका जन्म सफल है। इत्यादि प्रकार से स्तुति से युक्त होते है । अतः यह धर्म का उपदेश बहुत ठीक करना, यह अन्यदृष्टिप्रशंसा नाम का सम्यग्दृष्टि का है। इसी प्रकार परलोक-स्वर्ग व मनुष्यादि जन्म अतिचार कहा शाता है। सम्बन्धी शब्दादि विषयो की अभिलाषा करना। श्रावकप्रज्ञप्ति मे इसका निर्देश 'परपाषण्डप्रशंसा' पक्षान्तर मे यहाँ अन्य-अन्य दर्शनों के ग्रहण या नाम से किया गया है । उसको स्पष्ट करते हुए वहां कहा उनकी अभिलाषा को भी कांक्षा अतिचार कहा गया है। "या ह' गया है कि शाक्य (रक्तभिक्ष) और परिव्राजक प्रादि कि तथा इसके लिए पागम का प्रमाण भी दिया गया है। ४. श्रा. प्र. टीका ८७. (लगभग यही अभिप्राय दशवविचिकित्सा-तत्त्वार्थभाष्य में विचिकित्सा के लक्षण कालिक नियुक्ति की टीका [१८२, पृ. १०२], श्रा. में कहा गया है कि 'यह भी है' इस प्रकार का जो बुद्धिभ्रम होता है उसे विचिकित्सा कहते है। पंचाशक चूणि [पृ. ४६-४७] और धर्मबिन्दु की टीका [२-११, पृ. १८-१९] में भी प्रगट किया गया है। १. श्रा.प्र. टीका ८७ ५. प्रन्यदृष्टिरित्यर्हच्छासनव्यतिरिक्तां दृष्टिमाह। सा २. दर्शनेषु वा, तथा चागमः-कखा अण्णण्णदंसणग्गा द्विधा-अभिगृहीता चानभिगृहीता च। तद्युक्तानां हो । त. भा. हरि. व सिद्ध. वृत्ति ७-१८. ३. विचिकित्सा नामेदमप्यस्तीति मतिविप्लुतिः । क्रियावादिनामक्रियावादिनामज्ञानिकानां वैनयिकाना त. भाष्य ७-१८. च प्रशंसा-स्तवो सम्यग्दृष्ट रतिचार इति । त.मा.७-१८ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामवल्लभ सामागो सेन परम्परा के कुछ अज्ञात साधु जयपुर के समीप स्थित पुराने प्लाट के हनुमान जी १२वीं शताब्दी की तिथियुक्त मूर्ति है किन्तु सामान्यतः के मन्दिर से हाल ही मे २ शिलालेख मुझे मिले है। ये मूर्तियों का प्रादान-प्रदान होता रहता है। प्रतएव यह लेख अब तक अज्ञात है। इनमें सेन परम्परा के कुछ कहना कठिन है कि यह मूर्ति कहाँ से प्राप्त हुई थी। अज्ञात साधुओं के नाम है। जयपुर और आस-पास के जयपुर के पास-पास जहाँ से ये शिलालेख मिले हैं क्षेत्र में दिगम्बर जैन धर्म का प्रचलन लम्बे समय से सम्भवत: प्राचीन स्थल रहा होगा। इस स्थल का नाम रहा है। सामान्यतः यह विश्वास किया जाता रहा है कि आजकल "झामड़ो नी" कहा जाता रहा है। यह जयपुर यहाँ जैन धर्म १६वीं शताब्दी से ही विशेष रूप से प्रकाश से २ मील दूर है और पुराने घाट के पास है। यह मे पाया है किन्तु इन लेखों के मिल जाने से यह स्पष्ट मन्दिर प्राचीन स्थापत्य कला का अच्छा नमूना है। इस हो गया है कि जैन धर्म का प्रचलन यहा १२वी शताब्दी समय इसे शिव मन्दिर में परिवर्तित कर दिया गया है। के पूर्व भी था। पामेर के एक मन्दिर में पीतल की इसके स्तम्भों पर घट पल्लव आदि फलक अंकित है, की 'ये पुण्यशाली है, इनका मनुष्यजन्म पाना सफल है' सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक में उक्त दोनों में इत्यादि प्रकारसे प्रशंसा (वर्णवाद) करना, इसका नाम भेद दिखलाते हुए कहा गया है कि मन से मिथ्यादष्टि के परपाषण्डप्रशंसा है। ज्ञान और चारित्र गुणों के प्रगट करने का नाम प्रशंसा प्रन्यदृष्टिसंस्तव-उक्त क्रियावादी प्रादि मिथ्या- तथा उनके भूत-प्रभूत गुणो के कथन का नाम संस्तव है, दृष्टियों के साथ रहकर परस्पर सभाषण प्रादि रूप परि. यह उन दोनों में भेद है। चय बढाना, इसका नाम अन्यदृष्टिसस्तव है। इस प्रकार उक्त पाच शंकादि उस सम्यग्दर्शन के तत्त्वार्थभाष्य मे प्रशसा और संस्तव मे विशेषता दिख- अतिचार है, जो उसे मलिन करने वाले है। कारण कि लातेहा कहा गया है कि भाव से (मन से) ज्ञान और दर्शन शकादि के रहते सर्वज्ञ व वीतराग जिन पर अविचल गणों के प्रकर्ष को प्रगट करना, इसे प्रशसा कहा जाता श्रद्धा रह नही सकती, और बिना श्रद्धा के उस सम्यक्त्व है तथा सोपध और निरोपघ भूत गुणो को वचन से के रहने की भी सम्भावना नही रहती। कहा तो यहां कहना, इसे सस्तव कहा जाता है। तक गया है कि जिसे सूत्रनिर्दिष्ट केवल एक पद व अक्षर १. परपासंडपसंसा सक्काइणमिह वन्नवामो । भी नही रुचता है. भले ही उसे शेष सब क्यों न रुचता उ. श्रा. प्र.६८ हो; फिर भी उसे मिथ्यादष्टि जानना चाहिए। * २. संस्तवः-तैः सहकत्र सवासात् परिचयः परस्पराला. ४. वाड-मानसविषयभेवात् प्रशंसा-सस्तवभेवः । मनसा पादिजनितः। त. भा. सिद्ध. वृ. ६-१८; श्रावक- मिथ्यादृष्टि ज्ञान-चारित्रगुणोद्भावनं प्रशंसा। भूताप्रज्ञप्ति में इसका निर्देश 'परपाषण्डसंस्तव' नाम से भूतगुणोद्भावनवचनं संस्तव इत्ययमनयो दः । किया गया है । यथा-तेहिं सह परिचनो जो संथवो त. वा. ६, २३, १. होइ नायवो ॥८॥ ५. संशयो मिथ्यात्वमेव । यथाह-पयमक्खरं पि एक्कंपि ३. ज्ञान-दर्शनगुणप्रकर्षोभावन भावतः प्रशसा । सस्त- जो न रोएइ सुत्तनिद्दिट्ठ। सेसं रोयतो विहु मिच्छ वस्तु सोपघं निरुपचं च भूतगुणवचनमिति । त. भा. द्दिट्टी मुणेप्रवो ॥ त. भा. हरि. व सिद्ध. वृत्ति ७-१८, पृ.१०२. (७-१८) में उद्धृत । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेन परम्परा के कुछ प्रज्ञात साप अतएव यह पूर्व-मध्य कालीन कृति कही जा सकती है। (२) बा श्री छत्रसेन देवपादरा.(?) तस्य धर्मम्राता इसके स्तम्भों के अतिरिक्त उत्तरंग का भाग भी प्राचीन पंडित श्री अम्बरसेन तस्य भ्राता श्री uuuuu सर्व है। इसमें शिलालेख छ बातों पर अकित है। पहला लेख संघसेनाम्नाय प्रणमनि नित्य ....... वि० सं० १२१२ का है। इसमें कई साधुप्रो के नाम है। ३. णमेघर : पउत्र (पुत्रः) खेमघर साचदेव घोलण इसमे चन्द्रप्रभ चैत्यालय में गोष्ठियो द्वारा कुछ निर्माण श्रीधर । समस्त गोष्ठि कारापित । कार्य का उल्लेख है। इसमे भट्टारक सागरसेन का नाम है। उनके शिष्य मंडलाचार्य ब्रह्मसेन का नाम है। इसके लेख स०२ बाद छत्रसेन प्रादि साधुओं का उल्लेख है। छत्रसेन नामक १. ॐ साश्चर्य प्रतिबिंबता (बिम्बिता) शुभतरा जन्मां १. एक साधु का उल्लेख अथूणा के लेख में भी है। किन्तु तरश्रीक्षणा। भास्वादोनखदर्पणेषु नितरां तारा व दोनों का क्या सम्बन्ध है, कहा नही जा सकता। इन्हे तारा दशा । दिक्ष्वन्ता (...) तथानता: क्रमनखो... उक्त लेख में "माथुरान्वयो" कहा गया है। दूसरे लेख मे २. द्यच्चवंद्र रूपाततरा । यस्य ध्यानमितो स भवतः तिथि अंकित नहीं है। इसमे अमृतसेन, सयमसेन, ब्रह्मसेन, श्रीनाभिभूतः प्रभुः ॥१॥ रेजे यस्य शरीरदीप्तिरनघा योगसेन, निष्कलंक और अकलक नामक साघुप्रो के नाम सतप्त हेमोज्व (ज्ज्व) ला । मूर्द्धस्थेद्धजटा कलाहै। इसमे ५ श्लोक हैं और अन्त मे 'पडित निष्कलक ३. प विलसद्ध मद्धि रेखाकिता। फारातितति प्रभोः सेनस्य कृतिरियम्" पद अकित है। प्रदहतो ध्यानानलाच्चियंथा। देया केवल सपदं सेन परम्परा की पावली में इनका नाम अकित जिनवरो सोमेपि मौनश्चरी ।।२।। अमृतनही है। इसी तरह अन्य अनेक प्राचार्य और विद्वानों का ४. सेन बुधो जनि संयतो, यतिसमाज जनस्तुतपयुगः । उल्लेख यत्र तत्र मिलता है। इस तरह की अप्रकाशित अमृतसूरि व चः सुतपोनिधिः सकल शास्त्र पयोसामग्री का सकलन करना अत्यन्त आवश्यक है । इसके निधिपारगः ।।३।। वादी संयम सेन सुबिना इतिहास अधूरा ही रहेगा। ५. रि रजनि रजनि क्षेत्राधिपेयः सुधीः । स्याद्वादामृत इन सब साधुप्रो को सेन परम्परा का कहा गया है। वारिधिगुणनिधिः श्री ब्रह्मसेनस्ततः । श्री संघालेखो का मूल पाठ इस प्रकार है : शी(?)त...गुरु गुर्णा vv ण योगी ग्रणी ॥ रो(रो)लेख स० १ द्राराति तुरुष्क वंदित पदः १. ॥ई। स्वस्ति श्री संवत् १२१२ वर्षे मार्गसिर (शीर्ष) ६. श्री योगसेनो गुणी ॥४॥ निष्कलंकाकलंकाख्यो वदि ११ देव श्री चन्द्रप्रभ चैत्यालये आचार्य श्री सेनांती विदुषां विदो।...पुष्कर जातीयौ सोदयों भट्टारक. सागरसेन(:) तस्य सि(शि)ष्यमय मण्डला- विश्रुतौ भुवि ।।५।। पडित निष्कलक सेनस्य कृति चार्यधुर्य ब्रह्मसेन रियम्...... काशित बड़ा बनने का उपाय "क्या तू महान् बनना चाहता है । यदि हो तो तू अपनी आशा-लताओं पर नियंत्रण रख । उन्हें बे लगाम अश्व के समान आगे न बढ़ने दे। मानव की महत्ता इच्छाओं के दमन करने में हैं, गुलाम बनने में नहीं। एक दिन आयेगा जब तेरो इच्छाएँ ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगी।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० गंगाराम गर्ग अज्ञात जैन कवि और उनको रचनाएँ जैन पुरातत्व, संस्कृति, इतिहास और साहित्य को खोज के प्रसंग मे विविध क्षेत्रो की ओर विद्वानो का ध्यान आकृष्ट हो जाने पर भी कई क्षेत्र अभी तक अछूते भी पड़े है। पूर्वी राजस्थान के टोडारायासिंह, चाकसू, निवाई, टोंक, झिलाय, सवाई माधोपुर प्रादि नगर दिगम्बर जैन सस्कृति के प्राचीन केन्द्र है। इन केन्द्रो मे अत्यन्त प्राचीन, व कलात्मक नसियानों और प्रतिमानों के अतिरिक्त समृद्ध शास्त्र भण्डार भी है। इन शास्त्र भण्डारों में संस्कृत, अपभ्रश व हिन्दी की महत्वपूर्ण और अज्ञात कृतियाँ भी उपलब्ध हो सकती है। यहां पर उक्त शास्त्र भण्डारों में उपलब्ध हिन्दी के कुछ प्रज्ञात कवियों और उनकी रचनाओं का परिचय दिया जा रहा है : १ खड़गसेन : विशति तीर्थकर पूजा' की रचना की। यह रचना टोडाये मागरा के रहने वाले थे। इनके पिता ठाकुरसी रायसिंह के प्राचीन जैनमन्दिर रेणजी का मन्दिर में उप रायासह के प्राचान जन पौर पितामह लूनराज थे । खड़गसेन के पूर्वजों का मूल ल स्थान बागड़ प्रदेश का नारनोल शहर था। प्रागरा ३ तीकम : निवासी चतुरभोज ने खड़गसेन की धन-धान्य से बडी यह कालस गाँव के रहने वाले थे। वहां भोजराज सहायता की । संवत् १६८५ के बाद कवि ज्ञान-वृद्धि की खगारोत का राज्य था। सुखमल शाह 'हुजदार' ने तीकम प्रोर अधिक प्राकृष्ट हुए। इनकी ज्ञान गोष्ठी के साथी को कालष गाँव मे बसाया । कवि अपने गाँव में प्रतिदिन जनजीवन सघो, अनूपराय, दामोदर, माधोदास, हीरानद, श्रावकों के साथ 'प्रतिमा चौबीसो' के समक्ष ज्ञान-चर्वा त्रिलोकचद, मोहनदास और प्रतापमल थे। ये सभी करते थे। इन्होने सवत् १७१२ में 'चतुर्दशी कथा' लिखी। चैत्यालय में बैठकर पूजा करते थे और शास्त्र श्रवण करते थे । खड़गसेन की एकमात्र रचना 'त्रिलोक सार' । ३५५ दोहे-चौपाइयो की यह प्रबन्ध रचना तेरहपंथी रेणजी का मन्दिर, टोड़ा राय सिंह में विद्यमान है। मन्दिर टोंक के एक गटके मे सकलित है। प्रस्तुत रचना त्रिलोक सार मे २००० से अधिक दोहे और चौपाइयां में चपापुरी के राजा हरिनाम के गुणभद्राचार्य मुनि द्वारा हैं। इस रचना मे कवि ने अधः मध्य और ऊर्ध्व लोक के शील की महत्ता समझाई गई है। सभी जैन घामो का विवरण दिया है :-कवि ने अपने ग्रन्थान्त में कवि ने चतुर्दशी के व्रत की महत्ता प्रति. ग्रन्थ की महत्ता इन शब्दों में प्रकट की है --- पादित की हैदर्पन में मुख देखिए, या मैं तीनूं लोक । भाव सहित यह व्रत घरयो होइ मुक्ति को साज ।३।। • यह हिदें की पारसी, वीस लोका लोक ॥ ज्येष्ठ भ्रात मेरे कवि, जीवनराम सुजानि । २ सेवाराम : प्रभु की स्तुति के पद रचे, महाभक्ति वर प्रानि । यह प्रसिद्ध जैन कवि बखतराम शाह के कनिष्ठ ४ लालचंद 'विनोदी' पुत्र थे। इन्होने अपने बड़े भाई जीवनराम के भक्तिपरक 'लालचंद विनोदी' की दो रचनाएं राजुल पच्चीसी' पदों की चर्चा की है। किन्तु अभी तक जीवनराम के पद और 'चौवीसी' पुरानी टोंक और चाकसू के जैन मन्दिरों अज्ञात ही हैं। सेवाराम का साधना-स्थल जयपुर का में मिली है। काव्यत्व की दृष्टि से 'राजुल पच्चीसी' लश्करी मन्दिर था । वहाँ भट्टारक सुखेन्द्रकीति भी उत्कृष्ट रचना है । इसमे कवि ने सरस्वती और मुनियो विराजते थे। सेवाराम ने संवत् १८२४ मे 'चतु- को प्रणाम करते हुए नेमिनाथ जी के विरक्त होने की Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञात जैन कवि और उनको रचनायें कथा कही है। माता-पिता के मना करने पर भी नेमिनाय ने प्रसिद्ध तीर्थ 'राणापुर' की यात्रा की; उसी का वर्णन का विरक्ति के साथ ही राजुल भी प्रायिका बन गई है। इस मे किया गया है । 'राणापुर को एक अलौकिक झांकी राजुल की विरहोक्तियो के अतिरिक्त दार्शनिक विचार दृष्टव्य है -- भी इस रचना मे बिखरे पड़े है पंच से बावन पुतली रे लाल, अपछर में प्रनिहारि । बाब बे यह संसार प्रसार, ताते रहीये मौन में जी। रंभादेवी उलस रे लाल, चहंदिसि च्याज पौलि । बावे वे ई संगति दुष अपार, लष चौरासी जोन में जी। पांच तीरथ मांहे भला रे लाल, सेवं जो गिर नारि । बावे लष चौराणी जोन, बावे बहु दुष पाइया। तोरण एक सो जाणिये रे लाल, थांभा दोइ हजार । रोग सोग वियोग भरि करि, जरा मरन सताइया जी। ८ पाहू: यह संसार दुष भंडार, देष्यो क्यों न मन समझाइये। इनकी एक दार्शनिक रचना 'द्वादशानुप्रेक्षा' तेरहपंथी बेगि मुझहि पठाइ बावे, पीव अपने संग जाइये। मन्दिर टोंक के गटका नं. ५० में पृ. ७१-७८ पर अंकित कवि की दूसरी रचना 'चौबीसी' में २४ तीर्थंकरों है। इसमें कुल ३६ छंद है। इसमें १२ प्रनप्रेक्षानों को के प्रति दैन्य निवेदन है। बड़ी सरल विधि से ममझाया है। पुदगल द्रव्य से ५ जसलाल 'विनोदी' यामदिन हटाने के सम्बन्ध में कवि कहते हैं"विनोदी' उपनाम के दूसरे कवि जसलाल है। तेरह ए संसारह भाव, परसौ को प्रीति ।। पंथी मन्दिर टोक के एक गटके ५० बमें इनकी सुष दुष सब भनियो हो, देषि पुवगल की रीति । रचना 'सुमति कुमति को झगडो' संकलित है। इसमें पुदगल दरव की रीति देषी, जद सुष दुष सब भानिया। सुमति रूपी नारी अपनी दौरानी कमति को अपने मि. चहं गति चौगसी लष्ष जोणिह, प्रापर्णा पद जांनिया। तम चेतन' से नेह न करने की शिक्षा देती है, न मानने इह प्रापनों पद सुद्द चेतन, तृपति दृष्टि जु दीजिए। पर उसे फटकारती भी है अनादि नाट जु नटत पुदगल, तासु प्रीति न कीजिए। जिण तो सौं नेह लगायो, जाको त मल गमायो। ६ सभाचंद : जसलाल विनोदी गाव, तोहि तउ सरम न प्रावै ।।। इनकी एक रचना परमार्थ लहरी में २० छद है। यह रचना जैन मन्दिर निवाई के एक गुटके मे सकलित ६षेतसी विलाला : यह विलाला गोत्रिय खंडेलवाल जैन थे। इनकी है । 'परमार्थ लू हरि' शास्त्र-निष्ठा, गुरु-भक्ति सम्यक्त्व 'सील जखडी' नामक रचना तेरहपथी मन्दिर टोक के भावना, सप्त व्यसन, अणुव्रत, प्रादि नैतिक विषयो को गट का नं. ५० ब मे सकलित है। 'सील जखडी' में संक चर्चा है । शैली उपदेशमयो है-- पर धन परत्रिया परहरी, कोज्यौ रे उपकार । लित है। 'सील जखड़ी' में नारी की निन्दा करते हुए ज्यों सुख पावं सुरगां तणाजी, मनोक्रम उतर पार ।। सयम रखने की प्रेरणा दी है १० दास: मारी रुप दीप दीवलो जिसौजी, कामी पुरुष पतंग, सोरठ राग मे लिखित एक गीत 'जीव जखड़ी' में पर नारी के कारण जी, होम्यो प्रापणों अग, कवि ने चेतन को अपना स्वरूप समझने की ओर प्रेरित सुग्यानी नाह नारी रूप नै जोय । किया है जीव लाय मन विषयन सेथी, चहुंगति मैं अति भ्रम्यो। ७ दिव सुन्दर : जिन धर्म तजि मिथ्यात सेयो, रहियो सुबांध्यो दुध मन्यो। यह पामेर गच्छ के मुनि देव सुन्दर के शिष्य थे। संसार में सब सार जाण्यो, मोह परिग्रह तुम कीया। इनकी एक रचना 'राणापुर स्तवन' तेरहपंथी मन्दिर टोंक कवि 'दास' कुवास छोड़ो, तुम त्रिभुवन पति हो जीव ।। के ग्रन्थांक १५० ब में संकलित है । संवत् १४६२ में कवि Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तूरचन्द्र 'सुमन' एम. ए. त्रिपुरी की कलचुरि-कालीन जैन प्रतिमाएँ कलचुरि कालीन जात प्रतिमानों में एक जैन प्रतिमा एक जन प्रतिमा हनुमान ताल के दि० जैन मन्दिर मे नागपुर सग्रहालय में संग्रहीत बताई गई है। प्रतिमा काले जबलपुर में भी विराजमान रहने का उल्लेख मिलता है।' पाषाण से निर्मित मस्तक खण्डित अवस्था में है। चौकी वैसे तो मन्दिर के अनेक बार दर्शन किए परन्तु इस बार पर संस्कृत भाषा में नागरी लिपि द्वारा छोटा सा एक उक्त प्रतिमा का ही मैने बारीकी से अवलोकन किया तो पक्ति का अभिलेख भी अकित मिला है जिसमे बताया प्रतिमा के दर्शन कर हर्ष विभोर हो गया। कलाकृति गया है कि माथुर अन्वय से साधु घोलु नामक किन्ही देखते ही बनती है। व्यक्ति के पुत्र देवचन्द्र द्वारा संवत् ६०० (कलचुरि संवत्) यह प्रतिमा जबलपुर के दि.जैन पार्श्वनाथ बा मन्दिर मे उक्त प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई गई थी। प्रतिमा पर हनुमान ताल के मन्दिर क्रमांक ४ में विराजमान है । कोई लाक्षण नही है जिससे प्रतिमा किस तीर्थकर की है, प्रतिमा करीब ५ फुट ऊँचे और ३-३॥ फुट चोड़ पत्थर यह ज्ञात नहीं होता है। अभिलेख मे उल्लिखित संवत् पर प्रकित है। वर्ण कुछ लाल सा है। शिरोपरि तीन को लेख की लिपि के आधार पर कलचुरि संवत् बताया छत्र बहत ही बारीक कलाकृति से अलकृत है। छत्र के गया है जिससे प्रतिमा ११४६ ईस्वी मे निर्मित हुई प्रतीत दोनो प्रोर दो हाथी खडे है जिनकी सड छत्र का प्राधार होती है। अंकित लेख निम्न प्रकार है : बनी हुई है। गजों के पागे का एक पैर कुछ मुडा हुआ माथुरान्वय साधु धौलु सुत देवचन्द्र संवत् ६००। है। दोनों गजों की पीठ पर घोड़ों की पीठ पर कसी . माथुरान्वय से सम्बन्धित इसी संवत् की एक जैन जाने बाली जीन जैसी प्राकृति है। प्राधार एक विकसित प्रतिमा का और भी उल्लेख मिलता है जो मथुरा निवासी पृष्प है। किन्हीं जसदेव और जसधवल के द्वारा प्रतिष्ठित कराई इस पृष्प के नीचे प्रतिमा के दोनों ओर दो देव गई थी।' प्रतिष्ठा कराने वाले श्रावकों के नामों से ज्ञात अंकित है जो बारीक खुदाई से अलंकृत किरीट धारण होता है कि दोनों प्रतिमाएं थी तथा उनकी प्रतिष्ठा भी किए हए है। दोनों देव उडते हुए दिखाये गये हैं। दोनों अलग-अलग हुई अलग-अलग थी। प्रतिमा किस तीर्थकर के हाथों मे मालायें हैं। दोनों देवो के साथ स्त्री मूर्तियाँ की है, यह नहीं बताया गया है। भी अकित हैं जो सम्भवतः उनकी स्त्रियाँ है। स्त्रियो के त्रिपुरी से उपलब्ध तृतीय जैन प्रतिमा नागपुर में मख देवों के विपरीत दिशा में है। कानों में वर्तुलाकार संग्रहीत है (संग्रहालय कृम ३३) जो १०वी शती की कुण्डल है। गोल जड़ा बँधा हुमा है। जूड़े के मध्य दो बताई गयी है। प्रतिमा को महावीर की प्रतिमा कहा मालाएं गुथी हुई हैं जो गोन गुरियों से निर्मित दिखाई गवा है।' देती है। कघी बीच मे मांग निकाल कर की गई है। मांग की दोनों प्रोर बालों को उठाया गया है जिससे १. श्री बालचन्द्र जैन, उपसंचालक संग्रहालय रायपुर, ऐसा प्रतीत होता है मानों बालों में सामने की पोर फग्गे रेवा पत्रिका : सं. २०२३ प्रक २, पृ. २७ बनाए गए हों । वक्षस्थल पर खजुराहो की स्त्री मूर्तियों २. डा. मोरेश्वर दीक्षित, मध्य प्रदेश के पुरातत्त्व की जैसा अंकन हैं। गले में एक छोटी और एक बड़ी दो रूपरेखा, सागर विद्यापीठ ३. मध्यवर्ती संग्रहालय नागपूर स्मरणिका ई०१६६४ ४. पं. परमानन्द शास्त्री, अनेकान्त : वर्ष १९, कि. १-२ पृ० ३६ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपुरी की कलचुरि-कालीन जैन प्रतिमाए ४१ मालाए पहने हुए हैं। मालाएँ दोनों स्तनों पर से होती प्रतिमा को वायी और के देव के दाये हाथ मे चवर हुई नीचे लटक रही है । भुजानो मे भुजबन्ध अकित है। है । वायां हाथ नीचे की ओर झुका हुआ है। हाथ के हाथों में ४-४, ६.६ कंगन और कंगनों के मध्य चूडियों अगूठे तर्जनी तथा कनिष्ठा में मुद्रिकाए है। अन्य अल करण हैं । दोनों हाथों में अलकृत माला के दोनों छोर दिखाए प्रथम देव के समान है। स्त्री प्राकृति भी दायी भोर गए हैं। अकित स्त्री के समान है। ये स्त्री पुरुप गधर्व ज्ञात होते दोनो देव भी गले में दो दो मालाएं पहने हुए है। जा मानो नाचने के लिए लिए तैयार है। इनमे एक माला गले से नीचे कमर तक लटकती हुई अनिमा दिख ई गयी है । भुजानों मे भुजबन्ध भी है। भुजबन्धी प्रतिमा के शिर पर तीन छत्र है जो क्रमश. सामने की प्राकृति वर्तमान में भगवान रामादि के चित्रों में दर्शाये की पोर निकले हुए हैं। प्रतिमा के पीछे अलंकृत भा. जाने वाले भुजबधो के समान है। हाथों मे एक देव एक मण्डल है । बाल धुंघराले हैं । कान कधों से जुड़े हुए है। हाथ मे एक और दूसरे मे दो कगन पहने हुए है । दूसरे श्री वत्सचिन्ह नही है किन्तु चिन्हाङ्कित स्थल से ऐसा देव के दोनों हाथों मे दो-दो कगन है। दोनों देव दोनों अनुमान लगता है कि श्रीवत्स चिन्ह अवश्य ही यथास्थान हाथों से भालाप्रो के छोर सम्हाले हुए है। कटि मे भी अंकित रहा है। प्रतिमा नासाग्रदृष्टि पद्मासन मुद्रा में है । कमरपट्टे जैसी प्राकृति है। पैरों में पायल और अंगु प्रतिमा की प्रसन पर अलंकरणों के मध्य एक कमल के लियों में (हाथ की) मुद्रिकाए पहने कुछ दिखाई देते है। ' फूल जैसी आकृति है। जिससे प्रतिमा भ. पद्मप्रभु की इन दोनों स्त्री पुरुष मूर्तियों के मध्य सामने की ओर ज्ञात होती है। पूजारी श्री हल्कलाल से ज्ञात हा कि मूख किये हुए बालिकाओं की प्राकृतियाँ अकित है। यह प्रासन इस प्रतिमा का नहीं है। प्रतिमा का प्रासन उरोज अंकन से वे उन्हीं देवों की बालिकाएं प्रतीत होती तो मिला ही नहीं था। प्रतिमा महावीर भगवान की है। है। बालिकाओं के गले मे दो-दो मालाएं एक माला दोनों प्रासन को देखने से वर्तमान प्रासन मल प्रासन प्रतीत उरोजों से होकर नीचे लटक रही है। हाथों में मालाग्रो के होता है क्योंकि प्रासन का अलग रहना पत्थर के जोड से दोनों छोर हैं। ज्ञात होता है जबकि यहां कोई जोड दिखायी नहीं देता है। उनके नीचे दोनों ओर दो देव अपनी पत्नियो सहित प्रासन पर कमल के फूल की तीन प्राकृतियाँ हैं । दो अकित हैं । देवों के शिरों पर बारीक छैनी से खुदे हए कमल दोनों ओर एक मध्य में अकित है। अतः प्रतिमा किरीट हैं । कानों में कुण्डल, गले में हार, तथा पेट पर भ. पद्म प्रभु की ही ज्ञात होती है। वालों तथा गले लटकता हुमा तीन लड़ी की प्राकृति का कोई अलंकरण में अकित तीन रेखामों से कुण्डलपुर के महावीर याद है। हाथों में एक एक कंगन है। प्रतिमा की दायी प्रोर पाते है। मेरी समझ से महाकोशल में ऐसी बहुत कम वाले देव के वायें हाथ में एक विकसित पुष्प है तथा दाये मूर्तिर्या उपलब्ध होंगी जिनमें कला की सूक्ष्म भावना हाथ में चवर है। हाथ के अंगूठे मे मुद्रिका है। भजाम्रो एवं बारीक छैनी का ऐसा आभास दिखाई देता हो। में भुजबंध, कटि कमरबन्द तथा पैरों में पायल हैं। देवी पद्मावती: __देव की कमर से सटी हुई एक स्त्री मूर्ति प्रकित है। इसी मन्दिर मे ऐसी प्रतिमा है जो लाल पत्थर से इस मूर्ति में अन्य सभी अल कारों के साथ कमरपट्टा भी (संगमर्मर) निमित है। प्रतिमा पालथी मारकर बैठी है । है। जो दो दो लड़ियों से निर्मित है। दायें हाथ में टेहनी दायां पैर सामने की ओर है। हाथ चार है। ऊपर के से लटकती हुई एक मनीवेग भी अंकित है। कमर से दाएं हाथ में एक प्रकूश जैसी प्राकृति है। बायें हाथ मे दांगी जांघ पर एक सूत्र लटकता हुआ दिखाया गया है कोई फूल धारण किए हुए है। नीचे के दायें हाथ मे जो संभवतः चाबी का द्योतक है। हाथों में भाला के दोनों माला और वायें हाथ मे गोल लम्बी प्राकृति की कोई छोर हैं। कपड़े भी दिखाई देते है। (शेष टाइटल के तीसरे पेज पर) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० बलभद्र जैन मानव की स्वाधीनता का संघर्ष मनुष्य में स्वतन्त्रता की इच्छा स्वाभाविक है। स्वतन्त्रता उसका सहज अधिकार है। अधिकार कर्तव्य में से निजपते हैं । मनुष्य मे मनुष्यता है, इसलिए वह अपने कर्तव्य का पालन करके इस अधिकार को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । स्वतन्त्र रहने के अपने अधिकार को जो समझता है वही सही मायनो मे इन्सान है। जो अपने प्रापको परतन्त्र और दूसरे को अपना स्वामी मानता है, वह इन्सान नही हैवान है। परतन्त्र होना अलग बात है और अपने को परतन्त्र मानना अलग बात है । लेकिन जो दूसरों की स्वतन्त्रता छीनता है, तोप रलवार लेकर दल बनाकर दूसरों की आजादी के अधिकार पर डकनी डालता है, वह न इन्सान है, न हैवान । वह तो शैतान है। ऐसे शैतान को सही मार्ग पर लाने का उपाय यह नहीं कि हम उसे पुचकारें। ऐसे शैतानो के लिए एक ही उपाय है कि उसकी शैतानियत को कुचल दिया जाय । जो स्वतन्त्र रहना चाहते है या जो स्वतन्त्र होना चाहते है, उन्हे कोई शैतान-चाहे वह कितना ही बडा क्यों न हो-गुलाम नही बना सकता । मुक्तिरंकान्तिकी तस्य चित्त यस्याचला धृतिः । तस्य नैकान्ति की मुक्तिर्यस्य नास्यचला तिः ।। निश्चय ही वह आजाद होगा, जिसमे अविचल धीरज है। जिसमे यह धीरज नही, वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता। मानव की स्वतन्त्रता के संघर्ष का इतिहास उसके त्याग और बलिदान की स्याही और धीरज की कलम से लिखा जाता रहा है । दुनिया मे शैतानों की कभी कमी नही रही। लेकिन ऐसे इन्सानों की भी कमी नहीं रही है, जो दूसरों के स्वतन्त्र रहने के अधिकार को मानते है और उनकी स्वतन्त्रता के लिए जो सहायता करते है। वे मनुष्य नही देवता है। दुनिया ने सच्चे मनुष्य का सम्मान किया है, लेकिन देवता की तो वह पूजा करता पाया है। जैन धर्म तो मनुष्य ही नही, प्राणी मात्र की स्वतन्त्रता का समर्थक है । उसकी मान्यता है कि सब प्राणियो मे परमात्मा बनने की शक्ति है। __ परमात्मा अर्थात् संमार के सभी बन्धनों से मुक्त, दुनिया के माया विकारों से निलिप्त । हम ऐसे स्वतन्त्र परमात्मा का स्मरण करते है; क्योंकि हम भी ऐसे स्वतन्त्र बनना चाहते है । जो दुनिया से मर्वथा स्वतन्त्र होना चाहता है वह दूसरों की पराधीनता देखकर चुप कसे रह सकता है। लोग पूछते हैं जो दूसगे की स्वाधीनता पर बलात्कार करते हैं, जो उस बलात्कार की प्रशंसा करते है और तोप तमंचे दे-देकर ऐसे लोगो की सहायता करते है, वे किस धर्म के अनुयायी है ? मेरा उत्तर है-वे सब एक ही धर्म के अनुयायी है और वह धर्म है शैतान का। यह कैसा आश्चर्य है कि एक परमात्मा को मानने वाले परस्पर मे लडते-झगडते है और शैतान को रहनुमा मानने वाले एक हो जाते है-चाहे उनके देश और वेश, चेहरे और चमड़े जूदे-जुदे क्यों न हों। आज दुनिया मे दो ही तरह के लोग है-एक वे जो परमात्मा मानते है और खुद इन्सान है। दूसरे वे जो शैतान की पूजा करते है और खुद भी शैतान है। दूसरे शब्दो मे कहें तो लड़ाई है इन्सानियत और शैतानियत के बीच मे। जानता हूँ, शंतान की फौज बड़ी है, शैतानियत के तौर तरीके की कोई सीमा नहीं। दूसरी पोर इन्सानियत जिसमें है, ऐसे इन्सान कम हैं-गलियो पर शायद गिने जा सके। लेकिन दुनिया शैतानियत के पाये पर नहीं टिकी, वह टिकी है इन्सानियत की धुरी पर । फिर शैतान अकेला हैं। धर्म अनेक नाम रखकर दुनिया में फैले हुए है। ससार के सभी धर्मों ने इन्सान की सोई हुई इन्सानियत को ही जागृत करने का प्रयत्न किया है। माज इन्सानियत का तकाजा है कि दुनिया के सब इन्सान एक होकर शैतान को चुनौती दें और दूसरों की स्वतन्त्रता को काटने वाले उसके नुकीले दांतों को तोड़ डालें। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमानन्द जैन शास्त्री हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और उनकी अप्रकाशित रचनाएँ भारतीय जैन साहित्य मे हिन्दी भाषा के जैन कवियो का पूरा इतिवृत्त अभीतक प्रकाश मे नही आ पाया है। और न उनकी कोई शताब्दीवार सूची ही बन सकी है। अनेक कवियों की रचनाओ का पता भी नही चल रहा है । जो कुछ थोड़े से जैन कवि और उनकी कृतिया का परिचय प्रकाशित हो सका है उनसे कुछ नवीन तथ्य प्रकाश मे आए है । फिर भी जैन इतिहास की कडी श्रपूर्ण ही रह गई है । जैन ग्रन्थागारों में अनेक कवियो की रचनाएँ भनेक गुच्छकों (गुटको ) मे उपलब्ध होती हैं जिनसे ज्ञात होता है कि भारतीय जैन कवियो की सख्या पाँच सौ से भी अधिक होगी। इस लेख द्वारा हिन्दी के कुछ प्रकाशित जैन कवियो और उनकी कृतियो का परिचय कराया जाता है। सबसे पहले कविवर शकर और उनकी एकमात्र कृति का परिचय कराया जाता है: कवि शकर मूलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण का विद्वान था । कवि ने अपने समसामयिक होने वाले दो भट्टारकों का उल्लेख किया है । भ० प्रभाचन्द्र श्रर रत्नकीर्ति का । संवत् १५२६, १५२७ और सवत् १५३० की लिपि प्रशस्तियों मे भट्टारक प्रभाचन्द्र और उनकी कीर्ति का उल्लेख मिलता है। ये दोनों ही भट्टारक जिनचन्द्र की प्राम्नाय के विद्वान् थे । कवि शंकर का वश गोला पूर्व और पिता का नाम पण्डित भीमदेव था । १. जैन समाज की चौरामी उपजातियो मे से गोला पूर्व भी एक उपजाति है, जिसका निकास गोल्लागढ ( गोलाकोट) से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा मे रहने वाले गोला पूर्व कहे जाते हैं और उसके समीपवर्ती इलाके मे रहने वाले गोलालारे तथा सामूहिक रूप में रहने वाले गोलसिंघारे कहे जाते हैं। इन तीनों जातियों के निकास का कारण होने से इस स्थान की महत्ता स्पष्ट ही है । कवि शकर की एकमात्र कृति 'हरिषेण चरित' है जिसमें कत्रिने २०वे तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ के समय होने वाले दशवे चक्रवर्ती हरिषेण की जीवन गाथा को अंकित किया गया है । कवि ने इस ग्रन्थ को संवत् १५२६ में बनाकर समाप्त किया था जैसा कि ग्रथ के अन्तिम पद्यों से प्रकट है: "गोलापुव्व वंश सुपवित्त, भीमदेव पंडित कउ पुत्त । सकर कथा पुरद्द यह कही, दिक्खा कारण कोसउ चौपही । संवत् पन्द्रह सइ हो गए, afरिस छबीस अधिक तह भए । भादव सुदि परिवा ससिवार, दिक्खा पर तह प्रक्खियउ सारु । अब यह कब्द सपूरण भयउ, गोलापूर्वी का सिरि हरिसेणु संघ कहु जयउ || अधिकतर निवास बुन्देलखण्ड में पाया जाता है । इनका निकास कब हुआ ? यह निश्चित नही है । हाँ, इसके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां सं० १९६६ स अबतक की पाई जाती है । अनेक मन्दिर प्रतिष्ठा महोत्सव और गजरथों का सचालन किया है । ये प्राचीन मूर्तियाँ मध्यभारत के प्राचीन स्थानों - महोबा, छतरपुर, पपरा, प्रहार, नावई और बुहीबन्द प्रादि स्थानो मे पाई जाती है । १६त्रों १७वी शताब्दी की रचनाएं भी उपलब्ध होती है, सचित्र विज्ञप्ति पत्र और भक्तामर स्तोत्र का हिन्दी-संस्कृत मे अनुवाद करने तथा उसकी सचित्र प्रति लिखाने का श्रेय भी उन्हे प्राप्त है। वर्तमान मे इस जाति मे अनेक प्रतिष्ठित विद्वान और श्रीमान् पाये जाते है । यदि अन्वेषण किया जाय तो इस उपजाति के अनेक ऐतिहासिक उल्लेख और तथ्य प्राप्त हो सकते हैं, जिनपर से उसके इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त ग्रन्थ में ७१२ पद्य दिए हए हैं। ग्रन्थ की प्रति केवल शक्ति को जागृत किया जा सकता है जिससे भव-वन्धन एक जीर्ण-शीर्ण गुच्छक में उपलब्ध होती है। प्रति अशुद्ध की कड़ियाँ सहज ही टूट पड़ें। संसार के दुःखों से छूटने है, जान पड़ता है लेखक प्रति की लिपि से अधिक परि. के लिए प्रात्म-शोधन करना नितान्त आवश्यक है। चित नही था । अतः अन्य प्रतियो के अन्वेषण की जरूरत उसके लिए जिन मारग ही उकृष्ट है, पंच परमेष्ठी ही है । संभव है अन्य किसी ज्ञान भडार मे उसकी उपलब्धि मेरी शरण है । अतः दीक्षा अवश्य ग्रहण करूंगा। ऐसा हो जाय । ग्रन्थ प्रकाशन के योग्य है। विचार कर हरिवाहन ने मन्त्री को बुलाकर कहा कि ____चक्रवर्ती हरिषेण का जीवन बड़ा पावन और धार्मिक हे मन्त्री, तुम चक्रवर्ती से जाकर यह निवेदन करो कि रहा है। क्षत्रिय होते हुए भी दीन-दुखीजनो की रक्षा हरिवाहन ने कर्मगन्धन से छूटने के लिए तप ग्रहण कर द्वारा उसे सार्थक किया है । वे अपनी माता के आज्ञाकारी लिया है। प्रतएव मुझसे जो कुछ अनुचित कहा गया हो सुपुत्र थे । उन्होने अपनी माता की धार्मिक भावना को सो तुम क्षमा करो और स्वयं दीक्षा ले प्रात्म-साधना पूरा किया था। माता जन रथ निकालना चाहती थी, में निरत हो गया । शल्यत्रय से हीन हो गया। परन्तु वह अपनी सौत के कट एव द्वेषपूर्ण व्यवहार के मन्त्री ने बहुत अनुनय विनय की, किन्तु हरिवाहन कारण उसमे सफल न हो सको। सौत का प्राग्रह था कि ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि अब मैं यहाँ से वापस पहले मेरा रथ निकलेगा । इस विवाद मे कितना ही समय नहीं जाऊँगा और मन्त्री को चक्रवर्ती के पास भेज दिया। व्यतीत हो गया। इससे हरिषेण की माता को बड़ा कष्ट मन्त्री ने डरते-डरते सब समाचार चक्रवर्ती से निवेदन हमा, परन्तु वह अपनी धार्मिक भावना मे दृढ रही। किया जिसे सुनकर चक्रवर्ती पुत्रमोहवश अत्यन्त शोक को हरिषेण ने दिग्विजय कर चक्रती पद प्राप्त किया, प्रजा प्राप्त हुआ, जो कवि के शब्दों मे निम्न प्रकार है:का पुत्रवत् पालन किया और अपनी माता की धार्मिक एतहि जहि चकवइ कुमार, भावना को पल्लवित पुष्पित किया। अनेक जैन मन्दिरों हरिवाहण बहु गुण सार । का निर्माण कराया और उनके प्रतिष्ठा महोत्सव भी गहि संवेउ चबइ तहि वयण, किए। णिसुणि बप्प वर मंतिय रयणु ॥६१८ चक्रवर्ती पुत्र हरिवाहन एक दिन कैलाश पर्वत पर हडं संसार सरणि भय भीऊ, गया, और वहां उसने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाए हुए दुख प्रणंतु सहियउ इहि जीऊ । मन्दिरों में स्थित जैन प्रतिमानो के दर्शन किए और चउ गइ फिरत भयउ खिद खिण्ण, कैलाश के चारो पोर खुदी हुई गहरी खाई देखी तथा किवि समत्य कवि जाय उविष्णु ॥६१६ भगीरथ द्वारा गंगा के लाने का वृतान्त भी सुना। और इष्ट वियोग-सोय-दुह भरिउ, घरणेन्द्र के कोप से सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों के प्रणिष्ट जोग बेयण प्रण सरिउ । मुछित हो जाने का समाचार भी सुना। उन्हीं सगर कवहिक दुख नय प्रसराल, चक्रवर्ती के पुत्रों ने कैलाश की रक्षा के लिए खाई खोदी छिदणाइ बह पंच पयार ॥६२. थी। इन सब कथानकों से हरिवाहन को संसार की इस परिवर्तनशीलता, अनित्यता और प्रशरणता का परिज्ञान हा। उसने सांसारिक देह-भोगो से विरक्त हो दीक्षा तो जिण उत्तु करउ तव रयण, लेने का विचार किया और निश्चय किया कि भव-बन्धन मण गिरोष इविय बस करण । हउ के दुःखों से छूटने का एकमात्र कारण जिन दीक्षा है। ससंक जम्मण-जण-मरण, मुनि जीवन द्वारा कठोर प्रात्म-साधना से कर्म क्षय हो अब महि पंच परम गुरु सरणु ॥६२३ सकता है। तपश्चरण और इन्द्रिय निरोध द्वारा प्रात्म Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ प्रज्ञात जैन कवि और उनकी रचनाएं अपने चित जिनि कर सन्देह, जिनि मारगु उत्तम हइ एकु । हउँ त लेउ मापने काज, इमि कहत तुही नाही लाज ॥१२३ चिरकाल वयण मइ बुत्तु, हास-कोडि इह कोह संजनु । त म प्रज्ज खमह णिरु सब्बु, चढ़ि विमाण जाहि घर बप्पु ॥६३४ इह संबोह मति पाठयउ, प्रापुणु दिक्व लइ बि संठियउ । हार टोर अंवर सुविशेष, उसारिय प्राभरण निश्शेष ॥६३५ प्रोंकार मंत्त उच्चरिउ, पंच मूठ लोच वि सिर करिउ । होइ निग्गंथ सल्लतय होण, परमप्पह कियउ मण लीण ॥६३६ दुद्धर महा उग्गतउ चरिउ, एतहिं मति णयर सचरिउ । बहु संवेहु चित्त सासउ परिउ, विलख बदन रावल संचरिउ ॥६३७ तहडी दीठि सभामहि जाइ, खूट एक बइठउ दुचिताइ । चक्क वट्टि अवलोवइ जाय, हरिवाहणु णवि पेखद ताम ॥६३८ नाम णरेसर दिनु कर चित्त, पुच्छह मति कहइ जं चित्तु ।। ६४२ तब मंती सयलुवि प्रक्खियउ, एकु व गुज्न ण तह रक्खियउ । जिम कहलास सिहरि सपत्त, तिम संसारह - भयउ • विरत्तु ।। ६४३ पुण अति गाहु अप्पु ज कियउ, जिम तहि दिक्ख लेवि संठियउ । जिम खमितब्बु कहिय घर जाइ, तं सव तिहि कहिय निकुताइ ॥ ६४४ मंती वयण सुणि विणिरु जाम, मच्छिउ राउ धरणि पडियउ ताम। सभा मांहि हा हाकार जु भयउ, तबहि अंतेवरु मण विभियउ॥ ६४५ कि बि सुयगु पुछियउ बुलाइ, तिहि पणिउ कि प्रक्खउ माइ। णिविण्ण दइय कियउ जु अणिछु, हरिवाहण तउ लयउ गरिछु ।। ६४६ सुणिवि गरेसर सोयह भरिउ, मच्छिमाइ धरणीयल पडिउ । इय णिसुणि वि जयचंदा माइ पडिय धरणि सत्ति कुम्हिलाइ ॥ ६४७ जणु कमलिणि तुसारइ हई, ___ खण इक माहि विकल हुइ गई। ताम बयंसी प्राकउ भरइ, जलसिंचई किवि वाउस करइ ।। ६४० इयर अंतेवर पंहुती प्राइ, ___ जयचन्दा कह लेह बचाई। करुण - पलाउ करती तहां, चक्कट्टि हइ मच्छिउ जहाँ ॥ ६४६ हा। पिय कि कियउ प्रजुत्त, जइ वि तवोहण संठित पुत्त । काहे राज भंगु तुम कियउ, पुत्त वियोग जीउ कि दियउ॥६५० चक्रवर्ती हरिषेण और रानी जयचन्दा ने पुत्र-वियोग से दुखी हो अत्यन्त विलाप किया। वह विलाप करती नाहि तर केम सभी विणु रहइ, जिहि विण सयल सभाणवि सहइ । मह णिसु चित्तु विलंबिउ जहा, सो हरिबाहण रहियउ कहा ।। ६४० सब बकवइ मति पुंछियउ, तुहि संग हरिवाहण थियउ । बिलख बयण मंतो तव होइ, णिय कर मलइ वत्थु मुंह बेइ॥६४१ मंसु पवाह-णयण परिचवइ, गह भरि पायउ किपि लवहा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त हुई कहती है कि हे पुत्र, तेरे बिना मुझे सर्वत्र अधकार मुनिराज ने चक्रवर्ती से कहा कि तुम विषाद मत करो, दिखाई देता है । हे कुलचन्द ! तेरे बिना मेरा मन नही वह वश स्थान, क्षेत्र और माता पितादि धन्य है जहाँ लगता, तूने मेरा मन-मन्दिर सूना कर दिया । नगर के इस जीव ने प्रात्मकल्याण के लिए प्रयत्न किया है, वे लोगों ने दोनों को समझाने का यत्न किया, और कहा चक्षु धन्य है जिन्होंने कुरूप नहीं देखा किन्तु केवल कि यह सम्बन्ध इस प्रकार से होना था, आप क्यों व्यर्थ स्वरूप की पोर ही दृष्टि दी है। वे हाथ धन्य है जिनसे मोह कर दुखी हो रहे हैं। आपके पुत्र ने बड़ा सुन्दर जिन पूजा सौर सत्पात्रों को दान दिया है। हरिवाहन ने उपाय किया है। हे नाथ ! पाप छह खण्ड पृथ्वी के जिन निर्दिष्ट तप का प्राचरण किया, इसमें विषाद का पालक हैं अतः अपने मन में विषाद न कीजिए । इस तरह कोई कारण नहीं है । ससार के समस्त पदार्थ प्रनित्य हैलोगों के समझाने पर भी चक्रवर्ती के मन में सन्तोष नहीं देखते-देखते विनष्ट होने वाले है, रूप लावण्यादि क्षणभंगुर होता था और बार-बार मोहवश वत्स पुकारता था। हैं, इन्द्र विद्याधरादि की पर्याये भी क्षण मे नाश होने वाली राजा रानी ने खान पान भोग और शृंगार आदि का है। इस जीव का कोई शरण नही है मरते हुए जीव को त्याग कर दिया, केवल एक पुत्र से ही अनुराग रहा। कोई बचाने वाला नही है मणि मत्र-तत्र औषधि प्रादि इतने में ही उन्हें महा तपस्वी मति सागर नामक साधु भी रक्षा नही कर सकती। जिन प्रतिपादित धर्म ही इस का समाचार मिला, और वे उनकी शरण में गए। उन्हे जीव का शरण है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप ही धर्म देखकर मनि ने धर्मवृद्धिरूप पाशीर्वाद दिया। तब चक्र है वही ससार बन्धन का नाश कर मोक्ष पा सकता है । वर्ती ने कहा कि मेरे धर्म वृद्धि क्या होगी? महाराज ! यह अकेला ही जीव सुख तथा दुःख भोगता है । इस तरह *पत्र वियोग के शोक से संतप्त हूँ। मेरे पुत्र हरिवाहन गुरु उपदेश से चक्रवर्ती का शोक दूर हो गया और उसकी ने कैलाश पर्वत पर जाकर तप धारण कर लिया है। प्रात्मा में निर्मल धर्म का प्रकाश हा । मिथ्या मोह 1. एतहि सीलवंतु गुण सहिउ, धुल गया और अन्तर्मानस पावन हो गया चक्रवर्ती चद्रसल्ल कसाय-दोस णिरु रहिउ । कुंवर को राज्य देकर साधु हो गया और तपश्चरण द्वारा दसण-णाण - चरण सम जुत्तु, प्रात्म-शोधन करने लगा। मइसागर णामे मुणि पत्तु ॥ बहु तप-तेय तयउ जिम तरणि, हरिवाहन ने घोर तपश्चरण द्वारा प्रात्मशक्ति से जो अग्नि प्रज्वलित की, उससे धाति कर्म का क्षय हो गया दिछु णेरस सार घम्म घरणि । तिण्णि पयाहि य देपिणु जाइ, और विशुद्ध केवल ज्ञान प्राप्त किया, पश्चात् अधाति कर्म पूणि लागउ मुणिवर के पाइ ।। ६६६ का विनाश कर अविनाशी अनुपम सिद्ध पद प्राप्त किया। मुणिवर घम्म विद्धि हो सवण, चक्रवर्ती भी प्रात्म-साधना द्वारा सर्वार्थ सिद्धि का ताम पयंपइ पहु मिहि धनी। अहमिन्द्र बना। इस तरह चक्रवर्ती हरिषेण का चरित्र मुहि किम धम्म विद्धि हो सवण, बड़ा पावन है । ग्रन्थ की भाषा हिन्दी होते हुए भी उसमे अपभ्रश और देशी शब्दों की भरमार है, उससे हिन्दी के पुत्त वियोग दिठ्ठ मइ णयण ॥ ६६७ विकास क्रम के जानने में सहायता मिल सकती है । हरिवाहणु जु पुत्तु मण हरण, तिहि कइलास लय उ तव यरणु । ता णिसुणि वि जंपइ मुनि राउ, चक्कवट्टि मा करहि विसाउ ।। ६६८-हरिषेण चरित १. देखो हरिषेण चरित Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. षड्दर्शन समव्यय सटोक (सस्कृत हिन्दी टीका दर्शनशास्त्र के अभ्यासियो को मगा कर अवश्य पढना संयुक्त - मूलकर्ता हरिभद्रमूरि, संस्कृत टीकाकार चाहिए। गुणरत्नसूरि । सम्पादक स्व. डा. महेन्द्र कुमार जैन न्याया २ प्रमाण-नय-निक्षेप प्रकाश-लेखक सिद्धान्ताचार्य पं. चार्य, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्डमार्ग वाराणसी कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, प्रकाशक डा० दरवारीलाल जी, -५, बडा साइज, छपाई, सफाई, गेटप सुन्दर, पृष्ठ सं० मंत्री वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट | पृष्ठ संख्या ७०, छपाई५५८ सजिल्द प्रतिका मूल्य २२) रुपया । सफाई सुन्दर । मूल्य एक रुपया पचास पैसा । प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है। प्राचार्य हरिभद्र ने ८७ कारिकामो द्वारा षडदर्शनो लेखक ने तत्त्वार्थसू के प्रथम अध्याय के छठे सूत्र प्रमाण का सामान्य परिचय कराने हैए प्रत्येक दर्शन के मूल नये रधिगमः-सूत्रगत नयदृष्टि के अभिप्राय को सिद्धान्तो को सन्तुलित रूप मे प्रस्तुत किया है और षड- खोलने का प्रयत्न किया है खोलने का प्रयत्न किया है। क्योकि देवसेन ने दर्शनों में वैदिक और अवैदिक दर्शनो को ममाविष्ट किया लिखा है कि जो नयदृष्टि विहीनहै उन्हे वस्तुतत्त्व है । छह वैदिक दर्शन (सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, की उपलब्धि नही होती, और वस्तुस्वरूप की पूर्वमीमासा और उत्तर मीमासा) माने जाते थे, किन्तु उपलब्धि के बिना वे सम्यग्दष्टि कैसे हो सकते हरिभद्र ने उनमे बौद्धदर्शन और जैन दर्शन को शामिल है? नगदष्टि से सम्पन्न सम्यग्दृष्टि होते है । ५० किया है, अनाव छह दर्शनों की मम्म- बोद्ध, नैयायिक, कंशन की प्रसिद्ध विद्वान और अच्छे लेखक है, उनकी माख्य जैन, वैशेपिक और जैमिनीय इस रूप में की गई है। अनेक कृतियां साहित्यको के सम्मुख पा चुकी है। उन्होने टीकाकार गुण रत्नसूरि ने पडदर्शन ग्रन्थ पर सन्दर अपने अनुभव से प्रमाण नय और निक्षेप पर अच्छा टीका लिवकर उसके मर्म को खोलने का प्रयत्न किया है, प्रकाश डाला है । भाषा सुगम और सरस है, वह पाठकों उन्होंने ही उसके विभाग किये है । टीका ग्रन्थ के हादका के लिए अत्यन्त रुचिकर होगी। इस उपयोगी प्रकाशन उद्घाटन करती है। भाषा की दृष्टि से वह दुरूह के लिए लेखक और प्रकाशक वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट नहीं है। दोनो ही धन्यवाद पात्र है। स्व० न्यायाचार्य डा. महेन्द्र कुमार जी ने उसका ३. उत्तराध्ययन-सूत्र एक परिशीलन-लेखक डा. हिन्दी अनुवाद कर ग्रन्थ को और भी सुगम बना दिया सदर्शनलाल जैन, प्रकाशक सोहनलाल, जैनधर्म प्रचारक है। तुलनात्मक टिप्पणियां तो ग्रन्थ की महत्ता को प्रकट समिति गुरु बाजार, अमृतसर । पृष्ठ सख्या साढ़े पाचसा, कर ही रही है । दुःख इस बात का है कि ग्रन्थका सम्पादक मूल्य सजिल्द प्रतिका २५) रुपया । और अनुवादक अल्पायु मे ही स्वर्गवासी हो गया है। उत्तराध्ययन एक सूत्र ग्रन्थ माना जाता है उस पर उनसे समाज को बड़ी प्राशाए थी। उन्होंने जन संस्कृति यह शोध प्रबन्ध लिखा गया है जिस पर लेखक को की जो सेवा की, वह उनकी कीति को अमर बनाएगी। वनारस विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की डिगरी ग्रन्थान्त में दो परिशिष्टो में लघुवत्ति और षडदर्शन मिली है । लेखक ने उत्तराध्ययन का परिचय कराते हुए समुच्चय और प्रवचुणि दे देने से ग्रन्थ की महत्ता वढ उसके अर्थ पर भी विचार किया है शोधकर्ता ने मूलग्रन्थ गई है । ग्रन्थ की प्रस्तावना दल सुखमालवणिया ने लिखी के पद्यो का दोहन करके उसके नवनीत को पाठको के है जिसमें ग्रन्थादि विषयक अच्छा परिचय दिया है, ग्रन्थ सामने रखने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थ में पाठ का प्रकाशन सुन्दर हुआ है। इसके लिए भारतीय ज्ञान- प्रकरण है जिनमे विविध विषयों पर विचार किया गया पीठ के संचालक धन्यवाद के पात्र है। ग्रंथ उपयोगी है, है। द्रव्य विचार, संसार, रत्नत्रय, कर्मबन्ध और मुक्ति Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त समाज और संस्कृति और सामान्य-विशेष साध्वाचार में नहीं मिलता। साधु के आहार-विहार प्रादि पर विचार किया गया है, प्राचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दशवी तपश्चर्या परिषह जय, साधु की प्रतिमाए और सल्लेखना शताब्दी है। तत्त्वार्थसार की हिन्दी टीका पं० पन्नालाल पर विशेष विचार किया गया गया है। साथ ही विषय जी साहित्याचार्य ने बनाई है टीका सरल भोर अपने को स्पष्ट करने के लिए संक्षिप्त एवं सरलरूप में वस्तु विषय की अभिव्यंजक है, ३८ पृष्ठ की प्रस्तावना मे तत्त्व को रखने का उपक्रम किया गया है। चार परि सम्पादक ने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में अच्छा शिष्टों द्वारा उसे और भी सरल करने का प्रयत्न किया प्रकाश डाला है। प्रस्तावना में तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध है। इस तरह सारा ही ग्रन्थ लेखक की भावना पोर १२ टीकामों का उल्लेख किया है, निम्न दो टीकामों का परिश्रम से सून्दर बन पड़ा है। भाषा मुहावरेदार है उसमें उसमें उल्लेख नहीं है। गति है-प्रवाह है। इसके लेखक महानुभाव धन्यवादाहं श्रवण वेल्गोला के शिलालेख नं० १०५ में शिवकोटि हैं। ग्रन्थ के इस सुन्दर प्रकाशन के लिए विद्याश्रम के को समन्तभद्र का शिष्य और तत्त्वार्थसूत्र की टीका का सचालकगण धन्यवाद के पात्र है। प्राशा है भविष्य मे कर्ता उदघोषित किया है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से जनाश्रम से और भी अधिक ग्रन्थों का प्रकाशन हो प्रकट है :सकेगा। तस्यैव शिष्यो शिवकोटि सूरि स्तपोलतालम्बव देहयष्टिः । ४. तत्वार्थसार-प्राचार्य अमृतचन्द्र सम्पादक पं. संसारवाराकरपोतमेतत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार । पन्नालाल जैन साहित्याचार्य । प्रकाशक मत्री गणेश वर्णी दूसरी टीका उन प्रभाचन्द की है जो भ० धर्मचन्द्र ग्रन्थमाला डुमराब वाग अस्सी वाराणसी ५ । डेमीसाइज ज के पट्टधर थे। जिसे उन्होने जताख्य नाम के ब्रह्मचारी मूल्य ६) रुपया। के सम्बोधनार्थ संवत् १४८६ में भाद्रपद शुक्ला पचमी के ग्रन्थ का विषय उसके नाम से स्पष्ट है । प्रस्तुत ग्रंथ दिन बनाकर समाप्त किया था। इनके अतिरिक्त अन्वे. मे प्राचार्य अमृतचन्द ने तत्त्वार्थ सूत्र के सार को पल्लवित षण करने पर और भी ठीकानों का उल्लेख प्राप्त हो एव विकसित करते हुए वस्तुतत्व का विवेचन किया है । सकता है। और कहीं-कही तो उन्होंने अनेक नवीन तथ्यों का उद्घा. ___ ग्रन्थ का प्राक्कथन पं० कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्ताचार्य टन किया है, जिससे विषय को समझने में सरलता हो ने लिखा है, जिसमें प्राचार्य प्रमतचन्द्र के सम्बन्ध मे अच्छा गयी है । प्राचार्य अमृतचन्द्र बहुश्रुत विद्वान थे, भाषा और प्रकाश डाला है। इसके लिए पंडित जी भोर सम्पादक विषय पर उनका अधिकार था। पा. कुन्दकुन्द के सारत्रय दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं। ग्रन्थों की जो टीका बनाई है वह कितनी महत्वपूर्ण है ___ ग्रन्थ का प्रकाशन गणेश वर्णी ग्रन्थमाला से हुमा इसे बतलाने की अावश्यकता नही है उसके रसिकजन है। ग्रन्थमाला के मत्री डा० दरवारीलाल जी ने प्रयत्न उसकी महत्ता से स्वय परिचित है। टीकाकार ने ग्रंथ के करके ग्रन्थमाला को पुनरुज्जीवित किया है। प्राश है हार्द को उद्घाटित करने का पूरा प्रयत्न किया है । भाषा डा. माके सद प्रयत्न से ग्रन्थमाला मौर भी पल्लावित गभीर मौर सरस है, पढने में बड़ी रुचिकर प्रतीत होती होगी। इस उपयोगी प्रकाशन के लिए मंत्री महोदय है। जान पड़ता है अथकार के भाव को टीकाकार ने धन्यवाद के पात्र हैं। पात्मसात् किया है, वे प्रध्यात्म विषय के महान विद्वान -परमानन्दन शास्त्री थे । पुरुषार्थ सिद्धघुपाय नाम की २२६ श्लोकों की प्रसाद गुणयुक्त रचना है, जो श्रावकाचारों में अपना महत्वपूर्ण १. देखो, अनेकान्त वर्ष ८ कि. स्थान रखती है, उसमे रत्नत्रय का सुन्दर कथन दिया है २. अनेकान्त वर्ष २ किरण ६ पृ. ३७५. और अहिंसा का जो सूक्ष्म विवेचन किया है वैसा अन्यत्र ३. जैन प्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भाग १ पृ० १७३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० मिलापचन्द जी कटारिया का देहावसान पडित मिलाप चन्द जी कटारिया अच्छे विद्वान और लेखक थे। जैन समाज उनके खोजपूर्ण लेखों से भली भांति परिचित है । वे प्रतिष्ठाचार्य भी थे, अनेक मन्दिर और मूर्तियों की प्रतिष्ठा उन्होंने कराई थी, पर उन्होने प्रतिष्ठानों से कभी धन कमाने की इच्छा नहीं की। प्रतिष्ठाशास्त्र के अच्छे विद्वान तथा शास्त्र प्रवक्ता थे । अनेक शंकानो का समाधान करते हुए मैने उन्हे देखा है। वे वस्तु की तह मे प्रविष्ट होकर उसके हार्द को समझाने में कुशल थे। उनको परिणति शान्त थी। अपना कार्य करते हुए भी वे सामाजिक कार्यों में भी भाग लेते रहते थे। केकडी की जैन समाज मे उनकी अच्छी प्रतिष्ठा थी। वे आज नही है, वैशाख सुदी १० वी बुध. वार को उनका स्वर्गवास बोलते-बोलते हो गया। उनके सुपुत्र प० रतनलाल जी कटारिया प्राने पिता के समान ही विद्वान और लेखक हैं। उनके भोजपूर्ण लेख अनेक पत्रों में तथा अनेकान्त में प्रकाशित हुए हैं । मै और अनेकान्त परिवार उनके इस वियोग जन्य दुःख मे समवेदना व्यक्त करते हुए दिवगत प्रात्मा के लिए सुख-शान्ति की कामना करता हूँ। प्राशा है ५० रतनलाल जी अपने पिता जी की कीति को चिर स्थायी बनाये रखेगे । (पृ० ४१ का शेष) वस्तु है। गले में माला है । किरीट भी दिखाई देता है। नीचे पद्मासन मुद्रा में पुन: ५-५ इनके मध्य मे एक के सप्त फणावली भी सिर पर अकित है। इस फणाबली के नीचे एक चार प्रतिमाए, जिनमें तीन पद्मासन मुद्रा ऊपर एक पद्मासन मुद्रा मे तीर्थकर प्रतिमा है। देवी की में और एक खड्गासन मुद्रा में है। अन्तिम प्रतिमा पर प्रतिमा के दोनों ओर ऊपर नीचे दो देव है। ऊपर के देव छत्र है। यह सबसे आकार में बड़ी भी है। ग्रासन पर चवरधारी है । नीचे के देव कुतो पर सवार दिखाई देते हिरण चिन्ह अकित है जिससे यह शान्तिनाथ भगवान की है। प्रतिमा का प्रासन एक कमल के फूल पर बनाया चौवीसी ज्ञात होती है। इसी मन्दिर में एक चौवीसी गया है। ऐसी भी है जिसमें २५ प्रतिमाए अकित है, सभवतः इसमें इसी मन्दिर में सेठ गोपाली माब परन साहब मूल नायक प्रतिमा को अलग से बनाया गया है जबकि सिवनी द्वारा निर्मित म० न० ११ मे एक पापाण निर्मित प्रथम चौवीसी में ऐसा नही है। लेख दो पक्तियों में चोवीसी है जिसके पासन पर एक लेख भी अकित है जो संस्कृत भाषा मे नागरी लिपि में प्रकित है। म०२० इस प्रकार है १५, १८, १९, २०, २२ में विराजमान प्राचीन प्रतिमाएँ भी दृष्टव्य है। किन्तु शिल्प कला की दृष्टि से म० न० संवत् १८७२ साके १७३(८) भादी सुदि १४ बी कीमति हो । मलसघे सरस्वती गने णे (गच्छे) वलात्कारगणे कुन्द- कुन्द- इस भांति कलचुरि काल मे जैनधर्म की स्थिति ठीक म जाति कुन्दान्वये बदली प्रतिष्ठितं सु(शु) भ भवतु । बनी रही ज्ञात होती है। तत्कालीन जैनी कला पूजारी चौवीसी में दोनों मोर खड्गासन मुद्रा में ५-५ उनके भी रहे है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द। ८.०० स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से मुशोभित । २.०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० यक्त्यनशासन : तत्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हा था । मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द ।। श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचतुस्थिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ... जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा०१: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह. उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र और इष्टोपवेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । १.२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक १६ अध्यात्म रहस्य : प. आशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०२: अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२-०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । ४.०० २५ २५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वे मासिक जून १९७१ अनेकान्त र वष २४ : किर२ वीरशासन जयन्तो महोत्सव .. बायें से बाये १. श्री लाला राजेन्द्रकुमार जी अध्यक्ष वीरशासन जयन्ती, २.ला. पारसदास, जी ३. श्री ला० उलफतराय जी, ४. श्री ला० श्यामलाल जी उपाध्यक्ष वीरसेवामन्दिर, ५. श्री प्रेमचन्द नावाच कम्पनी, ६. श्री यशपाल जी भाषण देते हुए, ७. श्री ला प्रेमचन्द जी मंत्री वीर सेवा मन्दिर । समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . Com Na * . . वीरशासन जयन्ती के अवसर पर उपस्थित श्रोताओं के सम ह का एक दृश्य . विषय-सूची क्र० पृ० ० १. अभिनन्दन जिनम्तवन - प्राचार्य समन्तभद्र ४ ६. सत कवीर और द्यानतराय२. गुणकीतिकृत चौपदी-डा. विद्याधर जोहरापुरकर ५० | डा० गगागम गर्ग ३. भारत कलाभवन का जैन पुरातत्व ७. सदोपता--मुनि श्री कन्हैयालाल मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी । ८. पांडे जीवनदासका बारहमासा-श्री गिन्नीलाल ६६ ४. अपभ्रश का एक प्रचिन चरित काव्य ६. कलिंग का इतिहास और सम्राट् खारवेल : एक अध्ययन-परमानन्द जैन शास्त्री डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री प्रयाग-श्री प० बलभद्र जैन ५. हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और ११. खण्डार के सेन परम्परा के लेखअप्रकाशित रचनाये-परमानन्द शास्त्री ५८ रामवल्लभ सोमाणी १२. मध्यप्रदेश में काकागंज का जैनपुरातत्वसम्पादक-मण्डल कस्तूरचन्द सुमन एम. ए. डा० प्रा० ने उपाध्ये १३. राजगिरि या राजगृह--परमानन्द शास्त्री ८६ डा. प्रेमसागर जैन १४. मूक-साहित्य-सेवी-माईदयाल बी. ए. पानर्स १० श्री यशपाल जैन १५. वीरशासन जयन्ती-श्री प्रेमचन्द जैन १६. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री ६४ परमानन्द शास्त्री अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ - - वष २४ । कारण } बोर-सेवा-मन्दि वोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० सं० २०२७ किरण २ ॥ १९७१ अभिनन्दन जिनस्तवन नन्द्यनन्तय॑नन्तेन नन्तेनस्तेऽभिनन्दन । नन्दनधिरनम्रो न नम्रो नष्टेऽभिनन्धन ॥२२ -प्राचार्य समन्तभद्र अर्थ-समृद्धि-सम्पन्न, अनन्त ऋद्धियों से सहित और अन्त रहित हे अभिनन्दन स्वामिन् ! आपको नमस्कार करने वाला पुरुष (पापके ही समान सबका) ईश्वर हो जाता है। जो बड़ो-ब ऋद्धियों के घारी हैं वे आपके विषय में अनम्र नहीं हैं-पापको अवश्य ही नमस्कार करते हैं और जो आपकी स्तुति कर नम्र हुए हैं वे कभी नष्ट नहीं होते-अवश्य ही अविनाशो मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं। भावार्थ-जो सच्चे हृदय से भगवान को नमस्कार करते हैं वे अनेक बड़ी ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं। और अन्त में कर्मों का क्षय कर अविनाशी मोक्षपद पा लेते हैं। इसलिए प्राचार्य ने ठीक ही कहा है कि पापको नमस्कार करने वाले पुरुष पापके समान संसार के ईश्वर हो जाते हैं ॥२२॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणकीर्ति कृत चौपदी डा० विद्याधर जोहरापरकर मराठी में जैन साहित्य की परम्परा के अग्रदूत गुणकीति-जो पन्द्रहवीं शताब्दी के गुजराती साहित्यकार ब्रह्म जिनदास के शिष्य थे-उनके कुछ पद देउल गाँव (जिला बुलडाणा, महाराष्ट्र) के जिनमन्दिर को एक जीर्णोथी में मिले हैं। इन्हीं में से एक यहां दिया दिया जा रहा है। इसमें एक ध्रुपद और चार छंद हैं जिनमें मराठी का गुजराती--प्रभावित स्वरूप स्पष्ट देखा जा सकता है। कवि के शब्दों का सरल रूपान्तर इस प्रकार होगा : हम श्री गुरु के शिष्य हैं, उनके चरण प्रक्षालन कर वह जल पिएंगे। अब तक योग का अभ्यास करने में समय गंवाया, अब मानन्द का रस लेकर जिएंगे। योगो लोगो, बाबू लोगो, अवधूत पुत्रों, समझ लो ! जो सद्गुरु के वचनों से ज्ञान प्राप्त करते हैं वे अनन्त मुक्ति सुख में मग्न होते हैं । हमारे गुरु के कोई गुरु नहीं हैं, उनके प्रासन निराले ही हैं। वे शुक्ल ध्यान की भूमि पर बैठे हैं, मोंकार रूपी सींग बजाते हैं जिससे सारा आकाश गंज रहा है, उनके मुख में अनादि वेद (जिन. वाणी) के दर्शन हुए हैं । वे साकार रूप में उन्मन हुए और उनके सारे कार्य रुक गये। संकल्प और विकल्प दोनों का अस्त हुआ और सार रूप आत्मतत्त्व ही बचा रहा। उनका शरीर तो दिखता है किन्तु छाया नहीं दिखती; क्योंकि उनके दिव्य शरीर से सप्तधातु क्षीण हो गये और उन्हें नौ केवललब्धियां प्राप्त हुई हैं। मूल पद हमें तो घेला श्रीगुरु केरा चरण पखाला नीर पिऊ । योग अभ्यासे कालु वेचियला आनंद रसेवि जोवो ॥ध्रु०॥ बुझो जोगीलो बुझो बाबुलो बुझो अवधूत- पुता। सद्गुरुवबने जे नर बुझले अनंत सिव सुखा मुता ।।१ निगुरो गुरु मोरा मिरालो प्रासन शुक्लध्यान भूमो बैठा। ओंकार सोंगी बाजे गगन मंडल गाज़े अनादि वेद मुखी दीठा ॥२ साकाररूपी उनमन मइले खुटले व्यापार व्यापार । संकल्प विकल्प दोन्ही मावलले निजतत्वा राहिले सार ॥३ कायां तो दीसे छाया न दीसे सप्त धात गेले खीन । नव केवल लब्धी प्रापति- पावले गुनकीर्ती म्हने देव जिन ॥४ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत कला भवन का जैन पुरातत्व मारुति नंदन प्रसाद तिवारी वाराणसी स्थित भारत कला भवन में विभिन्न युगों तीर्थंकर का चित्रण करने वाली एक अन्य गानसे सम्बन्धित कई जैन प्रस्तर और कांस्य प्रतिमायें, सगृ-. यंगीन (६ठी शती ईसवी) मति (नं. १६१) में देवता हीत हैं, किन्तु इस लेख में हम मात्र प्रस्तर प्रतिमानो का को। क ऊची पीठिका पर ध्यान मद्रा में प्रासीन चित्रित ही अध्ययन करेंगे, क्योकि कास्य प्रतिमानों का अपना किया गया है। पीठिका के नीचे विश्वपथ का प्रश्न स्वतंत्र महत्व होने के कारण उस पर एक अलग लेख चित्ताकर्षक है। पीठिका के मध्य में उत्कीर्ण धर्मचक्र के अपेक्षित है। दोनों मोर दो सिंहों का प्रदर्शन तीथंकर के सिंहासन पर २३वें तीर्थकर पार्श्वनाथ के एक कुषाण युगीन . पासीन होने की पुष्टि करते हैं। धाराणसी से प्राप्त इस शीर्षभाग (मं. २०७४८) को शैली के घाघार पर प्रथम मति के पादपीठ के दोनों घेरों पर चित्रित दो तीर्थकर शती ईसवी में तिथ्यांकित किया गया है। मथुरा से प्राप्त स प्राप्त इस मंकन की विशिष्टता है। इस नयनाभिराम चित्रण होने वाले इस शीर्ष में देवता के मस्तक पर सप्त फणों में मुख्य प्राकृति के दोनों पाश्वों में दो प्राकृतियो को से युक्त नाग का घटाटोप प्रदर्शित है, जो पाश्वनाथ . 1. उत्कीर्ण किया गया है, जो सभवत: शासन देवता है। अंकन की विशेषता है। देवता की केश रचना सीधी मुख्य प्राकृति के पृष्ठभाग में प्रदर्शित प्रलकरण हीन । रेखामों से प्रदर्शित सहायक प्राकृति की प्रवशिष्ट भुजा प्रभामण्डल के दोनों पोर गप्तयुगीन शिरोभूषा से युक्त के ऊपरी भाग में चांवर चित्रित है । दो उड्डायमान गन्धदों का चित्रण ध्यानाकर्षक है। देवता भारत कला भवन में शोभा पा रहे गुप्त युगीन ") की केश रचना गुच्छकों के रूप में निर्मित है। मूलनायक प्रतिमानों में एक महावीर शीर्ष (नं. २६४) का चित्रण के वक्षस्थल पर श्रीवत्स उत्कीर्ण है। गुप्तयुगीन समस्त करता है। राजघाट से प्राप्त इस मनोज्ञ शीर्ष में देवता । विशेषतामों से युक्त इस प्रतिमा के मुखमण्डल पर प्रदकी केश रचना गुच्छकों के रूप में निर्मित है । लम्बे कर्ण, शित मंदस्मित, शांति व विरक्ति का भाव प्रशसनीय है। अर्षनिर्मिलित नेत्र, मुख पर मंदस्मित का भाव, अन्तर्दृष्टि, संग्रहालय में यह प्रतिमा महावीर मूर्ति के नाम से स्थित लम्बी नासिका धादि इस शीर्ष की ध्यातव्य विशेषताएं है, पर मेरी दृष्टि में तीर्थकर के लाछन या किसी लेख हैं । यह शीर्ष समस्त गुप्त युगीन कलात्मक विशेषतामों । पादि के प्रभाव में इसकी निश्चित पहचान सभव नहीं का निर्वाह करता हुआ प्रतीत होता है । तीर्थकर प्राकृति ., "है। यद्यपि डा. यूः पी. शाह हिरणों के स्थान पर धर्मचक के ऊवभाग में उडायमान गन्धर्व प्राकृतियों को मूर्तिगत के दोनों पोर प्रदर्शित सिह प्राकृतियों के प्राचार पर इसे किया गया है, जिनकी भुजामों में पुष्पहार प्रदर्शित है। महावीर अंकन बतलाते हैं, क्योंकि धर्मचक के दोनों भोर देवता के मस्तक के ऊपर छत्र रूप में वृक्ष का अंकन तीर्थहरों के लांक्षनों के चित्रण की परम्परा गुप्तयुग में प्रशसनीय है । शैलीगत विशेषताओं में प्राधार पर इसे ताथकरो क लोभन सर्वथा प्रचलित थी। यह मूर्ति ४.५४' लम्बी व ३३ छठी शती ईसवी में तिथ्यांकित किया जा सकता है। चौड़ी है। यद्यपि यह शीर्ष संग्रहालय में महावीर अंकन के नाम से .." स्थित है, पर मैं किसी निश्चित प्रमाण या' लांछन के भारत काभवन में स्थित जैन प्रतिमानों में एक प्रभाव में ऐसा करना उचित नहीं समझता । विशिष्ट प्रकन कल्पवृक्ष पर मासीन तीर्थङ्कर का चित्रण Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४, वर्ष २४, कि०२ अनेकान्त प्रकलंक सामि सिरि पायपूय, इंदाइ महाका भट्ट हूय । सिरि मिचन्द .सिद्धतिमा सिखंतसार मणि गविवि ताइ । चाउमुह सुयंभु सिरि पुष्फयंतु, . .. सरसइ णिवासु गुणगण महंतु । असमिति मणीसह बसणिहाण, पंडिय राधू कह गुण प्रमाण । गुणभद्दसूरि पुणभद्द ठाणु, सिरि सहणपालु बहु बुद्धि जाणु । पूर्वकवियों के कीर्तन के उपरांत कवि अपनी प्रज्ञानता को स्पष्ट प्रकट करता हुमा कहता है कि मैंने शब्दशास्त्र नही देखा, मैं कर्ता, कर्म मोर क्रिया नहीं जानता। मुझे जाति (छद), धातु मोर सन्धि तथा लिंग एवं अलकार का ज्ञान भी नहीं है। कवि के शब्दों में:ण विट्ठा सेषिय सुसेय, मई सहसत्य जाणिय न भेय। जो कसा कंम् ण किरिय जुत्ति, उ बाइ पाउ गवि संधि उत्ति । लिंगालंकार ग पय समत्ति, जो वुज्निय मह इक्कवि वित्ति ।, जो अमरकोसु सो मुत्तठाण, . माणित मा अण्णु ण णाम माण। णिग्धंट वियाणिवउ वणि गहंदु, सुईवि गढहिउ मणु मइंदु । पिंगल सुवष्णु तं बह रहित, जाषिउ मह प्रण न कोदि गहिर। इसलिए शानी जन इस काव्य-व्यापार को देखकर कोप न करें? यहाँ पर सहज ही. प्रश्न उठता है कि जब तुम प्रशानी हो और इस काव्य-व्यापार को जानतेसमझते नहीं हो तब काव्य-रचना क्यों कर रहे हो? रचनाकार का उत्तर हैजह विणयह नहि उज्जोउ करा, ईता किन्जमिड उ बह कोहल रसह सुमहरवाणि, किटिट्टिर - हा तुण्हत ठाणि । जइ वियसाइ- सुरहिय पराउ कि उ फुलह किसुय बराउ । नह पाहु विवज्जइ गहिरणाउ, ता इयर म वजउ तुच्छ भाउ। जह सरवहि मह सुहंसु लील, कि उ परि मंगणिबह सवील। मण मित मयहि तह कायरतु, करि विणल भत्ति हय दुष्वरित्तु । धर विणउ प्रयासिवि सज्जणाह, कण्हाण करि खलयणगणाह । प्रर्थात् यदि दिमकर (सूर्य) प्रकाश न करे तो क्या खद्योत (जुगमू) स्फुरण न करे ? यदि कोयल सुमधुर वाणी मे पालाप भरती है तो क्या टिटहरी मौन रहे ? यदि चम्पक पुष्प अपनी सुरभि चारों भोर प्रसारित करता है तो क्या बेचारा टेसू का फूल नहीं फले ? यदि नगाड़े गम्भीर नाद करते हैं तो क्या अन्य वाद्य वादित ग हों? यदि सरोवर में हंस लीला करते हैं तो क्या घर के प्रांगन मे अनेक सवील (प्रबाबोल) ? पक्षी क्रीडाए न करें ? इत्यादि। कवि ने अपने परिषय के सम्बन्ध मे कुछ भी नहीं लिखा। केवल सम्धि के अन्त में उल्लेख से यह पता - चलता है कि वे इल्लिराम के पुत्र थे। इसी प्रकार से अन्तिम प्रशस्ति से स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है कि वे दिल्ली के.भासपास के किसी गांव के रहने वाले थे। उन्होंने इस कामं की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) के श्रावक विद्वान साधारण की प्रेरणा से की थी। उन दिनों दिल्ली के निहासन पर शहनशाह बाबर का शासन था। ग्रन्थ का रचना काल विक्रम संवत् १५६७ है। इस १. प्रायडू गथपमाणु वि लक्खि उ, ते पाल सयइं गणि कइय ण प्रक्खिउ । विण्हेण वि ऊधा पुत्तएण, भूदेवेण वि गुणगणजुएण। लिहियाउ चित्तेण विसावहाणु, इहु गंयु बिवुह सर जाय भार्ग। विक्कमरायहु ववगय कालह, . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रचित परितकाव्य काव्य रचना का ग्रन्थ प्रमाण लगभग ५००० हजार कहा ६. २७ कडेवकों की इस नोमी सन्धि में भ.शान्तिनाथ गया है : पांच सहस्र इलोकप्रमाण से रचना अधिक हो की दिव्य-ध्वनि एवं प्रवचन-वर्णन है। । सकती है, कम नही है। क्योंकि तेरह सन्धियों की रचना १०. दसवीं सन्धि में केवल २० करवक हैं। इसमें तिरे। अपने काय में कम,नही है। सठ महापुरुषों के चरित्र को प्रत्यन्त संक्षिप्त वर्णन काव्य में निबद्ध तेरह सन्धियों में वणित संक्षिप्त है। विषय वस्तु इस प्रकार हैं ११. ३४ कडवकों को इस ११वी सन्धि भौगोलिक प्रायामों १. प्रथम सन्धि में मगध देश के सुप्रसिद्ध शासक राजा के वर्णन से भरित है, जिसमें केवल इस क्षेत्र का ही श्रेणिक और उनकी रानी चेलना का वर्णन है। नहीं सामान्य रूप से तीनों लोकों का वर्णन है। राजा श्रेणिक पपने युग के सुविदित तीथङ्कर भ० १२. १८ कडवकों की इस १२वीं सन्धि में भ. शान्तिमहावीर के समवसरण (धर्म-सभा मे धर्म-कथा सुनने माथके द्वारा वणित चारित्र अथवा सदाचार का वर्णन के लिए जाते है । वे भगवान की वन्दना कर गौतम किया गया है। गणघर से प्रश्न पूछते हैं। १२ कडवकों में समाहित १३. अन्तिम तेरहवी सन्धि में भगवान् शान्तिनाथ का प्रथम सन्धि मे इतना ही वर्णन है। निर्वाण-गमन का वर्णन १७ कडवको में निबद्ध हैं । २. दूसरी सन्धि में विजयार्थ पर्वत का वर्णन, श्री प्रक ____ इस प्रकार इस काव्य का वर्ण्य-विषय पौराणिक है. लंककीर्ति की मुक्ति-साधना का वर्णन तथा श्री विजयांक का उपसर्ग-निवारण वर्णन है। इस सन्धि जो लगभग सभी पौराणिकता से भरित रचनामों मे एक में कुल २१ कडवक है। साचे मे रचा गया है। इसमें कथा-वस्तु उसी प्रकार ३. तीसरी सन्धि में भगवान शान्तिनाथ की भवावलि सम्पादित है। उसमे कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नही का २३ कडवकों में वर्णन किया गया है। होता। ४. चतुर्थ सन्धि २६ कडवकों में निबद्ध है। इसमे भ० कथा-वस्तु की दृष्टि से भले ही कोई नवीनता लक्षित शान्तिनाथ के भवान्तर के बलभद्र के जन्म का वर्णन न हो, किन्तु काव्य-कला और शिल्प की दृष्टि से यह किया गया है । वर्णन बहुत सुन्दर है। रचना वास्तव में महत्वपूर्ण है। मालोच्यमान, रचना ५. पांचवी सन्धि मे १६ कडवक है। इसमे बजायुध म १६ कडवक है। इसमें बजायुष प्राभ्रश के चरितकाक्ष्यों की कोदि की है। चरितकाव्य चक्रवर्ती का वणन विस्तार से हुआ है। के सभी लक्षण इस कृति में परिलक्षित होते हैं। चरित. .. छठी सन्धि २५ कावको की है। श्री मेघग्य की काव्य कथा-काव्य से भिन्न है। प्रतएव पुराण की सोलह भावनामो की मागधमा पौर सर्वार्थसिद्धि- विकसनशील प्रवृत्ति पूर्णतः इस काव्य में लक्षित होती गमन का वर्णन मुख्य रूप से किया गया है। है। प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में साधारण के नाम से 1. सातवी सन्धि मे भी २५ कडवक हैं। इसमें मुख्यतः अकित संस्कृत श्लोक भी विविध छन्दों मे लिखित मिलते भ. शान्तिनाथ के जन्माभिषेक का वर्णन है। है। जैसे कि नवीं सन्धि के पाठवीं सन्धि २६ कडवकों की है। इसमें भगवान् सुललितपदयुक्ता सर्वदोष विभुक्ता शान्तिनाथ के कंबल्य-अप्ति-से ले कर समवसरण जामतिभिरगम्या मक्तिमागे सुरम्या। विभूति-विस्तार, तक वर्णन है। जितमवनमदानां चारवाणी बिनानी, रिसिबसु सर भुवि अंकालाई । परचरितमानी पातु साधारणानां । कत्तिय पढम पक्खि पंचमि रिणि, १. कथाकाव्य मौर चरितकाव्य में अन्तर जानने के हुउ परिपुण्ण वि उग्गतह इणि ।। लिए लेखक का शोधप्रबन्ध दृष्टव्य है : 'भविसयत -प्रस्व प्रशस्ति । कहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य', पृ० ७६-७६. 15 .. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६, वर्ष २४, कि०२ , अनेकान्त इसी प्रकार ग्यारहवीं सन्धि के प्रारम्भ में उल्लिखित है- एक अन्य प्रकार के गीत का निदर्शन है:-' कनकमगिरीन्ने चासिंहासनस्थ: सरोवरं पफुटट कंजरेण पिजरं, प्रमुदित सुरवृन्दैः स्नापितो यः पयोभिः। समोयर सगज्ज उभडं सुसायर। सदिशतु जिननाय: सर्वदा सर्वकामा वर सुमासणं मयारि रुव भीसय, नुपचितशुभराशेः साष साधारणस्य ॥१०॥ सरं मयंस दित्तय सदेव गेहय । जिस समय शान्तिनाथ के मानस में वैराग्य भावता अहिद मंदिरं सुलोपणित सुदर, हिलोरे लेने लगती है और ये घर-द्वार छोड़ने का विचार पति वृत्तयं सुरण सय वरं। करते हैं तभी स्वर्ग से लौकान्तिक देव माते हैं और उन्हे ण तिति घण यासण पालत्तयं सम्बोधते हैं: अधूमजाल देवमागु ण गिलतय ॥७.१२ चितइ जिणवर णिय मणि जामवि । एक अन्य राग का गीत पठनीय है:लोयंती सुर मागइ तामवि । हुल्जर सुरक्षा मण रजिएण हुल्लरु उक्सग विहजिएण। जय जयकार करति णविय सिर । चंग भाविउ तिहुयण सर । हल्लरु मुणिमण सतोसिएण हुल्लह भवियण गण पोसिएण । क्या भगवन् ! प्राप तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले है और हुल्लर तिल्लोयह वियि सेव भक्तजनों के मोह-अन्धकार को दूर करने वाले है। अपभ्रंश क अन्य प्रबन्धकाव्यो की भांति इस रचना हल्ला ईहिय दय विगय लेव ।।८,२ इस प्रकार के अन्य गीतो से भी भारत यह काव्य में भी चलते हुए कथानक के मध्य प्रसगत: गीतो को सयोजना भी हुई है। ये गीत कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण साहित्य का पूर्ण प्रानन्द प्रदान करता है। एक तो अप भ्र श भाषा में और विशेषकर इस भाषा मे रचे गए हैं। उदाहरण के लिए: गीतों में बलाघातात्मक प्रवृत्ति लक्षित होती है। प्राज मइ महसत्ती वर पण्णती, तक किसी भी भाषा-शास्त्री तथा अपभ्रंश के विद्वान् का मारुयगामिणि कामवि रूविणि। ध्यान इस पोर नहीं गया है। किन्तु अपभ्रंश के लगभग हय वह पंणि णीरुणिसुभणि, . सभी काव्यों में सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति लक्षित होती मंधीकरणी प्रायह हरणी । है। उदाहरण के लिएसयलपवेसिणि प्रविमावेसिणि, इके वुल्लाविउ मुक्खगामि, अप्पडिगामिणि विविहविभासिणि। इक्के विहसाविउ भुवणसामि । 'पासवि छेयणि गहणीरोयणि, । इक्के गलिहार विलविय उ, वलणिवाडणि मंडणि ताडणि । इक्के मुहेण मुटु चुम्बियउ । मुस्करवाली भीमकराली, किन्तु बलाघात उदात्त न होकर किंचित् मन्द है। इसी अविरल पहरि विज्जल चलरि । प्रकार का प्रन्य उदाहरण है:देवि पहावा भरिणिहाबह सय सिरिवत्ता मणिय पहिल्ला, लहुबर मंगी भूमि विभंगी । पणु कुंटि प्रणिक गहिल्ली। २.तिस्थपवत्तणु करहि भडारा, भवियह फंडहि मोहंधारा। पुण वहिरी कण्ण ण सुणहवाय, गय लोयंतिय एम कहेविणु, पुण छठ्ठी बुज्जिय पुत्ति जाय । ता जिणवरिण भरहु घर देविणु। तथा-सन्धि ६, कडवक १९ माराहिवि सोलहकारणाइ, जे सिबमगिरि पारोहणाइ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का एक प्रचचित चरितकाव्य तिल्लोपचक संखोहणाइ, संपुण्ण तवें प्रज्जिय विसेण । बेद बहुल वारसि जाणिज्जा, माहह सिय तेरसि माणिज्जहु । जेठ्ठहु बहुल चउद्दसि जाणहु, वइसाहउ सिय पडिव पमाणह । मग्गसिरहं सिय चउदसि जाणिया, पुण एयारसि जिणवर काणिया । संगीतात्मक ताल और लय से समन्वित पद-रचना देखते ही बनती है । यथा झरति दाण वारि लुद्ध मत्त भिंगय, णिरिक्ख एस दतु वेयदंत संगयं । प्रलद्ध जुज्झु ढिक्करत सेयवणयं, घरम्मि मह संपविस्समाणु गोवय । पउभियं वमं चलं च पिंगलोयणं, विभा सुरंघु लंतकघ केसरं घणं । सणंकरं तुयंतु संतु लवं जोहयं, पकोवपं पलित पिच्छए सुसीहयं । काव्य भाव और भाषा के सर्वथा अनुकूल है। भावों के अनुसार ही भाषा का प्रयोग दृष्टिगत होता है। फिर भी भाषा प्रसाद गुण से युक्त तथा प्रसगानुकूल है । जैसे कि कालाणलि अप्पउ किणि णिहित्त, प्रासोविसु केण करेण छित्तु । सरगिरि विसाण किणि मोडियउ, जनमहिससिंग किणि तोडियउ। जो मह विमाण थन्भणु करेइ, सो णिच्छय महु हत्थ मरेइ । प्रसगतः अमर्ष सचारी भाव विभाव से संयुक्त होकर रोष के आवेग के साथ वीर रस का स्फुरण कर रहा है। इसी प्रकार अन्य रसों से युक्त होने पर भी रचना शान्तरस की है। पृ० ५२ का शेषांस) वाली एक चतुर्विंशति मूर्ति (नं० २२०७३) स्थित है। दोनों ओर ब्याल प्राकृतियाँ उत्कीर्ण है। पीठिका के श्रीवत्स चिन्ह से युक्त मूलनायक को मध्य में ध्यान मुद्रा अन्तिम भाग में दोनों ओर उपासक प्राकृतियों को मूर्तिगत में पद्मासनस्थ प्रदर्शित किया गया है। देवता की कलाई के .किया गया है। खजुराहो से प्राप्त होने वाली इस मूर्ति नीचे का भाग व वामपाद संप्रति खण्डित हो चुका है। को शैली व प्रतिमाशास्त्रीय विशेषताओं के प्राधार पर तीर्थकर की पीठिका के नीचे उत्कीर्ण दो सिंह सिंहासन ११वीं-१२वी शती में तिथ्यांकित किया जा के सूचक हैं। देवता की केश रचना गुच्छको के रूप में सकता है। निर्मित है और स्कन्धो पर केश की लटे लटकती हुई गोदाम में सगृहीत चौमुखी (सर्वतोभद्रिका) प्रतिमा उत्कीर्ण है। पादपीठ के नीचे देवता का लाछन वृषभ (१०३'x'x') मे चारों दिशाओं में एक नग्न उत्कीर्ण है। देवता के दोनों पाश्यों में प्राभूषणों से सुस- तीर्थकर प्राकृति को खडा उत्कीर्ण किया गया है । लांछन ज्जित द्विभुज सेवक प्राकृतियों चित्रित है। दोनों प्राकृ. व श्रीवत्स चिन्ह रहित सभी प्राकृतियों की भुजाएं काफी तियो की एक भुजा मे वृत्ताकार वस्तु प्रदर्शित है, किन्तु कुछ भग्न है । इस चित्रण की विशिष्टता है चार प्रमुख दूसरे भुजा की वस्तु अस्पष्ट है। देवता के मस्तक ऊपर तीर्थकों के अतिरिक्त प्रत्येक कोने पर दो आसीन तीर्थचित्रित त्रिछत्र के दोनों ओर सवाहन गज प्राकृतियाँ करों का चित्रण । इस प्रकार यह मति कुछ १२ तीर्थकरो अकित है। त्रिछत्र के ऊपर दो कतारो में शेष २३ तीर्थ- का प्रकन करती है। इस मूर्ति का प्राप्ति स्थल अज्ञात है। करो को सक्षिप्त पद्मासनस्थ व कायोत्सर्ग आकृतियाँ इसकी शैलीगत विशेषताओं के आधार पर इसे परवर्ती चित्रित है, जिसमें से काफी खण्डित है। सम्पूर्ण प्रकन के मध्य युग में तिथ्याकित किया गया है। * Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएं परमानन्द जैन शास्त्री ब्रह्म रायमल मूलसंघ सरस्तीगच्छ के मुनि अनन्त- सुदर्शनरास, श्रीपालरास, भविसयत्तकहा रास, और कीर्ति के शिष्य थे, जो भ० रत्नकीति के पट्टधर थे। भक्तामर स्तोत्र वृत्ति, परमहंस चौपई जंबूस्वामी चौपई, रायमल संस्कृत और हिन्दी के अच्छे विद्वान थे । इनका चंद्रगुप्त चौपई, आदित्यवार कथा और चिन्तामणि वंश हमड़ था और पिता का नाम मा तथा माता का जयमाल । नाम चम्पादेवी था। कवि ने इससे अधिक अपना परि. ब्रह्म रायमल की सबसे पहली रचना नेमीश्वर रास चय नही दिया। कवि १७वों शताब्दी के विद्वान थे। है। जिसमे नेमिनाथ का जीवन परिचय प्रकित है। रास कवि ने अनेक देशों में भ्रमण किया और कितने ही की भाषा हिन्दी और गुजराती मिश्रित है। रचना काल स्थानों के जैन मन्दिरों में बैठ कर रासा साहित्य की सं० १६१५ श्रावण कृष्णा त्रयोदशी है। अभिवद्धि की। तथा उपदेश द्वारा विविध लोगों को दूसरी कृति हनुवत कथा है। जिसमें पवनजयपुत्र सम्बोधित किया। कवि की रचनाएं यद्यपि साधारण हनुमान का जीवन परिचय दिया हुमा है । पवनंजय हनुकोटि की है परन्तु कोई-कोई रचना बहुत सुन्दर मोर मान के पिता थे। और अंजना देवी उनकी माता थी, भावपूर्ण एवं सरस हुई है । लोग इन रचनाओं को संगीत जो राजा महेन्द्र की पुत्री थी। कवि की रचना यद्यपि के साथ गाते थे, उससे जनता प्रानन्द विभोर हो उठती साधारण है किन्तु कथानक सुन्दर है। दिन बीत गया थी। उनसे जनता का जहाँ मनोरंजन होता था वहाँ सूर्य अस्त हो गया। पक्षी आकाश में शब्द कर रहे हैं । उससे शिक्षा भी मिलती थी। प्रापकी निम्न कृतियाँ राजा पवनंजय अपने मित्रों के साथ महल की छत पर उपलब्ध हैं-नेमीश्वररास, हनुवंत कथा, प्रद्युम्न रास, बैठे हुए है। उन्होने सरोवर के किनारे पक्षी देखे, जो १. मूल सघ जगतारणहार, शारदगच्छ तणो शुभसार । गम्भीर शब्द कर रहे थे। दशो दिशाओं में अंधेरा छा गया और चकवा चकवी मे अन्तर हो गया-वे जुदे-जुदे पाचाराज सकलकीति मुनि गुणवन्त, हो गये । कवि के इस वर्णन मे स्वाभाविकता है । तास माहि गुण लहो न अन्त ॥ दिन गत भयो प्राथयो भान, पंखी शब्द कर असमान । तिह को अमृत नाव अति चंग, मित्र सहित पवनंजयराय, मन्दिर ऊपर बैठो जाय । रत्नकीर्ति मुनि गुणी अभग । देखे पंखी सरोवर तोर, कर शब्द प्रति गहिर गहीर । अनन्तकीर्ति तास शिष्य जान, दसों दिशा मख कालो भयो, चकवा चकवी अन्तर लयो। बोल मुखतें अमृत वान ॥ कवि ने बालक हनुमान का प्रोजस्वी चित्र खीचा तास शिष्य जिन चरणा लीन, है। कवि कहता है कि जब बालक रूपी रवि (सूर्य) ब्रह्म रायमल बुध को हीन । का उदय होता है तब सब अधकार दूर भाग जाता है। X X X श्रीमद् हवंड वंश मण्डन मणि,महियेतिनामा वणिक । सिंह छोटा भी हो, तो भी वह दन्तियों के मारने में तद्भार्या गुणमंडिताव्रतयुत्ता, चम्पा मितीताऽभिधो॥ समर्थ होता ही है। सधन वृक्षों से व्याप्त वन कितना ही तत्पुत्रो जिन पाद पकंज मधुपो रायादि मल्लो वृती। २. सोलहस पद्रोहत्तरै रच्यो जी रासु । -भक्तामरस्तोत्र वृत्ति । सांवली तेरसि सावणमासु, वरत जीव घुवासर भलो॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ प्रज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएँ विस्तीर्ण क्यों न हो, तो भी अग्नि का एक कण उसे पांचवीं रचना श्रीपाल रास है, जिसमें श्रीपाल और जलाने में सक्षम होता है। उसी तरह बालक भी अपने मैना सुन्दरी के चरित्र का चित्रण हुमा है। साथ मे शूरवीर स्वभाव को नही छोड़ता। सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य का भी उल्लेख किया गया है। बालक जब रवि उदय कराय, रास के पद्यों की संख्या २६७ है । ग्रन्थ सवत् १६३ के अन्धकार सब जाय पलाय । शुभवर्ष के शक्ल पक्ष की त्रयोदशी को बनाकर समाप्त बालक सिंह होय अति सूरो, दन्ति घात करे चकचूरो।। किया गया है। सघन वक्ष वन अति विस्तारो, रत्ति अग्नि करे वह छारो। जो बाल क्षत्रिय को होय, सूर स्वभाव न छांडे कोय ॥ छठवीं रचना भविष्यदत्त कथा है। भविष्यदत्त कथा पर अपभ्रंश संस्कृत और हिन्दी में अनेक ग्रन्थों का निर्माण ____ इस तरह कवि ने कथा को सुन्दर एव सरस बनाने हुआ है । ग्रन्थ का कथानक प्रिय रहा है। इसमे श्रुत का यत्न किया है। कथा का रचना समय सवत् सोलह से सोलह वैशाख कृष्णा नवमी शनिवार है'। पचमी व्रत का माहात्म्य बतलाया गया है, जिनेन्द्र भक्ति तीसरी रचना प्रद्युम्नरास है, जिसमे यदुवंशी राजा के प्रसाद से भविष्यदत्त अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त द्वारा श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नकुमार की जीवन कथा दी हुई है। दिये गए भीषण दुखो का उन्मूलन कर सका। इस रास जिसे कवि ने हरसौरगढ़ मे सं० १६२६ मे भाद्रपद शुक्ला की रचना सांगानेर (जयपुर) मे हई है। कवि ने सांगादोइज बुधवार के दिन बनाकर समाप्त किया है। हर नेर का सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है। उस समय वहाँ सौरगढ मे जिनेन्द्र का मन्दिर बना हया था और वहां के भगवानदास नामक राजा राज्य कर रहा था। वहाँ की श्रावकदेव-शास्त्र गुरु के भक्त थे। प्रजा सुखी थी वहाँ के श्रावक धनी थे और परहंत देव ___ चौथी रचना सुदर्शन रास है, जिसमें चम्पापुर के की पूजा करते थे । वहाँ का सधी जी का मन्दिर कलासेठ सुदर्शन के पावन जीवन की झांकी का निदर्शन है। त्मक और मनोहर है, वहाँ और भी मन्दिर है। खेद है अथ सूचिपों में इसे शील रास कहा गया है । सेठ सुदर्शन कि इस समय सांगानेर वीरान-सा नजर पाता है। शीलव्रत के संपालन में विघ्न-वाघा उपस्थित होने पर भी खण्डहरों को देख कर लगता है कि १६वीं १७वीं शताब्दी अडिग रहा-अपने व्रत से जरा भी नही डिगा। उसी का मे यह एक अच्छा सम्पन्न नगर रहा होगा। कवि ने इस कवि ने विस्तृत वर्णन दिया है। कवि ने उसे सवत् १६२६ ग्रन्थ को सं० १६३३ कार्तिक सुदी चतुर्दशी शनिवार के में वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन समाप्त किया है। दिन बनाकर समाप्त किया है। ३. भणई कथा मनि धरि हरष, सातवीं रचना परमहस चौपई है, जो एक रूपकसोला से सोलोत्तर शुभ शाख । काव्य है। ब्रह्म जिनदास ने भी परमहंस नामक रूपकरुति वसत मास वैशाख, नवमी शनि अघार पाख । काव्य लिखा है, संभव है उसका कुछ प्रभाव इस पर भी ४. हो सोलह से अठवीस विचारो, हो, क्योकि यह रचना बाद मे रची गई है। इसमें परमभादवा सुदि दुतिय बुधवारो। हंस की विजय मोहादि शत्रुनों पर हुई है, उसका सविस्तर गढ हरसौर महा भलो जी, वर्णन दिया हुमा है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना सं. तिह मैं भला जिनेसुर थान । १६३६ की ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी शनिवार के दिन श्रावक लोग वस जी देव-शास्त्र, गुरु राखै मानतो॥ - अहो सोलहस गुणतीसइ जी वर्ष, ६. हो सोला से तीसा शुभ वर्ष, तिथि तेरस सित सोभिता। वैशाख सात जी ऊजलो पाख । हो अनुराधा नषित्र सुभसार, वटन जोग दीस साहि प्रकव्वर राजई प्रहो, भलहो ? भने वार सनीचरवार । भोगवं राज प्रतिइंद्र समान ॥ ७. सोलास तेतीसासार कातिगसूदी चौदसि सनिवार । N. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष २४ कि० २ अनेकान्त जोडा नगर) में की है। ग्रन्थ मे ६५१ पद्य का लिखा हुपा है । अतएव रचना उसके बाद की नहीं: है. प्रस्थ की यह प्रति दोसा भडार की है । कवि ने तक्षक- हा सकती, किन्तु उससे पूर्ववर्ती है और वह संभवतः न करते हए लिखा है कि तक्षक गढ विशाल १५वी शताब्दीकी जान पडती है। रचना सुन्दर और गति मानो कप बावडी, वाग प्रादि से अलकृत था। शील है। पाठकों की जानकारी के लिए उसके कुछ दोहे चारो दिशाम्रो A बाजार था जिसमें कपड़ा, नीचे दिये जाते है, जिनमें अनित्य, अशरण संसार, प्रशचि मोती प्रादि सभी जीवनोपयोगी सामान मिलता था। भावना और एकत्व का स्वरूप दिया गया है।बडा ऊंचा जिन चैत्याल था, जो ध्वजा, चदोवा व तोरण जल बम्बउ जोविउ चवल, पण जोवण तडि-तुल्ल । दारों से सशोभित था। वहां श्रावकगण जिनपूजादि कार्यों इसउवियाणि वि मा गमोह, माणुस जम्मु अमुल्ल ॥५ में संलग्न रहते थे। कवि का विहार अनेक नगरों मे हुआ जइ णिच्च वि जाणियइ, तो परिहरहि प्रणिच्यु । है. सांगानेर, हरसौरगढ़, तक्षकगढ़ (टोडा नगर) आदि। ते काइं णिच्चु वि मुणहि, इय सुयकेवलि वृत्त ॥६ कई रचनामों मे तो स्थान का नाम नहीं मिलता, जिससे प्रशरणभावनायह बतलाना कठिन है कि वह कहाँ पर रची गई। प्रसरण जाणहि सयलु जिय, जीवहं सरण न कोई। रवी रचना 'भक्तामरस्तोत्र वृत्ति' है। जिसे कवि सण-णाण-चरितमउ, अप्पा अप्पउ जोह॥७ महासागर के तट भाग मे समाश्रित ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभ सण-णाण-चरितमउ, प्रप्पा सरण मह। जिनालय मे वर्णी कर्मसी के वचनों से भक्तामरस्तोत्र की अण्ण ण सरण वियाणि तह. जिणवर एम भणेह॥ वृत्ति की रचना वि.सं. १६६७ माषाढ़ शुक्ला पंचमी एकत्वभावनाबुधवार के दिन की है। इक्किल्लउ गुण-गण-निलज, बोयउ अस्थि ण कोह। इनके अतिरिक्त कवि की निम्न रचनाएं और ज्ञात मिच्छा सण मोहियउ, चउगइ हिंडइ सोइ ॥११ हुई हैं । जंबूस्वामी चौपई, चन्द्रगुप्त चौपई । प्रादित्यवार जइ सद्दसणु सोलहइ, जो परभाव चएइ । कथा और चिन्तामणि जयमाल, कवि की अन्य रचनाएं भी इविकल्लउ सिव-सह लहइ, जिणवरु एम भणे ॥१२ अन्वेषणीय हैं। लक्ष्मीचन्द-कवि ने रचना में अपना कोई परिचय अशुचिभावनानहीदिया, पापकी एक मात्र कृति 'दोहा अनुप्रेक्षा' है, जिसमे सत्त धाउमउ पुग्गलवि, किमि कुल प्रसइ निवास । ४७ दोहे दिये हुए है। जिनमे अनित्यादि बारह भावनामों तहि णाणिउं किमई करइ, जो छंडइ भव-पास ॥१५ का सन्दर विवेचन किया गया है जो प्रात्म-प्रबोधन के असुइ सरीर मणेहि जइ, अप्पा जिम्मल जाणि । लिए उपयोगी है । ग्रन्थ मे रचना काल भी नहीं है, किन्तु तो असुइ वि पुग्गलचहिं एम भणंतिहणाणि ।।१६ उक्त रचना जिस गुच्छक में लिपिबद्ध है वह स. १५७० अनुप्रेक्षा की भाषा पुरानी हिन्दी है, दोहा भावपूर्ण और रोचक हैं। यह मूल रूप मे अनेकान्त में प्रकाशित ८. सोलास छत्तीस वखान, ज्येष्ठ सांवली ते रसि जान । हो गई है, किन्तु उसे सम्पादित कर आधुनिक रूप में सौभ वार सनीचरवार, गृह नक्षत्र योग शुभसार । प्रकाशित करना चाहिए । कवि ने ग्रन्थ में अपना कोई परिहै. चक्रवृत्ति मिमां स्तवस्य नितरां नत्वा (सू १) चय नही दिया और न कही अपना नाम हो अकित किया, . वादीदुकम् ।।७ किन्तु गुच्छक में अकित होने से उसे लक्ष्मीचन्द्र के नाम सप्त षष्ठयकितें वर्षे षोडशाख्ये हि संवते । मे दिया है। कवि की गुरु परम्परा अन्वेषणीय है। प्राषाढश्वेत पक्षस्य पंचम्या बुधवार के ॥ ग्रीवापुरे महासिन्धो स्तटभागं समाश्रिते । कवि पाहल-ने अपना कोई परिचय और गुर परप्रोोत्तुंग-दुर्ग-सयुक्त चद्रप्रभ-सद्भनि | म्परा एव ग्रन्थ का चना समय नही दिया, जिससे उनके Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाय सम्बन्ध में विशेष विचार किया जाता । ग्रानेर भडार के एक गुच्छक में उनकी एकमात्र कृति 'मनकरहा रात' उपलब्ध है। जिसमे ग्राठ कडवक दिये हुये है, कवि ने मंगलगान के साथ ही अपनी लघुता व्यक्त करते हुए अपने को बुद्धि रहिन बनलाने हुए लक्षण और छन्द से रहित काव्य को अपने सम्बोधन निमित्त बनाने की सूचना की है। रचना सुन्दर और प्रसाद गुण को लिये हुए है। और रूपक द्वारा मन रूपी ऊंट को समझाने का प्रयत्न किया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि जब एकएक इन्द्रिय का विषय उस उस इन्द्रिय वाले जीव का घातक है, तब जो पाचो इन्द्रियों का भोगी है उसकी क्या दशा होगी' सो देख मन की चंचलता से इन्द्रियों विषय की ओर दौड़ती हैं, उनमे संलग्न होकर जीव भजित प्रशुभ कर्मवश निम्न गतियो मे जन्म लेता है, मरता है, दुख उठाता है। मतः उस दुख से छूटने धौर इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकने के लिए मन, वचन श्रौर काय को दण्डित करते हुए, उनकी एकाग्रता बनाने के लिए श्रात्मा को शुभ ध्यान मे लगाने की आवश्यकता है । तपश्चरण से ही स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति होती है । ग्रन्थ की भाषा हिन्दी के विकसित रूप को लिए हुए है। ग्रन्थ का प्रादि श्रन्त भाग निम्न प्रकार है :-- । सयल वि जिण वंदि वि मुणि श्रहिणवि वि लक्षण छद विवज्जिय । अप्पर ग्राहारामि कथ् पथासमि जइ हउ बुद्धि विवज्जियउ || जसु विसयहं उपरि ठाई बुद्धि, तसु धम्म सुणत हं कवण सुद्धि । एक्कल इदिय जिन जासु, पंच व पुणु परय हो दिति वास ॥ जिहि इंदी पसा निवारियो जल मज्झिमप्पु णीसारियो । करि करणि पसंगो पद प १. अनी माग मृग सलमीन विषयक इक ने मरते है। नतीजा क्या न पावें वे विषय चों जो करने है । मोग्गर घायं किउ खंड खंड ॥ महयर पाणिदिय गंध लु एड यो मुवउ सरोरुह मज्झि णर्याणदिय दोस पसंगएण, अप्पाणउ दट्ठ पयंग एण || परिभमइ कुरगउ तामरणि(णि), यही झुणि जम्म ण देइ कण्णु । पंचेदिय जीवहो दुक्ख दिति, पंचेदिप दुमाइ गमण लिति । पंचेदिय पुट्ट प्रणिट्ठ भाव, पदिय पंचल चल सुभाव || हवा पंचिदिय कवणु दोसु, मण हिडद्द तिवणि णिरवसेस | घता मणु चंचल भावद्द उप्पहि धावद्द भविसायर पडिय में पडिय ६१ बंधिवि जो ण घरेसइ । बुद्धिवि लित्यु मरेस ॥ १ अन्तभाग :जहणीरिज संजम डालई, तो मण कर ण रद्द कर मा विसय महावण वेल्लडी, तहिकारणि यह सुन हई | जिणु ण बहु पयले भविवजणा, निकुमुद अविसरणमणा मण वयण काय एकी करेद, सुहभाणं पुणु म्रप्या परे । गइ चउविह करइ करंतु सोइ, सो करहु भाउ जं! चलु लोइ । लोप हो म कहिय कर धम् धम्में फेडिज्जइ श्रसह कम्म । कम्मेण कोण पर सिविय जति, जति विप्रचिदित करति । त कर वि जिर्णसर संभवति सग्गाऽपग्ग हु वहि रमंति । संभरणु करहु सम्मत्त लेहू, लहु सग्गि प्रयाणउ जेम देहू । पत्ता- सम्मत परिज्जहु मणु चिजह करि वि सुणिम्मल विमलमई । पालु कवि बोस जसु मणु टोल, सो किम पावड़ परम गई ॥८ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत कबीर और द्यानतराय डा० गंगाराम गर्ग हिन्दी का मध्ययुगीन साहित्य अपनी विपुलता और सार जग प्राधार नामी, भविक जन मन रंजनो। व्यापकता की दृष्टि से गौरवपूर्ण स्थान रखता है। मध्य- निराकार जमी, प्रकामी, अमल देह अमंजनो। युग मे भारतीय जीवन और साहित्य मे क्रान्ति लाने वाले करो 'धानत' मुकति गामी, सकल भव-भय-भंजनो :२०८। दो प्रमुख साधक अवतीर्ण हुए-कबीर और तुलसी । दोनों के पथो मे पर्याप्त भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य मे परमातम परमेस परमगुरु, परमानन्द प्रधान । एकता थी । जन्म से ही क्रान्तिकारी, अक्खड़, फक्कड़ अलख अनादि अनन्त अतूपम, अजर अमर प्रमलान । और मस्तमौला फकीर कबीर की विचारधारा से प्रभावित निरविकार अधिकार निरंजन, नित निरमल निरमान । उत्तर भारत मे दादूपंथ, रामस्नेही, रैदासी आदि अनेक जती व्रती मुन ऋणी सुखी प्रभु, नाथ धनी गुन ज्ञान । सम्प्रदायों का प्राविर्भाव होता रहा । सत और वैष्णव कबीर और उनके सभी अनुयायियों ने इस्लाम धर्म काव्य परम्परामो के साथ-साथ मध्ययुग मे तीसरी काव्य- से प्रभावित होकर ब्रह्म को समस्त खलक का कर्ता भी परम्परा और विकसित हुई, वह थी जैन भक्ति काव्य कहा है तथा उसे वैष्णवशाली प्रमाणित किया है । इस्लाम परम्परा। बनारसीदास, जगजीवन, जगत राम.द्यानतराय, की तरह उन्होंने भी एकेश्वरवाद की प्रतिष्ठा की है। पाश्वंदास और बुधजन प्रादि अनेक जैन कवि अपनी द्यानतराय प्रादि जैन कवियो ने ब्रह्म को न तो सष्टि का भक्तिपूर्ण रचनायो से इस काव्य-परम्परा को विकसित कर्ता ही कहा और न वैभवशाली। एकेश्वरवाद की करते रहे। आगरा निवासी द्यानतराय (सं०१७३३. अपेक्षा उनकी प्रास्था अनेकेश्वरवाद में रही। अवतारवाद. १७८३) अपनी सौ रचनाओं के अतिरिक्त ३२३ भक्ति- एकेश्वरवाद, अद्वैतवाद आदि का तर्कसम्मत विरोध करते पूण पदो के कारण जैन भक्ति परम्परा की प्रमुख कडो हुए धानतराय कहते है-"शुद्ध, निरजन और अविकारी है। सत कवीर और द्यानतराय के काव्यालोचन के ब्रह्म गर्भ मे क्यो प्रायेगा? अविनाशी ब्रह्म अंशो मे फंसे माध्यम से दो भिन्न-भिन्न काव्य परम्परामो में व्याप्त विभाजित हो गया ? यदि सभी प्राणियो में एक हो ब्रह्म समान दृष्टिबिन्दुओं को समझने से भारतीय संस्कृति की प्रश है तो एक समन्वयवादिता भी प्रमाणित हो सकेगी। धनवान और दूसरा गरीब कैसे ?" द्यानतराय ने जैन परम्परा के अनुसार जिनेन्द्र के कबीर आदि सभी सत निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे। ४६ मूल गणों की चर्चा भी की है। उन्होने ब्रह्म को अजर, अमर, निराकार, निरंजन, अक्षय सतगुरु और साधुः और अचल कहा है। वह परमात्मा और परमानन्द भी सतगुरु और साधु दोनों को ही ईश्वर के समान हैं । ब्रह्य नित्य, निर्मल, अनादि और अनन्त है। धानत प्रादर देना निर्गुण और जैन दोनों ही भक्तों की विशेषता राय के ब्रह्म का स्वरूप निगुणियों के समान भी है :- रही है। दोनों ही भक्तों ने गुरू और साधुओं में क्रोध, तुम तार करुणाधार स्वामी, प्रादिदेव निरंजनो। मान, छल, लोभ, राग-द्वेष आदि दुर्गुणों का प्रभाव पाया १. अनेकान्त, अक्टूबर १९६७, पृ० १७७, पं० परमानन्द है तथा उनको सत्य, तप, अपरिग्रह, सरलता, सत्यता व जैन शास्त्री का लेख। २. जैन पद सग्रह, चतुर्थ भाग, पद १७८ । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत कबीर पोर थानतराय मधुरता आदि गुणों से विभूषित देखा है । महात्मा कबीर जैन भक्त द्यानतराय भी जिनेन्द्र के नाम-स्मरण को ज्ञानी गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उन्हें ईश्वर सुखद, दुःख भंजक, त्रय ताप-विनाशक, मगलकारी और से भी बड़ा मानते हैं - शान्तिदाता मानते हैं। उनका कहना हैसतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार । जैन नाम भज भाई रे । लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार । जा दिन तेरा कोई नहीं, ता दिन नाम सहाई रे। गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय । अगनि नीर हशत्रु वीर व महिमा होत सवाई । बलिहारी गुरु मापने, जिन गोविन्द दियो बताय। दारिद जावं धन बह पावं, जो मन नाम दुहाई रे ।१२८॥ यानतराय भी ग्रह को ही उद्धारक मानते हुए उनके नाम-स्मरण को पद्धति के सम्बन्ध में सगुण भक्तों चरण-कमलों को नित्य प्रति हृदय मे बसाने की प्रेरणा का दृष्टिकोण कुछ उदार रहा। तुलसी का मत है कि भाव या कुभाव, उपेक्षा या प्रालस्य से-कैसे-मी राम तारन तिरन जिहाज सुगुरु है, का नाम लेने से तोनो लोको में मंगल हो जाता है।' सब कुटुम्ब डोब जग तोई । सन्त कवियो के नाम-स्मरण के ढग में इतनी सरलता की धानत निशिदिन निरमल मन में, गु जाया नही। कबीर के अनुसार नाम के प्रभाव के राखो गह-पद-पंकज दोई। लिए उसके स्मरण में निरन्तरता, इकतारता और हृदय ___ कबीर साधु-सेवा के अतिरिक्त दूसरी कोई हरि-सेवा की पवित्रता होना अनिवार्य है। नाम स्मरण के सम्बन्ध ही नहीं मानते: में द्यानतराय की भी यही धारणा है:जा घर साधन सेवियहि, हरि की सेवा नाहिं। द्यानत उत्तम भजन है को मन रटके। द्यानतराय साधुनों के गुण-गान को भी मोक्षप्रदायक भव भव के पातक सबै, जैहैं तो कट ७॥ मानते है:धानत भवि तिनके गणगावं, ऐसा सुमरन कर मेरे भाई, पावै - शिव - सुख दुख नसाहीं । पवन भै मन कितहूँ न जाई ।१०१॥ नाम स्मरण बाह्याचार खंडन भारतीय भक्ति साधना मे नाम स्मरण का महत्वपूर्ण बाह्याचार का खडन कबीर प्रादि सभी सन्तों के स्थान है। तीर्थ, वन प्रादि मे श्रद्धा रखने वाले सगुण काव्य का प्रमख प्रादर्श था। वैष्णव इस्लाम भक्तों ने भी समस्त जप, तप, व्रत, तीर्थ, भोग, ज्ञान, जैन ग्रादि विविध धर्मों के अनुयायी वेष तीर्थ प्रादि वैराग्य प्रादि को धप मानकर नामरूपी कल्पवृक्ष के नीचे बाह्याचार में उलझ कर परस्पर सौहार्द की भावना को बैठने में ही सुख और प्रानन्द माना है।' निर्गुण काव्य बिल्कुल भूल गए थे। अतः सन्तो ने बाह्याचार का तीव्र मे तो उपासना की पद्धति ही एक है-नाम-स्मरण । खडन कर मन की पवित्रता पर जोर दिया। जैन कवि कबीर अपनी भक्ति, सेवा, पूजा, बान्धव, भाई और बाह्याचार का उग्र विरोध तो नहीं कर सके, किन्तु उद्यम सर्वस्व राम के नाम-स्मरण को ही मानत है। बाद्याचार की अपेक्षा मन की पवित्रता को धंष्ठ अवश्य उनके विचार से गम के नाम का स्मरण ही प्रज्ञान और करने कहते रहे । धानतराय अपने कई पदों में प्रमुख जैन तीर्थ वाला तीनो तापो का विनाशक है, अत: उसे अमूल्य जानकर हस्तिनापुर और गिरिनार का जाने की प्रेरणा देते हैं, हृदय मे धारण करना चाहिए ४. द्यानत पद संग्रह, पद २३२ । राम नाम हिरदै परि निरमोलिक हीरा । ५. भाव कुभाव अनख पालसहूँ, सो भो तिहुँ लोक तिमिर जाय त्रिविध पोरा।। राम जपत मंगल दिसि दसहूँ। ३. विनय पत्रिका पद १५५ । ---रामचरित मानग, बाल Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४, वर्ष २४, कि०२ अनेकान्त जिनवाणी को मोक्ष की दात्री बतलाते हैं तथा स्वयं ही कर मनका लौ प्रासन मारयो, बाहिज लोक रिमाई। मन, वचन और कर्म से भगवान जिनेन्द्र की पूजा करते कहा भयो बक-ध्यान घरेते, जो मन थिर न रहाई। हैं । इन धार्मिक विधानो में रत रहते हुए भी प्रधानता मास मास उपवास किए ते, काया बहुत सुखाई। मन की पवित्रता पौर निष्कामता को ही देते है: कोष मान छल लोभ न जीत्या, कारज कोन सराई। प्राणी ! लाल छोटो मन चपलाई। मन वच काय जोग धिर करके, त्यागो विषय-कषाई। धार मौन दया जिन पूजा, काया बहुत तपाई। 'द्यानत' सुरग मोरव सुखदाई, सद्गुरु सोख बताई।४७ मन को शल्य गयो नहिं जब लौं, करनी सकल गंवाई।। सदाचार : वैष्णव, काजी, ब्राह्मण आदि की बाह्याचार की संत सूधारवादी थे। सम्प्रदाय और जाति सम्बन्धी निन्दा करते समय कबीर की वाणी मे उग्रता और तीखा- विविध भेदो को मिटाकर मानव को एक दूसरे के अधिक पन पा गया था। बुराई से घृणा करने वाले संत बुराई । निकट लाने के लिए ही उनके काव्य का सृजन हुआ था। मे लिप्त व्यक्तियो के प्रति अपना हृदय साफ नही कर लोक सूधारक कबीर और अन्य संतों के काव्य में क्षमा, सके । अस्पृश्यता की भावना को मिटाने के उद्देश्य से संतोप, निर्मोह, अक्रोध आदि विविध मानवीय प्रवृत्तियों ब्राह्मण पर उबल पडत है-'अरे ब्राह्मण, यदि तू ब्राह्मण पर प्रचुर मात्रा मे साखिया और पद विद्यमान है । एकका जाया है तो अन्य मार्ग से क्यो नहीं पाया? पोथी एक मानवीय प्रवृत्ति के सम्बन्ध में प्रत्येक सत ने अलगपढने वाले पंडित को कोसते हुए वे कहते है-'अरे अभागे, अलग 'अंग' लिखे है। प्राचार धर्म को प्रधानता देने वाले तू किस दुर्बुद्धि का शिकार हया है जो राम का नाम नही जैन धर्म के अनुयायी द्यानत, बुधजन, पार्वदास आदि लेता।" कबीर के तीखे उपालम्भो से कुरान पढ़ने वाले जैन भक्त इस क्षेत्र मे कैसे पीछे रहो । उन्होंने अपने काजी भी नहीं बच पाते : पदों मे भी सदाचार की बात कही है। द्यानतराय शील काजी कौन कतेब बखान । के बिना जप और तप को भी निरर्थक समझते है - पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एक नहिं जाने ।५६॥ रे जिय! सोल सदा दिढ़ राखि हिये ! कबीर की इन तीखी उक्तियो में कितनी ही सच्चाई जाप जपत तप तपत विविध विष, रही हो; किन्तु उनके कहने के ढग से उन्ही के प्रति सील बिना धिक्कार ।१३६॥ ममाज मे कटुता बनी। इसी कारण मुल्ला और पडित वह मन को पवित्र करने की एकमात्र औषधि सत्सग शायद अनुकूल प्रभाव भी ग्रहण न कर सके । जैन कवि को मानते हए उसके पाचरण की प्रेरणा देते हैजानते थे कि धार्मिक कृत्यों में विदित कर्मकाण्ड को कोस दोष घटे प्रगट गुन मनसा, निर्मल ह तजि चपलाई। कर कटुता पैदा करने की अपेक्षा घर्मावलम्बियो को मन 'द्यानत' धन्य धन्य जिनके घट, सतसंगति सरधा भाई। की पवित्रता की ओर प्रेरित करना अधिक लाभदायक सभी संत और सगुण भक्तो ने तन-धन को नश्वर होगा। यही उन्होने किया। वैदिक युग मे यज्ञ और हिंसा और परिजनो को स्वार्थी बतलाते हए संसार की निन्दा का विरोध करते हुए भी उनके प्रतिपादक ब्राह्मणो के की थी। उन्होने सभवतः भौतिकता में अधिक प्रति उन्होंने कूटोक्तियां कभी नहीं कही। जैन कवि द्यानत लिप्त न हो जाने की धारणा से ही ऐसा कहा था। यदि राय मन की स्थिरता के बिना ग्रासन, उपवास, ध्यान, ऐसा न होता तो उनमे कई सत और वैष्णव भक्त गृहस्थ योग की स्थिरता को बढे सरल ढग से समझाते है :- न होते ! ससार से निवृत्त हो जाने अथवा उसे पूर्णत: ६. जो तू बाभन बभनी जाया, त्याग देने का सकेत उनकी उक्तियो मे ढढना हमारी ही पान बाट ह क्यो नहि पाया। भूल होगी। सभी जानते है कि धन पुत्रादि मे अधिक ७. पाडे कौन कुमति तोहि लागी । प्रासक्ति रखने से मानव कितना दानव बन जाता है । तू राम न जपत अभागी। कबीर ग्रन्थावली भौतिकता के प्रति अत्यधिक प्रासक्ति को दूर करने की Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत कबीर प्रौर द्यानतराय भावना से जैन भक्तों ने भी तन, घन और परिवार के प्राप्ति के लिए पानी जन्य व्याकुलता और तडपन की सम्बन्ध मे सतों की सी उक्तियाँ कहो। द्यानतराय प्रत्यक्ष अनुभुति की थी। कहते है तलफ बिन बालम मोर जिया। दिन नहिं चन रात नहिं निदिया, जुवती तन पन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे । तलफ तलफ के भोर किया। यह संसार सुपन की माया, अखि पाँच दिख राव रे। द्यानतराय को तडपन जैन भक्ति के परम्परा मनुभक्ति : मार राजमती के माध्यम से अभिव्यक्ति हुई है :रूढियों का विध्वस कर मदाचार का प्रचार करने भूषण वसन कुसुम न सुहावै कहा करूं कित जाऊँ। वाले निर्गुण सतो के काव्य मे अनुरागमूलक भक्ति भी 'द्यानत' कब मैं दरसन पाऊँ लागि रहौं प्रभु पाऊँ ॥२३६ अन्तनिहित है। उन्होने अपने उपास्य की पागधना ब्रह्म का निरूपण, नाम स्मरण की महत्ता, बाह्याचार प्रमुखत: दो भावो मे की है-- दास्यभाव और पत्नी भाव। का वडन, मदाचार, भक्ति प्रादि विविध तत्वों की दृष्टि दोनो ही भावो की चरम परिणति सगुण काव्य मे हुई से कबीर प्रौर द्यानतराय की तुलना करने पर स्पष्ट है है। अपने ग्रागध्य के प्रति कबीर की दास्यभावी अनन्यता कि जैन काव्य का एक पक्ष अपनी संस्कृति और दर्शन देखिए : की मौलिकता को सभाले हुए भी सत काव्य से भी समतारण तिरण तिरण तू तारण और न दूजा जानौं। कक्षता रखता है। वस्तुत: जैन भक्ति काव्य वह प्रयाग कहै कबीर सरनाई प्रायो, प्रान देव नहि मानौ ।११२॥ राज है जहाँ निर्गुण और सगुण काव्य की पवित्र धाराए यह अनन्य भाव द्याननराय म भी विद्यमान है :- अभिन्न भाव से मिल गई है। भारतीय संस्कृति की सममात तात तू ही बड़ भ्राता, तो सौ प्रेम घनेरा। ग्रता और मध्ययुगीन हिन्दी भकिकाव्य की पूर्णता के 'द्यानत' तार निकार जगत तं, फर न ह भव फेरा। लिा ममन्वयवादी द्यानत राय पाश्र्वदास प्रादि जैन भक्तो कबीर ने ईश्वर का अपना पति मानकर उसको की रचनायो का अध्ययन और विवेचन परम अनिवार्य है सदोषता मुनि श्री कन्हैयालाल स्वर्णकार अपनी दुकान मे तन्मयता से कार्य कर रहा था । सहसा एक ग्राहक मोना खरीदने मा पहुँचा। स्वर्णकार गुजा के साथ सोना तोलने लगा । गुजा से रहा नहीं गया । तडककर अपनो मानसिक व्यथा सुनाते हुए स्वर्णकार से कहने लगी-स्वामिन् ! मुझे इस अधम मोने के साथ क्यो तौल रहे हो? कहाँ मै कुलीन और कहाँ यह पातको सोना। मेरा निवास सधनतम कानन है। मेरा घर (वेल) सर्वदा रहा-भरा रहता है। मेरी जाति ऊंची है। मैं उस घर मे प्रानन्द की बहार लूट रही थी। सहमा एक दिन दुर्भाग्यवश इस नीच की संगति प्राप्त हुई और उसी समय मेरा मुह काला होगया । स्वर्ण को यह सब कब सा था। उसने कठोर शब्दो मे गंजा से कहा--मेरे विरुद्ध व्यर्थ ही इतना विप क्यों उगल रही हो? तुझे इतना गुमराह किसने कर दिया। यदि तेरे मे ही कोई गुण है तो मेरे साथ अग्नि कुड मे एक छलांग भर । तेरे अहंकार का नशा कुछ ही क्षणों में धूलिसात हो जायगा। स्वर्ण की चुनौती का प्रत्युत्तर देते हुए गुंजा ने कहा-अरे अधम ! तू मेरी समानता कर सकता है ? कहाँ मेरा गुरुत्व और कहाँ तेरा लघुत्व । मेरे बिना तेरा मोल भी नहीं होता। मदान्ध ! संसार उसी को जलाता है जो अवगुणी होता है। मुझ निर्दोष को तेरे साथ अग्नि कुण्ड मे कूदने की क्या आवश्यकता? सभी स्वर्णकार तुझे धधकते हए अगारों में इसीलिए तो जलाते है कि तू अवगुण का पुनला है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांडे जीवनदास का बारहमासा गिन्नीलाल जै. हिन्दी साहित्य के अनेक विद्वान और उनका साहित्य नोबत बाजे अति सुभग, भरे नगारा ढोल । अभी तक अप्रकाशित ही है। १० जीवनराम पाण्डे भी तुरही संख सुहावां, बहु बांटत तंबोल ॥१॥ उन्ही में से एक है। वे २०वीं शताब्दी के दिल्लीके विद्वान नेमि जिनन्द टूकण चले, उग्रसेन घरि जाय । भट्टारकों के शिष्य हैं। वे भट्टारक ललितकीति की शिष्य नारी पुर को एक होय, गावें गीत रसाय ॥६॥ परम्परा में हुए हैं। यह भट्टारकीय पंडित थे और हिन्दी सब सखियन के लरे, राजल बैठी प्राय । भाषा के विद्वान थे। इनको बारहमासा नाम की एक देख नेमि मन भावना, अंग-अंग विगसाय ॥७॥ रचना है । यद्यपि वह साधारण है, फिर भी उद्बोधक है। पश सबद सुन नेम जी, रथ सुं उ. रे वेग । पं० रूपरामजी के शिष्य पाण्डे जीवनराम जी थे, जो ककण डोरे तोरि के, रिपु जीतन लई तेग ।।८।। अन्तिम भट्टारक राजेन्द्रकीति जी के समय मे फतहपुर पशु छड़ाये तुरत ही, वार कछु न लगाय । शेखावटी के दिगम्बर जैन बड़े मन्दिर जी मे रहते थे। उज्जंती गिर चढ़ गये देव रिषि सब प्राय || वे जाति के ब्राह्मण थे और ज्योतिप व वैद्यक के अच्छे टोंक पचमी ऊपरे, दीनो ध्यान लगाय । जानकर थे। वे मन्दिर जी में पूजापाठ भी किया करते मोह जीत रिपु दल हने अंतर सुरत सलाय ॥१०॥ थे । उनका लिखा हुप्रा एक गुटका' मन्दिर जी में है। राजुल सुन ये बातड़ी, गिरे तेवालो (मछित) षाय । उसमे ज्योतिष व वैद्यक की बहुत सी चीजें लिखी हुई हैं। सखियां चदन छिटकियो, वेग लई ज उठाय ॥११॥ समय-समय पर कितने ही विद्वान उसको देखकर कितनी राजल चाली नेमि पं. गिर पर पहुँची जाय । ही चीजे उतारकर ले जाते है । उनका ही लिखा हुअा एक हाथ जोड़ स्तुति करि, बहु विध शीश नवाय ॥१२॥ दूसरा गुटका अभी मेरे देखने में आया जिसमे जीवनदास, यह सजम वय है नहीं, तुम समझो चित मांहि । खुशालचन्द, बुधसूरदास, कनककीति और विनादीलाल द्वादश मास कैसे षमो, समझावो हम जांहि ॥१३।। के पद है। हेमचंद मुनि लिखित राजमती की चूनड़ी है। बारहमासा उसी में पाण्डे जीवनराम जी का लिखा हुमा स० १६१० दोहा-प्रासाढ मास सहावणों, कुछ वरपे कुछ नाहिं । ज्येष्ठ वदी १० का बनाया हुअा नेमनाथजी का बारहमासा नेमि पिया घर प्राइये, क्यूं तुम लोग हंसाहि ।।१४ है जो आप सबकी जानकारी के लिए नीचे दे रहा है... चाल-प्रायोजु मास अषाढ प्रीतम, प्रथम मनायूं शारदा, गुरु के लागों पाय। पहले व्रत तुम नहि लियो। नेमनाथ ध्याहन चढ़े, हरषे रानो राय ॥१॥ छप्पन कोड भये जनेतो दुष्ट जन कप हियो । छप्पन कोडि जादव मिले, इक दइयां महाराज । बलभद्र और मुरारि संग ले बहुत सब सरभर करें। देखत उपजे हर्ष प्रति, घन ज्यों चाले गाज ||२॥ गिरनारगढ़ सं चलो नेमिजो राजमति चितवन करें ॥१५ उग्रसेन द्वारं गया, गये बधाई दार । उत्तर-प्रायो मास असाढ ही, मन नहिं उलस मोहि। सज्जन जन हरष्यो हियो, बटी बधाई सार ॥३॥ मुकत रमण हित कारण, छाड़े घर सब तोहि ।।१६ हीरा, पन्ना बहु दिया, प्रस चुन्नी बहुलाल । यह जीव तो निस सुपन जानौं कहा बढाई कीजिये । दिया, बधाई वार कों, बहु प्राभरण भुभाल ॥४॥ ये बंधु, भगनी, मात-पिता ही, सर्व स्वारथ लीजिये। १. अने० वर्ष ११ किरण १२ फतेहपुर के जैन मूनि लेख । तिह बात हम सब त्याग दीनों, मोक्ष मारग पग घरो। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाण्डे जीवनवास का बारहमासा ૬૭ कहे नेमिनाथ सनों ज राजल, चित अपनो बसि करी॥ कहे नेमनाथ मूनोज राजल, चित अपनो वसि करौ।२६ प्रश्न-श्रावण प्रायो उमगि के, धन पायो विगसाय। दोहा-कातिक प्रायो फौज ले, मंगल गावत नारि । तुम विन डर लाग सरस घर चालो हरषाय ॥१८ कहुँ खेले कहूँ हंसि पर, कैसे परिस्यों भार ||३० श्रावण मायो सब न भायो कंथ चायो कामिनी। चाल-कातिक प्रायो फौज ल्यायो, कैसे चित तुम वास करो। चहुं पोर पवन झकोरि करि है लवं ददुर सामनी ।। त्रिया गावे गीत सरगमघरे, मावो घर प्रबचित घरो।। कोकिल बोल हिया डोल बीज चमक कन डर। निस मांहि वीपक देष तुमरो, तसि जिवरो चले परं । गिरनारि गढ़ सं चलो नेमजी राजमति चितवन करं।। गिरनार गढ़ संचलो नेमजी, राजमति चितवन करे । उत्तर-दोहा-श्रावण प्रायो प्रति भलो हमको कहा बिगार। दोहा-कारिक प्रावो प्राज हो, मन नहीं तरसे मोहि। ही जीव जतन बहने करो, कोउ न राखन हार ॥२० पुद्गल स्यूं भिन्न में रहों, कहा सीखवू तोहि ॥३२ यह जीव कोईयन राख सक्क कालवलि सब घर है। चाल-तो जीव तरसे सुन्न राजुल, तन्न अपनों जानिये । इंद्र और नरेन्द्र चक्रो, देव नर पशु लेर हैं । पुद्गल स्यं भिन्न भिन्न रहस्य, नीर क्षीर समानिये। ताते कहा उर सनो राजल चित अपनो सरवरी। हंस जल को भिन्न करि है, तैसे तन को मैं करयो। कहे नेमिनाथ सनोज राजचित अपनो दसि करो। कहे नेमनाथ सनी ज राजुल चित प्रपनो वसि करौ॥ प्रश्न-भादव वर्षा लग रही, पवन चले प्रति जोर। दोहा-मगसिर पायो जोर स्यूं, लेय कटारी हाथ । नेमि पिया चलिये घरां, विरह जगावत मोर ॥२२ कसे अब तुम जायस्यों मक्ति रमण के साथ ॥३४ भाद्रव बरस देह तन्स, बहुत पवन सर ही। चाल-प्रायोज मगसर मास प्रोतम, पवन शीतल प्रति बहै। ये बुद प्रावै मन न भाव, बोज करिहै सोर हो। जब षांन पान स्वाद लगि है नीर शीतल बह चहै ।। घरे प्राय के व्रत क्यों न धारो, बहुत वन में दुष धरै। तुम वाल वय में कैसे रहस्यो मोह दुठ कैसे जर। गिरनार गढ़ सुं चले नेमजी, राजमति चितवन करे ।।२३ उत्तर-भादव प्रायो समझि के, करस्यों, तप बहु भांत । गिरनारगढ संचलो नेमिजी, राजमति चितवन करै ।। मुक्ति रमण के कारण, देह अपावन सात ॥२४ दोहा-मृगसिर प्रायो क्या भयो, तन वसि कोनों प्राज । जग मांहि सुष न एक राजल, दुःख मांहि भ्रम्यो फिर। या घर को कछु हित नहीं, सिद्धन सों हम काज । ३६ गति च्यार मांहि अनंत मलि है, कालबमि जग यो फिर। चाल-यह देह षेह अपान है प्रति याह में कछ सार है। सब रोग-सोग-वियोग भरि है मरन जामन बह धरी। यह चर्म चादर बढ राषी, मूत्र मल को ठार है। कहे नेमिनाथ सनोज राजल, चित अपनो वसि करो।२५ यह हाड़ पिजर माहि लागे, नेह या को हम टरयो। दोहा-पायो मास प्रासोज ही कसे धरस्यों ध्यान । कहे नेमनाथ सुनो जु राजल चित अपनो वसि करो।।३७ घर चालो तुम वेग हो, करो न हठ सग्यान ॥२६ दोहा-प्रायो पोस उछाहस्यूं, घणों परेगो शीत । चाल-पासोज लागे सुख भागे, बूंद शीतल प्रतिर। मुकत रमण तुम भूलि हो, पासो घर बहु भीत ॥३८ कहुँ बरस कहुँ नाहि बरषं, पवन बाजे ठंड परं । चाल-प्राया जु पोस उछाह सेती, शीत प्रति देही वहै । तुम देह प्रासक रहो कैसे, चित छिन में उले पर। कहा उठोगे जब प्राण प्यारे, कौन विध देही सहै ।। गिरनार गढ़ सं चलो नेमिजी,राजमति चितवन करें। तुम तन कोमल है घनेरो, फौज काम की प्रति लरं। दोहा-प्रावो मास पासोज ही, चित्त डुले नहिं मोहि। गिरनारगढ़ सं चलो नेमिजी राजमति चितवन करे ।। ध्यान लगाव सरस बह, किस विषिमें सुष होहि ॥२८ दोहा-पोस मास प्रावो तुरत नहीं हमरो काज ।। चाल-कैसे जु चित डले राजुल समाधि योग लगायस्यूं। अंतर ध्यान लगायस्यूं मुक्ति रमण हित साज ।।४० परमेष्ठि पञ्चम ध्यान ल्याऊ, मुक्ति पर ज्यूं पायस्यूं। चाल-प्रास्रव होय कहा प्रसोभै पवन शीतल प्रति लगे। जीव निसदिन फिर हंडित, नर्क दुष यों में परचो। इन्द्रिय पंच पयार जहां तहां, राग-द्वेष स्यं चित भग।। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८, वर्ष २४, कि०२ अनेकान्त मद मठ पापी फिर ज साथी, द्रव्य पर चित न घरो। मद प्रष्ट को चित टार वेई, सिद्ध समरण में धरों। कहे नेमनाथ सुनो जु राजल चित अपना बसि करो।। जब होय कर्म को नास हितनी चित्त संजम तुम धरो। दोहा-माघ महीना प्रति कठन, पत्थर से गलि जात । कहे नेमिनाथ सुनोज राजल चित प्रपनो वसि करो।। तुम शरीर कोमल बहुत, कसे धीर रहात ॥४२ दोहा-पायो मास वैसाख ही ग्रीषम ऋतु दुखदाय । चाल-प्रायोज़ मास सु माघ प्रीतम, वर जमे है सागरा। गिरस्यं उतरो नेमिजी, घरां चलो सुषदाय ॥५३ यह मनष देह कहां परी है, समझ चितमें तुम धरा॥ चाल-प्रायोज मास वैशाष ग्रीषम नीर शीतल सुख करें। जब शीत दाहै, प्राग चाहे कैसे मन में थिर रहे। तुम देह कोमल रहो कैसे घाम स्य प्रति तन जर ।। गिरनार गढ़ चलो नेमजी, राजमति चितवन करे। असे कठोर भये ज कब से, ममत ताजी के सिव वर। दोहा-माघ ज प्रावो भावस्युं, रहस्यु संवर छाय।। गिरनारगढ सुं चलो नेमजी राजमति चितवन कर।। मन थिर राखो प्रापणों, मकत रमण हित लाय ॥ दोहा-प्रायो अति उछाहस्यों, मास वैशाख महान । चाल-संवर अवर वाय राखो सीत पालो ना लगे। धर्म करत तन ना करे राजल निह जान ॥५५॥ जहाँ छान छाऊं छोमा केटो, पच इंद्री नही जगे। चाल-करै धर्म जो नर भाव सेती फहो नहीं कहा पाहवी। मद प्रष्ट पापी वार जारु, शीत स्य में कहा उरो। दर्शन ज्ञान चारित्र धार, तातें सिव-मग ध्यावहीं । कहे नेमिनाथ सुनो ज राजुल चित अपनो वसि करो॥ जहाँ दया धारं धर्म पाल, मोह राल जीव हो । दोहा-फागुण मदस्यू गहगह्यो, प्रायो है सिरताज। कहे नेमिनाथ सुनो ज राजल चित प्रपनो वसि करो। गौरी गावे गीत भी, कैसे रहसो लाज ।।४५ दोहा-प्रायो जेठ ज़ चितस्पू, नर्म जु नहि रहात ॥५६॥ चाल-पायो ज फागण मास, प्रीतम, गोरी पावे गावती। घाम पर प्रति दुख कर संबर सब भाग जात । पिचकारी हाथां काय माता ढफ बजावत ध्यावती॥ चाल-ग्रायो ज जेठ कठिन प्रीतम, धर्म कहो कैसे राखिये। गावत गीत धमाल मधुरे, ध्यान तुम सबही हरै। लय बाजे वदन दाज, नहिं हठ किचित भाषिये। गिरनारगढ सं चलो नेमजी राजमनि चिनवन करे । नहि चले पयो देश मारग भूष त्रषा अति दुख करै । दोहा-फागुन पायो हर्ष के हमरो कहा विगार । गिरनार गढ़ सुं चलो नेमिजी राजमति चितवन करें। मुकतमण स्यूं खलस्यु, सब साखयन स सार ॥४७ दोहा-जंठ मास प्रायो तरत कायर जावे भाग। चाल-ढ़ होरि खेलू सुनो राजल घर अपने चावस्यूं। सूरवीर पहुंचे तुरत अरि सिर षावं वाग ।५। सखी पंच अपने संग लेकर प्रष्ट करम उडावस्यूं ॥ चाल-नर जनम होणों बहुत दुर्लभ जौन श्रावक नहि परी। समकित कोच क्यारि भरि २ मक्ति कामनी से परो। दुर्लभ धर्म धरत जे नर, रत्नत्रय व्रत फनि धरी। कहे नेमिनाथ सुनो जु राजल चित अपनो वसि करो। दुर्लभ षोड़श भावना पनि, मक्तिमार्ग कहा परयो। दोहा-चत्र मास बहु विध भलो, घर घर मंगलाचार । कहे नेमनिाथ सुनोज राजुल चित अपनो वसि करो। रुत वसंत फूल सरस, घर चालो पिय मार ||४६ दोहा-बारह मास पूरा प्रा, नेम न पचल्यो कोई । चाल-चैत्र ज पायो सबन भायो. कंथ चायो कामनी। राजुल कू समझाबई, तुरत अजिका होई ।६१॥ फुलगी कामन कंथ घर में, खेने घर में रामनी॥ चाल-राजल तब ही होय अजिका, सिद्ध ध्यान लगाईयो। सब बाल और गोपाल कन्हई तुमस्यूं अब हेत करें। मद मोह त्यागो काम भागो, स्वर्ण षोडश पाइयो । गिरनारगढ स्यूँ चलो नेमिजी राजमति चितवन पर ।। प्रभ कर्म अष्ट जराय के, तुम मोक्ष मारग जाबही। दोहा-चैत्र मास में खेलस्यूं मुकत रमणि के साथ। पाँडे जीवन सुनो भविजन, रैन दिन जिन ध्यायही । तीन लोक जाने हमें असे व्याल कटात ॥५१ इति : नेमनाथजी को बारहमासा सम्पूर्ण । चाल-लोक तीन में जाने राजल, पंच इद्रि बस करों। सं. १९१० का मीती जेठ वदि १०॥ * Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्ग का इतिहास और सम्राट् खारवेल : एक अध्ययन परमानन्द जैन शास्त्री कलिङ्ग का इतिहास : कोल ब्रुक साहव के मत मे गोदावरी नदी के तट का ___ प्राचीन समय में कलिङ्ग भी एक जनपद था। प्रदेश कलिङ्ग कहलाता था। टालेमि ने गंगासागर परन्तु सोलह जनपदों की सूची में उसका नाम नहीं है। के निकट कलिङ्ग राज्य बतलाया है। जगन्नाथ के पूर्व उसका विकास और समृद्धि क्रमश: बढ़ती गई और वह भाग से लेकर कृष्णा नदी के तीरान्त में कलिङ्ग देश है अपनी चरम सीमा तक पहुंच गई। उसकी समृद्धि का और उसे वाममार्ग परायण बतलाया है। पूर्वी समुद्रतट कारण जैन राजाओ का प्रजापालन, वात्सल्य और पर कलिङ्ग देश था, जहाँ इस समय महानदी बहती हैं। अहिंसक प्रवृत्ति थी। जैन शासको की नीति सूखात्मिका महाभारत प्रादि मे कलिङ्ग के दो नगरों का उल्लेख और निर्भय बनाने वाली थी। यही कारण है कि वहा के है मणिपुर और राजपुर । बौद्ध ग्रन्थो मे कलिङ्ग के निवामी परम्पर मटन और एकता के हामी थे। दन्तपुर और कुम्भवती नाम के दो प्राचीन नगरो के नाम कलिङ्ग का इतिवृत्त बतलाता है कि वह एक शक्तिशाली का उल्लेख मिलता हैं। पुन्नाटसधी जिनसेनाचार्य के देश था। कलिङ्ग की सम्पन्नता, स्वाधीन वृत्ति और हरिवश पुराण में कलिंग का केवल उल्लेख ही नहीं है, बलवत्ता ईर्षा की वस्तु थी। उसके बढ़ते हए बैभव को किन्तु वहाँ के शासको का भी नामोल्लेख हुमा है। कोई प्यार की दृष्टि से नहीं देखता था। कोई भी सम्पन्न और उसी पुराण के २४३ पर्व के ११वे श्लोक में कलिंग देश उमके उत्कर्ष को सहन करना नही चाहता था। यही के जितशत्रु नामक राजा का उल्लेख करते हुए कांचनकारण है कि दूसरे राज्यो ने कलिंग पर आक्रमण किये, पुर नामक नगर का नाम दिया है। हरिषेण के जैन किन्तु कलिङ्गवासी इतने म्वातन्त्र्य प्रिय और स्वाभिमानी कथाकोप मे दन्तपुर और धर्मपुर नगरो का नामोल्लेख थे कि अबसर पाते ही स्वतन्त्र हो जाते थे। उनकी हुअा है। भारतीय साहित्य में कलिग के अन्य नगरो के एकता अनुकरणीय थी। कलिङ्ग का उल्लेख महाभारत नाम अन्वेपणीय है। और रघुवश आदि में भी पाया जाता है। कलिङ्ग पर जरत कलिंग में दक्षिण कौशल का समस्त राज्य भी कुमार और उसके वशज अनेक राजामी ने राज्य किया शामिल था, किन्तु कुछ समय बाद उसका कुछ भाग था । इस कारण कलिङ्ग की प्राचीनता स्पष्ट है। कहा जाता है कि कलिङ्ग का भू-भाग गगा से लेकर ४. Colbrookes Essoges Vol. II P. 178 गोदावरी तक और समुद्र से लेकर दण्डकारण्य तक फैला ५. Indian Antiquary Vol.XIII. P.363 हया था। उड़ देशके उत्तर में कलिङ्ग लोक में प्रसिद्ध है। ६. जगन्नाथात् पूर्वभागात कृष्णा तीरान्तग शिवे । कलिंगदेश: सम्प्रोक्तो वाममार्गपरायणः ।। १. कलिंग पाणिनी के समय मे जनपद राज्य था, परन्तु -शक्ति संगमतन्त्र १६ जनपदो की सूची में उसका नाम नहीं है । कलिंग देश को वाममार्ग परायण लिखने का कारण पाणिनि कालीन भारतवर्ष . ७५ वहाँ जैन साम्राज्य का होना है। २. कूर्मपुराण आदि। ७. प्रासीन्नृपः कलि गेप पूरे कांचन नामनि । ३. प्रोड्रदेशादुत्तरे च कलिंगो विश्रुतो भुवि । जितशत्रु गणा स्यातो जितशवरभिख्यया ।। -कविराम दिग्विजयप्रकाश १८१ -हरिवंशपुराण २४-१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०, वर्ष २४, कि०२ भनेकान्त कलिंग से अलग हो गया था। इस कारण उसका न.म में विहार कर जैनधर्म का खूब प्रचार किया। पार्श्वनाथ त्रिकलिंग पड़ गया था। मेगस्थनीज आदि विदेशी पर्यटकों के विहार स्थल देशों में अंग, बंग के साथ कलिम का भी ने अपने भू-भ्रमण वृत्तान्तों में उसे उत्तर कलिंग, मध्य उल्लेख मिलता है। पार्यमज्जु श्री मूलकल्प ९८३ ई० कलिंग और दक्षिण वलिंग के नाम से उल्लिखित किया में तिब्बतीय भाषा में अनुवादित हुआ था। उसके एक है। इन तीन विभागो की सीमायो का वर्णन इस प्रकार अध्याय मे ७७० ई० तक के भारतीय राजवंशों का वर्णन है। उसमे ऊँचे साधकों की गिनती मे कलिंग के कलिग की सीमाएं-वंशधारा नदी के किनारे से ऋपभ का नाम लिखा है"। लेकर दक्षिण मे गोदावरी तक सब प्रदेश दक्षिण कलिंग जैन तीर्थङ्करों के साथ जन संस्कृति का मुदृढ़ सम्बन्ध कहलाता था । इसकी राजधानी कलिंगपत्तन थी। रहा है। भगवान पार्श्वनाथ और महावीर के साथ ऋषिकूल्या नदी से लेकर वंशधारा नदी तक का भू-माग कलिंग की प्राचीन संस्कृति का घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। मध्य कलिंग कहा जाता था। इसकी राजधानी समापपुरी खण्डगिरि मे भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमानों को थी, जिसे वर्तमान मे जौगढ कहते हैं। उत्तर कलिंग मूलनायक के रूप में सम्मान प्राप्त है। पार्श्वनाथ की कुल्या नदी से प्रारम्भ होकर उत्तर मे गगा नदी के परम्परा के अनेक राजा जैन संस्कृति के उपासक थे, किनारे तक विस्तृत था जिसमे सिंहभूमि, मेदिनीपुर और जिन्होंने कलिंग पर शासन किया है । पार्श्वनाथ की बाकुरा जिला भी शामिल था। इसकी राजधानी वर्तमान परम्परा में होने वाले राजा करकण्डु ने, जिसकी राजधानी भवनेश्वर के निकटवर्ती खण्डगिरि और घौली के मध्यवर्ती दन्तपूर थी,१२ राज्य किया और तेरापुर में जैन मन्दिर स्थान में थी। उसका नाम तोषालि या तोषली था। बनवाए और पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। इससे कलिग की समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता कपिष्ट, प्रजातशत्रु, शत्रुसेन, जितारी और जितशत्रु नामक राजापो ने राज्य किया और प्रजा का पुत्रवत् ___ मेगस्थनीज ने कलिंग देश को महानदी और गोदावरी पालन किया"। इनमें जितारी का पुत्र राजा जितशत्रु के बीच बतलाया है और लिखा है कि "कलिंग के - १०. अंग, बंग कलिगे च कर्णाटे कोंकणे तथा । सकल लोग समुद्र के सबसे निकट रहते थे । इस देश की कीतिकृत पार्श्वनाथ चरित्र । राजधानी पार्थलिस थी । इसके प्रबल राजा के पास ११. देखो भारत के प्राचीन राजवंश, भाग २ १०६६ ६०,००० पैदल, १०,००० घोड़े और ७०० हाथी थे। १२. दन्तपुर या दन्तिपुर कलिंग का ही एक उपनगर है । कलिंग में जैन संस्कृतिः-कलिंग पर जैन राजानों 'कलिंग विषये दिव्ये पुरं दन्तिपुरं गतः ।' हरिपेण ने सभवतः सात सौ वर्षों तक राज्य किया है। जैन कथा कोश २०७ प०६४ बोद्ध ग्रंथों मे लिखा संस्कृति चूकि अहिंसा प्रधान है इसलिए उसका दूसरो हैं कि बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् उनका एक दांत से वैर-विरोध होना बहुत कम सभव है । जैनियों के कलिंग के राजा ब्रह्मदत्त को दिया गया था उन्होंने तेईसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ के समय से लेकर उसे सुवर्ण मन्दिर में रखा था। इसी दन्त के कारण सम्राट् खारवेल के समय तक तथा उसके कुछ बाद तक कलिंग की राजधानी ने दन्तपूर नाम पाया। हिन्दी जैन साम्राज्य रहा है। यद्यपि बीच में कुछ समय तक विश्वकोष नागेन्द्र वसुकृत पृ० १६७ दूसरों का भी राज्य रहा है किन्तु कलिंगवासी पुनः महावस्तु के अनुसार दन्तपुर कलिंग का प्रधान नगर स्वतन्त्रता प्राप्त करते गए। था। भगवान पार्श्वनाथ ने अंग, बंग और कलिंगादि देशों १३. कपिष्टनामान्वयभूषणस्त्वभूदजातशत्रुतनयो स्ततोऽभवत् । ८. प्राचीन कलिंग या खारवेल पृ०२ स शत्रुसेनोऽस्य जितारिरङ्गजस्तङ्गजोऽयं जित६. देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भाग २ पृ०६६ शत्रुरीश्वरः ।। -हरिवंश पुराण ६६-५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्ग का इतिहास और सम्राट खारवेल : एक अध्ययन कलिंग का शासक था। वैशाली गणतंत्र के राजा सिद्धार्थ जितशत्र ने कुमारगिरि पर दीक्षा ली और भगवान महा. की छोटी वहिन यशोदया से उसका विवाह हुमा था। वार इस कारण वह भगवान महावीर का फूफा था। भगवान महावीर का समवसरण अनेक बार कुमार गिरि पर गया और उनके उपदेश से कलिंग की जनता में जितशत्रु भगवान महावीर के जन्मोत्सव के समय कुण्डपुर पाया था। राजा सिद्धार्थ ने इसका खूब आदर. जैनधर्म का प्रचार और प्रसार हुा । जैन संस्कृति में सत्कार किया था। उसके यशोदा नाम की पुत्री थी, उनकी सुदृढ प्रास्था हुई । उस समय कलिंग में जनधर्म अत्यधिक रूप में प्रचलित था। उसके अधिष्ठाता श्रावकों जिसका विवाह वह महावीर के साथ करना चाहता था। की सख्या अन्य लोगों की अपेक्षा अत्यधिक थी और वहाँ परन्तु भगवान महावीर ने विरक्त होकर दीक्षा ले ली और तपश्चरण द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। उस समय के पहाड़ों में जैन श्रमणों का निवास था। उनके तप-तेज से कलिंग गौरवान्वित हो रहा था। राजा श्रेणिक ने जितशत्रु मुनि के सम्बन्ध में पूछा तब गौतम गणधर ने कहा कि पृथिवी में प्रसिद्ध यह जितशत्रु मगध और कलिंग दोनों प्रतिद्वन्दी राज्य थे । कलिंग राजा हरिवश रूपी आकाश का सूर्य था और जिसने अन्य की समृद्धि और सम्पन्नता मगध की ईर्ष्या का कारण राजाओं की स्थिति को तिरस्कृत कर दिया था और बनी, उससे मगघ नरेशों ने अपनी समृद्धि में रुकावटे अनुभव की। उमने राज्य लक्ष्मी का स्वयं परित्याग कर जिनेन्द्र देव के नन्द की कलिंग पर विजयः-फलतः मगध के राजा समीप प्रव्रज्या (दीक्षा) ग्रहण की। और अन्य लोगों के नन्दिवर्धन ने कलिंग पर प्राक्रमणकर विजय प्राप्त की। द्वारा कठिन बाह्य और आभ्यन्तर तप का अनुष्ठान नन्दिवर्धन अथवा कालाशोक एक दिग्विजयी सम्राट् था। किया था। आज उसने घातिया कर्मों को नष्ट कर केवल वह मगध के दक्षिण-पूरब समुद्र-तट पर कलिंग देश ज्ञान प्राप्त किया है। अतएव जिनमार्ग की प्रभावना को जीत कर उसने अपने साम्राज्य में मिला लिया। करने वाले देवो ने उनकी पूजा की है, और मुनिराज ने कर्म-बन्धन से मुक्त हो अविनाशी पद प्राप्त किया। कलिंग या उड़ीसा उस युग मे जैनधर्म का अनुयायी $ जितशत्र: क्षितो ख्यातो धरित्रीपतिरत्र यः । नृपोऽयमाखण्डलतुल्यविक्रमः॥ यशोदयायां सुतया यशोदया, प्राप्त एव धरित्रीश ! भवतः श्रोत्र गोचरम् ॥१८७ पवित्रया वीरविवाहमङ्गलम् । हरिवश नभो भानुभिभूतनृपस्थितिः । अनेक कन्या परिवारयारुहराज्यश्रिय परित्यज्य प्रावाजीज्जिन सन्निधौ ॥१८८ समीक्षितुं तुङ्ग मनोरथं तदा ॥ ८ ॥ तपो दुष्करमन्येषा बाह्यमाध्यात्मिक च सः । स्थितेऽथ नाथे तपसि स्वयंभवि, कृत्वा प्राप्तोऽद्य घात्यन्ते केवलज्ञानमद् भुतम् ॥१८६ प्रजातकैवल्यविशाललोचने । तेनाय ममरैः सर्वैर्जनमार्गोपबहकः।। जगद्विभूत्य विहरत्यपि क्षिति, क्षिति विहाय स्थितवांस्तपस्यम् ।। स पुनर्बोधिलाभार्थ भक्तितोऽत्यचितो यतिः ।।१६० अमष्य जाताद्य तपोबलान्मुनेरवाप्त, -हरिवंशपुराण कैवल्य फला मनुष्यता। १४. भवान्न किं श्रेणिक वैत्ति भूपति, नृपेन्द्रसिद्धार्थ कनीयसी पतिम् । मनुष्यमावो हि महाफल भवे, भवेदयं प्राप्त फलस्तपः फलम् ।। इमं प्रसिद्ध जितशत्रुमाख्यया, विहृत्य पूज्योऽपि मही महीयसां, प्रतापवन्तं जितशत्रुमण्डलम् ।। ६ महामुनिर्मोचित कर्मबन्धनः । जिनेन्द्र वीरस्य समुद्भवोत्सवे, इयाय मोक्षं जितशत्रु केवली, तदागतः कुण्डपुरं सुहृत्परः । निरन्तर सौख्य प्रतिबद्ध मक्षयम् । सुपूजितः कुण्डपुरस्य भूभृता, हरिवंश पुराण ६६-६, ७, ८, ९, १०, ११ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२, वर्ष २४, कि०२ अनेकान्त हो चुका था। नन्द राजा वहाँ से विजय के चिन्ह रूप बहुत दुःख भोगने पड़े। जिस राजाने अशोक की सेनाओं मे जिन प्रतिमा ले प्राया था। उस समय कलिंग के साथ रक्षात्मक युद्ध किया था उसका नाम तक अशोक मगध सम्राट् नन्द का अग हो गया, नन्दिवर्धन विजय ने कहीं उल्लिखित नहीं किया। स्वरूप कलिंग में पूजी जाने वाली प्रादि जिन की प्राचीन अशोक के पश्चात् कलिंग दो सौ वर्षों में बहुत कुछ मूर्ति को ले गया। यह मूर्ति पटना में पौने तीन सौ वर्षों सम्पन्न हो गया था। अपना सब कुछ बलिदान करने के तक रही। इससे स्पष्ट है कि नन्द राजा जनघम क बाद भी कलिंगवासी अपनी स्वतन्त्रता को नही भूले। उपासक थे । यदि वे जैन धर्म क उपासक न हात, तो इससे स्पष्ट है कि कलिंगवासी अपनी स्वतन्त्रता के कितने उतने सुदीर्घ काल तक पाटलीपुत्र मे वह मूर्ति स राक्षत हामी ये। उनकी स्वतन्त्रप्रियता और एकता स्पृहणीय नही रह सकती थी। उक्त दार्यकाल के बाद सम्राट् थी। कलिंगवासियों का स्वाभिमान और परस्पर का खारवेल उसे वापिस कलिंग ले गया और कुमारगिरि पर वात्सल्य भी अनुकरणीय था। उसे महोत्सव के साथ प्रतिष्ठित किया और स्मृति में ईस्वी पूर्व दूसरी या पहली शताब्दी मे कलिंग का विजय-स्तम्भ भी बनवाया। उस समय कलिग में जन प्रतापी सम्राट खारवेल उग्रा । खारवेल जैन था। उडीसा धर्म प्रतिष्ठित था। का सारा राष्ट्र उम समय मुख्यत: जैन ही था। जिसे नन्द के प्राक्रमण के पश्चात् कलिंग का जैन राजवश अभिलेखो कलिंगाधिपति और कलिग चक्रवर्ती कहा गया सम्पन्न हो गया था । प्लिनी ने तत्कालीन कलिंगराज की है। इसकी राजधानी कलिंग नगर थी । शिशुपालगढ शक्तिशाली सेना का वर्णन किया है"। कलिंग की नामक प्राचीन स्थान है, जो भुवनेश्वर से १।। मील सम्पन्नता पौर स्वतन्त्रता अशोक से सहन नहीं हुई। दक्षिण-पूर्व से अभिन्न माना गया है । अभिलेख के परिणाम स्वरूप ईस्वी पूर्व २६२ में उसने कलिंग पर अनुसार कलिग नगर के द्वार, प्राकार, भवन और उपवन प्राक्रमण कर दिया। अशोक की फौजों के साथ कलिंग तूफान में नष्ट हो गए थे। जिनकी मरम्मत खारवेल ने की सेनामों का दो वर्ष तक युद्ध चला। जब अशोक ने कराई थी। खारवेल ने दिग्विजय करके अपने राज्य को विजय के प्रासार धूमिल देखे तब अन्याय अत्याचार बहुत विस्तृत कर लिया था और उसकी प्रसिद्धि कलिंग का पाश्रय लिया। अनेक नगर अग्नि मे भस्म हो गए, सम्राट् के नाम से हुई । खारवेल के बाद उसके पुत्र ने नगर के नगर वीरान करा दिए, भारी नर-सहार किया, राज्य किया। तब किसी तरह उसे विजय मिल सकी। अशोक ने युद्ध सन् १९४७ में शिशुपालगढ़ में जो पुरातात्त्विक भूमें अपनी उच्छृखंल और बर्बर वृत्ति से कलिंग के जन-घन उत्खनन हुआ था, उसमे उड़ीसा के जैन मुरुंड राजाओ का बुरी तरह से विनाश किया। इस भीषण युद्ध मे एक के राजत्व का स्पष्ट प्रमाण मिल गया है । इस भू-उत्खनन लाख प्रादमी मारे गए और डेढ़ लाख बन्दी हुए। और में मिली हुई एक स्वर्ण मुद्रा के सम्बन्ध मे पालोचना करते युद्धोत्तर उपरांत होने वाली महामारी आदि दुविपाक हुए डा० अल्तेकर ने कहा है कि 'यह मुद्रा महाराजासे लाखों व्यक्ति अपने प्राणों से हाथ धो बैठे । अशोक ने घिराज "धर्मदामघर" नामक किसी मुरुण्ड राजा द्वारा स्वय १३वें लेख में यह स्वीकार किया है कि कलिंग युद्ध प्रचलित की गई थी।' उन्होंने प्रागे बताया कि 'तव में श्रमण और ब्राह्मण उभय सम्प्रदाय की जनता को मुरुण्ड राजा उड़ीसा में ईसा की तीसरी शताब्दी में शासन १५. कलिय से जिनकी मूर्ति को विजय के चित्र में करते थे और वे जैन थे। ले जाने वाला नन्दिवर्धन था। खारवेल ने पौने तीन डा० नवीनकुमार साहू ने प्रमाणित किया है कि सौ वरस पीछे मगध से उसका बदला चुकाया । १७. भारतीय इतिहास की रूप-रेखा पृ० ७१६ 'भारतीय इतिहास की रूपरेखा' वृ०४१३। १८. एन्सियेन्ट इडिया नं. ५ शिशुपाल गढ़ उत्खनन १६. देखो, हिन्दी विश्वकोष भाग २ पृ० ३८२ रिपोर्ट Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्गका इतिहास और समाद खारवेल : एक अध्यय उड़ीसा के मुरुण्ड राजाओं का राज्य ईसा की दूसरी केशरी गुफाओं का निर्माण हुआ था । ललाटेन्दु फेशरी शताब्दी के शेष भाग से ईसा की चौथी शताब्दी तक गफा से यह भी ज्ञात होता है कि देशीगण के प्राचार्य प्रचलित था" । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ईस्वी सन की कमदचन्द्र के शिष्य शुभचन्द्र वहाँ यात्रार्थ माये थे"। चतुर्थ शताब्दी तक वहां जैनियों का राज्य प्रचलित था। कलिंग में जैनधर्म का हास चतुर्थ शताब्दी मे कलिंग छोटे-छोटे राज्यो में बट उद्योत केशरी के बाद वहां शंवों का प्रभुत्व मधिक गया था। जो गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिये गए बढ़ा, उससे जैन संस्कृतिको बड़ा धक्का लगा। अकेले भुवथे। पांचवीं शताब्दी के मध्य कलिंग में पितृ भक्त कुल नेश्वर नगरमें ईसवी सन् को ७वी शताब्दी में सैकड़ों शिव के तथा दक्षिण कलिंग मे माठर और वशिष्ट वशों के मन्दिर बन गये थे। कुछ समय बाद वहाँ ऐसी विकट राजा क्रमश: सिंहपुर (वर्तमान सिंगपुरम) और पूर्व मे परिस्थिति बनी, जिसमें जैनधर्म का निर्वाह करना भी गोदावरी से राज करते थे। पर इनसे अधिक पराक्रमी कठिन हो गया। शवधर्म का वह विषाक्त वातावरण गग गजा थे जिनका कलिंग पर छठी शताब्दी से ८वी दूसरे बौद्ध और जैन सम्प्रदायों की संस्कृति को नष्टभ्रष्ट शताब्दी तक और बाद मे १०वीं से १३वी सदी तक करने पर कटिबद्ध हो रहा था, अब उन्हें धर्म परिवर्तन अधिकार रहा है। इनके समय में यद्यपि किसी जैन राजा करना या अपना सर्वस्व छोड़ कर अन्यत्र चले जाना ये का पता नही चलता किन्तु जैन धर्म के धारक श्रावक दो मार्ग ही शेष रह गये थे । जिन्होंने धर्म परिवर्तन कर अवश्य थे। छटी और सातवीं सदियों में कुछ समय के लिया वह वहां रहे, और जिन्होंने धर्म परिवर्तन करने से लिए शशाक हर्षवर्धन की भी सत्ता वहाँ रही है। उसी इंकार किया उन्हें वहां से भागना पड़ा, या जीवन का समय वहाँ चीनी यात्री युवानच्यांग प्राया था। गंगो की बलिदान करना पड़ा। दक्षिण भारत में शैवों ने जो कुछ राजधानी कलिंग नगर थी, जिसकी पहिचान वंशधारा किया, इतिहासज्ञ उससे भलीभांति परिचित है। उससे नदी पर स्थित श्रीकाकुलम् जिले के मुखलिंगम् और बदतर व्यवहार यहां किया गया। उडीसा मे जैनों की कलिंग पत्तनम् से की गई है । कलिग मे समय समय संस्कृति और धर्म के विनष्ट होने के बावजूद धार्मिक पर अनेक छोटे-छोटे राज्य होते रहे जिनकी राजधानियाँ और सांस्कृतिक सम्प्रदाय के साथ स्वोपाजित सम्पत्ति से विभिन्न स्थानों में थी। भी हाथ धोना पड़ा। वहाँ जैनियों के साथ जो गुजरा गुप्तोत्तर मध्य युग में उडीसा के विभिन्न प्रान्तों में उसका किंचित् प्रभास निम्न उल्लेखों से स्पष्ट है : प्रसिद्ध राज वशों ने राज्य किया। उनमे गंगवंश, तोषल वामनघाटी प्रान्त के (१२वी सदी) के ताम्रपत्र से का भौमवश, खिजली मंडल का भजवा और कोशलो. ज्ञात होता है कि मयूरभंज के भंजवंशी राजाओं ने स्कल का सोमवंश थे। यह समय बौद्धों और जनों के श्रावकों को बहुत ग्राम दिये थे। उक्त वंश के संस्थापक अध:पतन का था । बौद्धधर्म तो अपने अस्तित्व के संरक्षण वीरभद्र एक करोड़ साधुनों के गुरु थे। ये जैन थे और के लिए तांत्रिकता का प्राश्रय लेकर वज्रयान और वहां की तांबे की खानि में इस स्थान के श्रावक काम सहजयान पंथों में परिणत हो गया। किन्तु जैन धर्म उस कर म करते थे। वहाँ के गांवों में बहुत सी प्राचीन कीर्तियां समय भी अपने संरक्षण मे गतिशील बना रहा । उस अब अब भी मौजूद है । यह अंचल श्रावकों के प्राधीन था। समय कलिंग मे उद्योत केशरी का राज्य था । यद्यपि वह २१. मों श्रीमत उद्योत केशरी देवस्य प्रवर्द्धमाने विजय. शैव धर्मानुयायी था फिर भी जैन धर्म मे उसका प्राकर्षण राज्ये संवत् १८ श्री प्रार्य सघे ग्रहकुल विनिर्गत था। उस समय खण्डगिरि मे नवमुनि गुफा और ललाटेन्दु देशीगणाचार्य श्रीकुलचन्द्र भट्टारकस्य तस्य शिस्य १९. डा० साहू ए., हिस्ट्री माफ उड़ीसा भाग २, शुभचन्द्रस्य । -नबमुनि गुफालेख पृ०३३४ २२. हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्रवसु भाग ३, पृ. १६५। २०. हिन्दी विश्वकोष नागेन्द्र वसु भाग ३. पृ. १६५ २३. बगाल जर्नल ए० एस० ई. १८७१ पृ० १६१-६२ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पर्व २४, कि०२ अनेकान्त मैजर टिकल ने लिखा है कि सिंहभूमि श्रावकों के वंश' (महामेघवाहन वंश) का तीसरा राजा था। वह हाथ में थी किन्तु अब नहीं है, उस समय उनकी संख्या प्रारम्भसे ही वीर, निर्भय, धर्मनिष्ठ, विद्वान, रणकुशल पौर अन्य लोगों से कहीं अधिक थी। उनके देश का नाम कलाप्रिय था । वह देखने मे प्रभावशाली और सुन्दर था, शिखर भूमि था और पांचेत । उनको बड़ी तकलीफ देकर उसका शरीर प्रशस्त लक्षणों से संयुक्त था । और वह निकाल दिया गया। अपूर्व तेजपुञ्ज का धारक था। उसका प्रकाश चारों कर्गेल डाल्टन ने बेंगल एथनोलोजी में लिखा है कि दिशाओं मे विखर रहा था। सभी विद्यायो और कलानों में पारगत था। खारवेल के पिता का नाम 'वक्रदेव" सिंहभूमि के कई हिस्से ऐसे दल के हाथ में थे, जो मानभूम में अपने प्राचीन स्मारक छोड़ गए। वहां पुराने लोग था। हाथी गुफा के शिलालेख से ज्ञात होता है कि खार वेल ने अपने जीवन के प्रारम्भिक १५ वर्ष राज्योचित रहा करते थे। उनको श्रावक या जैन कहा जाता था। शिक्षा प्राप्त करने में व्यतीत किये थे । खारवेल के पिता अब भी कोलहन को 'हो' जाति के लोग तालाबों को का स्वर्गवास उस समय हो गया था जब वे सोलह वर्ष के 'सरावक' (श्रावक सरोवर) कहते हैं। यहां के गृहस्थ श्रावकों ने जंगल के भीतर ताँबे की खानों का अन्वेषण थे। प्राचीन काल मे सोलह वर्ष की अवस्था मे पुरुष किया था और उसमें अपनी शक्ति लगा दी थी। बालक समझा जाता था। प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि खारवेल ने सोलह वर्ष की अवस्था मे युवराज पदवी प्राप्त बेणुसागर में कई प्राचीन जैन मन्दिर है। की। पश्चात् आठ वर्ष में उसने मुद्रा गणना, व्यवहार सो साल के पहले सिंहभूमि के बहुत से स्थानों में विधि (मीमासा तर्क आदि) तथा अन्य विद्याओं के सीखने सासकर 'पोड़ाहाट' में बहुत जैन लोग थे। इन्हे वहाँ के ____ में बिताये । और चौबीस वर्ष की अवस्था में वह कलिंग मादम निवासी लोग 'सराखु' (सरायोगी) कहते है। ___ का युवगन हो गया । खारवेल सम्राट वेण की तरह एक उस समय के प्राचीन मन्दिर, मूर्ति, गुहा, पुष्करिणी प्रादि । विजयी सम्राट् था। उसका गृहस्थ जीवन भी राष्ट्रीय के अवशेष देखकर मालूम होता है कि वे ऐश्वर्यशाली जीवन के समान सुखमय था । वह अशोक से भी बढ़कर मौर स्वाधीन थे। वहां मिट्टी के अन्दर रुपये, मोहरे, था; क्योंकि उसने अशोक से भी अधिक विजय प्राप्त चित्रित, टूटे हुए कांच की चूड़ियां और मूल्यवान पत्थर की थी, परन्तु अशोक जैसा नरसंहार नही किया था। की मालाएं मिलती थीं। वह एक प्रजावत्सल और कर्तव्यपरायण शासक था। ___सराकलोग डिम्बरी डूमर (गूलर) आदि फल में उसने थोड़े समय मे जो कार्य कर दिखाया, उसे अच्छेकीड़ा रहने के कारण उन्हें नहीं खाते है। और प्याज, अच्छे राजा लोग भी उतने अल्प समय में नही कर सके। गोभी, माल भी नहीं खाते हैं। वे खण्डगिरि की यात्रा २५वे वर्ष मे खारवेल का राज्याभिषेक हुआ। खारवेल को पाते हैं। इनके यहाँ एक कहावत प्रसिद्ध है 'डोह जब सिंहासनारूढ हए, उस समय कलिंग का राज्य वर्तहमर पोढो छाती। एइ चार नही खाए श्रावक जाति ।" - ४. कलिंग का यह नया राजवश चेदि-चेदि क्षत्रियों का इससे स्पष्ट है कि वे अहिंसा प्रेमी हैं। सराक लोग पार्व था। यह चेदिवंश ऐर या ऐल कहलाता था । वैदिक नाथ की पूजा करते हैं। लोग वास्तव मे ऐल थे , माधुनिक बुन्देलखण्ड उनका सम्राट् खारवेल-यह उस वंश का सबसे प्रसिद्ध पौर जनपद होने से ही चेति या चेदि कहलाने लगा था। पराक्रमी राजा था। इसके चरित्र की उज्ज्वलता, कार्य बुन्देलखण्ड से दक्षिण कौशल (छत्तीसगढ़) द्वारा पटुता और सहनशीलता अद्भुत थी। खारवेल चेदि चेदिवंश का कलिंग तक चले आना स्वाभाविक था। १. जर्नल ए. एस. बंगाल ई०१८४० संख्या ६८६ । -भारतीय इतिहास की रूप-रेखा पृ० ७१६ । २. ए० एस० वी० १८६६ पृ० १७६.५ । ५. वेणीमाधव बरुपा ओल्ड ब्राह्मी इन्सि कृपसंस पृ. १. उड़ीसा में जैनधर्म पृ. १४४.४५ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिङ्ग का इतिहास और सम्राट् कारयेत एक अध्ययन मान उड़ीसा प्रान्त जितना या पीर जनसंख्या ३५ लाख के लगभग थी । जनगणना कराने का यह कार्य संभवतः मौर्यो के समय से श्रथवा उससे पूर्व प्रचलित था । कलिंग की राजधानी अशोक के समय से तोषली थी । खारवेल ने अपनी नई राजधानी बनाने का कोई उल्लेख नहीं किया । किन्तु प्रशस्ति में राजधानी का उल्लेख कलिंग नगर के नाम से हुआ है'। खारवेल को कलंगाधिपति, कलिंग चक्रवर्ती कहा गया है । क्षेमराज, बुद्धिराज भिक्षुराज, धर्मराज प्रौर राजषिकुल विनिसृत महाराजा श्रादि उसके विरुद है । खारवेल का विवाह कब हुआ इसका उल्लेख नहीं मिलता। उसकी दो रानियां थीं। एक वजिर परवाली, जो पट्टमही के नाम से ख्यात थी और दूसरी सा - राजा लालकस की पुत्री थी- जो हाथी सहस के पौत्र थे। ये दोनों ही रानियाँ बडी सती, साध्वी, रूप-शील सम्पन्न और धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ का सेवन करती थीं । खारवेल ने सिंहप्रस्थ सिधुला रानी के नाम पर हाथी गुफा के पास गिरिगुहा (रानी गुफा) नाम का प्रासाद बनवाया था यह गुफा अपने डग की एक ही है। जो महत्वपूर्ण है। इसका परिचय धागे दिया गया है । खारवेल ने अपने १३ वर्ष के राज्य काल में अपनी दिग्विजय द्वारा भारतवर्ष मे ऐसी धाक जमा दी थी, जिससे कोई भी राजा उसकी ओर भाख उठाकर नहीं देख सकता था जहाँ वह वीर मौर पराक्रमी था वहाँ वह प्रजा हितैषी घोर उदार भी था। उसने प्रजा के हित के लिए जो-जो कार्य किये थे वे सब उसकी महत्ता के द्योतक है। वह जैनधर्म का दृढ़ श्रद्धालु होता हुम्रा भी अन्य सभी धर्म वालों के साथ समभाव रखता था । जैसा कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से स्पष्ट है- "सवपाखंड पूजिको सवदेवायतन संस्कारकारको " ये वाक्य उसकी महानता और समान धर्मता के सूचक है। खारवेल सबको सहायता करता था और मन्दिरों का जीर्णोद्वार आदि कार्यों में सहयोग देता था। उसने अपनी प्रजा को कभी कष्ट नहीं होने दिया। यद्यपि वह बाहर दिग्विजय करने भी गया, तो भी राज्य व्यवस्था १. शिलालेख की पंक्ति में उल्लेख है। ३ 1 ७५ सुचारु श्रप से चलती थी। पौर भौर जानपद संस्थाएं राज्य का कार्य इस तरह से सम्पन्न करती थी, जिसमें प्रजा का हित सन्निहित रहता था। राज्य में प्रजा सुखी और सम्पन्न यो । खारवेल का जीवन बड़ा ही महत्वपूर्ण था। उसने राज्य सम्पदा की अभिवृद्धि करते हुए भी उसमें उसकी प्रासक्ति नहीं थी इसीसे उसने १३ वर्ष राज्य करने के उपरान्त उससे विरक्त हो गया श्रीर श्रात्म-साधना के पथ की ओर अग्रसर हो गया था । तथा व्रतादि के अनुष्ठान द्वारा इन्द्रिय दमन करने घोर कषायों को शमन करने तथा उनके रस को सुखाने का प्रयत्न करने लगा । यह कार्य उसने कितने वर्ष किया इसका कोई इतिवृत नहीं मिलता। । खारवेल के ऐतिहासिक महत्वपूर्ण कार्य खारवेल के १३ वर्ष के राजत्व काल का विवरण मौर जीवन की खास घटनाओं का अंकन हाथी गुफा के शिलालेख मे हुआ है। हाथी गुफा एक कृत्रिम गुफा है जिसमें खारवेल का शिलालेख उत्कीर्ण हुआ है। शिलालेख में वर्षानुक्रम से राजत्व की प्रमुख घटनाओंों का उल्लेख किया गया है। शिलालेख की कुछ पंक्तियों पढ़ने में नहीं आई – वे घिस गई है, जो पक्तियाँ पढ़ी जा सकीं उनसे बहुत कुछ सामग्री प्रकाश में आ पाई है। फिर भी कुछ पंक्तिय अभी स्पष्ट हैं। इतिहास की दृष्टि से लेख बहुत ही महत्वपूर्ण है। १-खारवेल ने राजधानी को तूफान से प्राचीन इमारतों, कोट दरवाजों की मरम्मत कराई, लिविर ऋषि के बड़े तालाब का पक्का बोध बंधवाया और उद्यान लगवाए । २-सारवेल ने आंध्र के सातवाहन वंश के तृतीय राजा सातकर्णी के विरुद्ध आक्रमण कर उसे पराजित किया। उसने खारवेल का धाधिपत्य स्वीकार किया। सातकर्णी को विजित करने के बाद खारवेल को सेना कलिंग वापिस नहीं पाई, किन्तु दक्षिण में कृष्णा नदी के तट पर बसे हुए अशिक नगर में जा पहुँची। यद्यपि वहाँ के राजा बड़े पराक्रमी और शूरवीर थे, किन्तु वे खारवेल की शक्ति का मुकाबला न कर सके। प्रशिक नगर पर अपना आधिपत्य जमा, खारवेल ससैन्य वापिस भा गया Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६, वर्ष २४,कि०२ भनेकान्त तीसरे वर्ष वह कही नही गया परन्तु राजधानी में बहुत कर मथुरा को भाग गया। खारवेल भी मथुरा पहुंचा, उत्सव एव मनोरंजन के भनेक कार्य किये । इससे पता चलता है कि खारवेल कितना पराक्रमी और ३-चतुर्थ वर्ष के प्रारम्भ मे ही खारवेल ने अपने प्रतापी था, उसका देशप्रेम और भुजविक्रम निस्सन्देह सैन्य सहित विन्ध्याचल की भोर प्रस्थान किया। उससे अद्वितीय था। खारवेल ने मथुरा में ब्राह्मकों को दान भी वह क्षुभित हो उठा । अरकडपुर मे विद्याघरों के प्रावास दिया था। और राजधानी को लौट पाया। को, जो कलिंग के पूर्व राजामों ने बनवाये थे। उनका ७-नौवें वर्ष में खारवेल ने 'कल्पद्रुम' नामक महाजीर्णोद्धार कराया। खारवेल ने रथिकों के भोजको को पूजा की और लोगों को किमिच्छिक दान दिया तथा परास्त कर अपने प्राचीन किया । वे छत्र भ गार छोड़कर घोड़े, रथ, हाथी प्रादि योद्धानों को भी भेट किये । खारवेल के चरणों मे झुकने को बाध्य हए । रथिकों के ब्राह्मणों को भी दान दिया। यह पूजा चक्रवर्ती सम्राट भोजक-अर्थात् महाराष्ट्र के भोजपदवी वाले सरदार ही कर सकता है। खारवेल ने प्राची नदी के दोनों तटों जिनका प्राचीन लिच्छवियों और शाक्यों आदि की तरह पर महाविजय नाम का प्रासाद बनवाकर अपनी दिग्विजय गणराज्य था, इसी कारण शायद प्रत्येक सरदार छत्र को चिरस्थायी बना दिया। इसके निर्माण में अड़तीस धारण करता था। लाख रुपया व्यय हुआ। ४-पचम वर्ष में खारवेल अपनी राजधानी की दसवे वर्ष में सेना को उत्तर भारत की ओर भेजा। शोभा एवं सज्जा बढ़ाने के लिए तनसुलिवाट नहर को --ग्यारहवे वर्ष मे प्राव राजा द्वारा बसाई हुई बढ़ाकर राजधानी तक लाया, जिसे नन्द राजा ने तीन पिड या पिहुंड मण्डी (बाजार) को गधो के हल से सौ वर्ष पूर्व बनवाया था। जुतवा डाला और ११३ वर्ष पुराने तिमिरदेष (तामिल५-छठवें वर्ष में खारवेल का राजसय अभिषेक देष) संघात को तोड़ डाला। इसी वर्ष खारवेल के प्रताप हुमा । तब उसने पौर और जानपद सघो को विशेष अधि- की प्रान मानकर दक्षिण के पाण्ड य नरेश ने खारवेल कार दिये । यद्यपि खारवेल सम्पूर्ण स्वत्वाधिकारी सम्राट का सत्कार किया और रत्नादि मूल्यवान वस्तुएँ भेट था, फिर भी उसने प्रजा की भलाई के लिए अनुग्रह किया स्वरूप उनकी सेवा में प्रेषित की। -डा० जायसवाल जी के अनुसार उसने कानूनी वे सब ह-बारहवे वर्ष खारवेल ने मगध पर पुनः प्राक्ररियायतें जो पौर और जनपदों को दी जाती थी, प्रजा मण किया, जिससे मगध में प्रातक छा गया। यह प्राक्रहित को दृष्टि से प्रदान की। मण अशोक के कलिंग अाक्रमण के प्रतिशोध रूप में था। सातवें वर्ष में खारवेल अपनी आयु के ३१ वर्ष पूर्ण मगध नरेश वृहस्पति मित्र (पुष्प मित्र) खारवेल के कर चुका था। पैरों मे नतमस्तक हुए। उन्होने अंग और मगध की मूल्य६-पाठवे वर्ष में खारवेल ने बड़ी सेना के साथ वान भेट के साथ कलिग के राज चिन्ह और कलिंग मगध पर प्राक्रमण किया और ससैन्य गोरथगिरि' तक ३. किमिच्छकेन दानेन जगदाशः प्रपूर्ययः । पहुँच गया, और उसे विजित कर, सेना ने राजगिर को चक्रिभिः क्रियते सोऽर्ह यज्ञः कल्पदुमो मतः । घेर लिया। राजगिर के घेरे की बात सुनकर यवन राज -सागारधर्मामृत २.२८ देमिश्रियस (Demetruis) इतना भयभीत हुआ, कि दिमित ४. कलिंग तट के साथ-साथ दक्खिन को मोर बढ़ने पर या दिमेत्र घबड़ाई सेना और वाहनों को मुश्किल से बचा प्राव नाम का एक छोटा-सा राष्ट्र था, जिसकी राज१. भारतीय इतिहास की रूप-रेखा पृ०७१७ । घानी पियुंड या पिहुंड थी। दूसरी शताब्दी ई. के २. गोरथगिरि गया की सुप्रसिद्ध वाराबर पहाड़ी है, यह रोमन भूगोल लेखकने लिखा है कि उक्त नगरी तमिल उसके एक अभिलेख से सिद्ध हुपा है, भारतीय इति- देश का द्वार मानी जाती थी। हास की रूप-रेखा पृ०७२० । -भारतीय इतिहास की रूप-रेखा, पृ.७२३ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलिंग का इतिहास और सम्राट् खारवेल : एक अध्ययन जिनकी प्राचीन मूर्ति, जिसे राजा नन्दि वर्द्धन मगध ले कुमारगिरि कहलाता था। कुमारगिरि प्रसिद्ध तीर्थ स्थान गया था प्रदान की। खारवेल उस सातिशय प्रादि जिन है-निर्वाण भूमि है। जिसे उदयगिरि भी कहा जाता है। की मूर्ति को वापिस लेकर कलिंग पा गया और उसे भगवान महावीर ने कुमारगिरि पर उपदेश दिया था। महोत्सव के साथ विराजमान किया । कलिंग के राजा जितशत्रु ने इसी पर्वत पर दीक्षा ली थी। १०-तेरहवे वर्ष मे खारवेल ने अहत निषीदी के और तपश्चरण द्वारा केवल ज्ञान प्राप्त किया और प्रमासमीप पर्वत पर श्रेष्ठ प्रस्तर खानो से निकाले हुए और तिया कर्म का नाशकर मुक्ति पद प्राप्त किया। यह अनेक योजनों से लाये गए पाषाणोसे सिंह प्रस्थ वाली रानी प्राचीन गाथानों से स्पष्ट है :सिंधुला के लिए निश्रय बनवाए।...' खारवेल ने जिवसत्तूरायाणं जितारिपुत्तं कलिंग वासम्मि । बंड्यंगठित चार स्तम्भ भी स्थापित किये, इसके निर्माण बेहादि णि विष्णो कुमारगिरिम्हि पम्वइया । में पचहत्तर लाख रुपये व्यय हुए। सम्राट् खारवेल दिग्वि- किच्चा तब स घोरं माणग्गिणा बुड्ढघाइ-कम्ममलं । जय से सन्तुष्ट होकर राज्य लिप्सा से विरक्त हो धर्म पप्पा केवलणाण प्रणतरं णिय्याणसुह लहा। साधन की ओर अग्रसर हुए। उन्होने कुमारगिरि पर्वत (प्राचीन गुट के से उद्धत) पर जहां भगवान महावीर ने धर्मोपदेश दिया था । श्रावक कलिंग के धर्मपुर नगर मे भगवान महावीर के द्वितीय के व्रतों का अनुष्ठान करते हुए जीवन को प्रात्म-साधना गणघर सुधर्म स्वामी अपने पांच सौ शिष्यों के साथ भाए में लगाया। उसके बाद वह कब तक जीवित रहा, यह थे। इनके उपदेश से वहां के राजा यम ने गर्दभ पुत्र को कुछ ज्ञात नहीं हो सका, खारवेल कम से कम १०-१५ वर्ष राज देकर अपने पांच सौ पुत्रों के साथ जिन दीक्षा ग्रहण तो अवश्य ही जीवित रहा होगा। कर ली। तथा तपश्चरण द्वारा बीजादि अनेक ऋद्धियाँ उदयगिरि और खण्डगिरि प्राप्त की। और अन्त मे उन्होंने कुमारगिरि से स्वर्ग भुवनेश्वर से ५ मील शिशुपालगढ के उत्तर पश्चिम प्राप्त किया था'। सम्राट् खारवेल ने इसी पर्वत पर जैन मे उदयगिरि खंडगिरि नाम के दो छोटे-छोटे पहाड है। श्रमणों के लिए अनेक गुफामो का निर्माण किया था। उनकी ऊंचाई क्रमशः ११० फीट और १२३ फीट है। और विशाल मन्दिर बनवाया था और उसमें प्रादि जिन इन पहाड़ियों पर जैन श्रमणों के तपश्चरण करने के लिए की उस सातिशय मूति को, जिसे कलिंग विजय के समय अनेक गुफाए बनी हुई हैं। जिनकी संख्या १०० के लग- १. अन्यदा विहरन क्वापि शिष्य पञ्चशतावृतः । भग है । इनमें दो बड़ी गुफाएं है जो भगवान महावीर के धर्माख्यपरसामीप्यं सुधर्मा मुनिराययो । समय से ही प्रहन्तो के ससर्ग से पावन हो चुकी थीं। इनमे सबसे महत्वपूर्ण हाथी गृफा है जिसमे चेदिवश के पाहूय गर्दभाभिख्यं पुत्र प्राप्त स भूपतिः । राजा खारबेल का लेख अंकित है। उस काल में यहाँ राजपट्ट बवन्धास्य समस्तनृपसाक्षिकम् ।।१५ हजारों की संख्या में श्रमण तपश्चरण करते थे। भगवान शतैः पञ्चिभिरायुक्तः स्वपुत्राणा नृपं सह । महावीर के समय कुमारी पर्वत पर चतुर्विध सघ अनेक अन्यः सुधर्मसामीप्ये राजेन्द्रः स तपोऽगृहीत ॥१६ बार पाया था। हजारों साधु यहाँ रहकर प्रात्म-साधना xxx द्वारा प्रात्मसिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न करते थे। सुधर्म एताभिलब्धिनियुक्ता श्रामण्यं परिपाल्य च । स्वामी भी अपने ५०० शिष्यों के साथ कुमारगिरि पर धर्मादिनगरासन्नो कुमारादिगिरि मस्तके ॥६७ भोर धर्मपुर मादि मे विहार करते हए आये थे। उदय शतैः पञ्चभिरायुक्तो मुनीनां धर्मशालिनां । गिरि का प्राचीन नाम कुमारगिरि था जिसके सम्बन्ध मे माराधना समाराध्य यमः साधु दिवे ययौ ॥६८ कुछ विचार किया जाता है। हाथी गुफा की प्रशस्ति में -हरिषेण कथाकोष पृ० १३४ भी कुमारगिरि का उल्लेख है । उस समय समूचा पर्वत तथा भगवती माराधना गाथा ७७२ X Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्व २४ कि. २ अनेकान्त नन्द राजा ले गया था, पौने तीन सौ वर्ष बाद ला कर से स्पष्ट है । और तीसरा कमरा शायद खारवेल ने खारवेल ने महोत्सव के साथ प्रतिष्ठित किया था। बनवाया था। गुफा के मध्य में एक महत्वपूर्ण उत्कीर्ण एक सम्राट खारवेल ने स्वयं भी इस पर्वत पर व्रत उपवासादि चित्र था जो अब नष्टप्राय हो गया है। इसका सम्बन्ध उस द्वारा प्रात्म-साधना का अनुष्ठान किया था। इन सब ऐतिहासिक घटना से जान पड़ता है, जब सम्राट खारवेल उल्लेखों से कुमारगिरि की महत्ता का प्राभास सहज ही मगध विजय करके कलिंग जिनकी मति लाये भौर कलिंग मिल जाता है । नगर मे उत्सव के साथ प्रतिष्ठित किया था। यह चित्र उदयगिरि पर जो महत्वपूर्ण गुफाएं हैं, उनमें से कुछ इसी घटना को सद्योतित करता है। इससे उसकी महत्ता खास गुफाओं का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है :- का स्पष्ट भान होता है। रानीगुफा-उदयगिरि की गुफाओं के मध्य में रानी गणेशगुफा-इसमें दो कमरे है, इस गुफा के चित्रों हंसपुर नामक गुफा सबसे बड़ी और चित्ताकर्षक है। में रानी गुफा के चित्रों का; जो पौराणिक पाख्यानों. इसकी बनावट बड़ी सुन्दर है, इसे रानीगुफा के नाम से कथाओं और मूर्तिकला को अभिव्यक्त करने वाले है उन पकारा जाता है, क्योंकि सम्राट् खारवेल ने इसे सिंधुला- अनेक चित्रों का सूक्ष्म रूप दिया हया है जिनका विषय रानी के लिए बनवाई थी। यह गुफा दोमंज ली है। और भाव वही है । इसकी कोठरियां दो पंक्तियों में सुशोभित है। गुफा का स्वर्गपुरी गुफा-इसमे दो बड़े कमरे और एक छोटा दक्षिण-पूर्व पार्श्व खुला हया है। नीचे की पंक्तियों में कमरा है, कमरों के बीच में गुफा का निर्माण कराने गाठ और ऊपर की पक्ति में छ: प्रकोष्ठ हैं। ऊपर की वाली रानी का लेख उत्कीणित है। यह गफा हाथी गफा मंजिल में २० फूट लम्बा बरामदा है जो गुफा की विशेष- के बाद बनी मालूम होती है। इस तरह उदयगिरि पर षता का निर्देशक है। इन्ही वर(मदों मे प्रतिहारियों की ओर भी अन्य गुफाएं हैं, जिनका परिचय लेख के भय से मतियां प्रत्यन्त स्पष्ट रूप मे उकेरी गई है। बरामदे की नही दिया जा सका। छत को थांभने के लिए प्रस्तर स्तम्भ बनाए गये है। खण्डगिरि किन्तु वे अधिकाशतः जीर्ण-शीर्ण हो गए है। गुफा मे खण्डगिरि पर जितनी गुफाएं है उनमे कई गुफाएं पौराणिक पाख्यानो, कथानो, और मूर्तिकला को अभि- बड़ी महत्वपूर्ण है। उनमे तत्त्व गुफा और अनन्त गुफा व्यक्त करने वाले अनेक चित्र उत्कीणित है। दोनो ही सबसे अधिक महत्व को है। मजिलों में महत्वपूर्ण तक्षण कार्य हुमा है। नीचे की तत्त्वगुफा में तीन द्वार और प्रस्तरासन, पार्श्वस्थ मंजिल के तक्षण कार्य का शिल्प भरहुत से भी सुन्दर है। छिद्र और चोकोर स्तम्भ है। मध्य टोडियों पर भी मतियों का तक्षण कार्य उनकी सजीवता और प्रोजस्विता अलंकरण दृष्टिगोचर होते है । नतंकी और वीणापाणिनर, का परिचायक है । जैसाकि सांची के द्वारों में प्रकित है। पूष्पमाल सहित अलंकृत नारी, तथा स्तम्भ के ऊर्ध्व भाग इन सब बातों से रानी गुफा की महत्ता का सहज ही भान के शृगो पर दाहिनी ओर सिंह और वाई पोर हाथी हो जाता है। है । और भी अनेक अलकरण दिखाई देते है। इस कारण मंचूरीगुफा-इस गुफा में तीन कमरे है जिनका फर्श यह गुफा अपनी खास विशेषता रखती है। कुछ उभारको लिए हुए बनाया गया है। जिससे शयन करने अनन्तगुफा- इस गुफा के तोरणो के ऊपर दोनों वाले श्रमणो का शिर ऊचा रहे । इसमे दो कमरे कुदेपश्री' मोर नाग है, इसी कारण इसे अनन्त गुहा कहते है । और कुमार वडुख ने बनवाए थे। जैसा कि उनके लेखों ३. प्ररहत प्रसादाना(म्) कालिंगा (न) म् समणानम् १. ऐरस महाराजस कलिंगाधिपतिनो महा......वाह लेणं कारितं राजिनो ल (1) लाक (स) कुदेपसिरिनो लेणम् ।। हथिसहस-पयोतसधुनाकलिंग-च [खा] रखेलस प्रग २. कुमार वर्डखस लेणम् । महषीया का लेण । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयाग श्री पं० बलभद्र जैन तीर्थ क्षेत्र: भगवान का दीक्षा कल्याणक देखने चल रहे थे। आद्य तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने जिन ५२ देशों भगवान पुरिमतालपुर के बाहर सिद्धार्थ नामक वन की रचना की थी, उनमें कोशल देश भी था । उसके मे पहुँच कर पालकी से उतर पडे और सभी प्रकार के अन्तर्गत ही पुरिमताल नामक एक नगर था। भगवान् ने परिग्रह का त्याग करके एक वटवृक्ष के नीचे पूर्वाभिमुख दीक्षा लेने से पूर्व अपने सौ पुत्रों को विभिन्न नगरों के होकर अपने हाथों द्वारा केश लु चन किया। इस प्रकार राज्य दिए थे। उनमें वृषभसेन नामक पत्र को परिमताल- चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सायंकाल को उत्तराषाढ़ नक्षत्र पुर का राज्य दिया। जब भगवान ने नीलांजना अप्सरा मे दीक्षा ले ली। और छह मास का योग लेकर उस की नत्य करते हए मृत्यु देखी तो उनके मन में ससार, वट वृक्ष के नीचे एक शिला पट्ट पर आसीन हो गए। शरीर और भोगों के प्रति निर्वेद हो गया। लोकान्तिक दीक्षा लेते ही भगवान को मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो देवों ने इस पुण्य अवसर पर प्राकर भगवान के वैराग्य गया। चार हजार राजा भगवान के साथ दीक्षित हो की सराहना की, मनुमोदन किया और प्रेरणाप्रद निवेदन गए। उनमे सम्राट भरत का पुत्र मरीचि भी था। देवों किया, भगवान राजपाट त्यागकर दीक्षा लेने अयोध्या से ने भगवान का दीक्षा कल्याणक मनाया। देव निर्मित पालकी 'सुदर्शन' मे चल दिए । पालकी को इसी समय से पुरिमताल नगर के उस स्थान का सर्वप्रथम भूमिगोचरियों ने उठाया और सात कदम चले। नाम प्रयाग पड़ गया। प्राचार्य जिनसेन ने इस सम्बन्ध पश्चात् विद्याधरों ने पालकी को उठाया। तदनंतर देवो मे बड़े स्पष्ट शब्दों में कथन किया हैं। ने पालकी को उठा लिया और प्राकाश मार्ग से चले। वे लिखते है: प्राकाश में देव और इन्द्र हर्ष विभोर हो चल रहे थे एकमुक्त्वा प्रजायत्र प्रजापति मपूजयत् । और भूमि पर भगवान की स्त्रियों-नन्दा और सुनन्दा, प्रदेशः स प्रजागाख्यो यतः पूजार्थ योगत: 18-९६ अन्य परिवारी जन और जनता शोकाकुल चल रही थी। अर्थात् 'तुम लोगों की रक्षा के लिए मैंने चतुर भरत साथ भगवान के माता-पिता मरुदेवी और नाभिराय को नियुक्त किया है। तुम उसकी पूजा करो' भगवान के इसके अलंकरणों को बारीकी से अध्ययन करने पर कई लेख और है। महत्व की बातों की जानकारी मिल सकती है । गुफागत ललाटेन्दु केशरीगुफा-भी दो मंजिली थी किन्तु अलंकरण बड़े ही सुन्दर और दर्शक को अपनी ओर उसका अग्रभाग और दीवालों का कुछ भाग गिर गया आकृष्ट करते है। है। दीवालों पर तीर्थंकरों की मूर्तियां उत्कीणित हैं। ___इस पर्वत पर नवमुनि गुफा है जिसमें इसकी दीवाल इसमें एक संस्कृत का खंडित अशुद्ध लेख है, जिसमें पर नौ तीर्थकरो की पद्मासन मतिया अंकित हैं। उनके लिखा है कि उद्योतकेशरी के राज्य के पांचवें वर्ष में नीचे यक्षिणी देविया है । मूर्तियों के साथ तीन छत्र और कुमार पर्वत पर जीर्ण जलाशय और मन्दिरों का जीणों. दो चमरेन्द्र हैं। इसमे चार लेख है जिनमें १ लेख दशवी द्वार कराया और चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रतिष्ठित शताब्दी का राजा उद्योतकेशरी के १८वें वर्ष का है। की। इस तरह यह गुफा भी बहुमूल्य सामग्री को लिये दूसरा लेख श्रीधर नाम के विद्यार्थी का है। और दो हुए है जो दर्शकों के लिए उत्प्रेक्षणीय है। ★ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०, वर्ष २४, कि० २ अनेकान्त हुप्रा। ऐसा कहने पर प्रजा ने उनकी पूजा की। प्रजा ने जिस नरेश वृषभसैन अनेक राजारों के साथ भगवान के पास स्थान पर भगवान की पूजा की, वह स्थान पूजा के पहुंचा और दीक्षा लेकर भगवान का प्रथम गणधर बना । कारण 'प्रयाग' इस नाम को प्राप्त हुआ। तब इस युग में प्रथम तीर्थकर का प्रथम उपदेश यही इसी प्रकार प्राचार्य रविषेण ने 'पद्म पुराण' में कहा पर हुअा। भगवान ऋषभदेव ने धर्मचक्र प्रवर्तन प्रयाग मे ही किया। प्रजाग इनि देशोऽसौ प्रजाम्योऽस्मिन् गतो यतः । भगवान की दीक्षा के कारण इस नगर का नाम प्रकृष्टो वा कृतस्त्यागः प्रयागस्तेन कीर्तितः ॥३-२८६। बदल कर प्रयाग हो गया और जिस वट वृक्ष के नीचे भगवान वृषभदेव प्रजा से दूर हो उस स्थान पर उन्हें अक्षय ज्ञान लक्ष्मी प्राप्त हुई वह वट वृक्ष 'अक्षयवट' पहुंचे थे, इस लिए उस स्थान का नाम 'प्रजाग' प्रसिद्ध कहलान लगा हो गया। प्रथवा भगवान ने उस स्थान पर बहुत भारी नन्दि संघ की गुर्वावली में अक्षय वट का उल्लेख इस त्याग किया था इस लिए उसका नाम 'प्रयाग' भी प्रसिद्ध प्रकार मिलता है-"श्री सम्मेदगिरि-चम्पापुरी-ऊर्ज यन्तगिरि-अक्षय वट-प्रादीश्वर दीक्षा सर्वसिद्ध क्षेत्र इन उल्लेखों से स्पष्ट है कि भगवान ऋषभदेव के कृत यात्राणा । इसमे अक्षय वट को तीर्थ स्थान माना है। कारण ही इस स्थान का नाम 'प्रयाग' पड़ा और फिर इस प्रकार दीक्षा और ज्ञान कल्याणक यहां मनाए पुरिमताल नगर भी प्रयाग कहलाने लगा। क्योंकि जैन गए। इसलिए यह सदा से जैन तीर्थ क्षेत्र के रूप में साहित्य में ऋषभदेव के पश्चात् पूरिमताल नामक किसी प्रसिद्ध रहा है। नगर का नाम देखने में नही आया। भगवान प्रजापति यह स्थान प्राकृतिक सुषमा से समृद्ध है । गगा-यमुना कहलाते थे और प्रजा उन्हे हृदय से प्रेम करती, उनपर और सरस्वती का यह सगम स्थल है। इन तीन नदियों श्रद्धा रखती थी। इसलिए भगवान के सर्वस्व त्याग जैसी की श्वेत, नील और रक्त धाराएं मिलकर एक दूसरे में अपूर्व घटना के कारण 'प्रयाग' नाम पड़ा और वही स्थायी समाहित हो गई है । यह अक्षयवट इस त्रिवेणी संगम के हो गया। तट पर खड़े हुए किले के भीतर है । इसमे तो सदेह नही दीक्षा लेने के बाद भगवान यहाँ पर केवल छह मास है कि वह मूल प्रक्षयवट समाप्त हो गया, किन्तु उसकी तक ही रहे । इसके पश्चात् वे विभिन्न देशों में विहार वंश परम्परा के द्वारा अब तक एक अक्षयवट विद्यमान करते रहे। ठीक एक हजार वर्ष पश्चात वे पनः इसी है। पहले पातालपुरी गुफा में कुछ पंडे लोग एक मूखी स्थान पर पधारे । भगवज्जिनसेनाचार्य के शब्दों में लकडी को कपड़े में लपेट कर और उसे अक्षयवट कहकर 'मौनी, ध्यानी और मान से रहित वे अतिशय बुद्धिमान भक्त जनता को उसका दर्शन कराते थे। किन्तु अब कहते भगवान धीरे-धीरे अनेक देशो मे विहार करते हर किसी हैं, अक्षयवट का पता चल गया और अब सप्ताह में दो दिम पुरिमताल नामक नगर के समीप जा पहुंचे। वहां दिन उसके दर्शन कराये जाते है। यमुना किनारे के शकट नामक वन में वट वृक्ष के नीचे एक शिला पर फाटक से यहाँ पा सकते है । पर्यासन में विराजमान हो गए। उन्होंने ध्यानाग्नि द्वारा इस स्थान की यात्रा करने से भगवान ऋषभदेव की घातिया कर्मों का नाश कर दिया और फाल्गुण कृष्णा स्मृति मन में जाग उठती है और मन अनिवर्चनीय भक्तिएकादशी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र में भगवान को निर्मल भाव से प्लावित हो उठता है। केवलशान उत्पन्न हो गया । सम्पूर्ण देवों और इन्द्रों ने पुरातत्व-यहाँ किले में एक प्राचीन स्तम्भ है। वहाँ पाकर केवलज्ञान की पूजा की और केवलज्ञान का भगवान ऋषभदेव की कल्याणक भूमि होने के कारण महोत्सव मनाया, इन्द्र को प्राज्ञा से देवों ने उसी स्थान मौर्य सम्राट् सम्प्रति ने इसका निर्माण कराया था। उस र समवसरण की रचना की। उस समय उस नगर का स्तम्भ को भूल से अशोक स्तम्भ कहने लगे हैं। इसके Page #88 --------------------------------------------------------------------------  Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर प्रियदर्शी-जो सम्प्रति की उपाधि थी-उसकी प्रकार उटा नहीं सकता। रानी, सम्राट् समुद्रगुप्त, वीरवल और जहागीर के लेव इसके अतिरिक्त शेष चार प्रतिमाएं भगवान ऋषभभी खुदे हुए है ? देव की है, मभी बलुए लाल पत्थर की हैं। अवगाहना यहाँ चाहचन्द गहल्ला सरावगियान में एक पाव. प्रायः चार से पांच फट है। टन प्रतिमाओं की विशेषता नाथ पचायती मदिर है। इसके सम्बन्ध मे यह अनुश्रुति इनके जटाजूट है, जो मज ही दर्शक का ध्यान अपनी है कि इस मन्दिर का निर्माण नौमी शताब्दी मे हुआ था। भोर प्राषित कर लेती है। इनकी केश विन्यास शैली इस प्रकार यह मन्दिर ११०० वर्ष प्राचीन है। यद्यपि विविध प्रकार की है। किसी की जटायें स्कन्धों पर समय समय पर मन्दिर का जीर्णोद्धार होता रहा है, अतः छितरी हुई है किसी का जटाजूट शव साधुओं कैसा है। प्राचीनता के चिह्न पाना कठिन है। किन्तु परम्परागत किमी का जटा नगरोसा है, जिस पवार स्त्रियाँ स्नान अनुश्रुति इस प्रकार की है। के पश्चात् गीले बालो का जला बाध लेती है। किन्तु ___कुछ वर्ष पूर्व किले को खुदाई मे कुछ जैन तीर्थंकरों लहराती हई केश-गशि अथवा जटाजूट का तक्षण-कौशल और यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियाँ निकली थीं। जैन समाज ने इतना वारी और विपूर्ण है कि केशों की रेखाएं सरकारसे लेकर ये मूर्तियाँ इसी मदिरमें विराजमान कर दी स्पष्ट परिलक्षित होनी है। हैं । ये मूर्तियों केवल पुरातत्त्व की दृष्टि से ही, नही बल्कि समान्यत: तीर्थंकर प्रतिमानों के केशकुन्तल धुंधराले कलाकी दृष्टिसे भी बढी मूल्यवान है । शासन देवतायो में और छाटे जाने से उनके जटा एव जटा जट नहीं होते। क्षेत्रपान, मातृरूपिणी अम्बिका की पाषाण मूर्तियां है तथा किन्तु भगवान नभदेव भी कुछ प्रतिमाओं में इस प्रकार छह शासन देवियों की धातु मूर्तियाँ हैं। के जटा-जूट अथवा जटा देखने में पाती है। इसका इनके अतिरिक्त पाच तीर्थङ्कर प्रतिमाएं भी प्रान्त कारण यह है कि तीर्थकरों के बाल नही बढते, ऐसा हई थीं। ये सभी प्रतिमाएं चतुर्थकाल की कही जाती हैं। नियम है किन्तु अपभदेव के तपस्यारत रूप का वर्णन इनमें एक प्रतिमा पार्श्वनाथ की है। इसकी अवगाहना करते हुए कुछ आचार्यों ने उन्हे जटायुक्त बताया है। प्राय: साढ़े चार फुट की है। इसका पाषाण सादार पाचार्य जिनसेनकृत हरिवंशरण में उल्ने ग्व पाया है। है ऊपर फण है। फण के अगल-बगल मे पुष्पमाल सलम्ब जटाभार भ्राजिष्ण जिष्णु रावभौ। पारिणी देवियां है। और फण के कार ऐरावत रूढ़ प्रारोह शाखायो यथा न्यग्रोधपादपः॥९-२०४ हाथी है। किम्बदन्ती है कि यह प्रतिमा किले मे खुदाई लम्बी लम्बी जटाओं के भार मे सुशोभित प्रादि करते समय निकली थी। हिन्दुनों ने इसे अपने भगवान जिनेन्द्र उस ममय ऐसे वट वृक्ष के समान सुशोभित हो की मति कहकर ले जाना चाहा। किन्तु जब जैनों को रहे थे, जिसकी शाखामों से पाये लटक रहे हो। इसका पता चला तो हिन्दू लोग इसे लेने नही पाये। इसी प्रकार प्राचार्य रविषेण पद्मपुराण में वर्णन करते किन्तु अधिकारी ने यह शर्त लगा दी कि यदि यह जनों है :की प्रतिमा है तो इसे एक ही व्यक्ति उठाकर ले जाय । बातोता जटातस्य रेजुराष्ट्रलमर्तयः । तब एक धार्मिक सज्जन रात भर सामायिक करते रहे धूमाल्य इव सध्यान वन्हि सक्तस्य कर्मणः।३-२८८ और सुबह भगवान की पूजा करने के बाद मति लेने हवा से उड़ती हुई उनकी जटाएं ऐसी जान पड़ती पहुँचे । और शुद्ध भाव से भगवान का स्मरण करके इसे, थीं, मानों समीचीन ध्यानरूपी अग्नि से जलते हुए कर्म के उठाया तो यह मासानी से उठ पाई। किले के बाहर से घम की पक्ति हो। वे उसे गाड़ी में रखकर ले पाये और इस मन्दिर मे लाकर इस प्रकार हम देखते है कि ऋषभदेव की प्रतिमानों विराजमान कर दिया। प्रतिमा काफी विशाल और का जटाजूट संयुक्त रूप परम्परानुकूल रहा है । इन प्रतिवजनदार है और साधारणतः एक पादमी इसे किसी मानों की रचना शैली, तक्षण कौशल, भावाभिव्यक्ति Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२, वर्ष २४, कि० २ अनेकान्त और अलंकरणादि का सूक्ष्म अध्ययन करने पर लगता है का सूक्ष्म अंकन कुषाण कालीन प्रतिमानों में मिलता है। कि ये सभी प्रतिमाएं एक ही काल की है और उस काल उपयुक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं । की हैं, जब मूर्तिकला का पर्याप्त विकास हो चुका था। कि जहां सम्राट सम्प्रति ने स्तम्भ निर्मित कराया और किले के भूगर्भ से इतनी प्रतिमाओं के मिलने से जहाँ प्राचीन जैन मन्दिर था, वहीं प्राचीन वट वृक्ष था। अवश्य ही निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते है :- वहीं भगवान के दोनों कल्याणक मनाये गये । और त्रिवेणी १- अत्यन्त प्राचीन काल में इस स्थान पर जैन संगम का निकटवर्ती प्रदेश- जहाँ किला खडा हुमा है जैन मन्दिर था। यह मन्दिर भगवान के दीक्षा और केवल तीर्थ क्षेत्र था। ज्ञान कल्याणकों के रूप में स्थान पर उनकी स्मृति में बना राजनैतिक इतिवत्त-प्रयाग प्राचीन काल में काफी था। जैन जनता में तीर्थ क्षेत्र के रूप में मान्य रहा और समय तक कौशल राज्य के अन्तर्गत रहा। पश्चात् यह जैन लोग तीर्थ-यात्रा के लिए यहाँ प्राते रहे । किन्तु वाद पाटिलपुत्र साम्राज्य का एक अग बन गया। सम्भवतः में किस काल में इस मन्दिर का विनाश हो गया या किया राजनैतिक इकाई के रूप मे प्रयाग का स्वतन्त्र अस्तित्व गया यह कहना कठिन है। कभी नहीं रहा, किन्तु शासन की सुविधा के दृष्टिकोण से २-प्राचीन काल में तीर्थंकर प्रतिमाश्री के साथ इसका महत्व अवश्य रहा है। शाहशाह अकबर ने अपने शासन देवताओं की मूर्ति बनाने का भी रिवाज था और राज्य को बारह सूत्रों में विभाजित किया था। शासन उनकी मान्यता भी करते थे। की दृष्टि से उसने सगम पर एक मजबूत किला भी बन३–मतियों के पाठ-मल में लेख अंकित करने की वाया। वह वहाँ बहुत समय तक रहा भी और उसी ने प्रथा कुषाण काल मे निश्चित रूप से प्रचलित हो गई थी। प्रयाग का नाम बदलकर इलाहाबाद कर दिया। साधारण अपवादों को छोड़कर मतियो पर लेख अंकित हिन्दू तीर्थ-हिन्दू भी प्रयाग को अपना तीर्थ मानते किये जाने लगे थे। कुषाण काल मूर्ति-कला के विकास है। त्रिवेणी सगम मे स्नान करने को वे बडा पुण्यप्रद की दृष्टि से स्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल की मानते है। हर छह वर्ष पीछे अर्ध कुम्भ और बारह वर्ष मूर्तियां पर्याप्त विकसित अवस्था में पाई जाती हैं। अग- पीछे कुम्भ होता है। उस समय लाखों यात्री यहा स्नान सौष्ठव, केशविन्यास और शरीर के उभारो मे रेखाओं करने आते है। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का प्रनिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे । ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याथियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'भनेकान्त' - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डार के सेन परम्परा के लेख रामवल्लभ सोमाणी खण्डार सवाईमाधोपुर के पास है। यहाँ के दुर्ग के १२३० तक जीवित थे। इनकी वंशावली इस प्रकार दी पास चट्टान में ५ शिलालेख है। इनमे से एक वि० सं० जा सकती है :१२३० और शेष लेख १५वीं और १६वी शताब्दी के है। सागरसेन इन लेखों को ढूंढ़ने का श्रेय डा. रामचन्द्र राय को है। जयपुर के पास झामडोली ग्राम से वि० सं० १२१२ का मुझे जो शिलालेख मिला था उसे मैंने महावीर जयन्ति ब्रह्मसेन छत्रसेन प्रबरसेन कुमारसेन स्मारिका १६७१ के पृष्ठ सं० ७७-७८ पर प्रकाशित (१२१२) (१२१२ से १२३० (१२१२ (वि० सं० करवाया है और इसका मूल भाग अनेकान्त वर्ष २४... १२३० वि०) वि०) १२३०) अंक १ पृ० ३७ पर भी प्रकाशित हुआ है। इन लेखों से पता चलता है कि सेन परम्परा के खण्डहर के वि० सं० १२३० के २ पंक्तियों के लेख साधुओं का कार्य क्षेत्र जयपुर के आसपास १२वीं शताब्दी मे सागरसेन, कुमारसेन और छत्रसेन के नाम है। यहाँ के पूर्व से था। किशनगढ़ के पास पराई नामक ग्राम से पहाड़ी को काट कर जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं बनी हुई नैषिधकारों के लेखों में सेन परम्परा के साधुनों के नाम हैं। इस १२३० वि० के लेख को मैं महत्वपूर्ण मानता है जो १०वी शताब्दी मे उस क्षेत्र मे विचरण करते थे। हूँ । इसका सुपाट्य अंश इस प्रकार है : कोटा, संग्रहालय में बड़ी संख्या में जन प्रतिमाएं संग्रहीत १-ॐ श्री मूलसघे परमानन्दाद्याचार्य श्री सागर. है। इनमें कुछ लेख मुक्त भी हैं। इनमें सम्भवतः सेन सेनस्य शिष्यस्यां। परम्परा के लेख भी थे। इसके अध्ययन के बाद ही इस २-कुमारसेन छत्रसेन स्या कारित देव-स्थानं । पर विस्तार से लिखा जा सकता है। मटरू में एक सं० १२३०। विशालकाय जैन तीर्थकर की बैठी हुई प्रतिमा है जो अब इस लेख से कुमारसेन और छत्रसेन की तिथि वि० तक खुले में पड़ी है। इस क्षेत्र में और भी प्रतिमाये सं० १२३० स्पष्ट हो गई है। वि० सं० १२१२ के झाम- विद्यमान है। डोली जयपर के लेख मे पागे का प्राधा भाग बहुत ही खंडहर से प्राप्त अन्य लेखों में स. १५६८ क ३ बुरी तरह से घिस जाने से अस्पष्ट हो गया है। इसमे लेख है । इनमें से सलहदी के राज्य मे अग्रवाल जाति के जो साधुओं का वर्णन है वह इस प्रकार है :- श्रेष्ठियों द्वारा निर्माण कार्य का उल्लेख है। वि. स. ___ "प्राचार्य श्री भट्टारक: सागरसेन । तस्यशिष्य मय १५९४ का एक अन्य लेख और है इसमें मानसिंह तोमर मण्डलाचार्य धुर्य ब्रह्म (सेन).........वा श्री छत्रसेन देव के पूत्र विक्रमादित्य के राज्य का उल्लेख है। पुष्करगण पादार (?) तस्य धर्मभ्राता पंडित अम्बरसेन तस्य भ्राता के सेन परम्परा के साधुनों का उल्लेख है। लेख को श्री............सर्व संघ सेनाम्नाय प्रणमति नित्यं ।" ३ पंक्ति में अश्वसेन ४थी में विक्रमसेन तथा संघसेन छत्रसेन नामक एक साधु का उल्लेख अर्थणा के वि० व ५वीं पक्ति में विमलकीति मादि के नाम हैं। झामस० ११६५ के लेख में है किन्त निस्संदेह ये छत्रसेन कोई डोली से प्राप्त १२वीं शताब्दी के एक अन्य लेख में जो भिन्न रहे ोंगे। अब खण्डहर के वि० सं० के लेख के ६ पक्तियों की है जिसकी ६ पंक्ति में पुष्करगण के वाद यह स्थिति स्पष्ट हो गई है कि छत्रसेन वि० सं० लेख है । सन Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य प्रदेश में "काकागंज" का जैन पुरातत्व कस्तूरचन्द्र 'सुमन' एम. ए. भारतीय इतिहास, संस्कृति, कला एवं पुरातात्विक (६) मन जज्ञ करता दुतिय पुत्र श्री सिघं दिमसामग्री में मध्यप्रदेश का एक विशिष्ट स्थान रहा है। (१०) न सागरमये (ध्ये) गज काकाको, राज्य थी प्र इस प्रदेश में जहाँ वादा और बोद्ध सस्कृतियों को अपने (११) गरेज बहादुरको सुभ (शुभ) सवत् मगल विकास करने के अवसर उपलब्ध हए हे, जैन गस्कृति भी ददात् (तु)। हो मा तानिमित तीसरी लिपि:-बस अभिलेख की लिपि प्राचीन नागरी है। मध्यप्रदेश में बुलाए गोलापूर्व जैनो का भण्डार है। अभिलेख में श के स्थान में स का उप है। काकागज में नितिन मन्दिर इमो ग्राम्नाय के गया है। भाषा में कहीं-कही विकृत रूप दिखाई देते है । लोगो द्वारा बनवाया ना था। यह पार वर्तमान में काकागंज .-इस नाम से ऐसा ज्ञात होता है कि मध्यप्रदेश के सागर शहर म पु मेनगा हुया है। प्राचीन काल में यहां किसी धनिक का निवास था । मन्दिर के प्रवेश द्वार पर ११ पतियो का सस्कृत भाषा वे अपने क्षेत्र के सम्माननीय व्यक्ति भी रहे है । उनको म अकित एक अभिनयको उपलब्ध है, जिमि बनाया सम्मान देने के लिए सभवतः लोग काका कहकर पुकारले गया है कि मूलसघ म बलात्कारगण-मरस्वतीगच्छ कुद- थे । गज शब्द के विभिन्न अर्थों में 'खजाना' अर्थ' भी कुन्दाचार्याम्नाय के गोलापूर्व जाति के अन्तर्गत सिंघई एक है, जिससे ऐसा ज्ञात होता है कि यह स्थान उनका घासीराम हुए है । वे बनौनया वन के थे। उनके वश में सभवत: खजाने के रूप में रहा है। और इसी कारण इसे श्रो दिमन द्वारा बनाया गया है ---संवत् १६११ के कावागज के नाम से कालान्तर में संभवतः सम्बोधित फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष में चर्वशी बुधवार के दिन किया जाने लगा था। वर्तमान में प्रचलित काकागज इम मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई गई थी। अभिाख मे यह नाम काकाकैगज का बिगड़ा रूप ही दिखाई देता है। भी बताया गया है कि उस समय अग्रेज बहादुर का मूतिलेख वहाँ राज्य था। अन्त में मंगल कामना की गयी है। इस शिखर युक्त मन्दिर मे दो वेदिकाए है . प्रथम काकागज मन्दिर प्रभिलेम्प निम्न प्रकार है :- वेदी पर पाच मतियां दिगजमान है । इनमें दोनिमा प्रो (१) गवत् १९११ फाल्गुन मासे मु (शु) भे मु पर लेख भी अकित है। (शु) क्ल पक्ष (क्षे) मुतिलेख क्रमाक (१) प्रादिनाथ प्रतिमा- लग ग (२) १४ वुधवारारे नादिन पता पतिष्ठ (प्रतिमा २॥ फुट ऊचाई मे सफेद संगमर्मर पापाण से निर्मित प्रतिष्ठा (कृता) शाती पद्मासन मुद्रा मे वृषभ चिन्ह से युक्त एक सौम्य प्रादिनाथ (३) क कृत श्री पूनमधे वलात्कारगणे सग्सु(स्वती तीर्थकर की प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा मन्दिर (४) ...(गच्छे कुद) कुदानाम्निाय वैरया गोत्र.य निर्माता दिमन के बड़े भाई सिंघई चिमन द्वारा प्रतिष्ठित (५) क व श्री गोलापूर्वक वनीला (वनौनया) श्री कराई गई थी । प्रतिष्ठा काल वही मन्दिर प्रतिष्ठा का सिधं (घई) निर्देशित किया गया है । लेख तीन पक्तियों मे सस्कृत (६) घामाराम तस्य पुत्र दोय २ जेष्ट पुत्र लुषर भाषा मे नागरी लिपि से अंकित किया गया है। (७) दुतिय पुत्र मोनीगम माया वपता जेष्ट पुत्र लेख का पूरा पाठ निम्न प्रकार है(८) मायो मुना तस्य पुत्र दोय २ धी सिधै चि (१) संवत् १९११ क फागुन मासे सु (शु) भे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य प्रवेश में काकागंज" का जैन पुरातत्त्व ८५ सुक्ल (शक्ल) पक्षे (चिन्ह) पारस १२ बुधवासरे तादिन इस लेख से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर मे दिर मेंपतिष्टकं (प्रतिष्ठापितं) श्री मान दोनो वेदियों पर क्रमश प्रादिनाथ एव चन्द्रप्रभ प्रति. (२) सवाई सिधै चिमनलाल जू वैक वनीनहा माएं सिंघई चिमनलाल के द्वारा एक ही समय प्रतिष्ठित श्रीमून सधे बलात्कारगणे सर (सु) तीगक्षे च्छे) कराई गयी थी । मति लेखों से मन्दिर के द्वार पर अकित कुदकुद प्राचार्य लेख की तिथि चतुर्दशी न होकर द्वादशी ही ज्ञात होती है (३) प्राम्नाय मुकाम सागर काकावंगंज । क्योकि दिन दोनो का एक है। दिवसोल्लेख से यह कथन गंज A mina, (2) A Trea 'sury A (3) : ठीक प्रतीत होता है। हो सकता है बीघ्रता में मने हो A Cow-house, (4) A mart a place where १२ को को १४ अंक पढ लिया हो। प्रतिसय :- गभीरिया निवासी श्री दुलीचन्द्र जी grain is stored for sale. श्री प्राप्टे जी; सस्कृत अंग्रेजी शब्द कोष १६५५ । नाहर बी० ए० सागर से ऐसा ज्ञात हमा है कि इस मदिर ई० पृ० १७८ । की व्यवस्था को देखते हुए जैन श्रावको ने प्रादिनाथ प्रतिमा को यहाँ से स्थानान्तरित करना चाहा था किन्तु मूर्तिलेख क्रमांक २-पार्श्वनाथ प्रतिमा सप्त फणावली से युक्त लगभग ११' ऊंची सफेद सम- उक्त प्रतिमा को जैसे ही उठाने का प्रयास किया जाता प्रतिमा से पसीने के कण निकलने लगते थे। उक्त प्रतिमर्मर पाषाण से निर्मित यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विरामान है। यह प्रतिमा लोकधन मूलधन नामा च. शय के कारण तत्पश्चात् प्रतिमा को स्थानाrafia ी रिया वश के श्रावकों द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई थी। किया गया। प्रतिमा के पासन पर मूल लेख निम्न प्रकार कित शक्ति सम्भावनायें-उक्त मन्दिर की व्यवस्था को देखते हुए, सुन्यवस्थित व्यवस्था हेतु मेरे निम्न विचार है, जिन (१) संवत् १९११ के फाल्गुन मासे सु. (a) भे पर प्राशा है सागर समाज विचार नरगी। nana (चिन्द) सु (श) क्ल पक्षे वारस १२ बुधवा- मन्दिर के निकटवर्ती स्थान को व्यवस्थित बना सरे ता दिन जाय। उसमें २-३ कमरे निकाल दियं जावं। माना (२) प्रतिष्ठाक लोक धन स्री मूलधन चदरिया श्री व्यवस्था हा। इसी स्थान पर उदासीन प्राश्रम कवतियों मूलसघे बलात्कारगणे सरस (स्व) ती से रहने के लिए निवेदन किया जाये। उनके रहने से (३) गक्ष (च्छे) कुदकुदाम्नाय....... पूजनादि व्यवस्था सुन्दर बन जावेगी। एक-दो कमरे यदि मूर्ति लेख क्रमांक ३-चन्द्रप्रभ प्रतिमा यात्रियो के लिए रहें तो बाहरी लोग यही पाकर ठहरन द्वितीय वेदी पर सफेद संगमर्मर पाषाण से सिमित से मन्दिर को भी कुछ लाभ मिलता रहेगा। इस गांति पद्मासन मुद्रा में लगभग १३ फुट ऊंचाई में चन्द्र चिन्ह से मन्दिर को जीर्ण स्थिति सुधरने में देर न लगेगी। युक्त शान्त मुद्रा मे यह प्रतिमा स्थित है। प्रतिमा के अभी यहाँ एक घर ही केवल जैन श्रावक का है। आसन पर तीन पंक्तियो का संस्कृत भाषा मे नागरी लिपि यदि बतियो का यहाँ निवास हो जावेगा तो थावकों का में निम्न लेख उपलब्ध है : पावागमन भी बढ़ जावेगा । सुधार के लिए खर्च प्रवक्ष्य (१) संवत् १९११ के फागुन मासे (चिन्ह) सु (२) है जिसके लिए श्रीमान दानवीरों से मेरा नम्र निवेदन है भे सु (पु) क्ल पक्षे १२ बुधवासरे कि वे इस मन्दिर के जीर्णोद्धार हेतु दान देकर पुण्यार्जन (२) तादिन पतिकं ? सागर काकको (चिन्ह) गंज करे। प्राशा है मन्दिर की समुचित व्यवस्था हेतु सागर सिंध चिमनलाल...............। समाज तो अवश्य ही विचार करेगी। परन्तु अन्य जैन (३)...श्री मूलसंधे बलात्कारगणे सरस (सु) ती दानवीर भी यथाशमित मार्थिक सहयोग देकर अपनी जन गछे (गच्छे )...............। संस्कृति की सुरक्षा कर कृतार्थ करेंगे। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगिर या राजगृह परमानन्द जैन शास्त्री राजगिरि या राजगृह एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है, जो पटना से लगभग ६० मील पूर्व में स्थित है । इसे गिरिव्रज भी कहते हैं। रामायण काल में इसे गिरिव्रज कहा जाता था, और महाभारत काल में भी यह गिरि व्रज जरासंघ की राजधानी था। यह पर्वतों के मध्य में बसा हुआ था । राजगृह को शिशुनाग वंश की राजधानी वनने का सौभाग्य मिला है। इसे पचशैलपुर और कुशाग्रनगर' भी कहा जाता था। भगवान महावीर और बुद्ध ने यहाँ अनेक वर्षावास बिताये थे । यहाँ बौद्धों भोर जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। बौद्धों, जंनियों श्रीर हिन्दुनों के अनेक मन्दिर बने हुए है । बोद्ध मन्दिरों में वर्मा, जापान और थाईलैण्ड के मन्दिर प्रसिद्ध हैं । यहाँ के गृद्धकूट पर्वत पर बुद्ध अपना वर्षा काल बिताते थे । और अपना उपदेश भी देते थे । इस कारण यह उनका भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । यह जैन श्रमणों की केवल तपोभूमि ही नही है किन्तु निर्वाण भूमि भी है । भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम इन्द्रभूति, सुधर्मस्वामी मौर जंबूस्वामी प्रादि अनेक मुनि पुंगवों का निर्वाणस्थल १. एन्शियेन्ट जागरफी ग्राफ इंडिया बाई कनिंघम पृ० ५३० २. पंचशैलपुरे रम्ये विउले पव्वदुत्तमे । णाणा- दुम समाइणे देव-दानव वदिदे || घवला० पु. १ पृ० ६१ सुर रमणहरणे गुणणामे पचशैलणयरम्मि || तिलो० प० १-६५ ३ राजगृह को कुशाग्रनगर भी कहते थे, क्योंकि वहां के पहाड़ कुश समूह से वेष्टित थे। विमलसूरि ने पउमचरिउ में कुशाग्रनगर रूप में ही उसका उल्लेख किया है- 'कुसग्गनयरं समणुपत्तो - पउमचरिउ २, ६८ है । राजगिर के पंच पहाड़ों पर जैनियों के अनेक मन्दिर मोजूद हैं। इस कारण जैनियों का यह प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । विपुलगिरि, ऋषिगिरि और वैभार प्रादि पर्वतों पर सहस्रों जैन श्रमणों ने कठोर तपश्चरण किया है । विपुल गिरि पर तो अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन अभिजितनक्षत्र में सूर्योदय समय प्रातःकाल भगवान महावीर का सबसे पहला धर्मोपदेश हुमा था - घर्मतीर्थंका प्रवर्तन हुआ था – संसार के समस्त जीवों को कल्याण का मार्ग मिला था और पशुओं को भी अभयदान मिला था । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा महावीर के शासन की जन्म तिथि है, जो वर्ष का पहला महीना, पहला पक्ष और प्रथम दिन बतलाया गया है । कनिंघम साहब ने लिखा है कि- 'प्राचीन राजगृह पांचों पर्वतों के मध्य में वर्तमान था' काशीप्रसाद जायस वाल ने 'मनियारमठ' वाली पाषाण मूर्ति का लेख पढ़कर बतलाया था कि यह लेख पहली शताब्दी का है और उसमें सम्राट् श्रेणिक तथा विपुलाचल का उल्लेख है' । किन्तु वर्तमान राजगिरि पुराने राजगिर से कुछ हट कर ४. सावण बहुले पाडिव रुद्दमुहते सुहोदए रविणो । अभिजिस्स पढम जोए जुगस्स प्रादी इमस्स पुढं ॥ तिलो० प० १-७० सावण बहुल पडिवदे रुद्द मुहुत्ते सुहोदए रविणो । अभिजिस्स पढम जोए तत्य जुगादी मुणेयब्वो । धत्र० १ पृ० ६३ ५. वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले । पाडवद-पुण्य - दिवसे तित्त्युत्पत्ती दु श्रभिजम्हि | धव० पु. १ पृ० ६३ वासस्स पढम मासे सावण णामम्मि बहुलपडियाये । प्रभिजीणक्खत्तम्मिय उपपत्ती धम्म तिस्स्थस || तिलो० प० १-६६ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगिर या राजगृह बसा है । पुन्नाट संघी जिनमेनाचार्य के हरिवंश पुराण में अनुष्ठान कर रहे थे। तब बुद्ध ने उनसे पूछा किभी इसका नाम 'पंच शैलपुर' दिया है। यह मुनिसुव्रत 'पापलोग इतना कठोर तपश्चरण क्यों कर रहे हो? तब भगवान के जन्म से पवित्र है। और शत्रु सेनामों के उन्होंने कहा कि भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी लिए दुर्गम है। ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलाचल, हैं-वे सब जानते देखते हैं। उन्होंने यह भी कहा किबलाहक, जिसे छिन्न पर्वत भी कहा गया है और पांचवां 'तुमने पहले जो पाप किये हैं, उनकी कठोर तपश्चरण से 'पाण्ड' है, इन पांचों पर्वतों के कारण इसे पंच शैलपुर निर्जरा कर दो; क्योंकि मन-वचन-बाय को रोक देने से कहा जाता था । बौद्ध ग्रंथो में इनके नाम वेपुल्ल, बेभार, पाप बन्ध नहीं होता, और तप से पुरातन पापों की निर्जरा पाण्डव, इसिगिलि (ऋषिगिरि) और गिउझकूट नाम होने से कर्म क्षय होता है और कर्म क्षय से दुःखों का उल्लिखित मिलते हैं। क्षय होता है, उससे वेदना का प्रभाव होता है। तब ऋषिगिरि-पूर्व दिशा में चौकोर प्राकार को लिए बुद्ध कहते है कि यह बात मुझे अच्छी लगती है और हए है। पूर्व काल में इस पर्वत पर अनेक ऋषिगण कठोर मेरे मन को ठीक मालम होती है। इसके चारों मोर तपश्चरण करते थे, और तपश्चरण से अान्तरिक कर्म- झरने निकलते हैं। शत्रुओं का क्षय करने के योग्य प्रात्म-शक्ति का विकास इस पर्वत पर इस समय दो मन्दिर है। एक प्राचीन करते थे। बौद्धों के मज्झिमनिकाय नामक ग्रंथ से प्रकट दूसरा नवीन । प्राचीन मन्दिर में श्यामवर्ण महावीर है कि-'इस पर्वत की काल शिला पर कुछ निर्ग्रन्थ स्वामी की चरण पादुका है। और नवीन मन्दिर श्रीमती (दिगम्बर साधु) प्रतापन योग द्वारा प्रात्म-साधना का पंडिता, चन्दाबाई जी मारा का बनवाया हुमा है, जिसमें १. 'पंचशैलपुरं पुतं मुनि सुव्रत जन्मना । २. "एके मिदाहं महानाम समये राजगृहे विहरामि यत्परम्वजिनीं दुर्ग पंचशंलपरिष्कृतसू ।। ५२ गिज्झकूटे पन्वते । ते खोपन समयेन संबहला निग्गंठा ऋषिपूर्वागिरिस्तत्र चतुरस्रः स निर्भरः । इसिगिलियकालसिलायं उन्भत्थका होति प्रासन दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभं भूषयत्यलम् ।।५३ परिक्खिवत्ता, प्रत्येक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृति राश्रितः। वेदना वेरयति । अथ खोस महानाम सायण्ह समयं दक्षिणा परदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ।।५४ पटिसल्लाण बुड्डितो येन इसिगिलि पस्सयकालसिला सज्य चापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । -येन ते निग्गंठा तेन उपसंकमिम उपसंकमिता ते शोभते पाण्डको वृत्तः पूर्वोत्तर दिगन्तरे ॥५५ निग्गंठे एतदबोचायः। किन्तु तुम्हें पावसो निग्गंठा फल-पुष्प-भरानम्रलतापादपशोभिताः । उन्भट्टका प्रासन पट्टिक्खिता, प्रोक्कमिका दुक्खा पतन्निर्भरसंघात हारिणो गिरयस्तु ते ॥५६ तिप्पा कटुका वेदना वेदिय याति, एवं बुत्ते महा -हरिवंशपुराण-३ नाम ते निग्गंठा मं एतदवोचं, निग्गंठो प्रावुसी नाठ'ऋषिगिरि रेन्द्राशायां चतुरस्त्रोयाम्यदिशि च वैभारः। पुत्तो सवण्णु सम्बदस्सावीअपरिसेसं ज्ञान दस्सनं विपुलगिरि नैऋत्या मुभौ त्रिकोणो स्थिती तत्र ॥ पक्खु पट्टितंति । सो एवमाह-पत्थि खोवो निग्गंठा धनुराकारश्छिन्नो वारुणवायवसौम्यदिक्षु ततः ॥ पुचे पावं कम्गं कतं,तं इमाय कटुकाम दुक्करि कारिवृत्ताकृतिरंशान्यां पांडु सर्वकुसाग्रवृताः'। कायनिज्जरेय यं पतेत्य एतारिह कार्यनसंवुत्ता; -घवला० पू० १, पृ० ६२ मनसासंधुत्ता, तं भापति पापस्स कम्मस्स प्रकारण 'चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो।। प्रायति मनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया, दुक्खगरिदि दिसाए विउलो दोणितिकोणट्टिदायारा॥ क्खयो दुक्खखया वेदनाक्खयो वेदनाक्खया सवं चावसरिच्छो छिण्णो वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु । दुक्खं निज्जरणं भविस्सति । तं चपन म्हाक ईसाणाए पडू वण्णासवे कुसग्गपरियरणा ।।' रुच्चति चेव खमति च तेन च प्रम्हा पचि मनाति ।" -तिलो०१०१,६६,६७ -मज्झिमनिकाय १९२-९३ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , वर्ष २४, कि० २ , बनेकान्त मुनिबनस्वामी की विशाल प्रतिमा विराजमान है। मूति महाबीर भगवान की भी है, जिसे लोग पाठवीं इसे लोग दूसरा पर्वत 'रत्नगिरि' के नाम से पुकारते है। शताब्दी की बतलाते है। प्रन्तिम मन्दिर की बेदिका में परन्त इसका प्राचीन नाम ऋषिगिरि ही जान पड़ता है। भी महावीर की श्वेतवर्ण प्रतिमा विराजमान है । बगल इस द्वितीय पर्वत पर एक मन्दिर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मे एक श्यामवर्ण मुनिसुव्रत प्रतिमा मोर दूसरी पोर उन्हीं भी है जिसमे अभी शान्तिनाथ, वासु पूज्य और पार्श्वनाथ के चरण है। विपुल गिरि के नीचे छह कुण्ड है सीता कुण्ड, की चरण पादुकाए प्रतिष्ठित हैं। सूरजकुण्ड, रामकुण्ड, गणेशकुण्ड, चन्द्रमानुण्ड और श्रृंग२. भारगिरि-यह तिकोने आकार को लिए हुए ऋषि कुण्ड । इस पर्वत पर पहला और अन्तिम मन्दिर दक्षिण दिशा में विद्यमान है, अनेक ऋषि पुगवों की श्वेताम्बर गम्प्रदाय का है। तपस्या से यह भी पवित्र हो चुका है। सातवीं शताब्दी निपुगिरि का वैशिष्ट-इस पर्वत का खास विशेगे चीनी यात्री हगसाग पाया था, उसने लिखा है कि पता यह है कि यहा जैनियों के प्रतिम तीर्थकर भगवान - 'यहां पर बहुत से निम्रन्थ साधु देये गये ।' इससे स्पष्ट महावीर को केवल ज्ञान होने के पश्चात उनकी गलसे है कि उस काल में भी वहाँ साधु तपश्चरण करते थे। पहली धर्म देशना श्रावण कृष्णा प्रतिपदा में दिन अभि इस पर एक ही मन्दिर है, जिसमें एक चौबीसी प्रतिमा, जित नक्षत्र में हुई थी। धर्मतीर्थ का प्रवनन हुआ था। महावीर स्वामी, नेमिनाथ और मुनि सुव्रत की श्याम ससार के समस्त जीवों के लिए हितमार्ग का प्रदर्शन हुप्रा वर्ण पाषाण की प्राचीन प्रतिमाएं है। नेमिनाथ के चरण- था--सर्वोदय तीर्थ की पावन धारा प्रवाहित हुई थी। चिन्ह भी है। सातवीं शताब्दी तक वैभार गिरि पर जैन महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्र भूति, सुघम स्वामी और स्तूप विद्यमान था, और गुप्तकालीन कई जैन मूर्तियां भी अग्निस केवली जंब स्वामी का निर्वाण इसी विपुल गिरि थी । सोनभद्र गुफा में यद्यपि गुप्तकालीन लेख है पर इस पर हम' । पोर वैशाख मुनि को कवल ज्ञान की गुफा का निर्माण मौर्यकाल के जैन राजाओं ने किया था। प्राप्ति हुई थी। जीव वर कुमार ने भी विपुलाचल से इस पर जो मन्दिर बने हुए है, उनके ऊपर का भाग तो मोक्ष प्राप्त किया था। गौर भी अनेक साधुनों ने तपप्राधूनिक है किन्तु उनकी चौकी प्राचीन है। जनता इसे चरण द्वारा ग्रात्म-सिद्धि प्राप्ति की थी। महावीर की पावधां पर्वत मानती है। इस पर्वत पर श्वेताम्बर सम्प्र- इस सभा का प्रधान श्रोता मगध नरेश बिम्बसार या दाय के तीन श्वेताम्बरीय मन्दिर है जिनमें एक मन्दिर श्रेणिक था, जिमने बौद्ध धर्म का परित्याग कर महावीर धन्नाशालिभद्र का भी कहलाता है। के पादमूल में क्षाका सम्यक्त्व प्राप्त किया था । इतना विपनगिरि-यह दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य ही नहीं किन्तु श्रेणिकः के पुत्र अभयकुमार, मंघकुमार में गव तक स्थित है, और त्रिकोणाकार है। इस पर और वारिषेण ने यही प्रवृज्या (दीक्षा) ग्रहण की थी। वनपचार दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। नीचे छोटे माथ ही श्रेणिक के सेनापति श्रेष्ठी पुत्र जम्बकुमार ने मन्दिर में दयामवर्ण कमल के ऊपर भगवान महावार की - १. तपो मामे मिते पक्षे सप्तम्यां च शुभे दिने । नरणादुका है। मन्दिर भी पुराना है। मध्यवाले मन्दिर निर्वाणं प्राप सौधर्मों विपुलाचलमस्तकात् ।। ग चन्द्रभ की श्वेतवर्णवाली मूर्ति विराजमान है । वेदी . २. विपुलादि गिरी स्थित्वा ध्यानेनायं मुनीश्वरः । के नीचे दोनों ओर हाथी उत्कीर्ण हैं, बीच में एक वृक्ष है। निहत्यघाति कर्माणि केवलज्ञान माप्तवान ।। बगल मे एक अोर सं० १५४८ की प्रतिष्ठित पाठवें विदित्वाऽऽसन कम्पेन वैशाखस्य मुनेरिदम् । तीर्थका की मूर्ति है। यहां श्यामवर्ण की एक प्राचीन झेवलज्ञानमुत्पन्नं सहसाऽगुः सुरेश्वराः ।। 1. Indian Historical quarterly Vol. XXV. -हरिषेण कथाकोष ८, २१, २२ P. 205-210. ३. विपुलाद्रोहताशेषकर्माशर्मान मेष्यति । 2. Journal of the Bihar and Orissa Rea Soc. इष्टाष्टगुणसम्पूर्णो निष्ठितात्मा निरञ्जनः ।। Vol. XXII June 1935. -उत्तरपुराण ७५, ६८७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगिर या राजव्ह st केरल नरेश को युद्ध मे विजित करके मगधराज की श्री कि "प्राचीन राजगिरि उक्त पांचों पर्वतों के मध्य में बसा वृद्धि की, उसी जम्ब कुमार ने एक ही रात्रि मे विवाहित हमा था।" इन पर्वतों के मध्य की घाटी में एक स्तूप के स्त्रियों को विजित कर महावीर सघ में जिन दीक्षा ग्रहण खडभाग मिलते है। अब वह इंटों का टीला मात्र है। कर तपश्चरण द्वारा कर्मशृखला को तोडकर केवलज्ञान लगभग २० फुट ऊचा होगा । उसके ऊपर एक छोटा-सा प्राप्त किया और जनता को धर्म मार्ग बतलाकर इसी जैन मन्दिर है, जो सन् १७८० का बना हुआ था, इसे विपुलगिरि से प्रात्म-सिद्धि को भी प्राप्त किया था। और 'मनियार मठ' कहते है : इसी मनियार मठ के पास एक भी भनेक महत्वपूर्ण कार्य इस पर्वत पर होते रहे है। पुराने कुएं को साफ करते समय तीन मूर्तियां प्राप्त हुई इससे इस पर्वत की पवित्रता और महत्ता का मूल्याकन थी। उनमे एक मूति मायादेवी की थी और दूसरी सप्तहो जाता है। इसे लोग पहला पर्वत मानते है। फण मडित दिगम्बर मति पार्श्वनाथ की प्राप्त हुई थी। बलाहक (छिन्न या स्वर्णगिरि)-यह पर्वत इन्द्र यहाँ जैनियों की दो गुफाएं हैं। एक सप्तपर्णी की पौर चनष के प्राकार का है और तीनों दिशामा को घर हुए जैन मन्दिर के नीचे है। दूसरी सोनभद्र गुफा । यह गुफा वैभारगिरि के उत्तर तरफ है। इस पर दो मन्दिर हैं। एक मन्दिर फीरोजपुर सोमभद्र गुफा पहली है । इस गुफा के भीतर जाने के निवासी लाला तुलसीराम ने बनवाया है । इस नये मंदिर द्वार के दाहिनी ओर एक शिलालेख दो पंक्तियों में मे शान्तिनाथ की श्यामवर्ण प्रतिमा विराजमान है, और तीसरी-चौथी शताब्दी का है। नेमिनाथ तथा प्रादिनाथ के चरण चिन्ह है। यहाँ एक निर्वाण लाभाय तपस्वियोग्ये शुभ गृहेऽहत्प्रतिमा प्रतिष्ठ। खड्गासन प्राचीन मूति भी है। पुराने मन्दिर में भगवान प्राचार्यरत्न मनि वैरदेवः विमक्तिए कारय दीर्घतेजः ।।" राजा महावीर के चरण चिन्ह है । यह मन्दिर छोटा-सा है, और एक छोटी सी मूर्ति किसी तीर्थर की उत्कीर्णित है। प्राचीन है। आजकल लोग इसे चौथा नवीन पर्वत कहते वैभारगिरि के नीचे सात झरने हैं-कुण्ड हैं । जिनके है । इस पर भी एक श्वेताम्बर मन्दिर है । नाम गंगा, यमुना, अनन्तऋषि, सप्तऋषि, ब्रह्मकुण्ड, पांडक-पांचवां पर्वत पाडु या पांडुक है जो गोला- कश्यप ऋषि, पास कुण्ड और मारकुण्ड । कार और पूर्व दिशा में स्थित है। यहाँ एक मन्दिर है, राजगिरि के नीचे दिगम्बर जैन धर्मशाला और दो जिसमें शान्तिनाथ और पाश्वनाथ की प्राचीन प्रतिमाएं मन्दिर हैं। जिनमें एक मन्दिर दिल्ली निवासी ला. और मादिनाथ के चरण चिन्ह विराजमान है। महावीर न्यादरमल धर्मदास जी ने एक लाख रुपये की लागत से स्वामी की एक खड़गासन प्राचीन मूर्ति भी है। कलकत्ता ६ फरवरी १९२५ में बनवाया है। इसमे पाँच वेदिकाएं निवासी सेठ रामवल्लभ रामेश्वर जी ने एक नये मन्दिर है। दूसरा मन्दिर गिरीडीह निवासी स्व० सेठ हजारीमल का भी निर्माण कराया है। इसे उदयगिरि के नाम से किशोरीलाल ने बनाया है, जिसकी प्रतिष्ठा सं० १८४१ पुकारते हैं। और गणना में इसे तीसरा पर्वत मानते हैं। माघ शुक्ला १३ है। इसकी बगल में पाश्र्वनाथ स्वामी यहाँ एक श्वेताम्बर मन्दिर है और स० १८१६ तथा सं० की स० १५४८ की जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित १८२३ में प्रतिष्ठित अभिनन्दन, सुमतिनाथ और पार्श्व दो मतियाँ विराजमान हैं। एक श्वेताम्बर मन्दिर पार नाथ के चरण स्थापित है। धर्मशाला है। बौद्ध मठ और हिन्दू मन्दिर भी है। इस मनियार मठ-राजा श्रेणिक ने राजगृह में विशाल- तरह राजगिरि जैन बौद्ध और हिन्दू तीनों का तीर्थ स्थान काय एक किला बनवाया था। जिसके निशान अब भी बन गया है । इस वन्दनीय तीर्थ स्थान से जनता का बड़ा मौजूद हैं और इसे मगध देश की राजधानी बनाया था। हितहमा है। मगधराज के समय राजगिर की जो शोभा उस समय इसका विस्तार बहुत विशाल था। तीर्थंकर थी वह उसके विनाश से जाती रही है। महावीर और महात्मा बुद्ध आदि के कारण इसका यश 1. Archaelogical Survey of India Vol. I सुदूर देशो में फैला हुआ था। कनिधम साहब ने लिखा है । (871) P. 25-26 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूक- साहित्य सेवी श्री पन्नालाल जी अग्रवाल श्री माईदयाल जैन, बी. ए. श्रानर्स बी. टी. साहित्य सेवा या सरस्वतीदेवी की पूजा के अनेक ढग और विभिन्न तरीके हैं। पुस्तक लेखन, प्रकाशन, पत्रपत्रिकाका सम्पादन तथा प्रकाशन और पुस्तकालय तथा संग्रहालय खोलना तो सर्वविदित है । साहित्यकारों तथा कवियों को राजाश्रय, पुरुस्कार तथा सहायता देना भी साहित्य सेवा है । साहित्यकारों के लिए सुविधाओं का प्रबन्ध करना और उसको साहित्यिक सामग्री भेंट करने से भी साहित्यकारों को बड़ी प्रासानी हो जाती है । साहित्यिक संस्थाओं के संचालन के लिए द्रव्य देना भी मावश्यक है । साहित्यकार समस्त संसार में प्रायः आर्थिक संकटों से घिरे रहते हैं, इसलिए उनके जीवन काल में उनकी अार्थिक कठिनाइयों से बचाने की बड़ी आवश्यकता है और यह काम साहित्यकारों के देहान्त के पश्चात् आदर सम्मान करने से कहीं अधिक जरूरी है । बड़े नामी साहित्यकारों के साथ-साथ छोटे या कम ख्याति प्राप्त स्थानीय लेखकों तथा कवियों को प्रोत्साहन देना और उनकी सहायता करना भी साहित्यिक परम्परा को जारी रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है. क्योकि जिस प्रकार सेना में सेनापतियों के अतिरिक्त सिपाही और दूसरे बीच के कप्तान इत्यादि होते है, इसी प्रकार देश की साहित्यिक सेवा केवल चन्द बड़े-बड़े साहित्यकार ही नहीं करते, वरन छोटे-छोटे सह- साहित्यकार तथा मध्यम श्रेणी के सैकड़ों कवि और लेखक भी सेवा करते है, जिनकी श्रावश्यकताएं भी बड़े-बड़े साहित्यकारों के समान हैं । यदि उनकी समुचित देखभाल न की जाय या उनको प्रोत्साहन न दिया जाय तो साहित्यकारों की परम्परा को हानि पहुँच सकती है । अच्छी-अच्छी पुस्तकों की बीसतीस प्रतियां मंगाकर पुस्तकालयों तथा विद्वानों को भेंट करने से भी साहित्य का प्रचार होता है और प्रकाशकों तथा लेखकों को लाभ होता है । बम्बई में स्वर्गीय प्रसिद्ध दानवीर सेठ माणिकचन्द्र जी अच्छे जैन ग्रन्थों को चार सो प्रतियाँ तक मंगाकर मन्दिरों तथा विद्वानों इत्यादि को भेंट कर दिया करते थे। इनके अतिरिक्त साहित्यसेवा के और भी ढंग हो सकते है । पर हमारे देश के साहित्योद्धार का एक और श्रावश्यक मार्ग भी है । यहाँ बहुत-सा प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य अभी हस्तलिखित है और शास्त्र भण्डारों में बन्द पड़ा है। ऐसे जैन शास्त्र भण्डार तो सैकड़ों की संख्या में है । हस्तलिखित होने के कारण एक ही ग्रंथ की कई प्रतियों में पाठ भेद भी है श्रौर लेखक की प्रशुद्धियाँ, लोप तथा प्रक्षेपन भी है । इसलिए किसी प्राचीन ग्रंथ को प्रकाशित करने से पहले यह आवश्यक है कि दस-पाँच स्थानों से उस ग्रंथ की अनेक प्रतियां इकट्ठी करके तुलना की जाय और शुद्ध पाठ की प्रेस कापी तैयार की जाय । शास्त्र भण्डारों का प्रबंध अच्छा न होने से सम्पादकों को अनेक प्रतियों का मिलना कठिन है । इसलिए भारत के प्राचीन साहित्य के उद्धार के लिए यह आवश्यक है, कि जहाँ-जहाँ अच्छे पुराने शास्त्र भण्डार है, वहाँ ऐसे उत्साही साहित्य-प्रेमी हों जो अपने यहाँ के प्राचीन ग्रंथों को प्रकाशन संस्थानो या योग्य संस्थाओं को आवश्यकतानुसार सुविधापूर्वक पहुँचा सकें, जिससे प्राचीन ग्रन्थ शुद्ध पाठ तथा अनुवाद के साथ प्रकाशित हो सके वरना अशुद्ध पाठ होने से व्यर्थ का अनर्थ होगा और लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होगी । इस लेख के द्वारा ऐसे ही एक साहित्य सेवी का परिar साहित्य जगत को कराया जा रहा है, जो ३०-३५ वर्ष से इस ढंग से सरस्वती की आराधना या साहित्यसेवा कर रहे है। बहुत प्राचीन ग्रंथों के उद्धार, अनुवाद और नवीन साहित्य की तैयारी में इन्होंने इस रूप से सहयोग दिया है। इसका कुछ व्यौरा आगे दिया जायगा । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक-साहित्य-सेवी श्री पन्नालाल जी अग्रवाल इनका नाम श्री पन्नालाल जी जैन है जो दिल्ली के रहने हिन्दी सेवी संसार, श्री अद्भुत शास्त्री द्वारा लिखित, वाले हैं। यद्यपि इनको अपनी शिक्षा बड़ी ऊंची नही है, (३) आज के हिन्दी-सेवी, हिन्दी ग्रंथ रत्नाकर बम्बई पर साहित्यकारों तथा विद्वानों के सत्संग का लाभ इनको द्वारा प्रकाशित, (४) अर्घ कथानक, आदि। युवावस्था से प्राप्त रहा है, इसलिए साहित्य-सेवा की भावना ६. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर द्वारा प्रकाशितइनमें काफी है। दिल्ली के दो-तीन प्राचीन जैन मन्दिरों (१) तिलोयपण्णत्ती के दो भाग, (२) कुन्द-कुन्द प्राभृत में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश और हिन्दी के अनेक विषयों संग्रह। के सहस्रों प्राचीन ग्रंथ, गुटके, पोथियां और स्त्रोत्र ७. जर्मन विद्वान एच. वी. ग्लासीनप्प द्वारा लिखित आदि हैं, जो हजार, डेढ़ हजार वर्ष तक के पुराने है। -डेर जैनिसमस । इन शास्त्र भण्डारों के पूरे उपयोग का सुदिन तो अभी ८. प्रयाग विश्वविद्यालय, हिन्दी परिषद द्वारा प्रकानहीं आया है, पर हाँ, इनकी देखभाल तथा रक्षा जिन शित-(१) हिन्दी का सर्वप्रथम प्रात्मचरित, अर्द्ध कथामहानुभावों के हाथों में है, वे काफी जागरूक, समझदार नक, (२) प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य । और साहित्यिक कर्तव्य का पालन करने वाले है। श्री ६. दिगम्बर जैन पुस्तकालय, सूरत द्वारा प्रकाशितपन्नालाल जी भी एक ऐसे ही योग्य व्यक्ति है। जो यहाँ १.आदि पुराण, २. चन्द्रप्रभपुरा, ३. चिदविलास, ४. इनके के शास्त्रों को जैन साहित्य के उद्धार कार्य में अभिरुचि अतिरिक्त प्रात्मावलोकन मौर्य साम्राज्य के जैनवीर, महर्षि रखने वाले किसी भी विद्वान या संस्था को चाहे वह शिवव्रतलाल जी लिखित जैनधर्म। इस लेख के लेखक भारत का हो या भारत से बाहर का, समय-समय पर द्वारा लिखित ज्योतिप्रसाद और श्री कामता प्रसाद जी आवश्यकतानुसार ग्रंथ भेजते रहते है। इनकी साहित्य द्वारा लिखित जैनतीर्थ और उनकी यात्रा इत्यादि की सेवा का क्षेत्र बड़ा विशाल है। अापके सहयोग से नीचे तैयारी में भी इन्होने सामग्री भेजकर सहायता की। निखे ग्रंथों के प्रकाशन मे सहायता मिली है : सरसरी तौर से और बाह्य रूप से देखने में ये सेवायें जैन १.बीर सेवा मन्दिर, सरसावा जिला सहारनपुर साहित्य की सेवा तक सीमित मालम होगी, पर इनमें द्वारा प्रकाशित, (१) अध्यात्मकमल मार्तण्ड, (२) पुरातन साम्प्रदायिकता का नाम तक भी नही। जैन वाक्य सूची, (३) आप्तपरीक्षा, (४) न्यायदीपिका, (५) बनारसी नाममाला, (६) विवाह क्षेत्र प्रकाश । श्री पन्नालालजी को स्वयं भी कुछ लिखने का शौक २. माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई है और उन्होने दिल्ली की जैन सस्थाएं नामक पुस्तिका लिखकर प्रकाशित की थी। मुद्रित जैन ग्रन्थों की एक द्वारा प्रकाशित-(१) वरांगचरित्र, (२) हरिवंशपुराण, (३) जम्बूस्वामीचरित, (४) प्रमाण प्रमेयकलिका। सूची भी उन्होने तैयार की है जो 'प्रकाशित जैन साहित्य' ३. भारतीय ज्ञानपीठ वनारस द्वारा प्रकाशित के नाम से प्रकाशित हो चुकी है। कभी-कभी प्रापके लेख (१) मदन पराजय, (२) महापुराण, (३) हिन्दी जैन भी अनेकान्त, वीरवाणी, जैनमित्र, जैन संदेश, जैन गजट, साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, (४) जैन जागरण के अग्र- वीर प्रादि में निकलते रहते हैं। दूत, (५) नत्त्वार्थवृत्ति, (६) वसुनन्दि श्रावकाचार, (७) जिस प्रकार श्रद्धेय बनारसीदासजी चतुर्वेदी के पास सवॉर्थसिद्धि, (८) उपासकाध्ययन । प्रसिद्ध साहित्यकारों के सहस्रों पत्र सुरक्षित हैं, उसी ४. अम्बादास चवरे दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, कारंजा प्रकार श्री पन्नालाल जी के पास भी पिछले पचास वर्ष द्वारा प्रकाशित-(१) पाहुड़ दोहा, (२) सावयधम्म के सैकड़ों पत्र उन जैन विद्वानों, लेखकों तथा सुधारकों दोहा। के हैं, जिन्होंने जैन समाज में नवजीवन का संचार किया मदास विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित-(१) वृहत है। इन पत्रों के प्रकाशन की बड़ी प्रावश्यकता है । अब अंग्रेजी सूची, श्री कालिदास कपूर द्वारा लिखित, (२) उनके प्रयत्न से तथा पूज्य मुनि विद्यानन्दजी की प्रेरणा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, वर्ष २४, कि० २ एवं सहयोग से वैरिस्टर चम्पतरायजी के पत्रों का सकलन तथा जीवनी मेरे द्वारा संकलित एवं लिखी जाकर तैयार हो गई है और अब वह शीघ्र प्रकाशित हो जायगी। उनके संग्रह किये हुए पत्रों का यह पहला संग्रह जैन साहित्य जगत में जा रहा है । आशा है भविष्य में इसी प्रकार के दूसरे सग्रह भी प्रकाशित हो जायंगे । साहित्यकारो को प्रेरणा करके काम लेने मे आप बड़े कुशल हैं। जिन दिनों श्राप जनमित्र मण्डल दिल्ली के मन्त्री थे, तब आपने महर्षि शिवव्रतलाल जी से "जैनधर्म" लिखाया था । और सुधारक बाबू सूरजभान जी वकील तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी से ट्रेक्ट और पुस्तकें लिखाई । पच्चीसों जैन लेखकों के परिचय मुझसे लिखाकर दिगम्बर जैन सूरत के साहित्यांक में प्रकाशित कराये । पिछले दिनों भारत सरकार के तत्वावधान में दिल्ली के लाल किले में सांस्कृतिक सम्मेलन हुआ था, उसकी साहित्यिक प्रदर्शनी मे श्री पन्नालालजी दिल्ली के जैन भण्डारों के कुछ अमूल्य प्राचीन ग्रन्थों और चित्रो को दिखा रहे थे । दिल्ली की कई साहित्यिक तथा शिक्षा सस्थाओं के आप उत्साही कार्यकर्ता रहे हैं और अपने कर्तव्यों को प्रनेकान्त बडी सलग्नता से निभाया पर जब आपने उनके कुछ दूसरे, अधिकारियों की पदलोलुपता और अनीति को देखा, तो उस काम से श्रापने हाथ खींच लिया । श्री पन्नालाल जी अत्यन्त मिलनसार, निहायत सादे, प्रेमी, धर्म परायण और सरल स्वभाव के है । 'गुणिषु प्रमोदं ' आपका प्रादर्श वाक्य है । युवावस्था मे पदार्पण ही इन पंक्तियों के लेखक का परिचय आपसे हुआ था, और तब से वह बराबर बढ़ता चला जा रहा है। आपका जन्म माघ शुक्ला द्वादशी सम्वत् १९६० को हुआ था । भ्रापके पिता लाला भगवानदासजी थे श्रीर श्रापका जन्म नसीराबाद छावनी में हुआ था पर बचपन से ही आप दिल्ली आ गये थे । श्रापको स्वास्थ्य, योग्य पुत्र, श्राज्ञाकारी धर्मपत्नी और श्रार्थिक निश्चितता आदि सभी सुख प्राप्त है। आयु मे मुझसे दो वर्ष छोटे है । इसलिए मैं आपकी दीर्घायु की शुभकामना करता हुआ यही चाहता हूँ कि स्वतन्त्र भारत में प्राचीन साहित्य के उद्धार और नवीन साहित्य के निर्माण का जो महान कार्य हो रहा है, उसमे श्राप पूर्ववत् श्रधिक से अधिक सहयोग दे और दूसरे नवयुवक श्रापकी साहित्य-सेवा के इस ढंग को अपनावे । विद्वानो को भी श्री पन्नालालजी की सेवाओ का खूब उपयोग करना चाहिए । विश्वमैत्री - दिवस भारत जैन महामण्डल की सूचनानुसार कार्यक्रम १२ सितम्बर ७१ को मनावें प्रिय महोदय ! विश्वमंत्री दिवस ५ सितम्बर ७१ को मनाने के लिए मण्डल की ओर से आपको कार्यक्रम की रूपरेखा सहित एक परिपत्र भेजा था, मिला होगा । कई शाखा सभात्रों एवं कार्यकर्ताओं के सुझाव के कारण ५ सितम्बर की तिथि में परिवर्तन करना आवश्यक लगा और १२ सितम्बर ७१ को विश्वमंत्री दिवस मनाने का निर्णय किया गया है । को ही मनावें अतः कृपया पिछले परिपत्र की तिथि सुधारते हुए अब विश्वमंत्री दिवस १२ सितम्बर १९७१ ताकि देश भर में एक ही दिन सब जगह यह कार्यक्रम सम्पन्न हों । १५ ए, हानिमनं सर्कल, भारत इंशुरंश बिल्डिंग, दूसरा माला, फोर्ट, बम्बई - १ निवेदक : रिषभदास शंका प्रधानमंत्री । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर - शासन - जयन्ती महोत्सव सानन्द सम्पन्न आज दिनांक १ जुलाई सन् १९७१ को प्रातःकाल ग्राठ बजे वीर-सेवा-मन्दिर की ओर से वीर-शासन जयन्ती का उत्सव प्रसिद्ध उद्योगपति लाला राजेन्द्रकुमार जी की अध्यक्षता में दि० जंन लालमन्दिर में मनाया गया । श्रोतानों की उपस्थिति से लालमन्दिर के दोनों हाल भरे हुए थे। साथ ही समाज के विद्वानों की भी अच्छी उपस्थिति थी । गुनि श्री १०८ ऋषभसागर जो और मुनि श्री १०८ शान्तिसागरजी भी पधारे थे। जैन बाल आश्रम के छात्रोंने सुन्दर भजन सुनाये । अहिंसा पर विवेचन किया। इसके बाद श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी धौर पं० परमानन्द जी शास्त्री के मगलाचरण के बाद श्री प्रेमचन्द जी मंत्री वीर सेवा मन्दिर ने वीरशासन जयन्ती के मनाने का प्रयोजन और उसके इतिहास पर प्रकाश डाला। पश्चात् प० हुकुमचन्द जी वरुना सागर न कविता पाठ किया। पं० बलभद्र जी ने वीर शासन पर प्रकाश डालते हुए उसकी उत्पत्ति और महत्ता पर विवेचन किया । सा० प्रेमचन्द जी जंनावाच ने अपने भाषण में वीर शासन के सिद्धान्त बाबू यशपाल जी ने अपने भाषण में वीर शासन की महत्ता प्रकट करते हुए तेरापंथी सभी सम्प्रदायों की एकता पर प्रकाश डाला। डा० देवेन्द्रकुमार जी ने अपने भाषण में वीर शासन का अच्छा विवेचन किया । पश्चात् मुनि ऋषभ सागर जी ने अपना संक्षिप्त भाषण दिया, अनन्तर मुनि शान्तिसागरजी ने वीरशासन का जयघोष करते हुए श्रात्मतत्त्व पर प्रकाश डाला । अनन्तर की गिरनार जो तीर्थ क्षेत्र पर मुनि श्री महावीर कीर्ति के साथ किये जाने वाले अभद्र व्यवहार की निन्दा की और क्षोभ व्यक्त किया गया और उस पर समाज की ओर से निम्न प्रस्ताव पास हुआ । 'श्री दि० जैन लालमन्दिर दिल्ली में प्रायोजित जैन समाज की विशाल सभा श्री गिरनार जी सिद्धक्षेत्र (जूनागढ़) पर पूज्य प्राचार्य श्री महावीर कीर्ति जी के साथ वहां के बाबाओं द्वारा हुए पोर अभद्र व्यवहार के प्रति अपना अत्यन्त दुख और क्षोभ व्यक्त करती है तथा श्रापसे प्रार्थना करती है कि धर्मनिरपेक्ष सरकार में इस प्रकार धार्मिक गुरुयों के साथ निन्दनीय व्यवहार करने वालों को कठोर दण्ड दिया जाये जिससे भविष्य में इस प्रकार के कार्यों को पुनरावृत्ति न हो।" नोट :- प्रस्ताव की कापी महामहिम माननीय राज्यपाल गुजरात प्रदेश अहमदाबाद को भेजी गई। अन्त में सभा के अध्यक्ष और कमेटी के उपाध्यक्ष ने सबका श्राभार प्रकट किया। मंत्री वीर सेवा मन्दिर ने अध्यक्ष का प्राभार प्रकट करते हुए जनता को धन्यवाद दिया और भगवान महावीर की जयध्वनिपूर्वक उत्सव समाप्त हुआ । -प्रेमचन्द जैन संशोधन गत वर्ष के प्रनेकान्त की संयुक्त किरण ५-६ मे 'धनंजयकृत द्विसन्धान महाकाव्य' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। उसमे भूल से डा० हीरालाल जी जैन का नाम छपने से रह गया है। कृपा कर पाठकगण उसमें डा० हीरालाल जी का नाम और बढ़ा कर पढ़े । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. भविष्यवत्त कथा तथा अपभ्रश कथा काव्य- विचार का थोड़ा भी कष्ट नही किया जब कि इस ग्रंथ लेखक डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री। प्रकाशक भारतीय ज्ञान- के कर्ता कवि धनपाल है, जो धर्कट वंश में उत्पन्न हुए पीठ, ३६२०१२१, नेताजी सुभाष मार्ग दिल्ली-६, मूल्य थे। उनके पिता का नाम माएसर (मातेश्वर) और २० रुपया। माता का नाम धनश्री था। जबकि सं० १३९३ में ग्रन्थ प्रस्तुत ग्रथ एक शोध प्रबन्ध है, जिस पर लेखक को की प्रतिलिपि कराने वाले दिल्ली के अग्रवाल वाधू साहू प्रागरा यूनिवर्सिटी से पी० एच० डी० की डिग्री मिली थे। उस समय दिल्ली में मुहम्मद विन तुगलक का राज्य था है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में सान अध्याय हैं जिनमे अप- मैंने एक लेख 'धनपाल की भविष्यदत्त कथाके रचना काल भ्रंश भाषा और उसके साहित्य का सुन्दर वर्णन दिया पर विचार शीर्षक लिखा था।" जो अप्रेल सन् १८६६ के है। साथ ही भविष्यदत्त कथा का भी परिचय दिया गया अनेकान्त के अंक एक में छपा था। उसके पढ़ने से तो है। भविष्यदत्त कथा और उसकी परम्परा का विवरण लेखक को अपनी भूल का स्पष्ट पता चल गया था, फिर देते हुए अपभ्रंश के प्रमुख कथा काव्यों का-"विलासवई भी अपनी पुस्तक में उसका संशोधन नहीं किया। किन्तु कथा, जिणदत्त कथा, सिद्धचक्र कहा, सिरिपाल कहा भविष्यदत्त कथा का रचना काल चौदहवी शताब्दी सिद्ध प्रादि का भी–परिचय दिया है। लोककथा की सामान्य करने के लिये विबुध श्रीघरमुनि कृत (सं० १२३०) प्रवृत्तियों और लोक तत्त्व का विश्लेषण करते हुए वस्तु में भविष्यदत्त कथा रचित प्रथ के साथ तुलना तत्त्व का अच्छा विवेचन किया गया है। यह सब होते कर यह निष्कर्ष निकाला कि धनपाल की भविष्यहए भी लेखक ने भविष्यदत्त कथा के रचनाकाल पर बिना दत्त कथा पर इसका प्रभाव है। अापने दोनों की किसी प्रमाण के उसका रचनाकाल विक्रम की १४वीं तुलना करते हुए बतलाया है कि "धनपाल ने उसका शताब्दी बतलाने का प्रयत्न किया है । जो किसी तरह अनुकरण किया है।" परन्तु लेखक ने यह विचार नहीं भी उचित नही कहा जा सकता। जबकि डा० हर्मन किया कि दोनों ग्रथों के कथानको में समानता होने पर जेकोबी ने धनपाल की भविष्यदत्त कथा का रचना काल भी भाषा गत और कथानक शैली का भेद बना हुआ है । १०वीं शताब्दी बतलाया है। घनपाल की भविष्यदत्त कथा की भाषा प्रौढ और विशद लेखक को मोती कटरा प्रागरा के भण्डार से सं० है जो माल है, उसमें काव्यत्व को झलक स्पष्ट है। जबकि विबुध १४८० की लिखी हुई प्रति मिली। उसमें सं० १३६३ की श्रीधर की भविष्यदत्त कथा की भाषा सीधी-सादी है, वह एक दूसरी लिपि प्रशस्ति भी लिखी हुई थी। जिसे साहू चलती हुई है। इतना होते हुए भी पाप लिखते हैं किवाघु अग्रवाल ने धनपाल की उक्त कथा को सं० १३६३ । उक्त कथा का स० १३९३ “कल्पनात्मक वैभव, विम्बार्थ योजना, अलंकरणता और लिखवाया था। लेखक महाशय ने उस पर से ग्रंथ का जितकी जो अलक धनपाल की भविष्यदत्त कथा रचनाकाल विक्रम को १४वीं शताब्दी निश्चित कर में लक्षित होती है वह इस काव्य में नहीं है।" इतना दिया। भाप लिखते हैं कि-"विक्रम सं० १३६३ पौष होने पर भी प्राप उक्त कथा में अनुकरण की बात कहते शुक्ला द्वादशी को यह कथा काव्य लिखकर पूर्ण हुआ हैं। वह कैसे फलित हो सकती है ? जबकि उस ग्रंथ का था। माधुनिक काल गणना के अनुसार निर्दिष्ट तिथि रचना काल १०वीं शताब्दी माना जाता है। तब अनु. १६ दिसम्बर १९३६ ई० है। इससे स्पष्ट है कि काव्य करण की बात कैसे घटित हो सकती है? यह तो कल्पना का रचना काल चौदहवीं शताब्दी है।" पर लेखक ने तब मानी जा सकती है जब सं. १३६३ की लिपि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा प्रशस्ति को मूल ग्रंथकार की मान ली जाये । अतः उक्त प्रशस्ति के आधार पर धनपाल की भविष्यदत्त कथा को विक्रम की १४वीं शताब्दी की रचना मानना किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता ज्ञानपीठसे शोध प्रबन्ध छपने से पहले मैंने उसके रचना काल पर विचार लेख को डा० गोकुलचन्द जी को बतलाया था, और उन्होने कहा था कि सशोधन हो जायगा । फिर भी सशोधन नहीं हुआ, वह ज्यों का त्यों छपा दिया गया, गोप प्रवश्यक निर्णायकों ने भी उस पर विचार नहीं किया। लेखक को भूल जात होने पर भी उसका सुधार नहीं किया गया, आशा है डा० देवेन्द्रकुमार उसका संशो धन करेंगे । शोध-प्रबन्धों में इस तरह की स्थूल भूलों का रह जाना बड़ा खटकता है । ज्ञानपीठ का प्रकाशन सुन्दर है। पाठकों को उसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए । । २. द्विसधान महाकाव्य (संस्कृत हिन्दी टीका सहित) मूलधनजय कवि सम्पादक प्रो० खुशालचन्द्र गोरावाला | प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, सुभाषमार्ग दिल्ली | पृष्ठ संख्या ५०६ मूल्य १५ ) रुपया । । प्रस्तुत काव्य का नाम द्विसन्धान काव्य है, जिसे राघवपाण्डवीय काव्य भी कहते है । इस ग्रन्थ मे रामायण और महाभारत की कथा इस कौशल से लिखी गई है कि उसके एक अर्थ मे राम का चरित्र निकलता है तो दूसरे मे कृष्ण चरित्र । इस रूप मे लिखा गया यह काव्य सर्वश्रेष्ठ काव्य है । यह कृति गृहस्थ कवि घनजय की रचना है रचना बड़ी सुन्दर और दो की प्रतिपादक है। यद्यपि बाद के विद्वानों ने अनेक काव्य रमे है, परन्तु उनमे धनजय की यह कृति सबसे प्राचीन और गम्भीर अर्थ की द्योतक है । ग्रंथ में १८ सर्ग है जिनके ११०४ इलाको मे इस महा काव्यको रचना हुई है। इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद प्रो० खुवालचन्द जी गोरावालाने किया है धनुवाद सामान्यतया अच्छा और सरल है। ग्रन्थ की दो टीकाए है उनमें से मूल के साथ विनयनन्दि के प्रशिष्य और देवनन्द के शिष्य नेमिचन्द की पद कौमुदी नामकी संस्कृति टीका भी दे दी गई है। इसकी दूसरी टीका राघव पाण्डवीय भी प्रकाशित है जिसके कर्ता परवादिचरट्ट ६५ रामभट्ट के पुत्र कवि देवर है। ये दोनों टीकाएं प्रारा जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद हैं। डा० हीरालाल और डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस ग्रन्थ की महत्वपूर्ण प्रस्तावना अंग्रेजी और हिन्दी में लिखी है । कवि ने अपना कोई परिचय और गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया प्रस्तावना में धनंजय कवि की अन्य कृति विषाहार स्तोत्र ( श्रादिनाथ स्तोत्र ) और धनंजय नाममाला है । इस ग्रन्थ के १८वें सर्ग के १४६३ श्लोक में वलेपरूप में धनंजय के पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम श्रीदेवी और गुरु का नाम दशरथ उपलब्ध होता है । जो दशरूपक के कर्ता से भिन्न हैं । कवि धनजय का समय डा० हीरालालजी और डा० ए० एन० उपाध्ये ने इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में ८०० ई० अनुमानित किया है, जो उचित जान पड़ता है क्योंकि विक्रम की हवी शताब्दी के विद्वान और षट्खण्डागम तथा कसायपाहुड की घवला जयघबला टीकाओंों के कर्ता वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका की पुस्तक ९ पू० २३७ मे धनजय नाममाला का एक पद्य उद्धृत किया है । जो इस प्रकार है: : "तावेवं प्रकारादी व्यवच्छेदे विषये । प्रादुर्भावे समाप्ते च इति शब्दः प्रकीर्तितः ॥" इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत धनंजय उसके बाद के विद्वान नहीं हो सकते ग्रन्थ का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ ने किया है, प्रकाशन उसके अनुरूप हुआ है। पाठकों को मंगाकर उसे अवश्य पढना चाहिए । ३. जैन कथानों का सांस्कृतिक अध्ययन - लेखक श्रीचन्द जैन प्रकाशक सुशील बोहरा, बोहरा प्रकाशन, चैनसुखदास मार्ग, जयपुर पृष्ठ संख्या १६० मूल्य १३ रुपये । प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन कथानों का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने संस्कृति और सभ्यता का तथा इनके पारस्परिक भेदकत्व, संस्कृति के अवान्तर रूप, लोक जीवन में संस्कृति का सम्बन्ध, जैन संस्कृति का विश्लेषण, जैन कथानों में गुम्फित सूक्तियां । संस्कृति की विशेषताएं धौर मूल तत्व, जैन संस्कृति की मापेक्षिक Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६, वर्ष २४, कि०२ अनेकान्त प्राचीनता। वैदिक संस्कृति एवं जैन संस्कृति का तुलना. काशी। प्रकाशक गणेशवर्णी ग्रन्थमाला, १११२८ डुमराव त्मक अध्ययन । जैन धर्म का प्राशय । जैन कथा साहित्य, कालोनी अस्सी वाराणसी, मूल्य ५) रुपया। जैन कथानों में अध्यात्मवाद । जैन कथानों में चित्रित प्रस्तुत ग्रन्थ मे प्राचार्य पुष्पदन्त प्रणीत सत्प्ररूपणा सामाजिक जीवन । प्रादि विषयो पर लेखक ने अच्छा। सूत्र दिया हुआ है । प्राचार्य पुष्पदन्त चन्द्रगुहा निवासी प्रकाश डाला है। कथाओं के सांस्कृतिक अध्येतानो के प्राचार्य घरसेन के विद्या शिष्य थे। उनसे महा कर्मप्रकृति लिए पुस्तक उपयोगी है। प्रकाशन सुन्दर और गेटप मनो प्राभूत पढ़कर प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर प्रस्तुत हर है, परन्तु पुस्तक का मूल्य कुछ मधिक जान पडता है। सत्प्ररूपणा सूत्र रचे और जिन पालित को दीक्षित कर ४. लोक विजययंत्र-सानुवाद और विस्तृत विवेचन तथा पढाकर उन्हें प्राचार्य भूत वलि के पास भेजे । प्राचार्य सहित । सम्पादक डा० नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य, अध्यक्ष भूतबली ने उन्हें पाकर और पुष्पदन्त को अल्पायुसंस्कृत विमाग, एच०डी० कालेज पारा (बिहार) प्रका- जान कर महाकर्म प्रकृति प्राभत के विच्छेद के भय से शक वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट । प्राप्ति स्थान, मन्त्री वीर द्रव्यप्रमाणानुगम को प्रादि लेकर, जीवस्थान, खुद्दाबन्ध, सेवा मन्दिर ट्रस्ट, चमेली कुटीर, १।१२८ डुमराव बन्धस्वामित्व विचय, वेदना, वर्गणा और महाबन्धरूप कालोनी मस्सी, वाराणसी-६, मूल्य दस रुपया । षट्खण्डागम सूत्रों की रचना की। प्राचार्य पुष्पदन्त ने _इस लोक विजय मन्त्रमें अंक संख्या के निर्धारण द्वारा घर सेनाचार्य से प्राप्त ज्ञान को सत्प्ररूपणा के रूप में मानव के सुख-दुःख, समर्घ-महर्ष, वर्षा-वायु, सुभिक्षदुर्भिक्ष, सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया था। यद्यपि यह सत्प्ररूपणा रोग, धन-धाग्य-रस निष्पत्ति, समृद्धि प्रादि की सही धवला टीका और उसके हिन्दी अनुवाद के साथ श्रीमान जानकारी प्राप्त करानेका प्रयास किया गया है। ग्रंथमें लोक सेठ लक्ष्मीचन्द सितावराव जैन साहित्योद्धारक फण्ड विजययन्त्रको बनाने, देश और दिशा दोनों ध्रुवांकों के द्वारा अमरावती से षट्खण्डागम की प्रथम पुस्तक के रूप में गणित करके फला देश निकालने का अच्छा विवेचन किया प्रकाशित हो चुका है। किन्तु वह पुस्तक इस समय प्राप्य गया है। डा० साहब ने उदाहरण देकर उसे स्पष्ट किया नहीं है । इस कारण इसे प्रकाशित करना आवश्यक था। है डा० नेमिचन्द्र जी ने ५३ १० की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना श्री पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री ने उक्त सूत्रों का सकलन पोर परिशिष्टों द्वारा इस विषय को अत्यन्त सुगम बनाने और हिन्दी अनुवाद किया और उसमे कुछ उपयोगी का प्रयत्न किया है। यद्यपि ग्रन्थ की मूल गाथा ३० है, शका समाधान को सन्निहित कर स्वाध्यायी जनों के लिए पौर में प्रतापगढ़ के वैद्य जवाहरलालजी से मुख्तार साहब सुलभ कर दिया है । साथ ही प्राक्कथन लिखकर तो उसे को प्राप्त हुई थीं । इसमें सन्देह नहीं कि ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण और भी उपयोगी बना दिया है। प्रावकथन में षट्खण्डाहै, परन्तु उसके अनुवाद और विस्तृत विवेचन के बिना गम और प्रज्ञापना के सम्बन्ध में भी विचार किया है। उसके समझने में कठिनाई होती थी। पर डा. साहबने अपने किन्तु वह बहत सक्षिप्त है, उसके सम्बन्ध में और भी विवेचन से उसे सरल एव सुगम बना दिया है। इसके लिए प्रकाश डालना जरूरी है। जिससे पं० दलसुख मालवडा० साहब का पाभार मानना आवश्यक है । ग्रन्थ का णिया का वह प्रामाणिक उत्तर ही न हो, किन्तु पाठकों मूल्य दस रुपया है। ज्योतिष के अध्येतानों और सुभिक्ष को क्षेत्रों की तरह दिगम्बर शास्त्रो को अपना बनाने की दुभिक्षादि के फला देश जिज्ञासुओं के लिए ग्रन्थ उपयोगी भावना का भी निदाकरण हो सके । और समाज में तथा है। मंगाकर पढ़ना चाहिए । वीर सेवा मंदिर ट्रस्ट का विद्वानों में उसके संरक्षण की भावना भी जागृत हो सके। यह प्रकाशन सुन्दर है। वर्णी प्रांथमाला का यह प्रकाशन सुन्दर है। छपाई ५. सत्प्ररूपणा सूत्र-(हिन्दी अनुवाद सहित) मूल सफाई उत्तम है। यह ग्रन्थ मन्दिरों, ग्रन्थ भण्डारों, पुस्तलेखक प्राचार्य पूष्पदन्त, सम्पादक और अनुवादक पं० कालयों और स्वाध्यायी जनों को मंगा कर अवश्य पढ़ना कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, प्राचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय चाहिए। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WHA TEA कल्पवक्ष पर कमलासोन नेमिनाथ तार्थकर, राजघाट, वाराणसी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10591/62 वीर सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन " पुरान जनवादयसूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल प्रयों की धामी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उत दूसरे पक्षी की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २४३५३ पद्यन्वाक्यों की सूची संपादक मुस्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से पलकृत डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) मोर डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, सोधखोज के विद्वानोंके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, मजित्द प्राप्तपरीक्षा श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए न्यायाचार्य १ दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द स्वयम्भू स्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । प ... : स्तुतिविद्या: स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द सहित । चम्यात्म कमलमार्तण्ड पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर श्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-धनुवादसहित युक्त्यनुशासन : तत्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की प्रसाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था। मुख्तारथी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत सजिन्य बोपुरपाश्वनाथस्तोत्र आचार्य विद्यानन्द रचित महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित शासनचतुस्त्रिशिका (तीर्वपरिचय) मुनि मदनकीति की १२वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद महि समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थावारविषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुस्तार श्रीजुगलकिशोर : 3 ... जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जनग्रन्थ- प्रशस्ति संग्रह भा० १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित पूर्व संग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो पोर पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहासविषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । समाधितन्त्र और इष्टोपदेश: अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित अनित्यभावना श्रापद्मनन्दीकी महत्वकी रचना, मुस्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्वार्थ सूत्र : ( प्रभाचन्द्रीय) - मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । १५-०० महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य म्रध्यात्म रहस्य : पं० प्राशावर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित जनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंशके १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । स. पं० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । न्याय - दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० । जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसायपात मूलग्रन्थ की रचना ग्राम से दो हजार वर्ष पूर्व भी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों मे पृष्ट कागज और कपड़े को पक्की जिल्द | Reality ग्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े आकार के ३०० पू. पक्की जिल्द जैन निबन्ध रत्नावली श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ... प्रकाशक - प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवानी प्रिंटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित। 5.00 २-०० १-५० १-५० १-२५ ७५ •७५ ३-०० ४-०० ४-०० २५ - २५ १-२५ १६ १-०० १२-०० 6800 ५-०० २०-०० ६-०० ५-०० Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वैमासिक अगस्त १९७१ अनेकान्त ..... वष २४:किरण ३ - HAK S SHARE RE Histein Br कलचुरि कालोन भगवान मादिनाथ को भव्य मूति (श्री नीरज के सौजन्य से प्राप्त) समन्तभद्गाश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋ० १. २. विषय-सू विषय शान्तिनाथ जिनस्तवन - मुनिपद्मनन्दि शिल्प में सरस्वती की मूर्तियाँ मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी ३. शिलालेखों में गोला पूर्वान्वयपरमानन्द जैन शास्त्री ४. उपदेशीय पद — कविवर द्यानतराय ५. शोधकण श्री नीरज जैन ६. कलचुरि कालीन एक नवीन जैन भव्य शिल्प कस्तूरचन्द 'सुमन' ७. अभय कुमार — परमानन्द शास्त्री ८. पुनीत भागम साहित्य का नीतिशास्त्रीय सिंहावलोकन - ४० बालकृष्ण 'प्रकिचन' एम० ए० पी० एच० डी० सम्पादक मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री पृ० अनेकान् का वार्षिक मूल्य ६) पका एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ सा TO १८ १०२ १०६ ११० ११२ ११४ २. विशाल कोति व प्रजित कीर्तिडा० विद्याबर जोहरा पुरकर १२५ १०. श्रावक की ५३ क्रियाएं - वंशीधर एम० ए० १२६ ११. अपभ्रंश का जयमाला-साहित्य डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री १२. प्रात्म विजय की राह - श्री ठाकुर १२. साहित्य समीक्षा - परमानन्द शास्त्री १२१ १२८ १३० १३६ अनेकान्त के ग्राहकों से मनेकान्त पत्र के ग्राहकों से निवेदन है कि वे धनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया मनोधार से शीघ्र भिजवा दें, धन्यया बी. पी. से १.२५ पैसे प्रषिक देना पड़ेगा । जिन ग्राहकों ने अभी तक भी नहीं दोनों वर्षो का १२ अपने पिछले २ वर्ष का चन्दा भेजा है, वे अब २३वें और २४वें रुपया मनीग्रार्डर से अवश्य भिजवा व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर, २१ दरिया दिल्ली पुस्तक प्रकाशकों से जैन समाज में अनेक संस्थाएं जैन साहित्य का प्रकाशन कार्य कर रही हैं। वीर सेवा मन्दिर की लायब्रेरी अन्वेषक विद्वानों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। अनेक खो-खोज करने वाले विद्वान अपनी थीसिस के लिए योग्य सामग्री बीर सेवा मन्दिर के पुस्तकालय से प्राप्त करते हैं। विद्वानों को चाहिए कि वे अधिक से अधिक लाभ उठावें । प्रकाशकों को चाहिए वे अपने-अपने प्रकाशन की प्रतियाँ भिजवा कर पुण्य लाभ लें । व्यवस्थापक वीर सेवामन्दिर, दि दिल्ली अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। स्थापना Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् प्रहम् अनेकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमपनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ । वर्ष २४ किरण ३ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६७, वि० सं० २०२७ १ जुलाई-अगस्त १९७१ शान्तिनाथ जिनस्तवन जयति जगदीशाः शान्तिनाथो यदीयं, स्मतमपि हि जनानां पाप-तापोप-शान्त्यै । विविधकुलकिरीटप्रस्फुरन्नीलरत्नधुति चल मधुपाली चुम्बितं पादपद्मम् ॥५॥ -मुनि पचनन्दि शांति जिनेश जयो जगतेश, हर प्रताप निशेश को नाई। सेवत पाय सुरासुरराय, नमैं सिरनाय मही तल ताई। मौलि लगे मनिनोल दि, प्रभु के चरणों झलके वह झाई। संघन पाय-सरोज-सुगन्धि, किधो चलिये अलिकति पाई॥ प्रर्ष-देव समूह के मुकुटों में प्रकाशमान नील रत्नों की कान्तिरूपी चंचल भ्रमरों की पंक्ति सेस्सशित जिन शान्तिनाथ जिनेन्द्र के चरणकमल स्मरण करने मात्र से ही लोगों के पापल्प सन्ताप दूर करते हैं:वे.लोक के अधिनायक भगवान शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें ।।५।। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिल्प में सरस्वती की मूर्तियाँ मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी जैन सम्प्रदाय में चौवीस तीर्थंकरों के प्रतिरिक्त समस्त देव समूह किसी न किसी रूप में अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्धित प्रतीत होता है। जनों ने सर्वोपरि स्थान तीर्थंकरों को दिया और शेष समस्त देवताओं को उन्हीं से सम्बद्ध करके उनके अनुयायी या सेवक के रूप में कल्पित किया। डॉ० भट्टाचार्य के विपरीत डा० यू० पी० शाह की धारणा है कि सरस्वती की गणना १६ विद्यादेवियों के अन्तर्गत नहीं की जानी चाहिए, वरन् उसे स्वतंत्र देवी रूप मे प्रतिष्ठित करना चाहिए' । सरस्वती को अन्य कई नामों से भी सम्बोधित किया जाता है, यथा, श्रुतदेवता, शारदा, भारती, भाषा, वाक् वाक् देवता, वागीश्वरी, वाग्वादिनी, वाणी, ब्राह्मी । जैनधर्म के ज्ञान व बुद्धि की देवी सरस्वती की प्राराधना इस विश्व से अज्ञानता रूपी अन्धकार के नाश के लिए की जाती है। श्रुतदेवता के रूप मे सरस्वती सभी तीर्थंकरों की शिक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जैन शिल्प में सरस्वती को मुख्यतः द्विभुज, चतुर्भुज या बहुभुज (षड्भुज या भ्रष्टभुज) मूर्तिगत किया गया है । सरस्वती की विभिन्न भुजाओं प्रदर्शित श्रायुधों में वीणा ( येन केन वादन की मुद्रा में ), अक्षमाला, वरद या अभयमुद्रा प्रमुख है । प्रतिमानों में देवी को सामान्यतः कमलासन पर ललितासन मुद्रा में भासीन, जिसमे देवी का एक पाद नीचे लटका रहता है, या कभी खड़ा प्रदर्शित किया जाता है । देवी का वाहन हंस, जिसका स्थान कभी-कभी मयूर भी ले लेता है, को देवी के समीप ही कहीं उत्कीर्ण किया जाता है। में मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त कुषाण युगीन सरस्वती मूर्ति इस समय लखनऊ के प्रान्तीय संग्रहालय में संग्रहीत ( नं० २४ ) पर स्थित है। मूर्ति (१.६३” X २३) में द्विभुज सरस्वती को समकोण चतुर्भुज के प्राकार की पीठिका पर दोनों पैर ऊपर किये पलथी मारकर बैठी हुई चित्रित किया गया है। शीर्ष भाग जो प्रभामण्डल से युक्त था, संप्रति भग्न हो गया है। वाम वक्षस्थल भी खंडित है । वाम भुजा में एक पुस्तक प्रदर्शित है और 2. Shah, U. P., Iconography of the Jain. Goddess Sarasvati, Jour. University of Bombay, Vol. X (New Series) Pt. 2. Sept. 1941, p. 212. २. Smith, Vincent A, The Jain Stupa and other Antiquities of Mathura, Varanasi, 1969; Bajpai, K. D., Jain Images of Sarasvati in the Lucknow Museum, Jaina Ant, Vol. XI, No. II, Jan. 1946, pp. 1-4. दाहिनी ऊपर उठी भुजा, जो संप्रति खंडित है, संभवतः अभय मुद्रा में रही होगी । कटिप्रदेश में पीले वस्त्रों से सुसज्जित है । दोनों कलाइयों में कंगन हैं । स्कन्ध वस्त्रों से ढंके हैं। दोनों पावों में एक उपासक प्राकृति उत्कीर्ण है, जिनकी केश रचना वृत्तों के रूप में निर्मित है । पीठिका पर कुषाण कालीन ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण लेख के आधार पर इस मूर्ति को १३२ ईसवी शती में तिथ्यां कित किया गया है । इस प्रतिमा के अतिरिक्त कुषाण युग में प्रतिष्ठित अन्य कोई उदाहरण नही प्राप्त होता । साथ ही सरस्वती प्रतिमा का गुप्त युगीन उदाहरण भी मप्राप्त है । सरस्वती को कांस्य प्रतिमा सरस्वती दुपट्टों और निचले वस्त्रों से युक्त कांस्य प्रतिमा वसंतगढ़ सग्रह से उपलब्ध होती है' । द्विभुज 3. Shah U. P., Bronze Haord from Vasanta. garh, Lalit Kala, Nos. 1-2, April 1955March 1956, p. 61. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन शिल्प में सरस्वती की पूतियां सरस्वती की दायी भुजा में कमल पौर बांयी लटकी विशिष्टि परिषानों से युक्त है। दाहिने भाग में दो सेवक भुजा में पुस्तक उत्कीर्ण है। देवी पूर्ण विकसित कमलासन माकृतियां उत्कीर्ण हैं जिनमें से एक के बायें हाथ में एक पर खड़ी है, जिनके दोनों पोर एक मगल कलश स्थित दण्ड प्रदर्शित है जिसे उसने द्वारपाल की तरह पकड़ रखा है। यह मूर्ति मथुरा के कुषाण युगीन उदाहरण में प्राप्त है और दूसरी तुन्दीली बौनी माकृति की दाहिनी भुजा होने वाली विशेषतामों का निर्वाह करती हुई प्रतीत होती में पाम्र फल चित्रित है । वाम पावं में पुनः एक लम्बो. है। किन्तु कुषाण कालीन प्रतिमा के विपरीत यह चित्रण दर ठिगनी प्राकृति उत्कीर्ण है, जो सिंह पर मासीन है। सरस्वती को खड़ा प्रदर्शित करता है। मकरमुख मोर बड़ौदा संग्रहालय की सरस्वती मूर्तियाँ सूर्यवृत्ति से अलंकृत मुकुट देवी के मस्तक पर स्थित है। बड़ोदा संग्रहालय में स्थित एक छोटी चतुर्भुज पृष्ठभाग में विशिष्ट प्रभामण्डल से युक्त देवी प्रीवा में सरस्वती प्रतिमा को त्रिमंग मुद्रा मे कमल पर खड़ा प्रददो हारों, एकावलि मादि अलंकरणों से सुसज्जित है। शित किया गया। इसकी ऊर्ध्व दाहिनी भुजा में वीणा डॉ. यू. पी. शाह शैली पौर प्रतिमा शास्त्रीय विवरणों मोर ऊवं वाम भुजा में पुस्तक चित्रित है । वरद मुद्रा के अाधार पर इस मूर्ति को सातवीं शती ईसवी के बाद प्रदर्शित करता वाम हस्त प्रक्षमाला धारण किये है. और तिथ्यांकित करना उचित नही समझते हैं । दाहिनी भुजा में एक घट अंकित है। समीप ही वामपावं ब्रिटिश संग्रहालय को सरस्वती मूर्तियाँ में उसके वाहन हंस को मूर्तिगत किया गया है। मुकुट सरस्वती की दो मनोज्ञ प्रतिमाएं संप्रति ब्रिटिश पौर निचले वस्त्रों से युक्त सरस्वती के दोनों मोर चांवर. संग्रहालय में है।' ग्यारहवी या बारहवीं शती में प्रति. पारी स्त्री प्राकृतियां अंकित है। देवी के दोनों पाश्वों में ष्ठित विभग मुद्रा मे खड़ी एक मूर्ति (२६"X१४") उत्कीर्ण रथिकानों में चार-चार स्त्री प्राकृतियां उत्कीर्ण बज० संग्रहालय (न०८४) से सम्बन्धित ह। हैं, जिनमें से दो के अतिरिक्त सभी खड़ी हैं। देवी के सम्भवतः राजपूताना से प्राप्त होने वाली इस चतुर्भुज मुकुट के ऊपर भी एक स्त्री प्राकृति उत्कीर्ण है। मूर्ति में दोनों दाहिने हाथ खण्डित है। ऊर्ध्व वाम हस्त इस प्रकार मुख्य प्रतिमा को जोड़कर १० देवियों का में मनिकों की माला और विचली बांयी भुजा में पुस्तक चित्रण करने वाले इस प्रकन के संबंध में डा.यू. पी. उत्कीर्ण है । इस भव्य और जीवन्त अंकन मे पृष्ठ भाग शाह की धारणा है कि ये सभी भाकृतियां स्वयं सरस्वती में ऊपर की पोर पाच तीर्थकर प्राकृतियों को मूर्तिगत के ही विभिन्न स्वरूपों का अंकन है, जैसा कि ग्रंथों के किया गया है। दोनों पाश्वों में उत्कीर्ण सेवक प्राकृतियों उल्लेखों और दो प्राकृतियों की भुजामों में स्थित वीणा के नीचे पालथी मारे दो उपासक प्राकृतियों को चित्रित होता हलवा चित्रित से भी पुष्ट होता है। दिलवाड़ा के विमल-वशही मदिर विमा किया गया है जो मूर्ति के दानकर्तामों की प्राकृतियों और जैन चित्रों में प्राप्त सरस्वती प्रकन से तुलनात्मक प्रतीत होती हैं। अध्ययन के उपरांत डा. शाह ने इसे ११५० से १२२५ दूसरी प्रादमकद मनोज्ञ प्रतिमा (५१"x२०") ईसवी के मध्य तिघ्यांकित किया है। में उत्कीर्ण लेख वाग्देवी के इस चित्रण को परमार शासक नागपुर संग्रहालय की तीथंकर मूति: भोज के शासन काल में प्रतिष्ठित बतलाया है। भूरे रंग सरस्वती की एक अन्य विशिष्ट अभिलिखित मति के प्रस्तर मे उत्कीर्ण इस प्रकन के लेख के माधार पर (enx४) जिसे अकोला जिले के रज्जपुर खिनखिनी' इसे १०३४ ई० मे तिथ्यांकित किया गया है। कंगन, ५. Shah, U. P., Jain Sulptures in the Baroda पायजेब और कटि प्रदेश में अलंकरणो से सुसज्जित देवी। Museum, Bull. Baroda Mus., Vol. I, Pt. II, Feb. to July 1944, p.28. ४. Chanda, Ramaprasad, Medieval Indian ६. Jain, Balchandra, Jaina Bronzes from Sulpture in the British Museum, London Rajnapur Khinkhini, Jour. Indian Muse1936, p.45. ums, Vol. XI, 1955, 0.17. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०, २४,कि.३ प्रतेकान्त मामक स्थल से प्राप्त किया गया था, संप्रति केन्द्रीय राणकपुर की सरस्वती मति संग्रहालय, नागपुर की निधि है । मध्यप्रदेश से प्राप्त होने द्विभुज सरस्वती का एक अन्य उदाहरण जोधपुर वाली इस प्रतिमा मे ललितासन मुद्रा में कमल पर राज्य के राणकपुर नामक स्थल के चतुर्मुख मन्दिर से मासीन देवी की वाम भजा में पुस्तक व दाहिनी में एक प्राप्त होता है।" विभंग मुद्रा में खड़ी सरस्वती को दोनों प्राप्त होता है."fain म. संक्षिप्त दण्ड, संभवतः लेखनी प्रदर्शित है। अलकरण हाथों से वीणावादन करते हए चित्रित किया गया है मोर विहीन यह मति निमिनी की दृष्टि से उत्कृष्ट है। देवी देवी के दाहिने चरण समीप उत्कीर्ण रस पाकति के शीर्ष भाग में पद्मासीन तीर्थकर की प्राकृति उत्कीर्ण वीणावाट वीणावादन से उत्पन्न संगीतमय वातावरण में लीन प्रतीत है, जो विछत्र मशोक की पत्तियों और दुन्दुभि से मलंकृत। 1 होता है। इसी स्थल से प्राप्त होने वाली चतुमुंज प्रतिमा में उसके निचले हाथों में प्रभय मुद्रा भोर कमण्डलु प्रकबीकानेर संग्रहालय की सरस्वती मति शित है और ऊपरी दो भुजामों में प्रक्षमाला ब वीणा एक अन्य मनोज्ञ और विशाल चित्रण व बीकानेर के चित्रित है।" एक अन्य मति में हंस पर प्रारूद सरस्वती पल्लु' नामक स्थल से प्राप्त होता है और सप्रति बीकानेर प्राकृति को दो ऊपरी हाथ में वीणा और पुस्तक पौर संग्रहालय में संगृहीत है। ११वी शती मे तिध्याकित श्वेत निचले दोनों हाथों में अक्षमाला व कमण्डलु से युक्त मकरान के संगमरमर मे उत्कीर्ण इस चतुर्भज प्रतिमा चित्रित किया गया है। सरस्वती को हंस पर माकड (५६।४३७॥) मे देवी के शीर्ष भाग में कई प्राकृतियां चित्रित करना इस प्रतिमा की अपनी विशेषता है। एक उत्कीर्ण है, जिन सबके ऊपर तीर्थकर प्राकृति का चित्रण अन्य चित्रण प्रचलगढ़ से उपलब्ध होता है, जिसमें देवी हमा है । देवी के हाथों में सनाल कमल, पूस्तक, प्रक्ष- की भुजाओं में प्रदर्शित प्रतीकों के क्रम मे कुछ अन्तर को माला (वरदमुद्रा और प्रक्षमाला) और कमण्डल प्रदर्शित छोड़कर शेष बातो में यह प्रकन उपयुक्त प्रतिमानों के हैं । इसी प्रकार का एक अन्य चित्रण दिगम्बर मंदिर से समान है। भी उपलब्ध होता है, जिसमें सरस्वती के निचले दाहिने बम्बई संग्रहालय को सरस्वती भूतियाँ हाथ से घरदमुद्रा प्रदर्शित है । तारग के अजितनाथ मदिर की उत्तरी और पश्चिमी भित्तियो पर भी मिलती जुलती सरस्वती मूर्ति के दो अन्य उदाहरण भारतीय ऐति. भाकृतियां उत्कीर्ण है। जोधपुर स्थित सेवनोदी नामक हासिक शोध संस्थान बम्बई (st.Xavier's College) के स्थल से भी दो ऐसी प्रतिमाये प्राप्त होती है, जो काफी संग्रहालय मे स्थित है।" पहली पीतल की मूर्ति (६." खण्डित है। विमल-वशही मन्दिर के स्तम्भ पर उत्कीर्ण ऊंची) में चतुर्भुज देवी को ललितासन मुद्रा में पासीन एक अन्य चित्रण में देवी की निचली दाहिनी भुजा, जो प्रदशित । को प्रदर्शित किया गया है। गुजरात से प्राप्त होने वाले इस सप्रतिभग्न है, में संभवतः कमण्डलु चित्रित था।" इसके अंकन में सरस्वती का वाहन हंस, देवी की बांयी गोदके अतिरिक्त अन्य विशेषताएं पूर्ववत है। समक्ष उत्कीर्ण है। ११वीं शती में तिव्याकित इस चित्रण में देवी की भुजामों में प्रक्षमाला, कमण्डल, पुस्तक पौर ७. Srivastava, V. S., Catalogue and Guide एक विशिष्ट वस्तु (ladle) उत्कीर्ण है। देवी के दोनों to Ganga Golden Jubilee Museum, Bika. ner, Bombay, 1961, P. 13. ११. Shah, U.P., Iconography of Sarasvati, 5. Shah, U.P., Iconography of Sarasvati, JUB, Vol. x, p. 199-200. JUB, Vol. x, p. 208. १२. Shah, U.P., ibid, p. 209. ६. Loc. Cit. १३. Sankalia, H.D., Jaina Iconography, New १०. Loc. Cit. Indian Antiquary, Vol. II, 1939-40. p. 510 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न शिल्प में सरस्वती की मूर्तियां k पावों में एक स्त्री सेविका प्राकृति उत्कीर्ण है, जिसके के ऊ भाग में दोनों घोर दो पाववनाथ की प्रासीन हाथ में कमण्डलु चित्रित हैं। देवी के दाहिने घुटने के मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं, जिनके मस्तक पर सात फणों का घटानीचे सामने एक उपासक ऋषि माकृति पति है। टोप प्रदर्शित है। पीठिका पर उत्कीर्ण लेख इस चित्रण दक्षिण भारत से प्राप्त होने वाली दूसरी पीतल की प्रतिमा को १३वीं शती में प्रतिष्ठित बतलाया है। को १५वी शती में निर्मित बतलाया गया है । ४.२ ।। ऊंची प्रतिमा में चतुर्भज सरस्वती को कमल पर प्रासीन चित्रित किया गया है जो एक वर्गाकार पीठिका पर स्थित है : पीठिका के अग्रभाग में सरस्वती का वाहन हंस उत्कीर्ण है। देवी के ऊपरी दाहिने और निचले हाथों मे अंकुश और पाश प्रदर्शित है, किन्तु शेष भुजाओंों में अक्ष माता और कोई वृत्ताकार वस्तु चित्रित है। देवी के मस्तक पर स्थित मुकुट के ऊपर कलश उत्कीर्ण है । हैदराबाद संग्रहालय को सरस्वती मूर्ति चतुर्भुज सरस्वती की एक अन्य खड़ी मनोश प्रतिमा दिलबद निद जिले के महर नामक स्थल से प्राप्त होती है," जो संप्रति हैदराबाद संग्रहालय में शोभा पा रही है। अत्यन्त अलंकृत इस मूर्ति में देवी के हांथो मे पुस्तक, अक्षमाला, वीणा और कुश या वज्र चित्रित है । पृष्ठभाग में भामण्डल से युक्त देवी का वाहन इस पीठिका पर उत्कीर्ण है | पीठिका पर सरस्वती के दोनो मोर एक स्त्री-पुरुष प्राकृतियों को मूर्तिगत किया गया है। प्रतिमा १४. Rao, S. Hanumantha, Jainism in the Deccan, sour. Indian History, Vol. XXVI, 1948, Pts. 1-3 (Nos. 76-78), p. 47. इन मुख्य चित्रणों के अतिरिक्त सरस्वती की कई द्विभुज, चतुर्भुज और बहुभुज प्रतिमाए दिलवाड़ा जैन मन्दिरों, कुमारिया, देवगढ़, अचलगढ़, भरतपुर प्रादि स्थलों से उपलब्ध होती हैं, जिनका विस्तृत अध्ययन डा० थू. पी. शाह १५ ने किया है।" इस बात के भी प्रमाण प्राप्त होते है कि सरस्वती को कुछ समय के लिए यक्षिणी के रूप में भी कलित किया गया था, जो स्वरूप शिल्प में, मुख्यतः मध्यभारत में ही प्रति रहा है किन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि दक्षिणी के रूप मे विद्या और बुद्धि की देवी सरस्वती से उसका कोई संबंध नही होता है। चित्रण देवगढ़ से एक ऐसा विषण उपलब्ध होता है जहाँ इसे तीर्थंकर अभिनन्दन की यक्षिणी के रूप में अ ंकित किया गया है। इस बात की पुष्टि पीठिका पर उत्कीर्ण लेख से होती है। ऐसे ही १०७० ईसवी मे तिथ्यांकित एक चित्रण में सरस्वती को छठे पद्मप्रभ की यक्षिणी के रूप में उत्कीर्ण किया गया है। काफी कुछ ण्डित यह प्रतिमा ब्रिटिश संग्रहालय लदन में संगृहीत है । १५. Sec. U. P. Shah's Iconography of Jain Goddess Sarasvati, JUB, Vol. X, (New Series) Pt. 2 Sept. 1941, pp. 195-217. धरती में धनाज बोते समय किसान को कुछ आत्म विश्वास की आवश्यकता होती है। वह सुन्दर मूल्यवान भविष्य पर भरोसा जो करता है । तब क्या धर्म का श्राचरण करने के लिये मानव को प्रात्म-विश्वास की आवश्यकता नहीं होती ? श्रात्म-विश्वास के बिना उसका धर्माचरण भी ठीक नहीं हो पाता । क्या तूं महान बनना चाहता है यदि हां, तो अपनी घाशा लताओं पर नियंत्रण रख, उन्हें बेलगाम अश्व के समान धागे न बढ़ने दे। मानव को महत्ता इच्छाओं के दमन करने में है, गुलाम बनने में नहो । एक दिन श्रायेगा जब तेरी इच्छाएं ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगी । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों में गोलापूर्वान्वय परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय इतिहास में शिलालेखों, ताम्रपत्रों, मूर्ति- का पुत्र था। इसने विक्रम संवत् ११७२ से १२०८ तक लेखों, प्रशस्तियो भोर दानपत्रों आदि का महत्वपूर्ण राज्य किया है । इसके राज्यकाल में इसका पुत्र नरसिंहस्थान है । इनमें उल्लिखित इतिवृत्तों से अनेक उपजातियों देव युवराज था । गयाकर्ण का विवाह मालवा के राजा विद्वानों और राजानों प्रादि के सम्बन्ध में जानकारी उदयादित्य की नातिन अलहन देवी से हुआ था । जो प्राप्त होती है। अग्रवाल, खण्डेलवाल, और पौरपट्ट मेवाड़ के गुहिलवंशी राजा विजयसिंह की कन्या थी । ( परवार) प्रादि समाजों के उल्लेखों की तरह गोला पूर्व' इसी के राज्यकाल में उक्त मन्दिर मोर मूर्ति का निर्माण समाज के भी अनेक महत्वपूर्ण लेख उपलब्ध होते हैं । किया गया था। जिनमें उक्त जाति के विविध वंशों के गृहस्थो और विद्वानों के नाम मिलते है। जिनसे पता चलता है कि समाज में १२वी शताब्दी से २०वी शताब्दी तक के लोग धर्म कार्य मे निरत रहते थे-अपने यथेष्ट कर्तव्य का जीवन व्यतीत करते थे । उदाहरण के पालन करते हुए लिए मध्य प्रदेश जबलपुर नगर के पास 'बहुरीवंद' मे १२वी शताब्दी के पूर्वार्ध का लेख शान्तिनाथ की मूर्ति के नीचे दिया हुआ है । उसमें बतलाया है कि – 'वेल्ल प्रभाटिका गाँव मे गोल्लापूर्व जाति का महाभोज नाम का श्रावक था, जो माधवनन्दि के शिष्य सर्वधर का पुत्र था। उसने शान्तिनाथ का एक सुन्दर मन्दिर बनवाया। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा चन्द्रकराचार्याम्नाय देशीगण के प्राचार्य सुभद्र के द्वारा हुई थी। गयाकर्णदेव यशःकर्ण १. स्वस्ति वदि ६ भौमे श्रीमद्गयाकणं देव विजयराज्ये राष्ट्रकूटकुलोद्भवमहासामन्ताधिपतिश्रीमद् गोल्हणदेवस्य प्रवर्द्धमानस्य । श्रीमद् गोलापूर्वाम्नाये वेल्ल प्रभाटिकामुरुकृताम्नाये तर्कतार्किक चूडामणि श्री मद्मघवनन्दिनानुगृहीतस्साधु श्री सर्वधरः तस्य पुत्र: महाभोज: धर्मनानाध्ययन रतः । तेनेद कारित रम्य शांतिनाथस्य मदिरं । स्वलात्यमसंज्जक सूत्रघारः श्रेष्ठि नामा वितानं च महाश्वेत निर्मितमतिसुंदरं ॥ श्रीमचद्रकराचार्याम्नाय देशीगणान्वये समस्त विद्याविनयानंदित विद्वज्जनाः प्रतिष्ठाचार्य श्रीमत्सुभद्राश्चिरं जयंतु ॥ (इन्क्रिप्शन्स ग्राफ दि कलचुरि चेदि ।। पृ. ३०९ ) महोवा, खजुराहा, छतरपुर, पपौरा, मदनेशपुर (महार) नावई, जखौरा, धुलेवा आदि स्थानों के १२वी १३वी शताब्दी के प्रचुर मूर्तिलेख पाये जाते हैं, जिनमे गोला पूर्व समाज के विभिन्न वंशों एवं गोत्रों के गृहस्थों के नामों का उल्लेख मिलता है और उनके द्वारा निर्मित मन्दिरों और मूर्तियों के उल्लेख पाये जाते है । जो इस उपजाति की प्रतिष्ठा एवं धार्मिक भक्ति के द्योतक है । पपौरा के संवत् १२०२ के दोनों मूर्तिलेख चन्देलवंशी राजा मदनवर्मदेव के राज्य समय के है । महोबा के नेमिनाथ मन्दिर मे भी मदन वर्मा के समय का सवत् १२११ का एक लेख है' । और खजुराहो के जैन मन्दिर के स० १२१५ के एक लेख मे भी मदनवर्मा का नाम श्रकित है। इसका राज्य बहुत दिनों तक रहा है। इसके राज्य के लेख संवत् १९८६ से १२२० तक के उपलब्ध है। महोबा के पास 'मदन सागर' नाम का जो तालाब है, वह इसी ने बनवाया था। यह बड़ा २. 'संवत् १२०२ प्राषाढ़ वदी १० बुधे श्री मदनवर्म देवराज्ये भोपालनगरवासी गोलापूर्वान्वये साहु टुडा सुत साहु गोपाल तस्य भार्या माहिणी सुत सान्तु प्रणमति नित्यं जिनेशचरणारविंदं पुण्य प्रतिष्ठाम्' । ३. श्री मदनवमं देवराज्ये सं० १२११ श्राषाढ़ सुदी ३ शनीदेव श्री नेमिनाथ, रूपकार लक्ष्मण । See Canningham Report XXI पृष्ठ ७३ ए. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिललालेखों में गोलापूर्वान्वय वार और पराक्रमी राजा था। इसने गुजरात प्रान्त के लेख पाया जाता है, जो गोलापूर्व जाति के लिए बड़े राजा को युद्ध में पराजित किया था। मदनवर्मा ने 'मदन- महत्व का है। लेख सं० ११६६ का है। पूरा लेख पढ़ा पुर' सन् १०५५ वि० सं० १२११ मे बसाया था। वहाँ नही जा सका, पर जितना पढ़ा गया है वह इस प्रकार उसी समय का बड़ा जैन मन्दिर (सन् १०५५ वि० सं० है:१२११ का) बना हुमा है। यह मन्दिर शान्तिनाथ के १६९ चैत सूदि १३ सोमे गोलापून्विये मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान शान्तिनाथ साध सिद्ध तस्य पत्रः श्रीपाल भार्या लल्ली तयो पुत्राः की साढ़े पाठ फीट ऊंची एक विशाल खड्गासन मनोग्य श्रीचन्द्र... सुतरणमल्लः तयोः भार्या......। प्रतिमा विराजमान है, जिसकी चमकदार पालिश भाज मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले मे नोगांव से ५ मील भी प्राचीनता का उद्घोष कर रही है । मदनपुर में तीन की दूरी पर स्थित राज्य संग्रहालय धुवेला मे तीथंकरों ही जैन मन्दिर और तीन ही वैष्णव मन्दिर है। मदनवर्मा की अनेक महत्वपूर्ण पाषाण प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। उनमें के राज्यकाल में अनेक जैन मन्दिर और मूर्तियों का से यहाँ तीन मतियों (नेमिनाथ, मुनिसुव्रनाथ मोर शान्ति निर्माण हुआ । जैनधर्म पर उनकी महती कृपा रही है। नाथ प्रतिमा) के प्रतिमा लेख क्रमशः नीचे दिए जाते हैं। छतरपुर के पचायती मन्दिर में साढे चार फुट की १ गोल्लापूर्वकुलेजातः साधुवाले] [गुणान्वितः :प्रवगाहनावाली भगवान नेमिनाथ को कृष्ण पाषाण की तस्य देवकरो पुत्र: पद्मावतीप्रिया प्रियः । [१] तयोर्जातो पद्मासन प्रशान्त मूति सवत् १२०५ माघ शुक्ला पंचमी सुतो सि (शि)की प्रतिष्ठित है, जो उक्त मदनवा के राज्य में प्रतिष्ठित २ स्तो(ष्टौ) सी (शी)ल व्रत विभूषितो। [२॥] हुई है । इसी तरह पाहार क्षेत्र मे समुपलब्ध अनेक मूर्तियां मल्हणस्य व [परासाल्प] त्यसा ___ मल्हणस्य व [घरासील्प) त्यसी (श)ला पतिव्रता । उक्त राजा के राज्य काल की-(स० १२०२, १२०३, धेष्ठि वीवी तनूजा च प्रबुद्धा बि (वि) नयान्विता [॥३॥] १२०३, १२०३, १२०३, १२०६, १२१३ पोर १२१८ लष्म (क्ष्म) णाद्यास्तया जाताः पुत्राः गुण [गणान्विता:] की प्रतिष्ठित पाई जाती हैं। इन सब उल्लेखों से स्पष्ट ३ ......''ढ्या जिनचरणाराषनोद्यता: ॥[४]] है कि उक्त राजा के राज्यकाल मे गोलापूर्व समाज द्वारा कारितश्च जगन्नाथ [नेमि] नाथो भवांतकः । * अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न हुए हैं। जिन सबको संकलित [लोक्यश] रणं देवो जगन्मंगलकारकः। [५] सम्वतु कर एक अच्छी पुस्तक लिखी जा सकती है। इनके अतिरिक्त (त) ११६९ वैशाम्ब सुदि रवी रो[हिण्याम् । प्रहार में सवत् १२३७, १२३७, १२८८, १५२४, १७२० यह लेख कृष्ण पाषाण की मस्तक विहीन नेमिनाथ पौर १८६१ की प्रतिष्ठित मूर्तियां भी उपलब्ध है। प्रतिमा के पाद पीठ पर स्थित है । जिसमें उसकी प्रतिष्ठा कराने वाले के परिवार का परिचय प्रकित है। इस लेख झांसी जिले के ललितपुर के पास जतारा नाम का का उद्देश्य गोलापूर्व कुल के साधू वाले के पुत्र देवकर के एक गांव है, जो किमी समय अच्छा सम्पन्न कस्बा रहा पुत्र मल्हण के द्वारा वि० स० ११६६ मे वैशाख सुदि है, पर वहां अब जैनियों के घर अल्प है और वे माथिक द्वितीया रविवार के दिन भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। यहाँ के मन्दिर मे सब प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की गई। देवकर के दो पुत्र थे मल्हण पौर दीवाल के सहारे विराजमान हैं। १५ प्रतिमा पपासन जल्हण । सेठ वीवी मल्हण के ससुर थे । मल्हण के तीन पौर १६ खड्गासन हैं जो भोयरे में (तलघर मे) प्रब पुत्र थे जिनमें लक्ष्मण सबमें ज्येष्ठ था। स्थित है । मन्दिर में अनेक सुन्दर व कलात्मक मूर्तियाँ दूसरा लेख भी उक्त सं० ११६६ वैशाख सुदि २ पाई जाती है। भोयरे की एक खंडित मूर्ति पर निम्न । न रविवार का है, जिसमे बतलाया है कि गोलापूर्व कुल मे ४. देखो, मध्य भारत का जैन पुरातत्व नाम का मेरा समुत्पन्न श्रीपाल के पुत्र जीव्हक के पुत्र सुल्हण द्वारा " लेख, मने का छोटेलाल जैन विशेषांक १०६३। २०वें तीर्थकर मुनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा की जो काले Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वर्ष २४, कि० ३ पाषाण की पद्मासन है। प्रतिमा का ऊपरी है । प्रतिष्ठित कराये जाने का माता मणी और पत्नी का निम्न प्रकार है। अनेक भाग खण्डित उल्लेख है । सुल्हण की नाम श्री था। मूल लेख स्वाध्याय प्रेमी सज्जन रहे हैं। वृती ब्रह्म रायमल जी को भी यहाँ रहने का अवसर मिला है। लोगों में धार्मिक लगन है यहाँ के मन्दिरों में जो मूर्तियों का परिकर है उसमें गोला पूर्व, पौरपाट (परिवार ) और गोलालारे अग्रवाल बरवाल और जैसवाल मवंग लस्कचुक यादि जातियों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों और यत्र है। कुछ मूर्तियां ऐसी भी हैं जो धन्य-धन्य स्थानों में प्रतिष्ठित हुई हैं. वे भी २. रुक्मिण्यां जनितस्तेन सत्पुत्रः सुल्हणाभिषः । श्री संज्ञिका प्रियातस्य समग्रगुण पारिणी ।। [ २|| ] यहाँ विराजमान हैं। इस सब से यासौदा की महत्ता पर मुनिसुव्रतनाथस्य विवं (बिया) लोय च्छा प्रकाश पडता है। उनमें से यहाँ गोलापूर्वी से ३. पूजितः कारितमुदात्मचियेमिय वृद्धये ।। [ ।। ३ ।। ] सम्बन्धित कुछ मूर्तिख यत्र नीचे दिये जाते है यत्रलेख : १. गोला पूर्व कुले जातः साधु श्रीपाल संज्ञकः । तत्सुतो जनि जीवकः समय गुणभूषितः ।। [ १ । ] संवत् १२ [२९] वैशाख सुदि २ रखी ।। यह प्रतिमा भी काने पाषाण की कायोत्सर्गात्मक है। जिसे गोमा पूर्व जाति में समुत्पन्न मंवत्सल स्वयं के दो पुत्र थे, स्वामी और वैवस्वामी देव स्वामी के दो । पुत्र 'थे, शुभचन्द्र और उदयचन्द देवस्वामी और उसके दोनों पुत्रों ने शान्तिनाथ को प्रतिष्ठा कराई। यह लेख [सं०] १२०३ का चंदेलवंशी राजा मदनदेव के राज्य । काल का है। लेल की तीसरी पक्ति में दुम्बर प्रत्वय के साहू जिनचन्द्र के पुत्र हरिश्चन्द्र और हरिश्चन्द्र के पुत्र लक्ष्मीधर शातिनाथ को सदा प्रणाम करते हैं । ३- १ - सिद्ध गोला पूर्वान्वये साधुः स्वयंभू घर्मयसस तत्सुनो स्वामिनामा च देवस्वामिगुणान्वितः ॥ [[१]] देवस्वामि २. सुतो श्रेष्ठी सु (शु) भचन्द्रोदय चन्द्रकः ( को ) । कारितं च जगन्नाथ शान्तिनायो जिनोत्तमः ॥ [ ||२|| धम्मसि (शेप १४ | ] ३. तथा दुम्बरान्वये साधु जिनचन्द्र तत्पुत्र हरिश्च] [न्द्र ] तत्सुत लक्ष्मीधर श्री सा (शा) न्तिनाथं प्रणमति ४. लक्ष्मीघरस्य धर्म्मसधिज श्री मदनवर्म्मदेव राज्ये सं० १२०३ फ:० सुदि ६ सोमे । गंज बासौदा मध्य प्रदेश के विदिशा (भेलसा) जिले की एक तहसील है। जो मध्य रेलवे के बीना-भोपाल सेक्सन पर स्थित है। यहाँ व्यापार की अच्छी मण्डी है। यह नगर १४वी से १६वी शताब्दी तक खूब सम्पन्न रहा है। यहाँ जैनियों का प्रच्छा प्रभाव रहा है । यहाँ ५-७ मन्दिर माघारण भण्डार है यहां अनेक विद्वान घोर '० १३१६ जेठ वदी १ पंचमी सोमवार को गोलपूर्व गोत्र (जाति) के पति काल्हासाह और उनकी पत्नी पौडलनी के पुत्र पी० चारुलिया और संघवी नोटा भार्या बाल्ने पुत्र गंगा पुत्री भान्ती नित्य ही प्रणाम करते हैं। यह लेख इस जाति के महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि यह विक्रम की १४वीं शताब्दी के प्रारम्भ का है, उस समय भी गंज बासोदा की स्वाति थी। इस शताब्दी की और भी अनेक मूर्तियाँ होनी चाहिए, जिसके लिए मूर्ति लेखों का संकलन होना बहुत जरूरी है। बाकी लेख १६वीं १०वीं शताब्दी के हैं। " सं० १३१६ जेठ वदी ५ सोमे गोला पूर्व गोत्रे पं० काल्हा साह भाय गीतवती पुत्र मो० चाकलिया सं० लोटा भार्या बालदे पुत्र गंगा पुत्री भान्ति नित्यं प्रण मति ।" " संघ १५१५ फागुन सुदी ६ रवी श्रीमूलसंघ भट्टारक देवास्तदाम्नाये गोसापूर्व नीरा..." जिन " सं० १५२४ चैत्रवदी १ शुक्रे भ० श्रीसिंहको ति ताम्नाये गोला पूर्वान्वये साह लजेडा भार्या द्योसिरि पुत्र पटवारी चांदन भ्रातासाखामा पटवारी भादे तस्य भार्या साध्वी दिउला पुत्रसाह नेनसी पुत्र कोरसी सा० लाहा भार्या साध्वी घनसिरि प्रणमति ॥ - यंत्रनेव सं०] १५३७ फागुन सुदी १३ मूल भ० पद्मनन्दी भ० शुभचन्द्र भ० जिनचन्द्र तदाम्नाये मडलाचार्य श्री हिमन्दी तथाम्नाये गोला पूर्वाम्नाये सा० पसा भा० रजा तस्या: कुक्षी समुत्पन्ने पुष महासः भा० घोसा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों में गोलापूर्वान्वय कनिष्ठ भदुचंद भा० घोमा, अरुहदास पुत्र ५......। अरुह भी जातियां थी जिनका उल्लेख पूर्व में था, बाद में विनष्ट दासः प्रणमति। हो जाने से उनका इतिवृत्त नहीं मिलता। कितनी ही "सं० १५४१ सोमे श्री मूलसधे बलात्कारगणे सर- जातियों का उल्लेख प्रशस्तियों और मूर्तिलेखों में मिलता स्वतीगच्छे कुन्दकृन्दाचार्याम्नाये भ० पद्मनन्दी देवा, तत्पट्ट है। पर उनका कोई परिचय नहीं मिलता। ये उपजातियाँ म. शुभचन्द्रदेवा तत्पट्ट श्री जिनचन्द्रदेवा मडलाचार्य ग्राम नगरादि के नाम पर बसी है। जैसे अग्रोहा से प्रमश्री सिंहनंदि देवा तस्याम्नाये श्री गोलापूर्वान्वये चौधरी वाल, खण्डेला से खण्डेलवाल, पद्मावती से पद्मावतीपुरवीघा भा० महाश्री पुत्र चौधरी फला द्वि० पुत्र धनपा वाल, वघेरा से वघेरवाल आदि। पर अधिकांश जातियों तृ. पु० जिना चतु० पुत्र घरमसी पूला पंचपरमेष्ठी यंत्र का मूलरूप क्षत्रियत्व है, बाद में व्यापार आदि करने के कारितं ।।" कारण ये वैश्य या वनिया एवं वणिक कहलाने लगे। "सं० १५४१ वर्षे फाल्गुणसुदि ५ मंगलदिने भ० श्री इस जाति का निकास कब और कैसे हुमा, यह अभी प्रभाचन्द्रदेव तस्स चेली वाई उदैसिरि, गोलापूर्वान्वये अज्ञात है। उपलब्ध हो जाने पर इनके सम्बन्ध में विशेष लिखितं यंत्र । सिद्ध शुभं भवतु मंगलं प्रणमति नित्यम् । जानकारी बाद में दी जा सकेगी। गोला पूर्वी का निकास (वासौदा वीचिका मदिर) गोल्लागढ से हुआ है। गोल्लागढ़ की पूर्व दिशा में रहने सं० १६६४ वैशाख सुदी ६ गुरौ भ० ललितकीर्ति वाले गोलापूर्व कहलाये। गोल्लागढ़ के समीप रहने भ० धर्मकीर्ति उपदेशात् तस्य शिष्य प० गुनदास गोला- वाले गोलालारे और गोल्लागढ़ में सामूहिकरूप में निवास पूर्वान्वये कोठिया गोत्रे स० नेमिदास भार्या कुटरि पुत्र ४, करने वाले 'गोल सिंघारे' कहे जाते हैं। गोल्लागढ़ एक जेठा पुत्र खड्गसेन भा० मादनदे द्वि० पुत्र सं० कासोर- प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान है। जो पहले ग्वालियर स्टेट में दास भा० लालमति पुत्र प्रताप भा० खेमावति तृतीय पुत्र था और अब खनियाधाना स्टेट मे अवस्थित है। यहां के सं० हरखोल भा० मायावे पुत्र मानसिंह, चतु० पु० सं० जैनियो द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां अनेक स्थानों पर उपलब्ध होती है। जगपति नित्यं प्रणमति । कविवर नवल शाह ने अपने वर्द्धमान पुराण मे सं० १५४१ का० सु० १४ सोमे मूलसंधे बलात्कार 'गोइलगढ़' से गोलापूर्वो की उत्पत्ति बतलाई है। किन्तु गणे सरस्वती गच्छे कुन्दकुन्दाम्नाये भ० श्री पद्मनन्दी वह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती। कवि ने गोलापूर्वी शुभचन्द्र जिनचन्द्र तदाम्नाये मंडलाचार्य श्री सिंहनन्दी के जो गोत्र बतलाए हैं, उनमे कई गोत्र ऐसे हैं जो गाँव तस्याम्नाये गोलापून्विये साह रजा भा० पदमशिरि पुत्र या नगर के नाम पर बने हैं । उदाहरण के लिए चदेरिया' साह महाराज भा० मनी पुत्र धनपाल भा० भजो पुत्र भरत पूरिया, हीरा पुरिया, कनक पुरिया, सिरसपुरिया, नरपति भा० गालसी द्वि० पुत्र रतनसी भा० प्योसिरि घमोनिया और भिलसैया। इनके अतिरिक्त मोर भी त० पुत्र जयसिंह धनपारेण यंत्र कारापितं (वासौदा बूढ़े- कई गोत्र ऐसे हो सकते हैं जो गांव या नगर के नाम से पुरा मन्दिर)। प्रसिद्ध हुए हैं। इनके अतिरिक्त अनेक स्थानों के मन्दिर है जो गोला इस जाति के लोगों का निवास मध्य प्रदेश में अधिक पूर्व समाज के पूर्वजों द्वारा बनवाए हुए है। इन बातों से पाया जाता है। सागर, दमोह, जबलपुर जिलों के ग्रामों इनकी समृद्धि का आभास सहज ही मिल जाता है। में भी निवास उपलब्ध है। शाहगढ़, हीरापुर, तिगोडा, जैन समाज की ८४ उपजातियो से बुंदेलखण्ड में भंगवा, कारीटोरन, नीमटोरिया, गढ़ा कोटा सुनवाहा, तीन उपजातियां मध्य प्रान्त में निवास करती है। उनमे रूरावन, निवार, वक्स्वाहा, वमोरी, खड़ेरी छतरपुर, से यहाँ सिर्फ गोलापूर्व जाति के सम्बन्ध मे ही विचार पन्ना, कटनी, सीहोर, भोपाल प्रादि अनेक छोटे बेड़े किया जाता है। उपजातियों का इतिवृत्त १०वी शताब्दी स्थानों में इस जाति को प्रावादी पाई जाती हैं। हां, सभी से पूर्व का नहीं मिलता। इन उपजातियों में कितनी ऐसी स्थानों के मन्दिर शिखर बन्द पाये जाते हैं। पर उन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ वर्ष २४ ० ३ गाँवों में उनका विकास जैसा चाहिए वैसा न हो सका । संसार के परिणमनशील होने से प्रत्येक पदार्थ में प्रतिसमय परिणमन भी होता रहता है। सुख दुख, उत्थान थोर पतन की अवस्थाएँ प्रत्येक पदार्थ में होती है । समाज के कर्णधारों को चाहिए कि वे सामाजिक स्थिति का अध्ययन करें, उनमें संगठन और प्रेम भावना को विक सित करने का प्रयत्न करना चाहिए। समाज में अनेक ग्रन्थकार हुए होगे और वर्तमान में हैं । यहाँ गोलापूर्व समाज के कुछ ग्रन्थ और ग्रन्थारों का संक्षिप्त परिचय दिया जाता है प्रनेकान्स किया है और हरिषेण चक्रवर्ती का जीवन परिचय अकित करने वाले कई ग्रन्थ संस्कृत और अपभ्रंश भाषा मे पायें जाते है। प्रस्तुत हरिषेण कथा के कर्ता कवि शंकर है इसमे हरिषेण चक्रवर्ती के जीवन परिचय के साथ उनके पुत्र हरिवाहन का जीवन परिचय भी प्रकित हरिवाहन का कैलाश पर्वत पर दीक्षा लेने तथा तपश्चरण द्वारा ग्रात्म साधना करने का भी उल्लेख किया है। जो मूलसव सरस्वती गन्छ बलात्कारगण के विद्वान थे और भीमदेव पडित के पुत्र थे। इनकी जाति गोलापूर्व थी। कवि ने प्रथमे दो भट्टारको का नामोल्लेख किया है। प्रभाचन्द्र और रत्नकीर्ति । यह प्रभाचन्द्र दिल्ली पट्ट के विद्वान थे जो अजमेर के भट्टारक पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे और जिनका प्रतिष्ठोत्सव दिल्ली में हुमा था कथानक बडा सुन्दर और मन्मोहक है । ग्रंथ मे ७११ पद्म है किन्तु च्छक अपूर्ण जीणं पोर प्रशुद्धियों से भरा हुआ है। इसके संपादनार्थं दूसरी प्रति की श्रावश्यकता है। जिसका परिचय पहले दिया जा चुका है। कवि ने इस ग्रन्थ को वि० स० १५२६ भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा सोमवार के दिन पूरा किया है' । ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है । १. संवत् पन्द्रह सड़ हो गए, वरिस छत्रीस अधिक तह भए । भादयदि परिवा हसियार, दिखा पर तह प्रक्खिउ सार । अब यह कटवु संपूरण भयउ, सिरि हरिषेण संघ कह जयउ ।। सुखदेव - गोला पूर्व जाति के पचविसों में बिहारीदास के पुत्र थे। उनकी एक ही कृति 'वनिकप्रिया प्रकाश' है जिसका रचनाकाल सं० १७६७ है। पुस्तक मे व्यापार सम्बन्धी वस्तु के क्रय-विक्रय की शुभ-अशुभ बातों का समावेश किया गया है, जैसा कि निम्न पद्यो -से. प्रकट है ; वनिक प्रिया में शुभ अशुभ सबही दियो बताइ । जिहिं जैसी नोकी लगे तंसी कीजो जा ॥ ३२० संवत सत्रह सत्रह वरण संवत्सर के नाम । कवि करता सुखदेव कहि लेखक मायाराम ॥३२१ भourera पंचाशिका - यह आदिनाथ स्तोत्र ( मक्तामर स्तोत्र ) का पद्यानुवाद है, जो हिन्दी भाषा में किया गया है और जिस पर ग्वालिरी भाषा की पुट है । इसकी एक सचित्र प्रति, जो सं० १६६५ की लिखी हुई है श्वे० मुनि कान्तिसागर के पास थी प्रति जीर्णशीर्ण है। मुनि जी ने लिखा है कि "यह दुर्लभ अनुवाद है, जिसकी यह एक मात्र प्रति उपलब्ध हो सकी है। इसका समुल्लेख अद्यावधि प्रकाशित किसी भी हिन्दी भाषा और साहित्य के इतिहास में नहीं हुमा मनुवाद बहुत ही मधुर और ग्वालिरी भाषा के प्रभाव को लिए हुए है।" जितना महत्व इस कृति का धार्मिक दृष्टि से है उससे कहीं अधिक भाषा की दृष्टि से है । ग्वालियर मंडल की भाषा के मुख को उज्ज्वल करने २] दोहा-गोमा पूग्य पचवि वारि विहारीदास तिनके सुन सुखदेव कहि वनिकप्रिया प्रकाश ॥२ वनिवनि को यनिक प्रिया भसारिका हेत । आदि ग्रन्त श्रोता सुनो मनो मत्र सौ देत ॥३ माह मांस कातक करें, सेवतु सोधे साठ । मते याह के जो चले कबहू न प्रावे घाट ॥४ ३. "धनुदास हू सो देव से निरु कजारं कही भव्यानन्द स्तुति पश्चाशिका का नाम है ।। ४६ ४. इस हिन्दी पद्यानुवादकी एक सचित्र प्रति ऐनक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती भवन व्यावर में मौजूद है । जिसका भाषा पद्यानुवाद सम्मति सन्देश वर्ष ११ अक दो-तीन में छप चुका है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों में गोला पूर्वान्वय वाली अधिकतर रचनाएं जैनोंकी देन हैं। अनुवाद की भाषा पर दृष्टि केंद्रित करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि धनराज या घनुदास ने मंडलीय भाषा का प्रयोग करते समय बहुत सावधानी से काम लिया है। इसका शब्द चमन अद्भुत है। क्या मजाल है कि कठिन शब्द प्रा जाय। इसमें कोई सन्देह नही कि कवि को सस्कृत और तात्कालिक मडलीय भाषा पर अच्छा अधिकार था । भावों के व्यक्त करने मे कही भी थिय नही आने दिया है। १०७ उनका नाम प्रसिसेन या खड्गसेन था । ग्रन्थ में प्रसिसेम नाम से उल्लेख किया गया है। भव्यानन्द पचाशिका के अन्तिम पद्य से ज्ञात होता है कि कवि ने भक्तामर स्तोत्र के एक-एक पद्य का एकएक दिन मे अनुवाद किया है। ""एक-एक को कवि धनराज या घनुदास ने अपना उक्त हिन्दी पद्यानुवाद संवत १६७० मे श्योपुर में पूर्ण किया था। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है। : एकु एकु वासर में एकु-एकु नितकी । द्वय कर जोरि धनराज कहै सानि सौं, प्रसाधु समुद्ध कीज? जानि मन हित सौ ॥ अडतालीस पद्य तो मूल भक्तामर स्तोत्र के पद्यानुवाद के है और अन्त के दो पद्यों में अपने विषय मे स्वल्प संकेत किया है। जिससे जान पड़ता है कि कवि के पिता का नाम 'राजनंद' था और वह ग्वालियर मंडलान्तर्गत स्योपुर (शिवपुरी) के निवासी थे। उनकी जाति गोलापूर्व थी । धनराज या धनदास का परिवार संस्कृत साहित्य में रुचि रखता था । खड्गसेन ने लिखा है कि धनराज के पाँच भाई थे, जिनके नाम गोपान, साहिब, हमराज यादि हैं। उन सब में धनराज कवि धीर और अनेक गुणो का झाकरथा । ("तेषा मध्ये कविर्धीरः धनराजो गुणालयः ") प्रस्तुत खड्गसेन (सिंग) धनराज के पितृव्य श्री जिनदास का पुत्र था - "जिनदाससुतोऽसिसेनः) । असिसेन संस्कृत भाषा का अच्छा विद्वान था। उसने भक्तामर स्तोत्र के एक-एक पद्य पर पन्द्रह-पन्द्रह पद्यों की जयमाला जिली है। भक्तामर स्तोत्र जयमाला- इसमे भक्तामर स्तोत्र के एक-एक पद्य का अनुवाद १५-१५ पद्यो में किया गया है। अनुवाद बड़ा ही सुन्दर और सग्स है । कवि का संस्कृत भाषा पर पूरा अधिकार था। कवि की जाति गोलापूर्व है और वह घनराज के पितृव्य जिनदास के पुत्र थे । "सवतु नवसे सात सात पर सुन् घोर, पउष सिता तू गुरती- कीयो ऋत को । स्योपुर थानक विराजं राजनन्द धनुदास, ताको मन भयो भfव शिवामृत को ।" असिसेन ने संस्कृत पद्यों की जयमाला कब बनाई, उसका समय ज्ञात नही हुआ । अनुवाद हो चुकने के २४ वर्ष वाद सं० १६६४ मे मनोहरदास कायस्थ द्वारा प्रति मे ५० चित्र बनाये गये है । जिनमे ४८ चित्र तो ४८ काव्यो के है । चित्र कला की दृष्टि से स्योपुर के इतिहास मे - ग्वालियर मंडल के चित्र कम महत्व के नही है । यद्यपि ये चित्र शैली मुगल शाहजहाँ के समकालीन है। चित्र पूरे पत्र पर है। मध्य मे जहाँ कही भी स्वरूप स्थान मिला, भक्तामर के मूल पद्म दिये हैं और अधोभाग मे धनराजकृत अनुवाद दिया है। प्रथम चित्र में ऊपर के भाग मे मानतुगाचार्य एक चौकी पर विराजमान है जिनके सम्मुख कमण्डल अवस्थित है, पृष्ठभाग मे 'यह मानतुगाचार्य' शब्द प्रति है माचार्य करबद्ध प्रार्थना की मुद्रा मे भगवान ऋषभदेव की स्तुति कर रहे है। सामने ही उनकी खड्गासनस्थ नग्न प्रतिकृति कित है। चरणों मे भय और मुकुटधारी अमर मत मस्तक है। मध्य मे 'भक्तामर प्रणतमोलिमणि प्रभाणा' पद श्रालेखित है। ऋषभदेव के बाए हाथ के पास देवतानों के मस्तक मे घारित मुकुट की मणियों की प्रभा बिखर रही है। ऋषभदेव के चित्र के बायें भाग में चौगति का चित्रण है, ऊपर 'आलम्बनं' और निम्न भाग मे 'भवजले पतिताजनानां' प्रतिलिपित है। पत्र के नीचे भाग में 'दलित पापतमोवितान' लिखकर काले रंग से समुद्र बनाया गया है जिसमे एक मानवाकृति तैरती हुई बतलाई गई है । इस तरह चित्र में प्रथम पद्य का सम्पूर्ण भाव खूबी के Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८, वर्ष २४, कि०३ अनेकान्त साथ दर्शाया गया है जो पाठक को अपनी भोर प्राकर्षित थे। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न दोहे से प्रकट है:करता है। सौरह सौ इक्यानवे अगहन शुभ तिथिवार । इस तरह प्रत्येक चित्र भी भावपूर्ण हैं और पद्यगतभाव नप जुझार बुन्देलकृत तिनके राज मंझार ।। ३०२ को प्रस्फुटित करने वाले हैं। सभी चित्र दिगम्बर मुद्रा राजा जुझारसिंह वीर सिंहदेव के ज्येष्ठ पुत्र थे। के परिचायक है । ४८ चित्र मूल रचना के है । ४६वा अपने पिता की मृत्यु के बाद राज्य के उत्तराधिकारी हुए चित्र धनराज का है जो अपने गुरु से इसका पाठ सुन रहे थे। उनकी मृत्यु सं० १६८४ मे हुई थी। उस समय हैं । एक विशाल व्यास की पीठ पर किसी मुनि का चित्र ओरछे का राज्य बहुत विस्तृत था। है और सामने पांचो बन्धु जिज्ञासा की मुद्रा मे करबद्ध पश्चात् कवि के पूर्वजन भेलसी ग्राम को छोड़कर अवस्थित है। यह चित्र श्वेत रंग का है। शेष सभी गज मलहग के पास खटोला नामक ग्राम मे वस गए चित्र रगीन है । यद्यपि भक्तामर की सचित्र प्रतियाँ और थे। वही पर कवि ने १७४ वर्ष बाद सवत १८२५ में भी मिलती हैं, परन्तु वे बाद की है । यह ग्रन्थ गोलापूर्व चैत्र शुक्ला पूर्णिमा बुधवार के दिन प्रातःकाल वर्द्धमान समाज की महत्त्वपूर्णकृति है। इसके संरक्षण का उपाय पुराण या चरित की रचना की। गोलापूर्व समाज को करना आवश्यक है। यह समाज का कवि ने प्रा० सकलकीर्ति के वर्द्धमान पुराण के अनदुर्भाग्य है कि वे अपने पूर्वजों की कृतियो का भी सरक्षण सार पद्यात्मक रचना की है। जिसमे भगवान महावीर नही कर सकते। पाशा है कि समाज ऐसी महत्त्वपूर्ण के जीवन की झाकी का चित्रण किया गया है। ग्रंथ में कृतियों के संरक्षण में सावधान होगा। इस प्रति का इस महावीर जीवन की कोई खास घटना का उल्लेख नहीं लिए महत्त्व अधिक है कि उसे अनुवाद कर्ता धनराज ने है, इस कारण उसमें कुछ नवीनता नही दिखाई देती। स्वय १६९५ मे लिखवाई थी। यह प्रति स्व. मुनि कांति हाँ, उसमे यथास्थान जैन सिद्धात का विवेचन किया सागर जी के सग्रहालय में सुरक्षित थी। गया है । उसमे काव्यगत विशेषता है। ग्रन्थ में १६ वर्षमान पुराण-के रचयिता कवि नवलशाह हैं। अधिकार है। जिनमे महावीर के पूर्वभवो से लेकर वे भी गोलापूर्व जाति में उत्पन्न हुए थे। उनका गोत्र महावीर जीवन तक वर्णन दिया है। प्रजापति था और वैक बड चंदेरिया था। इनके पूर्वज कवि ने इस ग्रन्थ को राजा छत्रमाल के पती, हृदयपहले भेलसी ग्राम मे रहते थे जो ओरछा स्टेट में स्थित था शाह के नाती प्रौर सभासिंह के द्वितीय पुत्र हिन्दूपत' के उनमे भीषम साह प्रसिद्ध थे। उनके चार पुत्र थे-वहारन राज्य मे रचना की है जैसा कि उसके निम्न दोहे से प्रकट है :सहोदर, ग्रहमन मोर रतनशाह । एक दिन पिता और पुत्रो छत्रसाल पंती प्रवल नाती श्री हवयेश । ने विचार किया कि धन का सदुपयोग करने के लिए कुछ सभासिब सुत हिन्दूपत, करहिं राज्य इहि वेश ॥३११ पार्मिक कार्य करना चाहिए। तब सुन्दर जिन मन्दिर ईति भीति व्याप नहीं, परजा प्रति प्रानन्द । बनवाया गया और जिन मूर्ति प्रतिष्ठित की गई। और पंच कल्याणक रथोत्सव प्रतिष्ठा धूमधाम से सम्पन्न १. हृदयशाह का स्वर्गवास १७९६ मे हमा। उनके नौ हई। चार संघ को दान दिया गया । उस नगर का पुत्रो मे सभासिंह सबसे बड़ा था। सभासिंह ने सं० चौधरी लोधी था। उसने और चतुर्विध संघ ने भीषम १७६६ से १८०६ तक राज्य किया। सं० १८०९ साह को 'सिंघई' का पद प्रदान किया। यह घटना संवत् मे वह दिवगत हो गया। सभासिंह के तीन पुत्र थे, १६५१ के अगहन महीने मे घटित हुई थी। उस समय प्रभवसिंह, हिन्दूपत और खेतसिंह । सं० १८१५ में बुन्देलखण्ड मे नप जुझार का राज्य था, इनके पिता हिन्दूपत ने प्रमानसिंह को मरवा दिया और आप वीरसिंह देव बड़े पराक्रमी और सुयोग्य शासक थे। राजगद्दी पर बैठ गया। हिन्दूपत सं० १८३४ में घामोनी, झांसी मौर दतिया के किले इन्होने ही बनावाये दिबगत हुआ। इसने ६ वर्ष राज्य किया। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेखों में गोलापूर्वान्वय भाषा पढ़ पढ़ावही खटपुर श्रावक वृन्द ॥३१२ प्रापका संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार था । पापकी ग्रंथ रचना में प्रेरक यह कृति बड़ी सुन्दर है। प्रस्तुत ग्रन्थ चकत्तान्वयी शाह गोलापूर्व समाज के पूर्वज घर्मनिष्ठ व्यक्तियों ने जहाँ जहाँ के राज्यकाल मे रचा गया है। देव-गुरु की भक्ति द्वारा जिन मदिर निर्माण, जिनबिम्ब पंच कल्याणक प्रतिष्ठा, रथोत्सव और चतुर्विध सघ को कुन्दकुन्दान्वय मे नन्दिसंघ बलात्कारगण सरस्वती दानादि का परिचय दिया है । वहा उन्होंने श्रुतभक्ति को गच्छ के भट्टारक सिंहकीति धर्मकीर्ति के पट्टधर भारतीभी नहीं भुलाया। अनेक ग्रन्थ रचे और और दूसरे भूषण जगतभूषण हुए । जो ग्वालियर के पट्टधर और अच्छे विद्वानों से बनवाकर मंदिरादि में भेंट दिये हैं, और विद्वान थे। उन्ही की माम्नाय मे गोलापूर्ववंश में दिव्यलिखकर या लिखवाकर व्रतीपात्रों को भी प्रदान किये है। नयन हुए। उनकी पत्नी का नाम दुर्गा था। उससे दो इससे उनकी श्रुतभक्ति भी प्रकट है। यहां ग्रंथ बनवाने पुत्र हुए, केवलसेन और धर्मसेन । दिव्यनयन के द्वितीय का एक उदाहरण मात्र दिया जाता है पुत्र मित्रसेन की पत्नी यशोदा से भी दो पुत्र उत्पन्न हुए। केवल कल्याणार्चा (समवसरण पाठ) की रचना प्रथम पुत्र परम प्रतापी एव यशस्वी भगवानदास का जन्म कविवर रूपचन्द जी ने सबत् १६६२ में की थी। पंडित हुआ, जो सघ का नायक और धर्मात्मा था। दूसरा पुत्र रूपचन्द जी भट्टारकी पडित होने के कारण पांडे कहलाते हारवश भी घमप्रमो पोर गुण सम्पन्न था। भगवानदास थे। वे कुह नाम के देश में स्थित सलेमपुर के निवासी की पत्नी का नाम केशरिदे था। उससे तीन पुत्र हुए। थे । अग्रवालान्वयी मामट के पाँच पुत्रो मे से एक थे। महासेन, जिनदास और मुनिसुव्रत । सघाधिप भगवान दास ने जिनेन्द्र भगवान की प्रतिष्ठा करवाई थी । पौर १. श्रीमत्सवत्सरेऽस्मिन्नरपतिनुतयद्विक्रमादित्य राज्ये- सघराज की पदवी प्राप्त की थी। वह दानमान मे कर्ण 5 तीतेदृगनंदभद्रांशुकृत परिमिते (१६९२) कृष्णपक्षे के समान था। इन्ही भगवानदास की प्रेरणा से पडित ष (') मासे देवाचार्यप्रचारे शुभनवमतिथौ सिद्ध- रूपचन्दजी ने प्रस्तुत ग्रन्थ समवसरण पाठकी रचना की योगे प्रसिद्धे, पोनर्वस्वित्पुडस्थे (?) समवसृति मह है। इसमें कवि ने भगवानदास की जो प्रशसा की है वह प्राप्तमाप्ता समाप्ति ॥३४॥ अतिशयोक्ति को लिए हुए है । उपदेशी पद कविवर धानतराय मिथ्या यह संसार है, मुठा यह संसार है रे ॥टेक। जो वेही षटस सौ पौष, सो नहिं सग चल रे। औरन को तोहि कौन भरोसो, नाहक मोह कर रे ॥१ सुख की बातें बुझ नहीं, दुखको सुक्ख लख रे। मूढो माहीं माता डोले, साषौं पास रे रे ॥२ मुठ कमाता सूठी खाता, मूठी माप पै रे। सच्चा साई सूझे नाहीं, क्यों करि पार लगै रे ॥३ जमसों डरता फूला फिरता, करता मै मैं मैं रे। खानत स्याना सो हो जाना, जो प्रभु ध्यान पर रे॥४ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध कण धोनीरज जैन अनेकान्त के गत अंक (वर्ष २४ किरण १) में बिलहरी (जिला जबलपुर म०प्र०) में ग्राम के श्री मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी के लेख "जैन बाहर स्कूल के पास एक छोटे से वीरान मन्दिर में शिल्प में बाहुबली" के अन्तिम पैरा में बाहुबलि किसी प्राचीन मन्दिर की द्वार शिला (चौखट) एवं भरत के अंकन या चित्रांकन का प्रसंग आया लगी हुई है। यह चौखट कलचुरी कालीन किसी है। इस सम्बन्ध में ज्ञातव्य है कि प्राचीन पाषाण आदिनाथ मन्दिर की है। इस पर सुन्दर और कलाकला कृतियों में दो जगह मुझे भगवान आदिनाथ पूर्ण तक्षण किया गया है। इस द्वार के ऊपरी भाग के साथ भरत और बाहुबली की प्रतिमाएँ एक ही में, ललाट बिब की तरह, तीन प्रतिमाओं का अकन शिला-फलक पर प्राप्त हुई हैं। हुअा है। बीच में युगादिदेव भगवान आदिनाथ विराजमान हैं। एक भोर लता बेल और ब्यालों (१)मड़ावरा (जिला झासी उ० प्र०) के बजार से पावेष्ठित महायोगी बाहबलि का अंकन है और के मन्दिर में सिरोन से लाई गई एक प्रतिमा बीच दूसरे किनारे पर भरत को प्रतिष्ठित किया गया है। की वेदी पर प्रतिष्ठित है जिसमें बीचोंबीच भगवान यहां भरत को भी बाहुबलि की ही तरह अरहन्त प्रादि जिनेन्द्र विराजमान हैं तथा उनके दोनों पोर अवस्था में ध्यानारूढ़ खड़गासन दिखाया गया है। बाहुबलि और भरत का अंकन है । भरत-बाहुबलि उनकी पीठिका में लांछन की जगह पर चक्र अंकित दोनों ही मोक्षगामी महापुरुष थे और प्रथम तीर्थ है जो इस बात का सहज ही ज्ञान करा देता है कि कर ग्रादिनाथ के शासन काल में ही कर्म कालिमा ये कोई तीर्थकर नहीं है वरन आदि देव के सुपूत्र से विनिमुक्त होकर सिद्ध लोक में विराजमान हो। और बाहुबली के भ्राता, चक्रवर्ती सम्राट् भरत गए थे। इसलिए अरहन्त अवस्था की उनको ही हैं। प्रतिमा बनाने या पूजे जाने में कोई शास्त्रीय । इस प्रकार भरत बाहुबलि का अंकन पाषाण विरुद्धता नही पाती। प्रतिमानों में भी प्राप्त हुआ है। शोध करने पर (२) कलचुरी राजाओं की कला-क्रीडास्थली संभव है अन्यत्र भी ऐसे शिल्पावशेष प्राप्त हों। अनेकान्त वर्ष २४ किरण १ के इसी अंक में श्री वर्णन किया गया है उनके अतिरिक्त अन्य अनेक कलचुरी कस्तूरचन्द "सुमन" एम. ए. का लेख-"त्रिपुरी की कालीन जैन प्रतिमाएं वर्तमान तेवर ग्राम में व उसके पास कलचुरी कालीन जैन प्रतिमाएं"-एक सुन्दर लेख है। पास बिखरी पडी हैं। सम्बन्ध में दो तथ्य विचारणीय है। मुनि कान्तिसागर वाले मूर्ति संग्रह में, जो सम्प्रति (१) त्रिपुरी की जिन जैन प्रतिमानों का लेख में संभवतः जबलपुर के शहीद स्मारक मे कहीं दबा पड़ा है, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोष कण विपुरी से प्राप्त प्रनेक सुन्दर जैन प्रतिमाएं थी। मभी दो वास्तव में यह मनोहारिणी मूर्ति, युगादिदेव भगवान् वर्ष पूर्व तेवर ग्राम के पास खेत जोतते समय कलचुरी मादिनाथ की प्रतिमा है। मूर्ति के कांधे पर लहराती कालीन सात पाठ सुन्दर मूर्तियां प्राप्त हुई थी जो बाद जटाएं इस बात का ज्वलंत प्रमाण है । भगवान् प्रादिनाथ में जबलपुर ले आ गई थीं। इनमे भी जैन मूर्तिकला का के दीर्घकालीन, दुद्धर तपश्चरण के कारण उनकी प्रतिमा उत्कृष्ट प्रतिनिधित्व था। तेवर ग्राम की वापिका पर, में जटाएं बनाने की परम्परा मध्यकाल तक प्रचलित रही तालाब के मन्दिर की बाह्य भित्ति पर, ग्राम के मन्दिरों है। जटामों के प्रकन के इस रहस्य का उल्लेख आदि में तथा एक दो लोगों के घर पर कुल मिलाकर लगभग पुराण में इस प्रकार वणित हैपाठ दस जैन तीर्थकर मूतियों तथा इतनी ही जैन शासन चिरं तपस्यतो यस्य जटा मूनि बभुस्त राम् । देवता प्रतिमाए दो वर्ष पूर्व तक पड़ी थीं। तीन शासन ध्यानाग्निदग्ध कर्मेन्धनिर्यदधुमशिखा इव ॥ देवता मूर्तियों का चित्र भी सागर-विश्वविद्यालय की -(प्रादि पुराण पर्व १, श्लोक ६) पत्रिका में मैंने प्रकाशित कराया था। दूसरी बात जो इस मूर्ति के सम्बन्ध मे मेरी समझ में (२) जबलपुर मे हनुमान ताल के बड़े जैन मन्दिर प्राती है वह है इसकी स्वरूप भिन्नता । सम्भवतः प्राज में प्रतिष्ठित जिस प्रतिमा का लेख में वर्णन है, वह सच- से सौ डेढ़ सौ वर्ष पूर्व यह मति प्रातः खण्डित अवस्था मुच ही कलचुरी कालीन जैन मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदा मे तेवर अथवा उसके पास पास के किसी स्थान से उठा हरण है । इतनी सुन्दर और सज्जा पूर्ण तीर्थकर प्रतिमाएं कर लाई गई होगी। मूर्ति को पुनः स्थापित करते समय बहुत हा कम उपलब्ध हुई हैं। सच तो यह है कि इस किसी स्थानीय कारीगर ने उसकी खण्डित प्राकृति को प्रतिमा के परिकर को सज्जा और वैभव का सही संवारने की कोशिश की है। मुख की प्राकृति, अांखें, अंदाजा, विना मूर्ति का दर्शन किये लग ही हाथो की अंगुलियां तथा पैर ध्यान से देखने पर, यह नहीं सकता। मैंने इस प्रतिमा का एक चित्र गत वर्ष बात स्पष्ट हो जाती है। लिया था जो इस नोट के साथ प्रकाशित हो रहा है। जिस कला कुशलता से मूर्ति का परिकर, विद्याधर कलचुरी कलाकारों की अद्भुत तक्षण प्रतिमा की एक तथा इन्द्र प्रकित किए गए है, मूल प्रतिमा के प्राकार झांकी इस चित्र से पाठकों को मिल जायगी। तथा अनुपात मे उस दक्षता की छाह नही है। ध्यान से लेख के विद्वान लेखक ने इस प्रतिमा को तीर्थकर देखने पर भासित होता है कि शीर्ष भाग को छोडकर पद्म प्रभु की प्रतिमा लिखा है। मैं उनकी इस घारणा से । प्रतिमा का पूरा प्राकार एक प्रगुल नीचा उतार कर पुनः सहमत नहीं हूँ। तराशा गया है। कुछ भी हो, यह बात निविवाद है कि पीठिका पर प्रकित कमल इस प्रतिमा का चिह्न नहीं कलचुरी कालीन देव प्रतिमानो मे इतनी ऐश्वर्य शाली है, वह तो सज्जा का एक प्रश और अर्चना का प्रतीक और वैभवपूर्ण प्रतिमाए बहुत कम मिली है। मात्र है। कुण्डलपुर के बड़े बाबा की मूर्ति में तथा खजु- इसी मन्दिर मे रखी हई जिस पद्मावती प्रतिमा का राहो, देवगढ़ आदि को अनेक प्रतिमामों में कमल का लेख में उल्लेख किया गया है वह प्रतिमा नवीन है और ऐसा ही मकन भिन्न-भिन्न तीथंकरों की पीठिका पर उसे लेखक के प्रमाद वश ही कलचरी कालीन प्रतिमानी पाया जाता है। के साथ जोड़ लिया गया ज्ञात होता है । - - - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरि कालीन एक नवीन जैन भव्य शिल्प कस्तूरचन्द 'सुमन' एम. ए. जबलपुर दि. ८ जुलाई ७१ नवभारत दैनिकपत्र में रहा है । सम्प्रति उपलब्ध मूर्ति सम्भवतः उसी मन्दिर में लखनादौन (सिवनी) म. प्र. मौर्यकालीन एक प्राचीन प्रतिष्ठित रही है। इस उपलब्धि से स्व. रायबहादुर जन प्रतिमा उपलब्ध होने के समाचारों के साथ शिल्प द्वारा प्रकट की गयी संभावना कि यह लेख जैनों का है, का चित्र भी प्रकाशित कराया गया है। यह जन शिल्प, न केवल पुष्ट होती है बल्कि उक्त संभावना को सत्य लखनादौन के मूला काछी परिवार के शारदाप्रसाद हर- निरूपित करती है । इस भांति इस भव्य शिल्प को १०वीं दिया के बगीचे में जमीन के मात्र दो फुट नीचे से दि० शती के प्रासपास का तिथ्यांकित किया जाना उपयुक्त ७-७-७१ को उपलब्ध हुआ है। प्रतिमा का अंकन ४ फुट प्रतीत होता है । ऊंचे और सवा दो फुट चौड़े शिलाखण्ड पर हुआ बताया र सवा दा फुट चाड़ शिलाखण्ड पर हुआ बताया शिल्प मौर्य कालीन नहीं, कलचुरि कालीन है : अन्य गया है। स्थानों में प्राप्त मौर्यकालीन कलाकृतियों से यह पूर्ण प्राचीन जैन केन्द्र : जिस स्थल विशेष से यह भव्य । समानता रखती है, यह तर्क देते हुए डा० सुरेशचन्द जैन शिल्प उपलब्ध हुमा है, उसके २/३ फरलांग के समीपवर्ती प्रादि ने इस शिल्प को मौर्यकालीन बताया है किन्तु क्षेत्र में अन्य खण्डित मूर्तियाँ और कलाकृतियाँ उपलब्ध 'रत्नेश' जी लामटा द्वारा डा० सुरेश जैन से प्राप्त शिल्प होती रही हैं. तथा प्राज भी यदा कदा उपलब्ध होती है। चित्र को देखने से ऐसा ज्ञात होता है कि इस कृति का इन उपलब्धियों से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल बहत कुछ वैसा ही अंकन हुअा है, जैसा कि अंकन कलमें यह शहर प्राचीन भारतीय संस्कृत का केन्द्र रहा है। चुरि कालीन हनुमान ताल जबलपुर के जैन बड़े मन्दिर इस उपलब्धि ने यह भी प्रभावित कर दिया है कि मे स्थित प्रतिमा में दिखाई देता है। जबलपुर से १०-११वी शती के निकट यह शहर जैन संस्कृति का भी प्राप्त एक ऐसा ही जैन शिल्प नागपुर संग्रहालय में भी प्रमुख केन्द्र रहा है। विद्यमान है। इससे स्पष्ट है कि 'उपलब्ध प्रतिमा' कलसमय : स्व० रायबहादुर हीरालाल ने अपनी पुस्तक चुरिकालीन है, मौर्यकालीन नही । "इन्स्क्रिपशन्स इन सी० पी० एण्ड बरार" के पृ० ६६ मे परिकर : अब तक महावीर नाम से प्रसिद्ध कलचुरि लखनादौन से ही उपलब्ध एक द्वार शिलाखण्ड पर अकित कालीन दो प्रतिमाए ही भव्यता में ज्ञात थीं। इसमे एक अभिलेख की उपलब्धि निर्देशित की है। उन्होंने प्राप्त नागपुर संग्रहालय में विद्यमान है जिसे १०वीं शती का भभिलेख के जैन मन्दिर का होने की संभावना प्रकट बताया गया है (देखिए-नागपुर संग्रहालय स्मरणिका, करते हुए लिखा है कि लेख में मन्दिर निर्माता को अमृत सेन का प्रशिष्य और त्रिविक्रमसेन का शिष्य बताया गया १६६४ ई०, पृ० ३६ पर प्रकित चित्र)। है। निर्माता का नाम अदृश्य है। लेखक ने लेख की लिपि द्वितीय मूर्ति हनुमान ताल जैन मन्दिर में विराजमान के प्राधार पर लेख को १०वीं शताब्दी के होने की है जिसे मैंने अनेकान्त (वर्ष २४ कि० १ वीर सेवा संभावना भी व्यक्त की है। मन्दिर २१ दरियागंज देहली ६) में प्रकाशित अपने लेख इस उल्लेख से ऐसा ज्ञात होता है कि इस शहर मे में अलेकरण के रूप में अंकित प्रासन में तीन कमला१०वीं शती के प्रासपास अवश्य ही कोई जैन मंदिर निर्मित कृतियों को देखकर पद्मप्रभ कहा है जबकि जैन नवयुवक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलचुरि कालीन एक नवीन जैन भव्य शिल्प समाज जबलपुर द्वारा प्रकाशित प्राचार्य रजनीश के प्रतिमाओं के मारे विश्व पद का प्रकन ध्यानाकर्षक है। अमृत कणः १९६६ मे प्रकाशित पुस्तिका के मुख्य पृष्ठ तीनो प्रतिमानों के परिकर को देखने से ऐसा ज्ञात पर अंकित उक्त प्रतिमा के मनोज्ञ चित्र में स्कन्धों पर होता है कि नागपुर एवं जबलपुर की प्रतिमाए किसी एक लटकती हुई केज गशि से एमा ज्ञात होता है कि यह ही कलाकार की वृतियाँ है, उनके प्राप्त स्थल से कभी प्रतिमा आदिनाथ प्रथम तीर्थकर की है। यह बात तर्क सगत प्रतीत होती है किन्तु लखनादौन की लखनादौन से प्राप्त नयनाभिराम शिल्प के शिरोपरि- प्रतिमा किसी अन्य कलाकार की कृति ही ज्ञात होती है। कलाकृति से पूर्व विछय अकित है। विछत्र के दोनो लखनादौन मति के परिकर मे कमलासीन हाथियों के पाश्वों मे उड्डायमान अपनी पत्नियो से युक्त दो गंधर्वो नीचे मध्यस्थ प्रावृति के दोनो पोर चंवर धारी प्राकृतियाँ का चित्रण ध्यानाकर्षक है। ऐसे गपर्व न तो हनुमान उत्कीर्ण है। ये प्राकृतियां अलकारो से विभूषित है। ताल की मूर्ति मे प्रकित है पोर न नागपुर संग्रहालय मस्तक पर किरीट, कानो मे कुण्डल, भुजानो मे भजबध, की मूर्ति में ही। गधों के नीचे दोनो पोर कमलाकृतियों गले में मालाए दिखाई देती है। पर अंकित अलंकृत हाथो चित्रित किये गये है। हाथियो पर प्रायन के नीचे पीटिका के मध्य मे प्रतिमा लाउन अपनी पत्नियों महित सवार ऐसे प्रतीत होते है मानो की प्राकृति सी उत्कीर्ण है जिससे प्रतिमा महावीर की इन्द्र ऐरावत हाथी पर सवार होकर अपनी पत्नी इन्द्राणी के ज्ञात होती है। लाइन के नीचे घम चक्र प्रकित है । चक्र साथ जिनेन्द्र स्तवन के लिए पाया हो। इस प्रतिमा पर के दोनो भार स्त्री एव पुरुष की मानवाकृतियाँ है । धर्मउपलब्ध इस प्रकन से ऐसा प्रतीत होता है कि हनुमान चक्र के दोनो प्रोर अलकृत दो स्तम्भ है जिन पर प्रतिमा ताल तथा नागपुर सग्रहालय की प्रतिमानो का कुछ का ग्रासन प्राधारित दिखाई देता है। स्तम्भो के पास ऊपरी प्रा टूट गया है, मेरी ममझ में उन प्रतिमाओ में धर्म चक्र के दोनी पार मिगे का प्रदर्शन भी है जो तीर्थभी ऐसी ही प्राकृतियाँ अवश्य ही रही है। उन पर कर के सिंहासन पर बासीन होने की पुष्टि करते है। अकित मवार हीन हाथी इस बात की मार सकेत भी प्रतिमा : इस मनोहारी प्राकृति के पृष्ठ भाग में एक करते है । नागपुर की प्रतिमा मे मिलान करने पर जबल- __ कमल अल कर ण वाला प्रभामण्डल है। भगवान की केश पर हनुमान ताल की प्रतिमा का नीचे का प्रासन वाला रचना गुच्छको केम्प में निर्मित है। श्रीवत्स चिन्ह का अग भी दया हुमा ज्ञात होता है। क्योंकि नागपुर सग्रहा. अस्पष्ट संकेत मिलता है । मूर्ति के मुग्यमडल पर प्रगतलय की प्रतिमा में प्रामन पर नवग्रह प्राकृतियाँ भी मंदास्य, शाति एव विरक्ति के भाव चित्ताकर्षक है। मूर्तिगत हो गयी है। चिह्न दोनों मे नही है। नागपुर कण्ठ में प्रदर्शित तीन रेखाए मानो सकेत कर रही है कि सग्रहालय में प्रतिमा महावीर के अकन के नाम से स्थित त्रिरत्न धारण करके ही शिव रमणी को वरण किया जा है परन्तु किमी प्रमाण या लाछन के अभाव में प्रतिमा सकता है। पद्मासन मुद्रा में ध्यान निमग्न यह प्रतिमा का ऐमा नामाकन करना उचित नही है। इन दो। महाकोशल मे एक अनूठी कृति है। जा अनेकान्त के ग्राहक बनं 'भनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अनिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे । ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरो विद्याथियों सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयो और जैन श्रुत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते है कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'भनेकान्त' Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयकुमार परमानन्द जैन शास्त्री अभयकुमार शिशुनागवंशी राजा विम्बसार (श्रेणिक) बकरा भेजा । और कहा कि इसे खूब खिलामो-पिलायो, और नन्दश्री का पूत्र था। नन्दश्री वेणुग्राम के सेठ की परन्तु यह ध्यान रखना कि इसका एक तोला भी वजन विदूषी कन्या थी । वह बड़ी चतुर रूप और लवण्य सयुक्त न बढ़े । विप्र लोग इस आज्ञा से परेशान थे कि यदि सतो साध्वी थी। श्रेणिक का विवाह उसी के साथ हुआ बकरे को खूब खिलाया-पिलाया जायगा तो वह मोटा हो था। अभयकुमार उन्हीं दोनों का पुत्र था। वह पाठ वर्ष जायगा, उसका वजन बढ़ जायगा। और उसे खिलायाकी अवस्था तक अपनी ननिहाल में ही रहा। उसके पिलाया न जाय तो वह दुर्बल हो जायगा। तब उन्होंने पश्चात् माता और पुत्र दोनो ही राजगृह पा गए। अभयकुमार से कहा कि माप हमारी इस समस्या को हल अभयकुमार बाल अवस्था से ही चतुर बुद्धिमान और करें। कुमार ने उन्हें दिलासा दी और कहा कि घबरामो प्रतिभा सम्पन्न था। उसकी प्रतिभा विवेकशालिनी थी। नही जो मैं उपाय बताता हूँ उसे करो, तुम दिन में बकरे कई मामले क्यो न मा को खूब खिलामो-पिलानो, फिन्तु रात्रि में २-३ घंटे के जाय, फिर भी बह उससे घबराता नही था। वह सहन लिये गीदड़ के सामने बांध दो, इससे उसका वजन नहीं शील और तेजस्वी था। कठिन कार्य आने पर ही वह उस बढेगा और न कम होगा। चुनांचे एक सप्ताह बाद जब पर विचार करता और उसे हल करने के लिए अनेक उस बकरे को तौला गया तो उसका वजन न बढ़ा और न घटा-समवस्थित रहा-जितना था उतना ही उपाय काम में लाता। परन्तु वह कभी निराश नही रहा। हुप्रा। विम्बसार ने नन्दिग्राम के ब्राह्मणो को प्राज्ञा दी कि उसने अपनी बाल अवस्था मे नन्दिग्राम ब्राह्मणो की अच्छा बढ़िया दूध गाय, भैस, बकरी प्रादि किसी भी विपदामों का निराणरण किया था। उससे उसकी बुद्धि पशु का न हो, और न नारियल आदि फलों का हो । कई मत्ता का पता चलता है। यहां दो-तीन उद्धरण पाठकों घड़े दूध भिजवायो । ब्राह्मण लोग इस प्राज्ञा को सुनकर की जानज्ञारी के लिए दिये जाते है। स्तब्ध रह गए। उन्होंने विचार किया कि दूध जिन राजा श्रेणिक ने नन्दिग्राम के ब्राह्मणों के पास एक पशुओं का होता है, उसका उन्होंने निषेध कर दिया। १. तस्स णं सेनियस्य रन्नो पुत्त नंदाएदेवीए अत्तए अभए अब हम इस प्राज्ञा का पालन कैसे कर सकेगे। वे सब नाम कुमारो होत्था । घबड़ा गए । और वे अभय कुमार के पास गए और उनसे -निरवावलिका सूत्र २३ । प्रार्थना की कि राजकुमार प्रबकी आज्ञा तो ऐसी कठोर नस्साण सणियस्स पुत्ते नदाएदेवीए अत्तए अभए आई है कि हम उसके पालन करने मे सर्वथा असमर्थ है। नाम कमारो होत्था। अतः पाप हमे कोई ऐसा उपाय बतलाइये जिनसे हमारी -ज्ञाताधर्मकांग ० १ ०१ रक्षा हो सके । अभयकुमार ने कहा पाप धबड़ाइये नही, नोट-बौद्धो की थेरी गाथा अट्ठकथा में अभयकुमार प्रापका कार्य हो जायगा। राजकुमार ने कच्चे जो की को उज्जैन की पद्मावती बेश्या का पुत्र बतलाया है। ललियां मंगवाकर उनका दूघ निकलवा कर घड़ों मे किन्त दिगम्बर-श्वेताम्बर जैन परम्परा में उसे नंदश्री भरवा दिया और राजा बिम्बसार के पासभिजवा का ही पुत्र बतलाया गया है। दिया। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयकुमार पुनः बिम्बसार ने नन्दिग्राम वालों को यह प्राज्ञा दी है। उन्होने अपने मन में अनुमान कर लिया कि सम्राट कि एक कूष्माण्ड (कुम्हडा-कद्द ) जो घडे के पेट बराबर के कठिन प्रश्नों का उत्तर इसी राजकुमार ने दिया था हो, कम या अधिक न हो, शीघ्र भिजवायो । अन्यथा ग्राम न कि ब्राह्मणो ने । पश्चात् उन्होने नन्दिग्राम में जाकर खाली कर दो। इस प्राज्ञा को सुनकर सभी घबडाये। राजा श्रेणिक बिम्बसार के पुत्र, उनकी रानी नन्दा मोर कुमार प्रभयके पास जाकर बोले, कमार ने एक मिट्टी तथा उसके पिता सेठ इन्द्रदत्त अपने सेवकों सहित ठहर का बड़ा घड़ा मगवाया और कद्दू की फलवाली वेल हए है। अत एव वे लज्जित तथा प्रानन्दित होकर वहाँ उसमें डाल दी, वह कद्दू दिन पर दिन बढ़ता गया, जब से गिरिव्रज लौट गए। वहां पर उन्होंने सम्राट को नमवह घड़े के पेट के बराबर हो गया तब उसे राजा श्रेणिक स्कार कर प्रभय की जो-जो चेष्टाएं देखी थीं, वे सब कह के पास भिजवा दिया। राजा बिम्बसार ने विचारा कि सूनाई। उन्होंने महाराज से कहा :नन्दिग्राम के ब्राह्मण तो इतने दुद्धिमान नहीं है, जो मेरी महाराज हम उस कुमार को देखकर पहले ही समझ सब प्राज्ञानों को पूरा करें । कोई न कोई बुद्धिमान पुरुष । गए थे कि यह असाधारण बालक नन्दिग्राम का नहीं हो उस ग्राम में जरूर पाया है, जिससे ब्राह्मणों की रक्षा हो सकता। यह सब लडको से तेजस्वी प्रतापी और राजरही है और उसने इस बात का पता लगाने के लिए लक्षणो से मंडित था। उपस्थित बालकों में उसके समान गुप्तचर भेजे। उन्होने जाकर पूछ-ताछ की, एक जामुन अन्य किसी मे वैसा तेज दृष्टिगोचर नही हुमा। बाद में के पेड़ पर कुछ बालक जामुन खा रहे थे । इन आदमियों लोगो से बात चीत करने पर हमें उसका यथार्थ परिचय को प्राते हुए देखकर कमार ने लड़कों से कहा कि इनसे लिया। प्रब प्राप जैसा उचित समझे सो कर । और कोई बात न करे, मै उनसे सब बात करूगा। जब वे पास में पाये तो कहने लगे कि कछ जामून हमे भी एक दिन राज्यमंत्री वर्षकार ने सम्राट से निवेदन दोगे। कुमार ने कहा आप कैसे जामुन चाहने हो। किया कि राजकुमार प्रभय की विलक्षण प्रतिभा के समा. गरम-गरम या ठडे । क्योंकि मेरे पास दोनो प्रकार के चार मिले है सम्राट् | ऐसी विलक्षण बुद्धि तो बड़े-बड़े फल है । उन्होने कहा गरम-गरम चाहिए । कुमार ने पके विद्वानो मे नही होती। उन्हे शीन बुलवाना चाहिए। हुए जामुमो को तोडकर और मसलकर नीचे डाल दिये, सम्राट् तुम्हारा कथन ठीक है, वर्षकार ! मैं भी उन्होने उनको धून साफ कर फॅक.फूककर खाए । कुमार कुमार को यहा बुलवाने की बात सोच रहा था, किन्तु ने कहा कि हमने अापके कहे अनुसार गरम-गरम जाम् कुमार को बुलवाने का ढंग भी ऐसा विलक्षण रखूगा कि दिये, पाप लोग इन फलों को खब फंक मार-मार कर तथा उसमे कुमार को अपनी बुद्धि की एक भोर परीक्षा देनी ठडा करके खाएं, कहीं ऐसा न हो कि इनकी पांच से होगी। अच्छा, नन्दग्राम भेजने के लिए एक दूत को आपकी दाढ़ी-मूछे जल जाए । ____ इस पर उन राजपुरुषों ने लज्जित होकर कहा- __दूत-मैं नन्दिग्राम जाने के लिए उपस्थित हूँ महाराज ! 'प्रच्छा , अब पाप हमे ठडे फल दे। सम्राट् तुम अभी नन्दिग्राम चले जायो, वहाँ जाकर तुम तब अभयकुमार ने उन्हें कच्ची-कच्ची जामुनें देनी । कुमार अभय से मिल कर कहना कि पापको महाराज ने प्रारम्भ की। बुलाया है। किन्तु उन्होंने यह आज्ञा दी है कि प्राप अभयकुमार की वाक्चातुरी, तेजस्विता, मुख का मार्ग से पावें, न उन्मार्ग से प्रावे, न दिन में प्रावें न रात सौन्दर्य प्रावि अन्य बालको से असाधारण उनके बहुमूल्य में पावें । भूखे पेट न पावें, प्रफरे पेट भी न प्राबे, न वस्त्रों को देखकर वे राजपुरुष समझ गए कि यह कोई किसी सवारी में पावें। और न पैदल ही प्रावें, किन्द्र असाधारण बुद्धि वाल। राजकुमार है। उनको यह सम- गिरि व्रज नगर शीघ्र ही भावें। झते देर न लगी कि यह राजकमार नन्दिग्राम का नहीं "जो माज्ञा सम्राट् !" बुलवायो। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६, वर्ष २४, कि० ३ अनेकान्त हत कह कर वहाँ से चला गया, उसने नन्दिग्राम निवासियों की बड़ी भारी भीड़ उनके दर्शन करने क कर प्रभयकमार को भक्तिपूर्वक प्रणाम कर महा. राजमार्ग पर एकत्रित थी। नगर की स्त्रियाँ तो मार्ग के जका सन्देश ज्यो का त्यो कह सुनाया। सम्राट् द्वारा प्रत्येक मकान की छत पर जमा हो गई थी। आगे-मागे कमार के बलाए जाने का सन्देश सारे नन्दिग्राम में फैल बाजा बजता जा रहा था, जिससे मार्ग में भीड बराबर गया। इस समाचार को सुन वहाँ के सब ब्राह्मण घबरा बढ़ती ही जाती थी। उत्सुकता वश स्त्रियों में तो उनको मौर सोचने लगे कि प्रब हमारी रक्षा किसी प्रकार देखने की होड़ मी लग गई थी। कोई स्त्री तो रसोई होमो सकती । अब तक तो कुमार ने हमारे जीवन को बनाने का कार्य बीच ही मे छोडकर छज्जे की पोर भागी कर ली; किन्तु अब कुमार के चले जाने पर हम और कोई एक स्त्री अपने बालक की एक प्राँख मे काजल लोगो को सम्राट के कोपानल मे भस्म होना ही पड़ेगा। लगाकर दूसरी यौख यो ही छोड बाजो का शब्द सुन है ईश्वर ! सम्राट ने कुमार को बुला कर बडा अनर्थ बालक को उठाकर भागी। कोई नारी अपने पैरों में लाल किया हे परमात्मा, हम लोगों से ऐसा क्या पाप बन मेहदी लगा रही थी, वह मेहदी से अपने सारे फर्श को गया है जिसके परिणाम स्वरूप हम दुख ही भोग रहे है। खराब करती हुई अपने बाला खाने में जा पहुँची। इसे भगवन ! हमारी रक्षा करो। इस तरह रोते-चिल्लाते तरह नारियों के ठट्ठ के ठट्ठ' छज्जों, बालाखानों, अटांहा ब्राह्मणकूमार अभय की सेवा में उपस्थित हो, गेने गियों और चौखण्डों में जमा हो गए। और वे बडी लगे। उनकी दुखी अवस्था देख कुमार बोले उत्सुकता से कुमार को देखने लगी। बालक, वृद्ध और ब्राह्मणो ! आप इतना खेद क्यो करते है ? सम्राट् युवा सभी कुमार को देखने के लिए अत्यन्त उत्साह से ने मुझे जिस प्रकार आपने को प्राज्ञा दी है मै उनके पास जमा हो गए। उसी प्रकार जाऊँगा। गिरिब्रज में भी आप लोगो का जनता की अपार भीड़ के साथ कुमार की सवारी भी नगर में आगे-मागे बढ़ती जाती थी। बाजो के पीछेपूरा ध्यान रखूगा । पाप लोग किसी बात की चिन्ता न । कर। पीछे बंदी जन कुमार की विरुदावली का बखान कर रहे ब्राह्मणों को धैर्य बघाकर और समझा बुझा कर थे। स्थान-स्थान पर नगरवासी जन राजकुमार की कुमार ने समस्त सेवकों को तैयार करने के लिए अपने प्रशसा कर रहे थे। इस तरह राजमार्ग से जाते हुए नाना सेठ इन्द्रदत्त से कहा । उनकी प्राज्ञा के साथ उनके कुमार अभय राजसभा के पाम जा पहुँचे। उन्होने रथ से सभी अनुचर जाने के लिए तैयार हो गए। सेठ इन्द्रदत्त उतर कर अपने नाना सेठ इन्द्रदत्त के साथ राजसभा में एक रथ पर पृथक् बैठे। कुमार ने अपने लिए जो रथ प्रवेश किया। प्राज कुमार के प्रागमन के कारण दिन मगवाया उसके बीच में एक छीका बघवा दिया। छिप जाने पर भी राजसभा पूरी भरी हुई थी। दिन समाप्त होने पर जब संध्याकाल हुग्रा, तब राजकुमार ने सभा मे सम्राट को रलटित सिंहासन कमार ने गिरिव्रज की पोर अपने समस्त सेवको और पर विराजमान देखकर उन्हें नमस्कार कर उनके चरण गरक्षको सहित रथ हकवा दिया। चलते समय रथ का छुए। सम्राट ने उनको खैचकर अपनी गोद में बैठा एक पहिया मार्ग मे चलाया गया और दूसरा पहिया सड़क लिया । स्वागत सत्कार के बाद कुमार ने सम्राट् से निवेके बगल मे उन्मार्ग में डाल दिया गया। कुमार ने चलते दन किया, "पिता जी! मेरी प्राप से एक प्रार्थना है. समय चने का प्राधा पेट भोजन किया और रथ के उस पाप प्राज्ञा दे तो निवेदन करूं।" छीके में बैठ गए। इस तरह अनेक ब्राह्मणो के साथ अभय सम्राट् बिम्बसार प्रसन्न होकर बोलेकुमार प्रानन्दपूर्वक गिरिव्रज पहुँच गए। "अवश्य कहो बेटा ! क्या कहना चाहते हो।" - अभयकुमार के सायकाल तक गिरिव्रज पहुँचने का तब अभयकुमार ने कहासमाचार नगर मे पहुँच ही चुका था, इस कारण नगर "पिता जी! मेरा निवेदन यह है कि नन्दिग्राम के Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयकुमार ये विप्रगण आपकी सेवा मे प्राहै। यदि उन्होंने अनजाने मे कोई अपराव कर भी दिया है, तो आप अपने बडप्पन का ध्यान कर उन्हें क्षमा कर दे। मेरी श्राप से यह विनय है । मैं उनको अभयदान दे चुका हूँ ।" अभयकुमार के इतने कहा ही नदिया के शब्द नन्दिग्राम ब्राह्मण भी सम्राट् के चरणों में गिर पड़े, और उनसे विनय पूर्वक क्षमा मागने लगे। तब सम्राट् न कहा "अच्छा, कुमार ! जब तुम इनको अभयदान दे चुके हो तो हम भी इनको अभय करते है।" फिर सम्राट ने शह्मणों की ओर मुख करके कहा'विप्रगण | आप प्रसन्नता से नन्दिग्राम चले जावे | अब आपको किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नही । आपके अधिकार में किसी प्रकार की भी कमी नहीं की जावेगी । महाराज के सुनकर ब्राह्मणो ने कहा "सम्राट् की जय हो, कुमार अभय की जय हो । हमे आप ने जीवन दान दिया । ग्रापका कल्याण हो ।" नन्दिग्राम के ब्राह्मण वहाँ से अत्यन्त प्रसन्न होते हुए अपने गाँव चले गए । युवराज पद गिरि व्रज की राजसभा को ग्राज विशेषरूप से राजाया गया है । सुन्दर पताकाओ और तोरणो से खम्भो को अलकृत किया गया। अच्छे और नए फर्श बिछा कर उसे और भी सुन्दर बना दिया, घासनों की संख्या भी बढ़ा दी गई, जिससे जनता ग्रासानी से बैठ सके । प्रातःकाल से ही जनता ने राजसभा में थाना प्रारम्भ कर दिया। नगर निवासी उत्साह पूर्वक राजसभा मे आ रहे थे । १० बजते बजते राजसभा भवन ठसाठस भर गया किन्तु श्राने वालो का ताता लगा ही रहा । राज्याधिकारियो का भी प्राना प्रारम्भ हो गया । और ठीक दस बजे सभा भवन अन्दर और बाहर दोनो जगह भर गया। सभा भवन भरने पर प्रधान सेनापति भद्रसेन और महामात्य वर्षकार भाकर अपने आसन पर बैठ गए। राजमहल के द्वार से राजकुमार अभय को साथ लिए हुए सम्राट् विम्बसार पाते हुए दिखाई दिए। उनको देखते ही जनता ने जोर से सम्राट् विम्बसार (श्रेणिक) की जय और राजकुमार ११७ प्रभय की जय के नारों से सभा भवन गूज उठा। दोनों अपने-अपने सासन पर बैठ गए। तब महामात्य वर्षकार ने कहा राज्याधिकारी 'सम्राट् पौरजानपद तथा उपस्थित महानुभाव ! सब उपस्थित महानुभाव सुने। मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि राजकुमार प्रभय का आज सब की ओर से स्वागत करने का अवसर प्राप्त हुआ है 1 कुमार मे विलक्षण चातुर्य, पराक्रम और अलौकिक साहस है सात वर्ष की आयु में लोकोत्तर गुणों की प्राप्ति बिना पूर्वपुण्य के नहीं हो सकती। ग्राम के ब्राह्मणो की रक्षा करने में उन्होंने अपने बुद्धिचातुर्य का जो परिचय दिया है इससे उन्होने हमारी श्रद्धा को भी जीत लिया है। नगर निवासी उनसे अत्यधिक प्रेम करत है। उनका जनप्रिय स्वभाव न्यायप्रियता दयालुता और चमत्काि बुद्धि यदि लोकोत्तर गुणों के कारण उन्हे मगध साम्राज्य का युवराज बना दिया जाय । ग्राप लोग मेरे इस प्रस्ताव पर विचार करे। नगर के प्रमुख लोगों ने वर्षकार के प्रस्ताव का समर्थन ही नहीं किया प्रत्युत समस्त पौरजानपद की ओर से घोषणा की गई, कि सब नागरिक इस प्रस्ताव के पक्ष में है । सम्राट् ने कहा ग्राप लोगो ने कुमार के गुणों का वर्णन कर उन्हें युवराज पद देने का विचार किया । इसे मैं कुमार के अतिरिक्त अपना भी सम्मान मानता हूँ, मुझे गौरव है कि मैं ऐसे सुयोग्य पुत्र का पिता हूँ। महामात्य वर्षकार का राजकुमार अभय को युवराज बनाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास किया जाता है । अभयकुमार का न्याय एक दिन विश्वसार की राजसभा में व्यावहारिक ने निवेदन किया कि है देव! एक अभियोग नीचेके न्यायालयों से होता हुआ मेरे पास श्राया था, पर वह इतना जटिल है कि मैं भी उसका न्याय करने में असमर्थ है। इसलिए उसे सम्राट की सेवा मे उपस्थित करने की अनुमति चाहता हूँ। सम्राट् की पाशानुसार प्रभियोग उपस्थित किया गया। राजसभा के एक कक्ष में बिठलाई हुई दो भद्र महिलाओंों को राजसभा मे उपस्थित किया गया। दोनों Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८, वर्ष २४, कि०३ प्रनेकान्त महिलामों की प्रायु २४-२५ वर्ष के लगभग होगी वे पाकर समाप्त की। दोनों महिलाएं सम्राट् के सम्मुख उपस्थित हुई। राजसभा व्यावहारिक ने कहा-ऐसा ही है देव ? के लोग उनके शारीरिक सौन्दर्य प्रौर रत्नजडित वस्त्रा- सम्राट् तब तो यह अभियोग बड़ा पेचीदा है । इसका भूषणों से विस्मित हुए। व्यावहारिक बोला--अभियोग निर्णय करना सुगम कार्य नहीं है। सम्राट ने अभयकुमार इन दोनों महिलामों का है। इनमे बाई पोर की महिला का की मोर देखकर पूछा, क्यो अभयकुमार ! क्या तुम इस नाम वसुमित्रा मोर दाहिनी ओर वाली महिला का नाम अभियोग का निर्णय कर सकोगे ? अवश्य कर सकूँगा वसुदता है। ये दोनों सुभद्रदत्त सेठ की पलिया है। पिता जी ! सम्राट ने कहा सेठ सुभद्रदत्त का तो अभी अभी सम्राट ने व्यावहारिक से कहादेहावसान हुआ है । वह मगध के ग्राम के निवासी थे। "अच्छा व्यावहारिक-इस अभियोग को युवराज के और विदेशो से अपार धन सम्पत्ति कमाकर अभी अभी सम्मुख उपस्थित कगे, वही इसका निर्णय करेंगे।" राजगृह मे पाकर बसे थे। __व्यावहारिक ने दोनों संठानियो को अभयकुमार के ___ व्यावहारिक ने कहा-यह दोनों सुभद्रदत्त सेठ की सामने उपस्थित किया। अभयकुमार ने उनमे से एक से पलियां हैं । सम्राट ने कहा, इन दोनों में यह छह मासका पूछा। बालक किसका है ? व्यावहारिक बोला, राजन् ! सारा अभयकुमार-वसुमित्रा देवी, तुम उस परमपिता की झगड़ा तो इसी पर है। ये दोनो ही उसे अपना-अपना साक्षी पूर्वक अपनी बात कहो। बालक बतलाती है । सम्राट ने कहा साक्षियो से किसका वसुमित्रा-मै उस परमपिता परमात्मा को सपथपक्ष अधिक पुष्ट एव प्रमाणित होता है। पूर्वक कहती हैं कि यह बालक सुमित्र मेरी कोख से उत्पन्न वहारिक बोला-सेठ सुभद्रदत्त राजगह में कल हुअा है। मैं ही इसकी माता हूँ, वसुदत्ता नही। दो माम से प्राया था। अतएव जो कुछ साक्षिया मिलती अभयकुमार-वसुदत्ता देवी अब तुम्हे क्या कहना है ? है वे केवल दो माम के अन्दर को मिलती है। साक्षियो वसुदत्ता-मैं भी उस परमपिता परमात्मा की सपथसे यह मात होता है कि इस बालक पर दोनो का समान पूर्वक कहती है कि यह बालक सुमित्र मेरी कोख से उत्पन्न है। लडके को जारी र पिलाया जाता रहा है और मै ही इगकी माता हूँ, मुमित्रा नहीं। इसलिए दूध की साक्षी का तो प्रभाव है। दोनो उसे अभयकुमार-मालूम होता है तुम लोग सच्ची बात अपने अपने पेट का उत्पन्न बालक कहती है। देखने वालों नही बतलानोगी? का कहना है कि बच्चे पर दोनों का समान प्यार है। यह तो अराभव है कि बालक दोनो की कोख से सम्राट ने कहा कि सुभद्र तो राजगृह के एक गाव का उत्पन्न हुआ हो । किन्तु इस पर दावा दोनो करती है। निवासी था उस गाव से कुछ साक्षिया नही मंगवाई गई। क्योंकि बच्चे की जो माता सिद्ध होगी वही उसकी प्रधिव्यावहारिक ने कहा-कि देवी गावसे भी साक्षिया मंगवाई कारिणी बनेगी और सेठ सुभद्रदत्त की अपार सपत्ति पर थी किन्तु वे तो पोर भी अधिक असन्तोषजनक है। उनसे उसी का अधिकार होगा। किन्तु इस तथ्य का कोई पता केवल इतना ही सिद्ध हुमा है कि मेठ सुभद्रदत्त उस गांव नही लगता । मै तो इस बच्चे को प्राधा प्राधा काट कर का निवासी था और दोनो सेठानिया उसको परिणीता दोनों को दिए देता है। यह कह कर अभयकुमार ने बच्चे वधुएं थी । वह इन दोनों को साथ लेका सार्यवाह के के पेट पर नगी तलवार रख दी। वमुमित्रा यह देखकर साथ अपना एक निजी पोत लेकर सुवर्णद्वीप व्यापार करने धाड़े मार-मार कर रोने लगी। उसने अभयकुमार की गया था और फिर वापिस गाँव नही गया। सम्राट ने तलवार पकडकर उससे कहाकहा कि इसका अर्थ ता यह हुमा कि उसके यह बच्वा "युवराज ! बच्चे के दो टुकड़े मत करो। इसे पाप कही यात्रा मे हुमा और उसने अपनी यात्रा राजगृह में वसुदत्ता को ही दे दे। मै इस पर अपने दावे क Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयकुमार वापिस लेती हैं। और वसुदत्ता के पास ही इसका मुख पिछला वर्णन भी भेजा गया है। व्यावहारिक-भेजा देख लिया करूंगी।" गया है श्रीमान् । सम्राट् अच्छा उसे पढ़ कर सुनामी । यह कहकर वसुमित्रा अभयकुमार के पावों में पड़ गई, व्यावहारिक-जैसी श्रीमान् को माज्ञा! मैं इसे पढ किन्तु वसुदत्ता इस सारे दृश्य को खडी-खडी देखती रही। कर मुनाता है। इस पर अभयकमार उस बच्चे को छोड़कर बोले- इस स्त्री भटा का पति : इस स्त्री भद्रा का पति बलभद्र अयोध्या निवासी ___ "यह सिद्ध हो गया कि बच्चा वसुमित्रा का है, मैं सच्चरित्र किसान है, इसका प्रयोध्या के एक धनिक व्यक्ति बच्चा वसुमित्रा को देता हूँ।" बसंत के साथ गुप्त सम्बन्ध हो गया था। बाद में एक उन्होंने वसुदत्ता की ओर देखकर कहा त्यागी महात्मा के महत्वपूर्ण उपदेश से इसने शीलवत ले निर्दयी राक्षसी ! तू बच्चे की माता बनने का ढोग लिया और बसंत का साथ छोड दिया । बसंत ने उस पर करती है और उसकी गर्दन पर तलवार देख कर पत्थर बहुत होरे डाले, किन्तु यह उसके वश मे न पाई । बाद को मति के समान खडी रही। मैं तुझे असत्य बोलने के मे बसन्त को इस स्त्री के लिए पागल दशा मे गलियो मे अपराध में देश निर्वासन का दण्ड देता हूँ। सेठ सुभद्रदत्त घूमते हुए देखा गया। कुछ समय बाद बसत अयोध्या से जी समस्त सम्पत्ति का एकमात्र अधिकार वसुमित्रा प्ररि गायब हो गया। पोर बलभद्र का प्राकार बनाकर एक उसके पुत्र का होगा। अन्य व्यक्ति असली बलभद्र को घर से निकालने लगा। व्यावहारिक ने सम्राट से निवेदन किया है कि देव ! इसके उपरान्त यह पता लगाना सम्भव हो गया कि एक अभियोग और है वह भी मेरी समझ में नहीं असली बलभद्र कौन है? प्राया। सम्राट ने कहा, अच्छा उसे भी सामने उपस्थित सम्राट~यह अभियोग तो पहले से भी अधिक पंचीदा है। फिर उन्होंने अभयकुमार की ओर देख कर व्यावहारिक ने एक प्राकृति वाले दो व्यक्तियो के पूछा, क्यों कुमार ! तुम इस अभियोग का निर्णय कर माथ एक स्त्री को उपस्थित किया। स्त्री अत्यधिक सुन्दर सकोगे ? कुमार-संभवत: कर तो सर्केगा। थी, उनको उपस्थित करके व्यावहारिक बोला, अन्नदाता! सम्राट-अच्छा देवी । तुम्हारे अभियोग का निर्णय यह अभियोग कोशल जनपद के अयोध्या नगर से सम्राट युवराज करेंगे। प्रसेनजिन ने स्वय भेजा है, बहुत प्रयत्न करने पर भी वे दोनों बलभद्रों का एक सा रूपरग देख कर पहले तो उसका निर्णय नही कर सके, तो उन्होने आपके पास भेज अभयकुमार चकरा गये बाद में उन्होने भद्रा की सहायता से दिया। उन दोनों व्यक्तियों के शरीर की सूक्ष्म जांच-पड़ताल की। मम्राट, अच्छा कहो क्या अभियोग है ? किन्तु उनका उनको लेशमात्र भी अन्तर न मिला । अन्त इस अभियोग में वादिनी यह स्त्री है। इसका नाम मे सोचते हुए उनके हृदय में एक विचार उत्पन्न हमा। भद्रा है, यह अपना मामला स्वय उपस्थित करेगी। उन्होंने दोनो बलभद्रो को एक सीखचेदार काठरी मे बन्द इस पर सम्राट उस महिला से बोले- क्यों देवी ! कर दिया, फिर उन्होंने एक तबी अपने सामने रख कर तंग क्या अभियोग है ? भद्रा-देव ! इन दोनो मे से उन दोनो बल भद्रों से कहा-सुनो बलभद्रो! तुम दोनों एक व्यक्ति मेरा पति है, एक व्यक्ति नकली है जो मेरे में से कोठे के सीखचो मे से निकल कर जो कोई भी इस पति का रूप बनाये हुए है। कृपया मुझे नकली व्यक्ति से तूबी के छिद्र से निकल जावेगा, और उसी को भद्रा छा कर मुझे मेरा असली पति दिलवादे । मिलेगी।" सम्राट्-यह तो बडा पेचीदा मामला है। व्यावहारिक कुमार के इन वचनो को सुनकर प्रसली बलभद्र को -तभी ता महाराज प्रसेनजित ने आपके पास भेजा है। बड़ा दुख हुआ, और उसे विश्वास हो गया कि अब भद्रा सम्राट -क्या इन तीनो व्यक्तियों के विषय मे इनका मुझे कभी नही मिलेगी: क्योंकि मैं तबी के छेद से निकल Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० व २४, ०३ नहीं सकता । किन्तु कुमार के वचनों से नकली बलभद्र को बड़ा हर्ष हुपा। उसने अपने शरीर को अत्यन्त पतला करके सीखचो से बाहर निकल कर ज्योही तूबी के अन्दर प्रवेश किया, त्यो हो अभयकुमार ने तलवार का एक भरपूर हाथ मार कर नकली बलभद्र को मार डाला । पश्चात् उसने असली बलभद्र को कोठरी से निकाल कर उसे भद्रा के साथ अयोध्या जाने की अनुमति दे दी। कुमार की विलक्षण न्याय बुद्धि देखकर सारी सभा में हर्ष छा गया। महामात्य वर्धकार ने कुमार की इस विलक्षण बुद्धि के लिए बधाई प्रदान की। कुमार के इन निष्पक्ष कार्यों से उनकी कीति बहुत बढ़ गई। लोग उसको न्याय परायणता को देखकर सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। कोशल के पश्चात् अन्य देशों से भी अभियोग उनके पास पाते थे, जिनका यह अपनी प्रतिभा से शीघ्र निर्णय कर दिया करता था। श्रभयकुमार राज्य कार्यों के अतिरिक्त, कौटुम्बिक कार्यों में, गुह्य कार्यो मे श्रौर रहस्यमय कार्यो के निश्चय करने मे पूछने योग्य था। वह स्वयं राज्य शासन, राष्ट्रदेश, कोय, कोठार (अन्त भडार) सेना, नगर और अन्तःपुर की देख-रेख करता था । प्रनेकान्त था । किन्तु अभयकुमार ने जहाँ शत्रु शिविर लगना था वहाँ उसने पहले ही सुवर्णमुद्रा मड़वा दी थी जब चण्डप्रद्योत ने राजगृह को घेर लिया, तब अभयकुमार ने उसे एक पत्र लिखा था कि आपका हितैषी होकर बता रहा हूँ कि आपके सहबर राजा श्रेणिक से मिल गये है, वे बाध कर श्रेणिक को सम्हालने वाले है, उन्होने श्रेणिक से बहुत धन राशि प्राप्त की है। यदि आपको विश्वास न हो तो अपने शिविर के स्थान को खुदवा कर देखिये उससे आपको स्वयं विश्वास हो जायगा । चण्डप्रद्योत ने जब उस स्थान को खुदवाया तब उन्हें सुवर्ण मुद्राओ का ढेर प्राप्त हुआ । इससे चण्डप्रद्योत ने अपना घेरा उठा लिया और उनी चला गया। जैन मान्यतानुसार प्रभयकुमार श्रेणिक भभगार ( बिम्बसार ) का मनोनीति मत्री था । श्रेणिक का बेलना के साथ विवाह भी अभयकुमार की बुद्धिमत्ता से हुआ था । अभयकुमार अपनी बुद्धिमत्ता के कारण राज्य के सरक्षण मे भी उचित मार्ग का अवलम्बन करता था । उसके इन कार्यों से प्रजा बढी सन्तुष्ट रहती थी और उसके प्रति हार्दिक प्रेम प्रदर्शित करती थी। अभयकुमार ने श्रेणिक के राजनैतिक संकट भी अनेक बार टाले थे। एक बार उज्जैनी के शासक चण्डप्रद्योन ने अन्य चौदह राजाओ के साथ राजगृह पर प्राक्रमण किया १. ज्ञाता धर्मकथाग प्रथम श्रुतस्कध १ अध्याय | २. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति पत्र ३८ ३. त्रिषष्ठि टाला का पुरुष चरित्र अभयकमार ने राज्य रक्षा के लिए अनेक कार्य किये है। इसी से लोक में उनकी महता थी। जैन मान्यतानुसार प्रभवकुमार ने भगवान महावीर से जैन दीक्षा ली और कठोर तपश्चरण किया और मुक्तिपद प्राप्त किया। यह मान्यता सन्देहास्पद है। इसकी जाँच करने की आवश्यकता है। जैन ग्रन्थों मे अभयकुमार को जैन धर्मी और महावीर के पास जाने और दीक्षा लेने का स्पष्ट उल्लेख है । ★ ४. प्रद्योत नृपते संन्यस्ततो राजगृह परम् । पर्यवेष्टयत भूगोल. गोधिमनिलेखि ॥। १२२ अथेत्थ प्रेषयामास लेख प्रद्योतभूपते । अभय गुप्त पुरुषः परुषेतरमा पिभिः ।। १२३ X X X X तेनावरतीय मिस्वामेकान्तहितवांख्या । सर्वे श्रेणिकराजेन भेदितास्तव भू भुजः ॥ १२५ दीनारा. प्रेषिताः सन्ति तेभ्यम्तान् कर्तुं मात्मसात् । ते तानादाय बद्ध्वा त्वामर्थयिष्यन्तिमत्पितुः ।। १२६ तदावासेषु दीनारा निवाताः सन्तितत्कृते । मानयित्वा पश्यत्रो वा दीपे मध्यग्निमीक्षते ।।१२७ विदित्वैव स भूपस्य कस्या वा समचीखनत | लब्धास्तत्र च दीनारास्तान् दृष्ट्वा स पलायितः ॥ योगशास्त्र ११ ५. थेरीगाथा-कथा १०८३-८४ । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनीत आगम साहित्य का नोतिशास्त्रीय सिंहावलोकन डा० बालकृष्ण 'अकिंचन' एम. ए. पी-एच. डी. विश्व के धार्मिक साहित्य को जैन साहित्य एव दर्शा प्रयत्-मृत्यु का प्राना निश्चित है। सब प्राणियों का महत्व निर्विवाद है । जैन धर्मावलम्बियों मे को अपना जीवन प्रिय है, सभी सुख चाहते हैं, दुख कोई जितना ऊचा स्थान प्रागमों का है, उतना सम्भवतः अन्य नहीं चाहता, मरण सभी को अप्रिय है। सभी जीना का नहीं। इन पुनीत पागमों का निर्माण तो स्वयं भगवान् चाहते है । प्रत्येक प्राणी जीवन की इच्छा रखता है, सबको प्रहंत ने किया था किन्तु वाद में उन्हें सूत्र रूपो में अर्थ जीवित रहना अच्छा लगता है। मागधी भाषा मे निबद्ध उनके गणघरों ने किया। कारण जैन साहित्य में मूल सूत्रों का वही माहात्म्य है जो यह था कि दुर्भिक्षों एवं विपलवों आदि प्रापत्तियों के बौद्ध साहित्य मे धम्मपद का । इसके उत्सरज्झयण (उत्तराकारण प्रागम साहित्य विखडित होता रहा था। भगवान् ध्ययन) के प्रथस अध्याय में 'विनय' का वर्णन इस प्रकार महावीर जी के निर्वाण के लगभग ६८० या ६६३ वर्ष हैपश्चात् (ई० सं० ४५३-४६६) के वलभी सम्मेलन मे मा गलियस्सेव कसं वयणमिच्छे पुणो पुणो। मागम लिपिबद्ध किये गये, अतः निश्चित है कि भगवान् कसं व बठ्ठमाइन्ने, पावगं परिवज्जए ।। महावीर की भाषा का मूल अर्थ मागधी मे उस समय तक प्रर्थात्-मरियल घोड़े को बार-बार कोड़े लगाने की । पर्याप्त अन्तर अवश्य आ गया होगा। जो हो ये सूत्र जरूरत होती है, वैसे मुमुक्षु को बार-वार गुरु के उपदेश दिव्य ज्ञान के महान स्रोत है। श्री भगवतशरण उपाध्याय की अपेक्षा न करनी चाहिए। जैसे अच्छी नस्ल का घोड़ा के विश्व साहित्य की रूप-रेखा पृ० ५०६ के अनुसार तो __चाबुक देखते ही ठीक रास्ते पर चलने लगता है, उसी "इन ग्रन्थों की सीमा मे सारा मानव ज्ञान जैसे सिमट प्रकार गुरु के प्राशय को समझकर मुमुखको पाप कर्म कर पा गया है।"-इसका सम्पादन बल्लभी परिषद के त्याग देना चाहिए। द्वारा ४६ ग्रन्थो में हुआ है । इनमें यही पर तीसरे अध्ययन में प्रप्रमाद की शिक्षा देते १. पायारंग, सूयगडंग इत्यादि १२ अंग हए कहा गया है कि "टूटा हा जीवन-तन्तु फिर से नहीं २. प्रोववाइय, रायसपैणइय इत्यादि १२ उपांग; जुड़ सकता, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद ३. चउसरण, पाउरपच्चकरवाण इत्यादि १० पइन्ना न कर । जरा से ग्रस्त पुरुष का कोई शरण नहीं है, फिर ४. निसोह, महानिसीह इत्यादि ६ छेयसुत्त; और प्रमादी-हिंसक और प्रयत्नशील जीव किसकी शरण ५.उत्तरज्झयण, दसवेयालिय इत्यादि ४ मूलसुत्त हैं। जायेंगे। जैन शास्त्रों के अनुसार अंगों और मूल सूतों में सर्वा- बाईसवें अध्ययन में सती का अपने ऊपर मासक्त धिक महत्त्वपूर्ण है पायारंग। प्राचीनतम जैन सूत्र भी श्रमण रथनेमि को फटकारना कितना कल्यणकारी तथा यही है। इस सूत्र की महिमा सम्पूर्ण जैन साहित्य में एक प्रभावोत्पादक है-"हे रथनेमि ! यदि तू रूप से वैश्रमण, स्वर में गाई गई है। भाव निदर्शन के किए एक उदरण चेष्टा से नलकूवर अथवा साक्षात् इन्द्र ही क्यों न बन प्रस्तुत है जाय, तो भी मैं तुझे न चाहूँगी । हे यश के अभिलाशी ! "नत्यि कालास णागमो। सम्वे पाणा पियाउया, तू जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु का पुनः सेवन करना सुहसाया, दुक्खपडिकूला, अप्यियवहा, पियजीविणो जीवि- चाहता है । इससे तो मर जाना श्रेयस्कर है । जिस किसी सकामासम्वेसि जीवियं पियं । भी नारी को देखकर यदि तू उसके प्रति पासक्ति भाष Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२, बर्ष २४, कि०३ अनेकान्त प्रदर्शित करेगा तो वायु के झोके से इधर-उघर डोलने ६. "सांसारिक धर्मों से विरत जो कोई जगत में विचवाले तृग की भांति तेरा चित्त कही भी स्थिर न रहेगा।" रते है, उन्हें सबके साथ वही बर्ताव करना चाहिए इसी प्रकार पच्चीसबै अध्ययन में ब्राह्मण तपस्वी जो वे (दूसरो से अपने प्रति) कराना चाहते है।" मादि के लक्षण तथा कर्म महिमा इस प्रकार गाई गई पागम वाटिका इस प्रकार के नीति-कुसुमो की दिव्य है-"इस लोक मे जो अग्नि की तरह पूज्य है, उसे कुशल गध से सतत सुसुवासित है । अावश्यकता इस स्वस्थ एवं पुरुष ब्रह्मण कहते है। मिर मुडा लेने से श्रमण नही मगधित पवन को, मन-प्राण और जीवन में उतारने होता, मोकार जाप करने से ब्राह्मण नही होता। जंगल वी है। मे रहने से मुनि नहीं होता और कुश चीवर धारण करने प्रागमों की व्याख्या साहित्य में नीति : से कोई तपस्वी नहीं कहा जाता। समता से श्रमण, ब्रह्म आगमो के सकलन के पश्चात् दूसरी से लेकर सोलचर्य से ब्राह्यण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता हवी शताब्दी तक आगम साहित्य के समझने-समझाने के है। कम से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, धर्म से वैश्य और लिए नियुक्ति, भाष्य, टीका, चूणि इत्यादि टीका-साहित्य कर्म से ही मनुष्य शद्र कहा जाता है । की विपुल सष्टि हुई। इसमें भी प्रसगवश हमे कही कहीं स्पष्ट है कि प्रागम साहित्य नैतिक कथनों का अपूर्व पद्यमय नीति कथन प्राप्त हो जाने है। उदाहरणार्थ मंडार है। ये कथन दिक्कालातीत, सार्वदेशिक एव मार्व माणिक्यशेखर सूरि ने प्रावश्यक निमुक्ति की अपनी भौमिक सत्य है । जैन धर्म की अक्षय विधि होते हए भी दीपिका में कछ सुन्दर रीति बच कहे है :ये मानव मात्र की निधि है। इनकी महिमा का अधिक । जहा खरो चदण भारवाही, भारस्स भागीन चंदणस्य । पाख्यान न करते हुए कुछ बहुमूल्य कथन उद्धृत करना एवं ख नाणी चरणण हीणो, नाणस्य भगी न ह सोग्गईए । पधिक उपयोगी होगा हयं नाणं कियाहीण, हया धन्नाणपो किया। १. “(महापुरुष वह है) जो नाभालाभ मे, सुख-दुख मे, पासतो पगुलो दड्ढो, धावमाणो प्र अंधश्रो। जीवन-मरण मे, निन्दा और प्रशसा मे तथा मान संजोगसिद्धोइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अपमान मे समभाव हो।" २. "स्वार्थ-रहित देने वाला दुर्लभ है, ग्वार्थ-रहित जीवन अधों यो पग य बणे समिच्चा, ते सपउत्ता नगरं पविट्ठा ।। निर्वाह करने वाला दूर्लभ है । स्वार्थ रहित देने वाला -प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० २०५ पर उद्धत पौर स्वार्थ रहित होकर जीने वाला दोनो ही स्वर्ग अर्थात जैसे चन्दन का भार ढोने वाला गधा भार को जाते है।" का ही भागी होता है, चन्दन का नही, उसी प्रकार चरित्र ३. जैसे विडाल के रहने के स्थान के पास चूहों का से हीन ज्ञानी और केवल ज्ञान का ही भागी होता है रहना प्रशस्त नही है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास । सद्गति का नही। क्रिया रहित ज्ञान और प्रज्ञानी की स्थान के बीच में ब्रह्मचारियो का रहना क्षम्य क्रिया नष्ट हुई समझनी चाहिए। (जगल मे प्राग लग नही है।" जाने पर) चुपचाप खड़ा हुआ पगु और भागता हुआ ४. "लोहे के काटी से मुहूर्त मात्र दुख होता है, वे भी अन्धा दोनो हा प्राग म जल मरत (शरीर से) सुगमता पूर्वक निकाले जा सकते है, परतु सिद्धि होती है। एक पहिए से रथ नही चल सकता। कटुवचन कठिनाई से निकली है जो वैर बढ़ाने और निशीथभाप्य के कामासक्ति सम्बन्धी दो कथन महाभय उत्पन्न करने के लिए बोले जाय।" देखिए :५. "क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय का नाश "कानी अाँख से देखना रोमांचित हो जाना, शरीर करता है, कपट मित्रो का नाश करता है और लोभ में कम्प होना, पसीना छटने लगना, मह पर लाली दिखाई सब कुछ विनष्ट कर देता है।" पड़ना, बार-बार निश्वास और जमाई लेना" ये स्त्रीमे Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनीत पागम साहित्य का नीतिशास्त्रीय सिंहावलोकन १२३ मारक्त पुरुष के लक्षण हैं । कामासक्त स्त्रियों की पहचान अर्थात्-सिंह की जटाओं, सती स्त्री की जघानों, शरण भी देखिए : में पाये हुए सुभट और प्राशीविष सर्प के मस्तक की मणि ___"सकटाक्ष नयनो से देखना, बालों को संवारना, कान को कभी नही स्पर्श करना चाहिए। और नाक को खुजलाना, गुह्य प्रग को दिखाना, घर्षण सुमतिसूरि के 'जिनदत्ताख्यान' मे पर स्त्री दर्शन के प्रालिंगन तथा अपने प्रिय के समक्ष अपने दुश्चरित्रो का त्याग का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :बखान करना, उसके हीन गुणों की प्रशसा करना, पैर के ते कह न वंदणिज्जा, जे ते वन्टुण परकलत्ताई। अंगूठे से जमीन खोदना और खखारना-" ये पूरुष के धाराहयव्य वसहा, बच्चंति महिं पलोयंता॥ प्रति प्रासक्त स्त्री के लक्षण समझने चाहिए। अर्थात् ऐसे लोग क्यों वन्दनीय न हों जो स्त्री को मागमोत्तर कालीन जैन-धर्म साहित्य में नीति देख कर वर्षा से पाहत वृषभो की भाँति नीचे जमीन की (५वी शताब्दी मे १०वी शताब्दी तक): ओर मुह किए चुपचाप चले जाते है । प्रागम युगीन जैन ग्रन्थो मे भी कही-कही व्यावहा प्रश्न शैली में पृथ्वी को स्वर्ग बनाने वाले चार रिक नीति उपलब्ध होती है । इस दृष्टि से रत्नशेखर सूरि । पदार्थो का उल्लेख इस प्रकार किया गया है :के 'व्यवहार शुद्धि प्रकाश' बहुत उत्तम है। यहाँ पाजी उच्छुगामे वासो सेयं सगोरसा सालो। विका के साथ उपाय पुत्र, ऋण, परदेश आदि जीवन के इहाय जस्स भज्जा पिययम! कि तस्स रज्जेण?" व्यावहारिक पक्ष पर सुन्दर विचार प्रस्तुत किया गया है । प्राकृत भाषा का कथा-साहित्य भी अत्यन्त समृद्ध है। हे प्रियतम ! ईख वाले गांव में वास, सफेद वस्त्रों यद्यपि इस वाङमय का अधिकाश धर्म प्रचार के लिए का धारण गोरस और शालि का भक्षण तथा इष्ट भार्ग गढ़ा है किन्तु उनमे व्यवहार नीति का प्रश भी प्रचर जिसके निकट हो उसे राज्य से क्या प्रयोजन ? मात्रा में समाहित है। नीति शिक्षा प्रायः छन्दोबद्ध रहती यहाँ अनेक गाथाओं मे स्त्री-पुरुषों के स्वभावादि के है। इसमें उपमा, रूपक, दृष्टान्त प्रावि अलंकारों का प्रचुर सम्बन्ध मे सुन्दर कथन है। एक गाथा का व्यंग्या प्रयोग किया गया है। कितना सत्य एवं व्यवहार सिद्ध है:देवभद्र सूरि के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कहारयण कोस' (कथा- धन्ना ता महिलामो जाणं पुरिसेसु कित्तिमो नेहो। रत्न कोष) में धन की महिमा इस प्रकार गाई गई है:- पाएण जमो पुरिसा महयरसरिसा सहावेणं ॥ परिगलइ मई मइलिज्जई जसो नाऽदरंति सयणा वि । अर्थात् पुरुषो से कृत्रिम स्नेह करने वाली स्त्रियाँ भी पालस्स च पयट्टइ विष्फरह मणम्मि रणरणयो। धन्य हैं क्योंकि पुरुषों का स्वभाव भी तो भौरों जैसा ही उच्छरह अणुच्छाहो पसरइ सव्वांगियो महाबाहो। होता है। कि किवन होइ दुहं प्रथविहोणस्य पुरिमस्स ।। हरिभद्रमूरि के उवएमपद (उपदेश पद) की प्रश्नो. अर्थात् धन के अभाव मे मति भ्रष्ट हो जाती है, त्तर शैली दो गाथा में देखिएयश मलिन हो जाता है, स्वजन भी आदर नही करत, को धम्मो जीवदया, कि सोक्खमरोग्गयाउ जीवस्स । पालस्य आने लगता है, मन उद्विग्न होता जाता है, काम को सोहो सवभावो कि पडिव्वं परिच्छेनो। में उत्साह नही रहता, समस्त मग मे महा दाह उन्पन्न कि विसमं कज्जा, कि लखव्वं जणो गुणग्गाही। हो जाता है । धनहीन पुरुष को कौन-सा दुव नही होता? कि सहगेश सुयणो, कि दुग्गेज्झे खलो लोग्रो॥ कुमारपाल प्रतिबोध का एक सुभाषित इस प्रकार अर्थात् धर्म क्या है ? जीव दया! मुख क्या है ? सोहह केसर सइहि, उरु सरणागमो सुहडस्स । पारोग्य । स्नेह क्या है? सद्भाव । पाडित्य क्या है ? मणि मत्थइ प्रासीविसह किं धिप्पइ प्रमुयस्स ।। हितहित का विवेक । बिषम क्या है? कार्य को गति । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४, वर्ष २४, कि०. अनेकान्त प्राप्त क्या करना चाहिए; शुभ गुण । सुख से प्राप्त करने हर विरसा सा नीवियपि कसिणागिरलक्ष्य ॥ योग्य क्या है ? सज्जन पुरुष। कठिनता से प्राप्त करने अर्थात् जब महिला मासक्त होती है तो उसमे गन्ने योग्य क्या है ? दुर्जन पुरुष । के पोरे अथवा शक्कर की भाति मिठास होता है और जयसिंह सूरि के 'धर्मोपदेशमाला' में दो कटु सत्य । जब वह विरक्त होती है तो काले नाग की भांति उसका देखिए विष जीवन के लिए घातक होता है। एक अन्य प्रसिद्ध अपात्रे रमते नारी, गिरोवर्षति माधवः । कथन लीजिएनीचमाधयते लक्ष्मीः प्राम: प्रायेण निधनः ।। पढम पि प्रावयाण चितेयव्यो नरेण पडियारो। प्रर्थात्-नारी प्रपात्र में रमण करती है, मेघ पर्वत पर न हि गेहम्मि पलिते अवडं खणिउ तरह कोई ।। बरसता है, लक्ष्मी नीच का प्राश्रय लेती है और विद्वान अर्थात् विपत्ति के पाने के पहले ही उसका उपाय प्रायः निर्धन रहता है। सोचना चाहिए। घर मे आग लगने पर क्या कोई कुमा रज्जावेंति न रज्जति लेंति हिययाई न उण अप्पेति । खोद सकता है। छप्पण्णय बुद्धीमो जुबईमो दो विसरिसानी॥ मलधारी हेमचन्द्र सूरि की 'उपदेशमाला' ५०५ मूल अर्थात्-स्त्रियां दूसरेका रंजन करती है, लेकिन स्वय गाथाओं की एक दूसरो उपयोगी रचना है। रंजित नही होती। वे दूसरो का हृदय हरण करती है, उसका यह कथन कितना विचित्र हैलेकिन अपना हृदय नही देतीं। दूसरों को छप्पन बुद्धियां जायमानो हरेद्धार्या वर्धमानो हरेद्धनं । उनकी दो बुद्धियों के बराबर है। प्रियमाणो हरेत् प्राणान् नास्ति पुत्र समो रिपुः ।। क्षण में दरिद्रता मिटाने वाले भद्र प्रभद्र धंधों की अर्थात् पुत्र पैदा होते ही भार्या का हरण कर लेता एक सूची देने वाली गाथा इस प्रकार है : हैं, बड़ा होकर धन का हरण करता है, मरते समय प्राणों खेतं उच्छृण समुद्दसेवणं, जोणिपोसणं चेव । का हरण करता है । इसलिए पुत्र के समान और कोई निवईणं च पसामो खणण निहणंति दारिह॥ शत्र नही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कथन प्रर्थात् ईख की खेती समुद्र यात्रा (विदेश में जाकर अटपटा होते हुए भी लौकिक अनुभव की दृष्टि से बावन घषा करने) योनि पोषण (वेश्या वृत्ति) और राज्य तोले पाव रत्ती है। इस प्रकार के सहस्रो नीति परक कपा-इन चार उपायों से क्षण भर में दरिद्रता नष्ट हो उपयोगी कथन प्राचीन जैन ग्रन्थ मजषामो मे सुरक्षित जाती है। प्रादर्श के कथनों के उस युग में भी यथार्थ की है। इन कथनो का प्रचार और प्रसार धर्म की अपेक्षा इतनी स्पष्टोक्ति, साहस ही कही जायगी। ऐसे और भी लौकिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय हित-साधन की दृष्टि से अनेक कथन सहज सुलभ है। कही अधिक आवश्यक है। काश, भ्रष्टाचार के इस अंधेरे स्त्री के स्वभाव का वर्णन करते हुए कहा है- युग मे जैनागमो के नैतिक कथनो का पुनीत प्रकाश फैल महिला रत्तमेता उच्छृखंड व सक्करा चेव । पाता। कमल पराग का लोभी एक भौंरा उसके अन्दर बन्द हो यह सोच रहा था कि रात बीतेगी, सुन्दर प्रभात होगा, सूर्य उदय होगा, कमल कलिका खिलेगी और मैं पुनः रस ले उड़ जाऊँगा । दुःख है कि इतने में एक हाथी ने उस कमलिनी को मुख में दबा लिया । यही दशा विषयी जीवन की है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशालकीर्ति व अजितकीर्ति विद्यावर जोहरापुरकर मराठी में विशालकीति द्वारा रचित धर्मपरीक्षा उपलब्ध है । लेखक ने अपने गुरु का नाम देवेन्द्रकीति बताया है किन्तु रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया। रचना मराठी में होने से लेखक के गुरु कारंजा के भट्टारक होगे ऐसा अनुमान स्वाभाविक था किन्तु कारंजा में देवेन्द्रकीर्ति नाम के छः भट्टारक हुए है अतः कौन से देवेन्द्र कीर्ति लेखक के गुरु थे यह स्पष्ट नहीं हो सका । रचना की हस्तलिखित प्रति शक १६१० की प्राप्त है। इसके पूर्व भी कारंजा में दो देवेन्द्रकीर्ति हुए थे अतः यह बात पनि श्चित रही थी डा० सुभाषचन्द्र धक्कोके के प्रवन्ध 'प्राचीन मराठी जैन साहित्य' (सुविचार प्रकाशन मंडल, पूजा द्वारा १९६८ मे प्रकाशित) । महाराष्ट्र मे माग्देह नगर के निकट पूर्णा नदी के तोर पर उपलद ग्राम है। यहाँ के जिनमन्दिर की मूर्तियो के लेखों का सारांश एन्युअल रिपोर्ट आफ इन्डियन एपि ग्राफी (भारत सरकार के पुरातत्त्व विभाग द्वारा संकलित) के वर्ष १९५८-५९ के प्रकाशन में दिया है। इनमें से क० बी २१६२६६ तथा २७० से उपर्युक्त प्रश्न सुलझने में मदद मिली है। यह सारांश हमने जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ ( जो भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा अभीअभी प्रकाशित हुआ है ) मे लेख क्र० २६० से २६२ के रूप मे सकलित किया है। तीनों लेखों की तिथि शक १५४१ अर्थात सन १६२० दी गयी है। प्रथम लेस मे प्रतिष्ठापक प्राचार्य का नाम विशालकीति श्रकित है, दूसरे लेख मे उन्ही का नाम मूमसंघ सरस्वतीगच्छ बला स्कारगण इस सप्रदाय नाम के साथ है तथा तीसरे लेख में देवेन्द्रकीति के शिष्य विशालकीर्ति ऐसा उनका उल्लेख है । प्रर्थात धर्मपरीक्षा की उपलब्ध प्रति के लगभग ७० वर्ष पूर्व ये विशालकीर्ति हुए थे। उनकी इस निश्चित तिथि के मालूम हो जाने से घब यह कहा जा सकता है कि वे कारंजा के देवेन्द्रकीति नामक द्वितीय भट्टारक के शिष्य होंगे जिनकी ज्ञात तिथियाँ शक १५०३ से १५१४ तक हैं (भट्टारक सम्प्रदाय, जीवराज पंथमाला सोलापुर १९५० पृष्ठ ५०-५१ ) इन देवेन्द्रकीति के पट्टशिष्य कुमुदचन्द्र की ज्ञात तिथियाँ शक १५२२ से १५३५ क है अतः कुमुदचन्द्र के गुरुबन्धु के रूप मे विशासकीति का शक १५४१ में उल्लेख सुसंगत ही होगा । कुमुदचन्द्र के शिष्य वीरदास का मराठी सुदर्शन चरित्र उपलब्ध है। मराठी मे अभयकीर्ति द्वारा शक १५३८ में रचित अनन्तव्रतकथा का हमने सपादन किया था ( सम्मति मासिक, बाहुबली कोल्हापुर, मई ५८ ) । इनके गुरु का नाम अजितकीर्ति बताया गया है। इस नाम के कुछ भट्टारक लातूर की परम्परा में हुए है किन्तु उनका समय शक १५३८ से काफी बाद का है अतः प्रभयकीर्ति किस स्थान की परम्परा से सम्बद्ध थे यह स्पष्ट नहीं हो पाया था । उखलद के ही शिलालेखो के उपर्युक्त सारांश मे क० बी २६६-७ पर प्राप्त विवरण से यह प्रश्न भी सुलझ सकता है। यह जैन शिलालेख संग्रह भाग ५ मे लेस ० २४२-३ रूप मे संकलित है। इनमें से दूसरे लेख में तिथि नही है किन्तु धर्मचन्द्र-धर्म भूषण- देवेन्द्रकीर्तिप्रजितकोति यह परम्परा दी गई है । कारजा के भट्टारकों की परम्परा से मिलान करने से स्पष्ट होता है कि इसमे उल्लिखित धर्मभूषण के शिष्य देवेन्द्रकोति उपयुक्त द्वितीय देवेन्द्रकीति ही हैं जिनकी ज्ञात तिथियाँ शक १५०३ से १५१४ तक है । इनके शिष्य मजितकीर्ति थे प्रतः वे शक १५३८ के प्रनन्तव्रतकथारचयिता श्रभयकीर्ति के गुरु होना सुसंगत है। इन दो लेखों में पहला लेख शक १५०६ का बताया गया है। इसमें धर्मभूषण के शिष्य देवेन्द्र कीर्ति के किसी शिष्य का नाम उल्लिखित है किन्तु यह पूरा हैइसका उत्तराचं कीति है, पूर्वाचं पढ़ा नहीं गया है। उपर्युक्त पर्चा से निष्पन्न गुरुशिष्यपरम्परा इस प्रकार दिखाई जा सकेगी धर्म भूषण देवेन्द्रकोशिक १५०३ से १४ कुमुदचन्द्र शक १५२२ से ३५ विद्यालक कीर्ति शक १५४१ (धर्मपरीक्षाकर्ता) अजितकीर्ति I श्रभयकीर्ति शक १५३८ (अनन्यतयाकर्ता) Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक की ५३ क्रियाएँ बंशीघर शास्त्री एम. ए. पुराण साहित्य में श्री जिनसेनाचार्य कृत मादिपुराण मोद, ६. प्रियोद्भव, ७.नामकर्म, ८. बहिर्यानि, ६. निषधा, का महत्त्व सर्वविदित है। इसके उत्तरवर्ती साहित्यकारों १०. प्राशन, ११. व्युष्टि, १२. केशवाप, १३. लिपितथा प्राचार्यों ने इसके विषय, परम्परा, शैली आदि का अनु- संख्या व संग्रह, १४. उपनीति, १५. व्रतचर्या, १६. व्रताकरण किया है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डा० वतरण, १७. बिवाह, १५. वर्ण लाभ, १६. कुलचर्या, २०. एस. भट्टाचार्य ने इसे भारत एव भारतीय जीवन का गृहीशिता, २१. प्रशान्ति, २२. गृह त्याग, २३. दीक्षाद्य, विश्वकोष बताया है। २४. जिनरूपता, २५. मोनाध्ययन वृत्तान्त, २६. तीर्थकृत इसमें प्रादिनाथ भगवान का सपरिवार पूर्ण चरित्र भावना, २७. गुरुस्थानाभ्युपगम, २८. गणोपग्रहण स्वगुण प्रस्तुत किया गया है। उनके पुत्र भरत का पूर्ण विवरण स्थान संक्रांति, ३०. निःसंगत्वात्मभावना, ३१. योग दिया गया है। भरत ने किस प्रकार चक्रवर्ती पद प्राप्त निर्वाण संप्राप्ति, ३२. योग-निर्वाण साचन, ३३. इद्रोपकिया, उन्होंने दान देने योग्य पात्र ढूंढने हेतु किस प्रकार पाद, ३४. अभिषेक, ३५. विधिदान, ३६. सुखोदय, ३७. परीक्षण किया, उन्हें उनके कर्तव्यो का किस प्रकार भान इन्द्र त्याग, ३८. अवतार, ३६. हिरण्योत्कृष्ट जन्मता, कराया प्रादि का विस्तृत वर्णन प्रन्थ में किया गया है। ४०. मन्दरेन्द्र अभिषेक, ४१. गुरुपूजोपलम्भन, भरत तदभव मोक्षगामी अवश्य थे किन्तु गृहस्थावस्था में ४२. यौवराज्य, ४३. स्वराज्य, ४४. चक्रलाभ, ४५. उनके द्वाग किये गए सभी कार्य मान्य एवं विधेय नहीं दिग्विजय, ४६. चक्राभिषेक, ४७. सामाज्य, ४८. हो जाते। निष्क्रान्ति, ४६. योगसन्मह, ५०. पाहत्य, ५१. तद्विहार, उन्होंने चारों मोर विजय प्राप्त कर दान देने की ५२. योगत्याग, ५३. अग्र निवृत्ति 1 सोची थी लेकिन उसके लिए कौन योग्य पात्र हो इसके ये क्रियाएं इस जीव के एक भव मे सम्पन्न नहीं लिए एक परीक्षण का प्रायोजन किया । इन्होंने जिनको होंगी अपित तीन भवों में सम्पन्न होगी। पहली क्रिया दया, प्रवण, हिंसा से बचने वाले समझा उन्हें ब्राह्मण वर्ण से ३२वी क्रिया तक मनुष्य भव मे, ३३वीं क्रिया से के रूप में स्थापित किया और उन्हें गर्भान्वय क्रिया, ३७वीं क्रिया तक स्वर्गलोक में एवं ३८वीं क्रिया से दीक्षान्वय क्रिया, क्रियान्वय क्रिया प्रादि करने का उपदेश ५३वीं तक फिर मनुष्य भव में जन्म लेने पर होगी। दिया है। पहली से १३वी क्रिया मनुष्य के माता-पिता द्वारा की यद्यपि प्रादिपुराण से प्राचीन किसी भी प्रामाणिक जावेगी। एक जीव इसी क्रम से मनुष्य बने, फिर इन्द्र ग्रन्थ मे इन क्रियाओं को करने का उपदेश नहीं मिलता बने, फिर मनुष्य भव धारण कर चक्रवर्ती एव तीर्थ कर है फिर भी भरत ने इनकी भूमिका बताते हुए कहा कि बने तब ये क्रियाएं पूर्ण हो। इस पूरे मवपिणी काल श्रावकाध्याय संग्रह मे वे क्रियाए तीन प्रकार की कही गई में केवल ३ चक्रवर्ती ही तीर्थ कर बन पाए है। उन्होंने है सम्यग्दृष्टि पुरुषों को उन क्रियाओं का पालन अवश्य अपने पूर्व भवों में ये क्रियाएं की हों ऐसा उल्लेख नहीं करना चाहिए। मिलता। स्त्रियों के लिए इन क्रियामों का विधान ही ५३ गर्भान्वय क्रियाएं इस प्रकार बताई गई है --- नही है। प्रतः इन क्रियायो को प्रत्येक सम्यग्दृष्टि करे १. भाषात, २. प्रीति, ३. सुप्रीति, ४. धूति, ५. ऐसा सम्भव नहीं हो सकता एक प्रश्न यह भी उठता है Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की ५३ कियायें कि द्वितीय बार मानुष्य भव धारण करने पर प्रथम बीस क्रियाएं करने का विधान क्यों नहीं किया गया लगता है कि ये सब क्रियाएं भरत ने अपनी राजकीय सत्ता के बल पर प्रजाजनो को करने को कह दी है लेकिन न तो इनका कभी प्रचलन रहा है और न किसी प्राचीन शास्त्र में उल्लेख मिलता है। इस प्रसंग मे एक तृष्य घोर विचारणीय है। भरत ने भी ऋषभदेव से जाकर निवेदन किया कि मैने ब्राह्मण वर्ण स्थापित किया है और उन्हे व्रतचिह्न सूत्र दिया है। लेकिन आपके रहते हुए मेरा यह करना ठीक है या नहीं ? इस विचार से मेरा चित्त डोलायमान हो रहा है। भगवान् ऋषभदेव ने कहा कि : पायसूत्रधरा धर्ताः प्राणिमारणतत्पराः । वयुगे प्रवत्स्यन्ति सन्मार्गपरिपन्थिनः । ४१५२ द्विजातिसर्जन तस्मान्नाद्य यद्यपि दोषकृत । स्वाद्दोष बीजमात्यां कृपाण्डवनात् ।। सर्ग ४१, इलो० ५४ पाप के चिन्हस्वरूप यज्ञोपवीत को धारण करने वाले और प्राणियों के मारने में तत्पर धूर्त ब्राह्मण आगामी युग में समीचीन मार्ग के विरोधी होंगे। पान ब्राह्मणों की रचना भले ही दोष रूप न हो किन्तु आगे पाखण्ड मतो के प्रवर्तन करने में दोष का बीज रूप है । यज्ञोपवीत पापसूत्र का विशेषण देकर भगवान ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हे ये विधान नहीं लगाना । भगवान ऋषभदेव ने अपने शासन काल में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण ही स्थापित किए थे और उन्होंने इन क्रियाओं को करने का कथन नही किया । भरत द्वारा वर्गित ५३ कियाओं का किसी भी प्रामाणिक श्रावकाचार में उल्लेख नहीं मिलता । हाँ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने रयणसार में बावक के लिए निम्न ५३ क्रियाएं बताई हैं: १२७ गुणवयतवसमपडिमादान जहागाहाणं प्रणतामियं । दंसणणाणचरितं किरिया तेवण सावया ॥ भणिया ३६ मूलगुण व्रत १२ तप १२ समता प्रतिमा ११. दान ४, जलगालन, रात्रिभोजन त्याग, सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक चारित्र ये आवक की ५३ क्रियाएं हैं। इन क्रियाओं का जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है । यदि हम ठीक से विचार करे तो दृष्टि से इन क्रियाओं का उपयोग एव जीवन मे गर्व, विवाह, चोटी या मूंज की डोरी या भोवती धारण करने नहीं है। यह बात ठीक है कि भरत द्वारा वर्णित ५२ क्रियाओं का जैन शासन में न महत्त्व रहा, न प्रचलन हो रहा फिर भी कुछ भाई प्रादिपुराण में इसका उल्लेख होने के कारण इन्हें अपनाने के लिए कहते हैं । इनमे से कई क्रियायें जैसे गर्व विवाह आदि सामाजिकता के कारण से होती हैं उनके अतिरिक्त अन्य क्रियायें नहीं होती । श्रादि पुराण में कई ऐसी घटनाओं का मांस का सेवन, पर स्त्री हरण) उल्लेख किया गया है जो त्याज्य है, हम उन्हे करने लग जाने यह तो ठीक नहीं है। धार्मिक जीवन की महत्व है। धार्मिक की डोरी या सूत का कोई महत्व मुझे तब ग्राश्वर्य होता है जब कई विद्वानों से भी यह सुनने को मिलता है कि यज्ञोपवीत प्रादि संस्कारो का वर्णन श्रादि पुराण में मिलता है। जब उनसे इसके विस्तार में चर्चा की जाती है तो यह कह देते है कि पूरा प्रसंग हमारा देखा हुआ है। पाठकों एवं विद्वानों से अनुरोध है कि वे इसका ठीक अध्यन कर समाज के सामने वास्तविक स्थिति रखे । सभव है मेरी समझ मे कही भूल रह जाय; क्योंकि भूल रह जाना संभव है । भूल को भूल स्वीकार नही करना महाभूल है इसलिए विद्वत्गण इस विषय मे अधिक प्रकाश डालें । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश का जयमाला-साहित्य डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री अपभ्रंश में साहित्य की पनेक विधाएं मिलती हैं, पर थी, इसलिए पाठकों को जानकारी के लिए पूर्ण पुष्पपाजतक समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया । यहाँ ऐसे जयमाला प्रकाशित की जा रही है। प्राप्त जयमालाओं ही एक उपेक्षित विधा का निर्देश किया जा रहा है। मे यह रचना प्राचीन प्रतीत होती है। सम्भवत: इससे जयमाला का साहित्य केवल जैन साहित्य की ही देन है। पूर्व की रचना अभी तक नहीं मिली। इससे रचना का क्योंकि अनेक प्रकार की पूजामों को विविध राग-रागि- महत्त्व और भी बढ़ जाता है। भाषा सरल और प्रसाद नियों में पद्यबद्ध करने का कार्य जैन विद्वान एवं प्राचार्य गुण से युक्त है। अपभ्रंश भाषा के लालित्य के निर्देशन बहुत समय से करते चले पा रहे हैं। यह पुष्प जयमाला की दृष्टि से भी रचना महत्वपूर्ण मानी जा सकती है। प्रायः जिनमूर्ति के कलशाभिषेकोत्सव के अनन्तर पूजा- सयल जिणेसर जयकमल पणविवि जगि जयकार । स्तवन के रूप मे गाई जाती रही है। केवल शब्द व अर्थ फुल्लमाल जिणवर तणी पभण भबियणतार ॥१॥ की दृष्टि से ही नहीं साहित्य की दृष्टि से भी ये महत्व- सिरि रिसभ प्रजिय संभव अभिणंदण पूर्ण है। सुमति जिणेसह पापणिकवण । प्रस्तुत जयमाला मध्य प्रदेश के भानपुरा के शास्त्र- पउमप्पड जिण णामें गज्ज, भण्डार के गुटके से प्रतिलिपि की गई है । भाषा और सिरि सुपासु चन्दप्पह पुज्जउ ॥२॥ भाव दोनों ही रूपों मे रचना सुन्दर है । रचना के लेखक मतमोयल पजिजज्जह. जिणि सेयांसु मणिहि भाविज्जह ब्रह्म नेमिदत्त हैं। ये मूलसंघ के प्रा० मल्लिभूषण के, वासुपुज्जजिणपुज्जुकरेप्पिणु, विमलुप्रणंतुषम्मुशाएप्पिण ॥ शिष्य थे । नेमिदत्त ने सिंहनन्दी का भी स्मरण किया है। ति परमल्लिजिणेसह. मणिसम्वय परमेसरु । रचना २५ छन्दो मे निबद्ध है। लेखक ने अपना परिचय नमि नेमोसरपाय पुज्जसिउ, स्वयं इन शब्दों में दिया है भवसायरहुं पाणिय देसित्थं ॥४॥ श्रीमलसंघ मंगलकरण, मल्लिभूषणगुरु णमि विमल । पासणाह भवपासणिवारण, वडढमाणजिणु तिवणतारण। सिरिसिंहणंदि अभिणंवि करि, मिवत्त पभणह सकल ॥ चवीस जिणेसर बंविवि, सिवि गामिणि सारव ब्रह्मनेमिदत्त मूलसघ सरस्वती गच्छ बलात्कार अभिणंदिव || गण के विद्वान् भ० मल्लिभूषण के शिष्य थे। इनके सिरिमलसंघ महिमारयणायर, गुरु णिग्गंथ णम सुयसायर सम्बन्ध में पं० परमानन्द जी शास्त्री ने प्रकाश डालते सिरिजिणफूल्लमाल बक्खाण, हए लिखा है-'आपकी ये सब रचनाएं वि० स० १५७५ नरभव तणां सार फल माण॥६॥ से १५८५ तक रची हुई जान पड़ती है । इससे माप प्रार्या-भो भवियण भव भवहरण तारण चरण समस्थ । सोलहवी शताब्दी के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् थे ।' माला. जाती कुसुम करंज लिहि फुज्जह जिण बौहत्य ॥७॥ रोहिणी के नाम से प्रकाशित यह रचना कही-कहीं त्रुटित निगी कद-जाती सेवत्ती बरमालती चंपय जुत्ती विकसतो १. पं० परमानन्द जैन शास्त्री: ब्रह्मनेमिदत्त और उनकी - बम्बर श्रीमाला गषविलासा कुल्जय धवला सोभंती ॥ रचनाएं, अनेकान्त, वर्ष १८, किरण २, जून १६६५, रतुप्पल फुल्लाह कमलनवल्लहि जूहीजुल्लहि जयवंती। पृ०८२-८४ मचकुंकयंबहि दमणयकुंबहि नाना फुल्लहि महकती।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश का जयमाला साहित्य सग्गमोकखसुहकारिणी मालजिणिवह सार । विणउ करेपिणु मंगियह जिम लागह भवपार ॥ ६ ॥ मौक्तिकदाम छंद-समोग्गर फुल्ल महक्कइ माल, मधुक्कर ढुवकहि गपरसाल सुपाडल पारिजाइ बिचित, जिणंजर पुज्जहु लोयपत्ति || सयल सुराधिप पुज्जिउ, पुज्जहु सिरि जिणदेउ । धणकण जणसपय लहहु, दुक्ख लगउ होइ छेउ || ११ || मौक्तिकदाम छद - सुरासुकिण्णर खेयर भूरि, जिणवु पयच्चाहं पञ्चहि नारि, पच्छर गावहिं सोक्खहधाम, जिfणवह सोहइ मोत्तियदाम ॥ भवियणजण जिणपयकमल माल महंघिय लेहु । नियलfच्छय फलु करहु दुक्खु जलंजलि बेहु ॥ १३ ॥ त्रिभंगी - दुख देह जलंजलि जिण कुसुमांजलि, दुज्जहु भवियण सोक्खकरं । जिणभवणि पवितं निम्मल चित्तं, मिलियउ चउवीसह संघवरं ॥ १४ ॥ इहु अवसर सार गुणह भडार गवि लाभइ बहु पुण्ण विणं । जिणवरणयमाला फुल्लि बिसाला, लिज्जइचंचलजाणिघण || पण जो कचणु रयणु परियणु भवणु वि सन्बु । अलबुम्बुव करि कण जिम चंचल में करहु गछु || १६ || पंचचामर छदम जाहू गब्बु देह दबु लेहु माल निम्मली तुषारहारचंदगौर कित्ती होइ उज्जली || सुरिवविदमूतरिव खयरव पुज्जिया । जिदिपायपोममाल सम्व दोस वज्जिया ॥ १७ ॥ १२९ fra जिन भवियण जिणभवणि करहु महोत्सबसार । मनवांछिय संपय लहह पुपु पावह भवपार ॥१८॥ सोमराजी छंद-भक्स्सेवपार महादुक्खहार, तिलोकैकसारं जणाणंदकारं । परं देवदेवं सुरिदेण सेवं जिणिद प्रणिदं जर्ज धम्मकंदं । १९ बलि बलि प्रवसरु णवि मिलइ गवि दोसइ थिर काह । जिणधम्महि मणु दि करहु काल गलंत जाई ||२०|| पचचामर छंद - गलति झत्ति जाइ बालु मोहजालु वड्ढई । सु होहि जाणु भण्व भाणु प्रग्गि जेम कढई । जिणिवचंद पायपुज्ज धम्मकज्ज किज्जई ॥ सुपसदाणु पुष्णगण्णु वयणिहाणु लिई ॥ २१ ॥ लिज्जए फलु णियकल तणउ लच्छियचपल सहाम्रो । सिरि जिणपुज्ज करेवि लहु मनि परि णिम्मलयो । त्रिभंगी - मणि भाउ धरेष्पिणु पुज्ज, करेfor मालमहोच्छव निम्मलम्रो । जिft भवणि करिज्जइ घणु वेचिज्जद्द सुह संचइ उज्जलमो णाणाविह तुरहि गभीरहि भरोभं भा सद्द सुहो । कंसालाहि तालहि मगलघबलाहि माल जिणिदह लेहु लहो । मालजिहि तणिय लेहु लहु तिहुवण तारण भवियण जण । उपगारसार संपयसुहकारण रोगसोगदालिद्ददुक्खु । वि नोड प्रांबई जिणवरपायपसायजीव वांछियफलपावद्द ॥ श्री मूलस घमंगलकरण मल्लिभूषण गुरु णवि विमल । सिरिसिंहणदि प्रभिणदि करि नेमिदत्त पभणई सकला || इति श्री जिन माला समाप्ता श्रीरस्तु ।। सफल साधना साधक ! तेरी मंजिल बहुत दूर है। उसे पाने के लिए तू साधना करता रह । साधना का मार्ग बड़ा विषम है। प्रत्येक कदम पर तीक्ष्ण कांटे बिछे हुए हैं। तेरी गति में बाधक बनने वाली विपदा के बड़े-बड़े पहाड़ I खड़े हैं । तेरी अमूल्य निधि को लूटने के लिए राग-द्वेष प्रादि जबर्दस्त तस्कर घूम रहे हैं। तुझे पराजित करने के लिए कोष प्रादि योद्धा श्रवसर निहार रहे हैं। काम-पिशाच अपनी सशस्त्र सेना सहित तुझे पराजित करने के लिए विस्फारित बदन तेरी प्रतीक्षा कर रहा शीत और ताप भी तुझे विचलित करने के लिए अपना अतुल पराक्रम for रहे हैं। अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग भी तेरी परीक्षा करने के लिए समुद्यत हैं । फिर भी साधक ! सावधान रहना, घबराना मत, बढ़ते जाना। समुद्र चाहे अपनी मर्यादा छोड़ दे, सुमेरु चाहे डगमगा जाए। सूर्य पूर्व दिशा को छोड़कर पश्चिम दिशा में उदित होने लगे, तो भी तू अपनी साधना से विचलित न होना । अनुकूल और प्रतिकूल कष्टों का सामना करते हुए भी प्रागे बढ़ते रहना । तेरी साधना अवश्य सफल होगी। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'एक ऐतिहासिक माल्यान आत्म-विजय की राह श्री ठाकुर' प्राज से पच्चीस शताब्दी पूर्व की घटना है। उन होने लगी। समन्तभद्र ने सुना तो मर्माहत होकर बैठे रह दिनों श्रावस्ती एक प्रसिद्ध महाजनपद थी । वह कोशल गये । यज्ञ-विधान का प्रमुख नेता प्राचार्य माण्डव्य उनके की राजधानी थी। महाराज प्रसेनजित कोशल के अघि- पास बैठा हुआ सम्पूर्ण ब्राह्मण जाति के समवेत रोष का पति थे। उन दिनों श्रावस्ती में बड़े-बड़े धन कुबेर रहते प्रदर्शन कर रहा था। वह रक्त नेत्रों से देखता हुमा कह थे, जिनके सौषों पर स्वर्णकलश और ध्वजाएं लहराती रहा था-'सेठ ! यह मायाचार है। ब्राह्मण इसे सहन थीं। जितनी ध्वजाए लहराती थीं; उतनी कोटि स्वर्ण- नही कर सकते। उनमे अभी तक ब्रह्म तेज विद्यमान है। मद्रामों का वह स्वामी समझा जाता था। ऐसे भी धन- वे अपने इस तेज से तुम्हें और तुम्हारे वंश को भस्म करने कुबेर वहाँ थे, जिनका स्वर्ण चहबच्चों में भरा रहता था की शक्ति रखते है। तुमने ही मणिभद्र को निग्गंठ नाथऔर उनके स्वर्ण की गिनती शकटों में भार से की जाती पुत्त के पास भेज कर वैदिक पक्ष को प्राघात पचाया थी। है । आज समाज तुम्हे वहिष्कृत करता है। ऐसे ही धनकुबेरों में एक थे समन्तभद्र, जिनके सार्थ नों में एक समन्तभद. जिनके साथ सेठ अपराधी की भांति इस प्रताड़ना को सुन रहा सुदूर देशों में जाते थे और वहाँ की सम्पदा लाकर उनके था। उस वृद्ध के नेत्रों में दुख, ग्लानि और पश्चाताप महबच्चों में जमा करते रहते थे। श्रेष्ठी समन्तभद्र, देव, आंसू बनकर बह रहे थे। वह करुण मूर्ति बना हमा पितरों और ब्राह्मणों का बड़ा भक्त था। वैदिक क्रिया- प्राचार्य माण्डव्य के चरणों को अपने अविरत प्रांसूमों से काण्डों मे उसकी अगाध प्रास्था थी। वह वैदिक धर्म का प्रक्षालन करता हुमा कह रहा था-'प्राचार्य! मुझे क्षमा नेता था। करें। मैं जानता हूं मेरे पुत्र मणिभद्र का गुरुतर अपराध तीर्थदर महावीर अपने शिष्य परिकर सहित अक्षम्य है। किन्तु पाप विश्वास करें, उसके इस अपराध श्रावस्ती पधार रहे हैं, यह समाचार जब से प्रचारित मे मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं उसे भयानक दण्ड दंगा। असा तब से श्रावस्ती के ब्राह्मणों की उत्तेजना का आप अपने निर्णय को वापिस ले लें भविष्य मे मेरे परिवार कोई पार नही था। नगर के चतुष्पथों, हाटों और वीथियों का कोई सदस्य ऐसा अपराध नही करेगा। प्राचार्य क्षमा में अपनी अनर्गल बातों से अपने अदम्य क्षोभ का प्रदर्शन कर दे।' यों कहते-कहते उसका कण्ठ पश्चाताप और कर रहे थे। श्रेष्ठी समतभद्र के प्रावास मे न जाने वेदना के प्राधिक्य से रुद्ध हो गया। वह आगे कुछ न कितनी परिषद प्रायोजित की गई और उनमे तीर्थङ्कर बोल सका । वातारण मे उसकी वाष्परुद्ध हिचकियां ही महावीर के अलौकिक प्रभाव से वैदिक जनों की न सुनाई पड़ती रहीं। जाने कितनी योजनाए बनी और बिगडी। किन्तु प्राचार्य माण्डव्य पर सेठ की इस करुण विनय तभी समाचार मिना कि श्रेष्ठो समन्तभद्र का कनिष्ठ का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वैदिक धर्म, महर्षियो की पुत्र मणिभद्र श्रावस्ती से दो गव्यूति दूर जाकर भगवान पवित्र वाणी और यज्ञ परम्परा के रक्षक के रूप मे उनका महावीर के दर्शन करके लौटा है। यह दुःसवाद पवन के दायित्व महान था। बह्मा के मुख से निर्गत वेदत्रयो की रथ पर पारूढ़ होकर नाना रूपो मे श्रावस्ती के हर कोने अपौरुषेय वाणी में ससार के सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान अन्तमे फैल गया। सारी योजना विच्छिन्न सी होती हुई प्रतीत निहित है। वेद बाह्य कोई ज्ञान-विज्ञान नहीं है। उसी Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्म-विजय की राह अपोषेय ज्ञान का विरोध वह निग्गंठ महाश्रमण कर माघार हो। अपने पुत्र मणिभद्र पर कठोर दृष्टि रखो, रहा है और निर्ग्रन्थ के दर्शन सेठ पुत्र मणिभद्र कर चुका ब्राह्मण समाज तुम्हारे प्रायश्चित से सन्तुष्ट है । वह है, इससे बड़ा अपराध संसार में दूसरा कोई नही हो अपने निर्णय को वापिस लेता है। सकता, और यह सेठ उसी मणिभद्र का पिता है, वह सेठ सुन कर प्रत्यन्त माल्हादित हो गया। उसने वैदिक परम्परा का नेता है। इससे इस अपराध की गुरुता उठ कर सभी ब्राह्मणों का चरण स्पर्श किया और सबको पार यधिक बढ़ गई है। वह क्षमा नही किया जा सकता, सन्तुष्ट करके बिदा किया। किसी मूल्य पर भी नहीं। प्राचार्य ने सोचा और बड़ी (२) दृढ़ता से बोले-श्रेष्ठी! अपने अपराध की गम्भीरता कुमार मणिभद्र एकान्त में बन्दी था। परिवार का से तुम भी इनकार नहीं करोगे। क्या मणिभद्र तुम्हारी कोई सदस्य सेठ के कोप के भय से उसके पास जाने का प्रेरणा के बिना वहां जाने का साहस कर सकता था। साहस नहीं कर सकता था। कुमार सुबह से भूखा-प्यासा चार कर रहे हो पड़ा हुआ था। वह सोच नहीं पा रहा था कि उसका पोर दूसरी ओर तुम उस निर्ग्रन्थ को निमन्त्रण देकर अपराध क्या है, जिसका यह भनानक दण्ड दिया जा श्रेष्ठी समाज में सम्मान पाने का प्रयत्न कर रहे हो। रहा है। वह मात विहीन था, घर में सबसे छोटा था। तुम्हारे इस अनाचार को ब्राह्मण समाज कभी क्षमा न सबका प्रेम पात्र था। किन्तु प्राज उससे सभी विमुख हो करेगा और उसने जो निर्णय किया है, उसे कभी वापिस रहे है. सभी उसके प्रति निष्ठुर हो रहे है। क्यों है यह नहीं लेगा। सब। उसने बहुत सोचा, किन्तु उसकी समझ मे कोई सेठ समन्तभद्र जानता था कि प्राचार्य माण्डव्य का कारण नही पाया। शासन कठोर है, उनका निर्णय अपरिवर्तनीय है। किन्तु रात चारदण्ड व्यतीत हो चुकी थी। मणिभद्र की वह निराश नहीं हुआ। उसने प्राचार्य के चरणो को कस माखो मे नीद का नाम न था। भूख और प्यास से उर कर पकड़ लिया और गिडगिड़ाते हुए कहने लगा- दशा सोचनीय हो रही थी। इस सम्पन्न समृद्ध परिवार प्राचार्य ! पाप जो भी प्रायश्चित दे, वह मुझे स्वीकार । मे वह प्राज एकाकी था, असहाय, अवश । किन्तु सन्तोष है। किन्तु आप अपना निर्णय वापिस लौटा लीजिए। य वापिस लाटा लीजिए। का एक सम्बल भी था उगके पास । जब से वह त्रिलोकमै मणिभद्र को अभी प्रकोष्ठ मे बन्द कर देता हूँ। और पति भगवान महावीर के दर्शन करके लौटा है, उनका उसे तभी मुक्त करूंगा, जब तीर्थंकर महावीर श्रावस्त कर महावार श्रावस्त वह भुवन मोहन रूप उसकी प्रखिों के मागे फिर रहा त्याग कर दूर पहुँच जायंगे। मै अपने पुत्र मणिभद्र के है। वह अपनी आँखे बन्द करके उसी रूप को निहार प्रायश्चित स्वरूप नगर के ब्राह्मणो मे से प्रत्येक को सहस्र रहा है। उस रूप में अनन्त करुणा और जगत को अभयमुद्रा दूगा, स्वर्ण मण्डित सीगो वाली गाये दूंगा, ब्रह्म दान की मन्दाकिनी प्रवाहित हो रही है। प्रोर मणिभद्र भोज दूगा। और जो माप प्राज्ञा देगे, वह सब करूगा। उस दिव्य मन्दाकिनी को शीतल धारा में पालोडन कर किन्तु पाप अपना निर्णय लोटा ले । प्राचार्य । अपना रहा है। संसार का कोई ताप, कोई प्राकुलता अब उसे निर्णय लोटा ले। स्पर्श नहीं कर रही है । उस सकट की इस बेला मे भी प्राचार्य ने प्रायश्चित की अन्तिम बाते ध्यान से प्रनिर्वचनीय शान्ति का अनुभव हो रहा है । सुनीं। उन्होंने वहां एकत्रित नगर के प्रमुख ब्राह्मणों की तभी दरवाजा खुलने की आवाज से वह चौक उठा, मोर देखा । उनकी आँखों में प्राचार्य ने पढ़ा-प्रायश्चित उसने नेत्र खोलकर देखा-स्वर्ग की एक देवाङ्गना उसके स्वीकार्य है । प्राचार्य की वणी मे कोमलता प्रा गई- निकट पा रही है । विस्मय से वह अवाक रह गया। वह 'समन्तभद्र ! तुम वैदिक समाज के नेता हो । सम्पूर्ण उस दिव्य रूप को अपलक निहारता रहा । तभी वह देवी जम्बूद्वीप की दृष्टि तुम्हीं पर केन्द्रित है। तुम्हीं उसके बोली-"कुमार ! तुम्हारे पिता तुम्हारे शत्रु बन ग Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२, २४, कि.. अनेकान्त हैं। किन्तु अब तुम मुक्त हो।" की दासी थी, किन्तु उसका जीवन प्रत्यन्त नीरस होगमा किन्तु देवी! आप कौन हैं ? जो इस भाग्यहीन की था। उसकी धर्मपरायण पत्नी का जबसे देहान्त हुपा था, मुक्ति का वरदान बनकर अवतरित हुई हो? क्या माप उसके जीवन का सारा रस सूख गया था और व्यापार से स्वर्ग की देवी है या नाग कन्या है? भी प्रायः विरक्त हो गया। उसकी एकमात्र सन्तान . सुनकर देवी के होठ सम्पुट मन्द हास्य से कुछ विक. उसकी पुत्री रत्नमाला थी। उसका सारा मोह उसी पर सित हो गए, मानो कली चटक उठी हो, वह सस्मित था। किन्तु पुत्री भी उसके विराग का ही कारण बन गई बोली- मै देवी नही साधारण मानवी हैं। किन्तु इन थी। वह सोलह साल बसन्तों का सम्पूर्ण सौरभ अपने बातों की भी मीमांसा का यह अवसर नही है। तुम यहाँ अंगों मे भरकर गदराये प्रादमी की तरह मधुर और से शीघ्र निकल जामो। परिचय का अवसर फिर भी सुरभित हो गई थी। किन्तु यौवन जैसे उसके लिए उपेक्षा मिल सकेगा। यदि किसी को ज्ञात हो गया तो तुम्हारी की वस्तु था। यौवन की दहलीज पर खड़े होकर भी मुक्ति असम्भव हो जायगी। यह चाबी लो और पिछवाड़े मादकता कभी उसके मन में नही जागी थी। बल्कि वह के द्वार से उद्यान में होकर निकल जायो । यों कह कर जीवन के शैशव काल से ही संयम और साधना के मार्ग उसने चाबी कुमार के हाथ में दे दी। की पथिक बन गई थी। वह विराग का पाथेय लेकर किन्तु चाबी देते समय हाथ का स्पर्श हो गया जिससे एक सध्वी की तरह अपने मार्ग में बढ़ती जा रही थी। दोनों के शरीर रोमाचित हो उठे। कुमार प्रातःकाल से विकार उसके मन मे कभी अकुरित नहीं हो पाये । इस प्रसभावित कारण से खिन्न था-मन में सोचने लगा साधना की दीप्ति ने उसके प्रग-प्रत्यगों को एक अनि -काश! मै यही इसी बन्धन में पड़ा रहूँ और यह वचनीय लावण्य से जगमगा दिया था। किन्तु उस लावण्य दिव्य बाला इसी प्रकार मुक्ति का सन्देश लेकर मुझे मे प्रशान्त मोहन था, उन्माद का उत्ताप नही; एक चाबी थमाती रहे। कुछ क्षण दोनो ही प्रात्मविस्मृत से मोहक स्निग्धता थी, जिसमें से पावकता की धाराए अजस्र वहीं खड़े रहे। तभी वह बाला सयत होकर बोली- वेग मे निसृत होती थी। "कमार ! बिलम्ब करने से अनर्थ की सम्भावना है। पिता ने अपनी लाडली पुत्री से अनेक बार विवाह शीघ्रता करना ही श्रेयस्कर है।" का अनुरोध किया, किन्तु पुत्री ने सदा विवाह से इनकार किन्तु कुमार की इच्छा जाने की नहीं हो रही थी। किया। तब व्यवहार चतुर पिता ने सोचा-यदि तीर्थउस दिव्य रूपराशि के सम्मोह ने उसे जड़ बना दिया वन्दना के बहाने इमे देशाटन कराया जाय तो शायद मेरी था। किन्तु उस रूपवती का बार-बार का प्राग्रह भी पुत्री में कुछ परिवर्तन पा सके और उसमे नये रूप में टाला नही जा सकता था, अत: वह अनिच्छा से अवश्य जीवन की स्पष्टता जाग सके। यह सोचकर वह अपनी चल दिया। किन्तु वह बार-बार मुड़कर देखता जाता पुत्री को लेकर विविध तीर्थों की यात्रा कराता हा था और जब तक वह दृष्टि से प्रोभल न हो गया, वह श्रावस्ती पाया । सेठ समन्तभद्र उसके अनन्य मित्रों में से बाला भी उसी ओर जाने वाले को अपलक देखती रही थे। उन्होने अनेक बार वसुभूति से श्रावस्ती पाने का जब वह प्रोझल हो गया तो एक गहरी निश्वास उसके प्राग्रह भी किया था। प्रतः वसुभूति अपनी पुत्री रत्नमाला अनचाहे की निकल गई। को लेकर समन्तभद्र के घर पर पहुँचे। सेठ समन्तभद्र ने अपने अनन्य सुहृद का हृदय से स्वागत किया और रत्नवसभति कौशाम्बी का नगर सेठ था। उसका व्यापार माला को बड़े वात्सल्य और दुलार से अपनी पत्रीकी सुदूर देशों में था। नगर का वह प्रतिष्ठित नागरिक था। तरह ग्रहण किया। जैनधर्म पर उसकी अगाध प्रास्था थी, भगवान महावीर वसुभूति को तभी प्रावषयक कार्य से कोशम्बी लोटना के प्रति उसकी प्रसदिग्ध भक्ति थी । लक्ष्मी उसके चरणों पड़ा और वह रलमाला को छोड़कर चला गया। रल Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्म-विजय की राह माला को यहाँ पाये दो ही दिन हुए थे । किन्तु इसी बीच लगी । प्राचार्य माण्डव्य यमराज की-सी भयंकर मुद्रा लिये उपकी दृष्टि मणिभद्र की ओर आकर्षित हुई। वह सौम्य समन्तभद्र के प्रावास में पहुँचे। उनके सग ब्राह्मणों की प्रकृति का स्वस्थ और सुन्दर युवक था। उसे देखते ही एक विशाल भीड चली जा रही थी। उन्होने जाकर देखा रत्नमाला की अवधारा में अकस्मात ही परिवर्तन होने -समन्तभद्र शोक मूति बना हुमा यज्ञ मण्डप मे धूल-मे लगा और वह जीवन के बारे में एक नये ही दृष्टिकोण से लोट रहा है। अभी दो दण्ड दिन ही चढ़ा था, किन्तु सोचने लगी। उसके चिन्तन की धारा विलक्षण थी। इतने ही समय में सेठ शायद अपनी प्रायु से पचास वर्ष उसके मनमे भोगो की लालसा तो एक क्षण को भी नहीं अधिक हो गया था। प्राई, किन्तु विवाह की एक अव्यक्त ललक रह रहकर भाचार्य और ब्राह्मणों ने अपने अदम्य क्षोभ को नाना उसे प्रान्दोलित करने लगी। सम्भव है इससे पिता जी के भांति प्रसयत और अनर्गल भाषा मे व्यक्त किया। किन्तु जीवन में एक शान्ति, एक सन्तोष पा सके । शोक मूच्छित सेठ के कानो में कोई शब्द न पहुँचा। तभी ब्राह्मण समाज की कुटिल दुरभि सन्धि की भनक उसके कानों मे पडी पोर कुमार मणिभद्र के कारा- जगद् बन्धु महावीर श्रावस्ती के बाहर जेतवन मे वास का समाचार भी उसने सुना। सुनकर वह स्थिर न विराजमान थे। जेतवन युवराज जतकुमार का विलास रह सकी । समय का जो आवरण उसने बड़े यत्न से अपने उद्यान था। विलास की सभी सुविधाए वहाँ उपलब्ध चारो पोर डाल रक्खा था, वह भी तार-तार कर गलने थी। युवराज प्राचार्य माण्डव्य के शिष्य थे। तीर्थकर लगा। उसमें दुस्साहस की एक उद्दाम भावना प्रबल वेग महावीर के वहिष्कार प्रान्दोलन के नेता थे। ब्राह्मण से जागृत हुई और वह कही से सूचिका गुच्छक लेकर समाज को उन पर पूर्ण विश्वास था। किन्तु ब्राह्मण एकान्त निशीथ मे उस एकान्त प्रकोष्ठ में जा पहुँची, जहाँ समाज को यह जानकर अत्यन्त प्राश्चर्य हुमा कि स्वयं मणिभद्र को बन्दी बनाकर रखा गया था। उसने परि. युवराज ने तीर्थकर प्रभु से जेतवन मे पधारने का प्राग्रह णाम की चिन्ता किये बिना मणिभद्र को मुक्त करा दिया किया था और महाप्रभु उसकी विनय को स्वीकार करके और जब वह अपने शयन कक्ष में गुप्त रूप से लौटकर वहाँ पधारे तो महाराज प्रसेनजित के साथ युवराज भी आई, तब उसक मन का सारा उद्वेग शान हो चुका था। उनके चरणो मे बद्धाजलि उपस्थित था। किन्तु प्रात:काल का सूर्य सेठ समन्तभद्र के लिए प्रम- श्रावस्ती आज पाश्चर्यो का प्रागार बनी हुई थी। गल और अवमानना का उत्ताप लेकर उदित हुप्रा । प्रातः ब्राह्मण समाज विस्मय और उत्तेजना के साथ इन पाश्चर्यो होते ही यह प्रकट हो गया कि मणिभद्र कारागार के को देख रहा था । जेतकुमार उनके दल को छोड़कर तीर्थप्रकोष्ठ में नही है। वह मुक्त किया गया है। किन्तु कर का भक्त बन चुका था। सेठ समन्तभद्र के दो पुत्र किसने उसे मुक्त करने का साहस किया है, यह लाख महाश्रमण के उपासक बन गये थे। सारी श्रावस्ती उनके प्रयत्न करने पर भी ज्ञात नही हो पाया। इतना ही नही दर्शनो के लिए उमड़ पड़ी थी। तब प्राचार्य माण्डव्य सब मुक्त होकर मणिभद्र प्रभु महावीर के चरणो में जाकर कही यह प्रचारित करने में जुट पड़े कि तीर्थकर मायावी बैठा है। इससे भी भयानक एक दुस्सवाद यह भी मिला है, वे सम्मोहन विद्या में पारगत है। उनकी सम्मोहन कि सेठ का मध्यम पुत्र सुभद्र भी तीर्थकर महावीर को माया के जाल मे युवराज पौर श्रेष्ठ पत्र फस गये हैं। शरण मे चला गया है। किन्तु प्राचार्य इससे निराश नहीं हुए। उनका प्रह ब्राह्मण वर्ग ने इन अमगल समाचारों को वैदिक धर्म अपनी पराजय स्वीकार करने को तैयार नहीं था। के प्रति सेठ समन्तभद्र के घोर विश्वासघात के रूप मे उन्होने अपने पक्ष के सभी ब्राह्मणों और बेष्ठियों की लिया। श्रावस्ती के समस्त वैदिक जन मेदिनी में समन्त- परिपद् बुलाई। परिषद् में अद्भुत गम्भीरता व्याप्त भद्र के प्रति अनर्गल भाषा में माकोशपूर्ण चर्चा चलने थी। क्षण-क्षण में उस महाश्रमण के निकट अपने पक्ष के Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४, वर्ष २४, कि०३ अनेकान्त प्रभुत्व माधार-स्तम्भों के पहुँचने के समाचार पा रहे थे। समवसरण के बाहर बने हुए मानस्तम्भ के समक्ष पहुँचे वातावरण प्राशंका और विस्मय, भय और प्रातक से तो उनके मन में एक भाव जागा-काश ! मैं यहाँ न व्याप्त था। उत्तेजना क्षण-क्षण बढ़ती जा रही थी। माया होता। प्राचार्य अपने भवन को ढहते देख रहे थे और अब प्रव- मानस्तम्भ उनके अभिमान को चुनौती देता हुमा शिष्ट भवन की सुरक्षा करने के लिए कोई न कोई उपाय आकाश में मस्तक उठाये हुए खड़ा था। उसके समक्ष करने का संकल्प उनके उद्विग्न मानस में बढ़ता जा रहा उनका अभिमान छोटा पड़ता गया । और उसके उत्ताप था। उन्होंने सकल्प का एक रूप संजोए हुए परिषद को से वह गलित होता गया। मन मे कोमलता जागी और सम्बोधित किया : अभिमान नाम शेष हो गया। उनके मन में सरलता का ___ शाश्वत धर्म के अनुयायियो ! प्राप त्रिकालदर्शी मह- उदय हुआ, विनय जागी। और जब वे मण्डप मे प्रवेश षियों के पवित्र धर्म के अनुयायी है। आपको सौभाग्य से करने लगे, तब वे विनय को साकार मूर्ति बने हुए थे । अपने महान् पूर्वजो से उत्तराधिकार में लोक कल्याणकारी वे महाप्रभु के लोकोत्तर व्यक्तित्व से अभिभत थे। न जाने धर्म पोर ज्ञान मिला है। किन्तु प्राज मायावी महावीर किस अदृश्य शक्ति से उनके हाथ स्वय अकल्पित रूप में अपनी माया विस्तार करके उम धर्म का विरोध कर रहा जुड गये । वे साप्टाग नमस्कार क रके विनय पूर्वक कहने है और उसका धर्म सूखे पत्तो मे लगी प्राग की भाति लगे-प्रभु ! क्षमा करे । मुझ अज्ञानी को क्षमा कर दे। बढता जा रहा है । वैशाली गणराज्य के कुण्डग्राम मे प्रभु कह रहे थे-माण्डव्य ! तुम्हारे मन में जो उसका जन्म हुआ। इसलिए गणराज्य के सभी निवासी ___ कोमलता उपजी है, वही तुम्हारा प्रायश्चित है। अपनत्व के व्यामोह में फंसकर उसके धर्म के अनुयायी हो माण्डव्य विगलित कठ से कहने लगे-देव ! मेरा गए है। मल्ल, यौधेय प्रादि गणसंघ भी समान शासन अपराध महान है । मुझे माप अपना उपासक ग्रहण कर पद्धति के कारण उसके भक्त हो गए है। राजगृह के पास मुझे अपना शिष्य बनाकर इन चरणों में बैठने का अवसर। मुर' सेनिय बिम्बसार, श्रावस्ती के महाराज प्रसेनजित, प्रदान कौशम्बी नरेश शतानीक, भवति नरेश चण्ड प्रद्योत, चंपा माण्डव्य ने मुनि दीक्षा ले ली और उन्हे इ द्रभूति, नरेश, दधिवाहन प्रादि अनेक नरेश उसके उपासक बन वायुभूति और अग्निभूति की पक्ति में स्थान मिला। गए हैं। वह अपने आपको केवली, सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहता जब वे स्वस्थ होकर बैठ गये तो उन्होने देखाफिरता है। बहुत समय से मै उसका मान-मर्दन करने का - मनुष्य के कोष्ठ मे से: समन्तभद्र अपने दोनों पुत्र-सुभद्र मनुष्य क काष्ठ विचार कर रहा था। उसका दुर्भाग्य उसे अाज यहाँ ले और मणिभद्र के साथ प्रमुदित मन से बैठे हुए हैं। सारा पाया है। मैं माज उसी की समवसरण परिषद में जाकर ब्राह्मण वर्ग हाथ जोड़े हुए महाप्रभु के वचनामृत का उसे पराजित करूंगा और सारे विश्व में वैदिक धर्म की रसास्वाद कर रहा है । और महाप्रभु के महान व्यक्तित्व की शीतल छाया में सबके मन शान्त, निर्मल हो चुके हैं। पताका फहरा दूंगा। सब लोगों ने प्राचार्य के सकल्प की सराहना करके मणिभद्र के मन मे रह रह कर विराग की तरंगे जयध्वनि की। सभी को उनके अगाध पाण्डित्य पर उठती; किन्तु उसे अपने पिता के प्राग्रह के मागे विवाह विश्वास था। सभी ने उनके साथ चलने की स्वीकृति की स्वीकृत देनी पड़ी। रत्नमाला को भी अपना संकल्प दी। और बुद्ध परिवार प्राचार्य के साथ समवसरण की छोड़ना पड़ा। और एक दिन दोनों का विवाह हो गया। ओर चल दिये। प्राचार्य का अहंकार उनकी विद्वत्ता की सेठ समन्तभद्र और वसुभूति दोनो ही बड़े प्रसन्न थे। भौति ही असाधारण था। किन्तु जैसे-जैसे वे समवसरण माज मणिभद्र और रत्नमाला की सुहागरात थी। मण्डप की भोर बढ़ते गए, उनका अहंकार स्खलित होता एक सुसज्जित, सुवासित प्रकोष्ठ में स्वर्णपर्यंक फूलमालाओं गया । उन्हें मनोदौर्बल्य का अनुभव होने लगा। जब वे से अलंकृत था। पयंक पर श्वेत पाच्छादन बिछा हुम Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्व-विजय की राह पा। निकट ही स्वर्ण पीठ पर दूष की झारी पोर बनाते रहे । इसी तरह दिन बीतते गये। दिन कामों में मिष्ठान्न रक्खा हुआ था । दीपाधार पर सुवासित तेल के बीतता और रात विराग पर्चा में । एक सोता दूसरा सहस्र दीप गुच्छक जल रहे थे। गवाक्ष से शीतल चांदनी मारम-चिन्तन करता। अद्भुत जीवन या उन प्रेमियों मा रही थी। मन्द-मन्द शीतल पवन बह रही थी। युगल का। प्रेमी पलंग पर भाव विमोहित से बैठे हुए थे । मणिभद्र एक दिन रत्नमाला सो रही थी, मणिभद्र जाग रहा ने मौन भंग करते हुए कहा-देवी ! तुम्हे पाकर में धन्य था। नीद की बेहोशी मे बेसुध पड़ी रत्नमाला कामाचल हा। तुम्हें पाने की ललक एक दिन मेरे मन में उठी उसके उन्नत वक्ष से हट गया था। श्वास के साथ उरोजों थी, वह आज पूरी हो गई। किन्तु क्या भोग ही जीवन का ग्रारोह-अवतीत एक लय के साथ हो रहा । निशीय की चरम परिणति है, मै यही सोच रहा हूँ। की गहरी निस्तब्यता थी। गहराता यौवन, एक शैया, रत्नमाला भाव लोक मे विचरण कर रही थी। एकान्त कक्ष । मणिभद्र अपलक निहार रहा था उसके सुनकर वह जैसे जागी। वह बोली-आर्यपुत्र का कथन कमनीय रूप को । विचारो की रंगीन तरगे उसके मन में सत्य है। भोग जीवन की विकृति है। जीवन का प्रयोजन अन्धकार भरती जा रही थी। तभी वह चौका । रत्नमाला इससे महान है । हमे उस महान प्रयोजन को भुला देना की वेणी शय्या के नीचे लटकी हुई थी और उसके सहारे नही है। एक भयानक नाग ऊपर चढ़ने का प्रयत्न कर रहा था । देवी ! सच है। हमें उस महान प्रयोजन के लिए वह झुका और उसने हाथ बढा कर वेणी को पकड कर मिलकर प्रयत्न करना है। इस प्रयोजन की राह मे हमें छिटक दिया । नाग तो प्रलग जा पडा। किन्तु इस हड़भोगो को नही पाने देना है। क्या देवी के मन मे किसी बड़ी में वह अपना सतुलन न रख सका और अप्रत्याशित कान मे भोगो की कोई स्पृहा तो नही है। रूप से रत्नमाला के वक्ष पर गिर पड़ा। रत्नमाला की नही है देव ! में जो कल थी, वही प्राज भी हूँ। सुरभित श्वास उसके नासा-पुटों मे भर गई । क्षणभर के लोकदृष्टि मे हम पति-पत्नी है, किन्तु मेरे मन मे विवाह इस मादक स्पर्श ने उसके शरीर को रोमांचित कर दिया । ने कोई अन्तर नही डाला।' रत्नमाला की पाखे खुल गई। मणिभद्र सयत होकर बैठ ___धन्य है देवी! किन्तु सम्भव है, चिर साहचर्य गया, किन्तु लज्जा से अभिभूत हो उठा। उसने अपने सकल्प को निर्बल कर दे। उसका उपाय करना होगा' । , कृत्य की सफाई भी दी, किन्तु उसकी देह प्रव तक रोमांमणिभद्र ने कहा। चित हो रही थी। रत्नमाला गहरे विचार में डूब गई और कुछ देर रत्नमाला ने ध्यान से यह देखा और वह उठकर बोली पश्चात् बोली-मैंने उपाय मोच लिया है। हम दोनों -मणिभद्र ! यों कब तक चलेगा। भोग के साधनों में इस शय्या पर सोवेगे, किन्तु क्रम-क्रम से । क्या यह उपाय रहकर विराग की दीवारे किसी दिन ढह सकतो हैं। उचित न होगा। अस्वाभाविक जीवन की छलना में जीवन बिताया नहीं मणिभद्र प्रसन्नता से उछल पड़ा। यह उपाय सर्वथा जा सकता। जो कुछ भी हुमा है वह फिर किसी दिन उचित था । यह बोला-देवी ने जो उपाय बताया है, भी हो सकता है। तुम्हारा मन निबंल हो रहा है, क्या निष्कलक है। हमारी राह कटकाकीर्ण है, किन्तु तुम मुझे यह सच नहीं है ? सहारा देनी रहना। तुम्हारा संबल पाकर मै कृतार्थ हो मणिभद्र सुनकर सकुचित हो उठा-देवी ! अपने गया। हमे इस जोवन को साधनामय बनाना होगा, तभी कृत्य पर मै लज्जित हूँ। किन्तु जो कुछ हमा, वह अवशहम अपने प्रयोजन में सफल हो सकेगे । तुम जैसी पत्नी रूप से हुआ है। को पाकर मै धन्य हो गया। देवी ! मै अब निश्चिन्त हूँ।' रत्नमाला भी जानती थी, किन्तु भविष्य में भी ऐसी युगल प्रेमी प्रणय की उस रात में यों ही योजना सम्भावनामों का तो अन्त नहीं हो जायगा । यह सोचकह Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १ समयसार-वैभव-लेखक पं. नाथूराम डोंगरीय किया है। . शास्त्री प्रकाशक, जैनधर्म प्रकाशन कार्यालय ५/१ तम्बोली वर्तमान में पाठकों का झुकाव समयसार के मध्ययन 'बाखल, इन्दौर (म० प्र०) मूल्य ३) रुपया। की ओर बढ़ रहा है, वह समयसार को समझे या न समझे. प्रस्तुत पुस्तक प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द के समक्सार उसका पाठ तो हो जाता है, पर उसके मर्म का पोष का पद्यानुवाद है जिसे पं. नाथ राम जी डोंगरीय ने बड़े नही हो पाता। क्योंकि कर्म सिद्धान्त और दर्शनशास्त्र के परिश्रम से तैयार किया है। अनुवाद करते समय लेखक ने अभ्यास बिना समयसार का हृदयंगम होना कठिन है । अनेकान्त नीति का अनुसरण करते हुए ग्रन्यकर्ता को मूल- हो, उसे इतना ही लाभ हो पाता है कि वह थोड़ी बहुत गाथा का भाव स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । पद्यानु- अध्यात्म चर्चा करने लगता है। चर्चा केवल अध्यात्म की वाद पढते समय अध्यात्म रस का पान हुए बिना नही होती है पर व्यवहार और निश्चय को समझे बिना समयरहता । जब प्रात्मा वस्तुतत्त्व की दृष्टि से स्वसंवेदन सार के रहस्य का बोध नही हो पाता। कोरे अध्यात्मद्वारा भेद ज्ञान की पोर झुकता है । तब वह सफलता के बाद की चर्चा जीवन को एकान्त की प्रोर ले जाती है । सोपान पर चढता है। भेद ज्ञान से ही जीव मिथ्यात्व- मैंने समयसार के अनेक ऐसे पाठको को देखा है, जिन्हे विहीन होता है । जब तक भेद विज्ञान नहीं होता तब तक निश्चय और व्यवहार का यथार्थ बोध नहीं है, और न मात्मा अपने स्वरूप का भान नहीं कर पाता अतएव भेद. सिद्धान्त का ही परिज्ञान है। अनेकान्त और नयों को विज्ञान को प्राप्त करना ही श्रेयस्कर है। रहस्यपूर्ण चर्चा का परिज्ञान तो दूर की बात है । ऐसी यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए समयसार बंभव स्थिति में समयसार के अध्ययन से क्या उन्हे शुद्धात्मतत्त्व के कछ पद्य नीचे दिये जाते है, जिसमें पाठक पद्यानुवाद का परिज्ञान हो सकता है ? अतः ऐसे लोगों का कर्तव्य की उपयोगिता का परिज्ञान कर सकें। है कि वे पहले सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त करे, और बाद में वीतराग के दिव्य ज्ञान में प्रात्मतत्त्व पुद्गल से भिन्न, समयसार का अध्ययन करे, तब उन्हे समयसार का झलक रहा वह ज्ञान ज्योतिमय चिदानन्द रस पूर्ण प्रखिन्न। प्रांशिक बोध हो सकता है। अत: अध्यात्म रसिकों का कैसे हो सकता चेतन का पुद्गल संग अविभक्त स्वभाव, कर्तव्य है कि वे समयमार के वास्तविक रहस्य को पाने के जो तूं जड़ परिकर को कहता-मेरे-मेरे चेतन राव॥ लिए प्रयत्न करे । भाव का रुकना संवर है, उसका हेतु भेद विज्ञान, ग्रन्थ की प्रस्तावना ५० जगन्मोहनलाल जी शास्त्री मात्मतत्त्व उपयोग मयी है, क्रोधादिक से भिन्न महान् । कटनी ने लिखी है जा डोगरीय जी के विद्या गुरु है । वर्शन ज्ञानमयी होता है चेतन का उपयोग प्रवीण, प्रस्तावना मे समयसार के अधिकारो का सक्षिप्त परिचय उससे भिन्न कोष मानादिक है कषाय की वत्ति मलीन ॥ कराते हुए पद्यानुवाद कर्ता के सम्बन्ध में भी लिखा है । गाथा का भावानुवाद यदि एक पद्य मे नही पा सका, ग्रन्थ उपयोगी है, इसके के लिए लेखक महानुभाव धन्यतो कवि ने उसे दूसरे पद्य द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास वाद के पात्र है । परमानन्द शास्त्री वह बोली-यह ठोक है कि यह सब अवशरूप में हुमा है स्वर मे कहा-रत्नमाला ! तुम ठीक कहती हो । हमे • किन्तु उसके प्रभाव से तो नहीं बचा जा सकता। कल अपने महान् प्रयोजन के लिए इस जर्जर मोह बन्धन को मेरी या तम्हारी निर्बलता हमे विचलित भी कर सकती तोड़ना चाहिए और वह भी पाज ही। हमारी निस्कृति है। क्यों न हम इस अस्वाभाविक जीवन को समाप्त इसी में है। करके अपने सकल्पो को मूर्तरूप दे। हमारी साधना में प्रातःकाल का सूर्य निकला और वह साधना निरत लोक प्रदर्शन क्यों बाधक बने । दम्पति घर से निकल पड़ा। राह कठिन थी। बी. ___मणिभद्र अब तक पूर्णतः स्वस्थ हो चुका था। उसे मोह के पर्वत खड़े थे, भावनाप्रो के तूफान चल अपनी दुर्बलता पर ग्लानि हो रही थी। रत्नमाला ने किन्तु वे इन सबकी पर्वाह किये बिना बढ़ते है जो कहा था, वही उसे भी युक्तिस गत लगा। उसने दृढ़ लक्ष्य की मोर, अनन्त की मोर । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यधरसेन के चरण एवं सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति की खोज श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी के साहित्य शोध विभाग की ओर से राजस्थान का पाठ दिवसीय खोज यात्रा मे डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल एवं पं० अनुपचन्द जी न्यायतीर्थ को जयपुर से पचास मील पश्चिम की ओर स्थित नारायणा ग्राम में संवत् ११०२ की सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति उपलब्ध हुई है। प्राचार्य धरसेन के चरणों पर जो लेख अकित है वह पूर्णतः स्पष्ट है। इसी तरह सरस्वती की संवत् ११०२ की मूर्ति के मस्तक पर तीर्थंकर की मूर्ति है जो श्वेत पाषाण की है। इसी खोज यात्रा मे डा० साहब एवं श्री न्यायतीर्थ जी को बारह वीं १३ वी एवं १४ वी शताब्दी के और भी कितने हो लेख मिले है जिन पर शीघ्र ही डा० साहब द्वारा प्रकाश डाला जायेगा। सवत् ११३५ की भव्य मनोग्य एवं विशाल प्रतिमाए भी इस नगर के जैन मन्दिरों में विराजमान है। मूर्ति कला की दष्टि से भी ये मूर्तियां उत्कृष्ट कला कृतियां हैं । उभयविद्वानों ने अपने पाठ दिवसीय शोध भ्रमण मे नारायणा के अतिरिक्त साभर, उछियारा, अलीगढ, रामपुरा, सवाई माधोपुर एवं शेरपुर प्रादि स्थानो के शास्त्र भण्डारों के सात सौ से भी अधिक हस्तलिखित ग्रन्थों का विवरण तैयार किया है जिसमें संवत् १४६६ को एक पाण्डुलिपियों की उपलब्धि के अतिरिक्त कुछ ऐसी भी प्रतियां मिली हैं जिनके बारे में साहित्यिक जगत अभी तक अपरिचित था। ऐसी कृतियों में हेमराय पाडे की समयसार की हिन्दी गद्य टीका विशेषतः उल्लेखनीय है। चिर प्रतीक्षित लक्षणावली का प्रथम भाम प्रकाशित हो गया जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्दकोष) यह कोश में दिये गए लाक्षणिक शब्दों को दिगम्बरश्वेताम्बरों के चार सो ग्रन्थों पर से सकलित किया गया है। उनमें एक-एक लक्षण को हिन्दी भी दे दी है। जिससे सर्वसाधारण को उनका परिज्ञान हो सके। इस कोष का सम्पादन सिद्धान्त शास्त्री प० बालचन्द जी ने किया है। उन्होंने प्रस्तावना मे १०२ ग्रन्थों और उनके कर्तामो का भी सक्षिप्त परिचय दे दिया है। जिससे यह ग्रन्थ उन जालनात्मक अध्ययन करने वाले विद्वानों, रिसर्च स्कालरों, प्रोफेसरों, लायब्रेरियों, पूस्तकालयों और स्वाध्याय प्रेमियों के लिए बहत उपयोगी भोर काम की चीज है। यह कोश ३२ पौण्ड के कागज पर छपा है। जल्दी से प्रार्डर देकर अपनी पस्तक बक करा लीजिये । कपड़े की पक्की जिल्द है। ग्रन्थ का मूल्य २५) रुपया है। बीर सेवा मम्मिर, २१ हरियागंज, बिल्ली Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R. N. 10091/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणांपूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द। १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८-०० स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २-०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १२५ श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ७५ शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी को रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... ३-०० नग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०१: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... ४-० समाधितन्त्र पोर इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४-०० अनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तस्वार्यसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्यास्या से युक्त। ___ '२५ प्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ। .... . . . १-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : पं० प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंको प्रशस्तियों का महत्त्वपूर्ण सग्रह। पचपन ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द । १२-०० न्याय-वीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसायपाहुडसुत्त: मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण णिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज पोर कपड़े को पक्की जिल्द । २०.०० Reality : प्राः पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में पनूवाद बड़े पाकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली: श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया कप्रकाश-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २४ : किरण ४ अकात समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र दिल्लो दरवाजे के दि० जैनमन्दिर की धातु को भव्य तीर्थंकर मूर्ति - पन्नालाल जी अग्रवाल के सोजन्य से अक्टूबर १९७१ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 日 १. श्रेयास जिनस्तवन - स्वामी समन्तभद्र २. हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकासित रचनाएं - परमानन्द शास्त्री विषय-सूची विषय ३. ब्रह्म साधारण कृंत दुद्धारसि कथाडा० भागचन्द जैन ४. ५. 'उस मारग मत जायरे' (राग ख्याल ) - कविवर भूधरदास अपभ्रंश भाषा के कवियो का नीति वर्णन - - डा० बालकृष्ण अकिंचन' एम० ए० पी० एच० डी० ६. जैन यक्ष यक्षिणियाँ और उनके लक्षण - गोपीलाल अमर एम० ए० शास्त्री ६. हडप्पा तथा जैनधर्म- टी० एन० रामचन्द्रन (अनुवादक) डा० मानसिंह ८. हेलाचार्य - परमानन्द जैन शास्त्रो ६. पावापुर — पं० बलभद्र जैन १०. महामात्य कुशराज - परमानन्द जैन ११. खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर को रक्षिकाओं में जैन देवियाँ - मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी X सम्पादक मण्डल डा० आ० ने० उपाध्ये डा० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा पृ० १३७ १३८ १४४ {૪૭ १५२ १५६ १६४ १६५ १०२ १.३ अनेकान्त के ग्राहकों से अनेकान्त पत्र के ग्राहकों से निवेदन है कि वे प रुपया मनीग्रार्डर से शीघ्र १.२५ पैसे अधिक देना कान्न का वार्षिक मूल्य ६ ) भिजवा दे, प्रन्यथा वी पी से पगा । जिन ग्राहकों ने अपने पिछले २३वें वर्ष का वार्षिक चन्दा अभी तक भी नहीं भेजा है, वे अब २३वे और २४वे दोनो वर्षों का १२ रुपया मनीआर्डर से अवश्य भिजवा दे | व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीर सेवामन्दिर २१ दरियाग दिल्ली सहायता अनेकान्त २५) स० सिधई धन्यकुमारी जैन कटनी से सधन्यवाद प्राप्त । ११) चि० राजेश सुपुत्र लाला ग्रनन्तराम जैन अम्बाला निवासी एव कुमारी निवासी एव कुमारी प्ररुणा, सुपुत्री ला० पदम प्रसाद जैन किमन फ्लोर मिल रेल्वे रोड के विवाहोपलक्ष में निकाले हुए दान में से सबन्यवाद प्राप्त । व्यवस्थापक वीर सेवामन्दिर, दरियागज दिल्ली अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। - व्यवस्थापक अनेकान्ल Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाम् अहम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम ।। वर्ष २४ किरण ४ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६८, वि० सं० २०२७ सितम्बर अक्टूबर १९७१ श्रेयान्स जिनस्तवन अपराग समाश्रेयन्ननाम वमितोभियम् । विदार्य सहितावार्य समुत्सन्नज वाजितः ॥४६ अपराग स मा श्रेयन्ननामयमितोभियम् । विदार्य सहितावार्य समुसन्नजवाजितः ॥४७ -स्वामी समन्तभद्र अर्थ--हे वीतराग ! हे सवज्ञ ! आप सुर, असुर किन्नर आदि सभी के लिए आश्रयणीय हैं-सेव्य हैं- सभ। ग्रापका ध्यान करते हैं, आप सब का हित करने वाले हैं अतः हिताभिलाषी जन सदा पापको घरे रहते हैं- आपकी भक्ति वन्दना आदि किया करते हैं। आपकी शरण को प्राप्त हए भक्त पुरुष भय को नष्ट कर-निर्भय हो, हर्ष से रोमाञ्चित हो जाते हैं । आप पराग से-कषाय रज से-- रहित हैं। ज्ञानवान श्रेष्ठ पुरुषों से सहित हैं, पूज्य हैं तथा राग-द्वेषरूप संग्राम से आपका वेग नष्ट हो गया है-आप राग-ष रहित हैं। मै आपके दर्शनमात्र से ही प्रारोग्यता और निर्भयता को प्राप्त हो गया हूँ। हे श्रेयान्स देव ! मेरी रक्षा कीजिये । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएं परमानन्द जैन शास्त्रो कवि सांगु या सांगा-कवि ने अपना कोई परिचय पुत्र कलत्र केहि न परीवार, कहिनी लक्ष्मी कहिनी नार। नही दिया, और न अन्यत्र से ही प्राप्त हो सका है। अभ्रपटल जिमि दीसे मेह, तिसु कहीय संसार-सनेह । ८ कवि ने अपना नाम 'साँगु' प्रकट किया है। अपनी गुरु विषय तरुण सुख रूपड़ा, साभलि राय सुजान । परम्परा और समयादि भी नहीं दिया। जिसस रचना काल सुख होई सरसो सम, दुग्ख ते मेरू समान । का निश्चित करना सभव नहीं है। इनकी एक मात्रकृति विषया के री वेलड़ी जेणि न छेदा जाणि । 'सुकोशलरास' है, जिसमे १७० के लगभग पद्य है । भाषा यवारि फलो फल लागिसी, दुख देमि निरवाणि ॥ १० में हिंदी के साथ गुजराती का मिश्रण है । परन्तु कविता जे नर नारी मोहिया सुणि सुकोशल भप। सरस है । प्रस्तुत रास मे दूहा, चौपई के अतिरिक्त वस्तु ते नर कहीइ बापड़ा, पडघा ससारह कूप ।। ११ बध, राग विराड़ी, ढाल वणजारानी आदि छन्दों का प्रयोग विषयतणा सुख परिहरि, छडे वा भवपार । किया है । यह ग्रंथ पंचायती मन्दिर दिल्ली के शास्त्रभडार चलणे लागो गरनि मागि संयम भार ।। १२ मे एक विशाल गुच्छक में सगृहीत है । गुच्छक सक्त सकौशल ने मुन का उपदेश मुनकर, ससार स १६१६-१७ वीं शताब्दी का लिखा हुआ है। इसकी दूसरी विरक्त हो, गजभोगी का परित्याग कर और गर्भस्थ पुत्र प्रति 'नणवा' के शास्त्र भडार में एक गुच्छक मे उपलब्ध को राज्य देकर दीक्षा ले ली। स्कासन की मुनि दीक्षा है जो सं० १५८५ ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशो रविवार को से माता बहुत दुखी हुई। वह मूरित होकर पृथ्वी पर लिपिबद्ध हुअा है। इससे इस रास की उत्तराधि स. गिर पडी' । उपचार करने से मूर्छा दूर हो गई, किन्तु १५८५ सुनिश्चित है। प्रत. यह रास विक्रम की १५वीं उसे सारा राज परिवार और मन्दिर सूना दिखाई दिया। शताब्दी या १६वीं शताब्दी के पूर्वाध की रचना हो वह पुत्र वियोग जन्य प्रार्तध्यान से मरी और वाघिणी हुई । सकती है। इसमे सुकौशल का जीवन-परिचय प्रकित है। , । जैसा कि कवि के निम्न पद्य से प्रकट है :एक समय सूकोशल के पिता मुनि कीर्तिघवल राज जे जननी मनिवर तणी महदेवी री साल। महल के पास बैठे हुए उपदेश दे रहे थे। पर उन्हे रानी ते भखी वन माहि भमि. वाघेड़ी थई विकराल । सहदेवी ने पाहार नही दिया। इससे राजा की दासी को मनि सकोशल वन में ध्यानस्थ थे। एक वाघिनी बड़ा दुख हुमा । मुनि वस्तु स्वरूप का कथन कर रहे थे। उधर से भूखी प्यामा होने के कारण मुनिवर पर झपट जिसे सुकोशल ने भी सुना । अतः वह जाकर मुनिराज के पड़ी। उसने मुकोशल मुनि के शरीर का विदारण किया। चरणों में पड़ा । मुनिराज ने उसे प्राशीर्वाद दिया और मुनि आत्म-ध्यान मे निष्ठ हो केवली हुए। उन्होने उस सांसारिक सुख की प्रसारता बतलाई। जैसा कि रास के स्थान को प्राप्त किया जहाँ जन्म, मरण, दुःख, सताप, निम्न पद्यों से प्रकट है: कर्मबन्धन और रूपादि वर्ण नहीं हैं किंतु प्रात्मा अपने १. करजोड़ी सांगु कहि सब गुरु सेव कर चोस । कुंवर सुकोशल चुप ही हूँ सांख्येय भष्योस । -सुकोशल रास मन्तभाग १. पुत्र तणी जब टूटी प्रास, पडी पृथ्वी गति न लेही साँस । घडी व चार अचेतन हवी, नारवी वायु तब छरी थई ।। -सुकोशलरास Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ प्रज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएं १३६ चंतन्य स्वरूप ज्ञानानन्द मे स्थिर रहता है वह निरजन परिणामि जीव मुत्तं सपएसं एयखित्त किरिया य। पद प्राप्त किया। वाघिणी की दृष्टि शरीर का भक्षण णिच्चं कारण कत्ता सम्वगदमियरम्हि प्रपवेसो ।०५४५ करते हुए जब उस चिन्ह पर पडी, तब उसे देखकर जाति दुण्मिय एयं एवं पंचय तिय एय दुण्यिचउरोय । स्मरण हो गया। इधर सुकोशल के पिता मुनि कीर्तिधवल पंचय एर्य एय मूलम्स य उत्तरे जय ॥ ने भी समझाया, और बताया कि यह तेरा पुत्र था, जिसे परिणामी जिय मरती, परवेसी इक नित्य । नूने भक्षण किया है । जहाँ माना ही अपने पुत्र को खा क्षेत्री करता सर्व गति, किरियावत निमित्त ॥१॥ जाती है, उससे बड़ा पाप और क्या हो सकता है ? पश्चात् अनु क्रम संख्या हूँ इक इक पन तीन चउ पन इक पंच। उमने बडा पश्चाताप किया, परिणाम स्वरूप उसके हृदय प्रतिपक्षी ज्यो कीजिये, उत्तर ग्यारह सच ।।२।। म विवेक जागृत हुमा मोर उसने भी प्रात्मा को पवित्र घउपन पन इक तीन हूँ, इक पन पन चउ एक । बनाने का प्रयत्न किया। यह विचार सोई लहै जा घट विमल विवेक ॥३॥ त्रिभुवनचन्द्र ने अपना कोई परिचय गुरुपरम्परा परिणामी द्वे जानिये, चेतन पुद्गल दर्व। और समय का कोई उल्लेख नही किया। कवि ने कही धर्म-अधर्म प्रकास जम अपरिणामि ए सर्व ॥४॥ 'चन्द्र' और 'त्रिजग वन्द्र' तथा 'विभवन चन्द्र' नाम दिया जीव एक चेतन दरब, वाकी पच जीव । है। राजस्थान के भण्डारों में अापको कई रचनाए उप- रूपी पुदगल एकलौ, शेष रूप सदीव ॥५॥ लब्ध होती है, उनसे आपकी हिन्दी साहित्य-सेवा की पुदगल धर्म अधर्म नभ, चेतन परम रसाल । लगनका पता चलता है। आपकी रचना सुन्दर, सरस परवेसी ये पंच है, अपरदेस है काल ॥६॥ और प्रवाहयुक्त है । अनित्य पचाशन, फुटकर दाहे कवित्त धर्म अधर्म प्रकास ये, तीनों कहिये एक । आदि और पटद्रव्य वर्णन प्रादि है। कविता सरस और चेतन पुदगल काल ये तीनों बरच अनेक ।।७।। भावपूर्ण है। इसमें अनित्य पचाशत प्राचार्य पद्मनन्दि की धर्म अधर्म कृनात नभ, चारों नित्य बखानि । मस्कृत रचना है उसका हिन्दी पद्यानुवाद कवि ने प्रस्तुत जिय प्रग न परि जायकर हूँ अनित्य ये जानि ।।८।। किया है । जिसका आदि अन्त भाग निम्न प्रकार ह .- पुद्गल धर्म अधर्म जम, चेतन क्षेत्री पंच। शद्ध स्वरूप अनूप में मूरति जसु गिरा करुनामय सोहे, एक क्षेत्री गगनसौ पर थिात बसं न रंच ।।६।। सजमवत महा मान जोध जिन्हो घट धीरज चाप धरो है। जीव एक करता दरब, दुविध चेतना धाम । मारन को रिपुमोह तिन्हे वह तीक्षन साइक पति हो है, पुद्गल धर्म अधर्म नभ, काल प्रकरता नाम ॥१०॥ सो भगवत सदा जयवंत नमो जग में परमातम जो है ।१। व्यापी लोकलोक मै, व्योम सर्वगत सोइ । अन्तिम भाग : वाकी पच असवंगत, रहे पूरी तब लोइ ।।११।। पवमनन्दि मुनिराज तामु प्रानन जलधारी, चेतन अरु पुद्गन दरब, क्रियावंत ए दोय । तातहिं भई प्रति सकल जन मन सुखकारी। वाकी चारों ज रहे, तिन्ह के क्रिया न होय ॥१२॥ धनवनिता पुत्रादि सोक दावानल हारी, अंतक धर्म अधर्म नभ, पुदगल पच निमित्त । भय दलनी सदबोध प्रत उपजावन हारी ।। चेतन एक प्रकारिणी, सब गति परम पवित्त ।।१३।। उन्नत मतिषारी नरनिकों अमृत वृष्टि संराय हरनि । छहो दरब निरने यहै, नाम मात्र समुदाय । जय यह अनित्य पंचासिका त्रिजगचद मगल करनि ॥१॥ ग्यारह भेद विचारिक, बीने प्रगट बनाइ ।।१४।। दोहा-मूल संकृत प्रयतै भाषा त्रिभुवनचद, उपादेय चेतन सदा, उज्जल त्रिभवनचन्द । कोनी कारन पायके पढ़त बढ़त प्रानन्द ।। जाको ध्यावत भावते, लहिये परमानन्द ।।१५।। दूसरी रचना षद्रव्य निर्णय है जो निम्न प्राकृत कवि की फुटकर रचनामो मे दोहे कवित्त सवैया गाथाम्रो का अनुवाद १५ दोहो मे किया गया है। प्रादि मिलते हैं, उनसे यह ज्ञात होता है कि कवि का Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त झुकाव अध्यात्म की ओर था । कवि ने लिखा है कि जीव सुगुरु वचन परतीति चित्त थे कवं न डोले । का जब तक अन्तर का दोष-राग-द्वेषादि का बुरा बोल सुवैन परमिष्ट सुनि इष्ट वैन मुनि सुख करें, संस्कार नहीं मिटता, तब तक राग कैसे छूट सकता है। कहै चन्द बसत जग फद में, ये स्वभाव सज्जन पर । राग भाव के न छूटने से कर्म बन्ध की परम्परा बढ़ती सज्जन गुनधर प्रोत रोत विपरीत निवार, रहती है । ऐसी स्थिति में मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती सकल जीव हितकार सार निजभाव सवार । है। जैसा कि निम्न दोहे से प्रकट होता है : क्या, शील, संतोष, मोख सुख सब विधि जाने, राग भाव छुट्यो नहीं मिटोन अन्तर दोष । सहज सुधा रस सवै, तजे भाषा अभिमान, संसत बाढ़े बंध की होइ कहां सौ मोख ।। जाने सुभेव परभेद सब जिन प्रभेद न्यागे लखै ।। जीवात्मा के सम्बन्ध में कवि की उक्ति निम्न प्रकार कहे चंद जह प्रानन्द प्रति जो शिव सुख पावै प्रख । गुण गुणी में रहता है, उससे भिन्न नहीं है विभा"सरवस व्यापी रस रहित रूप धरै छिन रूप । वता भिन्न है और स्वभाव प्रात्मा का स्वरूप है परन्तु एक अनेक सुथिर प्रथिर, उपमावन्त अनूप ।। विभाव के कारण स्वरूप का लाभ नही हो पाता । मोह विमल रूप चेतन सदा, परमानन्द निधान । का अभाव होने पर स्वरूप की प्राप्ति हो जाती है। ताको अनुभव जो करें, सोई पुरुष पुमान ॥" जीवादि छहों द्रव्य अनादि के शाश्वत है, जिनमे पान अमल प्रखंड अविनाशी निराकार जामे, जड़ रूप है, और एक चेतन है, वही ज्ञायक है और शेष वृगबोध चारित प्रधान तीन धसुरे । द्रव्य ज्ञेय है, जैसा कि कवि के निम्न पद्य से प्रकट है :उज्जल उदोत सदा व्यापत न तमभावनहि, गन सदा गुनी मांहि गुन-गुणी भिन्न, नाहि, न सकत जाहि ज्वाला कर्म वसुरे । भिन्न तो विभावता, स्वभाव सदा देखिये । ताहि पहिचानि तू है तो ही मै न और कहू, सोई है स्वरूप प्राप, पाप सो न है मिलाप, ताके पहिचानत ही होत है सुवसुरे। मोह के अभाव में स्वभाव शुद्ध पेखिये ।। त्रिभुवनचन्द सुखकन्द पद चाहै जो तो छहों द्रव्य सासते अनादि के ही भिन्न भिन्न, तजि जरा जग घूम धाम ऐसे धाम वसुरे। अपने स्वभाव सदा ऐसी विधि लेखिये। इन सब पद्यों पर से कवि की प्रात्मभावना का सहज पांच जड़ रूप भूप चेतन सरूप एक, ही पता चल जाता है। जान पनौं सारा माथे यो विसेखिये। कवि की एक रचना 'चन्द्रशतक' है, जिसे सो छन्द होने ज्ञानी किसी का गर्व नहीं करते, प्रत्युत अपने चिदाके कारण शतक कहा है। भाषा सानुप्रास और मधुर है, नन्दस्वरूप में तन्मय रहने का प्रयत्न करते हैं । द्रव्य गुण पर्याय आदि का कथन भी सुन्दर हुआ है। कवि की कविता कितनी सुन्दर और अध्यात्म रस से साहित्यिक दृष्टि से चन्द शतक के सर्वये कवित्त महत्वपूर्ण प्रोत-प्रोत है। कवि की अन्य क्या रचनाएं हैं यह कुछ ज्ञात है। उनमें प्राध्यात्मिकता की पृट अकित है, वे पारक को नहीं हो सका। कवि के समय के सम्बन्ध मे भी कोई अपनी ओर आकर्षित करते है। कवि ने सज्जन दुर्जन ऐसा प्रमाण उपलब्ध नही हुमा जिससे समय निर्धारित स्वभाव का जो वर्णन किया है वह कितना स्वाभाविक किया जा सके । फिर भी कवि का समय सम्भवतः १६वी बन पड़ा है। भाषा में सरसता, मधुर और कोमल कान्त शताब्दी हो सकता है । विद्वानों को इस पर विचार करना पदावली विद्यमान है। चाहिए । इन कृतियों के अतिरिक्त कवि की अन्य कृतियों पर प्रौगुन परिहरे, धरै गुनवत गुण सोई, का पता ज्ञान भण्डारों में लगाना चाहिए । चित कोमल नित रहें, मूठ जाके नहि कोई। विनाशीक धर्व को न गर्व ज्ञानवंत कर, सत्य वचन मुख कहें, पाप गुन माप न बोले, एतौ पूरव कर्म उदेसों प्रान भये हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएं मासु मेरो तीन काल में प्रखंड विनस्यो न विनसंगो वर्तमान वए हैं। घटनुष्य भिन्न प्राय धानी हो सता लिये, प्रति ही धनादि के न काहू मोहि कहे है। जाग्यो निज भेद चद प्रातम प्रभेद सदा, भेव रूप अभेद जिन नं प्रवान कहे है ।। ५०॥ यह अज्ञानी जीव जीत ही प्राशा करता है थोर काम से डरता है, चारों गति डोलता फिरता है परन्तु मोक्ष मार्ग मे नही आता, अपने घर की रीति नहीं जानता किन्तु पर से (माया मे) प्रीति जोडता है, जिस तरह रास्तागीर बटोही से मिल जाते है पुद्गल को अपना मानता है । इस तरह यह जीव श्रात्म-परिचय के बिना ससार मे सदैव घूमता रहता है। । जीतव को प्रास करे काल देखे हाल डर, डोले चारों गति में न श्रावे मोक्षमग में माया सौ मेरो क है मोहनी सो डार है ताते जीव लागे जमो डांक दियो नग में घर को न जाने रीति पर सेती तो मार्ड प्रीति, वाट के बटोही जैसे प्राय मिले मग में। 1 दुग्गल सौ कहे मेरा जीजा कर्म यो कुलपुधि में फिरं जीव जगमें गुरु दया कर भव्यों का हित जानकर उपदेश देते है, उन्होंने बतलाया है कि क्रोध, मान को शत्रु जानकर छोड और लोभ की हानिकर छोड, और मोहरूपी प्रचण्ड मही घर को गिरा कर सुमतारूपी शिवरानी को घट मे प्रगट कर, जिससे अविनाशी आत्मा का लाभ हो । गुरु ग्राप दयाल दया करके उपवेश कहै भविको हित जानी, कोष महा परिमान तजो जि लोभ महाछ की करिहानी मोह महीधरसों परिचंड गिराय दियो गुरु की सुनि वानी, कुमिला कुमता करती सुभई घट मै प्रगटी सुमता शिवरानी । शाह लोहट - इनका जन्म वधेरवाल वंश' मे हुमा बघेरवाल जाति ४ उप-जातियों में से एक है। इसका विकास 'वघेरा' नामक स्थान से हुआ है । वरवानों के घर वहाँ अब एक भी नहीं है। किन्तु राजस्थान १४१ था। इनके पिता का नाम धर्मा था। इनके तीन पुत्र हुए, होरा, सुन्दर धौर लोहट' इनमें लोहट सबसे छोटे थे। पहले यह साभर में रहते थे, बाद मे बूंदी आकर रहने लगे थे। उस समय वहाँ रावत भावसिंह का राज्य था । जो विवेकी वीर और पराक्रमी शासक थे। और न्याय, नीति से प्रजा का पालन करते थे । कवि ने बूदी का अच्छा वर्णन किया है । उस समय बूंदी इन्द्रपुरी के समान सुन्दर थी, जन-धन-धान्य से सम्पन्न थी । वापी, कू, तडाग, बाग, बाजार तथा सुन्दर वीथियो से अलंकृत थी जैसा कि कवि के निम्न पद्य से प्रकट है : 1 के अन्य गांवों, कस्बो श्रौर शहरो मे उनका निवास पाया जाता है। धारा मे तो उनके अनेक घर है । वघेरवाल अपनी जन्मभूमि के कारण मेरा के भगवान शान्तिनाथ के दर्शनो को अवश्य आते है । वघेरवालो के ५२ गोत्र बतलाये जाते है । यहाँ उनमे से कुछ गोत्रो के नाम अपने उपनाम के साथ दिये जाते है। बागडिया (मिश्रीकोट कर) खटवड पितलिया (नादगांवकर दर्यापुर), खटोल ( जोहागपुरकर), गोवाल ( सगई चवरिया), जनगांव (देऊन गावकर) कर चवरे, डोणगांवकर, जितूरकर, देवलसी, ( रायबागकर ), खडारिया प्राग्रेकर ( भीमीकर कलमकर), बोरखडया ( नगरनाईक), कारंजा, महाजन इस जाति में अनेक महापुरुष श्रेष्ठी, विद्वान आदि हुए है। पंडित प्रवर श्रगाधर जी जैसे विद्वान इस जाति के भूषण से शाह जीजा और पूनम इस जाति के गौरव थे। जिन्होने अनेक मन्दिरो और मूर्तियो का निर्माण कराया । और चित्तौड़ में कीर्ति स्तम्भ का निर्माण कराया और उसकी विधिवत प्रतिष्ठा की । प्रस्तुत कीर्ति स्तम्भ का निर्माण विक्रम की (१३वी शताब्दी मे हुप्रा है । और विशालकीति पट्टधर शुभकीति ने उसकी प्रतिष्ठा की थी । | २. वंस पेरवास मो बाल दुर्गेण बरयोत्र दिसाल घरमधुरंघर घरमेधीर ता सुत तीन महावर वीर ॥ हीरो सुन्दर बड़े सुजान, लघु लोहट बुद्धिवंत निधान । श्री जिनदेव सुरु को दाम, कीनी भाषा ग्रंथ प्रकाश ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त "बंदी इन्द्रपुरी जखिपुरी कि कुबेरपुरी, के लिए मृगेन्द्र (सिंह) समान, तथा श्रुत-सिद्धान्त-सागर रिद्धि सिद्धि भरी द्वारिका सी घरी घर मै । के बुद्धिमान गणधर और पचम काल के ऋषीन्द्र बत. घौलहा धाय घर-घर में विचित्र वाम, लाया है :नर कामदेव कैसे सेव सुख सर मै । "जग भूषन, भट्टारक तिहि थलि, काम करिद-मइंदो हो। वापी बाग वारुण बाजार वीथी, विद्या वेद, श्रुत-सिद्धांत-उदधि बुधि गणहरु पंचम काल रिसिदो हो।" विबुध विनोद वानी बोले मुख नर मैं । इनके पट्टघर भ० विश्वभूषण ने भी भ० जगतभूषण तहा कर राज राव भावस्यंध महाराज, का उल्लेख किया है। हिंदु धर्म लाज पाति सही प्राज कर मै ।" १३ जगताभूषण पट्टदिनेशं । विश्वभूषणमहिमाजगणेशं । -तीर्थवंदन संग्रह, पृ० ६४ ब्रदी में उस समय अनेक श्रावक रहते थे और अपने इतना ही नही किन्तु उन्हें पाडे रूपचन्द जी ने धर्म का पालन करते थे। 'भारतीभूषण' चारित्र के पालक और तपोभषण बतलाया शाह लोहट भी जिनधर्म का प्राराधन करने थे। है यथा :१५वी शताब्दी के कवि पद्मनाभ कायस्थ द्वारा निर्मित तरी प्रमदप्रकाशविलसत श्री भारतीभूषणः, संस्कृत भाषा के यशोघर चरित का हिन्दी पद्यानुवाद चारित्राचरणाच्चमत्कृतदशः किं वा तपो भूषणः । कवि ने वि० स० १७२१ मे आषाढ़ शुक्ला तीज गुरुवार श्री भट्टारक वंदितां हि युगलौ गण्योऽपनुव दूषणः, के दिन समाप्त किया था। इश्वत् किन्ननमस्यते बुधगणः श्रीमज्जगद् भूषणः । इनकी दूसरी कृति 'षट्लेश्यावेलि' है, जिसका रचना काल स० १७३० पासोज मुदी ६ बतलाया है। इनके शिष्य ब्रह्मगुलाल ने कई ग्रन्थो की रचना की है, उन सबमे भ० जगभषण का उल्लेख किया है। भट्टारक जगभूषण या जगभूषण भट्टारक जगभूषण ग्वालियर गद्दी के मूलसघी भट्टा बीमा कवि की एक मात्र कृति हिंडोलना' है, जो मल्हार राग रक थे । और भ० ज्ञानभूषण के उत्तराधिकारी एवं पट. मे गाई जाती है, रचना सुन्दर पोर मनमोहक है। घर थे । मंस्कृा और हिन्दी भाषा के अच्छे विद्वान और अमन मणिमय थभ कोने रतन खचित अपारि । कवि थे । ब्रह्य गुलाल इन्ही के शिष्य थे। सवन् १६५१ पच वर्ण संवारि मानउ रतन पटली चारि ॥ मे जब कवि भगवतीदास अग्रवाल ने 'अर्गलपुर जिनवदना' रुचिर मोती माल डोरा किंकणी रण सार । नाम की रचना लिखी है, उसमे भट्टारक जगभूषण का सुरहि साथ हिंडोलना तहं मूलत नाभिकुमार ॥ उल्लेख किया गया है। उस समय वे प्रागरा में मौजूद सुभग हिड लना मूलत जगपति ज॥१॥ थ। भगवतीदास ने उन्हे कामरूपी करीन्द्र को वश करन अलिकल कलित कलेवर नील नीरद तषा चातक मोर । ३. श्रावक लोग वस धर्मवत, पूजा कर जप प्ररहत । दश दिशा प्रति बीजु चमकति करत दादुर सोर ।। तिनको सेवक लोहट साह, करी चौपई बरि शुभलाह ।१४ पहिरि सारी सुखाराति लाह कंचुको गांठ । ४. वरषा रिति पागम सुभसार, मास अषाढ़ तीज गुरवार । जुवति सलत नाभिसुत, संग प्रथम मास अषाढ़ ।। पाख उजाल पूरी यह भई, सरल प्ररथ भाषा निरमई२६ नटत किन्नर किन्नरी जन मुरज वीना वनु ॥२॥ सवत सत्रहस इकईस, करी चौपई फली जगीत । सुरस बाजत जलद वरसत दबंगई सब रैनु । मन अभिनाष सपूरन भए, सरभि शीतल पवन कोकिल मोर विसाल ।। श्रीजिन गुरु चरण शीशधरि लए ॥२८ अमर सायनि रमत जगपति पायो सावन मास । -यशोधर चरित प्रशस्ति झिरत झिरना गहिर सीता उमडि चलत तडाग ।। ५. देवो राजस्थान जैन ग्रन्थ सूची भा० ४, पृ० ३६६। १. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भा० १, पृ० १५६ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएं घनघोर वरसत हरित छिति तल बढ़त प्रति अनुराग । वन उरोज सरोज राजित तरुन वदत सार ॥ मास भादौ रमति जगतति कमल कोमल हाथ । कनक कुण्डल श्रवन शोभित सेहरो सिर सारु | पहिर अमर प्ररुन सुरभत रुचिर मनिमय हारु ॥ श्रमर भ्रमरी तरुन तरुनी चित हरत विचित्र । जगदभूषन मन हरं जगदीस परम पवित्र ॥ सभग हिंडोलना झूलत जगपति इनकी ग्रन्य रचनाए भी होगी, मे सभी अन्वेषण कार्य पूर्ण नही हुआ वष्टि है। जिनमे बहुत से ग्रन्थ उपलब्ध हो सकते है । आशा है विद्वद्जन इस सम्बन्ध में अनुसन्धा करने का प्रयत्न करेगे । || परन्तु ग्रंथ भडारो भी मार १४३ जैन श्रावक प्रधान मंत्री थे। दोनों ही प्रपने जीवन को खपाकर राज्य का संचालन करते थे। वे बुद्धिमान और धर्मात्मा थे, उनके छोटे भाई का नाम मीठा चन्द था । ने हमड वंश के भूषण ये । इनके पार द्रव्य था । कविबर सेवारामशाह की इन्होंने बडी सेवा सुश्रूषा की थी। उन्ही की प्रेरणा से कवि ने शान्तिनाथ पुराण सं० १८३४ मे श्रवणकृष्णा अष्टमी के दिन मल्लिनाथ के मन्दिर मे पूर्ण किया था, जैगा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है. सवत प्रष्टादश शतक पुनि चौतीस महान । सावन कृष्ण पराष्टमी, पूरो कियो महान । वारदभावना नाम की एक कृति भी इन्होने सं. १८३४ मे बनाई थी। कवि ने कवि चतुविशति जिनपूजा स० १८५४ मे बनाकर समाप्त की थी । श्रनन्तव्रत पूजा और मन संग्राम नाम की दो रचनाएं भी बनाई हुई राजस्थान के शास्त्र भण्डारो में पाई जाती है । सभव है कवि ने अन्य ग्रन्थो की भी रचना की हो । कवि का समय विक्रम की १९वी शताब्दी है । कवि की एक कृती धर्मोपदेश 'छन्दोबद्ध का उल्लेख प० नाथूरास जी प्रेमी ने हिन्दी जैन साहित्य के इतिहास पृष्ठ १ मे किया है । शाह सेवारामशाह - यह जयपुर लश्करीवासी बखतराम के पुत्र थे। इनकी जाति खंडेलवाल थोर धर्म जैन था । इनके तीन भाई और थे जिनका नाम जीवनराम, खुशाल और गुमानीराम था। इन जीवन ने जिनेन्द्र के भक्तिपूर्ण पद और स्तुनियों की रचना की थी । इनके पिता बखतराम ने 'मिध्यात्व खडन और बुद्धि विलास' इन दो ग्रन्थों की रचना की थी । शाह सेवाराम पं० टोडरमल जी के शिष्य थे। उन्हीं की कृपा से उन्हें यह बोध प्राप्त हुआ था । तपस्वी ब्रह्मरायमल्ल का भी कवि ने उल्लेख किया है' । कवि ने २. 'शान्तिनाथ पुराण' मालव देश मे स्थित देवगढ मे जहाँ सामन्तसिह नरेश राज्य करते थे। सामंत सिंह के दो १. वासी जयपुरतनो टोडरमल कृपाल । तास प्रसंगको पायके लह्यो सुपथ विशाल || गोरादिकन मे सिद्धान्तन मे सार प्रवरबोध जिनके उदे महाकवि निरपार ॥५० पुन ताके तट दूसरी रायमल्ल बुधिराज । जुगलमल्ल ये जब जुरं और मल्ल किहि काज ।। ५१ देश बुढाहट आदि दे संबोधे बहु देश । रवि रचि प्रथ सरसकिये टोडरमल्ल महेश ॥ 1 सन् १८३४ में दो जैन श्रावकों के मंत्री होने का उल्लेख ऊपर किया है। उनमे एक तो कपूरचन्द प्रधान मंत्री थे और दूसरा मंत्री संभवतः सुन्दरसिंह था । सवत् १८३१ मे महारावल गावलसिंह का देहास होने पर उनका कवर सावंतसिंह सात वर्ष की अवस्था मे गद्दी पर बैठा था । उस समय का शासनकार्य राजमाता कुंदन कुवरी, अपने जाना सरदार सिंह, मंत्री कपूरचन्द, राघव वरूशी तथा शाह गुमान के परामर्श से चलाती थी। सेवाराम सम्भवतः उस समय वहाँ थे। इन दोनों मंत्रियों के कार्यकाल मे यह ग्रन्थ बनाया गया है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म साधारण कृत दुद्धारसि कथा डा० भागचन्द जी जैन ब्रह्म साधारण मूलसंघ की परम्परा के विद्वान थे । उन्होंने अपनी गुरु परम्परा के विद्वानो में पद्मनन्दी, हरिभूषण भट्टारक के शिष्य भ० नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। प्रस्तुत नरेन्द्रकीति बागड़संघ के विद्वान जान पडते है । इनके शिष्य प्रतापकीर्ति ने 'श्रावक रास' सं. १५१४ मे मगशिर शुक्ला दशमी के दिन बनाकर समाप्त किया । था । इस दुद्धारसि कथा में ब्रह्म साधारण ने भ० प्रभाचन्द का भी उल्लेख किया है । और यह बतलाया है कि जिस तरह इन्द्रभूति गौतम ने श्रेणिक (बिम्बसार ) के प्रति कथा कही, वैसी मै भी कहता हूँ । कथा मे कवि ने रचना काल और रचना स्थल का कोई उल्लेख नही किया हाँ, जिस गुच्छक मे यह कथा दी है, उसका लिपि काल जहिं सावय पर जिणधम्मरत । स० १५०८ जरूर दिया है। जिससे यह कथा सं० १५०८ के पूर्व रची गई है, बाद में नही। इससे इसका रचना काल स० १५०० के लगभग होना चाहिए । इह कयमित्ति भावमिच्छत्तचत्त ॥ जहिं जीवदयावर सव्वलोय । बहुरिति मार्णिय सुभोय ॥ जिणजत्त करण उच्छाहचित्त । दत्त नाम के वणिक ने मुनि से पूछा कि हमारी यह व्याधि कैसे दूर होगी ? तब मुनि ने कहा कि नरक उतारी विधि करो, उससे तुम्हारा यह रोग चला जायगा । धनदत्तने जहि राय रायमइ भोयचत्तु । पूछा, भगवन् ! इसकी विधि क्या है ? तब मुनि ने कहा कि भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को यह व्रत करना चाहिए । और जिनेन्द्र की प्रतिमा का अभिषेक, पूजन और धार्मिक कार्यों में समय व्यतीत करना चाहिए। इस तरह यह व्रत बारह वर्ष तक करना चाहिए। व्रत पूरा होने पर विधि पूर्वक उसका उद्यापन करना चाहिए, चार सघ को दान देना चाहिये । इस तरह इस व्रत का विधि पूर्वक अनुष्ठान करने से धनदत्त का सब रोग चला गया । जिणसिद्ध भडार हो, तिहुश्रणसार हो, रियो पुणु उज्भय हो । वंदे विमुदिहो, कुवलयचंदहो, दुद्वारसि पयडमि जण हो । जिणवयणकमलरुह दिव्ववाणि । पणमामि जगत्तय पुज्ज जाणि ॥ णिग्गंथ सवण नियमणि धरेवि । 'पहचद' भडारहो थुइ करेवि ।। 'दुद्धारसि' कह फलु सावयाह । जह गोयम भासिउ सेणियाह ॥ तह भासभि जइ हउं मंद बुद्धि । सरसइ हि पसाए कव्वसुद्धि || महुं संज्जउ जिणवरय याह । मिच्छामयमोह विवज्जियाह ॥ भरहखेत्त सुदरपएस | भवियणमणहर 'सोरट्ठदेस' ॥ जहि सावय गच्छहि पवरवित्त ॥ करुणारु जावउ जिणु विरत्तु ।। जहु कुल 'हसास' सुविसुद्धभाउ । दिक्खकिउ केवल णाणु जाउ ॥ दधम्मु पयासिवि मोक्खपत्तु । तहि तित्थु पयउ जाउ पवित्तु ॥ धत्ता - गिरणारु मणोहरु, गुणियसुहरु, जिणचेईहरमंडियउ ॥ सुर- खयर - णमसिउ, जणहि पसंसिउ, अरिवग्गेहि श्रखंडियउ || तहिं 'पउम पहु' णरवइ पसिद्धु । पय पालणु वहु गुणगण समिद्धि || 'पोमावइ' मणहरु लच्छिसामि । जसु कित्ति पयउ पुरणयरगामि ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ ब्रह्म साधारण कुत दुदारसि कथा 'षणयत्तु' वणिंदु जिणेस भत्तु । सल्लेहण किज्जइ अंत यालि। भज्जासु सयं पहरत्तचित्तु। जिणवर पुज्जिज्जइ तह तियालि ।। जिणधम्म सीलगुणवय विसाल । इय सुण वि धम्मु परियण समाणु । ते विण्णि वि अच्चहि णिच्चकाल ।। मुणि वंदिवि परवइ पत्तु ठाणु ॥ चउवण्णहो संघहो दिति दाणु । धणयत्तु पयासइ दाण जुत्ति। जामच्छहि णिय परियणसमाण ।। णिय भज्जहि संघ हो देहि भुत्ति ।। ता एत्तहिं वणि पायउ मूर्णि। दाणे संपय णिमल घराइ। भवियण कमलायरु णंदि णिदु ।। तिहवण-सिरि संपज्जइ णराह ।। पिहियासउ णामें सीलधारि । भेसह माहाराभय पुराण [विणाण] । चउवण्णहो संघहो सोक्खयारि ।। चत्तारि जिणागम सुद्ध दाण ॥ मुणिवर प्रागम वणपत्तफुल्ल । तिहि पत्तहिं दिज्जहि मुणि वि भेउ। दु मणिय रहि जायइ फल रसुल्ल ।। वहु विणय भत्ति सिव सुर कहेउ । महुलिहरुंजहिं कुसुमियवणेहिं । विण पत्तें फलु दीसइ न भज्ज । सिहिणच्चहि ण पावसघणेहिं ।। तें करणें पत्तहो देहि अज्ज ।। महियलु कुसुमहिं पिंजरिउ सव्वु । पत्ता-जेहि जिणिदु ण पुज्जिउ गणियारिहि ण कणएहि भव्वु ।। मुणिहि दाण ण वि दिण्णउं ।। तं पेखि वि वण उज्जाण पालु। सवण वित्ति णवि आयरिय। वद्धाविउ महिवइ सामि सालु ।। अहलु जग्म तें किण्णउ ॥३॥ मुणिवरु अवही सरु तव वणम्मि । सुदरि असेहु कम्मु तुहु णासहि । आय उ पहु सुणि तुट्टउ मणम्मि ।। ___ मुणि आहार दाण जइ पोसहि ।। पाणंद तूरु उच्छलिउ जाम । तं णिसुणे वि सयं पह जंपइ। पुरयणु परियणु संपत्तु ताम ।। अंगु कुचेल उवट्टइ संपइ ।। घय चामर चिहि सऊ णरिदु । किम भणु दाणु मुणीसहो दिज्जइ । उज्जाणे पराइउ जहि मुणिदु ।। अप्पाणउ पावें मइ लिज्जइ ।। घत्ता--सो परिद घणयत्तु वणि तियहि जम्मु कुच्छिउ मुणि भासहि । _ मुणिवर-दुज्जण भय हरु । ___णवि भवि णिव्वाणु पयासहिं ।। पणमिउ वहुभत्ती भरेंहि व [मु]णि वरु भणइ देहि मासं कहि । पुछिउ धम्मु सुमणु हरु । - दाणे तवु लिहइ ण कलंकहिं ।। भो सामिय करुणावल्लि कंद ।। दाणे पयड कित्ति पूर्ण सुरभउ । सावय वय भासहि मुणिवरिंद ।। चक्कट्टि संपय पाविय जउ ।। मुणि भासइ दंसणमूलधम्म । दाणे असुह कम्मु जइ हो सइ । वसुगुण पालइ वज्जि वि कुकम्म । होउ मज्झ ण वि तह वणि घोसइ ।। वारह वय तव पडिमाइ जुत्त। ता पाराविउ परम दियवरु । वय पालय जह प्रागमहि वुत्त । मुद्ध चरणु कय इंदिय संवरु॥ चत्तारि दाण-जण भुत्ति सुद्धि । सादि तह संकियणिय भावें । रयणत्तय भावण मण विसुद्धि । सइ घणयत्तु कलंकिउ पावें ।। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पणि वाकरहिउ वाचल्लहि।" १६ वर्ष २४, कि.४ रोय सरीर असुंदरु जायउ। भज्ज समेउ विसंवल कायउ। कर चरणई थक्कइ णउ चल्लहि। __ करहिउ वाउ तहय मण सल्लाहिं।। वणि वरिंदु अप्पाणउ णिदइ । वयणु सयं पह केरउ चिंतइ ।। पत्ता-ता गलिय काल पावसहि पुणु । वणि पिहिनासव प्रागमणु ॥ धणयत्तु सयं पह जुत्तु तहिं । ___ वंदण भत्तिए गयउ पुणु ॥४॥ मुणि वंदिवि अप्पाणु हु गुंच्छिउ । वहि हरणु धणयत्ते पुंच्छिउ।। मुणिवरिंदु भासइ मुणि वणि वर । णरयउतारी विहि किज्जइ वर ।। तो तण रोउ सयलू खणि खिज्जइ । भणइ वणीस केम विहि किज्जइ। धवलिय वारसि भादवमासहि । बारह संवच्छर उववासहि ॥ जिणवर पडिमा पयण्हा विज्जइ । अह णिसि धम्म पहावण किज्जइ॥ वित्त सरिसु उज्जवणु विहिज्जइ। दाणु चउव्विह संघ हो दिज्जइ॥ इय विहाण विहि सुणि धणयत्तें। घरि आइ वि किण्णिय सुपयत्ते ।। गयउ रोउ सुंदरु तण जायउ । घरिणि सयं पहव वय फलु पायउ॥ धणयत्तु वि जिणवर वय पालिवि । गउ णिव्वाण हो कलिमलु खालिवि ।। जिणवर दंसण वयहं पहावें। सग्गु-मोक्खु लब्भइ सुहभावें॥ अण्णु वि जोइय विहि पालेसइ । णरु तिय सो सुर लोटा गमेसइ ।। जिणवर दंसण मूल गुणायर । _ 'पोमणंदि' 'हरिभूसण' भायर ॥ सीस 'रिद कित्ति' भवतारण । 'विज्जाणंदि' बंभ साहारण । पयडिय एह कहा जण मणहर । णंदउ ताम जाम रवि ससहर ।। घता-जे पडहि पडाविहि भव्वयण । णियमणि णिच्छउ भावहिं। ते बंभ साहारण वय फलेण।। ___ अमर लोय सु हु पावहिं ।। इति नरेन्द्र कीति शिष्य ब्रह्मसाधारण कृत मूल कथा भाग समाप्त: ॥३॥ राग-ख्याल उस मारग मत जाय रे ! -- - मन मूरख पंथी, उस मारग मति जाय रे ।। कामिनि तन कांतार जहां है, कुच परवत दुखदाय रे ॥१॥ काम किरात वसै तिह थानक, सरवस लेत छिनाय रे । खाय खता कोचक से बैठे, अरु रावन से राय रे ॥२॥ और अनेक लुटे इस पड़े, चरने कोन बढ़ाय रे । वरजहों वरज्यो रह भाई, जानि दगा मति खाय रे ॥३॥ सुगुरु दयाल दया करि 'भूषर', सीख कहत समझाय रे। मागे जो भावं करि सोई, दोनी बात बताय रे ॥४॥ कविवर भूषरदास Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा के जैन-कवियों का भीति-वर्णन हा बालकृष्ण 'अकिंचन' एम. ए. पी-एच. 7. बैन मनिषियों ने अपने धर्म से सम्बन्धित भनेक नहीं। पुराणों, माख्यानों, कथानों, चरितों तथा चणिकामों की अपभ्रंश के जैन-कवियों द्वारा लिखित अधिकांश रचना की। यद्यपि ये सभी धर्म भावनामों से प्रोत-प्रोत काव्य-कृतियां प्रबन्धात्मक हैं। ये प्रबन्ध काव्य अपभ्रंश मानस की कृतियां हैं तो भी इनमे से अनेक का साहित्यिक साहित्य में प्रभूत मात्रा में प्राप्त हैं। चरित्र काव्यों की मूल्य भी कम नही । साहित्य-शास्त्रियो का एक ऐसा भी सख्या भी प्राशाजनक है। ये काव्य जैन तीर्थंकरों या वर्ग है जो धर्म से सम्बन्धित कृतियों को साहित्य के क्षेत्र धमा और धर्माचारियों के पुनीत जीवन से सम्बन्धित हैं । कुछ में रखने पर अापत्ति प्रगट करता है, किन्तु प्राज उस प्रमुख कृतियो की नीति पर यहाँ सक्षेप में विचार किया जावेगामान्यता को महत्व नही दिया जाता । कारण, साहित्य का धर्म से वैर नही है । अावश्यकता इस बात की है, कृति मे पउम चरिउ-इसे स्वयभू कृत रामायण कहना काव्यात्मकता होनी चाहिए। काव्य क्या है-रमणीय चाहिए । इसके अनेक वर्णन नैतिक दृष्टि से बहुत उपयोगी अर्थ का प्रतिपादन करने वाला शब्द । अतः जहाँ किसी है । उनका अनुशीलन बहुत विस्तार की अपेक्षा रखता भी प्रकार की शब्दगत, अर्थगत, भावगत, भाषागत, शैली है और एक पृथक विषय है। अतः यहाँ केवल उदाहरणार्थ गत, शिल्पगत रमणीयता विद्यमान हो, वही काव्यत्व एक कथन दृष्टव्य है:माना जा सकता है। धार्मिक कृतिया तो क्या, भ्रष्ट लक्खवण कहिं वि गवेसहि तं जल । कापालिको की कृतियां (या उनके कुछ प्रश) भी काव्य सज्जण हियउ जेम जं निम्मल ।। की श्रेणी मे पा सकते है बशर्ते कि उनमे काव्यत्व अर्थात् लक्षमण उसी जलाशय मे तो जल खोजते हैं विद्यमान हो। यदि धर्म के नाम पर ही किसी कृति को जो सज्जन हृदय के समान निर्मल हो। कथन की नैतिक काव्य सीमा से बाहर की वस्तु समझा जाने लगा तो अर्हता तो है ही, साथ ही उसकी मार्मिकता दर्शनीय है। पद्मावत तथा प्रखरावटादि समस्त सूफी काव्य, मानस अपने विषय से न हटता हुग्रा भी जिस प्रकार से संत सूरसागर-रासपंचाध्यायी प्रादि अधिकाश भक्ति काव्य की हृदय की निर्मलता का सकेत कर वह उसकी काव्य-कुशसिरमौर कृतियां हमें काव्य क्षेत्र से बाहर समझनी होंगी र लता एव अभिरुचि, दोनो की परिचायक है। और यदि ऐसा हो गया तो हिन्दी के पास लड़कियों की रिट्ठणेमि चरिउ या हरिवंश पुराण-यह ग्रन्थ पउम कुछ अदानों तथा विहरणियो के कुछ प्रांसुप्रो से सुसिकत चरिउ से भी बड़ा है । कही-कही नीति सम्बन्धी सूक्तियां छन्दों को छोड़कर और कुछ शेष ही नही रह जाएगा। बहुशः विद्यमान है :जब हम अन्य वैष्णव धर्म-ग्रन्थों को काव्य कहते है तो वरि सुसह समनु बरि मरो जमेह । हमें अपभ्रश के अनेक सरस तथा अलकृत जैन ग्रन्थों को ण वि सुव्वण्ड भासिय अण्णहा हवेह ।। भी काव्य कहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा और फिर अर्थात् चाहे समुद्र सूखे, मदर झुके (या कुछ भी हो) नीति काव्य के विद्यार्थी को जितना फुटकर मसाला किन्तु ज्ञानी का कथन अन्यथा नहीं सिद्ध होता है। तथा धार्मिक काव्यों से मिलने की माशा रहती है, उतना जहिं पह दुच्चरिउ समायरहप्रेम, श्रृंगार और विरह निरूपित करनेवाली कृतियोंसे तहि तणु सामग्ण काई करह। अर्थात Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८, वर्ष २४,कि. ४ अनेकान्त मर्थात् जहाँ स्वामी चरित्रहीन होगा वहाँ सामान्य अर्थात् जो ग्वाला गौ ही नहीं पालता । उसे दूध के जनता या प्रजा करेगी अर्यात् और भी अधिक चरित्रहीन दर्शन जीवन भर नहीं होते । जो माली लता गुल्मादि का होगी। प्राज की राष्ट्रीयता परिस्थिति में उस प्राचीन पालन ही नहीं करता वह भला सुन्दर पुष्प कैसे ले सकेगा। जैन कवि का कथन और भी विचारणीय है। इस कथन की जितनी भी व्यजनाएं की जाए थोड़ी है। महापुराण-पुष्पदंत का यह महाकाव्य अत्यन्त भविसयत्त कहा- धनपाल धक्कड़ की इस कृति का मप्रसिद्ध कृति है। अन्य के प्रारम्भ में ही दुर्जनो के चरित्र नायक लोकिक पुरुष है, अतः कवि को गृहस्थ जीवन के पर प्रकाश डाला गया है। उनका स्वभाव तो बाधा विविध प्रसंगों के वर्णन का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया उपस्थित करने या भोंकने का है, किन्तु इससे होता क्या है। अन्ततोगत्वा पुट धार्मिकता ही है, अतः नीति कथन है? वे पूर्ण चन्द्र पर कितने भी भोके उनसे चन्द्रमा पर भी धार्मिक भावना से ही प्रभावित है। यथाक्या कोई प्रभाव पड़ता है ? और यही विचार कर कवि जोवण वियार रस बस पसरि, सज्जनों की प्रशंसा करता हुमा ६३ जैन महापुरुषों के सो सूरउ सो पडियउ । चरित्र लिखने में प्रवृत्त हो जाता है। इन विशाल ग्रन्थों में चल मम्मण वयणुल्लावएहि, नीति कथन विभिन्न शैलियो मे कहे गये है। प्रश्नोत्तर जो परतिहिं ण खंडियउ ॥ (३-१८-६) शैली का एक उदाहरण देखिए : अर्थात् युवक, शूर भी वही है और पडित भी वही है खगें मेहें कि णिज्जलेण, तर सरेण कि णिफ्फलेण। जो परनारी के कामोद्दीपक प्रपचो (वचनो) प्रादि द्वाग मेहें कामें कि णिहवेण, मुणिणा कुलण कि णित्तवेण । खडित नही होता (प्रभावित नही होता)। कन्वे णडेण कि नीरसेण, रज्जं भोज्जे कि पर बसेण । जहा जेण दत्तं तहा तेण यत, १८७ इमं सुच्चए सिठ्ठलोएण वुत्तं । प्रर्थात् पानी रहित जलद तथा तलवार से क्या ? सु पायन्नवा कोद्दवा जत्त माली, फल रहित वृक्ष और बाण से क्या ? प्रद्रवणशील मेघ कह सो नरो पावए तत्थ साली । और काम (यौवन) से क्या ? तप हीन मुनि तथा कुल अर्थात् यह कथन सत्य है कि जो जैसा देता है, वैसा से क्या ? नीरस काव्य और नट से क्या ? पराधीन ही प्राप्त करता है। जो माली कोदो बोता है वह शालि राज्य और भोजन से क्या ? कहने की अावश्यकता नही कहां से प्राप्त करेगा। इसी प्रकार अन्य सुन्दर कथन अनेक कि यहाँ पानी, फल नीरस इत्यादि शब्दो मे सुन्दर श्लेष स्थलों पर है। यथाविद्यमान होने से काव्यात्मक चमत्कार प्रा गया है। इसी (क) जो दूसरो के प्रति पापाचरण की सोचता है, प्रकार अनेक कथन उद्धृत किये जा सकते हैं उसका पाप उल्टा उसे ही दुखी करता हैउठ्ठाविउ सुत्तउ सीह केण (१२-१७-६) सोते हुए परहो सरीरि पाउ जो भाव। सिंह को किसने जगाया । तं तांसइ बलेवि संतावइ॥-६-१०-३ परियउ पुण रिप्रउ होइ राय (३६-८-५) जो मरा (ख) लाभ के विचार करते-करते हुए भी कभीहै वह खाली प्रवश्य होगा। कभी मूल भी नष्ट हो जाता हैमाण भंगु वर मरण न जीविउ (१६-२१-८) अप- जंतहो मूलु वि जाह लाह चितंत हो। (३-११-५) मानित होकर जीने से तो मृत्यु प्रच्छी। बम खंड काव्यों में नीतिएक अन्योक्ति मोर देखिए ___ऊपर वर्णित कृतियाँ अपभ्रंश के महाकाव्य थे । सर जो गोवाल गाइ णउ पालइ, काव्यों में नीति कथनों का अध्ययन किया जा सकता हैसो जीवंतु दुषु ण णिहालह। सुवंसण चरिउ (सुदर्शन चरित्र)जो मालार वेरिल [उ पोसइ, नयनंदी की यह कृति अपभ्रंश की एक सुन्दर काव्य सो सफुल्ल, फलु केंग लहेसह । (५१-२-१) कृति की दोष मुक्तता का उल्लेख किया है। इस संर Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा के जैन-कवियों का नीति-वर्णन १४६ काव्य से पर्याप्त नीति वचन उद्धृत किये जा सकते हैं- ही संसार की प्रसारता का एक कथन, नयनंदी के द्वितीय सप्पुरिसहो कि बहुगुणहिं पज्जतं दोसहि णणहेव । खड काव्य-"सयल विधि विधान" से उद्धत हैतउि विप्फुरण व रोसु मणे मित्ती पाहण रेहा इवा ।। उययं चडण पडणं तिणि बिठाणाइ इक्क विय हमि । अमिलताण व दीसइ हो दूरे वि संठियाणं पि । सूरस्स य एस गई, अण्णस्स य केतियं यामं ।। ६-६-८ जहविद्व रवि गयणयले इह तह बिहुलह मुह णलिणी ॥८.४ अर्थात् जब एक ही दिन में सूर्य जैसे पराक्रमी को अर्थात दूरस्थ प्रेमियो मे भी स्नेह देखा जाता है। भी उदय, उपरिगमन और पतन इन तीनों प्रवस्थाओं का जिस प्रकार रवि गगनतल में स्थित रहता है, किन्तु अनुभव करना पड़ता है तो फिर औरों का क्या कहना? (उसकी अनन्य प्रेमिका) नलिनी पृथ्वी पर तालाब मे निश्चयत. यह कथन निवेद सम्बन्धी होते हुए भी काव्य विकसित हो जाती है। इसी प्रकार योवन, युवती, प्रेम, वैदग्ध का सुन्दर उदाहरण है। इसी प्रकार जीवन व उपहासादि पर सुन्दर नीति वचन कहे गये है। योवन के यौवन प्रादि की झठी चमक, अस्थिर गति तथा क्षणवेग को पहाडी नदी के वेग के समान बताया गया है। भगुरता आदि का सुन्दर वर्णन नयनदी ने किया है। एक स्त्रियों के चरित्र को पहचान देवताओं के लिए भी दुर्लभ स्थान पर जीवन की, नलिनी दलगत जल बिन्दु से दो बतायी गयी है। प्रेम से दुख की अनिवार्यता का कथन गई अपमान किया गया है प्रबन्ध और खड काव्यो के अतिरिक्त जैन कवियों ___ जहण कवणु णेहें मताविउ । (७-२) ने कथा-साहित्य की भी सृष्टि की। इन कथानो पर कही करकंड चरिउ यह एक सुन्दर खड काव्य है। १०संधियो (अध्याओं) तो जातको का प्रभाव था और कही रामायण, महामें विभाजित यह कृति मूलतः निवेद भावनाओं की भारतादि संस्कृत ग्रथों का। इन कहानियो का प्रधान प्रतिपादक है। कृतिकार मूनि कनकामर मत्य लोक में स्वर भी जैन-धर्म का प्रचार तथा निर्वदादि भावनामो यद्यपि स्वल्प भोग विद्यमान पाते हैं, किन्तु मूलतः वे संसार का प्रसार है। काव्य से सम्बन्धित होने के कारण यह को दुःख का अपार पारावार ही समझते है। यह ससार कथा साहित्य हमारी विवेचन-सीमा मे नही पाता। परन्तु एक वन है। इसमे नश्वरता की दावाग्नि लगी हुई है। उनमें कहीं-कही गाथादि छन्दों में नीति कथा भी बीचजिस प्रकार अग्नि गत जंगल मे (ककाल निम्न-कुटज में सुगुम्फित है। इनमे गुरु-सेवा, शास्त्राभ्यास, सयम, तप, और चदनादि अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े पेड़ों में से कोई भी नहीं दान, धर्म, कष्ट, सहिष्णुता मादि पर उपयोगी कथन बचता। उसी प्रकार यहां काल के गाल से कोई नहीं बच विद्यमान हैं, परन्तु उपदेश शैली को प्रधानता के कारण पाता । यूवा, वृद्ध, बालक, विद्याधर, किन्नर, खेचर, सूर ये गाथायें भी निरी पथ मात्र होकर रह गयी है। उनमें अमरपति सभी काल के वशवर्ती है। न श्रोत्रिय ब्राह्मण काव्यात्मक सरसता या विदग्धता मादि नहीं प्रा पायी बच पाता है और न तपस्वी; न धनवान वच पाता है पोर है। इस प्रकार के ग्रन्थों में अमर कोनि के छक्कम्मोवएस न कोई निर्धन (षट्कर्मोपदेश) माला, अणुवयरयणपईव (अणुव्रतपत्ता- सोत्तिउ बंभणु परिहरह, उ छंडा तवसिउ तवि ठियउ। रत्न प्रदीप) प्रादि का स्थान महत्वपूर्ण है। घणवंतु ण छुट्टह ण वि णिहणु, निष्कर्ष यह है कि नीति के प्रचार एवं प्रसार मे जह काणणे जलणु समुट्टियउ।। (8-५-१०) अपभ्रश के जैन कवियों का योगदान उतना ही सराहनीय इसी प्रकार सांसारिक विषयों की क्षण भंगुरता, लोभ, है, जितना कबीर-मानक-दादू मादि निगुणिये संतो का। गुरु जन-सगति इत्यादि के सम्बन्ध में सुन्दर कथन किये गये उनकी काव्य-कृतियों में नीति के अमूल्य और असंख्य होरे है। लक्ष्मी की चचलता तथा नारी हृदय की अस्थिरता जड़े हुए हैं। प्रावश्यकता उनके प्रध्ययन, प्रचार, प्रसार का भी अच्छा वर्णन किया गया है। स्तुतः इस प्रकार निर्वेद सम्बन्धी नीति कथन जैन एवं जीणोद्धार की है। काश, जैन समाज या यों कहिये काव्य का सर्वस्व है। उक्त विचारों से मिलता-जुलता कि भारतीय साहित्य जगत यह पुनीत व्रत ले पाता। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्तिकाव्य में प्रगति ग. गंगारामगर्ग धर्म-प्राण देश होने के कारण भक्ति भारत के समस्त हो सके । पतः बुधजन अपने कई पदों में जिनेन्द्र के गुण काव्य में प्रमुख वर्ण्य हैं। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी का गाने, वाणी सुनने तथा उनके चरणों में मन बसाने का हिन्दी काव्य तो भक्ति प्रधान रहा ही है परवर्ती काल में संकल्प करते है । जयचन्द पाराध्य के ध्यान, वंदन तथा भी भक्ति की मंदाकिनी अपनी अक्षुण्य गति से प्रवाहित गुणगान के अतिरिक्त उनकी छवि निरखते रहने का होती रही। इसके प्रवाह को प्रवेगमय बनाये रखने में निश्चय करते है :निगुण और वैष्णव भक्तों के अतिरिक्त जैन भक्तों का अहो जिनराज घावोगे निधि मेरी, बड़ा योगदान रहा । पाश्चर्य की बात तो यह है कि मैं सरन लियो तुम प्राय । जिस समय बिहारी, कृष्णभट्ट, पद्माकर आदि दरबारी तुम गुन घ्याऊ, न गाऊं और कू, अरज करू सिर नाय । कवि काव्य-प्रेमियो को कवित्त, सवैयों और दोहों के प्रब जो पाऊ फिर न गमाऊं नींद न लेऊ पास दिखाय । माध्यम से शृगार-माधुरी पिलाकर मदोन्मत्त कर रहे थे; नयन देखि विलस पल पल, प्रभु यहै नेम तुम भाय । उस समय भी नवल जयचन्द, माणिकचन्द, बुधजन, पार्श्व- २. प्रातिकूल्य का वर्जन :दास, प्रभृति अनेक श्रावको ने विपुल पदो की रचना कर प्राराध्य के अनुकूल भी हुआ जा सकता है जबकि उन्हें भक्ति संजीवनी दी। भक्तिकाल मे भी बनारसी- आराधक इन्द्रिय, सुग्व, राग-द्वेष प्रादि को प्रतिकूल समझ दास, भूघरदास प्रादि कई जैन भक्त हुए, किन्तु रीति- कर उनकी तरफ से अपना हाथ खीच ले । जैन भक्तों ने काल की अपेक्षा कम । प्रपत्ति मे बाधक मंग, कर्म व स्वभाव के परित्याग का 'प्रपत्ति' का अर्थ स्वामी हरिदास द्वारा रहस्यमय निश्चय कई पदों में प्रकट किया है :में शरणागति बतलाया गया है' शरणागत का अर्थ होता प्रष्ट कर्म म्हारो काई करसी जी, मै म्हारे घट राखू राम । है-शरण मे पाया हुअा। जब भक्त अपने प्राराध्य की इन्द्री द्वारे चित दौरत है, तिनवश वनहिं करिस्यू काम। शरण में चला जाता है तो उसे कोई भी चिन्ता नहीं इनको जोर इतौ ही मुझ प, दुख दिखला इन्त्री गाम । रहती। उसके समस्त भय दूर हो जाते है। तुलसी के जाकं जान में नहिं मान भेद विज्ञान करूं विसराय । इष्ट राम ने तो स्वय स्वीकार भी किया है-मय पन है-मय पन कहूँ राग कहूँ दोष करत थी, तब विधि पाते मेरे ग्राम । सरनागत भय हारी।' सर्वकामप्रदा प्रयत्ति के प्रति भक्तों उक्त पदांश मे भक्त बुधजन प्रष्ट कर्म, राग-द्वेष का बडा लगाव रहा है। पांचरात्र की लक्ष्मी सहिता में डा लगाव रहा ह । पाचरात्र का लक्ष्मा साहता म प्रादि का परित्याग करके शद्ध स्वभाव धारण करने के प्रपत्ति के छ: अगों का वर्णन है। वे सभी जैन भक्ति लिए दृढप्रतिज्ञ हैं । काव्य मे भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है-- ३. रक्षयिष्यतीति विश्वास :१. रामचरितमानस, सुन्दर काण्ड, दो०४३ । भगवान् मेरी रक्षा अवश्य करेगे यह विश्वास भक्त १. अनुकूल्य का संकल्प : को दो कारणों से होता है-आराध्य की पतित-पावनता जब कई व्यक्ति किसी की शरण में आ जाते हैं तो और उनके प्रति अपनी अनुकूलता। जैन भक्तों को वह उसके अनुकूल व्यवहार का सम्पादन करना अपना जिनेन्द्र द्वारा अपनी रक्षा होने में पूर्ण विश्वास है । जयलक्ष्य बनाता है। इस प्रकार प्रपन्न भक्त भी स्वयं में चन्द मन को जिनेन्द्र की पूजा, स्तुति, जप व दर्शन में ऐसे गुणों का समायोजन करता है, जिससे माराध्य प्रसन्न लीन देखकर अपने उद्धार में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्तिकाव्य में प्रगति १५१ करते, तभी तो स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं : पास प्रभु मास पूरो, देवो शिवपुर वास । जिनेश्वर मोहि तारोजी, हो जोहूं तो धारू सदा पण थारी। त्रास गर्भावास मेटो, ह चरणां रो दास ॥ बदन निहालंगुन उरचारूं, हो जो मैं तो भान सरन सब पारी उठत बैठत सोबत जागत, बस रह्यो हृदय मंझार । पाप भरे तारे बहु सुनिये, मैं तिन ते कहा भारी । मात तात पर नाप तू ही, तू रवाविंद करतार । पूजा स्तवन जापच्यानलय हो जी मोहं 'नयन' सज्जन वल्लभ मित्र तू ही, तू ही तारणहार ॥ तिहारी प्यारी ।। भक्त नवल के अनुसार तो तीर्थकर हो जीवन-प्राण अपने पाराध्य को पतित-पावनता मे अग्रणी जानकर है। ज बवह उनकी शरण मे है तो फिर उनकी छवि व तथा उसके ध्यान और गुणगान में अपने को संलग्न देख- गुणगान को एक पल भी विस्मरण करना कसा? कर बुधजन भी विश्वास कर लेते है कि महावीर जी। जिन मेरे जीवन प्रान, और न मोहि सुहावंदा । गाते-गाते और ध्यान करते हुए देखकर मुझे तार ही इस भव में इक सरनि तिहारी,हम जो भावं देगे : ज्यों ज्यादा गाता ध्याता तारसी, भरोसो महावीर को, मान वेव को कबहुं न सेऊ, छवियां मेरे जिन भावंदा। हेरि थक्यो सब मांही ऐसो, नाहीं कोऊ पीर को।। 'नवल' कहै पल येक न विसरौं, रैन दिवस गुन गावदा।। ४. गोपत्त्व वरण : ६. कापर्य :प्रपन्न भक्ता ने ससार-सागर स पार उतरन क लिए अपने दुर्गुणो के कारण ससार-सागर को पार करने भगवान को गोप्त के रूप में वरण करना आवश्यक माना में अपनी असमर्थता माराध्य को दु:ख के साथ दिखलाना है। सभी वैष्णव भक्तो ने अहिल्या, प्रह्लाद, वाल्मिीकि, कायरता या कार्पण्य कहा जाता है। सभी जैन भक्तों ने गज प्रादि के उद्धार की चर्चा करते हुए पाराध्य से अपने अपनी कायरता का वर्णन जी खोलकर किया है । बुधजन उद्धार का अधिकार चाहा है। जैन ग्रन्थों में भगवान का एक पद दृष्टव्य है :'जिन' द्वारा रक्षित श्रीपाल, मानतंग, वादिराज, सिहोदर, म्हारी सुणिज्यो परम दयाल, तुम सों परज करूं । कुमुदचन्द्र प्रादि नाम उल्लेखनीय है। जैन भक्तों ने मान उपाय नहीं या जग में, जगतारक, प्राराध्य को अपने उद्धार मे दृढ़तापूर्वक रुचि लिवाने के जिनराज तेरे पाय पह॥ लिए कहीं तो उक्त भक्तों के उद्धार प्रसंगों की चर्चा की साथ प्रनादि लागि विधि मेरी, है, नहीं तो संसार के असीम कष्ट बतलाते हुए उनसे करत रहत वेहाल इनको को लै मरन । मुक्ति के लिए अधिक आतुरता दिखलाई है । यथा :- चरन सरन तुम पाय अनूपम, मों को तारो जी, तारो जो किरपा करिक, 'बुधजन' मांगत यह गति गति नाय फिर्क। अनादिकाल को दु:खी रहत हूं, टेरत हंजम ते डरि के। साराश यह है कि अपने पाराध्य की शरण में जाने भ्रमित फिरति चारों गति भीतर, भव माहीं भरि-भरिक पर उसके अनुकूल सत्कायों का सम्पादन, प्रतिकूल पथका बत अगम अथाह जलधि में, राखो हाथ पकरि करिका परित्याग, उसकी रक्षा-शक्ति मे विश्वास, सर्वस्व सम५. प्रात्म-निक्षेप : पण तथा अहंकार का विगलन आदि शरणागति के सभी प्रभु को अपना सर्वस्व मानते हुए अपना तन, मन व तत्त्व केवल तुलसी और सूर जैसे वैष्णव भक्तो की रचसमस्त पदार्थ समर्पित कर देना प्रात्म-निक्षेप है। प्रात्म- नामों में ही नहीं, अपितु जैन पद साहित्य मे भी मननिक्षेप शरणागति की चरम परिणति है। जैन भक्तों ने स्यूत हैं । वैष्णव और जैन भक्त अपने दर्शन और विचारों माता, पिता, स्वामी, प्रिय, मित्र अर्थात् सर्वस्व जिनेन्द्र में थोड़ी भिन्नता रखते हुए भी भक्तिभाव के क्षेत्र में एक को ही समझा है। सोते-जागते, उठते-बैठते वही उनके दूसरे के बहुत समीप अनायास ही प्रा गये हैं। हिन्दी हृदय में भी बसे हुए हैं। भगवान पार्श्वनाथ के प्रति भक्तिकाव्य की सम्पूर्णता के लिए जैन भक्तों की रचनामों रतनचन्द की यह उक्ति दृष्टव्य है : का प्रकाश में आना प्रत्यावश्यक है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यक्ष-यक्षणियाँ और उनके लक्षण गोपीलाल 'अमर' एम. ए., शास्त्रो, काव्यतीर्थ, साहित्यरत्न, धर्मालंकार प्रत्येक तीर्थकर की सेवा में एक यक्ष मौर एक यक्षी द्वार पर उकेरी गई, जिन्हें देखते ही भक्तगण समझ सकते भी रहती थी, ऐसा विधान है। सातवी शताब्दी के थे कि उस मन्दिर में मुख्य मूति किस तीर्थकर की है। प्राचार्य यति वृषभ ने अपने ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती मे इनके कालान्तर में उनकी मूर्तियाँ मन्दिर के भीतरी द्वार पर नामो का कदाचित् प्रथम बार उल्लेख किया। जयसेन- भी उकेरी जाने लगी। क्योकि भट्टारकों ने कुछ यक्षप्रतिष्ठापाठ मे भी इनका उल्लेख है, पर यह ग्रन्थ, जैसा यक्षियों के साथ अनेक ऐसी कहानियां जोड़ दी थी जिनमें कि कुछ विद्वान् मानते है, प्रथम शताब्दी का नही बल्कि उनके चमात्कारप्रिय तथा वैभवप्रेमी भक्तों के लिए वरलगभग दसवी शताब्दी का होना चाहिए । तिलोयपण्णत्ती दान, दुष्टों के दलन प्रादि का अतिशयपूर्ण वर्णन होता, के अनन्तर अनेक दिगम्बर-श्वेताम्बर शास्त्रकारों ने यक्ष- अतः चमत्कारप्रिय तथा वैभवप्रेमी भक्तों ने वीतरागी यक्षियों के वाहन, वर्ण, हाथों में धारण की गई वस्तुओं तीर्थंकरों की अपेक्षा रागी यक्ष-यक्षियों को अधिक महत्व पादि का उल्लेख किया। कालान्तर में इनकी मूर्तियां भी दिया। यही कारण है कि उनकी मूर्तियाँ मन्दिर के बनाई जाने लगीं। भीतरी द्वार से भी प्रागे बढकर गर्भालय में जा पहुँची, ये यक्ष और यक्षियाँ वस्तुत: कौन है ? कुछ विद्वान् और धीरे-धीरे तीर्थकर वे सिंहासन में भी उन्होने अपना इन्हे एक विशेष जाति के मनुष्य ही मानते है। यदि ये स्थान बना लिया। इतना ही नहीं, उनकी मूर्तियों का देव है तो किस निकाय के ? व्यन्तर निकाय की पाठ प्राकार जो प्रारम्भ में तीर्थकर मूर्ति का लगभग बीसवाँ जातियो मे ही पाचवी जाति यक्षो की है. किन्तु न तो भाग होता था, "ब तीव्र गति से बढ़ने लगा। अन्त में उनके नामों में प्रस्तुत यक्ष-यक्षियों के नाम पाते है और स्थिति यहाँ तक पहुँनी कि मूर्ति वस्तुतः यक्ष या यक्षी की न उनकी कोई विशेषता इनमे दृष्टिगत होती है। दूसरी ही बनाई जाने लगः, केवल उसमे जैनत्व की झलक देने पोर इन यक्ष-यक्षियो के कुछ नामों और विशेषतामों मे के लिए मूर्ति के मस्तक पर तीर्थकर-मूति को बहुत ही पाशिक समानता भवनवासी निकाय के देवों में दिखती छोटे प्राकार में स्थान दिया गया। इस सबके अन्य परिहै। जो भी हो, यह प्रश्न विचारणीय है । णाम जो भी हुए हों, इतना अवश्य हमा कि जैन धर्म एक प्रश्न यह भी है कि इन यक्ष-यक्षियो का उल्लेख मे प्रवृत्तिमार्ग मोर बहिमखी उन्नति को अपेक्षाकृत नभी से क्यो नही मिलता जबमे तीर्थकरों के नामों का अधिक प्रोत्साहन मिला। मिलता है। उत्तर यह है कि अन्य अनेक मान्यतामों की यह प्रश्न भी विचारणीय है कि हजारों की संख्या मे तरह यक्ष-यक्षियों की मान्यता भी भट्टारको की देन है। पाई जाने वाली ये मूर्तियां पूज्य है या अपूज्य । उत्तर अनेक कारणों से उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर की सेवा में एक स्पष्ट है। हालांकि इनकी पूजा का प्रचलन प्राज अनेक एक यक्ष-यक्षी का रहना भी प्रावश्यक समझा कि उनके स्थानों पर है लेकिन वह पूर्वोक्त कारणो से ही है। स्वरूप उन्होंने कुछ जैनेतर से लेकर, कुछ परिवर्तित प्राचीन शास्त्रों में उनकी पूजा का कोई विधान नहीं है। करके और कुछ अपनी कल्पना से निर्धारित किये । शिल्प- बल्कि निषेध है। इसके कारण स्पष्ट है । जैन धर्म में कारों ने उन्हे मूर्त रूप प्रदान कर दिया। पंच-परमेष्ठियो के अतिरिक्त किसी की भी पूजा का यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां प्रारम्भ में मन्दिर के बाहरी विधान नही है। यक्ष-यक्षी पंच-परमेष्टियों के अन्तगत Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन या-क्षणियां और उनके लक्षण १५३ णा का नहीं है। दूसरे, इन्हें देव माना जाए तो इनका अधिक से अधिक गुणस्थान चौधा होगा, जिन्हें कम से कम चौथे और अधिक से अधिक चौदहवें गुणस्थान वाला मनुष्य पूजा का पात्र नही बना सकता। तीसरे, प्राचार्य समन्त' भद्र ने 'वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः।' देवता बदुपासीत देवतामूढमुच्यते ।' कहकर इनकी पूजा का निषेष ही नहीं किया, उसे देवमूढता नाम भी दिया जो सम्यग्दर्शन का एक दोष है । इवर के पण्डितप्रवर दौलत. राम जी ने छहढाला में प्राचार्य समन्तभद्र की वाणी को हिन्दी में प्रस्तुत किया, 'जे राग-द्वेष मलकरि मलीन, बनिता-गदादि जुत चिह्न चीन । ते हैं कुदेव. तिनको जु सेव, सठ करत, न तिन भव-भ्रमण-छेव ।' श्वेताम्बर प्रागमों और मथुरा की प्राचीन कला में जिन यक्षों (और उनके प्रायतनों) का उल्लेख है, वे इन यक्षों से भिन्न थे, यद्यपि उनकी भी पूजा के प्रमाण नही मिलते । साथ ही उन यक्षो के देवत्व की कम और मनुष्यत्व की सम्भावना अधिक है : पाश्चर्य नही, यदि मागामी शोघ-खोज के फलस्वरूप वे कोई ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध किये जा सकें, जबकिप्र स्तुत यक्ष-यक्षियां शत-प्रतिशत पौराणिक व्यक्ति है। यह भी उल्लेखनीय है कि इन यक्ष-यक्षियों के परस्पर दाम्पत्य का कोई उल्लेख नहीं। तेईसवे तीर्थंकर पार्श्वनाथ के यक्ष घरणेन्द्र और यक्षी पद्मावती अवश्य पति-पत्नी रहे दिखते हैं। अन्त के चौबीस यक्षों और यक्षियो के लक्षण दिये जा रहे हैं। इनका आधार ग्रन्थ है बारहवीं शताब्दी के पण्डितप्रवर पाशाघर का प्रतिष्ठासारोद्धार, जिसका संपादन पोर अनुवाद प. मनोहरलाल जी शास्त्री ने प्रोर प्रकाशन १६७४ वि० मे जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय बम्बई ने किया। कोष्ठकों में अपराजितपृच्छा के विधान दिये गये हैं। तीर्थंकरों के नामों के बाद के कोष्ठकों में उनके चिह्न दिये गये हैं। संकेत ती-प्राराध्य तीर्थकर मौर उनका चिह्न (कोष्ठक में) वा-वाहन श-शरीर का वर्ण मु-मुद्रा हा-हाथों की संख्या व-हाथों में धारण की गई वस्तुए दा-दाहिने हाथ/हाथों मे/की वा=बायें हाथ हाथों में की ऊ-ऊपर ऊपर का ऊपर के नी-नीचे नीचे का/नीचे के क-ऊपर से नीचे क्रमशः वि-अन्य विशेषता/विशेषताएं १-गोमुख (वृषमुख) ती ऋषभनाथ (बैल) वा-बैल श-सुनहला (सफेद) हाचार ब-ऊ दा परशु (वीर), नी दा अक्षमाला, कबा फल (जाल) नी बा इष्टदान मु मातुलिंग (= नीबू) वि१-बैल के समान मुख २-मस्तक की पृष्ठभूमि में धर्मचक्र २-महायक्ष ती-अजितनाथ (हाथी) वा हाथी श-सुनहला (श्याम) हा-आठ व=द क वरद मु, तलवार (अभयमु), दएड (मुद्गर), परशु अक्षमाला। बा क्र चक्र (जाल), त्रिशूल (अकुश), कमल (शक्ति), प्रकुंश (मातुलिंग) विचार मुख ३-त्रिमुख (त्रिवक्त्र) ती संभवनाथ (घोड़ा) वामोर श-प्रजन के समान काला हा छह वदा क चक्र, (परशु), तलवार, (प्रक्षयमाला, अकुंश (गदा), बा क दण्ड (चक्र), त्रिशूल (शंख), कतरनी (वरद मु) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४, वर्ष २४, कि० ४ अनेकान्त वि-तीन आँखे व-ऊ ब दा अक्षमाला (पर), नी दा वरद मु ४-यक्षेश्वर (चतुरानन) (पाश), ऊ बा कुल्हाड़ी (अभय मु), नी बा फल ती-अभिनन्दननाथ (बदर) (वरद मु) वा हाथी (हंस) वि-तीन प्रांखें श-श्याम ६-अजित (जय) हाचार ती-पुष्पदन्त (मगर) वऊ दा सारस का पंख (सर्प), नीदा तलवार वाकछवा (जाल), ऊ वा धनुष (वन), नी वा ढाल श-सफेद (अकुश) हा-छह (चार) ५-तुम्बर (तुम्बुरु) वदा क्र प्रक्षमाला (शक्ति), माला (भक्षमाला), ती=सुमतिनाथ (चकवा) वरद, मुबाक दान मु (फल), शक्ति (वरद मु), वा गरुड फल श-श्याम हा-चार ती-शीतलनाथ (कल्पवृक्ष) व-ऊ दा सर्प, नी दा दान नु (सर्प), ऊ बा सर्प, वा कमलासन (हंस) (फल) नी ब फल (वरद मु) श-चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वि-सों से लिपटा हुमा हापाठ (चार) ६-पुष्प (कुसुम) व=दा क्र वाण (जाल), कुल्हाड़ो (मकुश), तलवार ती पद्मप्रभु (लालकमल) वरद मु, बा क्र धनुष (अभय म),दण्ड (वरद मु), वामग ढाल, वज्र श-श्याम विचार मुख हा=चार (दो) ११-ईश्वर (यक्षेट्) व-ऊ दा भाला, नी दा गदा, ऊ बा ढाल, (अक्ष- ती योनाम (गेडा हाथी) माला), नी बा अभय मु वाल ७-मातंग श-सफेद तोसुपार्श्व (स्वस्तिक) हा-चार वा=सिंह (भेड़) वऊ दा प्रक्षसूत्र (त्रिसूल), नी दा दो फल (अक्षश-काला माला), ऊ बा त्रिशूल (फल), नीना दण्ड (वरद हा-दो व=दा शूल, (गदा) बा दण्ड (पाश) वि-तीन पाखें वि-मुख टेढ़ा १२-कुमार ८-श्याम (विजय) वी-वासुपूज्य (भैसा) तीचन्द्रप्रभ (चन्द्रमा) वा-हस (मोर) वाकबूतर श-सफेद श-श्याम हाचार हा-चार व=ऊ दा गदा (धनुष), नी दा इष्टदान मु(वाण) ऊ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यक्ष-यक्षणियां और उनके लक्षण १५५ बा धनुष (फल), नी बा नेवला (वरद मु) वि-नीन मुख १३-चतुर्मुख (षण्मुख) ती-विमलनाथ (सुअर) वा-मोर शहरा हा-पाठ (छह) वदा क्र परशु (वज्र), परशु (धनुष), तलवार (वाण), अक्षमाला (मणियों से बनी), बा क परशु (वाण), परशु (फल), ढाल (वरद मु). दण्ड (धारण करने की-सी मुद्रा) विचार मुख १४-पातालक (किन्नरेश) ती-अनन्तनाथ (सेही) बामगर श-लाल व=दा क्र कोडा (जाल), हल (अंकुश), फल (धनुष), बाक अंकुश (वाण), शूल (फल) कमल (वरदमु) वि-१-तीन मुख २-मस्तक पर तीन फणों वाला सर्प १५-किन्नर (पाताल) ती-धर्मनाथ (वन) वा-मछली श-मूंगे के समान लाल हा-छह वदा क मुदगर (वज), अक्षमाला (अंकुश), वरद मुद्रा (धनुष), बा क चक्र (वाण), वन अंकुश (वर) वि-तीन मुख १६-गरुड़ यक्ष तो शान्तिनाथ (मृग) वा-सुमर (तोता) शश्याम हा-चार वऊ दा वज्र (जाल), नी दा कमल (अंकुश), ऊ बा चक्र (फल), नी बा कमल (वरद मु) वि-मुख टेढ़ा १७-गन्धर्व ती-कन्थुनाथ (बकरा) वा पक्षी (तोता) श-नीला हा-चार व- दा सर्प (कमल), नी दा वाण (अभय मु), ऊ बा जाल (फल), नी बा धनुष (वरद मु) १५-खेन्द्र (यक्षेट) ती-प्ररनाथ वा शख (गधा) श-काला हा-बारह (छह) वदा क्र वाण (वज्र), कमल (तलवार) फल (धनुष), माला, अलमाला, दण्ड, बा क्र धनुष, (वाण), वज्र, (फल), जाल, (वरद मु) मुद्गर, अंकुश, वरद मु वि-१-छह मुख २-तीन अखि १६-कुबेर (घनेट) तो-मल्लिनाथ (कलश) वा हाथी श-इन्द्रधनुष के समान हा-आठ (चार) व=दा क फल, (जाल), धनुष (अंकुश), दण्ड, कमल, बाक, तलवार (फल), परशु, जाल वरद मु विचार मुख २०-वरुण अपापति ती मुनिसुव्रतनाथ (कछवा) वाचल श-सफेद हा-चार (छह) व-ऊदा फल (जाल), नी दा इष्टदान मु; (अंकुश, धनुष) ऊ बा ढाल (वाण), नी बा तलवार (धनुष, वज) वि=१-पाठ मुख २-तीन प्रांखें Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६, वर्ष २४, कि० ४ ३- मस्तक पर जटाए ४ - विशाल शरीर २१- भृकुटि तीनमिनाथ वानन्दी (बैल) =जपा पुष्प के समान लाल हा पाठ (चार) क्र बन्दा ढाल (मूलशक्ति), तलवार (वय), धनुष, वाण; बा ऋ प्रकुश ( ढाल), कमल (डमरु), चक्र, इष्टदान मु विचार मुल २२ - गोमेद (पाइ) ती = नेमिनाथ (शंख) वान्मनुष्य द्वारा खींचा जाने वाला फूलों से बना हुधा वाहन श-श्याम हां छह क्र बन्दा गदा धनुष, कुल्हाड़ी (वाण), दण्ड ); वा फल ( मुद्गर), वज्र (फल) वरद मु वि-१-तीन मुख २- सर्प के समान रूप वाला) २३- परण ( मातंग सीपादवनाथ (सर्प) वाकछवा श= बादलों के समान श्याम हावार (दो) बन्दा बाकि सर्पराज ) (फल), नीदा पाश; ऊबा वासुकि, नी वा सर्प / ( बरद मु) विमस्तक पर वासुकि २४ - मातंग ती महावीर (सिंह) बान्हाची श= मूंग के समान हरा प्रनेकान्त - हान्दो बायें हाथ में दायां हाथ लेकर वरद मु वि= मस्तक पर धर्मचक्र धारण किये हुए १. चक्रेश्वरी (चक्रेशी ) ती = ऋषभनाथ (बैल) वा=कमलासन या गरुड़ या दोनों (दोनों) सुनहला हा=सोलह (बारह) वदा क्र वज्र, फल (मातुलिंग), चक्र, चक्र, चक्र, चक्र, चक्र, चक्र; बाक्र, वज्र, फल, चक्र, चक्र, चक्र, चक्र, मातुलिंग, दान नु / ( अभय मु) बिछह पैर २. रोहिणी जितनाथ (हाथी) वा = लोहासन ( तथा रथ पर प्रासीन ) श= सुनहला (सफेद) हा चार व=उ, दा, शंख, नी दा प्रभय मु. ऊ बा चक्र, नी बा दान मु ( वरद मु) ३. प्रज्ञप्ति (प्रज्ञावती) तो = संभवनाथ (घोड़ा) बा=पक्षी सफेद हा= छह व=दा क्र अर्धचन्द्र मु (अभय मु) परशु ( वरद मु), फल, बा तलवार (चन्द्रमा), याण (परशु ) वरद मु ( कमल) ४. विशृंखला (वज्र श्रृंखला) तो अभिनन्दननाथ (बन्दर) वा-हंस श= सुनहला हा छह (चार) व=दा क्रसर्प, जाल वरद मु, बा क्र बड़ा फल, अक्षमाला, दान मु ५. खड्गवरा ( या पौरुषवत्तिका) (नरदत्तिका) ती = सुमतिनाथ ( चकवा ) वा= हाथी (सफेद हाथी ) श= सुनहला हा चार व=ऊ दा वज्र (चक्र), नी दा फल (वज्र ), ऊ बा चक्र (फल), नी वा वरद मु Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन यक्ष-यक्षणियां और उनके लक्षण १५७ ६. मनोवेगा ती पद्मप्रभ (लालकमल) वा-घोड़ा श-सुनहला हा=चार व=ऊ दा फल (बज्र), नी दा फल (चक्र), ऊ बा फल, नी बा तलवार (वरद मु) ७. काली कालिका) ती=सुपार्श्व (स्वस्तिक) वा=बैल (भैसा) श-सफेद (काला) हा-चार (पाठ) व-ऊ, दा घण्टा (त्रिशूल), नी दा फल (जाल, अकुश, धनुष), ऊ बा शूल (बाण), नी बा वरद मु (चक्र, अभय मु, वरद मु) ८. ज्वालिनी (ज्वालमालिनी) तीचन्द्रभ (चन्द्रमा) वा=सुअर (कमलासन तथा बैल) श-चन्द्रमा के समान उज्ज्वल (काला) हा-पाठ (चार) व=दा क्र चक्र (घण्टा), धनुष (त्रिशूल), जाल, चमड़ा, बा क त्रिशूल (फल), वाण (वरद म), मछली, तलवार ६. महाकाली तो-पुष्पदन्त (मगर) वाकछवा श-काला हा-चार व= दा वज्र, नी दा फल (गदा), ऊ बा मुद्गर (वरद मु) नी बा दान मु (अभय म्) १०. मानवी ती शीतलनाथ (कल्पवृक्ष) वा-काला सर्प (सुअर) शहरा (श्याम) ११. गौरी ती-श्रेयोनाथ (गेंडा हाथी) वामृग (काला मृग) श-सुनहला हाचार वऊ दा मुद्गर (जाल), नी दा कमल (अकुश), ॐ बा कलश (कमल), ना बा वरद म १२. गान्धारी ती वासुपूज्य (भैसा) वामगर शहरा (श्याम) हा=चार (दो) वऊ दा कमल, नी दा मसल, ऊ बा कमल (फल) नी बा दान म १३. वैरोटी (विराटा) ती विमलनाथ (सुअर) वा=सर्प (माकाशयान) शहरा (श्याम) हा-चार (छह) वऊ दा सर्प (वरद मु), ना दा धनुष (तलवार, घनुष), ऊ बा सर्प (वरद म), नी बा वाण (ढाल-वाण) १४. अनन्तमती (प्रनन्तमति) ती-प्रनन्तनाथ (सही) वा-हंस श-सुनहला हाचार वउदा धनुष, नी दा फल (वाण), ऊ बा बाण (फल), नी बा वरद मुद्रा १५. मानसी ती-धर्मनाथ (वन) वा-वाघ श-मूगा के समान (लाल) ९ व-ऊ दा मछली (जाल), नी दा माला (अंकुश), ऊ बा मातुलिंग (फल), नी बा दान मु (वरद म) व-दा क्र कमल (त्रिशूल), धनुष (जाल), दान म (चक्र), बा क्र अकुश (डमरू), वाण (फल), कमल (वरद मु) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त १६. महामानसी २१. चामुण्डा ती-शान्तिनाथ (मृग) ती-नमिनाथ (नीलकमल) वा-मोर (पक्षिराज-गरुड) वा-मगर (बदर) श-सुनहला श-हरा (लाल) हा-चार हा-चार (पाठ) व-ऊ दा चक्र (वाण), नी वा फल (शंख), ऊ बा व-ऊ दा दण्ड (शूल), नी दा ढाला (तलवार, वाण (वन), नी बा वरद मु (चक्र) मुद्गर, जाला), ऊ बा अक्षमाला (वन), नी बा तलवार (चक्र, डमरू, अक्षमाल) १७. जया ती-कुन्थुनाथ (बकरा) २२. अम्बा वा-काला सुपर ती-नेमिनाथ (शंख) श-सुनहला वा-सिंह हा-चार (छह) श-हरा व-ऊ दा चक्र (वन), नी दा शंख (चक्र, जाल), ऊ हा-दो बा तलवार (अकुश) नी बा वरद मु (फल, व-दा अाम्रगुच्छा (फल), बा छोटा पुत्र प्रियंकर (वरद मु) वरद मु) वि-१. बायीं जंघा पर पुत्र प्रियंकर को बैठाकर बायें १८. तारावती (विजया) हाथ से थामती है।। ती-अरनाथ मछली २. दायें हाथ में पाम्रगुच्छ लिये रहती है और वा-हस (सिंह) उखी की एक अगुलि को बड़ा पुत्र शुभंकर श-सुनहला पकडे रहता है। हा-चार ३. पृष्ठभूमि पर ग्राम का वृक्ष होता है। व-ऊ दा सर्प (वज), नी दा मृग (चक्र), ऊ बा २३. पद्मावती व्रज (फल), नी बा वरद मु (सर्प) ती-पार्श्वनाथ (सर्प) १६. अपराजिता वा-कर्कट जाति के सर्प पर कमलासन (मुर्गा पर कमलासन) ती-मल्लिनाथ (कलश) श-लाल वा-प्रष्टापद (=पाठ पैरों वाला जंगली जानवर) हा-अठारह (चार) श-हरा (श्याम) व-दा क्र जाल आदि छह तथा शंख प्रादि तीन (ऊ हा-चार दा जाल, नी दा अकुश) बा क शंख प्रादि पांच ब-ऊदा ढाल (तलवार), नी दा फल (ढाल), ऊ बा तलवार (फल) नो बा वरद म तथा अंकुश. कमल, अक्षमाला, वरद मु (ऊ बा कमल, नीलाकमल) २०. बहुरूपिणी (बहुल्या) २४. सिद्धायिका ती-मुनिसुव्रतनाथ (कछवा) ती-महावीर (सिंह) वा-काला सर्प (सर्प) वा-सिंह श-पीला (सुनहला) श-सुनहला हा-चार (दो) व-ॐ दा ढाल (तलवार), नी दा फला, ऊ बा व-दा पुस्तक, बा दान मु (मभय सु) तलावार (डाला), नीना वरद म वि-सुभद्रासन (भद्रासन) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हड़प्पा तथा जैन धर्म मूल लेखक डी० एन० रामचन्द्रन् : अनुवादक डा० सिन्धु सभ्यता की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्मारक वस्तुएं प्रस्तर मूर्तियां है। धभी तक १२ मूर्तिखण्ड प्रकाश में माएं हैं, जिनमे हड़प्पा से प्राप्त दो सुपरिचित एवं प्रत्य विक विवेचित प्रस्तर प्रतिमाएं हैं, उनमें से तीन में पशुओंों का अंकन है । पाँच में नियताकार समुपविष्ट देव का चित्रण किया गया है। हडप्पा से उपलब्ध दो मूर्तियों ने प्राचीन भारतीय कलाविषयक वर्तमान धारणाओं को प्रान्दोलित कर दिया है। दोनों ही मूर्तियों, जिनकी ऊंचाई ४" से भी कम है, नर घड़े है, जिनमें संवेदन शीलता तथा एक दृढ़ एवं लचीले दोनों ही प्रकार के प्रतिमान का प्रदर्शन है। दोनों ही में पृथ टुकड़ों में बने शिर एवं भुजाओं को लगाने के लिए गरदन एवं कम्पों में कोटर छिद्र है। विवेच्य मूर्तियों में से एक (प्लेट १ ) मे शरीर को एक ऐसे परिणाम के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसका प्रतिमान विधान एक अन्त:स्फुरित तथा घरातल के प्रत्येक कण को सक्रिय बना देने वाली निर्वाध जीवनी शक्ति द्वारा हुआ है। यह शरीर के धान्तरिक भाग से प्राविर्भूत होने वाली एक सूक्ष्म एव गतिशील क्रिया के संघर्ष मे विद्यमान है । यद्यपि इस मूर्ति का प्रतिमान विधान चन्दर से हुआ प्रतीत होता है तथा यह वस्तुतः विश्रान्ति से युक्त है तथापि यह गति से स्फुरित है यह मूर्ति इतनी भोजोयुक्त है कि इसका आकार बढ़ता हुआ सा प्रतीत होता है ? किन्तु वास्तव में यह लघुका है, जिसकी ऊचाई केवल ३ - ३१ है । यह विपुल घड़ ग्राकारो मे रहस्यात्मक रूप से सन्निविष्ट जीवन का अनावरण करता है, जो एक शिखर के विपूर्णन की भाँति श्राभासतः गति हीन है; किन्तु इसे चेतना से निर्भर रखता है। संक्षेपतः यह मूर्ति प्रचेतनतया अपने शरीर की सुध भित्तियों के भीतर जीवन की धान्तरिक मानसह एम. ए., पीएच. डी. गति का मन करती है। वस्तुतः यह मूर्ति "प्रतिरूपीकृत सघात" है । यह दैहिक रूप भारतीय कला मे उन देवों के सत्य मानक के रूप मे सभी कालो मे प्रचलित रहा है, जिनमें संयम (जितेन्द्रियता) से प्राप्त संरचनात्मक किया की शक्ति का प्रदर्शन करना प्रभिप्रेत होता है, यथा उदाहरणार्थ, जिनों अथवा तीर्थङ्करो प्रथवा गहन तपस्या किं वा ध्यान में लीन देवों में । 1 हडप्पा से ही उपलब्ध दूसरी मूर्ति एक नर्तक की चुस्त प्रतिमा है, जिसकी विपर्सी वक्रताए एव प्रयास प्रदक्षित समताएं मानों नृत्य की गति के अनुसरण के श्रनन्त व्यापार मे एक ही स्थान में परस्पर-ग्रथित हैं । इस मूर्ति का परिमाण प्रक्ष के चारो मोर केवल सम रूप मैं सविभक्त ही नहीं है अपितु इसको शारीरिक गतियों से उत्पन्न स्थान के भीतर ही समस्थलों के प्रतिच्छेदों मे भलीभाँति संतुलित भी है। शारीरिक गतियाँ इतने सुचारु रूप मे अभिव्यक्त की गई है कि वे इस घड़ के स्थान तथा परिमाण के एकक को अभिभूत कर लेती हैं । दूसरे शब्दों में यह एक स्थान में बीकृत रेखाओं एवं समस्थलों को मूर्ति है। यह तथा पूर्वतः वर्णित धन्य स्थिर मूर्ति भारतीय मूर्ति कला के दो विशिष्ट रूपो का प्रतिनिधित्व करती है; एक तो शरीर की सुघट भित्तियों के भीतर जीवन की अचेतन गति का प्रङ्कन करने वाली और दूसरी उसी गति द्वारा घिरे हुए स्थान के भीतर संकल्प के कार्य द्वारा सम्पाद्यमान शरीर को बाह्य गति का चित्रण करने वाली । इन दोनों ही मूर्तियों का काल लगभग २४००-२००० ई० पू० है । नृत्यरत मूर्ति के शिर ( एक अथवा एकाधिक ), भुजाओं तथा प्रजननाङ्ग पृथ रूप से खोदे गये थे घोर पढ़ के बरमे द्वारा किये गये छेदों में उन्हें स्थापित किया गया था। टांग टूट गई हैं। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६., २४,कि.४ अनेकान्त स्तनाप पृथक रूप से काटे गये थे और संश्लेषण-सामग्री केप्रति पूर्णतया निमुक्त दैहिक अंगों द्वारा प्राध्यात्मिकता द्वारा स्थर किये गये। नाभि चषकाकार है। बायें उरु. नियन्त्रित शक्ति एवं सर्जनात्मिका क्रिया से मानवता को भाग पर एक छेद किया गया है। दूसरी स्थिर मूर्ति यह पाठ पढ़ाती हैं कि अहिंसा ही मानवीय दुःखों के लिए "अप स्थित" के भाव में एक सुपुष्ट युवा को प्रस्तुत एकमात्र निदान है [हिसा परमोधर्मः] । चूंकि हड़प्पा करती है, जिसमें मांसपेशी वाले प्रदेशों का चित्रण साव- की मूर्ति ठीक उपरिवणित विशिष्ट मुद्रा में है, इसलिए धान निरीक्षण, शैली के संयम एव पृथुता के साथ किया इसमें चित्रित देवकी यदि हम तीर्थकर अथवा एक यश गया है, जो मोहनजोदड़ो की उत्खात मुद्रामों की एक तथा तप की महिमा [तपो महिमा] से मण्डित जैन उल्लेखनीय विशेषता है । नत्यरत मूर्ति इतनी अधिक तपस्वी से अभिन्न मान ले तो गलत न होगा। यद्यपि सजीव एवं अभिनव है कि मोहनजोदड़ो मृति-समदाय इसके वक्त-२४००-२०००ई० पू०-के विषय मे कुछ की मृत नियम-निष्ठता से उसकी कोई संगति नहीं पुरातत्त्ववेत्ताओं में मतभिन्य है, मोहनजोदड़ो से उपबैठती । यह महालिंगी प्रतीत होती है जो इस लब्ध कुछ मिट्टी की बनी मूर्तियों तथा कुछ खुदी हुई सुझाव को बल प्रदान करता है कि यह पाश्चा- मुद्रानों पर किये गये चित्रणों से इसे भिन्न करने वाला त्कालिक नटराज-शिव के नत्यरत रूप-के आदि कोई भी शैलीगत तत्त्व नहीं है। इस प्रसंग में, इस मूर्ति रूप का प्रतिनिधित्व कर सकती है। सभी कलासमी- के विषय में सर मोटिमेर व्हीलर के अपने 'इण्डस वैली क्षको ने यह घोषणा की है कि अपनी विशुद्ध सरलता सिविलजेशन' [कैम्ब्रिज हिस्टरी ऑफ इण्डिया, १९५३), एव भावना के कारण, जिनमें कि इन दोनों श्रेष्ठ कृतियों पृष्ठ ६६, पर प्रकाशित विचार उद्धरणीय है :की कोई भी तुलना नही, इनका निर्माण हेल्लास के "ये दो मतियां, जो सुरक्षित रूप मे ऊँचाई में ४" महान युग से पूर्व का नहीं है। से भी कम ही है, नर धड है जिनमे प्रतिमान की उस "अग्र-स्थिति" के भाव में विद्यमान प्रस्तर-प्रतिमा संवेदनशीलता एवं जीवटता का प्रदर्शन है जो उपरिप्राचीन भारतीय कला के विषय से एक प्राथमिक सत्यता विचारित कृतियो म सर्वथा अनुपलब्ध है। उनकी विशेषकी भी स्थापना करती है, अर्थात यह कि भारतीय कला ताएँ इतनी अधिक अमाधारण है कि इस ममय सिन्धुको जडें उतनी ही दृढ़तापूर्वक प्रकृति मे जमी हुई है काल के साथ उनके सम्बन्ध के प्रामाण्य के विषय में कुछ जितनी कि वे इसके सामाजिक वातावरण तथा इसकी सन्देह अवशिष्ट रहना चाहिए। दुर्भाग्यवश उनके अन्वेमलौकिक उत्पत्ति मे भलीभांति सस्थित है। यह एक षणो द्वारा प्रयुक्त तकनीकी विधियां ऐसी नही थीं जिनसे युगपदेव जितेन्द्रियता द्वारा उपलब्ध, बहिविक्षेप के लिए कि सन्तोषजनक स्तर प्रमाण प्राप्त हो सकें; और ये नही बल्कि अन्तर्दष्टि जन्य शान्ति के लिए उपयोगी बल कथन कि उनमे से एक, नतंक [की मूति], हडप्पा में तथा सरचनात्मक क्रिया के समग्र गुणों से समन्वित देव अन्न भण्डार-स्थल पर प्राप्त हुई थी तथा दूसरी उसी का अकन करती है। यह वस्तुत: वही चीज है जिसे हम सामान्य क्षेत्र में घरातल से "४'-१०" "नीचे उपलब्ध जैन देवों तथा तीर्थकरों से सम्बद्ध पाते है. जिनकी मैसूर ई. स्वयं में अन्तर्भेदन की भावना का बहिष्कार नहीं में श्रवण बेलगोल, कार्कल तथा वेणूर स्थानों पर उप. कर पाते है। किसी परवर्ती काल से सम्बद्ध कर देना भी लब्ध विशालकाय प्रतिमाएं लोगों का ध्यान आकर्षित कठिनाई से मक्त नहीं है, और सन्देह का समाधान तो करती हैं। मैसुर मे श्रवणबेलगोल में उपलब्ध जैन तीर्थ- केवल इसी प्रकार की प्रागे होने वाली तथा प्रोर अधिक करों तथा बाहबली मावि जैन तपस्वियों की विशालकाय पर्याप्त रूप मे तथ्यबद्ध तुलना के योग्य खोजों से ही हो प्रतिमा दैहिक प्रयास द्वारा प्राप्त जितेन्द्रियता से, अहिंसा के सकता है।" रेशमी वाद्वारा तथा मौलिक एवं जन्मजात स्थिति की यद्यापि, सर व्हीलर के उपसंहारात्मक टिप्पणों से यह निन्त नग्नता में जलवाय तथा नातु की करोग्तानों स्पष्ट है कि इस मति को किसी परवर्ती काल से सम्बद्ध Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरप्पा तथा जन धर्म करना उतना ही पधिक कठिन है जितना कि इसके लिए "रुद्र प्राणियों का पधिपति है।" तृतीय सहस्रामि ई. पू. की पूर्ववर्ती तिथि का निषेध मोहनजोदडो मुद्रा की ऋग्वेद से प्राप्त उपरिनिर्दिष्ट करना । अवसर इस प्रकार समान है। व्याख्या के प्रालोक मे वर्णनान्तर्गत मूर्ति की पहचान चलिए अब हम वर्णनान्तर्गत मूर्ति के विषयीगत ऋग्वेद के संकेत द्वारा सरल हो जानी चाहिए। मई, तथा विषयगत मूल्यों को निर्धारित कर लें। इसका जन तथा जुलाई के महोनों में प्रफगानिस्तान के लिए विषयीगत मूल्य तो पहले ही देख लिया है। यह एक पुरातात्विक अभियात्रा का नेतृत्व करते हुए, इस लेख मान देव की है जो सुनिमित पृष्ठ भाग से मुक्त कन्धों के लेखक को युमान् चुप्राङ (६००-६५४ ई.) के लेखों तथा सुस्पष्ट दैहिक अंगों से युक्त प्रप-स्थिति के तत्व के सत्यापन के अवसर प्राप्त हुए, जिनके पफगानिस्तान में सीषा खा है, जिससे यह अभिव्यक्त होता है कि तथा अन्य क्षेत्रों में की गई यात्रा के विवरण विविधता प्रतिमाम-संघात में जीवन की गति एक सुनियमित तथा तथा वैज्ञानिक एवं मानवीय मभिरुचि के तथ्यपरक लेख सुनियन्त्रित सुहाट्य क्रम में हो रही है। नियन्त्रण के है। उनका होसिना गजनी प्रथवा गजना, हजारा अथवा साप शिश्न-मुद्रामों की संगतियाँ एक जिन [इनिप- होसाला का वर्णन मत्यधिक महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं, विजेता की धारणा को बल देती है। इसके विरोध में, "यहां अनेक तीर्थक नास्तिक हैं, जो शुन देव की भाराकोई व्यक्ति मोहनजोदड़ो से प्राप्त तृतीय सहस्राब्दि ई. धना करते हैं।" "जो उसका श्रद्धापूर्वक माह्वान करते पू० की उस खुदी हुई मुद्रा' का अध्ययन कर सकता है हैं उनकी मनोकामनामों की पूर्ति हो जाती है। दूर तथा जिसमें मनुष्यों प्रादि मत्या, गैण्डा, महिष, व्याघ्र, हाथी, निकट दोनों ही प्रकार के स्थानों के लोग उसके प्रति गहन कूरग, पक्षी तथा मत्स्य आदि जन्तुग्रो के मध्य ध्याना- भक्ति-भावना का प्रदर्शन करते हैं। उच्च तथा निम्न वस्था में बैठे हुए रुद्र-पशुपति-महादेव का चित्रण समान रूप से उसके धार्मिक भय से प्राप्लावित है ।... किया गया है और जिसमे उत्थित [उर्ध्व-रेयस् ] का अपने मन के दमन तथा प्रारमयातना द्वारा तीर्थक स्वर्ग प्रदर्शन सर्जनात्मिका क्रिया की उर्वगामिनी शक्ति की की शक्तियो से पुनीत सूत्र प्राप्त करते है, जिनसे वे रोगो अभिव्यक्ति के लिए किया गया है। मोहनजोदडो मुद्रा पर नियन्त्रण करते है और रोगियों को रोग-मुक्त कर मे प्रदृष्ट, इस देव के प्रतिमा-विज्ञान की पूर्ण व्याख्या देते है।" शुन देव (शुन अथवा शिश्न देव) सम्भवतः ऋग्वेद को निम्न ऋचापो से हो जाती है : कोई तीर्थकर अथवा तीर्थपुर अथवा उनके अनुयायी थे, २. ब्रह्मा देवानां पदवीः कवीनां ऋषिविप्राणां जिन्होने अहिंसा के सन्देश के लिए जैनधर्म के देवकुल महिषो मुगाणां। को दीप्तिमान किया। युमान् चुपाङ् का लेख अफश्येनो गधानां स्वधितिर्वनाना सोमः पवित्र गानिस्तान में भी जैनधर्म के प्रसार का साक्षी है । बुद्ध प्रत्येति रेभन् ॥ ६६६६ के जीवन वृतान्त में हम यह पढ़ते है कि बुद्ध के विरोधियो "देवो मे ब्रह्मा, कवियों का नेता, तपस्वियो का मे ६ प्रमुख प्रथवा तीर्थक थे-पुप्राण, कस्साय, गोसाल, ऋषि, पशुप्रो मे महिष, पक्षियों में बाज, ग्रायुधो मे कच्चायण, निगन्थ नाथपुत्त तथा सञ्जय । हम गोसाल परश, सोम गाता हुमा छलनी के ऊपर से जाता है।" में प्राजीविक पन्थ के गोसाल तथा निगम्थ नाथपुत्त में २. त्रिषाबडो वषभो रोरवीति महोदेवो मानाविवेश ।। अन्तिम एवं २४वें जैन तीर्थकर महावीर की पहिचान ऋ० ४१५८३ कर सकते है। प्रतः शुन देव के रूप मे युमान् चुप्राङ् "त्रिधा बद्ध वृषभ पुनः पुनः रम्भा रहा है-महादेव कृतदेव का वर्णन इस बात की पोर सकेत करता है कि पूर्णतया मयों में प्रविष्ट हो गया।" वे सम्भवतः नग्न देव जैन तीर्थङ्कर की भोर सकेत कर ३. रुद्रः पशूनामषिपतिः । रहे हैं, क्योकि तीर्थक शब्द तीर्थकरों प्रथवा तीर्घरों को १. कैम्ब्रिज हिस्टरी प्रॉफ इण्डिया, १९५३, प्लेट २३ । ही योतित करता है। अफगानिस्तान में जैनधर्म का Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२, बर्व २४ कि. ४ अनेकान्त प्रागमन निश्चय ही एक देवी ज्ञानोद्घाटन है। काय मूर्तियों में अमर बना दिया गया है-में एक पूर्ण शुन देव शब्द सम्भवतः शुन प्रयया शिन या शिश्न जैन तीर्थङ्कर को पहिचान रहे हैं। हडप्पा अथवा देव शब्द के लिए प्रयुक्त है। ऋग्वेद तक पीछे पहुँनने मोहनजो-दडो के युग जैसे प्राचीन काल (तृतीय सहस्राब्दि पर हम पाते है कि ऋग्वेद शिश्न देवों के रूप मे नग्न ई० पू०) मे कायोत्सर्ग सदृश एक पश्चात्कालिक जैन देवों की पोर दो मन्त्रो में संकेत करता है, जिन मे नग्न प्रतिमा सम्बन्धी सुघट्य मुद्रा के दर्शन करके किसी को देवों (शिश्न देवों) से वैदिक यज्ञों की रक्षा के लिए इन्द्र आश्चर्य हो सकता है । निश्चय ही, एकमात्र नितान्त का आह्वान किया गया है : नम्नता तथा अहिंसा के मूल मत जैन सिद्धान्त के अवगमम १. न यातव इन्द्र जूजवर्नो न वन्दना शविष्ठ वेद्याभिः । के लिए सम्पूर्ण भौतिक चेतना के प्रान्तरिक उत्सर्ग की सशर्षों विषुणास्य जन्तोर्या शिश्नदेवा अपिग धारणाएं ही ऐसी एक मुद्रा की प्रेरक हो सकती हैं। ऋतं नः ।। ७।२२।५ हड़प्पा में उपलब्ध, वर्णनान्तर्गत मूर्ति में हम यही मुद्रा "हे इन्द्र ! हमें किम्ही बुरी शक्तियों अथवा राक्ष- पाते हैं। इस प्रकार इस विचारधारा में एक सातत्व सियों ने प्रेरित नहीं किया है। हे शक्तिमान देव ! अपने एवं एकत्व विद्यमान है भोर मूर्ति में कोई भी अन्य साधनों द्वारा हमारा सत्य देव शत्रुनों के भशिष्ट जन- प्रतिमा-विज्ञान सम्बन्धी बातें ऐसी नहीं मिलती जो भ्रम सम्मदं का दमन करे । नग्न देव (शिश्न देव) हमारे उत्पन्न करें प्रयवा हमें (इस धारणा से) विमुख कर पवित्र यज्ञ अथवा पूजा तक न पहुँचें।" सकें। नग्न मुद्रा अपने देव महादेव रुद्र> पशुपति के २. स वा यातापदुष्पदा यन्त्स्वर्षाता परिषदत्सनिष्यन् । उर्व मेड़ के रूप में-ऐसी मुद्रा जिसे हम मोहनजोदड़ो मनर्वा यग्छतदुरस्य वेदो नञ्छिश्नदेवा अभिवपसाभत की सेलखड़ी की मुद्रा में चित्रित पाते हैं-किए गए १०६३ वैदिक वर्णन के सर्वथा विरोध में स्थित है (कैम्ब्रिज "सर्वाधिक मङ्गल मार्ग पर वह (इन्द्र) युद्ध के लिए माफ इण्डिया, २६५३, प्लेट २३)। जाता है । उसने स्वर्ग की ज्योति प्राप्त करने के लिए २४ जैन तीर्थङ्करों का कालक्रम का इतिहास तथा परिश्रम किया, जिसकी प्राप्ति से पूर्ण प्रानन्द की प्राप्ति उनकी क्रमागतता हड़प्पा की मूर्ति को काल के मार्ग में होती है। उसने सौ द्वारों से युक्त दुर्ग की निधि को अवरोध नही हैं। तीर्थङ्करों की वर्तमान सूची (वर्तमान कौशल द्वारा, बिना रोके हुए, नग्न देवों (शिश्न देवों) तीर्थङ्कर) के अन्तर्गत २४ है, जिनमे हमें मालूम है कि को (इस कार्य में) मारते हुए ग्रहण की।" महावीर बुद्ध के समसामयिक थे, जो छठी शताब्दी ई. मैक्डॉनल, अपने वैदिक माइथोलाजी, पृष्ठ १५५, पृ० मे हए । २३वे तीर्थकर पाश्वनाथ महावीर से १०० में कहते है कि शिश्न देवों की पूजा ऋग्वेद के लिए घृणा वर्ष से अधिक पहले हए, और २२वे तीर्थङ्कर नेमिनाथ का विषय थी। इन्द्र से शिश्न देवों को वैदिक यज्ञों में महाभारत के यशश्वी पाण्डवो के सखा भगवान कृष्ण के आने देने के लिए प्रार्थना नही की गई है, इन्द्र के विषय पितृव्यज थे । मोटे तौर से गणना करने पर भी भगवद्में कहा गया है कि उसने शिश्न देवों का उस समय वध गीता के भगवान कृष्ण के समकालिक नेमिनाथ के लिए किया जबकि उसने १००द्वारों वाले एक दुर्ग मे गुप्त हमें हवीं शताब्दी ई०पू० जैसा एक काल प्राप्त होता खजानों को चोरी-छिपे देखा। है। पाण्डवों की गतिविधियों को दोला, मेरठ के समीप ये दो ऋचाए हमारे समक्ष इस सत्य को प्रकाशित स्थित हस्तिनापुर मे सम्पन्न हुपा है। अभी हमे क्रमाकरती हैं कि सम्भवतः हम हड़प्पा की मूर्ति में दैहिक गतता के क्रम में नेमिनाथ के पूर्ववर्ती २१वें तीर्थङ्कर को स्याग (कायोत्सर्ग) की विशिष्ट मुद्रा-जो एक ऐसी भी सकारण बतलाना है। यदि हम मानुपातिक रूप से मुद्रा है जिसे श्रवणबेलगोल, कार्कल, वेणूर प्रादि स्थानों प्रत्येक तीर्थर की तिथियों को पीछे खिसकाते जाएँ तो मेंजैन तीर्थंकरों तथा सिद्धों की पश्चात्कालिक विशाल- हम पाएंगे कि प्रथम तीर्थहर, जिन्हें वृषभदेव नाम से Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरप्पा सपान पर्व मी पुकारा जाता है, तृतीय सहस्रादि ई.पू.केपन्तिम बात है कि इसके सम्बन्ध में कोई विवाद नहीं हो सकता, चरण के प्रवेशद्वार पर स्थित हैं। वर्णनान्तर्गत मति का क्योंकि जैन धर्म का यह केन्द्रीभूत सिद्धान्त है कि नितान्त समय पालोचकों ने २४००-२००० ई० पू० के मध्य नग्नता पवित्रता का एक अनिवार्य तत्त्व है । यदि ऋग्वेद निश्चित किया है। जैन धर्म के प्रवर्तक, प्रथम तीर्थकर वैदिक देवों में से एक देव इन्द्र की सहायता का शिश्न पादिनाथ का वृषभ नाम से युक्त होना भी महत्वपूर्ण है, यो अति न क्योकि ऋग्वेद की ऋचामों में इस बात की भावत्ति को माह्वान करता है तो यह मुस्पष्ट है कि ऋग्वेद केवल एक गई है कि एक महान देव के पागमन को अन्तर्भत करने ऐतिहासिक तथ्य को इतिहास-बद्ध कर रहा है, अर्थात् बाल महान् सत्यों की उदघोषणा का कार्य वषभ ने ही वृषभदेव सदश जैन धर्म की विचारित तथा प्रवेशित सम्पादित किया : उत्पत्ति वैदिक यज्ञों से सम्बद्ध पशयज्ञों का मन्त करने त्रिषा बखो वृषभ रोरवीति महो देवो मानाविवेश ॥ के अभिप्राय के साथ हुई। सबके विश्वास को प्राप्त करने तथा मानवता को अपने सन्देश के प्रति विश्वासवषभदेवापरनामा प्रादिनाथ द्वारा वैदिक यज्ञों तथा यक्त करने के लिए प्रथम तीर्थकर ने वस्त्र फक डाले भार पशुपति के प्रति सर्वथा विरोध की भावना से एक नये इस प्रकार स्वयं तथा अपने अनुयायियों को दहिक या धार्मिक मत की स्थापना जैन धर्म के जीवन काल में हुई (कायोत्सर्ग) के साथ प्रारम्भ होने वाले प्रात्मयज्ञ के प्रथम मूलभूत घटना है। बाद की घटनाओं तथा मादि- प्रति शभ्र प्रकाश के लिए अनावृत कर दिया। दूसरे नाथ के अनुयायियों-तीर्थङ्करों तथा सिद्धों ने उनके तीर्थङ्करों ने इस सिद्धान्त को स्थायित्व प्रदान किया, मत को एक दृढ़ चक्र-अहिंसा के चक्र-पर स्थापित इसकी प्रानन्दप्रद कहानी जैन धर्म की सेवा में रत किया और उसे गति प्रदान की; काल तथा स्थान में भारतीय कला मानवता के समक्ष प्रस्तुत करती है । प्रत. अपनी गति के साथ-साथ उसने विदलयो (electric एवं वर्णनान्तर्गत मूर्ति जैन धर्म के इस विचार का, coils) की भांति शक्ति प्राप्त की तथा वातारण को सम्भवतः इसके बिल्कुल प्रारम्भ के समय का एक शानको "अहिंसा परमो धर्मः" की गंज से भर दिया। दार प्रतिनिधि नमूना है। वृषभदेव का नग्नत्व एक इतनी अधिक सुविदित अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्स' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत को प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shree लाचार्य परमानन्द जैन शास्त्री लाचार्य -- यह द्रविगण के मुनियों में मुख्य ये । भोर जिन मार्ग की क्रियाओं का विधि पूर्वक पालन करते थे । पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों से संरक्षित थे । उनका विधिपूर्वक भाचरण करते थे'। यह दक्षिण देश के मलय देश में स्थित 'हेम' नामक ग्राम के निवासी थे। उनकी एक शिष्या कमलश्री थी, जो समस्त शास्त्रों की ज्ञाता - श्रुत देवी के समान विदुषी थी। एक बार कर्मवशात् उनकी शिष्या को ब्रह्मराक्षस लग गया। उसकी महती पीड़ा को देखकर हेलाचार्य 'नीलगिरि' पर्वत के शिखर पर गये। वहां उन्होंने 'ज्वालामालिनी' की विधिपूर्वक साधना की। सात दिन में देवी ने उपस्थित होकर हेलाचार्य से पूछा कि क्या चाहते हो ? मुनि ने कहा, मैं कुछ नहीं चाहता । केवल कमल श्री को ग्रह मुक्त कर दीजिये । तब देवी ने एक लोहे के पत्र पर एक मंत्र लिख कर दिया और उसको विधि बतला दी। इससे उनकी शिष्या ग्रह मुक्त हो गई। फिर देवी के प्रदेश से उन्होंने 'ज्वालिनीमत' नामक ग्रंथ की रचना सम्भवतः प्राकृत भाषा में की । लाचार्य से वह ज्ञान उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव, बीजाव, शान्तिरसब्बा आर्यिका और favaट्ट क्षुल्लक को प्राप्त हुआ। तथा क्रमागत १. द्रविडगण समय मुख्यो जिनपति मार्गोपचित क्रिया पूर्णः । व्रत समितिगुप्तिगुप्तो हेलाचार्यो मुनिर्जयति ॥ १६ २. 'दक्षिणदेशे मलये हेनप्रामे मुनिर्महात्मासीत् । लाचार्यो नाम्ना द्रविडगणाधीश्वरो घोमान् ॥' ' तच्छिष्या कमलश्रीः श्रुतदेवी वा समस्त शास्त्रज्ञा । सा ब्रह्म राक्षसेन गृहिता रौद्रेण कर्मवशात् ॥ ' जेनग्रंथ प्र० सं० गुरु परिपाटी और श्रविच्छिन्न सम्प्रदाय से प्राया हुमा मंत्रवाद का यह ग्रंथ कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दि मुनि के लिये व्याख्यान किया । इन दोनों ने उस शास्त्र का व्याख्यान ग्रन्थतः और अतः इन्द्रनन्दी के प्रति कहा। तब इन्द्रनन्दि ने उस प्राचीन कठिन ग्रन्थ को अपने मन में अवधारण करके ग्रन्थपरिवर्तन (भाषा परिवर्तनादि) के साथ ललित प्रार्या और गीतादि छन्दों में श्रौर साढ़ेचार सौ श्लोकों में उसकी रचना की । इन्द्रनन्दिने इसकी रचना शक सं० ८६१ ( ई० सन् ६३६ और वि. सं. १६) राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के राज्य में मान्यखेट के कटक में प्रक्षय तृतीया को की" । पोन्नर की कनकगिरि पहाड़ी पर बने हुये प्रादिनाथ के विशाल जिनालय में जैन तीर्थंकरों और अन्य देवताओं की मूर्तियाँ हैं । उनमें एक मूर्ति ज्वालामालिनी देवो की है। उसके प्राठ हाथ हैं । दाहिनी भोर के हाथों में मण्डल, अभय, गदा और त्रिशूल हैं। तथा बाईं ओर के हाथों में शंख, ढाल, कृपाण और पुस्तक है। मूर्ति की प्राकृति हिन्दुनों की महाकाली से मिलती-जुलती है । पोन्नूर से लगभग तीन मील की दूरी पर नीलगिरि नाम की पहाड़ी है, उस पर हेलाचार्य की मूर्ति अंकित है । ३. अष्टशतस्यैकषष्ठि (८६१ ) प्रमाण शक संवत्सरेष्वतीतेषु । श्रीमान्यखेट कटके पर्वण्यक्षय तृतीयायाम् ॥ शतदलसहित चतुःशत परिमाणग्रंथ रचनया युक्तं । श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मतं देव्याः ॥ ४. 'जयताद्देवी, ज्वालामालिन्युद्य त्रिशूल - पाशभषकोदण्ड-काण्ड-फल- वरद-चक्र चिन्होज्वलाऽष्टभुजा || " ५. See Jainism in South India P. 47 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर भो बलभद्र जैन [माणकल 'पावा' के सम्बन्ध में विवाद उठ खड़ा हुमा है, कि भगवान महावीर का परिनिर्वाण पावा में हमा है । श्वेताम्बरीय कल्पसूत्र के अनुसार वह मध्यमा पावा है, जो वर्तमान में निर्वाणभूमि माली माली है। परन्तु कुछ लोग केवल बौद्धप्रन्थों के प्राधार पर महावीर की निर्वाण भूमि पावाको पहरोना या सठियांव में मानने के लिए बाध्य कर रहे हैं। परन्तु अभी तक ऐसे कोई ठोस प्रमाण उपस्थित नहीं हुए हैं। जिनसे उत्तरप्रदेश वाली पाबा को मान्यता दी जा सके। ऐसी स्थिति में विद्वान लेखक ने प्रस्तुत नियम में इस पर सप्रमाण विचार किया है। पाशा है विद्वान उस पर गहराई से विचार करेंगे। प्रोर निर्वाणमि पाबा के सम्बन्ध में ऐतिहासिक ऐसे ठोस प्रमाण प्रस्तुत करेंगे, जिनसे पावा-सम्बन्धि विवाद समाप्त हो जाय और वस्तुस्थिति पर यथार्थ प्रकाश पर सके। सिवनेत्र-पावापुर अत्यन्त पवित्र सिरक्षेत्र है। देवतारक्तचन्दनकालागुरुसुरभिगोशीय: ॥१८॥ यहाँ पर अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर ने निर्वाण अग्नीन्द्राग्जिनदेहं मकुटानलसुरभिपवर मास्पैः। प्राप्त किया था। प्राचार्य यतिवृषभ ने "तिलोयपण्णसी' पम्पयं गणधरानपि गता दिवंबनभवने ॥१९॥ में इस सम्बन्ध में लिखा है कि : मर्थात् वह मुनिराज महावीर कमल वन से भरे हुए 'कातियकिण्हे बोद्दसिपच्चसे साविणामणक्खते। और नासा वृक्षों से सुशोभित पात्रा नगर के उद्यान में पावाए णयरीए एपको वीरेसरो सितो।।४।१२०८॥ कायोत्सर्ग ध्यान में प्रारूद हो गये । उन्होंने कार्तिक कृष्ण भगवान वीरेश्वर (महावीर) कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के अन्त मे स्वाति नक्षत्र में सम्पूर्ण प्रवशिष्ट कर्म कलंक के दिन प्रत्यूषकाल मे स्वाति नक्षत्र के रहते पावापुर से का नाश करके अक्षय, अजय पौर अमर सौरव्य प्राप्त अकेले ही सिद्ध हुए। किया । देवतानों ने जैसे ही जाना कि भगवान का निर्वाण . प्राकृत 'निर्वाण भक्ति' में प्रथम गाथा मे निम्न पाठ हो गया, वे अविलम्ब वहाँ पर पाये और उन्होंने पारिमाया है जात, रक्त चन्दन, काला गरु तथा अन्य सुगन्धित पदार्थ 'पावाए णिन्दो महावीरो' अर्थात् पावा में महावीर पोर धूप, माला एकत्रित किये। तब अग्निकुमार देवों के का निर्वाण हुआ। इन्द्र ने अपने सुकुट से अग्नि प्रज्वलित करके जिनेन्द्र प्रभु सस्कृत 'निर्वाण भक्ति' मे भगवान महावीर के की देह का सस्कार किया तब देवों ने गणधरों की पूजा निर्वाण के सम्बन्ध में विस्तृत सूचना उपलब्ध होती है की और अपने-अपने स्थान पर चले गये । जो इस भाति है : ___ इसी सस्कृत निर्वाण भक्ति मे इसी सम्बन्ध में एक 'पवनवाधिकाकुलविविध मखण्डमण्डिते रम्ये। श्लोक और भी दिया गया है :पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ॥१६॥ 'पावापुरस्य वहिरुन्तभूमिवेशे, कातिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षो निहत्य कमरजः । पोत्पला कुलवता सरसां हि मध्ये। अवशेष सम्प्रापदम्पनरामरमायं सोख्यम् ॥१७॥ श्री वर्धमान जिनदेव इति प्रतीतो परिनितं जिनमहात्वा विबुधा दयाशु चागम्य । निर्वाण माप भगवान्प्रविधुतपाम्पा ॥२४॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पावपुर नगर के बाहर उन्नत भूमि खण्ड (टीले) समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वरं पर कमलों से सुशोभित तालाब के बीच में निष्पाप वर्ष जिनेन्द्रनिर्वाण विभूतिभक्तिभाक् ।२०। मान ने निर्वाण प्राप्त किया। भगवान महावीर भी निरन्तर सब प्रोर के भव्य प्राचार्य जिनसेन ने 'हरिवंश पुराण' में भगवान के समह को संबोधित कर पावा नगरी पहुँचे और वहां के निर्वाण का जो वर्णन दिया है, उससे एक विशेष बात पर 'मनोहरोद्यान' नामक वन में विराजमान हो गये । जब प्रकाश पड़ता है कि उस समय देवतानों और मानवों ने चतुर्थकाल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास बाकी रहे, तब अधकारपूर्ण रात्रि में जो दीपालोक किया था, उसी की स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमास्या के दिन प्रात:काल के स्मृति में प्रतिवर्ष 'दीपावली मनाई जाती है। प्राचार्य समय स्वभाव से ही योग निरोध कर घातिया कर्मरूपी ने 'हरिवश' की रचना शक सं० ७०५ (ई० सन् ७८४) हुन्धन के समान प्रधातिया कर्मों को भी नष्ट कर बन्धन में की थी। इतनी प्राचीन रचना में इस प्रकार का रहित हो ससार के प्राणियों को सुख उपजाते हुए निरन्तउल्लेख प्राप्त होना ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्व- राय तथा विशाल सुख से रहित निर्बन्ध-मोक्ष-स्थान को पूर्ण है और उससे महावीर-निर्वाण के समय जो स्थिति प्राप्त हए। गर्भादि पाँच कल्याणको के महान अधिपति, थी, उसका चित्र हमारे समक्ष स्पष्ट हो उठता है । पुराण- सिद्धशासन भगवान महावीर के निर्वाण महोत्सव के समय कार का मूल उल्लेख इस प्रकार है : चारो निकाय के देवों ने विधिपूर्वक उनके शरीर की 'जिनेन्द्रवीरोऽपिविबोध्य सन्ततं पूजा की। उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम् । हई देदीप्यमान दीपको की पक्ति से पावानगरी का प्रपद्य पावानगरी गरीयसी का प्राकाश सब ओर से जगमगा उठा। उस समय से मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥६६।१५।। लेकर भगवान के निर्वाण कल्याण की भक्ति से युक्त चतुर्थकालेऽचतुर्थमासके. संसार के प्राणी इस भारत क्षेत्र में प्रति वर्ष प्रादर पूर्वक . विहीनताविश्चतुरम्दशेषके । प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा सकातिके स्वातिषु कृष्णभूत करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात उन्हीं की स्मृति में सुप्रभात सन्ध्यासमये स्वभावतः ।।१६। दीपावली का उत्सव मनाने लगे। प्रघातिकर्माणि निल्योगको प्राचार्य वीरसेन विरचित 'जयधवला' टीका में भवविधूय घातीन्धनवद्विबन्धन । वान महावीर के निर्वाण के प्रसग में निर्वाण स्थान के विबन्धनस्थानमवाप शंकरो स्थान के साथ उनकी मुनिःप्रवस्था की काल गणना भी निरन्तरायोरुसुखानुबन्धनम् ।।१७॥ दी है :स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः 'पासा णूणतीसं पंच य मासे य वीस दिवसे य । प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुविधः । चउविह अणगारे हि पदारह दिणेहि (गणेहि) शरीर पूजाविधिना विधानतः विहरित्ता ।।३०।। सुरैः समभ्ययंत सिद्धशासनः ।।१८॥ पच्छा पावाणयरे कत्तिय मासस्स किण्ह चोद्दसिए । ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सादीए रत्तीए सेसरय छेत्तु णिवायो ।।३।। सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया। ___ जयघवला भाग १, पृ० ८१ तवा स्म पावानगरी समन्ततः २६ वर्ष ५ मास और २० दिन तक ऋषि, मुनि, प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥१६॥ यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों और १२ ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात गणों अर्थात् सभानों के साथ विहार करके पश्चात् भगवान प्रसिद्ध दीपालिकयात्र भारते। महावीर ने पावा नगर में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर स्वाति नक्षत्र के रहते हुए रात्रि के समय शेष अघाति- सरण विजित हो गया है, ऐसे भगवान योगनिरोध कर कर्मरूपी रज को छेदकर निर्वाण प्राप्त किया। मुक्त हुए। प्राचार्य गुणभद्र कृत 'उत्तरपुराण मे महावीर निर्वाण श्वेताम्बर प्रागम और महावीर निर्धारण के मन्दर्भ को प्राय अन्य प्राचार्यों के समान हो निबद्ध श्वेताम्बर प्रागमों में भी महावीर निर्वाण के सम्बन्ध किया है, किन्तु इममे अन्यो से साधारण अन्तर है। अन्य में दिगम्बर परम्परा की मान्यता का ही प्राय: समर्थन प्राचार्यों के अनुसार भगवान महावीर एकाकी मुक्त हुए मिलता है। जो अन्तर है, वह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। थे किन्नु उत्तरपुगणकार के अनुसार भगवान के साथ दिगम्बर परम्परानुसार भगवान का निर्वाण कार्तिक कृष्ण एक हजार मुनि मुक्त हुए थे। वह इस प्रकार है : चतुर्दशी को रात्रि के अन्तिम प्रहर मे हुप्रा और अमावस्या 'इहान्त्यतीथनाथोऽपि विहृत्य विषयान् बहुन् ॥७६।५०८॥ को उनके मुख्य गणघर को केवलज्ञान हमा। श्वेताम्बर क्रमात्पावापुरं प्राप्य मनोहरवनान्तरे । परम्परा मे भगवान का निर्वाण और गौतम गणधर को वहूनां सरसां मध्ये महामणिशिलातले ॥७६५०६।। केवल ज्ञान दोनों घटनाये अमावस्या को हुई। स्थित्वा विनद्वयं वीत-विहारो वृद्धनिर्जरः । __'कल्पसूत्र" मे महावीर के निर्माण का विस्तृत वर्णन कृष्णकातिकपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ॥७६१५१०।। मिलता है। उससे पावापुर के सम्बन्ध में भी विशेष स्वातियोगे तृतीयेश शुक्लध्यानपरायणः । जानकारी प्राप्त होती है। वह उद्धरण यही दिया जा कृतात्रियोग संरोषः समुच्छिन्नक्रिय श्रितः ॥७६।५११॥ हताधातिचतुष्क: सन्नशरोरो गुणत्मकः । 'तत्थ णं जे से पावाए मज्झिमाए हत्थिवालस्य गन्ता मनि सहस्रण निर्वाणं सर्ववांछितम् ॥७६।५१२॥ रन्नो रज्जुगसभाए अपच्छिम अंतरावासं उवागए (इन्द्रभूति गणधर राजा श्रेणिक को भविष्य के संबंध । तस्स णं अंतरावासस्स जे से वासाणं चउत्थे मासे मे बताते हुए कहते है कि-) भगवान महावीर भी बहुत सत्तमे पक्खे कत्तिय बहले सस्स णं कत्तियवहलस्स से देशो में विहार करेंगे। अन्त में वे पावापुर नगर में पन्नरसी पक्खेणं जा सा चरिमारयणि तं रयणि पहुँचेंगे। वहाँ के मनोहर नामक वन के भीतर अनेक चणं समणे भगवं महावीरे कालगये विइक्कते सरोवरों के बीच में मणिमयो शिला पर विराजमान होगे। विहार छोड़कर निर्जरा को बढाते हुए वे दो दिन समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधण सिद्धे बुद्धे मुत्ते तक वहाँ विराजमान रहेंगे और फिर कार्तिक कृष्ण चतु अंतगडे परिनिव्वुडे सव्वदुक्खपहीणे चदे नाम से दशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय स्वाति नक्षत्र में । दिवसे उवसमि त्ति पवच्चइ देवाणंदा नाम सा अतिशय देदीप्यमान तीसरे शुक्ल ध्यान में तत्पर होंगे। रयणी निरइ त्ति पवुच्वइ अच्चेलवे मुहुत्ते पाणू तदनन्तर तीनो योगो का निरोध कर समुच्छिन्न क्रिया छन्न क्रिया थोवे सिद्धे नागे करण सव्वट्ठसिद्धे मुहुत्ते साइणा प्रतिपाती नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यान को धारण कर चारों नक्खत्तण जोगमुवागएणं कालगए विइक्कते जाव प्रधातिया कर्मों का क्षय कर देगे और शरीर रहित केवल सव्वदुक्खप्पहाण ॥१२३॥ अर्थ-भगवान अन्तिम वर्षावास करने के लिए गुण रूप होकर एक हजार मुनियो के साथ सबके द्वारा मध्यम पावा नगरी के राजा हस्तिपाल की रज्जुक सभा वाछिनीय मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे। मे रहे हुए थे। चातुर्मास का चनुर्थ मास और वर्षा ऋतु प्रशग कवि द्वारा विरचित 'महावीर-चरित्र' मे का सातवां पक्ष चल रहा था अर्थात् कार्तिक कृष्ण प्रमाभगवान के निर्वाण समय का जो वर्णन दिया गया है, वस्या पाई। अन्तिम रात्रि का समय था। उस रात्रि को उसका प्राशय यह है : _ 'भगवान विहार करके पावापुर के फूले हुए वृक्षों १. श्री अमर जैन पागम शोध संस्थान सिवाना (राज.) की शोभा से सम्पन्न उपवन में पधारे। जिनका समव से प्रकाशित पृ० १९८ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८, वय २४, कि०४ अनेकान्त श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को प्राप्त हुए । संसार पाठ-प्रहर का प्रोषवोपवास करके वहाँ रहे हुए थे । को त्याग कर चले गये। जन्म-ग्रहण की परम्परा का उन्होंने यह विचार किया कि भावोद्योत प्रांत ज्ञानरूपी उच्छेद कर चले गये। उनके जन्म जरा, और मरण के प्रकाश चला गया है अतः अब हम द्रव्योद्योन करेगे अर्थात् सभी बन्धन नष्ट होगये। भगवान सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगये दीपावली प्रज्वलित करेंगे ॥१२७।। सब दुःखों का अन्त कर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । कल्पसूत्र के इस विवरण से कई महत्वपूर्ण बातों पर महावीर जिस समय कोलधर्म को प्राप्त हए, उस प्रकाश पड़ता है-(१) भगवान महावीर का निर्वाण समय चन्द्र नामक द्वितीय सवत्सर चल रहा था। प्रीति- राजा हस्तिपाल की नगरी पावापुरी में हुषा था । (२) वर्षन मास नन्दिवर्धन पक्ष, अग्निवेश दिवस (जिसका भगवान के निर्माण के समय वहाँ पर मल्लगण संघ के नौ, दूसरा नाम 'उवसम' भी है) देवानन्दा नामक रात्रि (जिसे लिच्छवि गण संघ के नौ और काशी-कोशल के अठारह निरइ भी कहते हैं)। प्रर्थनामक लव, सिद्धनामकस्तोक, राजा (गण संस्थागार के सदस्य) विद्यमान थे। (३) नाग नामककरण, सर्वार्थसिद्धि नामक मुहूर्त तथा स्वाति उस घोर अन्धकाराच्छन्न रात्रि में देवी-देवताओं के कारण नक्षत्र का योग था। ऐसे समय भगवान कालधर्म को तो प्रकाश था ही, उन राजानों ने द्रव्योद्योत किया। प्राप्त हुए, वे ससार छोड कर चले गये। उनके सम्पूर्ण (४) तथा यह पावा मध्यम पावा कहलाती थी। दुःख नष्ट हो गये।" इस महत्वपूर्ण विवरण के पश्चात् विस्तार सख्या भगवान के निर्वाण-गमन के समय अनेक देवी-देव- १४६ में इसी सत्र में यह भी कथन किया गया है कि तामो के कारण प्रकाश फैल रहा था। तथा उस समय इस प्रवपिणी काल का दुषम-सुषम नामक चतुर्थ पारा अनेक राजा वहा उपस्थित थे और उन्होने द्रव्यो द्योत बहुत कुछ व्यतीत होने पर तथा उस चतुर्थ पारे के तीन किया था, इसका वर्णन करते हए कल्पत्रकार कहते है- वर्ष और साढ़े पाठ महीना शेष रहने पर मध्यम पाबा 'ज रयणि च णं समणे भगवं महावीरे कालगए नगरी मे हस्तिपाल गजा की रज्जुक सभा में एकाकी, जाव सव्वदुक्खप्पहीणे साणं रयणी वहि देवेहि षष्ठम तप के साथ स्वाती नक्षत्र का योग होते ही, प्रत्यूष य देवेहि य प्रोवयमाणेण य उपयमाणेहि य उज्जो- काल के समय (चार घट का रात्रि अवशेप रहने पर विया यावि होत्या ।।१२४॥ पद्मासन से बैठे हा भगवान वल्याण फल-विपाक के 'ज रयीण च णं समणे जाव सव्वदक्खप्पहीणे पचपन अध्ययन, और पाप फ7 विप.क के दूसरे पचपन तं रणि च ण नव मल्लइ नव लिच्छई कासी- अध्ययन, और अपृष्ट अर्थात् किसी के द्वारा प्रश्न न किये कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो अमावसाए जाने पर भी उनके समाधान करने वाले छत्तीस अध्ययनो पाराभोयं पोसहोववास पवइंसु, गते से भाव. को कहते-कहते काल धर्म को प्राप्त हुए।' ज्जोए दव्वज्जोव करिस्सामो ॥१२७।। इस विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवान अर्थ-जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर काल- निर्वाण के समय राजा हस्तिपाल की सभा में थे। वहीं धर्म को प्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःखपूर्ण रूप से उपदेश करते-करते उनका निर्वाण होगया। इससे एक नष्ट हो गये, उस रात्रि में बहुत से देव और देवियाँ अन्य निष्कर्ष यह भी निकलता है कि भगवान समवसरण नीचे पा जा रही थी; जिससे वह रात्रि खूब उद्योतमयी के बिना भी उपदेश करते थे । यदि राजा हस्तिपाल की हो गई थी ।।१२४।। उम सभा (सस्थागार। मे ही देवतानों ने समवसरण की जिस रात्रि में श्रमण भगवान महावीर कालधर्म को रचना कर दी थी तो भगवान के निर्वाण-काल तक समप्राप्त हुए, यावत् उनके सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो गये, उस वसरण था, इसका विसर्जन नही हुमा था पोर न भगवान रात्रि में नौ मल्लसघ के, नौ लिच्छवि संघ के पौर ने अन्तिम समय में योगों का निरोध ही किया था। वे काशी-कोशल के पठारह गणराजा अमावस्या के दिन बोलते ही बोलते मुक्त होगये थे। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर १६६ इससे प्रागे के विस्तार मे कल्पपत्र का रचना काल होगा, भगवान ने गौतम से कहा-'गौतम ! दूसरे गांव दिया गया है । और यह काल वीर निर्वाण स० ६८० मे देवशर्मा ब्राह्मण है। उसको तू संबोष मा। तेरे भथवा ६६३ था। कारण उमे ज्ञान प्राप्त होगा।' प्रभु के प्रादेशानुसार प्राचार्य हेमचन्द्र कृत "त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र' गौतम वहाँ से चले गये। के महावीर स्वामी चरित भाग के सर्ग १२ मे भगवान भगवान का निर्वाण हो गया। इन्द्र ने नन्दन प्रादि महावीर के अन्तिम काल का वर्णन किया गया है। उसमें वनों से लाये हर गोशीर्ष, चन्दन प्रादि से चिता चुनी। लिखा है कि भगवान विहार करते हुए अपापा नगरी क्षीर सागर से लाये हुए जल से भगवान को स्नान कराया, पहुँचे (जगाम भगवान्नगरीमपापाम् ।। (सर्ग १२ श्लोक दिव्य अगराग सारे शरीर पर लगाया। विमान के आकार ४४०) । वहाँ भगवान की देशना के लिए इन्द्रो ने सम- की शिविका में भगवान की मत देह रक्खी। उस समय वसरण की रचना की। भगवान ने जान लिया कि अब तमाम इन्द्र और देवी-देवता शोक के कारण रो रहे थे । मेरी प्रायु क्षीण होने वाली है, अतः अन्तिम देशना देने देवता आकाश से पुष्प-वर्षा कर रहे थे । तमाम दिव्य बाजे के लिए वे समवसरण मे गये । अपापापुरी के अधिपति बज रहे थे। शिविका के आगे दवियाँ नृत्य करती चल हस्तिपाल को जब ज्ञात हुआ कि भगवान समवसरण मे रही थी। पधारे है, तो वह भी उपदेश सुनने वहा गया । वहा इन्द्र श्रावक और श्राविकाये भी शोक के कारण रो रहे ने प्रश्न किया। उसका उत्तर देते हुए भगवान का उपदेश थे । और रासक गीत गा रहे थे। साधु और साध्विया भी हुमा । जब उपदेश समाप्त हो गया, तब मण्डलेश पुण्य- शोकाकुल थे। पाल (हस्तिपाल?) ने अपने देखे हुए स्वप्न का फल पूछा। तब इन्द्र ने अत्यन्त शोकाकुल हृदय से भगवान का भगवान ने उसका फल बताया। फल सुनकर पुण्यपाल शरीर चिता पर रख दिया। अग्निकूमारो ने चिता में ने मुनि-दीक्षा लेली और तप द्वारा कर्मों का नाश करके प्राग लगाई । वायुकुमारों ने प्राग को हवा दी । देवतामों मुक्ति प्राप्त की। ने धूप और घी के सैकड़ों घड़े चिता मे डाले। शरीर के तदनन्तर मुख्य गणधर गौतम स्वामी ने भगवान से जल जाने पर मेघकूमार देवो ने क्षीर समुद्र के जल की उनके निर्वाण के अनन्तर होने वाली घटनाग्रो के बारे मे मनोनिता कोशात । Hai rur की पूछा। भगवान ने कल्कि, नन्दवंश आदि के बारे मे बताया दो दाढ़े सौधर्म और ऐशान इन्द्रों ने ली और नीचे की तथा अवसपिणी की समाप्ति तथा उत्सपिणी का प्रवर्तन, दोनों दाढ़े चमरेन्द्र और वलीन्द्र ने लीं । अन्य दांत मौर भावी प्रेसठ शलाका पुरुष मादि के बारे मे भी भगवान हड्डियां दूसरे इन्द्रों और देवों ने लीं। पौर मनुष्यों ने ने बताया। चिता-भस्म ली। जिस स्थान पर चिता जलाई, उस स्थान तत्पश्चात् सुधर्म गणघर ने पूछा-केवलज्ञान प्रादि पर देवों ने रत्नमय स्तूप बना दिया। इस प्रकार देवतामों का उच्छेद कब होगा? इस प्रश्न के बहाने भाचार्य ने वहां भगवान का निर्वाण-महोत्सव मनाया।" हेमचन्द्र ने भगवान के नाम पर जम्बू स्वामी से लेकर स्थूलभद्र भोर महागिरि, सहस्ती तक की श्वेताम्बर वीर भगवान को निरिण-भूमि और वर्तमान पावा भाचार्य परम्परा का वर्णन कर दिया है। दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थों के उपयुक्त विवरण इसके बाद भगवान समवसरण से निकल कर हस्ति- के अनुसार भगवान महावीर का निर्वाण कार्तिक कृष्णा पाल राजा की शल्कशाला में पधार । भगवान ने यह चतुर्दशी के अन्तिम प्रहर में पावापुर मे हुआ था । निर्वाण जान कर कि आज रात्रि में भरा निर्वाण होगा, गौतम के समय इन्द्र पौर देवो के अतिरिक्त वहाँ पर वैशाली का मेरे प्रति अनेक भयो से स्नेह है और उसे अाज रात्रि गणसघ के नौ राजा, काशी-कोशल के अठारह राजा और के अन्त मे केवल ज्ञान होगा, मेरे वियोग से वह दुखी मल्ल गणसघ के नौ राजा तथा असंख्य जन-समूह उप Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त स्थित था। उस मन्धकार भर रात में देवो ने रत्न दीप बाद भी आज तक प्रचलित है। और उसका प्रयोग भूतसजोये और मनुष्यो ने दीपावली जलाई। किन्तु भगवान काल में साहित्य, शिलाभों और मूर्तियों आदि के लेखो मे का निर्माण चूंकि प्रत्यूष काल में हुआ था, अतः जनता स्वतत्रता के साथ किया जाता रहा है। ने अमावस्या की रात में दीपावली जला कर निर्वाण- दीपावली पर पश-पक्षियो, देवी-देवताओं, मनुष्यमहोत्सव मनाया । उसी की स्मृति सुरक्षित रखने के लिए स्त्रियों के मिट्री और चीनी के खिलौने बनाये जाते है। प्रतिवर्ष उनके भक्त जन पावापुरी में प्राकर और जो स्त्रियाँ दीवालो पर. अाँगन मे अथवा द्वार पर चित्रकारी वहाँ नही पा सकते वे अपने अपने घरो में दीपावली का करती है। मिट्टी की हटरियाँ बनाई जाती है, ये सब करती अर्थात् निर्वाण कल्याणक का उत्सव मनाते थे । चतुर्दशी अपने में भगवान के निर्वाण से पूर्व की समवसरण सभा को छोटी दीपावली और अमावस्या को बड़ी दीपावली में और निर्वाण के अवसर पर एकत्रित हुए देवी-देवताओ, मनाने का कारण वही है जो ऊपर लिखा जा पशु-पक्षियो और नर-नारियो की स्मति मुरक्षित रक्खे __जैनधर्म में अध्यात्म की प्रधानता है। प्रात्मा की उस काल में भगवान ने प्रात्म-शद्धि की और सम्पूर्ण जन्म-मरण से मुक्ति हो आत्मा का सबसे बड़ा काम्य है, कर्म-मल को दूर करके आत्मा की प्रात्यन्तिक निर्मलता वही साध्य है । जिन्होने इस काम्य और साध्य की सिद्धि प्राप्त की। इसी प्रकार गौतम गणधर ने घातिया कर्मों कर ली है, वे ससारी जनों के लिए प्रात्मकल्याण के मार्ग का विनाश करके जो प्रात्म-शोधन किया, उससे उनकी में प्रेरक स्रोत रहे है। उनकी स्मृति और पूजा का उद्देश्य प्रात्मा अनन्त ज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठी। किन्तु कोई ऐहिक कामना नहीं है, अपितु प्रात्म-कल्याण की जिनकी दृष्टि मे बहिर्मुखता है, उन्होने इन घटनामो की प्रेरणा प्राप्त करना है। यह भी एक सयोग ही था कि प्रमा स्मृति तो सुरक्षित रक्खी, किन्तु उसको रूप दिया वस्या के प्रारम्भ से कुछ पूर्व भगवान को निर्वाण प्राप्त भौतिक । अतः बाहरी सफाई, शुद्धि होने लगी, दीपावली हा और उसी दिन उनके मुख्य गणघर इन्द्र ___ जलने लगी। उन अवसगे पर उपस्थित प्राणियो के प्रतिभूति गौतम को केवलज्ञान प्राप्त हुग्रा । निर्वाण और रूप खिलौने बनने लगे। धीरे-धीरे इस आध्यादिमक घटना ज्ञान की उपमा प्रकाश से दी जाती है। अतः ऐसा भी पर भौतिकता का मुलम्मा चढने लगा । आत्मा की प्रात्यविश्वास किया जाता है कि प्रात्मा की अन्तरंग ज्योति न्तिक मुक्ति और प्रात्यन्तिक ज्ञान की प्राप्ति से व दोनो का प्रतीकात्मक बहिरंग प्रदर्शन दीपकों के प्रकाश से किया गया था। दोपकों की प्रावलियाँ जलाई गई। प्रात्मा श्रीसम्पन्न हुई थी, उससे हमारे मन में उनके प्रति अतः इस धामिक दिवस का नाम ही दीपावली' पड़ श्रद्धा तो प्रकुरित हुई किन्तु भौतिक दृष्टि के कारण हमने उस श्री को भौतिक लक्ष्मी बना दिया और हम उस गया। लक्ष्मी और गणनायक या गणेश की उपासना-पूजा करने इस महत्वपूर्ण धार्मिक घटना की स्मृति सुरक्षित लगे, जिनका हमारे प्राध्यात्मिक जीवन में कोई स्थान रखने के लिए जनता ने दो कार्य किये-प्रथम तो इस नही है। किन्तु हमे यह बात अत्यन्त कृतज्ञता के साथ दिन प्रतिवर्ष दीपावली (छोटी दिवाली और बडी स्वीकार करनी होगी कि भगवान महावीर के निर्वाणोदिवाली) मनाने लगी। दूसरे उस दिन से नया सवत् त्सव की स्मृति में ही 'दीपावली' पर्व प्रचलित हुआ और मनाने लगी। ऐतिहासिक महापुरुषो मे महावीर के नाम पर जो निर्वाण सवत् प्रचलित हुघा, उससे प्राचीन कोई प्राज वह प्रान्त, भाषा, जाति और वर्ण के भेद के बिना सारे भारत का राष्ट्रीय पर्व या त्योहार माना जाता है। अन्य सवत् नही है। कलि-संवत् अथवा युधिष्ठिर संवत् । के बारे मे कुछ उल्लेख मिलते है। किन्तु उनका प्रचलन जिस स्थान पर भगवान का निर्वाण हुआ था, वहाँ नही रहा। किन्तु महावीर निर्वाण सवत ढाई हजार वर्ष प्रब एक विशाल सरोवर बना हुमा है। इस तालाब के Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर सम्बन्ध में जनता में एक विचित्र किम्बदन्ती प्रचचित है। करते थे तथा यहा जो धर्मशाला है, उसमें ठहरते थे। कहा जाता है कि भगवान के निर्वाण के समय यहाँ भारी जल-मन्दिर के बाहर एक 'समवसरण मन्दिर' है । जन-समूह एकत्रित हुपा था। प्रत्येक व्यक्ति ने इस पवित्र इसमे भगवान महावीर के प्राचीन चरण विराजमान है। भूमि की एक-एक चुटकी मिट्टी उठाकर अपने भाल मे इस प्रकार इस क्षेत्र पर पहले ये दो मन्दिर और श्रद्धापूर्वक लगाई थी। तभी से यह तालाब बन गया। धर्मशाला थी। इन सब पर दोनो सम्प्रदाय वालों का यह भी कहा जाता है कि यह सरोवर पहले चौरासी समान अधिकार था। किन्तु श्वेताम्बर समाज के व्यवहार बीघे में फैला हुआ था । किन्तु आजकल यह चौथाई मील के कारण दिगम्बर समाज को पृथक् धर्मशालाग्रो और लम्बा और इतना ही चौडा है। सरोवर अत्यन्त प्राचीन मन्दिरों का निर्माण करना पड़ा। अब जल मन्दिर और प्रतीत होता है। इसके मध्य मे श्वेत सगमरमर का जैन समवसरण मन्दिर पर तो दर्शन-पूजन की दृष्टि से दिगमन्दिर है जिसे जल मन्दिर कहते है। इसमें भगवान के म्बगे और श्वेताम्बरो के समान ही अधिकार है तथा पाषाण चरण विराजमान है। मन्दिर तक जाने के लिए बस्ती बाले मन्दिर में भी दिगम्बर जैन दर्शनो को जा तालाब में उत्तर की ओर एक पुल बना हुआ है। जिसके सकते है। दोनो ओर बिजली के बल्व लगे हुए है। रात्रि में जब जल-मन्दिर के निकट ही 'पावापुरी सिद्ध क्षेत्र दि. बिजली का प्रकाश होता है और उसका प्रतिबिम्ब जल जैन कार्यालय' है। वहाँ पर सात दिगम्बर जैन मन्दिगे मे पडता है तो दृश्य बड़ा सुन्दर प्रतीत होता है। जिस का समूह है। इसमे बड़ा मन्दिर सेठ मोतीचद पेमचदजी टापू पर मन्दिर बना हुप्रा है, वह १०४ वर्ग गज है। इम शोलापुर वानों को और में निर्मित हया और उसकी पुल का निर्माण एक दिगम्बर जैन बन्धु स्व० हीगलाल प्रतिष्ठा वि०म० १६५० में हुई थी। इसमें भगवान छज्जलाल जी प्रयाग वालो ने कराया था। इस पर से महावीर की मूलनायक प्रतिमा है जो दयनवर्ण की ३॥ मन्दिर में जाकर सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर जैन बन्धु फुट अवगाहना की है। भगवान के चरणो की वन्दना करते है। ____ इस मन्दिर के अतिरिक्त शेष ६ कार्यालय मन्दिरो इम गगेवर मे नाना वर्ण के कमल है। विविध वर्ण में से दो मन्दिरो का निर्माण सेठ मोतीचद खेमचद जी के खिले हुए कमल-पुप्पो के कारण सरोवर की शोभा शोलापुर ने तथा चार का निर्माण (१) श्रीमती जगपत अदभुत लगती है। पुष्पो पर सौरभ और रम के लोभी वीवी धर्मपत्नी स्व. लाला हरप्रसाद जी प्राग (२) भ्रमर गुजार करते रहते है। तालाब में मछलियाँ और वा. हरप्रसाद जी (३) लाला जम्बप्रसाद प्रद्युम्न कुमार सर्प किलोल करते रहते है। कौतुक प्रेमी लोग मछलियों जी सहारनपुर तथा (४) श्रीमती अनूपमाला देवी मातेको जब भोज्य पदार्थ जल मे डालते है, उस समय उन श्वरी वा० निर्मलकुमार चन्द्रशेखरकुमार जो प्राग मछलियो की परस्पर छीना-झपटी और क्रीडा देखने वालों ने कराया। इन सातों मन्दिरो में प्रतिमाओं की लायक होती है। संख्या लगभग १०० है। जिसमे धातु और पापाण की इस स्थान का प्राचीन नाम अपापापुरी (पुण्यभूमि) प्रातमाय और चरण सभी सम्मिलित है। था। यहाँ का प्राचीन मन्दिर पूरी बस्ती में बना हमा है। कार्यालय के साथ ही धर्मशाला है जिसमे दोनो मजिसभवतः पहले पावापुरी नामसे एक गाँव था। किन्तु न जाने लों मे ६१ कोठरियां व एक नौबतखाना है। इसके अतिकबसे पावापुरी पावा और पुरी इन दो गाँवोमे विभक्त हो रिक्त एक नई धर्मशाला उक्त धर्मशाला के पीछे बन गई गई है। इसमे लगभग एक मील का अन्तर है। जैन तीर्थ पुरी में है, पावा मे नही है। कुछ वर्ष पूर्व तक जल . दिगम्बर जैन कार्यालय के अधीन निम्नलिखित सम्पत्ति हैमन्दिर पर समान अधिकार था। दोनो जन सम्प्रदाय वाले (१) मौजा सिलौथा, मौजा केशर सुन्दरपुर वैताड़ी, भगवान के चरणों का दर्शन-पूजन अपनी मान्यतानुसार मौजा विसुनपुरा दियारा ये तीन मौजे मारा जिले मे Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२, वर्ष २४, कि० ४ भनेकान्त येतीनों रायबहादर सेठ टीकमचन्द भागचन्द जी अजमेर विविध तीर्थंकल्प का प्रपापा बृहत्कल्प मादि-पावा के वालों की ओर से मय खर्चा १०३६५।।1-) मे खरीदे स्थान पर मध्यमा पावा और पापा इन दो नामों का गये थे। प्रयोग मिलता है। भगवान महावीर इस नगरी में दो (२) मौजा दशरथपुर मे टोपरा नग १७ साढ़े चार बार आये । संभव है, वे यहाँ अनेक बार पधारे हों। किन्तु बीघे धान के खेत खरीदे गये । दो महत्त्वपूर्ण घटनाये इस नगरी में घटित हुई थी, इस (३) रथ पिड वाली जमीन लगभग चार बीघा है। लिए इस नगर में भगवान के दो बार आगमन की चर्चा (४) बिहार शरीफ में स्टेशन के पास लहरी मुहल्ला (श्वे० सूत्रों मे) विशेष उल्लेखनीय है। स्थित कोठी है। पास ही शिखरवन्द दिगम्बर जैन मदिर प्रथम वार भगवान केवलज्ञान की प्राप्ति के अगले है, जिसमे धर्मशाला और कुपा है । ही दिन पधारे। ऋजुकूला नदी के तट पर अवस्थित (५) पावापुरी मे धर्मशाला के भीतर और बाहर दो जम्भिक ग्राम के बाहर साल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला १० को भगवान को केवलज्ञान उत्पन्न हुमा । इन्द्रो और वार्षिक मेला-यहाँ पर कार्तिक वदी १३ से १५ तक देवों ने भगवान के ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया। वार्षिक मेला होता है । कई हजार व्यक्ति निर्वाणोत्सव किन्तु समवसरण मे केवल इन्द्र मोर देवता ही उपस्थित मनाने यहाँ पाते है । इस अवसर पर रथयात्रा होती है। थे। अतः विरति रूप संयम का लाभ किसी प्राणी को नही भगवान का रथ दिगम्बर धर्मशाला से चलकर जल मदिर हो सका। यह पाश्चर्यजनक घटना जैनागमो में 'प्रछेरा' होते हुए गाव के बाहर जाता है। वहां मण्डप में कलशा- (प्राश्चर्यजनक या अस्वाभाविक) नाम से प्रसिद्ध है। भिषेक होता है। उन दिनों मध्यमा पावा मे-जो जम्भक गाव से लगक्षेत्र का प्रबन्ध भा० दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के भग बारह योजन (४८ कोस) दूर थी-सोमिलाचार्य ब्राह्मण अन्तर्गत बिहार प्रान्तीय दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी करती बड़ा भारी यज्ञ रचा रहा था। उसमें बड़े-बडे विद्वान् देश देशान्तरों से पाकर सम्मिलित हुए थे। भगवान ने यह पावा को वास्तविक स्थिति सोचा कि यज्ञ में आये हुए विद्वान ब्राह्मण प्रनिबोध पायेगे भगवान महावीर की निर्वाण भूमि अब तक विहार और धर्म के आधारस्तम्भ बनेगे, अत: वहा चलना ठीक शरीफ से सात मील दक्षिण-पूर्व में और गिरियक से दो रहेगा। यह विचार कर भगवान ने सन्ध्या समय बिहार मील उत्तर में मानी जाती थी किन्तु जब पुरातत्व वेत्ताओ कर दिया और गन भर चलकर मध्यमा के महासेन उद्यान और इतिहासकारों ने यह सिद्ध किया कि पावा-जहाँ में पहुँचे। एकादशी का इसी उद्यान में भगवान का दूसरा महावीर का निर्वाण हुमा वह-नालन्दा की निकट बाली समवसरण लगा । भगवान का उपदेश एक पहर तक हमा। पावा नहीं, अपितु कुशोनारा की निकटवर्ती पावा है, तब भगवान का ज्ञान और लोकोत्तर उपदेश को चर्चा सारी विद्वानों का ध्यान पावा को सही स्थिति जानने के लिए नगरी मे होने लगी। सोमिल के यज्ञ में पाये हुए इन्द्रभूति गया । पावा कहाँ थी, वह कौन सी पावा थी, इसका नि- प्रादि ११ विद्वानो ने यह चर्चा सुनी । वे ज्ञान मद मे भरे र्णय करने के लिए हमे जैन और बौद्ध वाङ्मय के उन हुए अपने शिष्यों और छात्रो के साथ भगवान के पास साक्ष्यों का अन्तः परीक्षण करना आवश्यक है, जिनमे पावा पहुँचे । उनका उद्देश्य भगवान को विवाद में पराजित का उल्लेख मिलता है । इनके अतिरिक्त पुरातत्व सामग्री कर अपनी प्रतिष्ठा में चार चाद लगाना था । किन्तु वहाँ और शिलालेख से भी-यदि कोई हो तो इस सन्दर्भ में जाकर उनका मद विगलित हो गया। उन्होंने भगवान के सहायता मिल सकती है। चरणों में विनयपूर्वक नमस्कार किया और दीक्षा ले ली। श्वेताम्बर साहित्य में पावा-श्वेताम्बर सूत्रों और इस प्रकार मध्यमा के समवमरण में एकही दिन मे ४४११ ग्रन्थों में-कल्पसूत्र, मावश्यक नियुक्ति, परिशिष्ट पर्व, ब्राह्मणों ने भगवान के चरणों में नतमस्तक होकर श्रमण Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर १७३ धर्म अंगीकार कर लिया। भगवान ने उन ग्यारह विद्वानों प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई । श्वेताम्बर वाङ्मय के उपर्यक्त को अपना मुख्य शिष्य बना कर उन्हे गणघर पद से विभू- उल्लेखो से पावा की वास्तविक स्थिति पर भी प्रकाश षित किया । अन्य भी अनेक नर-नारियो ने भगवान का पडता है । चतुर्विध संघ-स्थापना के प्रकरण मे मध्यमा उपदेश सुनकर मुनि-व्रत या श्रावक के व्रत लिये । भगवान (पाबा) को जम्भक गाव मे १२ योजन दूर माना है। ने वैशाख शुक्ला ११ को मध्यमा पावा के महामेन उद्यान तथा निर्वाण की घटना के प्रकाश मे यह बताया है कि मे साधु-साध्वी-श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध संघ की भगवान चपा से अपापा पुरी पहुँचे । इस प्रकरण मे भगग्यापना की। वान के बिहार का क्रम इस प्रकार दिया है-चपा नगरी इस नगरी मे दुमरी महत्वपूर्ण घटना भगवान के मे चातुर्मास पूर्ण कर के भगवान विचरते हुए जभिय गाव निर्वाण की है । भगवान चपा से बिहार करते हुए अपापा पहुँचे । वहाँ मे मिढिय होते हुए छम्माणि गये । यहीं पर पधारे । इस वर्ष का वर्षावास अपापा मे व्यतीत करने का ग्वाले ने भगवान के कान में कार के कीले ठोंके थे । निश्चय करके भगवान राजा हस्तिपाल को रज्जुग सभा में छम्माणि से भगवान मध्यमा पधारे । मध्यमा से विचरते पहुँचे और वही वर्षा-चातुर्मास की स्थापना की । इस हुए जम्भियगाव माये, जहा उन्हे केवल ज्ञान हुआ। केवलचातुर्मास मे दर्शनो के लिए पाये हए राजा पूण्यपाल ने ज्ञान के बाद वे पुनः मध्यमा प्राये, जहां गौतमादि को भगवान से दीक्षा ली। कातिक अमावस्या के प्रात: काल अपन। गणधर बनाया। वहाँ से भगवान राजगृह गये। राजा हस्तिपाल के रज्जुग सभा-भवन में (कही इसे राजा वहाँ पर चातुर्माम करके भगवान न गजगह से विदेह की हस्तिपाल की शुल्क शाला भी लिखा है) भगवान की ओर विहार किया और ब्राह्मण कुण्ड पहुँचे। अन्तिम उपदेश-सभा हुई । उस सभा में अनेको गण्यमान्य प्राचीन भारत के नक्शे को देखने से और भगवान के व्यक्ति उपस्थित थे। उनमें काशी-कोशल के १८ लिच्छ उपयुक्त विहार-क्रम को दृष्टि में रखने पर यह पता चल वियो के नौ और मल्लो के नौ गणराजा उल्लेखनीय थे । सकता है कि भगवान चपा से मध्यमा पावा होते हए राजभगवान ने अपने जीवन की समाप्ति निकट जानकर गृह गये और वहाँ से वैशाली गये, तब असली पावा कहाँ अन्तिम उपदेश की अखण्ड घाग चाल रक्खी, जो अमाव- हाना स्या की पिछली गत तक चलती रही । अन्त में प्रधान यहाँ हम यह स्पष्ट कर देना आवश्यक समझते है कि नामक अध्ययन का निरूपण करते हए अमावस्या की पावा क सम्बन्ध में विवाद का कारण क्या है। पावा नाम पिछली रात को भगवान सब कर्मों से मुक्त हो गये। के नगर कई थ (१) उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में भगवान के निर्वाण पर उक्त गणराजाओं ने कहा-संसार कुशीनारा के पास कोई पपउर को पावा मानते है. कोई से भावप्रकाश उठ गया, अब द्रव्य प्रकाश करेंगे। यह पडरौना का और कोई फाजिल नगर के निकट सठियांव निश्चय करके उन्होने रत्नदीप जलाये । कालक्रम से उनके को। (२) दूसरी पावा राजगह के निकट विहार शरीफ स्थान पर अग्नि दीप जलाये जाने लगे । इस प्रकार इस से आग्नेय कोण मे सात मील दूर, जिसे जैन लोग अपना लोक मे दीपावली प्रचलित हई । गौतम स्वामी-जो उस तीर्थ मानते है । (३) तीसरी पावा हजारीबाग और ममय भगवान की प्राज्ञा से निकटवर्ती गांव में देवशर्मा मानभूम प्रदेश मे थी और उसकी राजधानी थी। ब्राह्मण को उपदेश करने के लिए गये हुए थे, वे लौटकर पहली पावा मल्ल गणगज्य की राजधानी थी। महा. भगवान की वन्दना के लिए वापिस पाये। तब उन्होने वीर के काल मे मल्ल जनपद भी तीन थे । प्रथम मल्ल देश देवतामो को यह कहते हुए सुना-'भगवान कालगत हो वह कहलाता था, जिसे प्राजकल मुल्तान जिला (पश्चिमी गये।' उन्हे तत्क्षण केवलज्ञान होगया । पाकिस्तान) कहा जाता है। एलेक्जेण्डर के मतानुसार पावापुरी (जिसे मध्यमा, मध्यमा पावा और अपापा यहां के निवासी मल्ल कहलाते थे और महाभारत (सभापरी भी कहा जाता है। इन दो घटनामों के कारण अत्यन्त पर्व, अध्याय ३२) के अनुसार मालव कहे जाते थे। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ वर्ष २४, कि० ४ मुल्तान इस जनपद की राजधानी' थी। महाराज रामचन्द्र ने लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु' को यहां का राज्य दिया था । द्वितीय मल्ल जनपद वह कहलाता था, जिसमे पारसनाथ' की पहाडियां है : यह प्रदेश वर्तमान हजारीबाग और मानभूम जिलो के कुछ भाग से बनता था। पारसनाथ की पहाड़ियों को मल्ल पर्वत भी कहा जाता था । हिन्दू पुराणों और महाभारत ( भीष्म पर्व, श्रध्याय 8 ) में केवल दो ही मल्ल देशो का वर्णन मिलता है — एक पश्चिम मे और दूसरा पूर्व मे । कुशीनारा और पावा मे भी मल्ल लोग रहते थे । यह तीसरा मल्ल जनपद था । कसिया ( प्राचीन कुशीनगर ) मे जो ध्वसावशेष उपलब्ध होते है, उन्हें मल्ल सामन्तों, श्रेष्ठियों के महलों के अवशेष माना जाता है । प्राचीन भारत में मल्ल जनपदो की उपर्युक्त स्थिति के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि मुल्तान जिले वाले पश्चिमी मल्ल जनपद की राजधानी का नाम क्या था, यह तो स्पष्ट ज्ञात नही होता, किन्तु शेष दो मल्ल जनपदों की राजधानी पावा थी । तीसरी पावा इन दोनो के मध्य मेथी अतः वह मध्यमा अथवा मध्यम पावा कहलाती थी । जैन सूत्रागमो मे महावीर का निर्वाण मध्यमा पावा में माना है । इसी मध्यमा पावा का नाम आजकल पावापुरी है श्रीर उसे ही महावीर का निर्वाण क्षेत्र माना जाता है। प्रनेकान्त कुछ समय से पात्रा को लेकर एक विवाद उठ खड़ा हुया है। इस विवाद के कारण कई है - (१) पावा नामक कई नगरो के होने के कारण भ्रम उत्पन्न होना । ( २ ) वर्तमान पावापुरी मे प्राचीनता का कोई चिह्न न मिलना । (३) बौद्ध साहित्य के 'परिनिव्वाणसुत्त मे पावा मे बुद्ध को सुक्कर मद्दव खाने से प्रतिसार होना और इस तरह पावा की प्रसिद्धि होना । (४) पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा बौद्ध साहित्य के प्रकाश मे कुशीनारा के निकट पावा की खोज करना । ये और ऐसे ही अन्य छोटे बड़े कारण है, जिनके १. मि० कनिघम, आयलोजीकल सर्वे रिपोर्ट, पृ० १२६ । २. बाल्मीकि रामायण, उत्तर खण्ड, पर्व ११५ ३. McCrindle's Megasthenes and Arrian, p. P. 63, 139 कारण परम्परागत रूप से मान्य पाव रो क्षेत्र के स्थान पर उस पावा को मान्यता देने के लिए प्रयत्न हो रहा है, जिस पावा का सम्पूर्ण जैन साहित्य मे कहीं कोई वर्णन नहीं हैं । इसकी प्रेरणा कुण्डलपुर के स्थान पर भगवान महावीर की जन्म भूमि के रूप मे वैशाली को मान्यता मिलने से हुई है ऐसा लगता है। वैशाली के पक्ष मे प्रबल प्रमाण उपलब्ध थे, किन्तु कुशीनारा के निकट पावा को महावीर की निर्वाण भूमि मानने मे प्रमाण नही, नवीनता का व्यामोह और प्रत्यत्साह ही एक मात्र सम्बल है । बौद्ध साहित्य में पावा की स्थिति - बौद्ध साहित्य में अनेक स्थलो पर विभिन्न प्रसंगों मे पावा का उल्लेख मिलता है । उन प्रसंगों का यहाँ उल्लेख करना सचमुच ही उपयोगी होगा और उनसे हमे उस पावा का निर्णय करने में सुविधा रहेगी, जो वस्तुत महावीर भगवान की निर्वाण भूमि है । निर्वाण सवाद - १ ' एवं मे सुत । एकं समयं भगवा सक्केसु विहरति सामगामे । तेन खो पन समयेन निगण्ठो नातपुत्तो पावाय अधुना कालङ्घतो होति । तस्स कालङ्गिरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलह जाता विवादापन्ना प्रज्ञम मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरन्ति न त्वं इमं धम्मविनयं प्रजानासि । ग्रहं इमं धरमविनयं प्रजानामि । किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि मिच्छापटिपन्नो त्वमसि ग्रहमस्मि सम्मापटिपन्नो । ... ये पि निगण्ठस्स नातपुत्तस्स सावका गिही प्रदातवसना ते पि निगण्ठेसु नातपुत्तिगेसु निब्बिन्नरूपा विरत्तरूपा पटिवानरूपा यथा तं दुरवखाते धम्मविनये दुप्पवेदिते निय्यान के अनुपसमसंवत्तनिके असम्मा सम्बुद्धत्पवेदिते भिन्नरूपे अपरिसरणे । अथ खो चुन्दो समणुद्देसो पावायं वस्सं वुत्थो येन सामगामो येनायस्मा श्रानन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्क्रमित्वा श्रायस्मन्तं श्रानन्दं श्रभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि । एकमन्तं निसिन्नो खो चुन्दो समणुद्देशो श्रायस्मन्तं श्रानन्दं एतदवोच- 'निगण्ठो भन्ते नातपुत्तो पावायं श्रघुनाकालङ्कृतो । तरस कालङ्किरियाय Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुरी भिन्ना निगण्ठा धिकजाता...पे०.. भिन्नथूपे अप्प- सामगाम सुत्तन्त के समान) । टिसरणे' ति। एवं वुत्ते प्रायस्मा मानन्दो चुन्दं सम -दीर्घनिकाय, पासादिक सुत्त, ३/६ णसं एतदवोच- 'अत्थि खो इदं, पावसो चन्द, भगवान बुद्ध शाक्य देश मे शाक्यो के वेधजा नामक कथा पामतं भगवन्तं दस्सनाय । प्रायाम, प्रावुसो पाम्रवनप्रासाद में विहार कर रहे थ ।... चुन्द, येन भगवा तेनुपसङ्कमिस्साम । उपसङ्कमित्वा निर्वाण संवाद-३ एतमत्थं भगवतो आरोचेस्साम'ति । 'एव भन्ते' ति एव में मृत । एक समय भगवा मल्लेसु चारिक खो चन्दो समण प्रायस्मतो प्रानन्दस्स पच्च- चरमान: महना भिक्खुमडधेन सद्धि पञ्चमत्तहि भिक्खुस्सोसि । सतेहि येन पावा नाम मल्लान नगर नद वसरि । तत्र सुदं - मजिभाम निकाय, सामगाम मुत्तन्त ३/६/४ भगवा पावायं विहरति चुन्दस्म कम्मार पुत्तस्स एक वार भगवान (बुद्ध) शाक्य देश में सामगाम में अम्बवने ।...... विहार करते थे। निगंठ नातपत्त की कुछ समय पूर्व ही नन खो पन समयेन निगठोनाटपुत्तो पावायं प्रधुना पावा मे मृत्यु हुई थी। उनकी मृत्यु के अनन्तर ही निगठों कालङ्कतो होति । (शेष सामगाम मत्त के ममान) ।। मे फट हो गयी, दो पक्ष हो गये, वे कलह करते एक दूसरे -दोध निकाय, मगीतिपरयाय मुत्त ३/१०/२ को मुख रूपी शक्ति से छेदते विहार रहे थे-'तू इस एक समय पाचमौ भिक्ष प्रो के महाभिक्षु संघ के साथ धर्म विनय को नहीं जानता, मैं इस धर्म विनय को जानता भगवान मल्ल देश में चारिका करते, जहा पावा नामक हूँ, तू भला इस धर्म विनय को क्या जानेगा? तू मिथ्या- मल्लो का नगर है, वहाँ पहुँचे। वहाँ पावा में भगवान रूढ़ है, मै सत्यारूढ़ हूँ।' चुन्द करि पुत्र के पाम्रवन में विहार करते थे । (मल्लों निगण्ट नातपून के श्वेनवस्त्रधारी गृहस्थ शिप्य भी का उन्नत और नवीन सस्थागार उन्ही दिनो बना था। नातपुत्रीय निगंठो में वैसे ही विरक्त चित्त है, जैसे कि वे पावावामी भगवान बुद्ध से सस्थागार में पधारने की नानपुत्त के दुगख्यात (ठीक से न कहे गये), दुप्प्रवेदित प्रार्थना करने पाये। भगवान ने मौन रह कर अपनी (ठीक से साक्षात्कार न किये गये), अनर्याणिक (पार न स्वीकृति दे दी। तब भगवान अपने भिक्षुसंघ सहित लगाने वाले) अनुपशम सवर्तनिक (न शातिगामी), संस्थागार में पधारे और धर्म कथा कहकर पावावासियों असम्यक् सम्बुद्ध प्रवेदित (किसी बद्ध से न जाने गये), को सम्प्रहर्षित किया। जब पावावासी चले गये, तब प्रतिष्ठा (आधार) रहित, भिन्न स्तूप, आश्रय रहित धर्म भगवान ने शान्त भिक्षु-सघ को देख आयुष्मान् सारिपुत्त विनय में थे। को प्रामत्रित किया और उनसे भिक्षुत्रों को धर्मकथा चुन्द समणु स पावा मे वर्षावास समाप्त कर सामगाम सुनाने के लिए कहा ।) उस समय निगठ नाटपुत्त अभीमे प्रायुष्मान प्रानन्द के पास पाये और उन्हे निगण्ठ नात- अभी पावा मे काल को प्राप्त हुए थे। पुत्त की मृत्यु तथा निगठो मे हो रहे विग्रह को सूचना दी। निगंठ नातपुत्त को मृत्यु का कारणआयुष्मान् अानन्द बोले- ग्राघुस चुन्द ! भगवान के दर्शन 'नन अय नातपुत्तो नालन्दावासिको। सो के लिए यह बात भेट रूप है । प्रायो, पाबुस चुन्द ! जहाँ कस्मा पावाया कालकतो 'ति । सो किर उपाभगवान है, वहाँ चले । चलकर यह बात भगवान को कहे लिना गाहापतिना पटिबद्ध सच्चेन दसहि गाथाहि 'अच्छा भन्ते !' चुन्द समणुद्देस ने कह कर प्रायुष्मान भापिते बूद्ध गुणे सूत्वा उण्ह लोहितं छड्डेसि । अानन्द का ममर्थन किया। अथ नं प्रफासुकं गहेत्वा पावां अगमंसु । सा तत्थ निर्वाण सवाद -२ कालं अकासि ।' ___ एव मे सुत'। एक समय भगवा सक्के सु विहरतो -मज्झिम निकाय अट्ठकथा, सामगाम सुत्तवण्णना, वे घजा नाम सक्या तेस अम्बवने पासादे ।... (ई. खण्ड ४, पृ० ३४ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६, वर्ष २४, कि० ४ अनेकान्त -वह नातपुत्त तो नालन्दावासी था, वह पावा में अपितु चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, वाराकैसे कालगत हुमा? सत्यलाभी उपालि गृहपति के दस णसी में से कहीं करें। किन्तु बुद्ध ने इसे स्वीकार नहीं गाथानों से भाषित बुद्ध के गुणों को सुनकर उसने उष्ण किया । रक्त उगल दिया। तब अस्वस्थ ही उसे पावा ले गये । पर्यालोचन-बौद्ध ग्रन्थों के उपयुक्त प्रसगो में पावा भौर वह वही कालगत हुआ। का स्पष्ट उल्लेख मिलता है । किन्तु जिस पावा के सम्ब. तथागत का विहार न्ध मे उल्लेख पाये है, वह जैन आगमों की मध्यमा पावा ___ 'दीय निकाय' २/३ मे महापरिनिवाण सुत्त है, नहीं है, अपितु वह मल्लो की पावा है। जैन आगमो के जिसमे भगवान बुद्ध के अन्तिम बिहार और मृत्यु का अनुसार भगवान महावीर का निर्वाण मल्लो की पावा में विस्तृत वर्णन मिलता है। उसके अनुसार भगवान बुद्ध नही, मध्यमा पावा मे हा था। राजगृह के अम्वलट्टिका (वर्तमान बडगाँव) गये । वहां से बौद्ध ग्रन्थो में महावीर का निर्वाण पावा मे लिया है, नालन्दा। वहाँ से पाटिलग्राम, कोटिग्राम, नादि का, किन्तु कही ये नहीं लिखा कि उनका निर्वाण मल्लो की वैशाली होते हए वेलुव गामक (वणुप्राम) पहुँचे । वहाँ पावा मे हुआ और न उस पाबा के गणराज का नाम बुद्ध को भयंकर बीमारी हो गई। प्राणान्तक वेदना हुई। हस्तिपाल ही कही दिया है । जैन प्रागमो मे स्पष्ट हो वहाँ से वैशाली में जाकर भोजन किया। फिर चापाल मध्यमा पावा के राजा का नाम हस्तिपाल दिया है । चैत्य मे ठहरे। यहाँ उन्होंने भविष्यवाणी की कि तीन यह भी उल्लेख योग्य है कि जैनागमो मे कही भी कुशीमाह बाद तथागत प-िनिर्वाण को प्राप्त होगे । वैशाली से नारा की निकटवर्ती पावा का उल्लेख नहीं किया गया। भण्डग्राम, प्रम्बगाम (ग्राम्रग्राम), जम्बुग्राम, भोगनगर मज्झिम निकाय अटकथा सामगाम मुत्तवण्णना में होते हुए पावा पहुँचे । वहा चुन्द कर्मार पुत्र के ग्राम्रवन में महावीर का निग्गंठ नातपूत के नाम से उनकी मृत्यु का ठहरे। चुन्द कर्मार पुत्र (सुनार का पुत्र) ने दूसरे दिन जो वर्णन किया गया है, उसी ओर विशेष ध्यान देने बुद्ध का मामन्त्रित किया। उसने मूकर मद्दव तथा अन्य की आवश्यकता है । वह वर्णन यद्यपि धार्मिक विद्वेष, प्रसभोज्य सामग्री तैयार कराई। बद्ध ने भिक्ष संघ के साथ त्य और धर्तता से भरा हुआ है। एवं शत प्रतिशत जाकर भोजन किया । सूकर मद्दव खाकर बुद्ध को खून अविश्वसनीय भी है। किन्तु उमम एक तथ्य की ओर गिरने लगा । मरणान्तक कष्ट हुअा। वहा से कुसीनारा की संकेत भी है। इसके अनुमार महाबीर रुग्णावस्था में भोर चले । थोडी दूर चलने पर थक गये तो एक पेड के नालन्दा से पावा ले जाये गये । विचारणाय यह है कि नीचे लेट गये। पास मे ककुत्या नदी थी। बद्ध ने पानी जो रोगी मरणासन्न हो, उसे कई सो मील दूर उस अवमांगा तो ग्रानन्द उस नदी से पात्र में पानी भरकर ले स्था में नहीं ले जाया जा सकता, विशेषकर उस रोगी को, पाया और बद्ध को दिया। ('उदान अढकथा ८/५ के जो मुनि हो और जिसका जीवन सयम के विविध अनुशामनुसार) पावा से कुशोनारा ६ गव्यूति था। किन्तु इतनी सनों से अनुशासित हो। कुशीनारा की निकटवर्ती पावा दूरी मे बुद्ध पच्चीम वार बैठे। मध्यान्ह मे चलकर सूर्या- नालन्दा से बहुत दूर है, जब कि वर्तमान पावापुरी नालस्त के समय कुगीनारा पहुँचे । पावा से चलकर ककुत्था- दा के निकट है। अत: यह बुद्धिगम्य और तर्क संगत नदी पार की । फिर हिरण्यवती नदी पड़ी । उसके परले लगता है कि नालन्दा से पावापुरी ले जाया जाय । तोर पर, जहाँ कुशीनारा के मल्लो का शाल वन है, वहाँ यदि ऐतिहासिक और असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण से गये। वहा जोडे घालवृक्षो के बीच में उत्तर को और बौद्ध साहित्य के महावीर से सम्बन्धित पावा के उल्लेखों सिरहाना करके लेट गये और निवाण होगया। निर्वाण से पर विचार किया जाय तो उसमे हमें इतिहास से विरोध, पूर्व यानन्द ने तथागत से प्रार्थना की कि आप इस क्षद्र साम्प्रदायिक व्यामोह और हीन मनोवृत्ति के ही दर्शन नगर मे, जगलो नगर मे, शाखा नगर में निर्वाण न करे, होते है । धर्म सेनापति सारिपुत्र बद्ध से पूर्व ही परिनिर्वाण Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर को प्राप्त हो गये थे । मयुक्त निकाय ४५/२/३ मे ऐसा ये उद्धरण जैन संघ के भेद होने के पश्चात् लिखे गये वर्णन मिलता है यह भी सम्भव लगता है कि महावीर के निर्वाण एक बार भगवान बुद्ध श्रावस्ती के जेतवन मे विहार सम्बन्धी उल्लेख केवल धर्मद्वेष वश ही लिखे गये हों। करते थे तब स्थविर सारिपुत्त ने भगवान से प्राज्ञा तभी तो चुन्द द्वारा महावीर-निर्वाण का समाचार सुनकर -मांगी-भन्ते ! भगवान अनुज्ञा दे, सुगत अनुज्ञा दे, प्रानन्द इस वार्ता को तथागत के लिए भेंट स्वरूप बतलाते मेरा परिनिर्वाण काल है। प्राय: संस्कार खत्म हो चुका हैं उपालि द्वारा बुद्ध की प्रशंसा सुनकर महावीर का भगवान ने पूछा '-कहां परिनिर्वाण करोगे ?' 'भन्ते । उष्ण रक्त वमन करना इतिहास विरुद्ध और टेष द्वारा मगध में नालकग्राम में जन्म गृह है, वहाँ परिनिर्वाण प्रचारित मिथ्या कल्पना मात्र है। अतः ये सभी उल्लेख करूंगा?' भगवान ने उन्हें प्राज्ञा देदी और वे अपने ५०० अप्रमाणिक एवं प्रविश्वसनीय है। भिक्षमों के साथ एक सप्ताह मे नालकग्राम मे पहुंचे। बौद्ध ग्रन्थों के इन उल्लेखों को एक ही शर्त पर और अपने जन्म स्थान वाले घर में ठहरे । वहां खून गिरने स्वीकार किया जा सकता है। वह यह है कि जैन शास्त्रों की भयंकर वीमारी हुई, मरणान्तक पीड़ा होने लगी और का महावीर सम्बन्धी सम्पूर्ण कथन अप्रामाणिक मान उसी वीमारी में उनकी मृत्यु होगई। लिया जाय। उस स्थिति मे 'महावीर के मुख से उष्ण महापंडित राहुल साकृत्यायन द्वारा रचित 'बुद्धचर्या' रक्त का वमन, रुग्णावस्था मे पावा मे उनकी मृत्यु, मृत्यु पृ.५२५ के अनुसार सारिपुत्र की मृत्यु के प्रायः एक वर्ष के पश्चात् जैन संघ में कलह और संघ-भेद जैसी प्रसंगत बाद भगवान नालन्दा में विहार करते थे, तब सारिपुत्र और परम्परा विरुद्ध बातें भी स्वीकार करनी पड़ेंगी। ने भगवान से प्रश्नोत्तर किये। इस पर राहुलजी को फिर भी पावा-जहां महावीर की मृत्यु बताई गई हैटिप्पणी देनी पड़ी-सारिपुत्र का निर्वाण पहले ही हो वर्तमान पावापुरी ही माननी होगी, क्योंकि नालन्दा से वे चुकने से, यह भाणको के प्रमाद से यहाँ माया मालूम इसी पावा में ले जाए गए। होता है। जो लोग बोद शास्त्रों के स्पष्ट कथन को प्रामाणिक बौद्ध शास्त्रों में कई वार निग्गंठनातपुत्त की मृत्यु की मानकर शताब्दियों से परम्परागत रूप से मान्य वर्तमान सूचना कही चन्द्र के मुख से, कहीं सारिपुत्त के मुख से पावापुरी को उखाड़-उजाड़ कर नई पावा बसाने की दिखलाई गई है। प्रत्येक सूचना में यह भी कहा गया है तैयारी में जुट पड़े हैं, उन्हें अपने प्रयत्नों के समर्थन में कि निगंठ नातपुत्त की मृत्यु होते ही निगठों में फूट हो कुछ ठोस प्रमाण सग्रह करने होंगे। केवल कुछ ग्रन्थों के गई। वे परस्पर में कलह करने लगे, परस्पर दुर्वचन कल्पित, विवादग्रस्त और धार्मिक द्वेषपूर्ण उवरणों के बल बोलने लगे। निगठ नातपुत्त के श्वेत वस्त्रधारी गृहस्थ पर प्रौर नवीनता के व्यामोह में अपनी परम्परा और शिष्य निगंठों (दिगम्बर साधुनों) में विरक्त है। किन्तु शास्त्रों को अमान्य नहीं ठहराना चाहिए। वौद्ध शास्त्रों का कथन मिथ्या है। भगवान महावीर के इतिहासकार और पावा-कई पाश्चात्य और भार. अखण्ड जैन संघ मे दो भेद दिगम्बर और श्वेताम्बर के तीय पुरातत्ववेत्तानों और इतिहासकारों ने म० बुद्ध के रूप में मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त के काल में उस समय हुए, परिनिर्वाण के लिए जाते हुए पावा में ठहरने और वहां जब वे अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाह के साथ राजपाट छोड़- की नदी ककुत्था में स्नान और पान करने की घटना के कर मुनि बनकर दक्षिण की पोर चले गये। दिगम्बर सिलसिले मे पावा की खोज की है। इस खोज के परिऔर श्वेताम्बर दोनों ही परम्परायें इसे स्वीकार करती हैं। णाम सभी के एक से नहीं हैं। बल्कि भिन्न-भिन्न रहे हैं। तब बौद्ध शास्त्रों की इस निराधार कल्पना को कैसे अपने निष्कर्षों के समर्थन में कोई भी प्रमाण तो नहीं स्वीकार किया जा सकता है। यह तो इतिहास के मान्य दे पाया, किन्तु सम्भावनामों को माधार मानकर उनकी तथ्यों के विपरीत है । ऐसा लगता है कि चौखशास्त्रों के पुष्टि की। किन्तु सभी का एक ही उद्देश्य रहा कि जहा Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त भोजन करके बुद्ध को सांघातिक रोग हुआ, उस पावा राजगृह में स्तूप बनवाया था। की खोज की जाय । कपिलवस्तु से लेकर कुशीनाग, जब हम्साग भारत यात्रा के लिए पाया था, तब पडरौना, फाजिलनगर, सठियांव, सरेया, कुक्कुरपाटी, उसने कपिलवस्तु के बाहर सैकड़ों-हजारो स्तूप देखे थे। नन्दवा, दनाहा, प्रासमानपुर डीह, मीर विहार, फरमटिया ___ इन कारणो से इस विश्वास की पुष्टि होती है कि और गांगीटिकार तक प्राचीन भवनों, मन्दिरों और स्तूपों प्रकृति के प्रकोप से अथवा प्राततायी आक्रमणकारियों के के ध्वंसावशेष बिखरे पड़े है। प्रत्याचारों से इनका विनाश होगया । यह सब लिखने का ऐसा विश्वास किया जाता है कि श्रावस्ती की राज हमारा प्राशय इतना ही है कि कपिलवस्तु, कुशीनारा गद्दी पर बैठकर विदूडम ने अपने पिता प्रसेनजित को और पावा का विनाश बुद्ध की मृत्यु के प्रासपास हुआ मरवा कर शाक्यों और उनके नगरों का विध्वंस कर दिया। और स्तूपो का विनाश इसके हजार-बारह सौ वर्ष वाद और इस प्रकार शाक्यों से बदला लेने की अपनी प्रतिज्ञा हुप्रा । प्रतः नगरों के अवशेषों के ऊपर स्तूपो के अवशेष को पूरा किया। इसी प्रकार श्रेणिक बिम्बसार के पुत्र होने चाहिए। इस दृष्टि से देखा जाय तो इस विशाल अजातशत्रु ने अपने पिता को बन्दी बना कर मगध की भभाग मे विखरे हए अवशेष पौर टीले स्तूपों के हो सकते राजगद्दी हथियाली और उसने भी विदूडभ की तरह है। ही अपनी ननिहाल, वैशालीगण सघ और उनके मित्र इन अवशेषों की यात्रा भारत सरकार की प्रोर से देश मल्ल संघ और काशी-कोशल संघ को बर्बाद कर मिनिधम बैंगलर, कारलाइल प्रादि ने १८७५ या दिया। इस प्रदेश मे मीलों मे बिखरे हुए ये डीह (टीले) उसके प्रासपास की थी। इन विद्वानों के यात्रा विवरण और अवशेष इन दो महत्वाकांक्षी राजामो के प्रतिशोध के सरकार की भोर से प्रकाशित हो चुके है। उल्लेखनीय परिणाम है । किन्तु यह निवर्ष भी सर्वांश मे सत्य नहीं यह है कि इन्होंने इस सारे प्रदेश की यात्रा करकं छानबीन है । बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनकी अस्थियों का पाठ की, किन्तु उन्होंने अपनी रिपोर्ट में किसी जैन मूर्ति, मन्दिभागों में विभाजन हुआ था। उनमें एक भाग शाक्यों ने र मानस्तम्भ, शिलालेख के मिलने का कोई उल्लेख नही लिया था, दो भाग-पावा और कुशी नारा के मल्लों किया। उन्हों ने अपनी रिपोर्ट में सर्वत्र बौद्ध स्तूपों की ने लिए थे। दोनों सघों ने उन अस्थि-भस्मों पर स्तूपों ही चर्चा की है। इनके अतिरिक्त अन्य किन्हीं को कोई जैन का निर्माण कराया था। उपर्युक्त दोनों युवक राजारों में चिन्ह मिले हों' ऐसी भी जानकारी हमे नहीं है । सठियाँव से विदूडम मे तो बुद्ध के जीवन काल में ही शाक्यों पर में तालाब और स्तूपों के ध्वंसों को देखकर यहां पर महाआक्रमण करके उनका विनाश किया था। किन्तु प्रजात वीर के निर्वाण की कल्पना कर लेना युक्तियुक्त नहीं शत्रु ने बुद्ध के निर्वाण के बाद मल्लसंघ का वैशाली के लगता। के साथ विनाश किया। विदूडम के समय में तो कपिल- मिस कनिंघम ने अपनी इस रिपोर्ट में पावपुरी का वस्तु में कोई स्तूप ही नहीं थे, स्तूप तो शाक्यों के मृत्यु वर्णन करते हुए उसे ही जैनों का महान् तीर्थ और महा. के बाद और बद्ध के निर्वाण के पश्चात् बनाये गय थ । वीर की निर्वाण-भूमि बताया है। शाक्यो के नष्ट करने के बाद विदूडभ और उसकी सेना - एक नदी के किनारे ठहरी हई थी। तभी भयकर 1.a-Report of tours in the Gangetic Provinces मोला-वृष्टि होने लगी। उससे नदी में बाढमा गई और from Badaon to Bihar in 1875-76 and 1877-78 सब बह गए। by Alexander Cunningham Vol. XI प्राजात शत्रु ने कुशीनारा और पावा का विनाश किया b- Report of a tour in the Gorakhpur Disहोगा, किन्तु वह स्तूपों का विनाश नही कर सकता था। trict in 1875-76 and 1876/77 by A.C.L. Carlउसने प्रस्थि-भस्म का एक भाग प्राप्त कर उसके ऊपर byle, Vol.XVIII Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर १७६ एक अन्य रिपोर्ट मे (Archeaological Survey ने स्नान मोर जल-पान किया था। अन्हेया के दो मील Report 1905) डॉ. वोगेल ने बताया है कि कुशीनगर पश्चिम में एक बड़ी नदी बहती है जो घागी कहलाती है। पौर सठियांव प्रादि में कोई इमारत मौर्यकाल के बाद पड़रौना से १० मील उत्तर-पश्चिम में सिंघा गांव के की नही है, सब इसके पहले की है। पास एक झील है। उसी मे से घागी, अन्हेया और सोनवा मि. कनिंघम ने अपनी १८६१.६२ की रिपोर्ट में पोर नदी निकलती है। वस्तुतः घागी बड़ी नदी है। इसकी बाद मे Ancient' Geogrophy of India में पडरौना . पश्चिम की साखा अन्हेया है और पूर्व की शाखा सोनवा को पावा माना है। है। घागी का अर्थ है कुक्कुट और ककुत्था पर्यायवाची मि० काइल का मत है कि पावा वैशाली-कुशीनारा शब्द है। मार्ग पर अवस्थित थी। अत: वह कुशीनारा से दक्षिण पावा के खण्डहर ही प्रब सठियांव डीह कहलाते है। पर्व में होनी चाहिये । जब कि पडरौना उत्तर मोर उत्तर इन्ही टीलों पर सठियाव गांव बसा है। फाजिलनगर और पूर्व मे १२ मील दूर है। वह तो प्राचीन वंशाली-कुशो- सठियांव दोनो एक प्राचीन गाव के दो भाग है। सठियांव नारा मार्ग पर भी नही है। उनके मत से फाजिल नगर- डीह के पश्चिम में एक बड़ा तालाब है जो ११०० फुट सठियांव पुरानी पावा होना चाहिये । लम्बा और ५५० फुट चौडा है । इसके प्रासपास छोटे बड़े लका की बौद्ध अनुभूतियों के अनुसार पावा कुशीनारा कई तालाब है। सठियांव का बड़ा डीह उत्तर मे १७०० से १२ मील दूर गण्डक नदी की ओर होनी चाहिए। फुट लम्बी एक सड़क से जुड़ता है, जो कसिया फाजिलअर्थात कशोनारा से पूर्व या दक्षिण-पूर्व में । सिंहली अनुश्रुति नगर सड़क से मिलती है। इसके पास सेबी पावा और कुशीनारा के बीच में एक छोटी नदी भी पटकावली सड़क जाती है। बताती है, । जो ककुत्था कहलाती थी। यहीं बुद्ध ने स्नान सारा सठियांव डोह प्राचीन नगर के ही अवशेष है। और जल-पान किया था। सभवत: इसी नदी का नाम डीह पर सघन वृक्ष खड़े हुए है। इसके दक्षिण भाग वर्तमान में घागी नदी है। यह कसिया से पूर्व, दक्षिण-पूर्व लगभग तीन चौथाई भाग में ईटें बिखरी पडीसी की ओर ६ मील दूर है।' ऊँचे-ऊँचे ढेर भी जहां तहां मिलते है। सभवतः ये स्तूपों बद्ध और महाकाश्यप क्रमश: मगध और वैशाली से के अवशेष है एक टीले पर लोगों ने देवी का थाना कुशीनारा जाते हुए पावा मे ठहरे थे। लिया है एक पेड़ के सहारे देवी की मूर्ति खड़ी है। यहां फाजिलनगर मे एक भग्न स्तूप है। फाजिलनगर जो ईटें मिलती है , उनमें कुछ ११ इंच लम्बी, कछ १३ पौर सठियांव पावा के अवशेषों पर बने है, ऐसा लगता और १४ इंच लम्बी है। खुदाई में १५ इंच को भी हो है। भग्न स्तूप में लगभग डेढ़ फाग उत्तर-पूर्व में नदी है मिली है। जोमोना. सोनावा या सोनारा नदी कहलाती है। कुछ फाजिलनगर में थाना, पोस्ट प्रापिस है। ये भोईटो की ओर बढ़ने पर इसी का नाम कुकू पड़ गया है। की टीले पर बने है इसके अासपास भी बहत से टीले है। रियांव के दक्षिण मे १० मील परे एक घाट अथवा कुकू मुख्य सड़क से उत्तर की ओर ३५० फुट की दूरी पर एक । इस नदी के किनारे इससे मिलते जुलते नाम बड़ा टीला है विश्वास किया जाता है, यह टीला किसी पाये जाते है-जैसे कुर्कटा, खुरहुरिया, कुटेया । लंका स्तूप का अवशेष है । टीले के ऊपर स्तूप की ऊचाई ३५ और बर्मा की अनुश्रतियों में इस नदी का नाम ककुत्था फुट है। स्तूप का ऊपरी भाग ४० से ४४ फुट के घेरे मे सा को बताया है। यह पावा प्ररि कुशीनारा के बीच है । सभव है. बुद्ध के अस्थि, भस्म के ऊपर बना पात वर्तमान मे सठियांव से डेढ़ मील पश्चिम की यही हो । यहाँ मन्दिर या विहार के भी कछ चिन्ह मिले मोर प्राचीन नदी के चिन्ह मिलते हैं जो मन्हेया, सोनिया है। एक ध्वस्त भवन भी है। इन दोनों के बीच मे मसल. और मोनाका कही जाती है। संभवतः इसी नदी में बुद्ध मानों ने करवला बना लिया है। यह स्तप सठियांव डी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००, वर्ष २४, कि० ४ , के पूर्व उत्तर पूर्व मे ३३०० फुट दूर है। स्तूप के उत्तर में ३०० फुट दूर से फाजिलनगर गांव शुरू होता' है ।' 'महावीर का निर्वाण दक्षिण बिहार की पावा में हुमा था और बीड पिटक उत्तर बिहार की पावा का वर्णन करते हैं। वे प्रवार्थ है।' डॉ. कार्पेण्टियर - Indian Antiquary 1914 'बौद्ध धागमों में वर्णित महावीर के निर्वाण-प्रसंग ऐतिहासिक निर्धारण में किसी प्रकार उपेक्षा के योग नहीं है ।' - राहुल सांकृत्यायन, दर्शन, दि०४९२ 'भगवान महावीर की निर्माण भूमि के विषय में हमें कोई संदेह नहीं है। भगवान की निर्वाण-भूमि वही गावा ५२० ई० पू० के लगभग महावीर का देहान्त भापु है जो बिहार नगर से प्राग्नेय कोण मे सान मील पर पुरी निक पटना जिले की पावापुरी मे हुआ I' श्रथवा पावापुरी के नाम से प्रसिद्ध जैन तीर्थ है। जैन शास्त्रों में इसको मध्यमा पावा कहा है।' --मुनि कल्याण विजय जी, श्रमण भगवान महावीर - प्रस्तावना, पृ. xxviii -डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, प्राचीन भारत का इति हास 'ईसा के १३वी १४वीं शताब्दी के अनेक परिस्थि तियों के कारण जैनधर्म उत्तर बिहार से बिलकुल कट गया था। इन औौर धागे की शताब्दियों में दक्षिण बिहार के जैनजगत मे नई चेतना हुई इस आका केन्द्र राजगिर-पावापुरी बिहार शरीफ बन गया । राजगृह महावीर के समय से ही जैनतीर्थ माना जाता रहा है। पावापुर अथवा पावापुरी मे जैन सम्मेलनों के होने का पता चलता है ये सम्मेलन १२वी शताब्दी में हुए, ऐसा पता चलता है। जब कि ई० सन् १२०३ मे वहां भगवान महावीर की मूर्ति विराजमान की गई। मदन कीर्ति अपने समय के २६ तीर्थों का वर्णन करते हुए इस शताब्दी के द्वितीय चरण में पावापुरी के वीर जिन का वर्णन करते है जिनप्रभसूरी ने इससे पगली शताब्दी में अपने ग्रन्थ 'तीर्थकल्प' मे पावापुरी के सम्बन्ध में दो अध्याय दिये हैं । इस प्रकार पावापुरी की स्थिति, जिसके बारे में 'महावीर का निर्वाण क्षेत्र होने का विश्वास किया जाता है, चौदहवीं शताब्दी मे सुदृढ़ होगई ।' उपर्युक्त उद्धरणोंमे डा० वोगेल, कर्नाल, डा० जायसवाल ने मल्लों की पावा से महावीर - निर्वाण का कोई समर्थन नहीं किया। डा० योगेन्द्र मिश्र और राहुल सास्यायन ने अवश्य इस पक्ष का स्पष्ट समर्थन किया है । राहुल जी केवल बौद्ध शास्त्रों के पाया सम्बन्धि उल्लेखो को ही प्रमाण मानते है । किन्तु वे उल्लेख अस्पष्ट हैं और उनका जैन ग्रन्थों के महावीर निर्माण सम्बन्धी विवरणों से समन्वय नही हो पाता। फिर बौद्ध ग्रन्थो मे भी मतक Dr. Yogendra Mishra, An Early History नहीं है । 'अट्टकथा' तो महावीर को नालन्दा से पावा of Vaishali, P. 235-36 जाकर मृत्यु का उल्लेख करती है । डा० मिश्र के पास श्री नाहर के 'जैन लेख संग्रह' का एक लेख प्रमाणभूत तर्क है, जिसमे १२०३ ई० में पाया मे भगवान महावीर की मूर्ति की प्रतिष्ठा की चर्चा है उस शिलालेख से उस मूर्ति की प्रतिष्ठा काल आदि सम्ब -डॉ० के० पी० जायसवाल Journel of Bihar nnd Orissa Research Society 1, 103 १. Report of a tour in the Gorakhpur Dis trict in 1875-76 and 1076-77, by A. C. L. Carlbyle Vol. XVIII २. श्री 'राजगृह के निकट पावापुरी मे कार्तिक अमावस की रात उनका (महावीर का) निर्वाण हुआ।' भारतीय इति हास की रूपरेला, श्री जयचन्द्र विद्यालंकार भाग १, पृष्ठ ३७२ । पूरण चन्द्र नाहर, जैन लेख संग्रह, भाग २, कलकत्ता १९२७० २६३ 'कुशीनारा ( कसया ) से चन्द मील उत्तर पपउर (जिला गोरखपुर, हो पाया है) परम्परा को भूलकर पटना जिले की पावा नई कल्पना है ।' इस प्रकार पुरातत्ववेत्ता और इतिहास कार इस विषय में एकमत नही है । स्पष्ट ही इस विषय मे दो पक्ष रहे हैं । जिन्होंने महलो की पावा से महावीर का निर्वाण माना है, उनके पास बौद्ध ग्रन्थों का ग्राधार है । जिन्होंने वर्तमान पावापुरी से महावीर का निर्वाण माना है, उन्होंने अपने पक्ष में जैन ग्रन्थों और परम्परागत जैन मान्यता का समर्थन पाया । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावापुर धित बातों पर प्रकाश पडता है, किन्तु उससे यह तो सिद्ध बैठा हुआ था । लगभग तभी श्रेणिक विबसार की मृत्यु नही होता कि महावीर की उस मूर्ति की प्रतिष्ठा से पहले हुई थी। अजात शत्रु उस समय शोक पोर राजनैतिक पावापुरी में कोई जैन मन्दिर नहीं था और उसकी जैन उलझनों में फंसा हुआ था । वह ऐसी स्थिति में नहीं था तीर्थ के रूप में मान्यता नहीं थी। यदि मदन कौति ने कि वह कही अाक्रमण कर पाता। वस्तुत: वह अपनी 'शासन चतुस्त्रिशिका' मे 'पावापुर' के भगवान महावीर स्थिति जमाने में लगा हुआ था। इसी लिए वह स्वयं की प्रतिमा का अतिशय बताया है। उक्त शिलालेख और उत्सव में नही पा सका। दूसरी बात यह है कि वह भी मदन कीर्ति के उद्धरणों से तो यह सिद्ध होता है कि १३वी महावीर का अनुयायी था और तीर्थकर भगवान के निर्वा१४वीं शताब्दी में भी पावापुरी एक प्रसिद्ध तीर्थ माना णोत्सव मे पधारे हुए साधर्मी राजापो से युद्ध करके वह जाता था। अपयश मोल नही ले सकता था । युद्ध करने के लिए उसके उपयुक्त विद्वानों के अतिरिक्त डा० काण्टियर, डा. पास अन्य अवसर भी थे। अपनी स्थिति सुदृढ कर लेने रमाशकर त्रिपाठी, जयचन्द्र विद्यालंकार, मुनि कल्याण- पर राज्यारोहण के पाठवे वर्ष में उसने वैशाली गणसघ विजय जी प्रादि सभी विद्वान् स्पष्ट रूप से इस बात का से युद्ध ठान दिया और अन्त मे (कुछ विद्वानो के मन से समर्थन करते है कि वर्तमान पावापुरी ही महावीर का १६ वर्ष युद्ध करने के पश्चात्) उसने वैशाली और मल्ल निर्वाण-क्षेत्र है। महावीर के सम्बन्ध मे जैन ग्रन्थो की गणो का विनाश कर दिया। प्रामाणिकता असंदिग्ध रूप से मान्य की जानी चाहिए, भगवान महावीर पावा में राजगृह से पधारे थे, ऐसा जब कि बौद्ध वाङ्मय मे महावीर का जो भी विवरण उल्लेख श्वेताम्बर शास्त्रो में मिलता है । राजगृह से मल्ल मिलता है, वह साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण तथ्य देश बिलकुल मिला हुआ था। विरूद्ध, अपमानजनक और भ्रान्ति कारक है। इसलिए (२) दूसरी शका कि यहां कोई पुरातत्व नहीं है, बौद्ध साहित्य इस विषय मे वहीं तक मान्य किया जा विशेष ठोस नहीं है। सम्मेद शिखर में भी कोई पुरातत्व सकता है, जहाँ तक वह जैन साहित्य और परम्परा के नही । इस लिए क्या वह भी वास्तविक तीर्थ स्थान नही अनुकूल हो । बोद्व साहित्य की प्रामाणिकता के मोह में है ? पावापुरी के मन्दिर में प्रारम्भ से चरण विराजमान जैन साहित्य को प्रमाणिक करार नहीं दिया जा सकता। रहे है। मन्दिर का जीर्णोद्धार समय-समय पर होता रहा। ___अन्त मे हम उन शंकानों और संभावनायो क सम्बन्ध किसी प्रातताई की कुदृष्टि उस प्रोर नही गयी । प्रत: मे भी कुछ पक्तियाँ लिखना आवश्यक समझते है जो वर्त सुरक्षित रहा। मान पावापुरी की मान्यता के विरोध में उपस्थित की जा सारांशत. हमारी मान्यता है कि वर्तमान पावापुरी ही सकती है। (१) महावीर के निर्वाण के समय नी मल्ल भगवान की निर्वाण-स्थली है, यह पावन भूमि है, विश्व राजा भी उपस्थित थे । मगध मल्लों का शत्रु था। तब वेद्य है । दूसरो से प्रभावित होकर अपनी परम्परागत तीर्थवे शत्र-प्रदेश के इतने निकट अथवा शत्रु-प्रदेश मे कैसे प्रा भूमियो की मान्यता का विसर्जन नहीं करना चाहिए। सकते थे? (२) पावापुरी में प्राचीनता के कोई चिन्ह और न भावुकता में बहकर इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न ही बना नहीं मिलते। देना चाहिए। जब तक सर्वसम्मत ठोस प्रमाण न मिले, पहली शंका या सभावना के उत्तर में निवेदन है कि तब तक यथा स्थिति रहनी चाहिए। मल्ल राजा जैन थे। मगध सम्राट भी जन थे। हजारीबाग -मानभूमि प्रदेश भी मल्ल देश कहलाता था। हो सकता है, १. मुनि श्रीचन्द्र कृत 'कहा कोसु' सन्धि १५ कडवक १ वहाँ के राजा निर्वाण के समय उपस्थित हुए हों। इति- १. इसके लिए देखिए The Geographical Dictionहास ग्रन्थों के देखने से ज्ञात होता है कि जब महावीर का ary of Ancient And Mediaeval India, by निर्वाण हमा, उस समय मगध की गद्दी पर अजात शत्र Nunda Lal Dey मे प्राचीन भारत का नक्शा, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महामात्य कुशराज परमानन्द जैन गोपाद्रि में तोमरवंशी राजाधिराज वीरमेन्द्र का जीवन परिचय दिया हुना है। यह पौराणिक के राज्य में महामात्य कुशराज थे जो जैसवाल चरित्र बड़ा हो रुचिकर प्रिय और दयारूपी अमत कुल के भूषण थे। इनके पिता का नाम जैनपाल का श्रोत बहाने वाला है। इस पर अनेक विद्वानों और माता का नाम 'लोणा' देवी था, पितामह का द्वारा प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी गुजराती नाम 'भल्लण' और पितामही का नाम उदिता भाषा में ग्रन्थ रचे गये हैं। देवी था। कुशराज के पांच भाई और भो थे, कवि ने यह ग्रंथ वीरमदेव के राज्यकाल में जिनमें चार बड़े और एक छोटा था। हसराज, कुशराज की प्रेरणा से रचा था। सन् १४०० सैराज, रैराज्य, भवराज, ये बड़े भाई थे और के आस-पास ही राजसत्ता वीरमदेव के हाथ हेमराज छोटा भाई था। इन सब में शराज बड़ा में आई थी, हिजरी सन ८०५ और वि० और धर्मात्मा तथा राजनीति में कुशल था। जैन- सं० १४६२ में अथवा १४०५ A. D. में मल्ल धर्मका प्रतिपालक और देवशास्त्र-गुरु का भक्त इसने इकवाल खां ने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी। परन्तु ग्वालियर में चन्द्रप्रभ जिन का एक विशाल जिन- उस समय उसे निराश होकर ही लौटना पड़ा। मन्दिर बनवाया था और उसके प्रतिष्ठादि कार्य प्राचार्य अमृतचन्द्र की 'तत्त्वदीपिका' (प्रवचनको बड़े भारी समारोह के साथ सम्पन्न किया था। सार टीका) की लेखक प्रशस्ति में जो वि० स० शराज की तीन स्त्रिया थी. रल्हो. लक्षणश्री और १४६६ में लिखी गई है, गोपाद्रि (ग्वालियर) में कौशीरा। ये तीनों ही पत्नियां सती, साध्वी तथा उस समय वीरमदेव के राज्य का उल्लेख किया गुणवती थी और नित्य पूजन किया करती थी; गया है। कुशराज ने स० १४७५ में एक यंत्र को रल्हो से कल्याणसिंह नाम का एक पुत्र उत्पन्न प्रतिष्ठित किया था जो नरवर के मन्दिर में विद्यहुअा था, जो बड़ा ही रूपवान, दानी और जिनगुरु मान है-सं० १४७५ अषाढ सुदि ५ गोपाद्रि .. चरणाराधन में तत्पर था। राजाधिराज श्री वीरमेन्द्रराज्ये श्री कर्षता जनैः संघीन्द्रवंशे साधु भुल्लण भार्या पितामही पुत्र जैनकुशराज जहाँ धर्मनिष्ठ और कर्तव्य परायण था वहाँ वह राजनीति में भी चतुर था । वह राज्य पाल भार्या लोणा देवी तयोः पूत्राः परम श्रावकः सेवा को अपना कर्तव्य मानकर करता था। महा साघु कुशराजोऽभूत भार्ये रल्हो, लक्षणश्री कौशीरा मात्य होते हुए भी उसमें अहंकार नही था, बड़ा हो तत्पुत्र कल्याण मलभूत भार्ये द्वे धर्मश्री जयतम्मिदे इत्यादि परिवारेण समं शाह कुशराजो यत्र प्रणउदार और हँसमुख था। वह वीरमदेव का महान मति । और अमरकीति के षट्कर्मोपदेश की आमेर विश्वासपात्र महामात्य था और पृथ्वी की रक्षा करने में तत्पर था प्रति में, जो स. १४७६ को लिखी हुई है उसमें भी वीरम देव के राज्य का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है सर्वगुण सम्पन्न कुशराज ने श्रुतभक्तिवश कि १४६२ से १४७६ तक वीरमदेव का राज्य रहा यगोबर चारत का रचना पद्मनाभ कायस्थ स कराइ है। वही समय कूशराज्य का है। थी, जिसमें राजा यशोधर और रानी चन्द्रमती का (जैन ग्रंथ प्रशस्ति सग्रह भा. १ पृ० ५-६) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर की भित्तियों की रथिकाओं में जैन देवियां मारुति नंदन प्रसाद तिवारी मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो का हिन्दू मंदिरों पर उत्कीर्ण देवियों से पार्श्वनाथ मंदिर की भारतीय वास्तु तथा शिल्पकला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण देवियों को अलग करने की दृष्टि से कलाकार ने प्रत्येक स्थान है। चंदेलो के शासन काल मे निमित खजुराहों के देवी के साथ कई तीर्थकर प्राकृतियो को चित्रित किया है, मदिरो की भित्तयो पर शैव, वैष्णव और जैन सम्प्रदायों जो वास्तव मे उनके जैनधर्म के प्रचलित और विशिष्ट से सबंधित मूर्तिया उत्कीणित है, जिन सबके शिल्प विधान देवी रहे होने की ओर सकेत करता है। मे प्रायः समान तत्व मिलते है। वर्तमान खजुराहो ग्राम मंदिर के मण्डप की भित्ति के नीचे अधिष्ठान पर के समीप अवस्थित जैन मदिरों का समूह खजुराहो का उत्तर और दक्षिण की ओर सरस्वती की दो प्राकृतियां पूर्वी मदिर समूह कहलाता है। समस्त नवीन व प्राचीन (३६"x२५") उत्कीर्ण है । दक्षिणी भित्ति की ललितादिगबर जैन मन्दिर एक विशाल किन्तु नवीन परकोटे के सन मुद्रा मे एक ऊंची पीठिका पर आसीन सरस्वती मूर्ति अन्दर स्थित है। दो प्राचीन मन्दिरों आदिनाथ व पार्श्व मे देवी छह भुजाओ से युक्त है । देवी का दाहिना लटकता नाथ, मे से पार्श्वनाथ सभी दृष्टियो से सर्वोत्कृष्ट है, जिसका पैर कमल पर स्थित है। सरस्वती के ऊपरी दो भुजानों, समस्त खजुराहो के मंदिरो मे भी शिल् पब स्थापत्य दोनों ही दाहिने और बायें, मे कमशः पद्म और पुस्तक प्रदर्शित है, दृष्टियो से विशिष्ट स्थान है। पार्श्व मदिर मूलत. आदि जबकि देवी की मध्य की दोनों भुजाएं वीणा वादन मे नाथ का मदिर था इसकी पुष्टि गर्भगृह मे स्थापित बैल व्यस्त है । वीणा का ऊपरी भाग कुछ खण्डित है । देवी चिन्ह से युक्त पीठिका से होती है, जिस पर १६वी शती ने अपने निचले दो दाहिने व बाये हाथो मे क्रमश: वरदमें पार्श्वनाथ की नवीन प्रतिमा स्थापित की गई। पार्श्वनाथ मन्दिर के पूर्वी द्वार पर उत्कीर्ण १०११ विक्रम सवत् मुद्रा और कमण्डलु धारण कर रखा है। देवी की भुजानों मे बीणा का प्रदर्शन मात्र ही देवी के सरस्वती से पहचान (६५४) के लेख के आधार पर इसे १०वीं शती मे निर्मित के लिए पर्याप्त है । देवी के प्रत्येक पार्श्व में त्रिभंग मुद्रा स्वीकार किया गया है। इस मदिर की बाह्य भित्तियों में खडी एक चामरधारी सेवक प्राकृति को मूर्तिगत किया पर जैन तीर्थकरों ओर अम्बिका की प्राकृतियों के अतिरिक्त गया है, जिसकी दूसरी भुजा कटि पर स्थित है। इन कुछ अन्य देवियो को भी विशिष्टता प्रदान करने की दृष्टि से विभिन्न रथिकानों में स्थापित किया गया है। इन्हीं सेवक प्राकृतियों के समक्ष दो हाथ जोडे उपासक प्राकृ तियां उत्कीर्ण है । देवी के वाम चरण के समीप ही एक देवियों की मूर्तियो का अध्ययन हमारा अभीष्ट है। भग्न उपासक आकृति चित्रित है । सरस्वती के शीर्ष भाग विभिन्न देव कुलिकामों में प्रतिष्ठित सरस्वती, लक्ष्मी और मे दोनों ओर दो खडी तीर्थकर माकृतियो का अंकन ध्याब्रह्माणी मूलत: ब्राह्मण धर्म की देवियां होने के बावजूद जन शिल्प व धर्म मे काफी प्रचलित थी। खजुराहो के तव्य है । इन प्राकृतियों के बगल में दोनो कानो पर दो युगल मालाधारी गन्धर्वो की उड्डायमान प्राकृतिया देखी १ ब्रुन, क्लाज, "दि फिगर प्रॉफ दि टू लोवर रिलीफ्स जा सकती है इनके नीचे पुन: प्रत्येक छोर पर एक उड्डा मान दि पार्श्वनाथ टेम्पल एट खजुराहो," प्राचार्य यमान विद्याधर की प्राकृति अकित है। देवी ग्रीवा मे श्री विजय वल्लभसूरि स्मृति ग्रन्थ, १९५६, अंग्रेजी हारों, धोती, धम्मिल, मेखला, कंगन नूपुर, पायजेब विभाग, पृ. २३-२४, और एक लम्बी माला से सुसज्जित है। सरस्वती की Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४, वर्ष २४, कि०४ अनेकान्त दूमरी मूर्ति उत्तर को भिनि के अधिष्ठान में उत्कीर्ण है, त्रिभंग मुद्रा मे एक पीठिका पर खडी चतुर्भुज देवी की जिसमें ललितासन मुद्रा में प्रासीन देवो चार भुजाओं से एक अन्य मूति दक्षिण की भित्ति पर देखी जा सकती है, युक्त है । देवी के दोनों पर खण्डित हो चुके है । सरस्वती जिसमे देवी के मात्र ऊर्ब दाहिनी भुजा में सनाल कमल की दो ऊर्ध्व भजामों मे सनाल कमल प्रदर्शित है, जब कि स्थित है और दूसरी ऊर्ध्व भुजा संप्रति भग्न हो चुकी है। दोनों निचली भजाए भग्न हो चुकी है। पीठिका के बायीं मिली जाती जा रपटा मे प्रदर्शित है ओर देवी का वाहन हस, जिसका शीर्ष भाग खण्डित है, और वाम भुजा पुन: भग्न है । अलंकृत मुकट, कर्णफूल, दो को मूर्तिगत किया गया है। समस्त प्रचलित अलंकरणों से हारों, एकावली, मेखला, कगन, नूपुर, बाजूबन्द, धोती युक्त देवी की पहिचान मात्र हंस के आधार पर ही सरस्व पौर लम्बी माला से सुसज्जित देवी के दोनों पाश्वों मे ती से की जा सकती है। देवी के दोनों पाश्वों में हाथ दो स्त्री सेवक प्राकृतियां अंकित हैं। वाम पाश्वं की सेवक जोडे उपासक प्राकृतियों के साथ ही देवी के दाहिने चरण प्राकृति के साथ ही इस पोर की अन्य समस्त प्राकृतियां के समीप एक काफी भग्न उपासक प्राकृति को चित्रित काफी भग्न हैं । सामान्य प्रलंकरणों से युक्त चामरधारी । है । देवी के शीर्ष भाग के ऊपर एक प्रासीन सेवकों को स्त्री सेविकाओं के पार्श्व में मूर्तिगत किया गया तीर्थकर प्राकृति के अतिरिक्त मूर्ति के दोनों अन्तों पर है। इन प्राकृतियों के समक्ष प्रत्येक पार्श्व में एक खड़ी उत्कीर्ण दो अन्य प्रासीन तीर्थंकरों का अकन इसकी विशेष. तीर्थकर प्राकृति (नग्न) उत्कीर्ण है। वाम पाश्र्व की तीर्थता है। इन जिन प्राकृतियो के पाश्वों में भी उपासक प्राकृ- कर प्राकृति पूरी तरह नष्ट हो चुकी है । देवी के दाहिने तियों को उत्कीर्ण किया गया है । सरस्वती के पृष्ठभाग मे चरण के समीप एक हाय जोड़े उपासक प्राकृति को उत्कीर्ण प्रभामण्डल कमल पुष्प और गुलाब से अलंकृत है। चित्रित किया गया है और दूसरी पोर की उपासक प्राकृति पार्श्वनाथ मंदिर के उत्तरी और दक्षिणी भित्तियों पर नष्ट हो चुकी है। इस मूर्ति के उपरी भाग में प्रत्येक लक्ष्मी की कुल तीन प्रतिमाये उत्कीर्ण है, जिन सबमें पार्श्व में एक मालाघारी उड्डायमान गन्धर्व युगल को लक्ष्मी को निश्चित पहचान किसी विशिष्ट प्रमाण के मूर्तिगत किया गया है इनके समीप ही प्रत्येक पार्श्व में प्रभाव में सदेहास्पद है। ऊर्ध्व दो भुजाओं मे प्रदर्शित तीर्थकर की एक खड़ी (नग्न) प्राकृति उत्कीर्ण है। इसी कमलों के आधार पर ही इन्हें लक्ष्मी ग्रंकन बताया गया मति के ऊपर एक दूसरी रथिका में चतुर्भुज लक्ष्मी की है। उत्तरी भित्ति के बायें कोने पर उत्कीर्ण एक मूर्ति त्रिभंग मुद्रा में खड़ी एक अन्य मूर्ति स्थापित है। देवी की में चतुर्भुज देवी को एक पीठिका पर खड़ा उत्कीर्ण किया ऊपरी दाहिनी भुजा भग्न है, पर ऊपरी बायी भुजा मे गया है। देवी की ऊर्ध्व दो भुजाओं में अर्ष विकसित सनाल कमल प्रदर्शित है । देवी के निचले वाहिने व बायें सनाल कमल और निचले वाम हस्त मे एक शंख चित्रित हाथों में क्रमशः उभय मुद्रा और कमण्डलु स्थित हैं । पाव है। देवी को निचली दाहिनी भुजा खण्डित है । देवी दोनों स्थित सेविका प्राकृतियों के एक हाथ मे कमल व दूसरा पावों में सेविकाओं द्वारा वेष्टित है। देवी के चरणों के कटि पर स्थित है । इन प्राकृतियों के समीप ही जिनकी समीप दोनो ओर काफी भग्न उपासक प्राकृतियों को दो खड़ी (नग्न) प्राकृतियां उत्कीर्ण है । इस चित्रण की चित्रित किया गया है। स्त्री प्राकृतियों के समीप ही विशिष्टता है देवी के स्कन्धों के ऊपर दो चतुर्भुज देवियों दोनों अंतिम छोरों पर दो खड़ी (नग्न) तीर्थंकर प्राकृतियों का अंकन, जो जैनधर्म की दो अत्यन्त लोकप्रिय देवियों को मूर्तिगत किया गया है। इन प्राकृतियों के पावों में सरस्वती और चक्रेश्वरी, का चित्रण करती हैं । देवी के पूनः दो काफी भग्न पुरुष प्राकृतियां उत्कीर्ण है । मूर्ति के बाम स्कन्ध के ऊपर पासीन प्राकृति की ऊपरी भुजामों ऊपरी कोनों पर भी दो खड़ी तीर्थकर भाकृतियां (नग्न) में चक्र (दाहिना) और अर्घ विकसित कमल (बायां) प्रकित है । देवी के शीर्ष भाग के ऊपर प्रत्येक पार्श्व में प्रदर्शित है। देवी की निचली दाहिनी भुजा से धनुषकर्षण एक उड्डायमान विद्याधर को चित्रित किया गया है। [शेष टाइटल पेज ३ पर] Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [शेपास १० ८४] मृद्रा व्यक्त है, जिसमें अनामिका और अगुष्ट एक दूसरे को सरस्वती और लक्ष्मी के अतिरिक्त ब्रह्माणी की एक छू रहे है। देवी की निचली बाम भजा में कमण्डलु स्थित त्रिमुख मति, जिसकी चारो भुजाएं खण्डित हैं, पार्श्वनाथ है। मात्र चक्र के प्राचार पर ही इसकी पहचान निविवाद मंदिर के उनरी भित्ति पर लक्ष्मी अकन के ऊपर उत्कीर्ण रूप से चक्रेश्वरी से की जा सकती है। देवी के दाहिने है। सामान्य प्रलकरणो से युक्त देवी त्रिभंग मुद्रा में एक स्कन्ध के ऊपर प्रदशिन दूसरी प्राकृति के ऊपरी दोनों पीठिका पर खडी है। देवी के दोनो पाश्वों में तीर्थकरों भजायो मे अर्धविकमित कमल (दाहिना) और पुस्तक को दो खडी (नग्न) प्रतिमाएं उत्कीर्ण है। देवी के वाम बाया) प्रदर्मित है, जब कि निचले दोनो हाथो में अभय चरण के समीप दो स्त्री उपामक प्राकृतियाँ चित्रित है। (दाहिना) और मातुलिंग (बाया)स्थित है । पुस्तक की पूर्व प्रतिमा के अनुरूप ही मध्यवर्ती ब्रह्माणी के दोनों उपस्थिति नि मन्देह देवी के सरस्वती होने की सूचक है। स्कन्धों के ऊपर चतुर्भज प्रासीन देवियो को उत्कीर्ण किया इन ग्रामीन प्राकृतियो के बगल में दोनो कोनो पर तीर्थ- गया है। दोनो ही दवियो की ऊपरी दो भुजानों ये कमल करो की दो बडी (नग्न) प्राकृतिया उत्कीर्ण है । इस और निचले दाहिने में अभय मुद्रा प्रदर्शित है। दाहिनी प्रकार इस मति में सरस्वती और चक्रेश्वरी को निश्चित ग्रोर की प्राकृति की नीचली वाम भजा मे जहां बीज पहचान के कारण मध्यवर्ती मल आकृति का लक्ष्मी होना पूरक (फल) चित्रित है, वही बायी ओर की माकति की स्वय मित्र है, क्योकि इन्ही तीन देवियो को कुछ एक भुजा में कमण्डल स्थित है। इन दोनों ही प्राकृतियो की अन्य देवियों के साथ खजुराहा के जैन शिल्य में बहुलता से पहचान लक्ष्मी से करना ज्यादा उचित प्रतीत होता है। मूर्तिगत किया गया है। २५००वीं महावीर जयन्ती पर दि. जैन समाज का कर्तव्य दि. समाज का परम कर्तव्य है कि वह २५००वी महावीर जयन्ती पर कुछ ऐमा ठोस कार्य सम्पन्न करे। जिसमें महावीर के सिद्धान्तों का लोक में प्रचार व प्रसार हो सके। और ढाई हजार वर्षों में दि० जैन समाज ने जा कुछ कार्य किया उसका लेखा-जोखा करना भी आवश्यक है। साथ ही साहित्यिक प्रगति के लिए गास्त्र भडारो और मुति लेखो को ऐसी सूची तैयार करवा कर छपाई जा सके, जिरासे दि० शास्त्रो को गणना और भारतवर्ष के दिगम्बर मन्दिरों की मूर्तियो के लेखों का संकलन करवा कर प्रकाश में लाया जा सके योर जन ग्रन्थो की लिपि प्रशस्तियों तथा ग्रथ प्रशस्तियों कामकलन भी प्रकाशित हो सके । इन तीनों कार्यो के सम्पन्न हो जाने पर जैन इतिहाग को महत्वपर्ण सामग्री तैयार हो सकती है। उससे विभिन्न जातियों के इतिवृत्तों का सकलन करने में सहयोग प्राप्त हो सकेगा। प्राशा है समाज इस उपयोगी कार्य के लिए अपना आथिक सहयोग प्रदान करेगी, विद्वानों और संस्थाधिकारियो को भी पूरा सहयोग प्रदान करना चाहिए। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन दुरातन जनवाक्य सूची प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे दूसरे की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य वाक्यो की सूची संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम ए, डी लिट के प्राक्कथन ( Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी.लिट्. की भूमिका (Introduction) में भूपित है, मोबोज के विद्वानोंके लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज सजिद । प्राप्तपरीक्षा श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति आप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, ग्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द 1 स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व * गवेपणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित । स्तुतिविद्या स्वामी समन्नन्द्र की धनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुस्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से सुन्दर जिद सहित श्रध्यात्मकमलमातण्ड . पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित युक्त्यनुशासन - तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं या था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । धोपुरपाश्वनाथस्तोत्र प्राचार्य विद्यानन्द रचित महत्व की स्तुति हिन्दी अनुवादादिसहित। शामनचतुस्त्रिशिका ( तीर्थपरिचय) मुान मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थावारविषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर R. N. 10591/62 जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेपणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैन ग्रन्थ- प्रशस्ति संग्रह भा० १ : संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहि उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्र की इतिहास विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में अलकृत, सजिल्द | समापितन्त्र और इष्टोपदेश: अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित प्रनित्यभावना : ग्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तरवार्यसूत्र (प्रभाचन्द्रीय ) - मुस्तार के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । श्रवणबेलगोल प्रोर दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । ... महावीर का सर्वोदय तीर्थ समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्म रहस्य प० आयाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित | . १५०० ... ८.०० २-०० १-५० १-५० १२५ ७५ *७५ ३-०० जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह । पचपन ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स प० परमानन्द शास्त्री | सजिल्द | न्याय दीपिका या अभिनव धर्मभूषण को कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु० । जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसा पाहुडसुत: मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृपभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्तशास्त्र उपयोगी पशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठो मे पृष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । Reality : भा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में धनुवाद बड़े साकार के ३०० पू. पक्की जिल्द जैन निबन्ध - रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया 20.00 ६-०० ५-०० प्रकाशक - प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । ४-०० ४-०० २५ -२५ १-२५ १६ १-०० १२-०० ७-०७ ५-०० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २४:किरण दिसम्बर १९७१ A २५- Prem S SjiMESHRAJNANE पार्श्वनाथ तीर्थकर (नरेणा) जैन तीर्थकर मौर हाथी (नरेणा) MEHARSHAN ... प्राचीन जैन मन्दिर का तोर ग जो नये मन्दिर में लगा दिया है (नरेणा) समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ विषय-सूची अनेकान्त के ग्राहकों से विषय पृ. १ प्रर्हत् परमेष्ठी स्तवन अनेकान्त के प्रेमी पाठकों से निवेदन है कि वे अने १८५ २ चन्द्रवाड का इतिहास-परमानन्द जैन शास्त्री १८६ कान्त का वार्षिक मूल्य ६ रुपया जिन ग्राहको ने प्रभी ३ हिन्दी भाषा का महावीर साहित्य तक नही भेजा है, उन्हे चाहिए कि वे अपना पिछला डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल १६३ वार्षिक मूल्य छह रुपया मनीआर्डर से भेज दे । क्योकि ४ जन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद अगली छठी किरण के साथ उनका वर्ष २४ का वार्षिक ए० के० भट्टाचार्य अनु० मूल्य समाप्त हो जाता है। डा० मानसिंह एम. ए. व्यवस्थापक 'अनेकान्त' १६६ ५ अपभ्रश भाषा के जैन कवियों का नीति वर्णन वोर स्वामन्दिर, २१ दरियागज -डा० बालकृष्ण 'अकिचन' २०१ दिल्ली ६. दुःख प्रार्य सत्य : एक विवेचनधर्मचन्द जैन (शोध छात्र) २०५ ७ शोध-कण-श्री यशवतकुमार मलया सूचना ८ पारसनाथ किला के जैन अवशेषकृष्णदत्त वाजपेयी अनेकान्त मे समालोचनार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो ६ नरेणा का इतिहास-डा. कैलाशचन्द जैन २१५ प्रतियाँ पाना प्रावश्यक है पुस्तक प्रकाशक या लेखक अने. १० खजुराहो के प्रादिनाथ मन्दिर के प्रवेशद्वार की कान्त में समालोचनार्थ प्रत्येक पुस्तक की दो प्रतियां भेजने ___ मर्तियां-मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी २१८ | का कष्ट करे। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' ११ तीर्थङ्कर भगवान महावीर के २५००वे निर्वाण महोत्सव का उद्देश्य एव दृष्टि-रिषभदास २२२ १२ जैनधर्म के सबध में भ्रातिया एवं उनके निरा निवेदन करण का मार्ग-वशीघर शास्त्री १३ ब्रह्म जिनदास : एक अध्ययन-- प्रत्येक पुस्तक प्रकाशक और लेखकों से निवेदन परमानन्द जैन शास्त्री २२६ । है कि पुरातत्त्व अन्वेषक वीर-सेवा-मन्दिर की लायब्रेरी के १४ अपभ्रंश की एक अज्ञात जयमाला लिए अपने बहुमूल्य प्रकाशन भेट स्वरूप भेजने की कृपा डा० देवेन्द्र कुमार करें। साथ ही यदि महत्व के हस्तलिखित प्रप्रकाशित ग्रथ १५ कोषाध्यक्ष पत्रो और सेनापति हो तो उन्हे भी सुरक्षा की दृष्टि से भेजकर अनुगृहीत परमानन्द जैन शास्त्री करे। इस सम्बन्ध मे विशेष पत्र व्यवहार वीर-सेवा२६ साहित्य-सम.क्षा टा०पृ० ३ सम्पादक-मण्डल मन्दिर के मत्री महोदय से करे। व्यवस्थापक डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा. प्रेमसागर जैन वीर सेवामन्दिर, दरियागज दिल्ली श्री यशपाल जैन परमानन्द शास्त्री २२४ पुरातत्व र प्रकाशन २२९ लिखित २३२ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। -व्यवस्थापक अनेकान्त Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम महंम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ ॥ नवम्बर वर्ष २४ किरण ५ बोर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९८, वि० सं० २०२७ दिसम्बर १९७१ अर्हत् परमेष्ठी स्तवन रागो यस्य न विद्यते क्वचिदपि प्रध्वस्त संगग्रहात, प्रस्त्रादेः परिवर्जनान्न च बुधद्वेषो ऽपि संभाव्यते। तस्मात्साम्यमथात्मबोधनमतो जातः क्षयः कर्मणामानन्दादि गुणा श्रयस्तु नियतं सोऽर्हन्सदा पातु वः ॥३॥ अर्थ-जिस परहंत परमेष्ठी के परिग्रह रूपी पिशाच से रहित हो जाने के कारण किसी भी इन्द्रिय विषय में राग नहीं है, त्रिशूल आदि आयुधों से रहित होने के कारण उक्त प्ररहंत परमेष्ठी के विद्वानों के द्वारा द्वेष की भी संभावना नहीं की जा सकती है। इसी लिए राग-द्वेष रहित हो जाने के कारण उनके समता भाव आविर्भूत हना है, और इस समता भाव के प्रकट हो जाने से उनके पात्मावबोध तथा इससे उनके कर्मों का वियोग हुग्रा है। अतएव कर्मों का क्षय से जो महंत परमेष्ठी अनन्त सुख प्रादि गुणों के प्राथय को प्राप्त हुए हैं वे अर्हत् परमेष्ठी सर्वदा पाप लोगों की रक्षा करें॥३ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवाड का इतिहास বাল জন মাঙ্গী चन्द्रवाट, चन्दावर मोर चन्द्रवाट नाम का एक जो अजमेर के चौहान वंशी राजामों के वंशधर थे। इन प्रसिद्ध नगर यमुना नदी के तट पर बसा हुमा था, जो राजाओं ने केवल चन्द्रवाड पर ही शासन नहीं किया, माज प्राचीन ध्वंसावशेषों-खण्डहरो-के रूप में दृष्टि- प्रत्युत इटावा मोर उसके समीपवर्ती भू भाग पर भी गोचर हो रहा है । वह अतीत को उस झांकी को प्रस्तुत शासन किया है। उनमें हतिकान्त, रायवद्दिय (रायभा) कर रहा है कि हम भी किसी समय श्री सम्पन्न और रपरी, कुरावली, मैनपुरी, दत्तपल्ली पौर भोगांव प्रादि समुन्नत थे; किन्तु काल की कराल गति से प्राज हमारा स्थान है, जिन पर उनका शासन १६वीं शताब्दी तक तो बभव भूगर्भ में स्थित है। कहा जाता है कि विक्रम सं० रहा ही है, किन्तु कहीं कही कुछ बाद में भी रहा है। १०५२ मे चन्द्रपाल नाम के एक जैन पल्लीवाल राजा इन राजाओं के शासनकाल में जैनधर्म का खूब उत्कर्ष रहा को स्मृति में इस नगर को बसाया गया था। जिसका है। क्योंकि इनके मंत्रीगण प्रायः जैन ही रहे हैं, उन्होने दीवान रामसिंह हारुल था। अपनी बुद्धिमत्ता से राज्यकार्य का संचालन किया है। चन्द्रवार में विक्रम की तेरहवीं शताब्दी से १६वीं । विक्रम की १४वी, १५वीं और १६वीं शताब्दी में शताब्दी तक चौहान वंशी राजामों का राज्य रहा है। राज्य रहा ह। रचे गये अपभ्रश और सस्कृत के ग्रन्थो में चौहान वश के १. हिन्दी विश्वकोष के भाग ७५० १७१ में लिखा है कि राजामों का उल्लेख है। चन्द्रपाल इटावा अंचल के एक राजा का नाम था। विक्रम की १३वी शताब्दी में (वि० सं० १२३० मे.) कहा जाता है कि राजाचन्द्रपाल ने राज्य प्राप्ति के चन्द्रवाट या चन्द्रबाड निवासी माथुरवशी साह नारायण बाद चन्द्रबाड में सं० १०५३ मे एक प्रतिष्ठा कराई और उनकी धर्मपत्नी रूपिणीदेवी ने, जो देव-शास्त्र थी। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित स्फटिक मणि की एक और गुरुभक्त थी, संसार वर्धक कथानो को सुनने में मूर्ति जो एक फुट की प्रवगाहना को लिए हुए है पाठवें विरक्त थी, उसने श्रुत पंचमी के उपवास-सम्बन्धी फल तीर्थकर चन्द्रप्रभ की थी और जिसे यमुना की मध्य को प्रकट करने वाले भविष्यदत्त कुमार के जीवन परिचय धारा से निकाल कर फिरोजाबाद में सोत्सव लाया को व्यक्त करने वाली 'भविष्यदत्तकथा' कवि श्रीधर गया था, अब वह फिरोजाबाद के मन्दिर में विराज- से लिखवाई थी'। यद्यपि कवि श्रीधर ने ग्रन्थ प्रशस्ति मे मान है। २. चन्द्रपाल का दीवान रामसिंह हारुल लंबकंचुक । __३. देखो, जैन अथप्रशस्तिसंग्रह द्वितीय भाग, वीर(लमेचू) आम्नाय का था। उसने वि० सं० १०५३ सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली तथा मनेकान्त और १०५६ में कई मूर्तियों की प्रतिष्ठा चन्द्रवाह में वर्ष १३ किरण पृ. २२७ में प्रकाशित 'नागकराई थी जिनका उल्लेख निम्न प्रकार है: कुमार चरित मौर कवि धर्मधर नाम का लेख । १ देशी पाषाण वादामी रंग २ फुट की मूर्ति सं० ४. मरणाह विक्कमाइच्च काले, पवहंतए सहय रए विसाले। १०५३ वैशाख सुदि ३ रामसिंह हारुल...." वारह सय वरिसहिं परिगएहिं, २ देशी पाषाण वादामी रग ३ फुट ऊंची मूर्ति- दुगणिय पणरह बच्छर जुएहिं ।। स. १०५६ अगहन सुदि ५ गुरौ तिथौ......" फग्गुण-मासम्मि बलक्ख पक्खे, कात्या वलिकनकदेवः सुतः कोक:...", दसमिहदिणे तिमिरुक्कर विवरखे। ३ देशी पाषाण सवातीन फुट-मों मनु सं० १०५३ रविवार समाणिउ एक्कु सत्यु, वैशाख मदि३...... जिह मई परमाणिउ सुप्पसत्यु ।। -भविसयत्त कश Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनवार का इतिहास १५७ उस समय चन्द्रवार के राजा के नामादिक का कही उल्लेख पईव' नाम के प्रथ को चन्द्रवाह के चौहान वशी राजामों नहीं किया। प्रतएव निश्चयतः यह कहना कठिन है कि के राज्यकाल में रचकर समाप्त किया था। उसकी मादि उस समय वहाँ किसका राज्य था। पर उस समय चन्द्र- मम्त प्रशस्ति में वहां के राजामों और राजमत्रियों की बाहसमुख था मौर वहाँ हिन्दू जनता के साथ जैन परम्परा का विवेचन किया गया। जनता भी अपने धर्म का साधन करती थी। उसके कुछ कवि लक्ष्मण या लक्ष्मणसेन ने जो स्वय जायसवाल समय बाद अर्थात् सन् ११९४ (वि. स. १२५१ म) थे अपने ग्रथ में चन्द्रवाड के चौहानवंशी राजामो की परम्पग, और जंन मंत्रियो मादि का परिचय निम्न शहाबुद्दीन गोरी ने-जब वह बनारस और कन्नौज की मोर जा रहा था, रास्ते में उसकी मुठभेड चन्द्रवाड में जय प्रकार अकित किया है। भरतपाल, अभयपाल, जाहर चन्द गहडवार से हो गई थी, जिसमे राजा जयचन्द हाथी और श्री बल्लाल नाम के राजा हए। श्री बल्लास के के हौदे पर बैठे हुए सैन्य संचालन कर रहे थे । महसा पुत्र ग्राहवमल्ल थे, जिन्होंने 'गयवद्दिय' नामक नगर मे शत्रु का एक तीर लगने से मृत्यु को प्राप्त हुए, किन्तु शासन किया था । वह चन्द्रवाड का ही एक शाखा नगर उसके पुत्र हरिश्चन्द्र ने कन्नौज का गढ़ अपने हाथ से था। जिमकी स्थापना वि० सं० १३१३ से पूर्व हो चुकी नहीं जाने दिया। मुहम्मद गौरी जयचन्द को विजित कर थी। क्योकि जिस समय उक्त पाहवमल्ल राज्य कर रहे १४०० ऊंट लूट के माल से भरवा कर ले गया। थे, तब उनके प्रधानमंत्री लब कचुक कुल (लमेचू)के मणिचौहानवंशी राजानों के राज्यकाल में जैनधर्म : साहू मेठ के द्वितीय पुत्र थे, जो मल्हादेवी से उत्पन्न थे, चौहान वशी राजाओं के शासन काल में चन्द्रवाड ... जो बड़े बुद्धिमान और राजनीति में दक्ष थे। इनका नाम जन-धन से परिपूर्ण एक अच्छा शहर हो गया था। कण्ह या कृष्णादित्य था। श्री बल्लाल के बाद चन्द्र वाड पागग से इटावा, कन्नौज और इनके पास-पास के के राजाओं का इतिवृत्त इस ग्रन्थ से ज्ञात नहीं होता। मध्यवर्ती भूभाग पर इनका शासन रहा है। इनके समय चन्द्रवाड के चौहानवंश के उक्त चार राजापो के समय एक मे लब कंचुक और जैसवाल आदि जैन कुलों के श्रेष्ठी महत्वपूण नगर के रूप में प्रसिद्ध था। उसकी महत्ता जन उनके दीवान होते थे, जो जैनधर्म के अनुष्ठाता का एक कारण यह भी था कि उस समय वह व्यापार का एक केन्द्र भी बना हुआ था। बाहर के लोग चन्द्रपौर धर्मात्मा थे। इस कारण चन्द्रवार और उसके प्रासपास का प्रदेश जैन सस्कृति का केन्द्रस्थल बन रहा था, वाड में यमुना नदी को पार करके ही पा सकते थे, और वहां जैनियों को अच्छी आबादी थी और अनेक जैन उसे नौकानों द्वारा पार करना होता था, क्योंकि नगर व्यापारी उच्च कोटि के व्यापार द्वारा अच्छे सम्पन्न और यमुना नदी से घिरा हुप्रा था, वहाँ सैकडों नौकाएं और नौका संचालक नाविक रहते थे। उनके द्वारा ही माल राज्यमान थे। मनेक जैन मन्दिरो के उन्नत शिखरो से का प्रायात निर्यात होता था। बडे-बड़े व्यापारी वहाँ मलकृत वह नगर श्री सम्पन्न था। बसते ये। व्यापार से खूब प्रर्थोपार्जन होता था, उससे वि० सं० १३१३ में कवि लक्ष्मण ने 'अणुवय-रयण राज्य और जनता दोनों को प्रषं लाभ होता था। उसकी ५. देखो राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द दुसरा यह समृद्धि विरोधी राज्यों द्वारा ईर्ष्या और वेष का कारण संस्करण और Shahabudin met him at बनी हुई थी, प्रतएव वह लड़ाई का क्षेत्र भी बना हुमा chandrawar in the Etawah District near था। वहाँ अनेक युद्ध हुए थे, इस कारण वहां के लोगों को yumra and Hiving defaled his hart with the immense slaughlor. जन-धन की बहुत हानि उठानी पड़ी पी; किन्तु वहां का The Early history of in India P. 400. कोट (किला) प्रत्यन्त सुदृढ़ था, पतएव शत्रु पक्ष उस पर दखा, मछला शहर का शिलालेख तथा ताजिलमासा ७. देखो, मणुवयरयणपईव प्रशस्ति । रायद्दिय नगर हसन निजामी, तावकाते नसीरी जिल्द १ पेज ४७० यमुना नदी के उत्तर तट पर बसा हा था और नसीरुद्दीन मुहम्मद इलियट वाल्यूम १ पृ० ५४३-४४ श्री सम्पन्न था। बही प्रशस्ति सं० पृ. २७ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० वर्ष २४, हि०५ अनेकान्त जल्दी कम्जा करने में समर्थ नहीं हो पाता था। उक्त सित करने के लिए मूर्य के समान था। उस समय रायराजाभों के समय लमेचू वश के निम्न मत्री हुए, जो वद्दिय नगर श्री सम्पन्न प्रौर जंन संस्कृति का केन्द्र बना राजनीति के साथ धर्मनीति का जीवन में प्राचरण करते हुप्रा था, वहाँ अनेक विशाल जैन मन्दिर थे। माहवमल्स थे। राजा भरतपाल के समय साहू हल्लण नगरसेठ के के प्रधान मंत्री कृष्णादित्य ने रायवादिय के जिनालयों का पद पर प्रतिष्ठित थे। और अभयपाल के समय उनके जीणोद्धार किया था और जिन शासन का प्रचार किया था। पत्र ममतपाल, जो जिन धर्मभक्त, सप्तव्यसन रहित, विक्रम सवत १४४५ में चन्द्रवाड मे दिल्ली के भट्रादयाल. परोपकारी और प्रधानमत्री थे। राजा अभयपाल रक प्रभाचन्द्र के शिष्य कवि धनपाल ने 'बाहुबली' चरित को मृत्यु के बाद उनके पुत्र 'जाहड' नरेन्द्र के समय भी। की रचना की थी। उन्होने उसमे उससे पूर्व चन्द्रवाड उन्होंने मंत्रित्व का कार्य कुशलता के साथ संचालित किया की स्थिति का दिग्दर्शन कराते हए लिखा है कि-- उस था। इन्होंने जिनभक्ति से प्रेरित होकर वहाँ एक विशाल समय भी वही जिन मन्निर बनवाया था, जो उन्नत शिखरा, तारणा उस वश के शासक सारग नरेन्द्र राज्य कर रहे थे। और ध्व जामों से अलंकृत था। यह १३वी शताब्दी के ६. विक्कम-णरिद-प्रकिय समए, पास-पास को घटना है। इनके बाद इनके पुत्र श्रीबल्लाल' चउदह-सय-संवच्छ रहिं गए । ने वहाँ शासन किया है। श्री बल्लाल के समय अमृतपाल पंचास वरिस-चउ अहिय-गणि, के पुत्र साहू सेढ़ प्रधान मंत्री हुए । इनकी दो पत्नियां थी, वइसह होसिय-तेरसि-सु-दिणि । उनमें प्रथम पत्नी से रत्नपाल का जन्म हुआ था, यह साई णक्खते परिट्टियई वरसिद्ध-जोग-णामें ठियई॥ और प्रकृति के थे। इनकी पत्नी ससि वासरे रासि मयंक तुले गोलग्गे मुत्ति सुक्के सबले ॥" माल्हादेवी से कण्हड या कृष्णादित्य का जन्म हुआ था। ~जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २, पृ०७७ या विधान और राजनीति का पडित था। यही १०. राजा सभरी राय के बाद उनके पत्र सारंग नरेन्द्र रायवद्दिय (रायभा) के राजा आहवमल्ल का प्रधान मत्री ने राज्य किया। सारगदेव की मृत्यु के बाद उनक था। यह कुटुम्ब सम्भवत: रायवदीय चला गया था। पुत्र अभयचन्द्र ने पृथ्वी का पालन किया। अभयवहाँ रत्नपाल के पुत्र शिवदेव को अपने पिता की मृत्यु के चन्द के दो पुत्र थे- जयचद और रामचन्द्र । सभवाद पाहवमल्ल ने नगरसेठ बना दिया था और उसका रोयराय के समय यदुवंशी (जैसवाल) साहु जस रथ या अपने हाथ से तिलक किया था। दशरथ मंत्री थे, जो जैनधर्म के संपालक थे । सारग ग्राहव मल्ल एक वीर शासक था। इसने मुसलमानो नरेन्द्र के समय उनके पुत्र गोकुल व कर्णदेव मत्रिसे युद्ध में विजय प्राप्त की थी। इसकी पट्टगनी का नाम पद पर पतिष्ठित हुए थे। किन्तु राजा अभयचन्द ईसरदे था। इसने रणथभोर के राजा हम्मीर की शल्य को और उनके पुत्र जयचद के समय राज्य के मंत्री नष्ट किया था। यह चौहानवश रूपी कमलों को विक- लब कचुक (लमेच) वंश के साहु सोमदेव मंत्री पद पर कार्य कर रहे थे। परन्तु द्वितीय पुत्र रामचन्द्र ८. ये हम्मीर बीर चौहान वंशी राजा हम्मीर है, जिनकी के समय सोमदेव के पुत्र साहु वासाघर मंत्रिपद पर हठ प्रसिद्ध है और जिनका किला, दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने सं० १३५७ (सन् १३००) में प्रतिष्ठित हुए। रामचन्द्र ने इसी १४५४ संवत् में चौहान राज्य को वहां समाप्त कर दिया था। और जयचन्द के बाद राज्य पद प्राप्त किया था। तथा हम्मीर वीरगति को प्राप्त हुए थे। राज्यकार्य में दक्ष और कर्तव्य परायण था, परन्तु पुप्पिच्छ-मिच्छरण रंग मल्ल, उस समय की राजनैतिक परिस्थिति भी बड़ी भयावह हम्मीर-वीर-मण-गट्ठ-सल्लु। थी और मुसलमान बादशाहों की निगाहें उस पर चउहाणवसतामरसभाणु मुणियइ ण जासु भयबलपमाणु ॥ लम रही थी। ऐसे समय अपनी स्वतंत्रता कायम -जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ पृ. २८ रखना बुद्धिमत्ता का ही कार्य है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवा का इतिहास १८९ को संभरीराय के पुत्र थे। अतः सिद्ध है कि उस समय कवि धनपाल ने अपनी ग्रंथ प्रशस्ति में सं० १४५४ भी उक्त नगर समृद्ध और सुन्दर था। तथा ऊँची-ऊँची से पूर्व के इतिवृत्त का भी कुछ उल्लेख किया है। और भट्टालिकामों से सुशोभित था। तथा साहू वासाघर मंत्री चन्द्र वाड के निम्न चौहान वंशी राजामों का उल्लेख पद पर प्रतिष्ठिन थे, जो लब कचुक कुल (लमेचू वश) किया है, जिनकी संख्या ५ है। सभरीराय, सारंग नरेन्द्र, के थे और सोमदेव श्रेष्ठी के सात पुत्रों में से एक थे। अभयचन्द्र और इनके पुत्र जयचन्द, रामचन्द्र । रामचन्द्र उन्ही की प्रेरणा और अाग्रह से कवि ने उक्त प्रथ की के पुत्र प्रतापरुद्र । इनमें प्रारभ के तीन नामों का अच्छा रचना की थी। कवि धनपाल ने साहु वासावर का परि- परिचय ज्ञात नहीं होता, अन्वेषण करने पर उस समय के चय देते हुए उन्हे सम्यक्त्वी, जिन चरणों का भक्त, साहित्य मे मिल सकता है पर वह मेरे देखने में नहीं पाया। जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलोक मित्र, विक्रम सवत् १४५४ मे अभयचन्द्र के प्रथम पुत्र जयमिथ्यात्व रहित और विशुद्ध चित्त वाला बतलाया है। चन्द्र के राज-काज करने का उल्लेख अवश्य उपलब्ध साथ ही प्रावश्यक दैनिक देव-पूजादि षट्कर्मों में प्रवीण, हना है । अवशिष्ट पूर्ववर्ती तीन राजापो का राज्यकाल राजनीति मे चतुर और अष्ट मूलगुणो के पालन मे तत्पर यदि ६० वर्ष मान लिया जाय, जो अधिक नहीं है तो भी प्रकट किया है। वासाधर ने भी चन्द्रवाड मे एक जैन इनकी सीमा १३७५ या १४०० के पास-पास होगी। मन्दिर बनवाया था, और उसकी प्रतिष्ठा भी की थी। तब सं० १३७५ से १४२५ तक किन का राज्य रहा, यह इनकी पत्नी का नाम 'उदयकी' था, जो पतिव्रता और विचारणीय है। सभरीराय से पूर्व किसका राज्य था यह शीलव्रत का पालन करने वाली थी, तथा चतुर्विध सघ भी चिन्तनीय है। इस सम्बन्ध मे अन्वेषण करने की के लिए कल्पनिधि थी। इनके पाठ पुत्र थे-जसपाल, पावश्यकता है जिससे स० १३१३ से १४५४ तक की रतपाल, चन्द्रपाल, विहराज, पुण्यपाल, बाहड़ और रूप- शृखला का सामजस्य ठीक बैठ जाय।। देव । ये पाठों ही पूत्र अपने पिता के समान ही योग्य, सवत् १४५४ मे चन्द्रबाड मे निमित होने वाले चतर और धर्मात्मा थे। वासाघर के पिता सोमदेव श्रेष्ठी ग्रन्थ में कवि ने जिन राजाम्रो का उल्लेख किया था वह भी अभय चन्द्र और उनके पुत्र जयचन्द के समय मंत्री ऊपर दिया जा चुका है। हाँ सेठ का कूचा दिल्ली के बडे पद पर पासीन रह चुके थे। यद्यपि सोमदेव यदुनशी थे मन्दिर में स्थित एक चौबीसी धातु की मूर्ति के उल्लेख से परन्त उनका कुल 'जम्ब कंचुक' (लमेच) था। क्योकि ज्ञात होता है कि उस समय अभयचन्द के प्रमा जंन साहित्य सदन दिल्ली की प्रति में उनके पुत्र को चन्द्र का राज्य था। उसके राज्य शासनकाल मे ही उक्त लमेच' लिखा है, जैसा कि ग्रन्थ की चौथी संधि के निम्न मूति की प्रतिष्ठा की गई थी। इसमें स्पष्ट है कि प्रभयपद्य से जान पडना है : १२. सर्थयसे वोऽस्तु गुगादिदेवः, मुरामुरे निर्मित पादसेवः । श्री लम्ब केंचुकुल पविकासभानः, यस्या बभातीतिसगेहाली सोमात्मजो दुरितदारु चयकृशानुः । भगावलीवास्य सरोजलुब्धा ।।१।। धर्मक साधनपरो भुविभव्य बन्धु स० १४५४ वर्ष वैशाख सुदि १२ सोम दिने श्री साधरो विजयते गुणरत्नसिन्धुः ।। चन्द्र पाटदुर्गे चाहुवाणराज्ये श्रोप्रभयचन्द्रदेव सुपुत्र -बाहुबलि चरित संधि ४. श्री जयचन्द्र देव राज्ये श्री काष्ठासघे माथुरा११. जिणणाह चरणभत्तो जिणधम्म परोदया लोए। स्वये प्राचार्य श्री अनन्तकीर्तिदेवास्तत्पट्ट क्षेमकीर्ति सिरि सोमदेव तणमो गंदउ वासद्धरो णिच्च ॥ देवा पद्मावती पौरपाटान्वये साधु माहण पुत्र सा० सम्मत्त जुत्तो जिणपायभत्तो दयालुरत्तो नहुलोयमित्तो। देवराज भार्या पमा, पुत्राः पच-करमसीह, नरसीह, मिच्छत्त चत्तो सुविसुद्धचित्तो हरिसिंह, वीरसिंह, रामसिंह एतः कर्मक्षयार्थ चतुवासाघरो गंदउ पुण्णचित्तो।। विशतिका प्रतिष्ठाकारितः पडित मारु शुभ भवतु । -बाहुबली चरित्र सं०३ (कूचा सेठ दिल्ली बड़ा मन्दिर Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०, वर्ष २४, कि०५ मोकान्त चन्द्र का राज्य उससे पहले रहा है, पर वह कब से कब प्रलय काल के समान था, गुणग्राही भतुलित साहस पोर तक रहा है यह अभी विचारणीय है। द्वितीय बन्द का राज्य उससे बाद में हुमा जान पड़ता है। उसी समय योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल क्योंकि विक्रम संवत् १४६८ में उनका राज्य विद्यमान था। वंशी साहु तोसर के चार पत्रों में से प्रथम पुत्र साह उक्त संवत् में ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या शुक्रवार के दिन नेमिदास ने वहाँ व्यापार करके बहुत द्रव्य प्रजित किया चन्द्रवाह नगर में रामचन्द्र देव के राज्यकाल में भट्टारक था। तथा जिन भक्ति वश विद्रुम (मुंगा) रत्नों पोर प्रमरकीति का षटकर्मोपदेश नाम का ग्रंथ लिखा गया पाषाण प्रादि की अनेक मूर्तियों का निर्माण कराकर या, और जिसे चन्द्रवार के निवासी साहू जगसीह के प्रतिष्ठित किया था और वहाँ जिनमन्दिर वनवाया था। प्रथम पुत्र उदयसिंह के ज्येष्ठ पत्र देल्हा के द्वितीय पुत्र यह उस समय चन्द्र वाड के राजा प्रतापरुद्र द्वारा सम्माअर्जन ने अपने ज्ञानावरणी कर्म के क्षयार्थ लिखवाया नित थे। साहू नेमिदास श्रावक व्रतो के अनुष्ठाता, था"। और मूलसघी गोलाराडान्वयी पण्डित भसवाल के शास्त्रस्वाध्याय, पात्रदान और परोपकार प्रादि सत्कार्यों पुत्र विद्याधर ने लिखा था। में प्रवृत्ति करते थे। उनका चित्त उदार था, और लोक कविवर रइधु ने 'पुण्णासव कहाकोस" की रचना में उनकी धार्मिकता और सुजनता का सहज ही प्राभास अपभ्रश भाषा में की है। जिसमें सम्यक्त्वांपादक एवं हो जाता है। कवि रइधूने साह नेमिदास का जयघोष करते पुण्यवर्धक कथानो की सृष्टि की गई है। कथाएँ बड़ी हुए उनकी मगल कामना की है। इन्ही साहु नमिदास रोचक है। इस ग्रंथ की प्रशस्ति मे कवि ने चन्द्रबाड का के अनुरोध से कवि रइधू ने उक्त 'पुण्यास्रव कथाकोष' वर्णन करते हुए लिखा है कि-'चन्द्रबाड पट्टन कालिदी की रचना की थी। ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम की १५वी (यमुना) नदी से चारो तरफ घिरा हा है। फिर भी शताब्दी का अन्तिम चरण जान पड़ता है। वह धन-कन-कंचन और श्री से समृद्ध है। वहाँ चौहान- १४. बहु-विह-धाउ-फलिह विददम-मउ, वंशी राजा रामचन्द्र ने अपना राज्यभार अपने ज्येष्ठ कारावेप्पिणु अगणि। पडिमउ । पुत्र प्रतापरुद्र को दे दिया। प्रतापरुद्र एक वीर पराक्रमी पतिट्ठाविवि सुहु प्राविज्ज उ, शासक था। धीर रूपवान, गंभीर, राजनीति में चतुर सिरि तित्थेसर गोत ममज्जि उ । पौर युद्ध करने में कुशल था। उसने अपनी तलवार से जि गह-लग्ग सिहरु चेईहरु, अनेक शत्रयों को विजित किया था। वह शवों के लिए पणु णिम्माविय ममिकर-पह हरू । १३. अथ सवत्सरे १४६८ वर्षे ज्येष्ठ कृष्ण पचदश्या मिदास णामे सघाहिउ, शुक्रवासरे श्रीमच्चन्द्रपाटन गरे महाराजाधिराज जंजिण संघभार णिवाहिउ ।। रामचन्द्रदेव राज्ये तत्र श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये श्री -जैन ग्रथ प्रशस्ति सग्रह भा० २ पृ० १०० मूलसंधे गूजर (गुजर) गोष्ठि तिहुयणगिग्यिा साहु १५. णिव पयावरुदद सम्माणि उ । जगसीहा भार्या सोमा तयोः पत्रा: [चत्वारा.] प्रथम -पण्यासव कथाकोश प्रशस्ति पुत्र उदेसीह भार्या रतो, [द्वितीय ] असीह तृतीय १६. "प्रताप रुद्र नृपराज विश्रुतपहराज चतुर्थ खाम्हदेव । ज्येष्ठ पत्र उदेसीह भार्या स्त्रिकालदेवार्चन धिता शुभा। रतो त्रयाः पुत्रा: ज्येष्ठ पत्र देल्हा, द्वितीय सम, जेनोक्तशास्त्रामृतपान शुद्धधी: तृतीय भीखम । ज्येष्ठ पत्र देल्हा भार्या हिरो (तयोः) चिरं क्षितो नन्दतु नेमिदासः ॥३॥" पुत्रा द्वयो: ज्येष्ठ पुत्र हाल, द्वितीय अर्जुन ज्ञाना. "सत्कवि गुणानुरागी श्रयान्निव पात्रदान विधिदक्षः। वरणा कम क्षयार्थ इद षट् कमोपदेश लिखापितं ।" तोसउ कुल नभचन्द्रो नन्दतु नित्यमेव नेमिदासाख्या।।" -नागौर शास्त्र भंडार -जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २ प्रस्तावना पृ० १०१ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्रवार का इतिहास १९१ सवत् १५११ मे पण्डित धर्मधर ने 'दत्तपल्ली' में, रुद्र, अभयचन्द्र, और रणवीर सिंह । साहू नल्हू ने चन्द्रजो इक्ष्वाकुवशी गोलाराडान्वयो साहु महादेव का प्रपत्र वाड के जिनालय का जीर्णोद्धार कराया था। पौर पौर माशापाल तथा हीरादेवी का पत्र था। सस्कृत चतुर्विध संघ को दान दिया था पोर पूजा की थी। वह भाषा में दो ग्रन्थ बनाये थे। इसके दो भाई और भी गुणानुरागी बुद्धिमान और शास्त्र का ज्ञाता था। धनेश्वर थे, विद्याधर और देवधर'" । यह मूलसघ सरस्वतीगच्छ के के पुत्र साह नल्हू की प्रेरणा से कवि ने इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और जिन चन्द्र का अनुयायी की थी। था। यह सस्कृत भाषा का अच्छा विद्वान और कवि था। चन्द्र वाड को श्रीवृद्धि प्रतापरुद्र के समय में हो इमने सबसे पहले 'श्रीपाल चरित' की रचना की। और बिगडने लगी थी। सं० १४९४ मे खिजरखा ने इस पर बाद मे सं० ११११ मे 'नागकुमार चरित की रचना अधिकार कर लिया था और भो गांव के राजा से खिराज दत्तपल्ली' नगर के निवासी साहु नल्हू की प्रेरणा से वसूल किया था। को, जो चन्द्र वाड का एक शाखा नगर था", और वहाँ स० १४६१ मे हसनखा लोदी ने उसे अपनी जागीर पर चौहान वशी राजा का राज्य था। साहू नल्हू के बनाया, किन्तु सैयदो ने उसका अधिकार नहीं होने दिया। पिता का नाम घनेश्वर था, उस समय वहाँ भोजराज का बाद में राजा प्रतापरुद्र को, जो एकजागीरदार या चन्द्रवार, पुत्र माधवचन्द्र राज्य कर रहा था। उक्त घनेश्वर या भोगांव और मैनपुरी की जागीर स्वीकृत की। रपरी घनपाल उनका मंत्री था। नागकुमार चरित की प्रशस्ति और इटावा कुतुब खां की जागीर में रहे। मुसलमानों में राजा रामचन्द्र के तीन पुत्रों का उल्लेख है"। प्रताप. के शासनकाल मे चन्द्रवाड की स्थिति अत्यन्त विषम हो गई, और कुछ समय के उपरान्त चन्द्र वाह श्री विहीन हो १७. इक्ष्वाकु वश सभूतो गोलाराडान्वयः सुधीः । गया। महादेवस्य पत्रोऽभूदाशापालोबुधः क्षिती।।४४ मुस्लिम शासनकाल में चनावाद तभार्या शील संपूर्णा हीरानाम्नेति विश्रुता । मुस्लिम शासनकाल मे चन्द्रवाड का किला अपनी तत्पुत्र त्रितय जातं दर्शनज्ञान वृत्तवत् ।।४५ । ज्येष्ठो विद्याधरः ख्यात: सर्व विद्याविशारदः । मजबूती के लिये प्रसिद्ध था। वहाँ चौहान वंशज क्षत्रिय राजाओं की मुस्लिम शासकों से कई बार मुठभेड़ हुई थी। ततो देवधरः जातस्तृतियोद्धर्मनामकः ।। उन के प्राक्रमण के कारण वहाँ क्षत्रियो का शासन प्रायः -देखो, नागकुमारचरित प्रशस्ति 'अनेकान्त वर्ष समाप्त हो गया था। फिर भी शासन उन्हीं का चलता १३ कि० ६५० २३० । रहा, जागीरदार के रूप में भी उनके शासन का उल्लेख १८. चन्द्रपाट समीपेऽस्ति दत्तपल्ली पुरी पुरा । मिलता है। राजते कलावल्लीव वांछितार्थ प्रदायका ।। सन् १३८६ (वि० स० १४४६) मे मुलतान फिरोज -नागकुमारचरित पु०६ १६. श्री रामचन्द्रो जितवक्रचन्द्रः, तस्यानुजः श्रीरणवीर नामा, स्वगोत्र पायोनिघि वृद्धिचन्द्रः । भुक्ते महाराजपदं हतारिः । विपक्ष पकेरुह वृन्दचन्द्रो, श्रीमत्सुमत्रीश्वर रायतासे, जातो गुणज्ञोऽभयचन्द्र पुत्रः ॥३॥ भ्रात्रा सम नदतु सर्वकालं ॥८॥ श्रीमत्प्रतापनृपतिस्तनयस्तदीयो, -नागकुमार चरित प्रशस्ति ज्येष्ठो नराधिपगुण रस्तुलो विनीतः। २०. श्रीचंद्रपाट पुरवर जिनालयस्याऽऽस्य जीणंतोद्धरण । नातः सुरैः सकलसोत्ययुतं स्वलोक, येनाऽकारि सुभद्र स सर्वदानंदतान्नल्हः । जात्वा गुणाधिकमिमं कमनीयकांति ॥७ -नागकुमार चरित्र ७वी मधि पत्र ३१ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२, २४, कि० ५ 9 शाह तुगलक ने 'हृतिकान्त' पर हमला किया था, उस समय 'हसनखी' नाम का एक अफगान लोदी परी का अधिकारी बन बैठा था और वही बरायनाम चन्द्रवाड का भी जागीरदार कहलाने लगा। तुगलक शाह ने जो फतेह का पुत्र और फीरोजशाह का पोता या चन्द्रवाट को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। उस समय यहाँ के राजा ने भागकर अपनी रक्षा की थी, उसका नाम सावंतसिंह था । जो चन्द्रसेन का पुत्र था। उस समय तो वह किसी तरह बच गया; किन्तु उसने कुछ ही समय बाद बड़ी भारी फौज के साथ पुनः घेर लिया, और उसे बर्बाद किया। कहा जाता है कि उसी समय चन्द्रप्रभ भगवान की स्फटिक मणि की एक सुन्दर मूर्ति यमुना नदी की बीच धारा में डाल दी गई थी। यह मूर्ति बडी सातिशय थी और जो बाद को यमुना नदी के प्रवाह से बाहर निकाली गई थी। जो उस समय फिरोजाबाद के अटा के मन्दिर में विराजमान की गई थी। सवत् १४६४ मे खिजर ने इसे अपने अधिकार में कर लिया और भी गाँव के राजा से खिराज वसूल किया। प्रनेकान्त सं० १४९१ में हसनख लोदी ने चन्द्रवाड को अपनी जागीर बनाया, किन्तु सैयदों ने उस पर अधिकार नहीं होने दिया । पश्चान् राजा प्रतापराय या प्रतापरुद्र को, जो जागीरदार था चन्द्रवाट भोगांव मैनपुरी की जागीरे, और रपरी, इटावा की जागीर कुतुब खाँ को मंजूर की। , जब सुलतान बहलोल लोदी का जौनपुर के नवाब से युद्ध हुआ, उस समय बडी में स्वरपरी का जागीरदार नियत किया गया। तब चन्द्रवाड और इटावा भी उसके अधिकार मे रहे थे। सन् १४८७ (वि.सं. १५४४) में बहलोल लोदी ने रपरी में जौनपुर के बादशाह हुसेनखा को हराया था । अनन्तर सिकन्दर लोदी ने सं० १५४६ मे (सन् १४८६ ) मे चन्द्रवाड और इटावा की जागीरें अपने भाई बालमखां को प्रदान कर दीं। परन्तु वह उससे रुष्ट हो गया और उसने बाबर को बुला भेजा; किन्तु चन्द्रवा में उसे हुमायूं ने पराजित कर दिया, यह परिस्थिति राणा सांगा से सहन न हुई और उसने मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया और मुगलों का अधिकार चन्द्रवाड मोर रपरी पर हो गया । पर यह सब क्षणिक था । शेरशाह ने हुमायूं को पराजित कर उस पर अपना अधिकार कर लिया । उस समय प्रजा में कुछ जोग प्राया और अपनी स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये उसने विद्रोह कर दिया। किन्तु शेरशाह १२००० घुडसवार हिन्द सरकार से लाकर हृतिकांत में रहा और उसने अपना अधिकार पक्षुण्ण बनाये रखा। उसने इस देश मे सड़के तथा सराय बनवाईं। श्रकबर के समय परी और चन्द्रवाड के प्रदेश सूबा मागरा में मिला लिये गए । इस तरह चन्द्रवाड प्रादि की परिस्थिति विषम होता गई और वह अपनी सोई हुई थी सम्पन्नता को फिर नहीं पा सका, और आज वह खण्डहरों के रूप में अपनी पूर्व जीवन गाथा पर धांसू बहा रहा है, वहां जैनियों के अनेक विशाल मन्दिर थे, जो भूगर्भ में अपनी श्री सम्पन्नता को दबाये हुए सिसकियाँ ले रहे है, वहा आज भी भूगर्भ मे अनेक मूर्तिया दबी पड़ी है। खुदाई होने पर जैन कोटियो के प्रचुररूप में मिलने की संभावना है. साथही जंतर सामग्री भी प्रचुर मात्रा में मिल सकती है। खुदाई मे ऐतिहासिक सामग्री का मिलना संभव है। महां एक जीर्ण मन्दिर पशिष्ट था जिसका जीर्णोद्वार फिरोजाबाद पंचायत ने कराया था, उसमे इस समय कोई जैन मूर्ति नहीं है किन्तु मेले के समय मूर्ति फिरोजाबाद से से जाई जाती है। इस सब विवेचन पर से स्पष्ट हो जाता है कि घागरा धौर रुहेलखण्ड मे चन्द्रवाड, इटावा, हतिकान्त रपरी, साईखेड़ा, करहल, मैनपुरी और भोगांव श्रादि स्थान उत्तर भारत की जैन संस्कृति के प्रमुख केन्द्र थे । ये स्थान जहाँ चौहान वंश की उज्ज्वलता के प्रतीक है वहाँ जैन संस्कृति के अतीत गौरव की झांकी प्रस्तुत * देखो भूगोल का संयुक्त प्रान्त प्रक, भूगोल कार्यालय इलाहाबाद । करते हैं । Atken: on 'Statistical des criptione and Historical Acount of the N. W. P. S. of India Vol. TV, P. T. P. 373 - 375. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी भाषा का महावीर साहित्य ० कस्तुरचन्द कासलीवाल वीर निवाण रावन २:१५न चका' योर र डानीपत्रो मे " 'द गूनापत्र वर्ष मे भी कम समय पश्चात् चिर प्रतीक्षित २५००वा होगा। जिसमे एक ही भाग मे २० हजार से भी अधिक निर्वाण संवत् प्रारम्भ हो जावेगा। इस अवसर पर ग्रन्थों का विवरण दिया गया है। राजस्थान के टन २५००वे निर्वाण महोत्सव तक उनके जीवन से सम्बन्धित विभिन्न दिगम्बर शास्त्र भण्डारों मे भगवान महावीर के जितना भी साहित्य है उसके प्रकाशन की योजना विचा- जीवन पर अब तक जो काव्य उपलब्ध हए हैं उनमें मबगे राधीन है। भगवान महावीर के जीवन पर मस्कृत, अप- अधिक काव्य हिन्दी भाषा में निबद्ध है। वसे सस्कृत अशा एवं हिन्दी तीनो ही भापायो मे विभिन्न कवियो ने भाप में अब नर भाषा मे अब तक जिन रचनाओं की उपलब्धि हो चुकी परित काव्य, पुराण एवं रास काव्य लिखें है। गात एव है उनके नाम निम्न प्रकार है। स्तवन लिख कर उनका यशोगान गाया गया है और १. बर्द्धमान चरित महाकवि अशग इसी तरह कथा, चौगाई, बनासी, छत्तीमी, चौढाल्या २. वर्द्धमान पुगण भट्टारक मलकीनि एव अष्टक के माध्यम से उनके जीवन को विभिन्न ३. वर्द्धमान चरित मुनि विद्याभूषण दष्टियो से पाका गया है। लेकिन दुःन इस बात का है ४. वर्द्धमान चरित मुनि पद्मनन्दि कि हमारे इन प्राचीन कवियों की अधिकाश रचनाये अपभ्रश भाषा की अब तक जो रचनाएं प्राप्त हो अभी शास्त्र भण्डारी की शोभा बढ़ा रही है और अपनी चुकी है उनका परिचय निम्न प्रकार है। दुर्दशा पर प्रासू बहा रही है। क्योकि इनके निर्मातामो १. महावीर चरित ने जब इनकी रचना की होगी तो उनके हृदय मे कितना पुष्पदन्त कृत अपभ्रश भाषा उमंग और उत्साह होगा उसवी कल्पना एक कवि हृदय के महापुराण मे से संकलित २. वड्ढमाणचरिउ ही कर सकता है । भगवान महावीर के चरणो मे उन्होंने जामत्रहल ३. वड्ढमाणचरिउ श्रीधर स्थायी श्रद्धाजलि ममपित की पी लकिन हम स्वयं उनकी ४. मन्मति जिन चरिउ रइध कृतियो का मूल्याकन नहीं कर सके और न दूमगे को ही ५. वडठमाण चरिउ उमके मूल्यांकन करने का अवसर प्रदान किया। नरमेन अभी जब भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से भगवान उक्त पांचो काव्य विभिन्न विद्वानों द्वारा सम्पादिन महावीर से सम्बन्धित मभी काव्यों के प्रकाशन की योजना किये जा रहे है जिनमे में महावीर चरित का सम्पादन सामने प्रायी तो पहिले यह प्रश्न उपस्थित हुप्रा कि देश डा० हीरालाल जी जैन कर रहे है। यह चरित काव्य के विभिन्न भण्डारो मे जितने काव्य पुगण अथवा चरित सचित्र प्रकाशित होगा। जयमित्रहल कृत वड्ढमाणचरिर सज्ञक रचनाएं है उनका कम से कम परिचय तो प्राप्त का सम्पादन डा० नेमिचन्द्र जी शास्त्री पारा, कर रहे कर लिया जावे जिससे उनके प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ है। डा. राजागम जैन श्रीधर कृत बड्ढमाणचरिउ पर किया जा सके। इस दृष्टि से राजस्थान के जैन शास्त्र कार्य कर रहे है और नीमच के डा० देवेन्द्र कुमार नरसेन भण्डारो की ग्रन्थ सूचियो के चार भागो को देखा गया। कृत वड्ढमाणचरिउ का सम्पादन कार्य प्राय. समाप्त कर ग्रन्थ सूची पॉचवा भाग भी शीघ्र ही प्रकाशित होने चुके है। इन सभी विद्वानों को महावीर साहित्य शोध वाला है। यह भाग सारे देश में अब तक प्रकाशित होने विभाग की ओर म पाण्डुलिपियाँ भेजी जा चुकी है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४, वर्ष २४, कि०५ अनेकान्त सन्मतिजिन चरिउ पर सभवत: डा० राजाराम जैन पहिले हमारा विचार है कि इन ग्रन्थो को तीन भागों में प्रकाही कार्य कर चुके है और इसका प्रकाशन संभवत: रइषु शित करने की योजना है। क्योकि ४-५ रचनायो को ग्रन्थावली मे हो सकेगा। छोड़कर शेष सभी रचनाएँ छोटी है और उनका तीन हिन्दी भाषा मे १७वी शताब्दी से ही भगवान महा- भागों में अच्छी तरह प्रकाशन किया जा सकता है। बीर के जीवन पर रचनाएं लिखी जाने लगी यी जो उक्त बारह कृतियो मे महावीर नो रास प्रथम रास हिन्दी भाषा भाषी जनता मे महावीर स्वामी के जीवन काव्य है। जिसमे भगवान महावीर के जीवन पर विस्तार एव उनके सिद्धान्तो के प्रति उत्सुकता का द्योतक है। से काव्य शैली में वर्णन मिलता है। पाण्डुलिपि मे ६५ यताप हिन्दी रचनायो में संस्कृत एव अपभ्रश काव्यो के पृष्ठ है तथा उसका लेखन काल सं० १८६१ है। इसका समान उच्चस्तरीय काव्य रचना । की जा सकी रचना काल स० १६०६ है। पद्मा कवि हिन्दी के अच्छे क्योकि हिन्दी कवियो का काव्य रचना का उद्देश्य सदैव विद्वान थे तथा भट्टारक शुभचन्द्र के शिष्य थे। रास की सरल एवं सरस काव्यो को लिखना रहा है इसलिए वे रचना कवि ने सागवाड़ा नगर मे को थी। पलकारिक भाषा एवं काव्यगत विशेषता पो की परवाह संवत् सोलनवोतरे मार्गसिर पंचमी रविवार । किये बिना ही काव्य रचना करते रहे है। फिर भी रासकीयो मे नीरमलो, शभवे सागवाडा नगर मझार ।।२० उनकी रचनायो मे हमे काव्यगत सभी तत्वों की उपलब्धि वर्द्धमानकवि कृत वर्द्धमान रास सं० १६६५ की होती है । हिन्दी भाषा में अब तक जो रचनाएं मिली है रचना है इस प्रति मे २३ पृष्ठ है तथा इसकी एक प्रति व निम्न प्रकार है। उदयपुर के शास्त्र भाटार में सग्रहीत है। काव्य की दृष्टि १. महावीर नी विनती भट्टारक शुभचन्द्र से यह भी अच्छी रचा है। वर्द्धमान् कवि ब्रह्मचारी थे २. महावीर छद और भट्टारक वादिभषण के शिष्य थे। २. महावीर नो रास पद्मा रचना सं० १६०६ ४ वर्द्धमान रास कुमुदचन्द्र १७वी शताब्दी सवत् सोल पा[प] सठि मार्गसिर सुदि पंचमी सार। ५. वर्द्धमान रास वर्द्धमान कवि ब्रह्म वर्धमान रास रच्यो ते साभलो तहमे नरनारि ।। रचना स० १६६५ तीसरी महत्व पूर्ण रचना नवलशाह कृत वर्द्धमान ६. वर्द्धमानपुराण नवलशाह रचना सं. १८२५ पुराण की है। जो प० पन्नालाल जी साहित्याचार्य द्वारा ७. वर्द्धमान चरित केशरीसिंह र.स. १८२७ सम्पादित होकर सूरत से छप चुका है। इसमे कवि ने सं० ८. वर्द्धमान सूचनिका बधजन १९वा शताब्दी १६६१ के अगहन मास में अपने पूर्वजों द्वारा बनवाए जाने ६. महावीर गीत वाले जिन मंदिर की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया है । उस १०. महावीर रास जिनचन्द्र सूरि प्रतिष्ठा मे साहू भीषम को 'सिंघई' पदवी प्रदान की गई ११. महावीर पुराण मनसुख सागर १८वीं ताब्दी थी। उस समय वहां बंदेलखंड के राजा वीरसिंह के सुपुत्र उक्त रचनायों के अतिरिक्त भगवान महार के राज। जुझारसिंह का राज्य था। इस घटना क्रम का जीवन पर गीत एवं स्तवन के रूप में और भी कितनी ही उल्लेख निम्न पद्य में किया हैरचनाएं प्राप्त हो चुकी है जिनमें विनयचन्द्र, सकलचन्द्र, सोरहस इक्याणवे अगहन शुभ तिथि वार । वादि चन्द्र विजय मंत्र : स० १७२३ एवं समयसून्दर के नप जुझार बुदेल कृत जिनके राज मझार ॥ स्तवन : नेतनीय है। ये सभी हिन्दी पद्य मे हैं जो इस ग्रंथ को कवि ने प्रतिष्ठा स. से १७४ वर्ष बाद सं. काव्यगत विशेषताओं से परिपूर्ण है तथा भाषा एवं शैली १८२५ चैत्र शुक्ला पूणिमा बुधवार के दिन प्रात: काल में की दृष्टि से सभी अच्छी रचनाएँ है लेकिन अभी तक पूर्ण किया है। यह वर्द्धमान पुराण भ० सकल कीति के उनमें एक भी रचना का प्रकाशन नही हो सका है। वर्द्धमान पुराण के अनुसार रचा गया है। इसकी यह Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषता है कि उसे पिता-पुत्र ने बनाया था ग्रंथ का रचना काल कवि के शब्दों मे निम्न प्रकार है ऊर्जयंति विक्रम नृपति सवत्सर गिनि तेह | सत पठार पच्चीस अधिक समय विकारी एह ।। ३२ द्वादश में सूरज ग ( गि)नो, द्वादश श्रंशहि ऊन । द्वादशमीमा भो शुक्ल पक्ष तिथि पूर्ण ॥३३ द्वादनयतानिये, बुद्धवार वृद्धि जोग । द्वादश लगन प्रभात में श्री दिन लेख मनोग || ३४ ऋतु वसत प्रति का समय शुभ होय । वर्द्धमान भगवान गुन ग्रंथ समापति कोय ॥३५ 1 4 हिन्दी भाषा का महावीर साहित्य भ० कुमुदचन्द्र का वर्धमान रास भी एक लघु कृति है । लेकिन भाव भाषा एवं शैली की दृष्टि से यह एक काव्य है।द्र हिन्दी के अच्छे विद्वान और उनकी अब तक बहुत सी रचनाये प्राप्त हो चुकी है और यह उन हो कृतियों में से एक नवपलब्ध कृति है । केशरीसिंह कृत बर्द्धमान चरित भी उसी की एक रचना है। जिसका निर्माण काल स० १८७३ है । केशरीसिंह जयपुर नगर के कवि थे और उनका साहित्य केन्द्र जयपुर नगर का लश्कर का दिगम्बर जैन मन्दिर था केशरी कृत यह पुराण मूलनः भट्टारक सकलकीति कृत वपुराण की भाषा वचन है यह रचना बालचन्द छावड़ा के पौत्र ज्ञानचन्द्र के आग्रह पर की गई थी । इसकी भाषा दौलतराम कासलीवाल की गद्य कृतियों जैसी हैं कवि ने टीका के रचना काल का निम्न प्रकार उल्लेख किया है। सवत् अष्टादश शतक और त[ति ] हतरि जानि । सुकल पक्ष फागुन भलो, पुष्य नक्षत्र महान ॥ २१ ॥ शुक्रवार शुभ द्वादशी पूरन भयो पुरान । वाचो सुन जु भव्य जन पावे गुन श्रमलान ||२२| १६५ यहाँ उपलब्ध है । इसके बारे में सूचना एकत्रित की जा रही है। बुधजन कृत वर्द्धमान सूचनिका एक लघु कृति है । जिसमे भगवान महावीर का संक्षिप्त परिचय दिया गया है । इसका रचना काल सं० १८६५ है । इसकी दसपत्र वाली एक प्रति जयपुर के एक शास्त्र भडार में संग्रहीत है जिनके महावीर राम की सूचना डा० राजाराम जी जैन द्वारा प्राप्त हुई है। इस रासे की प्रति 1 मनसुख सागर कृत महावीर पुराण कोई स्वतंत्र रचना नही है किन्तु शिखर महात्म्य भाषा का ही अन्तिम अध्याय है । इस अध्याय म ६६ पद्य है इसका प्रारम्भिक अश निम्न प्रकार है । सुमति सदन भव करन मदन कर, सिद्धारथ जनक सुहारक वरन है । असला सुमात गात उन्नत धनुष सात, वरस वहनार सुक्षितिज परेन है। पंचानन चिन्ह पर कुंडलपुरि विख्यात, मी महावीर शिव सपति करन है। मनमुख उदधि निहार का पंचम में, और कोहि मांहि जिन चरन शरण है । दोहा - सन्मति सन्य देत है पसम पसम रस लोन । सरम सरम अनुभूति उत, धर्म सुधर्म प्रवीन ॥२ महावीर के चरित को अलप कथन मनधारि 1 सुनि अंगिक गौतम कहे. मनवांछित दातार ॥३ मनमुख सागर लोहाचार्य के पट्ट के भट्टारक द्र की परम्परा में होने वाले भट्टारक गुलाबकांति के प्रशिय एव ब्रह्म सतोष सागर के शिष्य थे। रचना बालका स्पष्ट उल्लेख नही है; क्योंकि रचनाकाल वाले पद्य में एक शब्द कम है । भट्टारक शुभचन्द्र कृत महावीर नो विनी का एक स्तवन है जिसमे भगवान महावीर का स्तवन किया गया है। महावीर छन्द भी इसी तरह की एक मनि है जिसमे महावीर के गर्भ कल्याण का वर्णन किया गया है । १६ स्वप्नों का अच्छा वर्णन किया गया है। छन्द की भाषा संस्कृतनिष्ठ है। उक्त रचनाओ के अतिरिक्त भगवान महावीर के जीवन से सम्बन्धित और भी कृतिया मिल सकती है लेकिन इनके सम्बन्ध मे राजस्थान, मध्यप्रदेश, देहली, ग्रागरा एव अन्य प्रदेशो की छानवीन के पश्चात् ही कोई निश्चित मन पर पहुचा जा सकता है। उपलब्ध रचनाओ का विस्तृत एवं तुलनात्मक अध्ययन शीघ्र ही किमी धन्य लेख मे प्रस्तुत किया जावेगा। * Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद मूल लेखक : ए० के० भट्टाचार्य अनुवादक · डा० मानसिंह एम. ए. पी-एच डी. बौद्धधर्म तथा ब्राह्मण-धर्म की भाँति जैनधर्म मे कथनो के बल पर बद्ध द्वारा अपनायी गई समझी जाने किमी अप्रतिमात्मक प्रतीक को कदापि विशुद्ध जैविक तथा वाली मूर्ति विरोधी प्रवृत्ति पर भी केवल प्रारम्भिक बौद्ध उस परुष अथवा वस्तु को समता का कार्य नहीं करने कला मे प्रतिमात्मक निरूपण की स्वल्पता तथा परवर्ती दिया जाता जिसका कि वह प्रतीक है। मानव मस्तिष्क कालो मे इसकी बहुलता को न्याय्य रूप में प्रस्तुत करने ने परम देव के विषय में उसकी नितान्त समता के रूप में के लिए ही प्रयुक्त की गई है। तथापि दिव्यावदान में नहीं प्रत्युत बहुत प्राचीन काल से ही प्रतिमात्मक निरू. एक बौद्ध मूर्तिपूजक की स्थिति स्पष्टत: बतलाई गई है पणों के रूप में विचारना सीखा। तथापि इन अप्रतिमा- कि वह प्रतिमा के लिा नही प्रत्युत इसमें निहित सिद्धातों त्मक निरूपणो के ऐसे अर्थ एवं अभिव्यजनाएं थी जो के लिए मति-पूजा करता है। हिन्दुग्रो तथा बौद्धों की उन्हे विशुद्धतः अलङ्करणात्मक अथवा कलात्मक रूपो से भाति, मति-पूजा के सम्बन्ध म जैन लोगो की भी अपनी भिन्न करती थी। उनका प्रभाव नेत्र के भौतिक व्यापार विचारधारा है। उनके अनुसार मतियों की प्रतिष्ठा की अपेक्षा बुद्धि पर अधिक होता है । भारतीय धार्मिक, अधिकांशत: इसलिए नहीं की जानी चाहिए कि वे वास्तअथवा अधिक उचित रूप में ईश्वरपरक विचागे में इस विक अवतारों, तीर्थरा तथा देवकुल के अन्य देवों का प्रतीकात्मक अाराधना का इतिहास ऐसा इतिहास है जो निरूपण करती है बल्कि प्राथमिकतया इसलिए कि उनमे स्वय धार्मिक परम्परा जितना प्राचीन है। "रूप-भेद" टिम गो दिव्य गुणो के सर्वाधिक सत्य तत्त्व के ध्यान की खोज की अर्थात प्रतिमाशास्त्र, जो पुरुषविध निरूपित प्रतिमाओ जा सकती है। इन भौतिक पदार्थो में दिव्य गुणो को का अध्ययन करता है, एक सर्वथा पाश्चात्कालिक विकास अभिव्यक्त रूप में खोजा जाता है, जिससे इन रूपो पर ध्यान करने से प्राराधको के मन मे दिव्य उपस्थिति के पुराकालिक बोद्ध साहित्य मे हम स्वय बुद्ध के मुख प्रभाव का अनुभव हो सके । उन दिव्य गुणो के माहात्म्य के माध्यम से निसत ऐसे कथन पाते है जिसमे पुरुपविध में प्रशमन से भिन्न जिनका कि वे निरूपण करती है इन प्रतिमायो के प्रति अनभिरुचि अभिव्यक्त की गई है। मूर्तियो को पूजा का कोई अर्थ नही है। इसी भावना का उसी प्रसङ्ग मे अनुमत चेतिय इस प्रकार का है कि जिसे अनुसरण करके हम किसी जलाशय अथवा निवास-भवन सुविधापूर्वक "सम्बद्ध" प्रतीको के वर्ग के अन्तर्गत रखा के अधिष्ठातृ देव की धारणा के सच्चे महत्त्व को समझ गया है। वे भगवान् (बुद्ध) के दृष्टिगत न होने की सकते है। इस प्रकार यही कारण है कि एक तीर्थङ्कर की स्थिति में उनके स्थानापन्न पदार्थो के रूप में प्रयुक्त करने प्रतिमा की कल्पना उस पदार्थ के रूप में की जाती है जो के लिए है। ये सम्बद्ध प्रतीक फिर भी बौद्ध कला में एक उन सभी गुणो के समुच्चय का निरूपण करता है अथवा विशेषता है, जिसके लिए जैनधर्म में हमारे पास कोई उन्हें अभिव्यक्त करता है जिनकी कल्पना हम अधिकतम ठीक सादश्य नही है। जनों द्वारा अपनी पाण्डुलिपियो स्वाभाविक रूप में एक धर्मदाता अथवा धर्म-निर्माता या तथा धामिक मर्तिकला में प्रयुक्त प्रतीकात्मक निरूपण कृपा करने-एक तीर्थडुर में कर सकते है, जिसके फल अधिक या कम कभी-कभी अकेले ही, कभी-कभी वर्गबद्ध स्वरूप यह उस व्यक्ति के प्रति प्रादर-भावना को प्रेरित रूप में पवित्र पूजा-पदार्थों के स्वरूप के है। उपर्युक्त करती है जिसका कि यह निरूपण करती है। यह कहा Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद १६७ गया है कि प्रतिष्ठा प्रतिष्ठित व्यक्ति अथवा पदार्थ के माने, जैसा कि इसे उके साथ प्रतिष्ठित करने के बाद माहात्म्य तथा प्रभाव की मान्यता को अभिव्यजित करने मूतियो से विदित होता है। यह स्थापना (न्यास) ही वाले (पवित्रीकरण के) नत्सव के अतिरिक्त कुछ नही है प्रतिष्ठा हे (तुलना कीजिए, (श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य व्यव(प्रतिष्ठा नाम दाहनं वस्तुनश्च प्राधान्यमन्य वस्तुहेतुकं हारप्रसिद्धये स्थाप्यस्य कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरतो न्यासगोचरे कर्म)। एक यति उस सम्य प्रतिष्ठित कहा जाता है साकारे वा निराकारे विधिना यो विधीयते न्यासस्तविदजबकि वह एक प्राचार्य की प्रवस्था में प्रविष्ट हो जाता मुक्त्वा प्रतिष्ठा स्थापना च सा)। यह सिद्धान्त जैन धर्म है, एक ब्राह्मण वैदिक मन्त्रो के अध्ययन से प्रतिष्टित के अन्तर्गत नरदेवों के सिद्धान्तो से पूर्णतया मङ्गत है, होता है। एक क्षत्रिय अपनी शासकीय गरिमा में प्रवेश क्योकि उच्चतम देव जिन मुक्त मानव है तथा वे पत्थर करने से, एक वैश्य व्यापार-वृत्ति मे प्रविष्ट होने से, एक. या लकडी के टुकडे में अवतरित नहीं हो सकते, जैसा कि शूद्र शासकीय कृपा का प्राप्तकर्ता होने से पोर एक कला- उदाहरण स्वरूप, प्रास्तिक हिन्दू धर्म के विष्णु शिव मादि कार उनमे प्रधान रूप से माने जाने से, और वे इस की कल्पित अतिमानवीय शक्तिया से युका सर्वथा दिव्य मान्यता के अवसर पर माथे पर लगाये गये तिलक प्रादि व्यक्तियो के सम्बन्ध में सम्भव है। दोनों पद्धतियो मे द्वारा पूजित होने है। इमसे यह अभिव्यजित नहीं होता वही मूलभूत भेद है, जिसे जन प्रतिमानो के प्रतिमाकि ये चिह्न स्वयं सम्बन्धित व्यक्ति अथवा पदार्थ पर विज्ञान के किसी भी अध्ययन में मानना श्रावश्यक है। कोई भौतिक प्रभाव डालते है प्रत्युत वे इस मान्यता के जैन धर्म की तर्क युक्तता यह सकत करने तक आगे बढ़ प्रतीक है तथा उन्हे दार्शनिक रूप से सङ्गत मानना जाती है कि स्वय आकाश या झभावात या विद्यत् में चाहिए। दूसरे शब्दो में, प्रतिष्ठा जिनकी गुणगान का ब्राह्मणधर्मीय अर्थ मे देवनब विद्यमान नही है प्रत्यत न्यास या दान अथवा बिना किसी रूप के इसका ध्यान प्राकृतिक अथवा वैज्ञानिक स्वरूप ही उपरिवणित वस्तूमों है। इस प्रकार की स्थिति में या तो जिन का शरीर ही से सम्बद्ध क्रिया-कलापो के लिए उत्तरदायी है। वायु में गुणसमुच्चय मे निमग्न कर दिया जाता है या गुणदेव के विद्यमान कुछ निश्चित स्थितियो (अन्तरिक्खम्) के कारण व्यक्तित्व को निभान्न कर जान है। इसी प्रकार किसी ही वर्षा होती है, इससे गम्बद्ध की ना कने योग्ग किन्ही रूप से यक्त या रहित (घटितस्याघटितस्य), पत्थर प्रादि दिव्य शक्तियों के वारण न.।। अब यह कहना मिथ्या में से खुदी हुई तथा जिन, व विष्णु, द चण्डी, क्षेत्र- है कि "प्राकारा :. :', 'गर्जन या भझावात का पाल प्रादि के नामो से अभिहित प्रतिम,यो की पूजा केवल देव", "विद्यदर- 'वा करने वाला देव" प्रादि है, तथा उनमे कल्पित देवत्व के मन्निवेश के कारण ही की जाती किसी श्रमण अथव। श्रमणी को ऐसे वचन का परिहार है। भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिक तथा वैमानिक वर्गों के करना चाहिान को करना चाहिए, किन्तु कोई भी व्यक्ति इसकी अपेक्षा यह यति देवो के इस प्रकार अपन दिव्य स्थायित्व से युक्त रूप में । कहेगा कि 'वायु . गुह्य का अनुयागी : एक मेघ एकत्रित माना गया है, जो इन प्रतिमामो में व्यक्त किया गया है। रोमगा है अथवा मीत - 17 गाया।' और इसी प्रकार सिद्धों, प्रहंतों ग्रादि की प्रतिमानो की पुरुषविध निरूपण से युक्त ईश की प्रतिमा फिर भी प्रतिष्ठा तथा गृह्य जलाशयों तथा कुपो के पवित्रीकरण करण जैन-परम्परा म बहुत प्राचीन है। खारवेल क अभिलेख : तक मे ऐसी वस्त जिस पर बल देना अभिप्रेत होता है में एक जैन प्रतिमा का मन नाटो के यस तक के प्राचीन सम्बद्ध देवों के दिव्य गुणो अर्थात् विभूतियों की अभि- समय मे तीर्थहरो की प्रतिमानो के अस्तित्व को सिद्ध व्यक्ति है, इन प्रतिमानो में था इनके माध्यम से उनका करता है। जैसा कि कल्पसूत्र में उल्लिखित है, कुछ वास्तविक अवतार नही । किसी रूप स युक्त अथवा रहित पशग्रो तथा दवा का प्रतिमा पर्दे पर चित्रित कही गई पदार्थ को तब ही किसी व्यक्ति या किसी देव का प्रति- हे . अन्तगडदसामोसूत्र म उसख है कि सुलस ने हरिणनिधि माना जाता है जबकि हम इसे उसके गुणों से युक्त गमेसिन देव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की तथा वह नित्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८, वर्ष २४, कि०५ अनेकान्त प्रति उसकी पूजा किया करता था। सम्भवतः जन धर्म शिखा होती है। तेजस की जैन धारणा इतनी पर्ण है कि में उपलब्ध सर्व प्राचीन प्रतिमा का समय कुषाण-काल है, यह मङ्गल-स्वप्न के विषय के रूप में निर्धम अग्निशिखा यद्यपि हमारे पास तीर्थडगे का निरूपण करने वाली को ही स्वीकार करती है। वह अग्नि-शिखा जिसे इस दिगम्बर मूर्तियों का एक जोड़ा है जो मौर्य युग से सम्बद्ध प्रकार एक मङ्गल स्वप्न का विषय बनाया जाता है उस किया गया है। तथापि, प्रतीकवाद अथवा पूजा-पदार्थों के व्यक्ति की अन्यात्मिका शक्ति का प्रतीकात्मक निरूपण प्रतीकात्मक निरूपणों अथवा कभी-कभी विशुद्धतया है जिसे स्वप्न की पूर्णता द्वारा प्राना है। यह जैनों के लोकिक महत्त्व से युक्त पदार्थ अथवा उन पदार्थों तक छह "लेस्सो" (लेश्यानों) अर्थात मनः शक्तियों के अन. के विषय में जिनकी पृष्ठभूमि मे केवल एक वैज्ञानिक कूल है। यह देख लेना मनोरञ्जक है कि छह भिन्न निहित है. यह कहा जा सकता है कि जन कला भिन्न "लेस्सो" अथवा मनःशक्तियों में प्रत्येक का एक रूढियों मे उन्होने बहुत प्रारम्भिक काल से ही स्थान अपना विशिष्ट वर्ण है तथा अग्नि अर्थात "तेउलेस्स" ग्रहण कर लिया था। (तेजोलेश्या) का सकेत उदीयमान सूर्य के विसवादी न कला-रूढियों मे अग्नि के प्रतीक को स्वर्ण के चमकने वाले वर्ण द्वारा किया जाता है। यह पारो बने। अग्नि-तत्त्व को सदैव जागृत अथवा मनः शक्ति अर्थात् अग्नि शक्ति धर्मपरक जैन परम्परा के प्रबोध से सम्बद्ध किया गया है। वेदो मे समग्र अग्न्यात्मक अनुसार प्रचण्ड तपस्यायो द्वारा प्राप्त होती है। फिर भी न सोत सर्य समग्र चैतन्य एवं जीवन का इस शक्ति को कभी-कभी एक दूरी पर विनाशात्मक रूप सर्वोच्च प्रबोधक है। यह ज्ञान (प्रज्ञा) की ही लपट है मे प्रयोग किया जाता है। एक विशद जैविक होमको पराजित कर देती है। अमरावती से से यह कहा जा सकता है कि मानव-शरीर मे चार अन्य पE कतिपय प्रान्ध्र चित्रो मे बुद्ध का एक अग्नि-स्तम्भ रूपों के साथ-साथ इस अग्नि का रूप, अथवा अपेक्षाकत के रूप मे निरूपण केवल वैदिक विचारधारा का उज्जी __ अधिक उचित रूप मे उष्णता (तेजस) रहती है। यहां जिसमे अग्नि की उत्पत्ति जलो से कहा गई इस धारणा में केवल व्यापारात्मक रूप ही ग्रहण किया पवा अधिक सीधे रूप में पृथ्वी से, क्योंकि यह एक जाता है। वह उष्णता जो जीवन की स्थिति को बनाए कमल पर प्राधत है। तेजस् अथवा अग्न्यात्मिका शक्ति रखती है उसी शाश्वत अग्नि, आदिम तथा शाश्वत मनः ग्नि जैन धर्म में प्राचीनतम अङ्गा म स एक शक्ति का ही एक अङ्ग है। अङ्ग प्राचाराङ्ग सूत्र की जैसी प्राचीन परम्परा मे उप बौद्ध धर्म तथा प्रास्टिक ब्राह्मण-धर्म में जीवन-वृक्ष यह कहा गया है कि जगत् के सम्पूर्ण ने जीवन तथा इसके सम्बन्धों से सम्बन्धित विचारो की (जीव) एकेन्द्रिय जीव या तेउकाय, वायु- एक महत्त्वपूर्ण उपज्ञा के रूप में एक निश्चित स्थान ग्रहण काय तथा वनस्पतिकाय के लिए पाँच कायों में से किसी कर लिया है। कर लिया है । कला मे इस धारणा के निरूपण के लिए न किसी से युक्त होते है। जैन तत्त्वविदो के काय-सिद्धान्त प्रतीकात्मक रूपों का विचार निश्चय ही एक ऐसी बात के अनुसार एकेन्द्रिय जीव उपयुक्त पाँच प्रकार के भिन्न- है जिसे कला-रूपो के प्रतीकवाद के स्थान के मूल्यांकन में भित्र नियमित अस्तित्व ग्रहण करते है, तथा इनका कारण छोड़ा नही जा सकता, चाहे वे हिन्दू धर्म के हों, चाहे पर्वकृत कर्मों को कहा गया है। जब वह तेउकाय अथवा बौद्ध के या जैन के । साँची में जीवन के रत्न-वृक्ष के अग्नि-जीवन से युक्त हो जाता है तो उसे सामान्य अग्नि, शिखर तथा पादो के प्रतीकों में निरूपणो तथा अमरावती दीपक के प्रकाश, वाडवग्नि अथवा विद्युत् आदि में जाना में अग्नि-स्तम्भों के निरूपणों को बौद्ध धर्म के अपेक्षाकृत पड़ सकता है। जैन परम्परा के अनुमार अग्नि वाणी दूर-दूर तक विस्तृत त्रिशूल के प्रतीकवाद से सम्बद्ध किया (पाच) का अधिष्ठाता-देव है। चौदह अथवा सोलह जाता है। किन्तु हमे यह ध्यान रखना चाहिए कि त्रिशल मडल-स्वप्नो मे से एक वह है जिसका विषय अग्नि- का प्रतीक केवल जैनधर्म तथा बौद्ध धर्म मे ही उपलब्ध Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद १९६ नहीं होता अपितु इसके महत्त्व को एक इससे भी प्राचीन एक चक्र का चित्र है, श्रमणों का एक समुदाय जिसकी परम्परा मे खोजा जा सकता है। अग्नि वैश्वानर के तीन पूजा कर रहा है (?)। सचमुच इसका चक्र अथवा धर्मरूपों को त्रिशूल के दम तीन शलों में यूवन प्रतीक में चक्र के निरूपण की बौद्धकला के साथ निकट सम्बन्ध संस्थित कर दिया गया है। पश्चाद्वर्ती शैव धर्म में स्वय , जो प्राचीन ममाम्नाय मे स्वय भगवान् (बद्ध) के लिए शिव के साथ त्रिशल के सम्बन्ध के विषय में तो हम एक स्थानापन्न वस्तु थी। वास्तव में, ब्यूहलेर के शब्दों जानते ही है । इस पश्चाद्वती सम्बन्ध को एक बहुत में, "जैनो की प्राचीन कला बौद्धो की कला से तत्त्वतः प्राचीन परम्परा मे खोजा जा सकता है। धार्मिक कला के भिन्न न थी । वास्तव मे कला साम्प्रदायिक कभी न थी। प्राचीन स्थान मथ रा से प्राप्त कला-रूप इसके त्रुटि-विहीन दोनो सम्प्रदाय समान अल दुरणो, समान कला-उद्देश्यों साक्ष्य है। इससे भी पहले, मोहन-जो-दड़ो को प्रागैति- तथा समान पवित्र प्रतीकों का प्रयोग करते थे। भेद हासिक सस्कृति मे इस सम्बन्ध के प्रारम्भ को स्पष्टतः मुख्यत: केवल गौण बातो मे ही था। जैन धर्म में त्रिरत्न पहिचाना जा सकता है। कंदफिसेस द्वितीय के शैव सिक्के प्रतीक पूर्ण वस्तुप्रो के त्रिविध स्वरू। अर्थात् ज्ञान, श्रद्धा तथा मिरकैप से प्राप्त शैव मृद्रा (seal) शंव मम्प्रदाय के तथा प्राचार का अवन करता है। एक त्रिक का यह साथ त्रिशूल के इम सम्बन्ध के कुछ प्राचीनतम निरूपणो विचार जिसने बौद्ध धर्म में तीन रन अर्थात् बुद्ध धर्म में से है। जैन कला में त्रिशल एक दिग्पाल के प्राचीन तथा संघ का रूप धारण किया, कभी-भी विकोणीय प्रतीको मे एक है । धर्मपरक तथा धर्मनिरपेक्ष स्थापत्य से चित्र अथवा त्रिकोण स प्राङ्कत । चित्र अथवा त्रिकोण से अद्धित किया जाता था जो बोल सम्बन्धित पाठयों में यह विधान है कि किसी प्रासाद के के अनुसार "तथागत के देहनिष्ठ रूप" का बोध कराता निर्माण हेतु चुनी गई भूमि पर एक कर्मशिला की स्थापना । था, और कभी-कभी तीन वणों के अक्षर अ-उ-म् द्वारा । करनी चाहिए, जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा एक । ब्राह्मण-धर्म में '' विष्णु के लिए प्रयुक्त होता है, उ' धार्मिक प्रावश्यकता की बात अधिक है। जैनों के पश्चा- शिव के लिए और 'म्' ब्रह्मा के लिए। बौद्ध त्रिरत्न द्वी पाठ्यो में भी इस विधान का अनुसरण किया गया विविध प्ररूपो में तक्षशिला तथा प्राम-पास के बौद्ध स्थलों है। बत्थुसारपयरणम् इस परम्परा का अनुसरण करते से कुषाणों के प्राचीन काल से ही उपलब्ध होता है। हुए कूर्मशिला की स्थापना के सम्बन्ध मे इसी नियम का कङ्काली टीला, मथुरा से उपलब्ध उपरिसंकेतित विधान करता है । इसके आठ पाश्वों पर आठ दीपकों के स्थापत्य खण्ड का विचार हमे सर्वाधिक मङ्गतिपूर्वक धर्म प्रतीक रखे जाते है । अष्टम दिग्पाल के लिए वहां प्रयुक्त के प्रतीक के रूप मे चक्र के स्थान के मुल्याकन की ओर प्रतीक सोभागिनी प्रचार-पट्ट पर स्थापित त्रिशल है। अग्रसर करता है, जिमने प्राचीन तथा मध्यकालीन बौद्धयहाँ त्रिशूल तान्त्रिक स्वरूप के अष्टम दिग्पाल ईशान का धर्म में विशिष्ट लोकप्रियता ग्रहण की। बैष्णव प्रतिमाप्रतीक है। यह वास्तव में एक तथ्य को व्यक्त तथा शास्त्र के प्रतीक अथवा रूप के रूप में चक्र का प्रारम्भ स्पष्ट करता है, वह यह कि एक त्रिक का विचार, जो स्वयं भगवान विष्णु के साथ इसके गहन गम्पर्क में होता बौद्ध धर्म तथा जैन धर्म के लिए त्रिरत्न की संरचना में है। लगभग ७वी शताब्दी ई०पू० के चक्र के चिह्न से सर्व पवित्र है और जिसका काल सम्भवत: कुषाण काल यूक्त प्राचीनतम आहत सिक्के इस परम्परा के प्राचीन के समान प्राचीन है, वह या जिसने जैनो की अप्रतिमा- स्वरूप के स्पष्ट प्रमाण है। त्रिरत्न प्रतीको से सम्बद्ध त्मिका धार्मिक प्रवृत्ति मे मूलभूत तत्त्वो मे से एक की चक्र विशिष्टता पूर्वक जैन नही है। यह कुषाण युग की रचना की। इस प्रसङ्ग मे मथुरा कङ्काली टोला स्थान तक्षशिला मे भी उपलब्ध होता है, जहाँ यह निःसन्देह से उपलब्ध वस्तु की पोर ध्यान आकृष्ट किया जा सकता बौद्ध है । वहाँ इसे प्रतीकात्मक रूप मे त्रिशूल अथवा त्रिहै। एक जिनकी इस मूर्ति की पादपीठिका (Pedestal) रत्न प्रतीक के साथ सम्बद्ध करके अङ्कित किया गया है । के सामने की ओर उभार मे खुदे त्रिशूल के ऊपर स्थापित बुद्ध का हाथ धर्मचक्र का स्पर्श करता है । जो त्रि-रत्न Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००, वष २४, का ५ अनेकान्त प्रतीक पर स्थापित है, जिनके दो और एक-एक हरिण प्रतीको को धारण करने वाले मध्य चतुष्कोण के बगल में स्थित है, जो मृगदाव में दिये गये प्रथम उपदेश के प्रवचन स्थित है। इसी स्थान से प्राप्त एक अन्य प्रायागपट्ट में का चित्रण करता है। पश्चाद्वर्ती कालो मे सम्भवतः इस चक्र एक अलङ्करणो से घिरी हुई मध्यवर्ती वस्तु है (न. प्रकार के प्रतीको ने अपनी माम्प्रदायिक सीमायो को जे० २४८-गपुरा सग्रहालय)। यह तीन एक केन्दीय लाँघ लिया, क्योंकि जैन लेखक टक्कुर फेरु उल्लेख करता पट्टो से परिवृत्त सोलह आगे से युक्त एक षोडसार है कि चक्रेश्वरी का परिकर पादपीटिका पर मगो से धर्मचक्र है. जिसमें प्रथम पट्ट में सोलह नन्दीपाद प्रतीक युक्त धर्मचक्र दिख नारा बिना पूर्ण नहीं होता । चक्र-रत्न है। इस फलक को भली भोलि कुषाण काल में रखा जा की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है, जो जन मकना है। तदननर गुप्त-काल में राजगिर मे वैभाग्रोचक्रवर्ती के साथ उसके प्रतीक तथा प्राराध के रूप में गिर से हमें तीर्थ धर नेगिनाथ की अनुपम मूर्ति उपलब्ध सम्बद्ध किया जाता है । जैन कला मे चक्र के निरूपण को होती है, जिनमे पादपीका पर धर्मचक्र का प्रदर्शन स्पष्टीय युग के कुछ प्रथम शनको तक प्राचीन माना जा किया गया है तथा जिमकं बगल में एक शखो का जाड़ा सकता है। मथरा में कहाती टीले से खोदे गए, कृपाण- स्थित है। यह चक्र का मान करण किया गया है और युग से सम्बद्ध उन्नत फलकों, पायागपट्टों पर उस स्तम्भ चक्र । निरूपण म्बग चक्र साथ सम्बद्ध पुरुषविध के उच्च शिखर के रूप में चक्र की प्राकृतियां अङ्कित है रूप से युक्त चक्र-पुरुष के रूप में किया गया है। यह जो एक ध्यान की मुद्रा में स्थित जिन की प्रतिमा में मम्भवतः वैष्णव मूर्तियो, यथा गदादेवी तथा चक्र-पुरुष यूक्त सबसे अद के वृत्त का पर्श कर। वाले चार में प्रायध-पुरुषो के प्रदर्शन की ब्राह्मण-धर्मीय परम्परा का दिबिन्दुओं के ऊार चार त्रिरत्न चित्रण से युक्त चार प्रभाव है। किनारों पर फूल-पत्तियो के परिवेश में बने चार श्रीवत्स संग्रह और दान कवि -जलबर ! तुझे रहने के लिए बहुत ऊचा स्थान मिला है । तू मारे संसार पर गर्जता है। सारा मानव-समाज चातक बनकर तेरी ओर निहार रहा है। तेरे समागम से मयूर की भांति जन-जन का मानस शाति उद्यान में नत्य करने लग जाता है । तू सबको प्रिय लगता है। तू जहाँ जाता है, वहीं तेरा सम्मान होता है। पर थोडा गौर से तो देख, तेरे पिता समुद्र की आज नयी स्थिति हो रही है। पिता होने के नाते उसे भी बहत ऊंचा सम्माननीय स्थान मिलना चाहिए था किन्तु उसे तो रसातल-सबसे निम्न स्थान मिला है। उसकी सम्पत्ति का तनिक भो उपयोग नहीं होता । मेघ ! इतना बड़ा अन्तर क्यों? जलधर-कविवर ! इस रहस्य को गिरि कन्दरा में एक गहन तत्त्व छिपा हया है। वह हैसंग्रहशील न हाना। संग्रह करना बहत बड़ा पाप है। यही मानव को नीचे को प्रोर ढकेलने वाला है। संग्रह वृत्ति के कारण ही समुद्र को रहने के लिये निम्न स्थान मिला है। और उसका पानी भी पड़ापड़ा कड़वा हो गया है। समृद्र ने अपने जीवन में लेना ही सीखा है और देना अत्यन्त अल्प । मैं देने का ही व्यसनी हैं। सम्मान प्रार असम्मान का, उन्नति और अवनति का, निम्नता और उच्चता का यही मुख्य निमित्त है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा के जैन कवियों का नोति-वर्णन डा० बालकृष्ण 'अकिंचन' उत्कृष्ट दर्शन, पवित्र आचरण तथा अहिंसा-प्रचार विभाजित किया जाता है --प्रबन्ध काव्य और मुक्तक की दृष्टि से जैनधर्म विश्व मानवता का महान उपकारक काव्य । प्रबन्ध काम्पो को भी समग्रता एवं खण्डता की है । प्रारम्भिक काल से ही जैन-मेघा, साहित्य-जगत की दृष्टि से महाकाव्य एवं खण्ड काव्य को दो वर्गों में बाँटा सम्पूर्ण चुनौतियों को स्वीकार करती पा रही है। प्राचीन गया है। अपभ्रंश के जैन कवियों ने मुक्तक एवं प्रबन्ध जैनाचार्यों ने अपने सैद्धान्तिक प्रचार के लिए, अनेका- दोनो ही प्रकार के काव्य रचे है। प्रबन्ध के दोनो प्रकारनेक पराणों, कथानो, चरित्रों एवं चणिकायो की रचना । महाकाव्य एवं खण्ड काव्य भी अपभ्रंश काव्य में प्रचुर रूप की थी। निःसन्देह ये सभी रचनाएँ धर्म-प्रेरित है। पर मे प्राप्त है। महाकाव्य किसी भी जाति के गौरव ग्रथ होते क्या इसी कारण इन्हे काव्य गरिमा से बहिष्कृत किया जा है अपभ्रम जैन कवियों ने इस प्रकार के अनेक ग्रंथ रत्नो सकता है ? और फिर यह स्थिति केवल जैन कृतियों के से भारती-भडार को पारित किया है। पउम चरिउ, साथ ही तो नही, समस्त धार्मिक साहित्य इसी श्रेणी में गिट्टनेमि चरिउ तथा महापुराण को इम वर्ग की बृहद है । तीसरी बात यह है कि शास्त्रीय दृष्टि से त्रयी कहा जा सकता है । ये तीनो ही ग्रश भारतय नीति धर्म एवं काव्य का कोई विरोध नहीं है । काव्य काव्य के विद्यार्थी के लिए प्रमूल्य है। का विरोध नीरसता, अस्वाभाविकता एवं प्रभाव पउमचरिउ स्वयंभू कृत महा काव्य है, जिसे माहित्य से है। इसीलिए प्राचार्यों ने अन्तिम रूप से सामान्यतः स्वयभू-रामायण माना जाता है । इस किमी विषय विशेष को नहीं अपितु प्रर्थ प्रतिपादन की रामायण में कथानकों, पग तथा घटनायों को विचित्र रमणीयता को काव्य की कसौटी माना था और विदग्धता के साथ विन्यसा किया गया है। समूचे ग्रथ का इमी निष्कर्ष पर रामचरितमानस, सूरमागर एवं राग बंधान, अलकार विधान कवि की मजक नैतिक मनोवृत्ति पचाध्यायी प्रादि वैष्णव कृतिया उत्कृष्ट काव्य घोपित व्यक्त करता है। इसका समग्रतः नैतिक अनुशीलन अपने की गई है । प्रत: कोई कारण नहीं कि, अपभ्रंश भाषा को मे एक पृथक् विषय है। छोटे-बड़े वर्णनो, सूक्तियो, कथोपअनेक सरस, सुन्दर अलकृत जैन कृतियो का भी काव्य का कथनो, रूपको नथा उपमानो में नीतिका मुन्दर पुट दिया गौरव प्रदान न किया जाय । यदि राम और कृष्ण की गया है । एक उदाहरण लीजिए-- जीवन-गाथा नो से सम्बन्धित सन्देश प्रेरित उत्कृष्ट कृतिया लक्खण कहिं गवेसहि तं जल । काव्य हो सकती है तो प्रतिभा सम्पन्न कवियो की लेखनी सज्जण हिय उ जेम जं निम्मल ।। से रचित तीर्थंकरों तथा जैन धर्माचार्यों की पूनीत धर्म- प्रति लक्ष्मण उसी जलानग में जल लन जाते है, कथाएँ भी काव्य की मज्ञा म विभूपित की जायेगी। अप. जो मज्जन के हृदय के समान निर्मत हो। यहाँ नीति भ्रश भाषा मे रचित इस प्रकार की कृतियों के महान और काव्य का सूक्ष्म समन्वय महज ही देखा जा सकता भडार जैन मन्दिरो मे आज भी मक्षित है। किन्तु हम है। कथन को महना के साथ उमको मार्मिकता भी उनकी चर्चा न कर हुए नितान्त प्रसिद्ध काव्य मणियों दर्शनीय है। इस प्रकार की नैतिक अभिमचि और उसकी - काही नैतिक निरीक्षण करेगे । सूक्ष्म काव्यात्मकता में रिट्टनेमि चरि' और भी पागे शास्त्रीय दृष्टि से जीवन काव्य-ग्रंथों को दो भागों में है। छोटी-छोटी सूक्तियो में जैन-सिद्धान्तो का मार्मिक Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त विन्यस्ताकरण इस प्रथ की बहुत बड़ी विशेषता है। धर्म, नीति और ज्ञान के प्रति कवि के हृदय में भगाध धनुराग है २०२२४०५ वरि सह समुद्वारि मंदरो णमे । ण विदव्य भातिय प्रणाहवे ।। मर्थात् चाहे समुद्र जल शुष्क हो जाये, चाहे प्रचल, मंदराचल पर्वत झुक जाये किन्तु विद्वानों (ज्ञानियों) के कथन कभी भी धन्यथा नहीं होते । कहने की आवश्यकता नहीं कि इस कथन में जितना बल है, उतना ही विश्वास है। साथ ही मे एक प्रकार की सर्वकालिकता भी है जो तब भी सत्य थी घोर प्राज भी सत्य है । ऐसे त्रिकाल सत्यों का निर्वचन अनेक स्थलों पर हुमा है। भाज की परिस्थितियों का मार्गदर्शक एक अन्य उदाहरण लीजिए— जहि पहु दुच्चयरिउ समायर । तहि जणु सामण्णु का करइ ।। अर्थात् जहाँ स्वामी दुश्चरिष होगा, वहाँ जन सामान्य क्या करेगे भाज भी राष्ट्रीय एवं सामाजिक स्थिति में यह कथा धौर भी विचारणीय है । यह किसी से छिपा नहीं है कि राजनैतिक सामाजिक एवं भाषिक दुर्दशा का प्रमुख कारण हमारा भ्रष्ट चरित्र ही है । भारत में प्रन्नजल - घन-घान्य किसी भी भौतिक - प्रभौतिक वस्तु की कमी नही है, कमी है तो केवल चरित्र की भोर यह भी अपने में कटु सत्य है कि चरित्र की यह गिरावट, सम्भ्रान्त घरानों, राजकुलों एवं नेता कहलाने वाले वर्ग से ही आई है । श्रतः सदियों पुराने हमारे इस जैन कवि का कथन अपने में शाश्वत है, अपने मे सिद्ध है । लोक मे भी यह कहावत प्रचलित है-यथा राजा तथा प्रजा । 1 यहाँ हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष पर कीचड़ उछालना नहीं, किन्तु सत्य, सत्य ही है । और यह कहने मे कोई भी संकोच नहीं करेगा कि हमारा नेता वर्ग नैतिक एवं चारित्रिक प्रादर्श प्रस्तुत करने में सर्वदा सफल रहा है। हाँ इस कथन में कुछ अपवाद भी है जो गेहूं के साथ घुन की भवस्था प्राप्त कर पिसते मोर लोकापवाद का कारण बनते हैं । सज्जनों घोर समझदारों के हृदय में आज भी सच्चरित्र राष्ट्र नेताओं, समाज सेवियों एवं गृह श्रद्धा स्वामियों के प्रति बढा है और उनका निरन्तर यश-गा होता रहता है जो दुर्जन ऐसा पुनीत चरियों का भी छिद्रान्वेषण करते हैं, वह उनके स्वभाव का दोष है भौर इसे कोई बदल नहीं सकता । 'महापुराण' के सुप्रसिद्ध जैन कवि पुष्पदंत जी ने इस तथ्य पर बड़ी मनोरमता से प्रकाश डाला है । उन्होंने ऐसे दुर्जनों को चन्द्रमा पर मौकने वाले कुत्तों की संज्ञा दी है और कहा है कि सज्जनों को अपना कार्य निरन्तर करते रहना चाहिए; क्योंकि कुसे कितने भी भौंके इससे चन्द्रमा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता भोर यही विचार कर महाकवि सज्जनों की प्रशंसा करता हुमा, 'महापुराण' लिखने में प्रवृत्त हुआ है। उसने ६३ जैन महापुरुषों की चरित्र - गाथा गाते हुए, बीच-बीच में नीति-याचार-धर्म मौर दर्शन पर सुन्दर छन्द लिखे हैं । नीति-निरूपण ही नहीं, काव्यात्मक निदर्शन के कारण भी इन कथनों का महत्व बहुत अधिक है। प्रश्न शैली का एक उदाहरण लीजिए— खगे मेहे कि णिज्जलेण, तरुणा सरेण कि णिपफलेण । मेहे कामे कि जिवेण, मुण्णिा कुलेण कि वित्तपेण ॥ कपडे कि गीरसेन, रज्जें भोज्जे कि पर वसेण । ( १-८-७ ) अर्थात् पानी रहित मेघ (बादल) और खड़ग ( तलवार) से क्या ? फल रहित तरु (वृक्ष) और (सर) वाण से क्या ? श्रद्रवणशील (न पिघलने वाले) बादल श्रीर यौवन से क्या ? तप हीन मुनि और कुल से क्या ? नीरस काव्य और नट से क्या ? पराधीन भोजन और राज्य से क्या ? यहाँ पानी ( जल तथा चमक ), फल ( खाने के काम पाने वाले फल तथा बाण की नोक ), प्रद्रवणशील ( न बरसने वाले तथा भाव विभोर न होने वाले ), तप कर ( कष्ट साधन और कुल-व्रत ) नीरस (शृंगार-वीरशांतादि नवरस विहीन तथा शुष्क ) परवश (पराया शासन तथा दूसरे का कब्जा ) आदि शब्दों के दो-दो अर्थ है। इन दोनों वर्षों का प्रयोग करने पर सुन्दर एवं उपयोगी सन्देश सामने भाता है। उस बादल के उमड घुमड़ - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा के जैन कषियों का नीति-वर्णन २०३ कर पिर-घिर माना व्यर्थ है जो तषित घरा को अपनी में पोर मागे न बढ़ते हुए एक अन्य कृति, "भक्सियत सीतल जल-वृष्टि से शांत न कर दे, उस तलवार की कहा' की मोर ध्यान माकर्षित करना चाहेंगे। इसे हमने विशालता मोर सुन्दरता व्यर्थ है जिसको चमचमाती हुई उक्त बृहद्रयो के साथ इसलिए नहीं रखा क्योंकि इसका पार में तेजी न हो। उस सुन्दर तथा सुहावने वृक्ष की नायक, एक लौकिक पुरुष है। किन्तु इससे क्या? कृति शोभा भी अधूरी ही है जिस पर मीठे फल न लगते हों, अपने नैतिक मूल्य मे स्पृहणीय है। नायक के लौकिक उस वाण का धारण करना भी व्यर्थ है जिसके प्रागे की पुरुष होने के कारण, काव्यकार श्री धनपाल बक्कड़ को पैनी नोक ही गायब है। इसी प्रकार भावोद्रेक से शून्य गृहस्थ जीवन के विविध प्रसंगों के नैतिक निर्वचन का पौर पुवक-युवती, चुटीले हास्य व्यंग्यादि से शुन्य नट, विभावा- भी अच्छा अवसर प्राप्त हो गया है। किन्तु कवि का नुभाव संचारी प्रवाह से शुन्य काव्य, विदेशी के अधिकार हृदय गृहस्थ-वर्णन प्रसंगों में न रमकर उनके नैतिक एवं में फंसा राज्य तथा दूसरे की पोटली मे बंधा भोजन धार्मिक निदर्शन में अधिक रमता प्रतीत होता है। वे व्यर्थ है, बेकार है, अपने लिए किसी प्रकार भी उपयोगी परम्परागत मान्यतामों का खण्डन करते हुए उनका नहीं है । कहना न होगा कि यहाँ कथ्य की उपयोग्यता के नवीन नैतिक मूल्य निर्धारित करते हैं। केवल बानगी के साथ कविता की सुन्दरता भी विद्यमान है। दोहरे प्रों लिए, शूरता को हिंसा से हटा कर नैतिक निष्कर्ष प्रदान के निर्वाह ने श्लेष अलंकार की सुन्दरता भी ला दी है। करने वाली दो पंक्तियां प्रस्तुत हैंऐसा ही एक प्रतीतात्मक कथन भोर लीजिए बोग्वण बियार रस बस पसारि, सो सूरउ सो पंडियर। जो गोवाल गाइ उ पालइ । चलम्मण बयणुल्लावएहि, जो पर सियहिं ण मंडियउ।" सो जीवंतु बुद्ध ण णिहाला ॥ ३-१०-६ जो मालारू बेल्लि उ पोसह । मर्थात् शुर भी वही है, पण्डित भी वही है जो परसो सुफुल्ल फल केंद्र लहेसह। (५-१२-१) नारी के कामोद्दीपक प्रपंचों एवं वचनों के द्वारा खंडित अर्थात् जो गुवाला गो नहीं पालेगा, वह जीवन भर नहीं होता । यहाँ यह निर्देश कर देना अनुचित नहीं होगा दुध को नहीं निहार सकेगा। जो माली बेल-बटों का कि जैन-नैतिकता केवल अहिंसा पर ही नहीं अपितु पालन-पोषण नहीं करेगा, उसे फल-फल कैसे प्राप्त हो इन्द्रिय-संगम एवं प्रात्म त्याग इत्यादि मानवीय चरित्र के सकेंगे-शब्द बड़े साधारण हैं। किन्तु काव्य के विद्यार्थी उदात्त मंशों पर भी पूरा-पूरा बल देती है। जो दूसरों के के लिए इनकी व्यंजनाएँ इतनी अधिक है कि उसमें प्रति पापाचरण द्वारा हानि पहुंचाने की बात सोचता है, व्यक्ति से लेकर सारे राष्ट्र के नैतिक मूल्य सन्निहित र पारेर ति मतिहित उसका पाप उल्टा उसे ही नष्ट कर देता है॥६.१०.३॥ दिखाई देते हैं। यहाँ ग्वाला और माली राष्ट्रनायक के कर्म निश्चित ही देवाधीन हैं किन्तु पुरुषार्थ करना, प्राणी प्रतीक है, गौ पोर बेलें सज्जन-समाज की प्रतीक हैं, द्रष का परम पुनीत कर्तव्य है। यह ठीक है कि लाभ के और फूल समृद्धि एवं सुराज्य के प्रतीक जान पड़ते हैं। विचार से किए हुए कर्म में कभी-कभी मूल भी नष्ट हो जिस राष्ट्र या समाज में सज्जनों की अपेक्षा चार सौ जाता है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि पुरुषार्थ कर्मों वीस, तस्कर तथा जमानेसाज लोगों को बल-धन-प्रादर को त्याग दिया जाय ॥३-११-५॥ इस प्रकार के शताधिक भौर मारक्षण प्राप्त होता है वह जीवन भर पुष्ट-बलिष्ट, कथन सहज सुलभ है। दान, उपकार, क्षमा, दया तथा पल्लवित एवं पुष्पित नहीं हो सकता । यह तथ्य महाकवि महिंसादि विषयक कथनों के लिए तो यह ग्रन्थ अक्षय पुष्पदन्त के समय में भी सत्य था, सहस्राब्द पश्चात् प्राज भण्डार है। भी सत्य है और सहस्रों वर्षों पश्चात् भी सत्य रहेगा। जैसा कि प्रारम्भ में निवेदन किया जा चुका है कि इस प्रकार के मनमाने नीति-कथन उक्त महाकाव्य अपभ्रंश के जैन कवियों ने महाकाव्यों के अतिरिक्त कथात्रय से संकलित किए जा सकते हैं किन्तु हम उस दिशा रूपक खण्ड काव्यों की भी रचनाएँ की हैं । जो महाकाव्यों Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४, वर्ष २४, कि० ५ अनेकान्त से कहीं अधिक मात्रा में प्राप्त हैं। ये काव्य कृतियां भी शान्ति एवं वीतरागता की अनुभूति होती है। निष्ठावान नैतिक दृष्टि से, संस्कृत प्राकृतादि भाषाओं के काव्यो से अध्येतानो पर तो यह प्रभाव और भी गहनतर होता है। कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं । इसका कारण जैनधर्म के उदात्त कनकामर जी के कथनो मे कुछ इस प्रकार की साजनैतिक संस्कार ही है। उच्च संस्कार सम्पन्न कवियो की भौमिकता एवं सार्वकालिकता है कि उनके निवेद-वचन कृतियों में उच्च विचारों का प्राप्त होना स्वाभाविक है। आज के सामाजिक संदर्भो मे भी खरे उतरते प्रतीत होते ये उच्च विचार काव्य की चाश्नी में पग कर और भी है। सम्पूर्ण कृति एक कल्याणमय आनन्द की सृष्टि करती गृहणीय हो गये है। इस दृष्टि से 'सुदसण चरिउ' तथा है परन्तु यह मानन्द अन्यान्य कवियो के प्रानन्द से 'करकंड चरिउ' इत्यादि काव्य, अपना सानी नही रखते । निश्चित ही भिन्न है । उस अनुभूति मे उतना ही अन्तर इन काव्यों में दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तो की अपेक्षा है जितना युवती मुख दर्शन तथा देवमूर्ति दर्शन की अनुनित्य नैमित्तिक जीवन के आचरण एव मनोभावो की भूति में होता है। कनकामर जी लौकिक अनुभूति की व्याख्या अधिक हुई है। तुलना एक दाहक ऊष्मा से करते है। उनके मत मे सारा नयनदी ने अपनी सुप्रसिद्ध काव्य कृति सुदसण ससार एक सघन वन के ममान है जिसमे नश्वरता की चरिउ (सुदर्शन चरित्र) में प्रेम, स्त्री, पुरुष, भाग्य, यौवन, भयंकर दावाग्नि प्रज्वलित है और उसमें ककोल, निम्ब उपहास, हिसा, कोध प्रादि पर बहुत ही सारगर्भित छन्द कुटज और चंदन सभी भस्म हो जाते है । काल अपने लिखे है । वे प्रेम को समय एव दूरी के व्यवधान से परे विकराल गाल में युवा, बृद्ध, बालक, विद्याधर, किन्नर, की वस्तु मानते है और कहते है दो सच्चे प्रेमियो में खेचर, सुर, अमरपति सभी को समेट लेता है, न श्रोत्रिय भौतिक अन्तराल बाधा उपस्थित नहीं कर सकन इसके ब्राह्मण बचपाते है, न तपस्वी, न वह धनवानो को छोड़ता निा वे सूर्य एवं नलिनी ता उदाहरण प्रस्तुत करते है। है और न निर्धनो को। इस लिए धर्म-पथ का सम्बल कहाँ माकाश विहारीम्र्य प्रार कहा उसकी अनन्य प्रमिका । जितनी शीघ्रता से प्राप्त किया जाय उतना ही श्रेयस्कर कमलनी परन्तु वह उसे गगनतल में देखकर ही हलसित रहती है- जइ विह रवि गयपायले इह तहवि सुहू पाउ सोक्तिउ बभणु परिहरई, गलिणी । ८-४ ।। यह उल्लास तथा आकर्षण अतीन्द्रिय णव छंडइ तवसिउ तवि ढियउ । होता हुया भी इन्द्रिय गम्य है, अनुभव जन्य है । परन्तु घणवंतु पर कुट्टइ ण विणिहण, इसके अनुभव का परिणाग सुख नही होता । जहाँ भा प्रेम जह काणणे जलणु समट्टियउ ॥ है, ममत्व है, प्रामक्ति है, वहाँ दुःन निश्चित है। कौन ऐसा प्राणी है जिसे स्नेह ने सताप न दिया हो-ग्रहण इस प्रकार के अन्य अनेक काव्य रत्नो सम्रश कवणु णेहें संताविउ ।। ७.२ । इसी प्रकार यौवन वेग वाङ्गमय का विशाल भतन पालोकित है । अावश्यकता को पहाड़ी नदी के चढाव की भांति क्षणिक, हिंसा को उसको पढ़ने, समझने तथा सुलभ कराने की है। न जाने अनिवार्यतः दुखद तथा स्त्री चरित्र को देवताग्री के लिए कितनी अमर कृतिया अब भी जैन ग्रथागारो व मदिरो भी दुर्वाध सिद्ध किया गया है-देवेहं वि दुलक्खउ तिय मे अब भी अप्रकाशित पड़ी है। वह दिन विश्व-बागमय चरितु ।। ६-१८ ।। के लिए स्वणिम दिवस कहा जायेगा जब कि विशाल जैन मुनि कनकाभर जी का दशाध्यायी खड काव्य ज्ञान पिण्ड प्रकाशित होकर अपने दिव्य प्रालोक से करकड चरिउ, निवेदपरक नीति वथनों का अक्षय भडार मानवता के अनैतिक अंधकार को समाप्त कर देगे। है। ग्रंथ को माद्योपान्त पढ़ जाने पर एक अलौकिक Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख आर्यसत्य-एक विवेचन धर्मचन्द्र जैन (शोध-छात्र) चार आर्यसत्यो का सिद्धान्त बौद्ध धर्म के मूलभूत जिस प्रकार प्रार्य इनको यथार्थ रूप में देखते हैं, दूसरे सि.द्वानो में से एक है। जिनका वर्णन पालि तथा सस्कृत उनको उस प्रकार से नही देखते है, अतः ये पार्यसत्य बौद्ध ग्रन्थो में प्रचुरता से मिलता है। बौद्ध-धर्म सम्बन्धी कहे जाते है। आधुनिक भाषा के ग्रथो में भी इसकी खूब चर्चा हुद है। वसुबन्धु एक गाथा उद्धृत करने है जिसमें कहा गया आर्यसत्योंका उपदेश भगवान बुद्धने अपने प्रथम 'धम- है कि 'जिसको प्रार्य सुख कहते है, दूसरे उन्ह दुःख जानते चक्र प्रवर्तन' में पचवर्षीय भिक्षो को ऋषिपत्तनमृगदाव में है, जिनको दूसरे सुख बतलाते है प्रार्य उसको दुःख दिया था। जिनका साक्षात्कार उन्होने सम्यक सम्बधि जानने हैप्राप्त करते समय किया था। आर्य मत्य चार है यदार्यासुखतः प्राहुस्तत्परे दुःखती विदुः । । दु.ख आर्यसत्य', 'दुःख समुदय पार्यसत्य', 'दु.ख निरोध यत्परेसुखत. प्रास्तदार्या दु.खतो विदुः" । अभिधर्मकोश के छठे को स्थान मे वसुबन्ध ने चार आर्यसत्य' पीर दुख निरोध गामिनी प्रतिपद् आर्यसत्य' । प्रार्य सत्यो की व्याख्या की है। वहाँ यह प्रश्न उठाया इनमें से प्रथम 'दुष' पार्यपत्य ही प्रस्तुत अनुबन्ध का गया है कि-दुख मार्य सत्य प्रथम क्यो लिया गया? इसके विषय है। उत्तर म बसुयाधु कहते है कि 'ग्रार्य मत्यो का क्रम जिजाम निकाय' में सार्प गब्द का अर्थ इस प्रकार अभिसमय क - नुसार हैय! गा पारकास्यहोन्ति पापका अकुशता धम्माति "सत्यानि उक्तानि चत्वारि दुख समुदयस्तथा । 'अरियो' होति । वसुबन्धु ने भी 'आर्य' शब्द की निरोधी मागस्तेषां यया अभिसमयं श्रमः" ।।' व्याख्या इस प्रकार का हे -"यारात् याता. पापकेभ्यो" प्रथा जिम मत्य का पूर्व अभिसमय' (अभिसम्बोघ) होता ऽकूशलेभ्योधर्मपः इत्यार्या' अार्य वह है जो कुशल है अर्थात् जिम मत्य का पहले अभिममय होता है उसी का पाप धमो से दूर हो गया है. पूर्वनिर्देन किया गया है। प्रश्न है कि 'तृष्णा जो दुःख वसुबन्धु और बुद्धघोष 'कार्यसत्य" शब्द की एक ही का हेतु है उसका पूर्व निर्देश क्यो नही है और दुःख जो प्रकार में व्याख्या करते है यथा-'य पार्यों के मत्य है। तृष्णा के कारण उत्पन्न होता है जो फल रूप भी है उसका प्रश्न उठता है कि क्या ये दूसरो के लिए सत्य नहीं " सत्य नहा बाद में निर्देश क्या नहीं किया गया है । इसका उत्तर है या दूसरों के लिए भूठ है ? (किमन्येषा मृषा)। न किम के लि५. भिधमकाशभाष्य ६३, पृ० ३२८% अर्थविनिश्चयअविपरीत होने के कारण (विपरीतत्वात्)। किन्तु सूत्र पृ० १५८ । ६. तुलना कीजिए १.देखिए : महावग्ग-धम्मचक्कपवत्तन-ललितविस्तरसत्र यं परे दुःखतो शाहतार या ग्राहू दुःखतो। परि. २६, पृ० २६५-२०२ । य परे दुःखतो पाहू तरिया सुखतोविइ ।। २. देखिए : मज्झिमनिकाय १, ३४३ । -सं०नि०४, पृ० १२७ । ३. देखिए अभिवर्मकोश ३/४४ । ७. अभिधर्म कोश ६।२।। ४. अभिधर्मकोश भाष्य ६३ पृ० ३२८; स०नि० भा० ८. अभिसमयकोऽर्थः। अघिसम्बोधइणो बोघनत्वात् ५ पृ० ४२५, ४३५; विशुद्धिमग्ग १६०२०-२२। अभि० को० भाष्य० ६।३, पृ० ३३८ । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८, २४, कि०५ भनेकान्त पञ्चउपादान, स्कघरूप, संज्ञासंस्कार, विज्ञान और 'न कि मंग-मसूरादि का। इसी प्रकार सुख के अत्यन्त वेदना, ये भी दुःख हैं। पञ्चोपादान, स्कंधहेतु तथा प्रल्प होने से उसका कोई अस्तित्व नहीं है । यह एक प्रत्यय सहित प्रनित्य दुःख और अनात्म रूप कहा गया है, निकाय का व्याख्यान 'है'। बसुबन्धु ने 'इत्येके' करके अत: दुःख रूप है। इसका उल्लेख किया है। कभी-कभी फोड़े के खुजलाने में पालि और संस्कृत ग्रंथों में इसकी बार-बार पुनरावृत्ति भी कुछ सुख (सुखाणुकेन) का ग्राभास होता है लेकिन हुई है कि "सम्बे सङ्गारा दुःखा (सर्वेसस्काराः दुःखाः) कौन इसे सुख कहेगा, वह तो दुःख ही है । इस लिए सभी संस्कार दु:ख हैं। वसुबन्धु ने अपने अभिधर्म कोश सौत्रान्तिकों का कहना है कि 'सुख का भी दुःख हेतु है'। :भाष्य में यह प्रश्न उठाया है कि जब केवल वेदना ही वास्तव मे दुःख ही है। लेकिन उस दुःख में इच्छा होने • दुख रूप होती है तो सब संस्कार दुःख क्यों कहे गये है ? के कारण ही (तदिष्टेः) दुःख-दुःख समझ लेते है परन्तु .वसुबन्धु ने व्याख्या करते हुए कहा है कि दुःख तीन प्रकार पार्य सूख सहित सर्व संस्कार को दुख रूप देखते हैं के हैं-दुःख दु:खता, संस्कार दुःखता और विपरिणाम क्योकि सब संस्कार दु:खमय है। इसलिए दुःख ही मार्य दुःखता । इन तीन दुःखतानों मे सास्रव सस्कार आ जाते सत्य व्यवस्थापित करते हैं न कि सुख को। पूर्व पक्ष का है। जो चीज अच्छी लगती है जो 'मनाप' है वह भी विपरि. कहना है कि "मुखावेदना” को दु:खतः क्यों देखते हैं ? णाम रूप होने के कारण विपरिणाम द:खता है। जो इसका उत्तर है क्योकि वह अनित्य है और प्रतिकूल है अपनाप (प्रच्छी न लगने वाली) है वह तो दुःख दु:खता यह कैसे है कि सुखानेदना है हो नही? यह कैसे जाना ही है। इन दोनों में से भिन्न बाकी सब सस्कार दःखता जाय ? वसुबन्धु कहते है कि यह युक्ति और सूत्र से हैं । इस लिए सुख वेदना मे भी जिसको मनाप वेदना की प्रमाणित किया जा सकता है। संज्ञा दी जा सकती है, विपरिणाम स्वरूप होने के कारण सूत्र में भगवान ने कहा है कि जो कुछ वेदनीय है वह दुःख रूप है। सूत्र में कहा गया है कि सुखाबंदना वया दख है, और सुखावेदना को भी द ख से देखना चाहिए, है ? जो उत्पत्ति में सुख है, स्थिति में भी सुख है किन्तु दःख म दुख को देखना मंज्ञाविप्रयाग है।" इत्यादि सूत्र विपरिणाम में दुख है। दुखवेदना तो उत्पत्ति, स्थिति वचन है । युक्ति से बह की प्रमाणित किया जा सकता और विपरिणाम तीनों में दुःख रूप है । अदुःख सुखावेदना है ? यह जो कभी-कभी पान, भोजन, ठण्डक, गर्मी आदि संस्कार (संस्कारेण) से ही दुःख है । इस प्रकार सब की चाहना (इप्टि। हता है और इनको सुख-हेतु समझा सासव संस्कारों को ग्रार्य (विज्ञजन) यथार्थ रूप में दुखतः जाता है लेकिन यदि नानादि भोजन में सुख होता तो देखते है किन्तु विद्वान् ग पार्य श्रेष्टनम लोक (भवान) अधिक खा लेने पर या अकाल में खा लेने पर पान भोजमैं भी दुख को अनुभव करत है। नादि दुःख के कारण नहीं होते । वास्तव मे भोजन पानादि 'अभिषमं कोश भाष्य' में दुःख के अस्तित्व पर एक की कामना भूख-प्यास प्रादि दुःख के कारण होती है । बहुत ही दिलचस्प विवाद पाया है जो विवाद सौत्रान्तिकों उस दख की निवत्ति के लिए हम भोजनपानादि करते और वैभाषिकों के सुख-दुख आस्तित्व संबन्धी भिन्न-भिन्न हैं और उसे ही सुख समझते हैं, इस प्रकार से दुःख दृष्टि कोणो को प्रस्तुत करता है । वैभाषिक कहते है कि की निवृत्ति को ही सुख समझा जाता है। इसी प्रकार 'जब सुख है तो द ख ही केवल पार्यसत्य क्यों कहा गया? ईर्यापथ (सोने, बैठने, खड़े होने प्रादि) मे जो सुख इसके उत्तर म बसुबन्ध ने एक मत उद्धत करते हुए कहा है की अनुभूति होती है वह भी दुःख-(थकावट मादि) के कि 'सूख के अल्प होने के कारण (घल्पत्वात् ) सुख नही २ मावस्याल्पत्वात् मुदगादिभावेऽपि माषराश्यप देशहै जैस-उडद की दाल के ढेर में यदि मूंग, मगर ग्रादि क. वदिस्य के ।"---अभि० को 'भा०६।३, पृ. ३२६ । कुछ कण हों तो हम उसे उड़द की दाल का ढेर ही कहेगे। । ३. सह सुखेन सर्वम् भवमार्या दुःखतः पश्यन्ति संस्कार १. संयुक्तनिकाय २१११, ३४१३ दुःखतैक रसस्वात्। --वही० पु० ३३० । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख पार्यसत्य-एक विवेचन २०६ कारण होती है। मौत्रान्तिक कहते हैं कि वास्तव मे दुःख इसके बाद वैभाषिक सत्र से उत्पन्न सुख के अस्तित्व के प्रतिकार में या दःख के विकल्प के रूप में सूख की के सम्बन्ध मे उठाई गई मापत्तियों का समाधान करते अनुभूति होती है । तब तक दख की अनुभति नही होती हैं। यह जो भगवान ने कहा है कि जो कुछ वेदनीय है जब तक मनुष्य किसी दु:ख विशेष मे यथा-भव प्याम, वह द ख है'। इस पर उनका (वैभाषिकों का) कहना है सर्दी, गर्मी, थकावट, काम, रागादि से उपद्रुत नही होता। कि यह सत्र' नीतार्य है, क्योकि एक अोर मन में कहा इस प्रकार दु.ख के प्रतिकार में ही सुख बुद्धि होती है, न गया है कि 'संस्कार अनित्य को लेकर हो कहा गया है कि सुख में। अथवा दुख के विकल्पमान में अज्ञजन क्योंकि जो कुछ वेदनीय है वह दुःख है। यह केवल दुःख (बाल) सुखानुभव करता है यथा-भार को एक कन्धे से के संदर्भ में ही नहीं कहा गया है। दूसरे कन्धे पर रखने मे सुख प्रतीत होता है । अतः वैभाषिक प्रागे पूछते हैं कि स्वलक्षणत: (स्वभावत:) मौत्रान्तिकों के अनुसार यथार्थता सूख रूपी कोई द्रव्य समस्त वेदनीय धर्म दुःख यदि होते, तो तीन वेदनामोंनहीं है, किन्तु अभिधार्मिकों (वैभाषिकों) का सौत्रान्तिकों सुखा, दुःखा, असुखा-दुखा-सूत्र में प्रतिपादित कैसे होती। से सुख के अस्तित्व पर बहुत बडा मतभेद है । बसुबन्धु इसलिए स्वभावतः तीनों वेदनापों का अस्तित्व है। ने 'प्रभिधर्म कोश भाष्य' के छठे कोश स्थान में जहाँ वैभाषिक प्रागे कहते है कि 'यह जो प्रतिपक्ष (सौत्राउन्होंने चार आर्य सत्यों की व्याख्या की है इसका विशद न्तिकों) का कहना है कि सूत्र में कहा है कि-सुखावेदना वर्णन दिया है। वैभाषिकों का कहना है कि "सुख नाम को दुःखतः देखना चाहिए, इसका क्या अर्थ है । वैभाषिक का द्रव्य है। वैभाषिक सूस की सत्ता को इंकार करने उत्तर देता है कि सूत्र में दोनों वेदनायें-सुख और दुःख वाले (सूखापवादी) सौत्रान्तिकों से पूछते है कि दुःख क्या अभिप्रेत हैं। अच्छे लगने के कारण (मनापत्वात् ) है ? (किमिदं दुःखम) यदि वह बाघनात्मक है तो किस स्वभावतः सुखत्व है और विपरिणामत्व तथा अनित्यत्व के प्रकार से है, यह बतलाइये ? यदि आप दुःख को कारण वही वेदना दुःख है। अर्थात् दुःखत्व की प्रतीति उपपातक समझते हैं तो इसमे अनुग्राहक सुख की सिद्धि कराती है। प्रास्वाद के कारण सुख दृष्टि से जब मनुष्य प्रमाणित होती है । यदि दुःख अनभिप्रेत है तो अभिप्रेत देखता है तो वह बन्धन मे आता है किन्तु वैराग्य के सूख की सिद्धि होती है। जो वेदना अपने लक्षण कारण जब दुःख दृष्टि से देखता है तो वह मुक्त होता है। (सुख त्व)से अभिप्रेत है उसी से अनभिप्रेत नहीं हो सकती। जिस दृष्टि से देखने के लिए मोक्ष की प्राप्ति हो उस वह अनभिप्रेत तभी होती है जग पार्य (विज्ञजन) उसको दृष्टि से देखने के लिए ही बद्धों का उपदेश होता है। प्रयत्न साध्य, प्रमाद युक्त, विपरिणामिनी अनित्य समझते । इसलिए ही कहा गया है कि 'सुखावेदना को दुःख जानना है। इस दृष्टि से वह अवश्य अनभिप्रेत है किन्तु स्वलक्षण चाहिए।' प्रतः स्वभावतः सुखावेदना का अस्तित्व है। से सूख-वेदना अनभिप्रेत नहीं है । यदि वह स्वलक्षण से बंभाषिक एक गाथा को उद्धृत करते हैंअनभिप्रेत होती तो किसी को भी सुख में राग नहीं होता, संस्कारानित्यताज्ञात्वा प्रयो विपरिणामता । प्रकारान्तर से वह उसे दोष-युक्त देखता तथा उससे विरक्ति वेदना दुखतः प्रोक्ता सुबोन प्रजानता' इति ।' (वैराग्य) पाने का अभिलाषी होता। अतः वैभाषिक ३. यत्किञ्चिद्वेदितमिदमत्रदुःखस्येति ।" वही पृ० ३३१ कहते हैं कि "सुख (सुखावेदना) स्वलक्षणतः है।" ४. संस्कारानित्यमानन्दमयासंघाय भाषितं संस्कारविप१. तस्मिन्नस्त्येव सुखमिति-सौत्रान्तिकाः । रिणामतां च यत् किञ्चिद्वेतमिदमत्रदुःखस्येति । वही. -अस्तिएव अभिमिका:-वही०। ५. तुलना कीजिए-तिस्सो वेदना-सुखा वेदना, २. उपघातक चेत् । अनुग्राहक सुख मिति सिद्धम् । मनभि- दुक्खावेदना, अदुक्खासुखा वेदना।" प्रेतं चेत् । अनभिप्रेत सुखमिति सिद्धम् । -दीर्घनिका संगीति पर्याय सूत्र, पृ० १७१ वही० ५० ३३१ । ६. दे० अंगुत्तरनिकाय ४ पृ० २१६ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० वर्ष २४, कि०५ भनेकान्त (संस्कारों की प्रनित्यता पौर विपरिणाम को जानकर करता है उनके दुःखों को सहने में उन्हे अद्भुत प्रसन्नता ही बुद्ध ने वेदना को दुःखतः बतलाया है।) होती है। वास्तव में देखा जाय तो महायान में दुःख का यदि सुखावेदना केवल दःख रूप होती तो संस्कार स्थान करुणा ने ले लिया है भोर महायान ग्रन्थो का करुणा पनित्यता पौर विपरिणामता का उल्लेख न होता। जलेवन रोता ही मूल माघार है। हरदयाल ने बोधिसत्व डाक दिन में वंभाषिक एक और सत्र वचन से उत्पन्न प्रापति का चन्द्रगोविन्द के शिष्य लेख नामक ग्रथ से एक उक्ति को समाधान करते हैं कि 'सूत्र में कहा गया है-'दुःख मे सुख (श्लो. १४) उद्धृत किया है जिसमे उन्होने कहा है कि की प्रतीति संशाविप्रयास है।' वे(वैभाषिक) इसका उत्तर देते 'दूसरों के लिए दुःख सहन करना ही सुख है। इसी हुए कहते कि यह 'भाभिप्रायिक उपदेश है। लोगों की प्रकार के विचार 'प्रवदान कल्पलता' और 'महायान काम गुण पौर मव (दूसरे जम्मादि) मादि मे सुख संज्ञा सूत्रालंकार' में भी पाते है । 'शिक्षा समुच्चय' में इतना होती है उस संशा को एकान्त सख समझना ही संज्ञा तक कहा गया है कि 'बोधिसत्व सब सत्वो के दःखों का विप्रयास है। कारण की सुखावेदना अन्ततोगत्वा विपरि वापर भार अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार है।' वह भीषण जामखील पोर पनित्य है पत: उसे नित्य सख समझना अपायों के दारुण दुःखों को भी सहन करता है ताकि सत्व गलत है। पतः सुख की प्रभाव सिद्घि प्रमाणित नही मुक्ति प्राप्त करें, कितनी उदारता से वह कहते हैहोती। इस प्रकार वैभाषिक भोर कई सूत्रों तथा युक्तियों "वरम् खलु पुनरहमेको दु:खित: स्याम न चे मे सर्वसे सुख की द्रव्य-सत्ता सिद्ध करता है। वैभाषिक सुख सत्वा अपाय भूमि प्रपतिताः।" इस प्रकार दुःख की कोदव्य-सत्ता मानते हुए भी यह स्वीकार करने में हिच. कल्पना को महायान में एक नया मोड़ दिया गया है। किचाहट नहीं करते हैं कि अन्ततोगत्वा सख प्रनित्य है दुःख से मुक्ति पाने की इच्छा नही अपितु दुःख सहन करने विपरिणाम शील है और दुःख में परिणत होता है। में ही सुख की अनुभूति महायान मे बोधिसत्व के भादर्श वास्तव में विदुःलता' (दु:ख-दुःखता, संस्कार-दुःखता मौर में परिलक्षित होती है। विपरिणाम दु:खता के कारण ही सब सानव दुःख हैं । इस इस प्रकार हम देखते हैं कि महायान मे दुःख को प्रकार 'पभिधर्म कोश भाष्य' में दु:ख सत्य का गम्भीर हेय दृष्टि से नही देखा गया है या उससे मुक्ति पाने विवेचन किया गया है। अब महायान मे दुःख के विवेचन के लिए बोधिसत्व प्रयत्न शील नही दिखाई देता है। को देखें-महायान में दुःख को कुछ मोर ही दृष्टि से वहां तो सब सत्यों के प्रति करुणा के कारण बोधिसत्व रेखा गया है, बोधिसत्व दूसरों के दुःखों का परिवहन दुःखों को सहन करने के लिए अग्रसर है। १. पमि० को० भा०, पृ. ३३३ । १. मिलाइये-दुक्कादुक्खतासलारवृक्खता, विपरिणाम- १. वाखये-बोधिसत्व डाक्टिन, पृ०१६० । दुक्खता।" -दी. नि. संगीतिपर्याय सूत्र पृ. १७१ २. देखिये-शिक्षा समुच्चय, १६।३० पृ० १४१८ "सज्जन मोर दुर्जन अपने ही सुगुण, दुर्गुणों के कारण होता है , सर्प के दांत में विष होता है। विच्छू के डंक में मौर ततइया के डंक में, और मक्खी के मुख में विष होता है। किन्तु दुर्जन के सर्व शरीर में विष रहता है। विषैले जन्तु पीड़ित होने पर ही अपने अस्त्र का उपयोग करते हैं, किन्तु दुर्जन बिना किसी कारण के ही उसका प्रहार करते हैं।" Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारसनाथ किला के जैन अवशेष कृष्णदत्त वाजपेयी उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिला में नगीना रेलवे पत्थर की बनी है और ऊंचाई में दो फूट पाठच तथा स्टेशन से लगभग ह मील उत्तर-पूर्व को मोर बढापुर चौड़ाई में दो फुट है। मूर्ति जैन तीर्थकर महावीर की है। नामक कसबा है। वहां से करीब ३ मील पूर्व एक प्राचीन भगवान महावीर कमलाकित चौकी पर ध्यान मुद्रा में किला' के भग्नावशेष दिखाई पड़ते है। इसे 'पारसनाथ प्रासीन हैं। उनके एक मोर नेमिनाथ जी की तथा दूसरी किला' कहते है। इस नाम से अनुमान होता है कि किसी मोर चन्द्र प्रभु जी की खड़ी मूर्तियां हैं। तीनों प्रतिमानों समय वहाँ जनतीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का मन्दिर था। के प्रभा मंडल उत्फुल्ल कमलों से युक्त है। प्रधान मति कुछ वर्ष पूर्व इन तीर्थकर की एक विशाल काय मग्न के शिर के दोनों मोर कल्पवृक्ष के पत्ते प्रदर्शित हैं। मति प्रतिमा बढापुर गांव से प्राप्त हुई है जिससे उक्त अनुमान के धुंघराले बाल तथा ऊपर के तीन छत्र भी दर्शनीय है। की पुष्टि होती है। छत्रों के अगल-बगल सुसज्जित हाथी दिखाये गए हैं, इस किले के सम्बन्ध में अनेक जन श्रुतियां हैं। एक जिनकी पीठ के पीछे कला पूर्ण स्तम्भ है। हाधियों के जन श्रति यह है कि पारस नाम के राजा ने वहाँ अपना नीचे हाथों में माला लिये हुए दो विद्याधर अंकित हैं। किला बनवाया था। श्रावस्ती के शासक सुहेलदेव के प्रधान तथा छोटी तीर्थंकर प्रतिमानों के पाव में चोरी पतंजों के साथ भी इस किले का सम्बन्ध जोड़ा जाता है। वाहक दिखाए गए हैं। को प्राचीन अवशेष अब मिले हैं उनसे इतना कहा जामति की चौकी भी काफी प्रलंकृत है। उसके बीच सकता है कि ई० की दशवी शताब्दी के लगभग किसी में चक्र है, जिसके दोनों मोर एक-एक सिंह दिखाया गया शासक ने वहां अपना किला बनवाया और कई जैन मदिरों है। चक्र के ऊपर कीर्ति मुख का चित्रण है। चौकी के का निर्माण कराया। एक किनारे पर धन के देवता कुबेर दिखाये गए हैं। और यह बताना कठिन है कि इस किले तथा मन्दिरों को दूसरी भोर गोद में बच्चा लिए देवी मंबिका है। चौकी दसरी पोर गोट में rearf किसने नष्ट किया। संभव है कि रुहेलों के समय में या के निचले पहसू पर एक पंक्ति में ब्राह्मी लेख है जो इस उनके पहले यह बरबादी हुई हो । कालान्तर में इस स्थान प्रकार हैकोपेक्षित छोड दिया गया और धीरे-धीरे वह बीहड़ 'श्री विरुद्धमन समिदेवः। स्म १०६७ राणलसत्त भरप बन गया। प्रतिमा प्रठपि ।' (अर्थात् संवत् १०६७ मे राणल पुत्र वर्ष पहले मुझे इस स्थान को देखने का अवसर भरथ (भरत) द्वारा श्री वर्धमान स्वामी की मूर्ति प्राप्त हगा। उत्तर प्रदेश सरकार ने जंगल के एक भाग प्रतिष्ठापित की गई। को साफ करवा कर उसे खेती के योग्य बना दिया है । वहाँ लेख की भाषा शुद्ध संस्कृत नहीं है। पहला अंश 'काशी वाला' नाम से एक बस्ती भी भाबाद हो गई है। 'श्री बद्धमान स्वामिदेवः' का बिगड़ा हमा रूप है। स्म' इसके उत्साही निवासियों ने जमीन को हमवार कर उसे शब्द विक्रम संवत् के लिए प्रयुक्त हमा है। ऐसा मानने खेती के योग्य कर लिया है। इतना ही नहीं, उन्होंने वहाँ पर मूर्ति की प्रतिष्ठा की तिथि १०१०ई० माती।। पर बिखरी हुई पुरानी मूर्तियों की भी रक्षा की है। पारसनाथ किले से इस अभिलिखित मति तथा समकालीन सरदार रतनसिंह नाम के सज्जन ने किला से एक प्रत्यन्त मन्य मूर्तियों के प्राप्त होने से पता चलता है कि १०वी कलापूर्ण पाषाण-प्रतिमा प्राप्त की है। यह बलुये सफेद ११वीं शती में पारसनाय किला जैन धर्म का एक पच्छा Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२, वर्ष २४, कि० ५ अनेकान्त केन्द्र हो गया था। जान पड़ता है कि वहां एक बड़ा जैन सुन्दर द्वार स्तम्भ भी मिले है। एक स्तम्भ के नीचे मकर विहार भी था। इस स्थान की खुदाई से प्राचीन इमारतों के ऊपर खडी हुई गगा दिखाई गई है। उनके अगल-बगल के कई अवशेष प्रकाश में पाये हैं। किला का सर्वेक्षण दो परिचारिकाएं त्रिभगी भाव में प्रदर्शित है। ये मूर्तियां मोर उत्खनन करने पर अधिक महत्वपूर्ण वस्तुएं प्राप्त हो ग्रैवेयक, स्तनहार, किकिणि सहित मेखला तथा अन्य सकेगी। अलंकरण धारण किये हुए है। खम्भे के ऊपर पत्रावली पारसनाथ किला की जो प्रांशिक सफाई हुई है उसमे का अंकन दिखाया गया है। अनेक बेल-बटेदार इंटें, पत्थर के कला पूर्ण खभे, सिरदल, सं०५-यमुना सहित द्वार स्तम्भ-इस स्तम्भ पर देवली तथा तीर्थंकर मतियां प्राप्त हुई हैं। अनेक शिला नीचे के भाग में अपने वाहन कच्छप पर प्रारूढ़ यमना पट्रों पर बेल-बटे का काम बहुत सुन्दर है। एक पत्थर पर दिखाई गई है। इनके साथ भी उसी प्रकार परिचारिकाएँ सगीत मे सलग्न स्त्री-पुरुषों की मतियां उकेरी हुई हैं। प्रशित है जैसी कि पहले द्वार स्तम्भ पर । इससे पता इन अवशेषों में से मुख्य का परिचय नीचे दिया जाता है- चलता है कि ये दोनों खम्भे एक ही द्वार पर लगे हुए थे। सं०१-दरवाजे का सिरवल-इस सिरदल के बीच द्वार खम्भों के ऊपर गंगा-यमुना का चित्रण गुप्त काल के मे कमल-पुष्पों के ऊपर दो सिंह बैठे हए दिखाये गए है। प्रारम्भ से मिलने लगता है। गुप्त काल के महाकवि सिंहासन के ऊपर भगवान तीर्थंकर ध्यान मुद्रा में कालीदास ने दरवाजे पर लगी हुई देवी रूपा गगा-यमना प्रवस्थित है। उनके अगल-बगल में एक-एक तीर्थंकर को मूतियो का उल्लेख इस प्रकार किया गया हैमुर्ति खड्गासन में दिखाई गई है। मध्य भाग के दोनों "मूर्ते च गगा यमुने तदानी सचामरे देव से विषाताम्" ओर भी इसी प्रकार का चित्रण है । सिरदल के दोनों (कुमार सभव ७, ४२) अर्थात् उस समय मति रूप मे कोनों पर एक-एक तीर्थकर प्रतिमा खड्गासन मे दो खम्भों गगा और यमुना हाथो मे चॅवर लिए हुए देव की सेवा मे के बीच मे बनी है। सभी तीर्थकरो के ऊपर छत्र है। उपस्थित थी।) डलीका भाग-यह अवशेष उस स्थान सं० ६-द्वारपाल सहित द्वार-स्तम्भ-इस खम्भे से प्राप्त प्रा जहाँ से भगवान महावीर जी का बड़ा के नीचे एक मोटा दड लिए दरपाल खडा है। उसकी प्रतिमा मिली है। इसके बीच में कल्प वृक्ष का अलकरण लम्बी दाढ़ी तथा बालो का जूडा दर्शनीय है । इसका ढंग है. जिसके प्रत्येक मोर दो-दो देवता हाथ में मंगल घट उसी प्रकार का है जैसा कि मध्य कालीन चदेल कला में लिए हए खड़े है। उनके खड़े होने का विभगी भाव बहुत मिलता है। इस खम्भे के ऊपरी भाग में फलों का प्राषिक है। इस पत्थर मे किनारे की ओर शेर की अलकरण दिखाया गया है। मति है। ऐसी ही मूर्ति पत्थर के दायें कोने पर भी थी, सं०७-टा, जो टूट गई है। का केवल नीचे का हिस्सा बचा है, जिस पर पूर्वोक्त ढग स०३-संगीत का दृश्य-एक अन्य देहली पर, जो का एक द्वारपाल खड़ा है। इसकी भी वेशभूषा पहले के किले के बीच से मिली थी, संगीत का दृश्य बड़ी ही द्वरपाल जैसी है। सुन्दरता से प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक प्रोर कई सं०८-भगवान पार्श्वनाथ को मूर्ति-यह मूर्ति प्राकृतियां तथा अल करण बने हैं। तथा दूसरी ओर भाव बढापुर गांव से प्राई थी। यह पारसनाथ किला से ही पूर्ण मद्रा में एक युवती नृत्य कर रही है । उसके अगल वहां किसी समय गई होगी। दुर्भाग्य से इसका मुह, हाथ बगल मदंग और मंजीर बजाने वाले पुरुष उकेरे हुए हैं। तथा पैरों का भाग तोड़ डाला गया है । यह मूर्ति काफी इन तीनों की वेषभूषा बड़े कला पूर्ण ढंग से दिखाई विशाल है। भगवान ध्यान मुद्रा मे सिंहासन के ऊपर बैठे गई है। हुए हैं । प्रासन पर सपं की ऐंडकार कुण्डलियां दिखाई सं० ४-बार स्तम्भ-पारस नाथ किले से अनेक गई हैं और सिर के ऊपर फण का घटाटोप है। अगल Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-कण श्री यशवंत कुमार मलया (१) दमोह से कुछ दूरी पर कुंअरपुर गाँव है । अभी अनेक तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त यहाँ के दो जैन मै वहाँ गया था और उसे शोध की सम्भावनामों से भर मूर्ति खण्ड उल्लेखनीय है । एक सर्वतोभद्र चौपहल मृतिपूर पाया। यहाँ बौद्ध, जैन, शंव और वैष्णव चारों मतो खण्ड में हर पार्श्व पर एक ऊपर एक नीचे इस तरह दो की मूर्तियाँ पायी जाती है। एक बुद्धमूर्ति के पादमूल अंकन है। एक पार्श्व पर ऊपर एक पद्मासन तीर्थंकर और मे दो पंक्तियों का लेख अकित है-"प्रोम् नमो बुद्धाय । नीचे एक चतुर्भुजा देवी अंकित है। तीर्थकर के नीचे ये धर्मा हेतु प्रभवा हेतु तेषाम् तथा गतो ह्यवदत श्री "वर्धमान देव" और देवी के नीचे "श्री चक्रेश्वरी महादेवी" नी। एव वादी महाश्रमणः ।" उत्कीर्ण किया हुआ है यह आश्चर्य जनक है; क्योंकि दसरा और तीसरा वाक्य प्रसिद्ध बौद्ध मत्र है, जो अन्तिम तीर्थकर वर्धमान की शासन देवी सिद्धायिनी है। नालदा मे बहुतायत से पाया गया है । इस इलाके मे दूसरे पाव पर ऊपर पद्मासन तीर्थकर और नीचे एक बौद्ध मूर्ति पाये जाने का यह संभवतः पहला अवसर है। बालक को लिए देवी प्रकित है। तीर्थंकर के नीचे शान्ति एक दान स्तम्भ मे सं० १३६५ में श्री वाघदेव जू नाथ अकित है। तीसरे पार्श्व के सिर पर फणाटोप वाले द्वारा कश्यप गोत्रीय ब्राह्मण को दान दिए जाने का एक पद्मासन और दो खङ्गासन तीर्थकर और इनके नीचे उल्लेख है। एक छ: भुजा वाली ढाल, धनुष, तलवार प्रादि लिए देवी अंकित है। इनके नीचे का लेख मिट गया है। चौथे बगल नाग और नागिन की मूर्तिया उत्कीर्ण हैं। उनके । पार्श्व पर ऊपर सरस्वती अंकित है और नीचे दो शिष्यों ऊपर ध्यानमुद्रा मे तीर्थकर-युग्म की प्रतिमाएं है चरण को उपदेश देते हुए प्राचार्य अंकित है। इनके नीचे लेख में चौकी के ऊपर दो अलकृत सिंह दिखाये गए है। यह 'रामसिंघ नामक किसी व्यक्ति का उल्लेख है। मूर्ति भगवान महावीर की पूर्वोक्त प्रतिमा की तरह बड़ी कलापूर्ण है। संभवतः मध्य काल में पारसनाथ किला की इसी तरह के एक अन्य प्रश के एक पार्श्व पर युद्ध भूमि पर निर्मित मुख्य मदिर की यह मूर्ति थी। रथ दो हाथी-सवार और दूसरे पाश्र्व पर एक पार्यिका पारस नाथ किले के कितने ही प्राचीन अवशेष इधर दो अन्य प्रायिकामों को उपदेश देती हुई अकित है । इसके नीचे एक लेख था, जिसके कुछ प्रक्षर ही शेष रह उधर पहुच गए है। मुझे नगीना के जैन मंदिर में कई गए हैं । जिससे उनके सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नही हो प्राचीन मूर्तिया देखने को मिली, जिनकी शिल्प-रचना सका। पारस नाथ की कला के अनुरूप है। इन मतियों में ध्यान मायिकामों का प्रकन पाये जाने का यह पहला ही मुद्रा में बैठे हुए तीथंकर की एक मूर्ति विशेष उल्लेखनीय प्रवसर है । लिपि के आधार पर दोनों मूर्ति खण्ड १२वीं है। स्तम्भ का एक भाग भी यहा सुरक्षित है जिस पर खडगासन में भगवान तीर्थकर दिखाए गए हैं इन सभी शताब्दी के मालूम होते हैं । प्राचीन अवशेषों को सुरक्षित रखना प्रावश्यक है। मध्य (२) बहोरीबंद की शाति नाथ भगवान की विशाल काल मे उत्तर भारत मे जैन धर्म का जो विकास हमा मूर्ति में एक लेख उत्कीणित है। इस लेख को श्री शकरलाल उसे जानने मे ये कला कृतियाँ तथा अभिलेख सहायक अधिकारी पुरातत्व विभाग (नवभारत १६-१२-५४ मे) ने सिद्ध हुए हैं। इस तरह पढ़ा था-"स्वस्ति श्री वि० सं० १०१० Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ वर्ष २४, कि० ५ फाल्गुन सुदी भौमे श्रीमदगया कर्णदेव विजयराज्ये राष्ट्रकूटकुलोद्भव, महासामन्ताधिपति श्रीमद् गोल्हण देवस्य प्रवर्धमानस्य । श्रीमद् गोलापूर्वाम्नाये वेल्लप्रभाटिकायमुरुकृताम्नाये तर्क-तार्किक छत्रचूडामणि- श्रीमन्माधव नन्दिनानुगृहीतः साधु श्रीसर्वधरः तस्य पुत्रः महाभोज : धर्म दानाध्ययनरतः । तेनेदं कारितं रम्यं शान्तिनाथस्य मन्दिरम् । अनेकान्त स्वलात्यम्सज्ञक-सूत्रधारः श्रेष्ठिनामा, तेन वितान च महाश्वेतं निर्मितमतिसुन्दरम् । श्रीमच्चन्द्रकराचार्याम्नाये देशीयगणान्वये समस्त विद्या विनयानन्दित विद्वज्जनाः प्रतिष्ठाचार्याः श्रीमन्तः सुभद्राः चिरं जयतु ।” इस लेख मे दूसरे वाक्य मे "गोला पूर्वाम्नाये” निश्चित ही " साधु श्री सर्वधरः तस्य पुत्रः महाभोजः " के साथ सम्बद्ध है क्योकि प्राचार्य (माधवन्दि ) को जाति कभी नही लिखी जाती । इस तरह यह गोला पूर्व जाति का प्राचीनतम उल्लेख है । लेकिन आश्चर्य की बात है कि बहोरीबन्द क्षेत्र द्वारा अक्सर इस तरह का प्रचार किया जाता है कि "विक्रम सं० १०१० एक हजार फागुन बदी ६ सोम श्रीमद् गयाकर्णदेव ने प्रतिष्ठा कराई।" अभी मन्दिर के बाहर एक बोर्ड लगाया गया है । जिसमें पहला वाक्य तो ठीक लगाया गया है लेकिन गोलापूर्वाम्नाये" शब्द विचित्र तरह से तोड़ा गया है जिससे "गोल्ला" किसी व्यक्ति के नाम का भाग बन गया है। दूसरे शब्दों में "गोला पूर्वाम्नाये" शब्द प्रबन्धक स्वीकार नहीं करते । मैं अभी बहोरीबंद गया था। लेकिन मूर्ति पर चिकनाई रखने के उद्देश्य से तेल का लेपन किया जाता है । इस कारण लेख पर तेल की परत चढ़ी हुई है । प्रबंधक श्री कल्याणदास जो, जो उत्साही और योग्य पुरुष हैं, उन्हें तेल की परत साफ करवा कर लेख की फोटो कापी प्रकाशित कराना चाहिए । (३) प्रहार के मूर्ति लेखों में एक बात नोट करने की है। मूर्तियों के निर्माता विविध जातियों के व्यक्ति हैं, जिन्होंने मूर्तियों का निर्माण करा कर प्रतिष्ठित किया है । इनसे विविध उपजातियों के नामों का परिज्ञान होता है । इनमें २४ गोल पूर्वो की (१२०२ से अब तक) १५ जैसवाल (सं० १२०० से १२८८ तक ) १३ गृहपति (सं० १२०३ से १२३७ तक ) है । अन्य जातियां पोरपाट (परवार), खन्डेलवाल, मेडवाल, लमेंचू, मइडित, माधुव, गोलाराड, गगंराट, वैश्य, माथुर, महेशणउ, देउवाल, र अवधपुरा है। एक मूर्ति " ठक्कुर पद्मसिंह" की है जो स्पष्टतः क्षत्रिय वर्ण के होंगे। एक अन्य श्रवधपुरा जाति की मूर्ति में श्रावक के नाम के आगे 'ठक्कुर' है। यह गोत्र है। यहां ठकुर शब्द जाति वाचक नही है । कुछ मूर्तियों के निर्माताओं के प्रागे 'पंडित' लगा है । ये ब्राह्मण होगे । 'कुटकान्वय' के लेख उल्लेखनीय है । इनके निर्मातानों के नाम के आगे 'पंडित' है लेकिन यह 'प्रन्वय' पिता-पुत्र वंश परम्परा का नहीं, गुरु-शिष्य परम्परा का लगता 1 संवत् १७२० के एक लेख में गोलापूर्व जाति के पंथवार गोत्र का उल्लेख है । यह गोत्र वर्तमान में नष्ट हो चुका है। (४) वर्तमान में गोलापूर्वो का स्वाभिमान प्रसिद्ध है । लगता है यह प्रवृत्ति भूत काल मे भी थी । महार के सं० १२८० के मूर्तिलेख में प्रख्यातवंशे गोलापूर्वान्वये" है । कवि शंकर ने सं० १५२६ में हरिषेण चरित्र में लिखा है- "गोलापूर्व वंश सुपवित्त ।" [ अनेकांत अप्रैल ७१] Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेणा का इतिहास ____डा० कैलाशचन्द्र जैन नरेणा राजस्थान में फुलेरा जंक्शन से करीब किन्तु यह विचार ठोक ज्ञात नहीं होता है । अलवर बारह मील की दूरी पर स्थित है। यह स्थान के पास वाला नरायणपुर दसवी और ग्यारहवीं ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत प्राचीन है तथा ग्यारहवी शताब्दी में नरायण के नाम से प्रसिद्ध नहीं था। और बारहवीं सदी में समृद्व अवस्था में था। शिला- इसके विपरीत नरेणा प्राचीन समय में नरायण के लेखों और साहित्य में इसके प्राचीन नाम, 'नराण' नाम से विख्यात था। यह नगर उस समय समृद्धिऔर नराणक' मिलते हैं । इस पर सांभर और शाली था तथा यहां धनी व्यक्ति वसते थे। यहां अजमेर के चौहानों का राज्य था। उस समय यह पर जमीन से निकली हई दसवीं व ग्य सैनिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान समझा शताब्दी की मूर्तियाँ इस बात को सिद्ध करती हैं जाता था । ११७२ ई० में पृथ्वीराज तृतीय ने यहां कि इस स्थान पर मुसलमानों का अाक्रमण हुमा पर अपना सैनिक कैम्प (पड़ाव) डाला था। था। जो राजा महमूद गजनी से लड़ा था, वह इसका सनिक महत्व राणा कंभा के समय (१४३३- शाकभरी के दर्लभराज का पुत्र गोविंदराज द्वितीय ६८) तक चलता रहा। वह इसके प्रसिद्ध किलों था। फिरिश्ता भी इस बात का उल्लेख करता है का उल्लेख करता है जिसको कि जीतना व तोडना कि महमद सांभर की तरफ से सोमनाथ की भोर बड़ा कठिन है। आया था। नरेणा में प्रारम्भ में मुसलमानों के आक्रमण चौहानों के राज्य में नरेणा जैनधर्म का बड़ा हुए जान पड़ते हैं। १००६ ई० में महमद गजनी केन्द्र हो गया था। बारहवीं सदी के लेखक सिद्धसेन ने नरायणा पर पाक्रमण किया। यहां का राजा सूरि ने इसको अपने सकल तीर्थस्तोत्र में जैनियों बड़ी बहादुरी से अपने देश की रक्षा के लिए लडा के प्रसिद्ध तीर्थ-रूप में वर्णन किया है। जैन साधु किन्तु उसकी हार हुई । सुल्तान ने बुरी तरह से यहां की मूर्तियों को तोड़ा तथा बड़ी लूटमार करके गजनी को लौट गया। प्राचीन समय में व्यापार की दृष्टि से भी इसका महत्व था; क्योंकि इसका व्यापार भारत के कोने-कोने तथा विदेशों से होता था। प्रसिद्ध इतिहासकार कनिषम ने इस स्थान को अलवर के पास वाला नरायणपुर बतलाया है। अन्य विद्वानों ने भी इसको स्वीकार कर लिया है। १. खरतरं गच्छ ब,हद् गुर्वावलि, पृ० २२ । २. पाटण के जन भडारों की सूची, पृ० ३१२-३६१ । ३. एपिग्राफिया इंडिका जिल्द २६, पृ० ८४। ४. खरतर गच्छ बृहद् गुर्वावलि, पृ० २५ । चरणपादुका जैनाचार्य, और सरस्वती ५. प्राकियालाजिकल सर्वे इंडियल एगुअल रिपोर्ट इस स्थान पर रहा करते थे। १०२६ ई० को १९०७-०८, पृ० २०५। ७. वही, पृ२३ । ६. दी स्ट्रिगल फोर अम्पायर, ११ । ८. पाटन के जैन भंडारों की सूची ३० ३१२-१६ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६, वर्ष २४, कि०५ अनेकान्त पादुका पर जैन प्राचार्य का नाम खुदा हुआ है।' अंकित है।" इसके अतिरिक्त दो श्वेत पाषाण ११७० ई. के बिजोलिया के शिलालेख के अनुसार प्राग्वाट् जाति के लोलक के पुरखे पुन्यरासि ने यहां पर वर्द्धमानस्वामी का जैन मंदिर बनवाया।" १०७६ के यहां से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार प्राग्वाट जाति के मथन नाम के व्यक्ति ने अपने परिवार के सदस्यों सहित मूर्ति प्रतिष्ठा की।" PHONE सिंहवाहिनी देवी तथा एक काले पत्थर की सिंह पर बैठी बहुत हो कलापूर्ण सिंहवाहिनी की मूर्तियाँ हैं । ग्यारहवीं शताब्दी के लेखक धनपाल अपनी कविता 'सत्यपुरीय महावीर उत्साह' में यहां के महावीर स्वामी के मन्दिर का उल्लेख करता है। "संभव है जो प्राचीन जैन तीर्थकर की खड्गासन मूर्ति मूर्तियां, स्तंभ तथा तोरणद्वार भैरूजी के मन्दिर इन शिलालेखों से यह विदित होता है कि पोर- के समीप से प्राप्त हुए हैं, वे सब महावीर के मंदिर वाल जैन यहां पर रहते थे । पार्श्वनाथ को खड्गा- के प्राचीन अवशेष हों । ऐसा लगता है कि यह सन प्रतिमा ५२ ई० की है। यहां पर अन्य समस्त मन्दिर संगमरमर का बना हुआ हो तथा प्राचीन जैन मतियाँ भी हैं। यहां से प्राप्त जैन अपनी पूर्ण अवस्था में कला का एक अद्भुत नमूना देवियों की मूर्तियाँ कला की दृष्टि से उच्च हैं। होना चाहिए। यह मन्दिर बारहवीं शताब्दी में सरस्वती की प्रतिमा पर १०४५ का शिलालेख मुसलमानों द्वारा नष्ट कर दिया गया क्योंकि इस मन्दिर में बाद की मूर्तियाँ नहीं मिलती। ६. संवत् १०८३ माघ सुदी १४ प्राचार्य गुणचन्द्रस्य ११६२ ई० में मुहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज इदं पाद युग्म । तृतीय को हराने के पश्चात् नरेणा पर देहली के १०. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २६, प० ८४ सुलतानों का अधिकार हुआ । १३८८ ई० में फिरोज (श्लोक, ३६)। तुगलक की मृत्यु के बाद मुसलमानों का साम्राज्य ११. संवत् ११३५ फागुन सुदि प्राग्वाट जात्य श्रेष्टि छिन्न-भिन्न होने लगा। जफरखां ने जो नागौर सुजन सुत मथन सुयोर्थ पितपय भातृ माल्हा भार्या का स्वतंत्र शासक हो गया था, नागौर का राज्य मथन सुत चाहड सहिता भार्या प्रथम मनमख बाहु. १३. संवत् ११०२ वैशाख सुदि ६ श्री नेमिनारवीय समस्त वलि देव निज श्रेयोथं प्रतिष्ठापितं । वालमो प्रतिष्ठा कारिति, प्रों ह्रीं श्री सरस्वती नमः । २. संवत् १०.६ वैशाख बुदि । १४. जैन साहित्य संशोधक, वर्ष ३, अंक १। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरेणा का इतिहास २९७ अपने भाई शम्सखां को दिया। शम्सखां के पश्चात् जगमल ने तेजसिंह और हम्मारदेव को हराया फिरोजखां सुलतान हमा। इस समय नरेणा भी और जोबनेर और नरेणा पर अपना अधिकार कर मागोर के अन्तर्गत था। मोकल जो १४२० ई० में लिया। सम्राट अकबर ने उसको एक हजार का मेवाड़ का महाराणा हुआ, उसने नागौर के सुल्तान इनामत दिया।" महाराणा प्रताप के विरोध में फिरोजखां को हराकर समस्त सपादलक्ष को जीत लड़ने के लिए वह मानसिंह के साथ गया । जगमल लिया।" इस प्रकार नरेणा भी मोकल के अधिकार के दो पुत्र थे। एक का नाम खंगार और दूसरे का में पा गया। बाद में फिरोजखां के छोटे भाई नाम रामचन्द्र। बड़े पूत्र खंगार से खंगारवंश मुजेरखां ने मोकल को हराकर नरेणा को फिर से प्रारम्भ हुआ जो जोबनेर और नरेणा पर राज्य हस्तगत किया। १४३७ ई० में उसने किले तथा करता था। उसके छोटे लड़के ने जम्बू राज्य की तालाब की मरम्मत करवाई तथा अपने नाम पर स्थापना की और इस कारण वह काश्मीर क तालाब का नाम रखा।" यहां के मुसलमान राजाओं का पुरखा समझा जाता है। राव खंगार सुल्तानों ने हिन्दुओं के मन्दिरों को तोड़ा। मुजेद- एक बहादुर सेनापति था जिसने सिरोही के राव खां ने यहां के प्राचीन कला-पूर्ण हिन्दू मन्दिरों को सुल्तान तथा बून्दी के राव दुर्जनसाल हाड़ा को नष्ट करके जामा मस्जिद बनवाई। इस मस्जिद हराया। राव खंगार के नारायणदास तथा मनोहरके स्तम्भ अब भी हिन्दू कला का दिग्दर्शन कराते दास दो पुत्र थे जिनको नरेणा तथा जोबनेर की हैं । मस्जिद के समीप ही एक विशाल दरवाजा है अलग-अलग जागोर दी गई। नारायणदास के तीन जो त्रिपोलिया के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी लड़के दर्जनसाल, शत्रसाल तथा गिरधरदास प्राचीन हिन्द मन्दिरों के अवशेषों से बना है। अब अयोग्य तथा निकम्मे होने के कारण भी कलापूर्ण आकृति के खुदे हुए चित्र इसकी शोभा जहांगीर को अपनी सेवाओं से खुश नहीं रख सके । बढाते हैं । मेवाड़ का फिर से नरेणा पर अधिकार इस कारण जहांगीर ने २४६००० की नारायणदास हो गया। राणा कपूर के १४३६ के शिलालेख से को जागीर बीकानेर के राजा सरसिंह को दे दो।" पता चलता है कि मेवाड़ के राणा कंभा ने फिर से तथा नरेणा नारायणदास के भतीजे भोजराज को नरेणा के किले को जीत लिया । अकबर के राज्य दे दिया। भोजराज एक वीर सैनिक था। उसने (१५५६ ई०-१६०६) यह नगर अजमेर सरकार जहागीर जनाने की खुरम के अचानक अाक्रमण से के आधीन था।"१६०५ ई० के शिलालेख के रक्षा की। उसकी सेवाओं से प्रभावित होकर अनुसार अकबर स्वयं इस स्थान पर आया था। सम्राट् ने उसका मन्सब बढ़ा दिया। वोर होने के मुगलों के समय में नरेणा पर कच्छावों का साथ-साथ भोजराज को धर्म के प्रति रुचि थी। राज्य रहा । पाम्बेर के राजा पृथ्वीराज क पत्र उसने नरेणा को दादुपंथी संप्रदाय के संस्थापक दाददयाल को दान में दे दिया। इसके पश्चात १५. एनुअल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम प्रजमेर, नरेणा इस सम्प्रदाय का एक बड़ा केन्द्र हो गया। . १६२४-२५ न०६ । १६. एपिग्राफिया इंडो मुस्लिमिका, १८१३-२४, ___ मध्य कालीन युग में भी नरेणा के लोग जैन १० १५ । प्रभो इस तालाब को गौरीशंकर तालाब धर्म का पालन करते थे । प्रायः जैन साघु इस समय कहते हैं। यहां पर आते जाते रहते थे। १६९१ ई० में ईडर १७. पाइने अकयरी, जिल्द२, पृ० २७३ । के भट्टारक क्षेमेन्द्र कीति और चाकसू के भद्रारक १८. प्राकियालाजिकल सर्वे इडियन एनमल रिपोर्ट १९. वीर विनोद, १० १९७ । १९२५-२६, पृ० १२८ ।। २०. दयालदास की ख्याति पृ० १५२ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो के आदिनाथ मंदिर के प्रवेश द्वार की मूर्तियां मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी मध्य प्रदेश के छतरपुर स्थित खजुराहो का भारतीय शाखामों और चौखट पर उत्कीर्ण विभिन्न देवियो के वास्तु तथा शिला कला के क्षेत्र मे महत्त्वपूर्ण स्थान है। सकन मे है। कुछ प्रमुख जैन देवियों यथा लक्ष्मी, पद्मावर्तमान खजुराहो ग्राम के समीप अवस्थित जैन मन्दिरों वती, प्रबिका, चक्रेश्वरी के अतिरिक्त प्रवेश द्वार पर का समूह खजुराहो का पूर्वी देव मन्दिर समूह कहलाता उत्कीर्ण अन्य प्राकृतियों की निश्चित पहचान उनके जैन है। घण्टई मन्दिर के अतिरिक्त समस्त नवीन व प्राचीन परम्परा मे प्राप्त वर्णनों से मेल न खाने की वजह से कठिन दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बन्धित जैन मन्दिर एक विशाल है। फिर भी इस लेख में मात्र वाहन के प्राचार पर, किन्तु नवीन परकोटे के अन्दर स्थित है । ग्यारहवी शती विशेषकर द्वारा शाखायो के, प्राकृतियों की पहचान की मे निर्मित आदिनाथ मन्दिर, जिसके प्रवेश द्वार पर चेष्टा की गई है, क्योंकि जहाँ तक मुजापो में प्रदर्शित उत्कीर्ण मूतियों का अध्ययन हमारा प्रभीष्ट है, पार्श्वनाथ प्रायुधों या प्रतीकों के प्राधार पर इनके पहचान का प्रश्न मन्दिर (६५४ ईसवी) के समीप हो स्थित है। जन है, वह उनमे किसी निश्चिन क्रम या किसी विशेष अन्तर शिल्प के अध्ययन की दृष्टि से ग्रादिनाथ मान्दर का के प्रभाव में सम्भव नहीं है। खजुराहो के जैन शिल्प में विशिष्टता मन्दिर की बाहरी भित्तियो के विभिन्न थि सर्वत्र कलाकार ने परम्परा के निर्वाह से ज्यादा नवीनकामों में स्थापित १६ जन देवियों की मूर्तियो, जिनमे से ताओ के समावेश की ओर ध्यान दिया है। कुछ विशिष्ट होमतियाँ संप्रति अपने स्थान से गायब है और जो जैन देवो यथा, अबिका, सरस्वती, चक्रेश्वरी, पद्मावती, लक्ष्मी, धर्म के १६ विद्या देवियो का प्रकन करती प्रतीत होती कोर गोख.. कुबेर, गोमुख, धरणेन्द्र के अकन मे ही कुछ सीमा तक है और प्रवेश द्वार के सोहवटी (डोर लिटेल) द्वार कलाकार जैन परम्परा का निर्वाह करता हुआ प्रतीत जगतकीति एक हो समय में इस स्थान पर आये होता है। यहां यह उल्लेख करना अनूचित न होगा कि और उनके उपलक्ष में एक बड़ा उत्सव लोगों द्वारा प्रवेश द्वार की सभा प्राकृतियों के वाहन, प्रायुध व मनाया गया।" भक्तामर स्तोत्रवृत्ति का प्रति स्वरूप काफी अस्पष्ट है। सभी चतुर्भज प्राकृतियाँ प्रर्ध नयनरुचि ने इसो स्थान पर तैयार को ।२५ स्तभों से वेष्टित अलग-अलग रथिका में स्थापित है। सामाजिक दष्टि से भी नरेणा का बड़ा महत्व प्रवेश द्वार के मध्य मे ललाटबिंब पर उत्कीण चतुहै क्योकि साढ़े बारह वैश्यो की जातियो में नरणा भुज चक्रश्वरी ललितासन मुद्रा में प्रासान है, जिसका जाति का भा उल्लेख हे जसा १६३६ ई० मे लिखी। एक पैर नीचे लटका है और दूसरा भासन पर स्थित है। हई सिहासन बत्तीसी से पता चलता है।" अब भा दवी की ऊपरा दाहिनी व बाथी भजामो में क्रमशः गदा कुम्हारो के गोत्रों में इस स्थान के नाम पर नरेणा और कमल (?) प्रदर्शित है, जब कि निचली भुजामो म कुम्हार मिलते हैं। अभय मुद्रा (दाहिना) पार शख (बायी)। दवो के २१. उदयपुर के सभवनाथ के मन्दिर मे भट्रारक प्रासन क नीच प्रदशित उड्डायमान मानव प्राकृति निश्चित पट्टावली, देखो अथ सख्या ४३० । रूप से देवी का वाहन गरुड़ है। देवी के दाहिने पर के २२. बून्दी के शास्त्र भहार का प्रथ न० २४७ । नीचे अवस्थित एक भग्न प्राकृति देवी का उपासक है। २३. जैन गर्जन कवियो, जिल्द १.० २३५ । इस चित्रण मे चक्रेश्वरी के हाथों में सदैव प्रदर्शित चक्र Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजुराहो के प्रादिनाथ मन्दिर के प्रवेश द्वार को मुतियां २१९ को अनुपस्थिति प्राश्चर्यजनक है। देवी के स्कन्वों के और कमण्डलु (नीचे लटकता) प्रदर्शित है। हाथों में ऊपर प्रत्येक पार्श्व में एक मालाघारी उड्डायमान गन्धर्व प्रशित कमल के प्रावार पर इन देवियों की सभावित को मूर्तिगत किया गया है। द्वार बिब की चक्रेश्वरी मति पहचान लक्ष्मी से की जा सकती है। के प्राधार पर इस मन्दिर का जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर अब हम प्रत्येक द्वार शाखा पर उत्कीर्ण चार देवियों ऋषमनाथ को समर्पित होना, जिनके यक्षिणी के रूप में के अकनों का अध्ययन करेंगे, जो सभी जैनधर्म की विशिष्ट गरुड़वाहिनी चक्रेश्वरी का उल्लेख प्राप्त होता है, देवियां होनी चाहिए। यद्यपि इन देवियों की निश्चित निश्चित है। पहचान संभव नहीं है, पर मात्र वाहनों के माधार पर डोर-लिटेल के बायें कोने पर ललितासन मुद्रा में इनके पहचान का प्रयास किया गया है। प्रायुधों के आधार मासीन चतुर्भुज अंबिका की मूर्ति उत्कीर्ण है। देवी के पर इन देवियों की पहचान असंभव है। क्योंकि उनके दाहिनी ओर उनका वाहन सिंह चित्रित है। जैन परपरा अंकन में परस्पर कोई विशेष अन्तर नहीं दिखता, है और मे २२वे तीर्थकर नेमिनाथ की यक्षिणी के रूप में मान्य कुछ सीमित प्रतीकों को ही थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ प्रबिका को खजुराहो के जैन शिल्प में काफी लोकप्रियता प्रत्येक के साथ चित्रित किया गया है । ललितासन मुद्रा प्राप्त थी। अंबिका की लोकप्रियता का प्रमाण उनको मे प्रासोन सभी चतुर्भुज मूर्तिया अर्घ स्तंभों से वेष्टित स्वतत्र मूर्तियों के अतिरिक्त डोर-लिटेल्स के कोनों पर रथिकानो में स्थापित है । सर्व प्रथम हम बायीं द्वार शाखा उत्कीर्ण अबिका को प्राकृतियां भी हैं। अंबिका की ऊपरी की मतियों का अध्ययन करेगे। ऊपर से पहली मूर्ति के और निचली दाहिनी भजात्रों में क्रमशः कमल और ऊपरी दाहिनी और बायी भुजाप्रो मे क्रमशः शक्ति और प्राम्रलगबि चित्रित है, जबकि ऊपरी वाम भजा मे पुस्तक पाश (?) प्रदर्शित है, जब कि निचली अनुरूप भुजाओं व कमल । देवी की बायी गोद में उनका पूत्र, जिसे व से अभय और वरद मुद्रा व्यक्त है । देवा के बाया और अपनी निचली भजा मे सहारा दे रही है, बैठा है जो उत्कीर्ण वाहन बल या श्वान (?) प्रतीत होता है । यदि अपने हाथ से देवी के स्तन छ रहा है । देवी के शीर्ष वाहन को बल स्वीकार किया जाय तो इस प्राकृति को भाग के दोनो ओर पाम्रफल से युक्त टहनिया चित्रित है। पहचान हवे तीर्थकर सुविधिनाथ की यक्षिणी सुतारा से डोर लिटेल के दाहिने कोने पर पाच सर्पफणों के की जा सकती है, जिसका वाहन बैल है । पर यह ध्यातव्य घटाटापा स प्राच्छादित चतुर्भुज देवी ललितासन मुद्रा में है कि बैल वाहन केवल श्वेताबर परम्परा में वर्णित है उत्कोण है। सर्पफणों और पाश के प्राधार पर इसकी और दिगंबर परम्परा मे इसी को महाकाली नाम से पहचान २३वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की यक्षिणी पावती से सबोधित किया गया है और इसका वाहन कूर्म बताया की जा सकती है । पद्मावती की ऊपरी दाहिनी व बायी गया है । दूसरी मूर्ति की दाहिनी ऊपरी व निचली भुजाओं भुजाओं में क्रमश: पाश और कमल (प्रकर) चित्रित है, में क्रमश: पाश और अभय मुद्रा प्रदर्शित है, जबकि बायीं जबकि निचली अनुरूप (Corresponding) भजामों में ऊपरी भुजा में सनाल कमल । देवी की निचली वाम मुंज। अभय मुद्रा भोर कमण्डल प्रदर्शित है। देवी का वाहन खंडित है। देवी के दाहिनी भोर चित्रित वाहन गौरैया अनुपस्थित है। जान संग्रहालय, खजुराहो में स्थित एक (?) है, जिसे जैन परम्परा मे किसी भी देवी के वाहन डोर-लिटेल (नं० १४६७) में भी पद्मावती की एक रूप में नही स्वीकार किया गया है । फलत: इस देवी की मजा में पाश देखा जा सकता है। पहचान किसी ज्ञात जैन देवी से करना संभव नहीं है। ललाटबिंब के चक्रेश्वरी चित्रण में दोनों पाश्वों में तीसरी मति के ऊपरी दाहिने व बायें हाथों मे शक्ति दो चतुर्भज खड़ी देवियां उत्कीर्ण हैं। दोनों ही प्राकृतियों व पुस्तक व कमल प्रदर्शित है, जबकि निचला दाहिना के ऊपरी दोनों हाथों में सनालकमल चित्रित हैं, जबकि हाथ भग्न है और बायें में फल (मालिग) चित्रित है। निचली दाहिनी व बायीं भुजाओं में क्रमश: वरदमुद्रा देवी के वाम पार्श्व मे प्रदर्शित वाहन निश्चित रूप से मृग Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०, बर्ष २४,कि. ५ अनेकान्त है, जो दिगबर परंपरा मे ७वी विद्यादेवी काली पोर ११वें प्राकृतिकी ऊपरी दाहिनी व बायी भुजामों में क्रमशः परशु तीर्थकर श्रेयासनाथ की यक्षिणी गौरी के वाहन के रूप में मोर सनाल कमल प्रदर्शित है, जबकि निचली वाम भुजा वणित है। चौथी मूर्ति, जिसका वाहन नष्ट हो गया है, से अभय मुद्रा व्यक्त है । देवता की दाहिनी मजा का के ऊपरी दोनो भुजानो मे सनाल कमल और निचली प्रायुध भग्न हो गया है । बायें कोने की प्राकृति के निचले दाहिनी व बायी भुजामों में क्रमश: अभय मुद्रा और कमन्डलु दोनों हाथ खन्डित हो चुके है और ऊपरी दोनों भजामों प्रदर्शित है। वाहन के अभाव में भुजाम्रो मे स्थित कमल मे पूर्ववत परश और सनाल कमल प्रदर्शित है। दोनों ही के प्राधार पर इसकी पहचान लक्ष्मी से की जा सकती प्राकृतियों का मुख मण्डल काफी अस्पष्ट है । इन प्राकृ तियों की सभावित पहचान हाथों में प्रदर्शित परश और अब हम दाहिनी द्वार शाखा की मूर्तियों को देखेंगे। तुन्दीलेपन के प्राधार पर प्रादिनाथ के यक्ष गोमूख से की कार से पहली मूर्ति की ऊपरी दाहिनी व बायों भुजानों जा सकती है, पर माश्चर्य की बात है कि अन्य मतियों के मनाल कमल और पुस्तक व कमल प्रदशित है, जबकि विपरीत प्राकृति गोमुख नहीं है, वैसे मुखाकृति के काफी अनुरूप भुजामों में अभय मुद्रा प्रोर कमण्डलु चित्रित है मस्पष्ट होने के कारण इसके गोमुख न रहे होने के बारे देवी के वाम पाव में उत्कीर्ण प्राकृति श्वान (?) प्रतीत में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। होती है, जिसके आधार पर देवी की पहचान संभव नही चौखट पर उत्कीर्ण बाये कोने की पुरुष प्राकृति के प्रतीत होती है, अन्यथा पुस्तक व कमण्डलु के प्राधार बगल में गज लक्ष्मी को एक चतुर्भुज मति देखी जा सकती पर इसे सरस्वती का चित्रण स्वीकार किया जा सकता है। स्वतत्र रथिका मे स्थापित देवी पद्मासन मुद्रा में था। दूसरी प्राकृति, जिसका शीर्ष भाग खंडित है, की कमल पर आसीन है । देवी ने ऊपरी दोनों भजामों में दोनों दाहिनी भुजाएं भग्न हैं, और बायी भुजानो में कमल धारण किया है, जिस पर चित्रित दो गज माकृस्तक व कमल (ऊपरी) व फल (निचली) प्रदर्शित है। तियां मूर्ति के गज लक्ष्मी होने का निश्चित प्रमाण है । देवी के वाम पार्श्व मे उत्कीर्ण वाहन श्वान या मृग (?) देवी की निचली दोनों भुजाएं भग्न हो चुकी हैं । देवी की है। मृग स्वीकार करने पर बायीं द्वार शाखा की तीसरी मुखाकृति, भुजाएं पयोधर काफी भग्न है। दाहिनी ओर पाति के समान ही इसकी पहचान ७वी विद्या देवी की रथिका मे स्थापित पद्मासन मुद्रा में पासीन देवी या यक्षिणी गौरी से की जा सकती है, जिसकी की सभी भजाएं खण्डत है, पर पिछली मतियो की तरह मेष हाथों में प्रदर्शित समान प्रतीको से भी होती ही यह भी चतुर्भज रही होगी। वैसे इस प्राकृति का तीसरी प्राकृति की चारो भुजाएं खण्डित हैं, और ऊपरी दाहिनी भुजा में कमल रहे होने क प्रमाण अभी जायी भोर प्रकित वाहन शुक है । यहा पुनः वाहन के शेष हैं। देवी के पासन के नीचे वाहन कूर्म प्रदर्शित है, आधार पर देवी की पहचान सभव नहीं है। चौथी प्राकृति निक जिसके प्राधार पर देवी की पहचान वें तीर्थकर नो दाहिनी भजाएं संप्रति भग्न हैं पोर बायीं सविधिनाथ के यक्षिणी महाकाली से की जा सकती है। जागों में सनाल कमल (ऊपरी) पोर फल (निचली) पर सर पर प्रदर्शित तीन सर्पफणों का घटाटोप उपयुक्त प्रदर्शित है। देवी के बायीं भोर उत्कीर्ण मकर वाहन के र माघार पर देवी की पहचान १६वीं विद्यादेवी महामानसी इन मतियों के अतिरिक्त बायें और दाहिने द्वार तीर्थकर वासुपूज्य की यक्षिणी गान्धारी, से की शाखामों के निचले भाग मे क्रमशः गगा और यमुना की जा सकती है। चतुर्भुज प्राकृतियां उत्कीर्ण हैं। द्वार शाखामों के नीचे द्वार शाखामों के इन प्राकृतियों के अतिरिक्त चौखट गंगा और यमुना का अंकन खजुराहो के जैन और हिन्द के दोनों कोनों पर दो ललितासन मुद्रा मे मासीन चतुर्भज मदिरों दोनों ही में समान रूप से प्रचलित । परुष प्राकृतियां उत्कीर्ण है । दाहिने कोने की तुन्दीली गगा की केवल एक भुजा ही शेष है, जिसमें कमल Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजराहो के मादिनाथ मन्दिर के प्रवेशद्वार की मतियां २२१ प्रदर्शित है। यमुना की चारों भुजाए खण्डित हो चुकी जाने का चित्रण है। फिर क्रम से गज, बैलोर सिंह है। गगा और यमना की प्राकृतियो के पीछे क्रमश: उनके को उत्कीर्ण किया गया है। तदपरान्त चतज जी को वाहन मकर और कूर्म चित्रित है। कमल पर पासीन चित्रित किया गया है, जिसकी ऊपरी डोर लिटेन के ऊपर एक पैनेल (architrave) में भुजामो मे कमल प्रदर्शित है और निचली दाहिनी व बायीं तीर्थकरों की माता द्वारा उनके जन्म से पूर्व देखे गये १६ भुजाम्रो मे क्रमश: अभय मुद्रा और कमण्डलू चित्रित है। शभ स्वप्नों को अकित किया गया है, जिसका अंकन पांचवे स्वप्न माला के चित्रण के पश्चात् एकबतके मध्य मानसमस्त जैन मदिरों के प्रवेश द्वार पर देखा उत्कीर्ण अश्व छठे स्वप्न चन्द्रमा का अकन है। सातव जा सकता है। यहां यह स्पष्ट कर देना अप्रासंगिक न स्वप्न में, द्विभुज सूर्य को एक वत्त के मध्य में मकई प्रवेश दारों, जो नवीन मदिरों के निर्माण में उत्कुटिकासन मुद्रा में दोनो भूजाओं सनाल कमल धारण प्रयत और कई डोर लिटेल्स जो संग्रहालयों में किये उत्कीर्ण किया गया है। दवा स्वप्न मम् Tarat स्थित है व नवीन मन्दिरो में प्रयुक्त हुए है। दो कलश, १०वां दिव्य झील और ११वां समुद्र है, जिसमें खजुराहो में कई जैन मदिरों के अस्तित्व को प्रमा कूर्म, मत्स्य प्रादि जल के जानवर दिखाए गए है। दो णित करते है, जिनकी संख्या किसी भी प्रकार २० छोरों पर दो सिंहों द्वारा धारित और मध्य में धर्मचक्र से कम नहीं थी। साथ ही श्वेतांबर परपरा में प्रच. युक्त सिंहासन १२वां स्वप्न है। १३वें स्वप्न विमान में लिन १४ स्वप्नों के विपरीत दिगबर परपरा क १६ प्रासीन द्विभुज प्राकृति की भजायों में प्रभय मुद्रा (दाहिनी) स्वप्नों का चित्रण खजुराहो के जैन शिल्प के दिगंबर मोर कमण्डलु (बायी) चित्रित है । १४वा स्वप्न नागेन्द्र । संप्रदाय से सम्बन्धित रहे होने का अकाट्य प्रमाण है। भवन है, जिसमें सर्पफणों के घटाटोपों से आच्छादित स्वप्नों के चित्रण के पूर्व बायी ओर तीर्थंकर की माता द्विभज नाग-नागी की प्राकृतिया अंकित है। दोनों की को शय्या पर लेटे और सेवक प्राकृतियों से वेष्टित दाहिनी भुजामों मे अभय मुद्रा और वायीं में कमण्डलु चित्रित किया गया है, जिसके बाद एक पुरुष और स्त्री चित्रित है। १५वा स्वप्न धनराशि एक ढेर के रूप में को वार्तालाप करते हुए उत्कीर्ण किया गया है, जो सभवतः उत्कीर्ण है। अन्तिम स्वप्न धूम्र बिहीन अग्नि के प्रकम में किसी साधू से तीर्थकर की माता द्वारा स्वप्नो के फल पूछे अग्नि शिखामों भामण्डल से युक्त द्विभुज अग्नि की १. महापुराण (पादिनाथ), सर्ग १२, Vv; हरिवंश- तुन्दीली श्मश्रुयुक्त प्राकृति की मजामों मे प्रभय मदा पुराण, सर्ग ८, श्लोक ५८-७४ । और सुक (?) प्रदर्शित है। प्रात्म-विश्वास धरती में अनाज बोते समय किसान को कुछ प्रात्म-विश्वास की आवश्यकता प्राप्त होती है। वह सुन्दर मूल्यवान भविष्य पर भरोसा जो करता है । तब क्या धर्म का प्राचरण करने के लिए मानव को प्रात्म-विश्वास को आवश्यकता नहीं होती ? आत्म-विश्वास के विना उसका धर्माचरण भी ठीक नहीं हो पाता । प्रात्म-विश्वास या आत्मनिष्ठा ही मानव को सर्वत्र प्रतिष्ठा दिलाती, और आदर्श की ओर ले जातो है। और वही उसके धर्म में साधक बनती है। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव का उद्दश्य एवं दृष्टि श्री रिषभदास रांका तीर्थङ्कर भगवान श्री महावीर ने प्राणीमात्र को व्यक्ति अपने विचार, इच्छा और शक्ति के अनुमार उसकी प्रात्मा की अनन्त शक्ति का बांध कराते हुये उत्साहपुर्वक सुझाव प्रस्तुत कर रहे है और इन सुझावो विषय-वासनामों एवं विकारो से मुक्त बनकर पवित्र को क्रियान्विति के लिये प्रयत्नशील भी है। जीवन की महान् प्रेरणा दी। उन्होंने जगत को कल्याण- मुख्य प्रश्न यही है कि भगवान महावीर और जनकारी स्वावलबन एव पुरुषार्थ का उद्बोधन देते हुए जीने धर्म के इस प्रसंग पर अधिकाधिक प्रभावना हो । प्रभावना की वह कला सिखाई जिसके द्वारा सामान्य मात्मा भी का हमारे यहाँ जो प्रचलित रूप है वह सब जानते ही है क्रमशः अपना विकास कर परमात्मा बन सकता है। प्राचार्यों के पदार्पण अथवा धार्मिक उत्सवों पर प्रभावना अहिंसा, अनेकान्त, सयम और त्याग की जो दृष्टि जगत की दृष्टि से हम स्वागत समारोह, भव्य जलश, भाषण, को महावीर ने दी है वह अढाई हजार बरसों के बाद सह-धार्मिक-भोजन कराना अथवा नारियल, मिठाई, वर्तमान युग की अनेकानेक समस्यामों को सुलझाने में बताशे या अन्य सामग्री बांटकर हम प्रभावना करते है। पूर्ण सहायक बन सकती है। महावीर का उपदेश देश, हम यह नहीं कहना चाहते कि ये कार्य प्रभावना की दृष्टि काल अथवा जाति-सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं था। से उचित नहीं है। हमारा सकेत यही है कि क्या केवल उनकी दृष्टि विशाल थी। इतना मात्र करना ही तीर्थङ्कर भगवान महावीर बि ऐसे महान तीर्थङ्कर की २५वी निर्वाण शताब्दी के जनधर्म की प्रभावना जैसी हानी चाहिए वैसी सम्भव है ? अवसर पर सारे संसार में उनके अमर उपदेशों एवं यदि नही तो इनके अतिरिक्त अन्य कौन से माग या जीवन-साधना की स्मृति श्रद्धा, कृतज्ञता एव भक्तिभाव कार्य है जिनसे अधिक प्रभावना हो सकती है-सच्ची से होनी ही चाहिए और उसमे भी उनके भक्त जनों द्वारा प्रभावना की जा सकती है। इस अवसर पर उत्साह, जागृति एवं उल्लास होना स्वा- हमारी नम्र राय में किसी महापुरुष क प्रति अपनी भाविक है। जैन समाज मे इस महान उपलक्ष के लिए सच्ची भक्ति एव थद्वा व्यक्त करने तथा उनकी स्मृति अनेक योजनाएं, कार्यक्रम और चिन्तन चल रहा है। को अधिक तीव्र एवं ताजा बनाने के लिये दो मुख्य मार्ग करोडों रूपयों की धनराशि एकत्र की जा रही है जिसमे हो सकते है-एक मार्ग है, उनके उपदेशो का बाह्य महोत्सव सारे संसार मे धूमधाम से मनाया जाय और साधनों द्वारा प्रचार और दूसरा मार्ग है तत्वों को जीवन भगवान महावीर तथा जैन धर्म की प्रभावना बढ़े। इसके में उतार कर जीवन एवं व्यवहार उदाहरण से प्रचार लिये जैन पत्र-पत्रिकाओं, सम्मेलनों एव सभाओं मे करना । सुझावों, विचारों एव योजनाओं की बाढ़ पा रही है। प्रचारात्मक साधनों का अपना विशेष महत्व है किन्तु सभाएं, जलूश, स्वागत-समारोह, भाषणमालाएं फिल्म- केवल प्रचार स्थायी नहीं होता उसकी नींव रचनात्मक निर्माण, संस्थानों की स्थापना, मन्दिर निर्माण, साहित्य आधार पर होनी आवश्यक होती है। हम भगवान महाप्रकाशन, विश्वविद्यालय, शोध-संस्थान, स्मारक, डाक- वीर के जीवन एवं सिद्धान्तों की सभाओं, व्याख्यानों, टिकिट आदि एवं डांडिया-नृत्य प्रायोजित करने तक के संस्थाओं अथवा अन्य साधनों से चाहे जित्नी व्याख्य विविध सुझाव पा रहे है। इसमे सन्देह नहीं कि प्रत्येक क्यों न करे वह हमारे लिये तब तक अधरी है जब तक Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थङ्कर भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव का उद्देश्य एवं दृष्टि २२३ हम स्वयं अपने जीवन मे उन सिद्धान्तों को उतारने की दिशा में प्रयत्नशील न हो । यदि हमारे जीवन श्रीर प्राचार-व्यवहार मे महावीर के सिद्धान्त मूर्तरूप लेते है तो वह हजारों भाषण एवं सेमिनारों से ज्यादा प्रभाव शाली प्रचार होता है । दुनिया के सभी महापुरुषों के अनुयायियों अथवा भक्तो ने अपने प्राराध्य की पूजा और प्रचार को ही भक्ति मान लिया है; क्योकि यह मार्ग सरल और सस्ता है। लेकिन होना इसके विपरीत चाहिये था। भक्त की भक्ति तो श्राराध्य के बताए मार्ग पर चलने मे है न कि उनके बताये मार्ग से उलटा चलते हुए केवल उनके सिद्धान्तो के गीत गाने मे। इसमें संदेह नही कि त्याग सयम और साधना का मार्ग उच्च एवं कठिन है जिसे अपनाने की भूमिका सभी प्राणियों की एक जंसो नही होती, अपनी अपनी शक्ति श्रोर स्थिति की मजबूरिया है। लेकिन जिसको जितनी योग्यता एवं शक्ति हो उतना प्रयास तो इस दिशा में करते हुए सागे बढ़ना ही चाहिए ऐसे भी प्रसग और उदाहरण सामने प्रति है जब त्याग धर्म का उपदेश देने के पहले उसकी भौतिक आवश्यकता की पूर्ति पर ध्यान देना होता है | भगवान बुद्ध ने अपने सामने मूर्ख लोगो को उपदेश के लिए लाए जाने पर अपने शिष्यों को कहा था कि इन्हें भोजन दो फिर उपदेश । इस दृष्टि को ध्यान मे न रखा जाय तो धर्म सार्वभौम नही बन सकता । हम अन्य धर्मों से जैनधर्म एव उसके तीर्थंकरो को महान् सिद्ध करते है । तत्त्वों की गहराई एवं उच्चता धन्य दर्शन से अधिक बताते है। यह सही है लेकिन संसार के सामने प्रत्यक्ष रूप मे इसे सिद्ध करने मे हम अब तक सफल नही हुए । संसार मे अहिंसा और प्रेम के उदाहरणो मे बुद्ध, ईसा और गांधी का नाम ही बार-बार श्राता है इस गहराई से चिन्तन कर हमे पुनर्विचार करना एवं प्रावश्यक सुधार करना आवश्यक है । बौद्ध धर्म मे तत्वों घौर सिद्धान्तों के प्रचार के साथ साथ सेवा को स्थान दिया। उदारतावादी दृष्टिकोण अपनाया जिसके फलस्वरूप अनेक देश बौद्ध धर्मावलम्बी बने । यद्यपि उन देशो में एक ही बौद्ध धर्म के कुछ भिन्न-भिन्न रूप देखने को मिलते हैं लेकिन मूल उपदेश एव सिद्धान्तों में अन्तर नही । जो थोड़ी भिन्नता है वह स्थानीय वातावरण, स्थिति एवं सुविधा असुविधा के साथ बौद्ध धर्म का एकात्मक होना ही है। यदि ऐसी उदारता या सुविधा नही होती तो भारत का बौद्ध धर्म जापान चीन तिब्बत वर्मा, मलाया यादि क्यों और कैसे अपनाते ? धर्म किसी देश विशेष का होना भी तो नहीं है। ईसाइयों के प्रचार की हम भले ही कितनी भातोचना करे किन्तु उनकी सेवा की विशेषता को नकार नहीं सकते । घनघोर, जालों, प्रादिवासियों, कोढ़ियों, दुःखियों एवं दीनो मे अपना सारा जीवन समर्पित कर देने वाले पादरी वहाँ शिक्षा एव सेवा के साथ ईसा के तत्त्वों का प्रचार करते है, वह प्रचार स्थायी बनता है। ईसाई मिशनरियों की शिक्षा संस्थानों का स्तर भी ऊचा और अच्छा रहता है। कि वहा जैन समाज के कट्टर व्यक्ति भी अपने बच्चों को पढ़ने भेजने मे गौरव अनुभव करते है । हमारे कथन का श्राशय यही है कि ईसा की करुणा का शब्दो से उतना प्रचार नही हो पाता जितना सवा द्वारा पादरियो के जीवनव्यवहार से हो रहा है। भगवान महावीर की २५वी निर्वाण शताब्दी के महोत्सव को हम प्रारम-निरीक्षण एवं प्रात्मचितन का अवसर मानते है । हमे चिन्तन करना है कि जैन धर्म को क्या हमें कुछ लाख लोगो तक ही सीमित रखना है अथवा उसे जन धर्म के रूप में व्यापक, जगतारक धर्म बनाना है । भगवान महावीर विश्व-उद्धारक, विश्व कल्याणकारी तथा उनके धर्म, उनके उपदेश को विश्वधर्म बनाने की क्या योजना है? क्या इसके लिए कुछ विशिष्ट धार्मिक ग्रावारो का पालन, भक्ति, उपासना, पूजा, तपस्या अथवा व्यक्तिगत साधना ही पर्याप्त है या इससे धागे बढ़ने की भी जरूरत है । हमारी विनम्र राय में तीर्थंकर भगवान महावीर के कल्याणकारी तस्वी एवं उपदेशों का सम्यक प्रचार, अपने जीवन के प्राचार एवं जनसेवा द्वारा ही करना अधिक उपयोगी लगता है। २५वी निर्वाण शताब्दी महोत्सव की विभिन्न योजनाम्रों मोर कार्यक्रमों की नींव में ये दो मूल चोर मुख्य लक्ष्य होने चाहिए। हमारा प्राचार सच्चे जैन Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म के संबंध में भ्रांतियां एवं उनके निराकरण का मार्ग श्री वंशीधर शास्त्री एम. ए. विश्व भर मे दर्शन, इतिहास एव धर्म के सम्बन्ध मे को पढ़ा और उसी के आधार पर वे लिखते रहे हैं । प्रकाशन होते रहते है। । विश्व की विभिन्न भाषाम्रो मे इस प्रसगमे मैं पाठकों का ध्यान श्री अरनेस्ट एडवर्ड जैनधर्म, जैनदर्शन एव जैन इतिहास के सम्बन्ध में क्या कोलट द्वारा लिखित 'ए शार्ट हिस्टरी पाव रिलीजन्स' मे लिखा जाता है जैन लोग बहुत कम जानते हैं । जो जानते जैन धर्म सम्बन्धी विवरण की ओर आकर्षित करना चाहत्ता हैं वे उसे प्रकाश में नहीं लाते। इसमें कोई संदेह नही है कि जैन धर्म का समस्त यह पुस्तक विश्व भर के प्रमुख धमों का इतिहास घों में एक स्वतत्र एवं महत्वपूर्ण स्थान है किन्तु उसका प्रस्तुत करती है एव प्रामाणिक समझी जाती है। एक पूर्ण तथा सही विवरण पाठकों तक नहीं पहुँचता है। मैं समालोचक ने लिखा है यह पुस्तक प्रत्येक विचारशील समझता है कि इसका उत्तरदायित्व उन प्रकाशनों से व्यक्ति, भले ही वह प्रास्तिक हो या नास्तिक के लिए सम्बन्धित व्यक्तियो के अतिरिक्त जैन विद्वानों, प्रकाशकों एव समाज पर अधिक है जो जैन वाङ्मय को पूर्ण रूप से इस पुस्तक मे ५७३ पृष्ठ है। सुदूरपूर्व के धर्मों प्रकाश में नहीं ला सके है और विश्व के कोने-कोने में नही संबन्धी अध्याय ६४ पृष्ठो में लिखा गया है-जिनमे पहुँचा सके है। इस दिशा मे दिगम्बर जैन समाज का हिन्दू धर्म पर २० पृष्ठ, जैन धर्म पर १ पृष्ठ, बौद्ध धर्म प्रयास तो बहुत ही प्रा रहा है । बैरिस्टर चम्पत राय जी पर २६ पृष्ठ एवं शेष पृष्ठ कान्फ्यूसियज्म, लामोइज्म एव जैसे कुछ ही विद्वानो ने जैन सिद्धान्तों आदि की जान- थियोसोफी पर है। इस पृष्ठ राशि से स्पष्ट हो जाता है कारी पश्चिम वालो को दी है। अन्य देश वालो ने कि जैन धर्म का कितना सक्षिप्त विवरण दिया गया है। अजैनो द्वारा लिखित अपूर्ण एव कही-कहीं भ्रामक सामग्री अन्य धर्मों के परिचय में उनके प्रवर्तको एवं सिद्धान्तो का का प्राचार हो और जनसेवा के कार्यों द्वारा हम महावीर व्यक्ति, गुरु, प्राचार्य अथवा सम्प्रदायो के नामो पर को वाणी का प्रचार करे। चलती है। हमारा लक्ष्य रहे कि निर्वाण महोत्सव तक सेवा कार्य की योजना की दृष्टि के साथ-साथ साहित्य- अब जो भी नई सस्था जैन समाज द्वारा बने, उसमें निर्माण, सेमिनार, व्याख्यान, कला, प्रदर्शनी, प्रायोजन, भगवान महावीर का ही नाम रहे। जुलूश प्रादि के कार्य-क्रम हो तो दोनों पक्ष सबल हो जाते हमारा हमने इन पंक्तियों द्वारा केवल चिन्तकों का है । हमें तो यह ध्यान में रखना ही है कि उत्साह के ध्यान आकृष्ट किया है कि इस महान अवसर के पीछे मावेश में हम इस प्रसंग पर जैसा-तेसा कुछ भी कार्य उददेश्य एवं दृष्टि क्या हो ? यह तो समाज के मनीषियों, करने में अर्थ और शक्ति बर्बाद, न करे क्योकि जो कुछ चिन्तकों एवं नेतामों का कार्य है कि इस प्रोर सही दिशा भी किया जाय वह महावीर की गरिमा के अनुकूल होना दर्शन करें। प्राशा है कि २५वी निर्वाण शताब्दि का चाहिए। महोत्सव मनाते समय प्रात्मचिन्तन पूरक यह दृष्टि रहेगी जैन समाज द्वारा आज भी उनकी संख्या के अनुपात कि स्वयं के जीवन में जैनत्व का विकास किया जाय। मे सेवाके अनेक कार्य होते है किन्तु उसके पीछे योजना और एवं सेवा द्वारा उसका संसार में प्रचार करने की योजव्यापक दृष्टि का प्रभाव रहता है। अधिकाश सेवा संस्थाएं नाएं प्रारम्भ की जांय । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनधर्म के सम्बन्ध में भ्रांतियां एवं उनके निराकरण का मार्ग २२५ विस्तृत विवरण दिया गया है। एक विश्व साहित्य मे जैन धर्म को यथोचित स्थान मिले । ___ इस विवरण का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- इस सम्बन्ध में विद्वत् परिषद या संघ जैसी संस्थानों जैन धर्म हिन्दू धर्मों में से एक बहुत ही दिलचस्प एव बहु को पागे प्राकर योजनाबद्ध कार्य करना चाहिए। इस प्रचलित धर्म है फिर भी इसका सक्षिप्त विवरण हो योजना की रूप रेखा इस प्रकार हो सकती हैपर्याप्त है। ये भी सिक्खों की तरह, ब्राह्मणों द्वारा नास्तिक १ भारतीय एव अन्य भाषामों की उन पुस्तकों की माने जाते हैं किन्तु वे संभवतः सही रूप में स्वतंत्र माने सूची बनाई जावे जिनमें जैन धर्म, दर्शन, इतिहास, जाते हैं । यद्यपि इनके धर्म (जैन धर्म) का मूल ब्राह्मण कला, पुरातत्त्व प्रादि का विवरण है। धर्म में है। ईसा से लगभग ५ शताब्दी पूर्व हुए वर्धमान २. प्रारंभ मे हिन्दी एवं अग्रेजी की उक्त पुस्तकों का द्वारा संस्थापित यह धर्म वेदों की मान्यता अस्वीकार संकलन करवाया जाय। यथा सभव अन्य भाषाओं की करता है, पुनर्जन्म के सिद्धान्त को इस प्रकार परिवर्तित । प्रमुख पुस्तकों के संकलन का भी प्रयास रहना चाहिए। करता है कि साधु जीवन मृत्यु के बाद अमरत्व प्रदान करता है, समस्त ब्राह्मण देवी देवताओं को हटाता है, ३. इन पुस्तकों में प्रागत जैन विषयों से संबन्धित जाति भेद को अमान्य करता है। उनके पागम ग्रंथ इन। सामग्री सकलित कर अलग से साइक्लोस्टाइल करवा कर सिद्धान्तों का स्वतत्रता पूर्वक उल्लेख करते हैं । उनके विभिन्न विद्वानों को भेजी जावे । चौबीस अमर साधु अधिकतः ईश्वर का स्थान ग्रहण किए ४. जैन विषयों से सम्बन्धित संकलित सामग्री निम्न हुए हैं । कुछ वस्तुतः यह मानते है कि जैन धर्म व्यवहारतः प्रकार की होगीएकेश्वरवादी हैं, किन्तु पूर्वी धर्मों में जैसा प्रायः होता है, (क) सही विवरण हो और पर्याप्त भी हो। शास्त्रों की भाषा इस मत पर अस्पष्ट है । (ख) सही हो किन्तु अपर्याप्त हो। अनेक विषयों में वर्धमान अपने समकालीन युद्ध से (ग) सही न हो और पर्याप्त भी न हो। मिलते है । बुद्ध की तरह उन्होने ब्राह्मण धर्म का साथ ५. इन पर अधिकारी विद्वान अपने मत प्रस्तुत करें छोड़ा, और उन्हीं की तरह से जीवन की पवित्रता को और उनको इस प्रकार उपयोग किया जावे। मान्यता दी, यहां तक कि कीडे भी न मारे जाने चाहिए, (प्रा) यदि लेखक जीवित न हो तो प्रकाशक को सुधार पौधे भी मनुष्य जाति के भाई की तरह माने जाने चाहिए। करने की प्रेरणा दी जावे । वे शायद पुस्तक में परिवर्तन किन्तु कई विषयो मे स्पष्ट भेद भी है। विशेषतः साधुनों न कर सके किन्तु उन्हें उस मत को नवसस्काण मे उल्लेख के अन्तिम साध्य स्थान-निर्वाण-के सम्बन्ध मे।" कराने की प्रेरणा दी जावे। उक्त विवरण में क्या भूले है या कितनी अपूर्णता है (इ) दोनो ही स्थितियों में उक्त अभिमतों को पत्र-पत्रि. उसे साधारण पाठक भी प्रासानी से जान सकता है । मैं कानों में या स्वतंत्र रूप से प्रकाशित कराते रहना चाहिए। समाज के विद्वानों विशेषतः शोघरत तथा पी. एच. डी. पाशा है विद्वान इस ओर ध्यान देगे। इस कार्य मे वे भाई उपाधि विभूषित विद्वानो से अनुरोध करता हूँ कि वे इन भी सहयोग दे सकते है जो अध्ययनशील हैं वे विभिन्न विषयों पर विदेशी पत्र-पत्रिकामों में लेख भेजें जिनमें पुस्तको या पत्र-पत्रिकामों में प्रागत जैन सम्बन्धी उल्लेखों जैन धर्म, इतिहास, दर्शन, कला प्रादि सम्बन्धी पूर्ण का संकलन करते रहें और उन्हें छपा दें ताकि अन्य विवेचन किया जावे ताकि तत्सम्बन्धी भ्रांतियाँ दूर हों विद्वान उन पर अपनी राय लिखें। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्म जिनदास एक अध्ययन परमानन्द जैन शास्त्री ब्रह्म जिनदास मूलसंघ सरस्वती गच्छ के विद्वान की थी। ब्रह्म जिनदास के जीवन का अधिकांश समय भट्टारक सकलकीति के कनिष्ठ (लघु) भ्राता भौर शिष्य पठन पाठन प्रौर प्रात्म-साधना के साथ साहित्य सृजन में थे। जैसा कि जंबू स्वामी चरित पोर हरिवंश पुराण को व्यतीत होता था। मालूम होता है सरस्वती का वरद प्रशस्तियों के निम्न पद्यो से स्पष्ट है हस्त इनके ऊपर था। इसी से वे विविध प्रकार के साहित्य भातास्ति तस्य प्रथितः पृथिव्यां का निर्माण कर सके। उन्होंने विभिन्न स्थानों से भ्रमण सद् ब्रह्मचारी जिनदास नामा। कर जनता को केवल सम्बोवित ही नही किया था, किन्तु तनोति तेन चरितं पवित्र उन्हे धर्मयोग में भी स्थिर किया । जैन सिद्धान्त के सूक्ष्म जम्बूदि नामा मुनि सत्तमस्य ॥२८ तत्त्वो के रहस्य का परिचय पाने की ओर उनका उतना सब्रह्मचारी गुरु पूर्वकोस्य, ध्यान नही था, जितना ध्यान काव्य, चरित, पुराण, कथा, भ्राता गुणज्ञोस्ति विश्वचित्तः । भक्ति, पूजा और रासो साहित्य रचना की ओर था। जिनेश भक्तो जिनदास नामा, पाप के बनाये हुए अनेक पद प्रचलित हैं । मैने ब्रह्मचारी कामारिजेता विदितो धरित्र्याम ॥२॥ जिनदास के गुजराती मे छपे हुए अनेक पद देखे थे, पर मैं उस समय उनको नोट नहीं कर सका । विनतियां, स्तुति, इनके माता-पिता पाटन के निवासी और हमड़ वंशी सिा पार हूमड़ वशा और पूजाएं भी उपलब्ध है । इससे उनके भक्ति रस में थे। इनकी माता का नाम शोभा और पिता का नाम विभोर होने का अनुमान लगाया जा सकता है। कर्णसिंह था। इनके पिता समृद्ध थे भोगोपभोग की सभी ब्रह्म जिनदास प्रतिष्ठाचार्य भी थे इन्होने अपने गुरु सम्पदा इन्हें सुलभ थी, फिर इन्हे सांसारिक भोग-विलास भ्राना सकलकीति के समान जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा की पोर धन-धान्य सम्पदा साधु जीवन के रोकने में समर्थन है। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों का अन्वेषण अभी नहीं हो सके । क्योंकि अन्तर में वैराग्य को जागृति जो थी। किया गया किया गया है। अन्वेषण करने पर अनेक मति लेख उपउन्होंने उन सबका परित्याग कर अपने भाई का अनुसरण लब्ध हो सकते है । गंजबासौदा के बढेपुरा के जैन मन्दिर किया। मे ब्रह्म जिनदास के उपदेश से प्रतिष्ठित सं० १५१६ की ब्रह्म जिनदास प्राकृत-संस्कृत, गुजराती और राजस्थानी भाषा और हिन्दी से परिचित थे । बाल ब्रह्मचारी १. “तिहि अवसरे गुरु प्राविया बडाली नगर मझार रे । चातुर्मास तिहां करो शोभतोश्रावक कीघा हर्ष अपार रे। थे। इसी से उन्होने अपने को, कामारि जेता' विशेषण के प्रमीझरा पधरावियां वधाई गावे नरनार रे । साथ उल्लेखित किया है । इनका समस्त जीवन अध्ययन पौर ग्रंथ रचना में व्यतीत हुआ है । इन्होंने विविध स्थानों सकल संघ मिल वंदियां पाम्या जय जयकार रे । मे विहार कर जनता को जैनधर्म में स्थिर किया है। संवत चौदह सौ इक्यासी भला, श्रावणमास लसंत रे। सवत् १४८१ में बडाली नगर के चातुर्मास मे पूर्णिमा दिवसे कर्या मुलाचार महंत रे । 'प्रमीझरा' के पाश्वनाथ मन्दिर में भट्टारक सकलकीति x ने ब्रह्म जिनदास के अनुग्रह से, मूलाचार प्रदीप' की रचना भ्राता ना अनुग्रह थकी कीधा ग्रंथ महान रे । X Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बम मिलवात एकमध्ययन मति प्राप्त है, जैसा कि उसके निम्न मति लेख से स्पष्ट २५ पन्यकुमार रास २६पादत्तप्रवन्ध रास २७ पुष्पांजलि रास २८ धनपाल रास (दान कबा राय) ____ "सं० १५१६ माघसुदी ५ श्री मूलसंधे भ. सकल ३० जीवन्धर रास कीर्तिदेवः तच्छिष्य ब. श्री जिनदामम्य उपदेशात् ब. २६ भविष्यदत्त रास मल्लिदास जोगडा पोरवाड साह नाऊ भार्या नेई भ्राता ३१ नेमीश्वर रास ३२ करकह मुनि रास घणा भार्या हर्षी नित्यं प्रणमति ।" ३३ सुभोमचक्रवर्ती रास ३४ मठावीस मूलगुण राम -गंजबासौदा मूर्ति लेख बढेपुरा मन्दिर ३५ जयकुमार रास ३६ मड़कनो रास प्रापके अनेक शिष्य थे, ब्रह्म जिनदास ने अपनी रच- ३७ सुकमाल स्वामी रास २८ निर्दोष सप्तमी रास नामों में अपने ४-५ शिष्यों का उल्लेख तो किया है पर ३६ पुरंदर विधान रास ४० लब्धिविधान रास अन्य शिष्यों का उल्लेख अन्वेषणीय है। ४१ आकाश पंचमी रास ४२ मालिन कया रास अन्य रचना ४३ जिनेन्द्रभक्ति रास ४४ वारिषेण रास आपकी रचनामो को देखने से पता चलता है कि ४५ गुणस्थान रास ४६ पंचपरमेष्ठी रास प्रापके जीवन का अधिकांश भाग उनकी रचनामों में ४७ मौनव्रत रास ४८ विष्णुकुमार कथा रास बोता है । अापकी उपलब्ध रचनाएं दो भागों में विभक्त ४६ सुगधदशमी कथा रास ५० गुणपाल श्रेष्ठिनो रास की जा सकती है। पुराण चरित कथा और पूजन तथा ५१ पठाई व्रत रास १२ मउड सप्तमी रास रासा साहित्य हैं। उनकी संख्या ७० से अधिक है। उनकी ५३ जोगी रास १४ चन्दन षष्ठी रास सूची निम्न प्रकार है ५५ निर्दोष सप्तमी रास ५६ सम्यक्त्व अष्ट अंग रास १ जंबू स्वामि चरित २ पद्मपुराण ५७ श्रुतस्कंध रास १८ जीवदयारास ३ हरिवंशपुराण ४ पुष्पाञ्जलि व्रत कथा ५६ हरिवंश रास ६० आदिपुराण राम ५जबूद्वीप पूजा ६ सार्घद्वयद्वीपपूजा इन सब रास रचनामों का परिचय देना इष्ट नही है। ७ सप्तर्षि पूजा ८ ज्येष्ठ जिनवर पूजा इन रासामों में से दो रासो मे रचना काल उपलब्ध है। ६ सोलह कारण पूजा १० गुरु पूजा कवि ने रामरास' सं० १५०८ में, और हरिवंश रासकी ११ अनन्तव्रत पूजा १२ जलयात्रा विधि रचना स. १५२० में की थी। शेष रासो मे रचना काल राजस्थानी रासा साहित्य : नही है। इन रासो की भाषा राजस्थानी और गुजराती १ रामसीतारास (रामा.रास) २ यशोधर रास मिश्रित है। 'प्रणमीने', रूवडो, तणो, हवू, सोहामणु, धर्मनी, ३ हनुवंत रास ४ नागकुमार रास पामीइ, लीधु, सांभले, प्राव्य, वघावणा, चग, कोषू, मी, ५ परमहंम रास ६ अजितनाथ रास दीठिउ प्रादि शब्द गुजराती भाषा के है जो रासक कृतियों ७ होली रास ८ धर्मपरीक्षा रास में उपलब्ध होते है। चूंकि ब्रह्म जिनदास गुजरात प्रदेश ६ ज्येष्ठ जिनवर रास १० श्रेणिक रास के निवासी थे पोर सागवाड़ा आदि राजस्थान के प्रदेशों ११ समकितमिथ्यात्व रास १२ सुदर्शन रास मे रहे है । प्रतएव तत्सम्बन्धी भाषा शब्दों का पाया १३ अंबिका गस १४ रात्रिभोजनवर्जनरास जाना स्वाभाविक है । कथा रास और चरित्रादि रासों के १५ श्रीपाल रास १६ जंबूस्वामी रास २७ भद्रबाहुरास १८ कर्मनिष्ठाक रास १ संवतपन्नर पठोतरा मगसिर मास विशाल । १६ सुकौशलस्वामी रास २० रोहिणी व्रत रास शुकल पक्ष चउदिसिदिनी, रास कियो गुणमाल ।। २१ सोलहकारणवत रास २२ दशलक्षणव्रत रास २ संवत पद्रह वीसोत्तरा विशाखा नक्षत्र विशाल । २३ मनन्तव्रत रास २४ बंकचूल रास शुकल पक्ष चौदसि दिना रास कियो गुणमाल ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८, वर्ष २४, कि०५ प्रनेकान्त अतिरिक्त अनेक व्रत सम्बन्धी रासको की भी ब्रह्म जिनदास विवेक की प्रेरणा से वृक्ष की छाया मे विश्राम करती है। ने रचना की है। जिनमे व्रत का स्वरूप, पालन की विधि वहां "विमल बोध' कुलपति से निवृत्ति विचक के सुख पोरल का वर्णन समाविष्ट है । जैसे-लब्धि विधान प्रादि के सम्बन्ध में पूछती है। विमल बोघ विवेक के रास अठाई व्रत गस, रोहिणी व्रतरास. मोनव्रतरास, अादि। लक्षणों को देखकर प्रसन्न हो जाता है और अपनी सुमति रासक की रचना मरल है । कवि के रासों मे नाम की पुत्री से उसका विवाह कर देता है। और अरहत .. .गस भी है। जिसका नाम 'परमहस के अतिशयो का वर्णन अपनी कार्य सिद्धि का सचक जान रूपक रास' है । इस रास में मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति मत नाम की दो स्त्रियों से दो पुत्र उत्पन्न होते है, मोह और निवृत्ति भी कुलपति के वचनानुसार पुत्र वधू के साथ विवेक प्रवृत्ति ने मन को वश में कर अपनी सौत निवृत्ति उस नगरी में निवास करती हुई विवेक को अर्हन्त की भोर उसके पुत्र विवेक को विदेश मे भिजवा दिया। मन, आराधना के लिए प्रेरित करती है। विवेक माता की प्रवृत्ति और माया इन तीनों ने मिलकर त्रिपुरी राजा को प्राज्ञा मान प्रभु-सेवा म लग जाता है, अवसर आने पर बन्धन मे डालकर अपनी प्रान्तरिक इच्छा की पूर्ति करते माता मोहराय के द्रोह का वर्णन करती है। मोहराय के है। इस समय राजा अपनी चेतना रानी की शिक्षाओं का भय से भयभीत जगत को मुक्त कराने के लिए विवेक को स्मरण कर रोने लगता है । और अपनी करुण दशा का प्राज्ञा प्रदान करती है। विवेक अपना कार्य बही चतुराई यथार्थ दिग्दर्शन कर चेतना से उसकी सम्हाल करने के से सम्पन्न करता है, अपने सैन्य बल तथा शक्ति को सम्हाल लिए प्रेरित करता है, किन्तु चेतना अब तुमको माया मिल करता है। विवेक राज्य का स्वामी होता है । विवेक की गई है, मेरा अब क्या काम है, मन मन्त्री का राज्य है, प्राज्ञा चलने पर अज्ञानी पाखंडी के प्राण खडित हो जाते जिस तरह वह तुम्हे विवश करे, वह सहन करो, कहती है। ज्ञान तलारक्ष को सावधान कर विवेक नगर में किसी हुई चुप हो जाती है। अपरिचित जन के प्रवेश को रोक देता है। निवृत्ति के चले जाने पर प्रवृत्ति मन को समझाकर मोह विवकको राज्यप्राप्ति से अत्यन्त क्षुभित होता है, अपने सपुत्र मोह को राज्य दिला देती है । मोह के राज्य और उसके कार्य-कलापो को तथा उसकी शक्ति का परिचय पाते ही लोक में सर्वत्र मोह की आज्ञा का प्रसार होता पाने के लिए दम, कहागम (कज़स) और पाखड दूतों को है। मोह राजा निर्लज्ज हृदय स्थान मे 'अविद्या' नामक भंजना है। दभ प्रान्तरिक भेष बदल कर विवेक नगर, नगर की स्थापना कर राज्य करने लगता है। उसकी दुर्मति परिवार, राज्य और शक्ति का समाचार मोह को देता है, नाम की रानी से काम, राग और द्वेष ये तीन पुत्र है। उसमे मोह का क्षोभ और भी अधिक बढ़ जाता है. वह पौर निद्रा प्रधति और मारी ये तीन पुत्रियां है। मिथ्या उसका विनास करने के लिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन दर्शन मंत्री, सप्तव्यसन सदस्य निर्गण संगति सभा, करना चाहता है। किन्तु मोह को सचिन्त्य देख काम मालस्य सेनापति, छद्म पुगेहित और कुकवि रसोइया कुमार युद्ध के लिए प्राज्ञा मांगता है और मोह उसे शिक्षा त्यादि मोह का वहद परिवार है । काम, क्रोध, अविवेक देकर युद्ध के लिए भेजता है । वह सर्वत्र विजय प्राप्त आदि अनेक सुभट उसके राज्य के सरक्षक है । माहराय करता हुअा ब्रह्मलोक मे ब्रह्मा, विष्णु और शकर (महेश) का राज्य हो जाने से निवृत्ति बिना विश्राम के प्रविरल को सावित्री, गोपियो और पार्वती द्वारा वश मे कर अन्य गति मे मागे बढ़ती जा रही है। मार्ग मे पश-बालिका ऋषियो प्रादि को भी स्त्रियों के प्राधीन करता हमा अत्यन्त करुणा जनक दृश्य देवती तथा अपनी असमर्थता सर्वत्र मोह की आज्ञा को पारोपित करता है। पर खेद प्रकट करती हुई चली जाती है। मार्ग में उसे इधर विवेक का सजमश्री के माथ विवाह सम्पन्न 'प्रवचनपूर' नाम का सुन्दर नगर मिलता है, वह उम हो जाता है, इससे काम कुमार का अत्यधिक ईर्ष्या उत्पन्न नगर के प्रात्मागम नामक वन की सुन्दरता देखकर और होती है, अतएव विवेक के माथ युद्ध के लिए तैयार होता Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश की एक अज्ञात जयमाला डा० देवेन्द्र कुमार शास्त्री साहित्य की विधि भक्ति मूलक प्रवृत्तियो म जयमाला की साहित्यिक विद्या निश्चय ही भावानुरंजन के साथ शिक्षा, इतिहास, संस्कृति और अर्चना-विधि की व्यावहारिक परम्परा की अभिव्यंजक है । जयमाला जहां विविध राग-रागनियों में पूजा-पाठ के मध्य मे गाई जाती रही है वही नृत्य-गान के साथ बहुवि हाथों-मायो मे जिनमूर्ति के समक्ष सस्वर स्वरो में मुखरित होती रही है । आज भी जैन मन्दिरों मे जिन-पूजा के मध्य मे जयमाला-पाठ करने की प्रथा प्रचलित है । जयमाला में सार है। दोनों का परस्पर युद्ध होता है। युद्ध मे दोनों श्रोर के योद्धा अपना-अपना पराक्रम दिखलाते है, सन्धि का भी उपक्रम किया जाता है परन्तु वह हो नहीं पाती । मोह के प्रबल सेनानियों का विवेक के पराक्रमी सुभटों के साथ भीषण युद्ध होता है । परन्तु एकाएक मोह की सेना मे भगदड मच जाती है। माह का निग्रह हो जाता है । उसके गिरते हो सब सामन्त निष्प्रभ हो जाते है। विवेक की कुशलता की प्रशमा होती है, और वह लोक मे शान्ति स्थापित करता है । इसी अवसर पर चेतना राग परमहंस राजा कहती है किस्वामी, माया ने जो किया, उसका धापने अनुभवन किया ही है । अब तक जो हुआ सो हुआ; किन्तु श्रागे को सावधान होना आवश्यक है। अब श्राप जिस अशुचि, मल संयुक्त दुर्गन्धित कायापुरी मे धनुरक्त हो रहे हैं, कामक्रोधादि १०८ चोरी वाली वस्ती में श्राप का रहना ठीक नही । आप स्वयं विचार करे और अपने घखड चैतन्य तेज धाम की और ध्यान दे। मोह राजा और मनमंत्री का विनाश हो चुका है। रानी के इस सुन्दर सुझाव का समादर करते हुए परम हम ने अपने चैतन्य स्वरूप की ओर ध्यान दिया । और योग्य श्रनुष्ठान द्वारा श्रात्मशक्ति को जागृत कर स्वात्मलब्धि को प्राप्त किया। इस तरह यह रूप में पूजा-अर्चना के मूल भावो को संक्षिप्त रूप में प्रकट किय जाता है। इनमें इतिहास, संस्कृति और परम्परा तक का गुणानुवाद किया जाता है। जयमाला कई रूपों में लिखी जाती रही है। प्रथम वे जयमालाएं है जो पुष्प जयमाला के नाम से प्रसिद्ध रही है, जिनमे जिनमूर्ति के कलशाभिषेकोत्सव के अनन्तर जयमाला की बोली लगती है और पुष्पमाला को जिनशासन की माला के प्रतीक के रूप मे ग्रहण कर भक्त श्रावक या श्राविका स्वीकार कर अपने उत्साह और उमंग को प्रकट कर स्वेच्छा से धनरूपक-काव्य स्व-पर-सम्बोधक है। ब्रह्म जिनदास के अन्य चरित रासको मे भी काव्य रस मिलता है। ये रासा प्रका शन के योग्य है । ब्रह्मजिनदास के शिष्य ब्रह्म जिनदास के अनेक शिष्य थे। उनमें छह का नामोल्लेख नीचे किया जाता है। अन्य शिष्यों के नामादिका उल्लेखनीय है। हरिवंश राम की प्रास्ति मे उन्होंने अपने तीन शिष्यों का उल्लेख किया है। मनोहर, मल्लि दास, और गुणदास और परम हंस रास मे 'नेमिदास' नाम के एक शिष्य का उल्लेख मिलता है। जिनदास ने अपने एक शिष्य शान्तिदास का भी उल्लेख किया है जिसने अपभ्रंश गुजराती और संस्कृत मिश्रित पूजा-पाठ विषयक ग्रंथों की रचना की है। जिनदास ने 'गुणकीति' नाम के धन्य शिष्य का भी उल्लेख किया है जो अच्छे विद्वान थे और जिन्होंने 'राम-सीता-राम' बनाया था। १. ब्रह्मजिनदास भणे रूबडो पढता पुण्य अपार । शिष्य मनोहर रूप मल्लिदास गुणदास || हरिवश रास २. ब्रहा जिनदास शिष्य निरमला नेमिदास सुविचार | -- परमहंस राम Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०, २४,कि.५ अनेकान्त राशि अपित करते हैं, जिसका सदुपयोग मिनमन्दिर के एकैदिय जोणिहिं परिभमीउ, वियलेंदिय बह दुक्खागमोड लिए किया जाता है। दूसरे जयमाला-पूजा के अन्त मे अलहंतउ पण नवकार ताnि : निजत की जाती है, जिसमे पर्चना के विषय का सार नारी एनरह भमाडियउ, पूण मोगरघाहि ताडीयउ । गभित रहता है। तीसरे जयमाला स्वप्न के रूप में किसी नवकार विविज्जिय तिरी ह उ. बहकायकिलेम नामि भी विषय का महात्म्य प्रतिपादन करने के लिए पूजा-पाठ मण्यत्त-णिरोय-सोयभारीउ, नवकार तहमि न समाचरीउ। के अन्त में सयुक्त रूप से निबद्ध की जाती है। प्रतएव मिच्छत्तसहिय देवत्त पत्त, जयमाला के रूप में भगवद्भक्ति करने की विधि साहित्यिक तित्य वि माणस-दुखेण तत। रूप में अपभ्रश, पुरानी हिन्दी और हिन्दी भाषा की रच- ___इय हिडिवि जिय तुहं च उगहि, नामों में विशेष रूप से परिलक्षित होती है। इससे यह सुह कहवि न लद्धउ भवसहि। भी पता चलता है कि यह मध्य युग की देन है और चउरासी लक्खई जोणि दुहुं, जइ वण्णउ धम्मउ जीव तहं। मोतिक इतिहास की एक परम्परा । यह केवल देश के पचहें परमिििह तणउ सुह, जिय माय जहि नवकार लह। किसी एक भू-भाग तक सीमित न रह कर पूजा के साथ जय मायहि विडं नवकार मणे,जे असुहकम्म विहह खणे। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर और पूर्व से लेकर पश्चिम ज पंचपयइ प्राराहियाई,तें बारह अंगडं साडिया। भाषा-भेद के साथ लगभग समान साहित्यिक विधा के नवकार बप्प नवकार माइ, नवकार खणि उवसम्ममा न मास्तिरों में प्रचलित हुई और तब से प्राज सुहसज्जणबंधवइमित्तु, नवकारें कोवि न होइ सत्त । तक प्रनवच्छिन्न प्रवर्तमान है। जयमाला-साहित्य का गह-रक्खस-भूय-पिसाय जेवि, नवकारमंति नासंति तेवि । सहसलिए भी अधिक है कि इनकी रचना प्रायः बोल- नवकार हलहरचक्कवइ, नवकार विषडाहियह । साल की भाषा में की गयी। क्योंकि जन सामान्य के नवकारफलें तित्ययरदेव. जम aufima लिए पूजा-साहित्य लिखा जाता रहा है। परन्तु इनमे लिखा जाता रहा है। परन्तु इनमें नवकार जि इदियबलखंडउ, भव-समदृ नवकार-तरंडउ । . साहित्यिकता का प्रभाव नहीं है । जन भाषा में लिखित नवकारजि सबल जंत सम्गि, नवकारसहिज्जउ मोक्खमग्गि। होने पर भी इनमें साहित्यक पुट बराबर दिया गया है। घता-इह नवकारह तणुं फल, जिय कायहि एक्क मणु । इस बात का निर्णय स्वय पाठक रचनामो को पढ़ कर दसणनाणसमुज्जलु, पुणु पामइ सिद्धितण ।। कर सकते हैं कि इनमें साहित्यिकता किस स्तर तक चविकणिसासणिदेवीयहं, कीय साहित्तु विचित्त । विषय के अनुरूप मार्मिकता से अभिव्यजित हो सकी है। पाराहिप्पणु मंति जिणु, किय नवकार कवित्तु । पश की एक ऐसी अज्ञात जयमाला विग्गंबर दस दरसहिन्छ, इच्छ म भेत्ति परिज्ज। किया जा रहा है जो कई दृष्टियों जिणसासणि भवियणहो, अविचल चित्त धरिज्ज । बाकी प्रतिलिपि मध्य प्रदेश के चंदप्पह जिणचंदप्पह, चंदकित्ति वंदेप्पिण चंदाणण । गटके से की गई है। इसमे रचना के पसरतिय सियतणु कंतिय, धवलय सयल दिसासण ॥१॥ लेखक का नाम श्री उदयकीर्ति मुनि कहा गया है । रचना णमो गयराय जगत्तयराय मसी और कहा उत्पन्न हुए थे, इस सम्बन्ध पयासिय णिम्मल केवलणाण, वियह षण सय देहपमाण । विवरण नहीं मिलता। रचना मे सुहासिय तोसिय पोसियभन्व, सुलक्खणनाह समम्भियगम्य । केसप्रसिद्ध परम नमस्कार-मन्त्र का माहात्म्य, मए जिय संकुलि जम्म-समहि, जरामरणभव मोरी । वर्णन है । जयमाला निम्नलिखित है दुरुत्तररुदुस्सह दुक्खतिरगि, कसायविहीसण वाडवग्गि । , भावे विमल सहा भतीए, सतिजिणेसरहो। प्रणतउ काल दुरंत विचित्त, निरंतर दक्ख परंपर पत्त । निसणिजउभवियउभवदुहखवीउ, पुणुमक्खमिनवकारफल। न कोई विकासु वि बंध न मित्त. नवकारविहूणउ जीव तुहं, भवि भवि संपत्त अणंत दुहुँ । न कोई विकासु वि सयण न सत्त। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवंश को एक मातमममाला न कोई विकासु वि देण समत्व, णागहिपास सयंभदेव, हज बंजस, गण गरिपड। न कोई वि हरेवइ होइ समत्था जो देव पतिट्रिय प्रासरम्मि, मणिसुग्वय बंद अंतरम्मि । मणस्स सुहासुह कम्म मएवि, मालवह सति व पवित्त वितसेणराय कढि ण इत्त । न सुक्ख वि दुक्ख वि ढोयइ कोवि। मंगलउरि बंब जगिपयास, अहिण वण प्राइसय गुणनिवास । महार उ बप्पु महारउ पत्त, महारउ वल्लहुं एह कलत्त। बाहुबलिवेउ पोयणपुरंमि, ४ वबउं जो मइ अंतरंपि । महारउ गेह महारउ वव्य, महारउ परियण एह जि सव्वु। हत्थिणउरि वंदउ सतिकंच, भणंतहो ढक्कई जाम कयंत, न कोइवि दीसइ रक्खकरत । पर तिणि वि वंदउ पय वि तित्यु, प्रणेण जिएण जयम्मि दुरत, मरंति ण उलिउ जम्म प्रणंत। वाणारसि पास सयभसत्य, बंदउ परिहरित दवगंध। भमंत्ति णहिडिय जोणिहि लक्ख, पावह लव अंकुस रामसूया, पचेवकोडि जहि सिबवा। भिडति ण मग्ग प्रणेय विवक्ख । सेसंनयसिहरि पट्ठवेव कोडि, पांडव सबवउ हत्थजोरि। पीयंति ण सोसिय सायर सब्व, ताराउरि वंदउ मणिवरंग, माकोडि किलसिद्धिसंग। घसंति ण नठिय पोग्गलबध्व। बडवाणी रावणगुणनिलउ, बंदोज देवत्रिभुवन तिलउ । ण एयहो तित्ति कयायवि जाय, जिणेसरएवहिं तुम्ह पाय। वडवाणी रावणतणउ पुत्त हउ बंदउ इजित मनि पवित्त । णियच्छवि मणिय अप्पउ घण्ण, करकडुराउ णिम्मियउ भेउ, हउ बंदउ प्रगलि देववेउ । चउगह दुक्ख हो पाणिय दिण्ण। प्रहवउ सिरिपुर पासणाह, जयत्तयसामिय दल्लहो बोहि, दुहक्खउ उत्तमदेह समाहि। जो अन्तरिक्ख पिउ नाणलाह। पत्ता--पई वंदई अप्प निदह, जे नर विलिय भवा-हह। होलागिरि संख जिणद तेउ, दुस्सज्जइ ताह सुसज्जइ, कणय कित्ति सासयसुहई ॥२॥ विज्जण रिद पवि लबछेउ । रिगव्वाण जयमाला हउ बंदउ तिउरिहि गणि लग, कमकमलणवेप्षिण हियइ घरेप्पिण, तियलोउतिलउ जो सिदिमाग। वाई सिरिगिरि गणहरयं । णव णवह कोडि बलभद्दत्त, तुंगीगिरि बंई मणि पवित्त । निव्वाणइट्ठाणइ तित्यसमाणई, पडिय भत्तीए जिणवरहं पुण अट्ठकोडि बलएव सत्य गयवह गिरिश्मि णिव्वाणपत्त। कहलाससिहरि सिरिरिसहनाह, पचकोडि रावणसुभाई, रेवाणइं वंद संपभुवाइ । जो सिद्धउ पडिउ धम्मालाह। कण्णाडि वसइ वाडइजिणंद, जसु प्रालि नच्चइ सुररिव । पुणचंपणयरि जिणवासपुज्ज, निवाणपत्त छंडेवि रज्ज। वं दिज्जइ माणिकदेव देउ, जसु प्रविण पणवह सुरवरितु । उज्जतमहागिरि सिद्धि पत्त, सिरिणमिणाहु जादव पवित्त। वंदिज्जइ गोमटदेउ तित्थु, जसु प्रावणु पणमउ सुरहसत्यु । पण्ण वि पुण सामिपज्जण णवेवि, पच्छिमसमुह ससिसंखवण्ण, तिलयाउरि चंदपहरवन्न । अणरुद्धसहिय हउ तं णविते देवि । मह अइसइ तित्थह पयडियाइ, अण्णु वि पुणु सत्त सयाइ तित्य, बाहत्तरि कोडिसिद्ध जेत्थ । श्रीउवयकित्ति मुनि बंदियाई। पावापुरि वंदउ वढमाण, इय तित्थंकर तित्थह पुष्णपवित्तइ, जिण महिलि पयडिय सिठाण। पढइ विहाणई विमलहरे । सम्मेवमहागिरि सिद्धजेवि हवंद वीसजिणंव तेधि। तसु पापपणास इ रियविणासइ, मंगल सयलवितासु घरे।। प्रवरे वितिस्प महिलि पसिब हव'मासयसमिद्ध। इति श्रीकमकमलजयमाला समाप्त: । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोषाध्यक्ष, मंत्री और सेनापति परमानन्द जैन शास्त्री हुल्ल या हल्लराज-वाजिवंशी यक्ष राज और लोका- मण्डलाचायं नयकीति सिद्धान्त चक्रवर्ती को उक्त चतु म्बिका का पुत्र था। जैन धर्म के बड़े भक्त थे। वह जैन विशति जिनालय का प्राचार्य बनाया । जो सणेरु गांव की धर्म का सच्चा पोषक था। उसकी उपाधि सम्यक्त्व चूड़ा- प्राय का उपयोग जिनालयो की मरम्मत तथा पूजादि मणि थी। इसकी धर्म पत्नी का नाम पद्मावती था। यह कार्य में करते थे। सन् ११७५ ई० मे हल्ल ने राजा एक प्रादर्श जैन और शक्तिशाली सेनापति था। तथा एक बल्लाल द्वितीय से सवण के माथ बेक्क और कगोटे नामके महान सेनापति और जैन धर्म के सरक्षक रूप मे उसकी गांवो को प्राप्त किया और उन्हे उक्त जिनालय तथा गोम्मटख्याति थी। वह केवल धार्मिक पुरुष ही नही था, किन्तु देव और पार्श्वनाथ की पजा के लिए प्रदान किया। विलक्षण राजनीतिज्ञ भी था। वह महान मत्री, प्रधान सेनापति हुल्ल ने केल्लगेरे, बकापुर और कोप्पण इन कोषाध्यक्ष, सर्वाधिकारी और सेनापति के पदों को सुशोभित तीन जैन केन्द्रों को भी अपनी उदारता से सिंचित किया। करता था । वह कार्य-साधन में योगन्धरायण से और केल्लगेरे एक प्राचीन तीर्थ स्थान था, जो गङ्ग नरेशों राजनीति मे वहस्पति से भी अधिक दक्ष था। उसने राजा द्वारा स्थापित किया गया था। वह खण्डहर हो गया था । विष्णुवर्द्धन, नरसिंह और बल्लाल प्रथम को प्राधीनता वहां उसने एक विशाल जिन मन्दिर का निर्माण कराया, में कार्य किया था। तथा तीथंकरो के पंचकल्याणको की भावना से अन्य पांच ___ मंत्री हुल्लराज के गुरु कुक्कुटासन मलघारि देव थे। बस्तिया बनवायी थी। हल्ल ने इसे नया रूप प्रदान किया मंत्री हुल्ल को जैन मन्दिरों का निर्माण, और जीणों. था। बकापुर के प्राचीन एवं विशाल दो जिन मन्दिरों का द्वार कराने, जैन पुराण सूनने, तथा जैन साधनो को जीर्णोद्धार कराया था। तथा कोपण मे नित्य दान के लिए माहारादि दान की बड़ी अभिरुचि थी। इसने श्रवण वृत्तियो का प्रबन्ध किया था। (देखो, जैन लेख संग्रह बेल्गोल में पर कोटा रङ्गशालों व दो प्राश्रमों सहित भा० १ १३७ (३४५, पृ० २६६) चतुर्विशति जिनालय का निर्माण कराया था। इसका श्रवण बेल्गोल से लगभग एक मील दूर पर स्थित निर्माण कार्य संभवतः सन् १९५६ ई० में हा था, जब जिननाथ पुर गाव मे एक भिक्षा गृह बनवाया था। इस राजा नरसिंह द्वितीय अपनी विजय यात्रा के निमित्त से तरह हल्ल का जीवन जिन शासन की सेवा में व्यतीत होता उघर गया, तब उसने बड़े प्रादर के साथ गोमट्टदेव और था। पाश्र्वनाथ की मूर्तियों तथा चतुर्विशति जिनालय के लिए जिन गैहोद्धरणङ्गलि जिन महा-पूजा-समाजङ्गलि, दर्शन किये और जिनालय की पूजादि के लिए 'सवणेरु' जिन-योगि-व्रज-दानदि जिन-पद-स्तोत्र-क्रिया-निष्ठयि । नाम का ग्राम प्रदान किया । और हल्ल की चूड़ा- जिन सत् पुण्य-पुराण-संश्रवणादि सन्तोषमं ताल्दिभमणि उपाधि के कारण जिनालय का 'भव्यचूडामणि' व्यनुतं निच्चलु मिन्ते पोल्तुगलेवं श्रीहल्ल-बण्डाषिपं ॥२४॥ नाम प्रदान किया । मौर सेनापति हुल्लराज ने मह -श्रवण वेल्गोल शिलालेख Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. जन फिलासफी-लेखक डा. मोहनलाल, प्रकाशक ५ पुदगल, ६ ज्ञान, ७ प्रमाण और कर्म । अन्त में पार्श्वनाथ विद्याश्रम रिमर्च इन्स्टिटघट वागणसी ५। पुस्तक में प्रयुक्त पुस्तक सूची एवं महत्व पूर्ण शब्दों पृष्ठ सख्या २३४, मूल्य १० रुपया। की तालिका दी गयी है । ग्रंथ रचना मे ४६ जैन ग्रंथों एवं प्रस्तुत पुस्तक के लेखक डा० मोहनलाल जी मेहता ३४ जनेतर यंथों का आधार लिया गया है। है, जो अच्छे विद्वान, लेग्वक और सम्पादक है। और तत्त्व शीर्षक अधिकार में अन्य दार्शनिको के तत्त्व पार्श्वनाथ विद्याथम के डायरेक्टर है। इनके तत्वावधान सम्बन्धी विचारा का विवेचन किया गया है, जो पठनीय मे वहां शोध सम्बन्धी विभिन्न प्रवत्तियां चल रही है, है। अन्य अध्यायों मे जैन मन्तव्यों का विचार प्रस्तुत और अनेक ग्रंथो का प्रकाशन हो रहा है। यह पुस्तक । किया गया है। लेखक ने दिगम्बर-श्वेताम्बर मतभेदों को जैन दर्शन के सम्बन्ध मे अग्रेजी भाषा मे उपयोगी एवं भी सयत भाषा मे प्रस्तुत किया है । इसके लिए वे विशेष सार पूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती है। यह ग्रंथ लेखक द्वारा रूप से रूप से धन्यवाद के पात्र है । प्राशा है लेखक और प्रकाशक पहले लिखित 'ग्राउट लाइन्स प्रॉव जैन फिलासफो का दोनों ही नये-नये मौलिक एव महत्वपूर्ण प्रकाशन जनता परिवधित सस्करण है। समस्त सामग्री पाठ अध्ययों मे की भेंट करते रहेगे। विभक्त है-जो इस प्रकार है-१ जैन धर्म का इतिहास, -परमानन्द जैन शास्त्री २ धार्मिक एव दार्शनिक साहित्य ३ तत्व, ४ प्रात्मा, नोट-शेष ग्रंथों की समीक्षा अगले अंक में दी जायेगी। 000 जैन संस्कृति के विकास में राजस्थान का योगदान ग्रन्थ प्रकाशन की योजना उदयपुर, १५ सितम्बर, १९७१ । भगवान महावीर २५००वां निर्वाण कल्याणक महोत्सव जो अागामी १३ नवम्बर, १९७४ को मनाया जाने वाला है, उस अवसर पर प्रकाशनाधीन 'जन सस्कृति के विकास में राजस्थान का योगदान' नामक ग्रथ की रूप-रेखा को अन्तिम रूप देने के लिए राजस्थान के विद्वानों की एक मीटिंग श्री अगरचन्दजी नाहटा को अध्यक्षता में १३, १४, १५ सितम्बर, ७१ को उदयपुर में सम्पन्न हुई। जिसमे श्री अगरचन्द जी नाहटा (बीकानेर), डा. कैलाशचन्द जैन (विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन), डा० नरेन्द्र भानावत (राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर), डा० कमलचन्द सोगानी (उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर), श्री बलवन्त सिंह जी मेहता (उदयपुर), श्रीजोधसिंह मेहता (उदयपुर) एवं श्री देव कोठारी (उदयपुर) आदि विद्वान सम्मिलित हुए। ___ मीटिंग मे यह निर्णय लिया गया कि उक्त ग्रन्थके लेखन में जैन संस्कृतिके मूलाधार, राजस्थान का भौगोलिक व ऐतिहासिक परिवेश, जैन संस्कृति का विकास, पुरातत्त्व, कला साहित्य, ग्रन्थ भण्डार, जैन संघ के विशिष्ट व्यक्तित्व, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तथा राजनैतिक क्षेत्रों में जैन संस्कृति का योगदान प्रादि विषयो का सम्यक मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाय । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 10391/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन जैनबाप-पूची . प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४६ टीकादि ग्रन्थों मे उद्धृत दुमरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों का सूवा । संपादक मुन्नार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी.लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भूस्तोत्र : ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना मे सुशोभित । २.०० स्तुतिविद्या : स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, मानुवाद और श्री जगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि मे अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित। १-५० अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हया था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र : आचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित ।। शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकोति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गहस्याचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेपरणात्मक प्रस्तावना से युक्त, मजिल्द । .. ३-०. जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... ४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० अनित्यभावना : प्रा० पद्यनन्दीकी महत्त्वका रचना, मुख्तार थी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ तत्त्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुरूनार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याम्या से पृक्त । २५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । १.२५ महावीर का सर्वोदय तीर्य, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : पं० पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । १.०० जेनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टों महित । सं.५० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरवारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ मख्या ७४० सजिल्द कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना पाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बडे साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पृष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । ... २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बडे प्राकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द जैन निवन्ध-रत्नावली : श्री मिनारचन्द्र तथा रजनलाल कटारिया प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, बीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । . . ५-०० Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २४ः किरण फरवरी १९७२ ४.१०. अनेकान्त समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र A 4 37.... SCIRCONSTA Premsannाथ 12104 aanRRE - - meinmame - mma HES o nairememimaratiniurna... A umari mmmun .. . s - tram " res are mway - VImmat w ala kareang artmenaTRACURRRIAGAR hin M m o mwwmumentaries धातु की यह तोथंकर मूति दिल्ली दरवाजे के दि. जैन मन्दिर को है, जो सं० १५३६ में किसी गर्ग गोत्री अग्रवाल द्वारा ग्वालियर में राजा मानसिंह के राज्यकाल में प्रतिष्ठित हुई है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ० विषय-सूची अनेकान्त को सहायता क्र. विषय १ सिद्ध स्तुति--मुनि श्री पद्मनन्दि ११) सेठ रामरूप नेमीचन्द १४/१६, प्रारजीकर २ राजस्थान में जैनधर्म व साहित्य : एक सिंहाव रोड, कलकत्ता ने अनेकान्त के लिए दानस्वरूप ग्यारह लोकन-डा० गजानन मिश्र एम. ए. रुपया भेजे है। इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र है । पी-एच. डी. २३४ ५. वैद्य प्रभुदयाल जो कासलीवाल ने अपने सुपुत्र ३ अागरा मे जैनो का सम्बन्ध और प्राचीन जैन राजेशकुमार एव शुभचन्द्र सेठो गया निवासी की सुपुत्री मन्दिर--बाबु ताराचन्द परिया मजलता के विवाहोपलक्ष मे निकाले दान मे से पाच ४ जैनदर्शन में ग्रात्मतत्त्व विचार--लालचन्द रुपया अनेकान्त के लिए मधन्यवाद प्राप्त हुए है। जैन शास्त्री एम. ए. २४२ समाज के महानुभावो का कर्तव्य है कि वे विवा५ रणनभंवर (रणथ भौर) का कक्का : हादि शुभावमरो पर अनेकान्त को अच्छी सहायता भिजएक ऐतिहासिक रचना-अनुपचन्द जैन न्याय. २४६] | बाने का यत्न कर। कारण अनेकान्त ही जैन समाज का ६ खजुगहा के जैनन्दिरो के डार लिटल्स पर शोध-खोज विषयक एक प्रतिष्ठित पत्र है। उत्कीर्ण जैन देविया-मारुतिनन्दन प्रमाद व्यवस्थापक 'अनेकान्त' निवारी २५१ वोर सेवामन्दिर, २१ दरियागंज ७ तत्त्वार्थ नत्र के प्रथम अध्याय का तीसवा मूत्र : दिल्ली एक अध्ययन-मन्मतकुमार जैन एम. ए. (शोधछात्र) ८ भद्रबाहु श्रुतकेवली-परमानन्द जन शास्त्री २५७ ९ सकट की स्थिति मे समाजकल्याण बोडों का योगदान-एम. सी जैन २५६ पुस्तक प्रकाशकों से निवेदन १. शोध-कण-परमानन्द जैन शास्त्री ११ उत्तर पचाल की राजधानी अहिच्छत्र समाज की पुस्तक प्रकाशक सस्थानों के संचालकों से परमानन्द जैन शास्त्री २६५ निवेदन है कि वे अपने-अपने प्रकाशनों की एक-एक कापी १२ ध्यान शतक : एक परिचय वीर-सेवा-मन्दिर की लायब्रेरी को भेंट स्वरूप भेजें। पं. बालचन्द्र सि० शास्त्री कारण कि वीर-सेवा-मन्दिर को लायब्ररी का उपयोग १३ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द जैन शास्त्री २७८ दिल्ली यूनिवसिटी और बाहर के अन्वेषक (शोध-छाप और छात्राएं) कर रहे है । आशा है संस्थानों के प्रकाशक सम्पादक-मण्डल इस पोर ध्यान देने का प्रयत्न करेगे । डा० प्रा० ने० उपाध्ये व्यवस्थापक डा. प्रेमसागर जेन वीर सेवामन्दिर, दरियागंज श्री यशपाल जैन दिल्ली परमानन्द शास्त्री २५४ ६२ २७६ अनेकान्त मे प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक मण्डल उत्तरदायी नहीं है। -व्यवस्थापक अनेकान्त अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष २४ किरण ६ प्रोम् प्रहंम् अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् || वीर- सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत २४६८, वि० सं० २०२७ सिद्ध स्तुति सिद्धो बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञेय प्रमाणो भवेत् । ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदन्त्यात्मेति सर्वस्थितः । मूषायां मदनोज्झिते हि जठरे यादृग नभस्तादृशः । प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ॥५ - मुनि श्री पद्मनन्दि जनवरी फरवरी १६७२ अर्थ – जो सिद्ध परमेष्ठी अपने कर्मरूपी कठोर शत्रुम्रों को जीतकर नित्य मोक्ष पद को प्राप्त हो चुके हैं। जन्म जरा एवं मरण आदि जिनकी सीमा को भी नहीं लांघ सकते - जो जन्म जरा एवं मरण से मुक्त हो गए हैं तथा जिनमें असाधारण ज्ञान आदि के द्वारा अचिन्त्य एवं अद्वितीय अनन्त चतुष्टयरूप ऐश्वर्य का संयोग कराया गया है; ऐसे वे तीनों लोकों के चूडामणि के समान सिद्ध परमेष्ठी मेरे कल्याण के लिये होवे ||४|| Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान में जैन धर्म व साहित्य : एक सिंहावलोकन डा० गजानन मिश्र एम० ए० पी-एच० डी० राजस्थान में जैनधर्म का प्रसार : के कारण ही जैन धर्म के अन्तर्गत विभिन्न गच्छो को जैनधर्म भारत के प्राचीन धर्मों में से है। इसके स्थापना हुई। प्रवर्तक ऋपभदेव माने जाते है। इन के पश्चात् २३ अन्य राजस्थान में जैनधर्म के सकेत ईसा से दो शताब्दी तीर्थ धर भी हए जिनमे अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महा. पूर्व तक के मिलते है। लेकिन ईसा की पाठवी शताब्दी वीर थे। महावीर स्वामी का समय ईसा से ५वी शताब्दी के पश्चात् तो जैनधर्म का प्रभाव राजपूत राजानो के पूर्व माना जाता है। इस प्रकार ये बुद्ध के समकालीन शासन-काल मे बहुत अधिक हो गया। यद्यपि वे राजा थे। इनके (महावीर) समय मे वैदिक कर्मकाण्ड का प्रारम्भ मे वैष्णव तथा शेवधर्म के अनुयायी थे, तथापि प्रचार प्रत्यधिक था। इससे समाज जर्जग्ति हो चुका उन्होने जैनधर्म का आदर किया। इसका कारण हेमथा। कर्मकाण्ड की पालोचना करते हए महावीर स्वामी चन्द्र ग्रादि जैनियों के व्यक्तित्व का प्रभाव भी था। जैन ने प्राचार धर्म को प्रधानता दी। संयम से रहना, धर्म के अनुयायियों का राजघरानो में बहुत सम्मान था। बिना अधिकार कोई वस्तु ग्रहण न करना, मन, वचन यही नही वे बहुत अच्छे पदो पर पासीन भी थे। पृथ्वीऔर कर्म से किसी प्राणी को कष्ट न देना, सदाचार- राज चौहान के शासनकाल में जैनियों के अनेक मन्दिर न करना. यज्ञ करना. अहिंसा, सत्य अस्तेय अपरि- बनवाये गये। उस काल के बने हुए रणथम्भोर तथा ग्रह आदि जैन धर्म के मूल सिद्धान्त है। इनके लिए अजमेर का पार्श्वनाथ का मन्दिर उल्लेखनीय है, जिन पर सम्यक ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र पर बल सोने के कलश सुशोभित थे। राजस्थान के वीर सेनानी दिया गया है। महाराणा प्रताप ने तत्कालीन जैन सन्त हीरविजय को जैन समाज मुख्यतः दिगम्बर और श्वेताम्बर नामक धर्मोपदेश देने के लिए मेवाडी भाषा मे सन् १५७८ को एक पत्र लिखा था। गजस्थान का कोई राज्य ऐमा दो शाखानों में विभक्त है। यह विभाजन सम्भवत: जैन नही है जहाँ जैन धर्म का प्रचार नहुमा हो, जैन मन्दिर मतियो को वस्त्रादि से सज्जित करने के विषय को लेकर न बने हो और जैन कवियो द्वारा साहित्य न रचा हा है । श्वेताम्बर जैन अपनी मूर्तियों को वस्त्र पहनाने । गया हो। लगे और दिगम्बर जैन नग्न मूर्तियों की उपासना करने लगे। श्वेताम्बर साघु श्वेत वस्त्र धारण करते है और जन धर्मावलम्बियो ने विपुल साहित्य की रचना दिगम्बर साधु वस्त्रहीन रहते है। डा० मित्तल के अनु की। प्रारम्भ मे साहित्य-रचना तथा अध्ययन अध्यापन सार इस भेद का सूत्रपात जैन धर्म के मूल सिद्धात त्याग का केन्द्र मन्दिर हया करते थे। उन मन्दिरो मे बैटकर और वैराग्य की सीमा का निर्धारण करने से हुअा जान जो भी साहित्य विरचित किया गया, उसे वही सुरक्षित पडता है। कालान्तर मे श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्र २. राजस्थान साहित्य का इतिहास--डा. पुरुषोत्तम दाय के अन्दर भी कई मत-मतान्तर हो गये जिन्हे स्था• लाल मेनारिया, पृ० १०४-५ । नकवासी, तेरहपंथी प्रादि कहा जाता है। मत-मतान्तरो ३. जैनिज्म इन राजस्थान-बाई के. सी. जैन, पेज १८ । १. व्रज के धार्मिक सम्प्रदायों का इतिहास-डा० प्रभु- ४. राजपूताने के जैनवीर-अयोध्याप्रसाद गोयलीय दयाल मीतल, पृ० ५२ । पृ० ३४१-४२। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान में जनधर्म व साहित्य : एक सिंहावलोकन २३५ रख लिया गया। कालान्तर में ऐमे मन्दिर ग्रंथालय बन पद्य उदघत मिलते है।' गये, जिन्हे शास्त्र भंडार कहा जाने लगा। जैनियों ने मालोच्यकालीन राजस्थान में रचित जैन हिन्दी साहित्य स्वरचित साहित्य को ही इन भडारो मे सुरक्षित नही का संक्षिप्त परिचयरखा अपि तु जैनेतर कवियो के साहित्य को भी सुरक्षित पूर्व पृष्टो में दी गई जैन शास्त्र भडारों की सूची से रखा । जिम समय भारत में विदेशी जातियों ने प्राकर ही यह विदित हो जाता है कि जैन विद्वानो को साहित्ययहाँ की संस्कृति और साहित्य को नष्ट करने का प्रयास रचना करने एवं उसे सुरक्षित रखने का शौक था। किया उस समय इन जैन भण्डारो ने भारतीय साहित्य राजस्थान मे जैनियो द्वारा साहित्य रचना प्राचीन समय को सुरक्षित रखने में बहुत बड़ा योगदान दिया । निस्सदेह मे ही होने लग गई थी। लेकिन प्राचीन जैन ग्रन्थो मे इन भण्डारों से भारतीय साहित्य की परम्परा अक्षुण्ण उनके निर्माण-काल, रचना-स्थान अदि का उल्लेख नही रही है। राजस्थान मे इन शास्त्र भण्डारों की संख्या मिलता, इसलिए ७वी शताब्दी से पहले के किसी भी प्रथ प्रत्यधिक है । इनकी सूची यहां दी जा रही है को, वह कहाँ रचा गया था ? निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वी शताब्दी के प्राचार्य हरिभद्र सूरि राज(क) जैसलमेर के शास्त्र भण्डार स्थान के बहुत बड़े विद्वानों में से है जिन्होंने घूर्ताख्यान १. बृहद् जन भण्डार-स्थापित १४४० ई० । की रचना चित्तौड़ मे की। जन विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, २. डूगरसी भडार । अपभ्रंश तथा आधुनिक भाषामो मे अपनी रचनाएँ की ३. करतार गच्छ का पचायती भंडार । है। १३वीं-१४वी शताब्दी से जैन विद्वानों की रचनाएं ४. तपगच्छ भंडार । गुजराती मिश्रित राजस्थानी में तदुपरान्त शद्ध हिन्दी व ५ थावरसाह भडार--स्थापित १७वी शताब्दी। राजस्थानी में मिलती है। आलोच्य काल से पूर्व जैन (ख) बीकानेर के शास्त्र भंडार कवियों मे जयसागर, दण्डागांगीय. दयाल, ऋपिवद्धन सूरि, मतिशेखर, पद्मानाभ,'पावचन्द्र सूरि, कुशल१. बृहद् ज्ञान भडार । २. श्री पूज्य जी का भंडार । लाभ तथा समयसुन्दर' प्रादि के नाम उल्लेखनीय है । राजस्थान मे जैन विद्वानों द्वारा जिस साहित्य की ३. श्री जैन लक्ष्मीमोहन शाला भंडार । ४. क्षमा कल्याण जी का भडार । रचना की गई है उसे मुविधा के लिए पाच भागों मे ५. छत्तीबाई के उपाश्रय का भडार । १. परम्परा पत्रिका में प्रकाशित-अगर चन्द नाहटा का ६. श्री अभय जैन पुस्तकालय । लेख, पृ०६१। ७. सेठिया लाइब्रेरी मादि । २. जैन गुर्जर कवियो-भाग १, पृ० २७ श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई। इनके अलावा अलवर, जयपुर, कोटा, जोधपुर, बूदी। जोधपुर, बूदा ३. राजस्थानी भाषा और साहित्य-डा. माहेश्वरी, . प्रादि मे भी जैन भडारो की विपुलता है। जिनमे सहस्रों पृ० २५० । हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं। वस्तुतः जैन विद्वानों ने ४. जै. गू० क० भाग १ पृ० ४८ श्री देसाई । बड़े ही उदार भाव से जनेतर साहित्य का सरक्षण ५. जैन साहित्य नो सक्षिप्त इतिहास-रा ७६८ । किया। सैकडो फुट कर रचनाएँ और कई जनेतर उपकाव्य ६. राजस्थान के जन शास्त्र की भंडारो की सूचीतो उन्ही की कृपा से अब तक बच पाए है। जैनेतर भाग ३ (प्रस्तावना)। सग्रहालयो में जिन रचनामो की एक भी प्रति नहीं ७. ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह। मिलती, उनकी अनेकों प्रतियां जन भंडारो में मिलती हैं।''८. राजस्थान भारती भाग १ ० ४ जन० ४७ । इसके अतिरिक्त अनेको जैन ग्रथों मे जैनेतर कवियों के ६. जै० गु० क० भाग १ पृ० १३६ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६, वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त विभाजित किया जा सकता है रहे । दीवान रामचन्द्र ने जयपुर व रामगढ़ के मध्य शाह१. धार्मिक तथा दार्शनिक साहित्य । बाद के प्रसिद्ध जैन मन्दिर का निर्माण कराया। राव २. वर्णनात्मक साहित्य । कृपाराम ने चाकसू तथा जयपुर में अनेक मन्दिर निर्मित ३. काव्य, महाकाव्य और मुक्तक काव्य । कराये । जयसिंह के शासनकाल मे सम्यक्ख कौमुदी तथा ४. वैज्ञानिक साहित्य । कर्मकाण्ड सटीक की भी रचना हुई। ५. ऐतिहासिक तथा राजनैतिक साहित्य । सवाई माधोमिह का शासन काल जैनधर्म के लिए मालोच्य काल में भी उपर्युक्त सभी प्रकार के उल्लेखनीय है। इनके समय मे बालचन्द्र छाबडा सन् पारिश की रचना राजस्थान के विभिन्न भागो में हुई। १७६१ मे राज्य के मुख्यमन्त्री बने । उन्होंने अनेकों जैन हम काल के कवियो में बीकानेर के श्री हर्षनन्दन' जयतसी, मन्दिगे का निर्माण तथा जीर्णोद्धार करवाया।" १७६४ भावप्रमोद, लाभवर्द्धन, लक्ष्मीवल्लभ, धर्ममन्दिर, जीव- (स० ९८२१) मे बालचन्द्र छाबड़ा के प्रयत्नो से यहाँ राज, वच्छ राज, उदयचन्द्र, गुणचन्द्र, क्षमाकल्याण, "इन्द्रध्वज पूजा महोत्सव' मनाया गया तब तत्कालीन शिवलाल, सावतराम. रघुपति, प्रादि जैसलमेर के जय जयपुर नरेश माधवसिंह जी ने "था के पूजाजी के अर्थि कीति, बदी के दिलराम, भरतपुर के नथमल बिलाला' जो वस्तु चाहि जे सो ही दरबार सं ले जायो" कह कर तथा अन्य कवियो में रामविजय, चरित्रनन्दन प्रादि सब प्रकार की सुविधा और सहायता प्रदान की थी।" साहित्यकारो के नाम उल्लेखनीय है । दीवान रतनचन्द, नन्दलाल, केसरीसिंह व नन्दलाल ने भी जयपुर राज्य में जैनधर्म जयपुर और सवाई माधोपुर में जिन मन्दिरों की स्थापना करवाई। सवाई जगतसिंह के दीवान बखतराम ने दुर्गाजयपुर राज्य मे जैनधर्म का व्यापक प्रसार मध्यकाल पुग तथा चौडा रास्ता जयपुर में यति यशोदानन्द जी के मे हुमा । जयपुर निर्माण से पूर्व प्रामेर राज्य के राजामो मे मानसिंह एव मिर्जा राजा जयसिंह के शासनकाल मे मन्दिर बनवाये । इस प्रकार प्रायः प्रत्येक राजा के शासन अनेक जैन मन्दिरो का निर्माण हमा। १६५४ ई० मे काल मे मन्दिरों का निर्माण जैनधर्म के प्रभाव को स्थायी बनाये रखने में बड़ा सहायक हुमा । सागानेर के प्रसिद्ध गोधो के मन्दिर का निर्माण मिर्जा गजा जयसिंह के शासन काल में ही हपा था। आमेर के जिस प्रकार प्रत्येक राजा के शासनकाल मे जैन प्रमित जैन मन्दिर विमलनाथ का निर्माण भी जयसिंह के मन्दिरों का निर्माण हुअा है उसी प्रकार यहां साहित्य समय में उनके प्रधानमन्त्री मोहनदास खण्डेलवाल (जैन) रचना भी हुई है । भारामल के शासन काल में पाण्डवके द्वारा १६५६ ई० मे हुमा था, जिस पर सोने का पुराण, हरिवंशपुराण, महाराजा भगवानदास के शासनकाल कलश था। मे वर्धमानपुराण, राजा मानसिंह के समय में हरिवंशजयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह के समय रामचंद्र पुराण की रचना हुई तथा इसी पुराण की सं० १६०४ व १६०५ मे दो प्रतिलिपियाँ राजमहल" तथा संग्रामपुर" छाबडा, राव कृपाराम और विजयराम छावड़ा दीवान में की गई । इन हस्तलिखित लिपियों को संग्रह करने की १. राजस्थान भारती, भाग १ अक ४ । ६.प्रशस्ति सग्रह-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल । २. बीकानेर के जैन शिलालेख-अगरचन्द नाहटा पृ० १०. जैनिज्म इन राजस्थान बाई, के. सी. जैन पेज १८-२३ । ४६-४७। ३, ४, ५, ६, ७. निम इन राजस्थान बाई. के. सी. ११. वीरवाणी प० २६-३० । जैन । १२. प्रशस्ति संग्रह पृ०७३ । ८. एनयूअल रिपोर्ट, राजपूताना म्यूजियम, अजमेर १३. वही, प०७२ । १९२५-२६, नं. ११। १४. वही, पृ.७२। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान में जैनधर्म व साहित्य : एक सिंहावलोकन २३७ प्रवृत्ति चल पडी और इस प्रकार कई शास्त्र भण्डार बन (३) बाबा दुलीचन्द शास्त्र भंडार, गये । जयपुर में इस प्रकार के शास्त्र भंडारो की संख्या (४) बघीचन्द मन्दिर का भंडार, लगभग १५ है जिनके नाम निम्नलिखित है। (५) सघी जी का मन्दिर शास्त्र भंडार, (६) शास्त्र भंडार, जैन मन्दिर छोटे दीवान जी का, (१) प्रामेर शास्त्र भडार : (७) शास्त्र भडार, जैन मन्दिर गोधो का, इस भडार की स्थापना पामेर में की गई थी। (८) शास्त्र भंडार, जैन मन्दिर पार्श्वनाथ, लेकिन अब लगभग २५ वर्षों से यह जयपुर के चौडा () शास्त्र भडार, दिगम्बर जैन मंदिर जोबनेर, गम्ना स्थित महावीर भवन में परिवर्तित कर लिया गया (१०) शास्त्र भंडार, विजयराम पाण्ड्या, है। अटारहवी शताब्दी में इसे भद्रारक देवेन्द्र कीति शास्त्र (११) शास्त्र भडार, दिगम्बर जैन नया मन्दिर, भडार के नाम से जाना जाता था। वर्तमान मे इस भंडार (१२) शास्त्र भडार, पाटोदी का मन्दिर, में लगभग ४,००० हस्तलिखित प्रतियाँ एव १५० गुटके (१३) शास्त्र भडार, श्वेताम्बर जैन ग्रंथागार, (२) बड़ा मन्दिर का शास्त्र भण्डार (१४) शास्त्र भंडार, जैन मन्दिर, मेघराज जी का, २६३० हस्तलिखित प्रतियाँ एवं ३२४ गुटके हैं। (१५) शास्त्र भडार, जन मन्दिर, यशोदानद जी का। १. पामेर शास्त्र भंडार जयपुर की ग्रन्थ मूची-सं० २. राजस्थान के जैन भडारो की ग्रन्थ सूची-स. डा. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल । कासलीवाल । 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य ष्योरे के विषय में प्रकाशक का स्थान वीर सेवा मन्दिर भवन, २१ दरियागज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि द्वि मासिक मुद्रक का नाम वंशीधर शास्त्री राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम वंशीधर शास्त्री स० मन्त्री वीर सेवा मन्दिर गष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली सम्पादक का नाम डा० मा. ने. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर डा. प्रेमसागर, बडौत यशपाल जैन, दिल्ली परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली राष्ट्रीयता भारतीय मार्फत वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, दिल्ली स्वामिनी सस्था वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली मैं वशीधर घोषित करता है कि उपरोक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-७२ हवंशीधर (वंशीधर) पता Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगरा से जैनों का सम्बन्ध और प्राचीन जैन मन्दिर बाबू ताराचन्द रपरिया [इस लेख के लेखक बाबू ताराचन्द जी रपरिया जैन समाज के पुराने कार्य कर्ता है। अच्छे विद्वान और समाज सेवी है। शौरीपुर तीर्थक्षेत्र के कई वर्षों तक मंत्री रहे है । प्रागरा एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है । मुगल साम्राज्य के समय वहां अनेक प्रतिष्ठित जैनियों का निवास था। अनेक प्रसिद्ध विद्वान कवि भी रहते थे। वहा की प्रध्यात्म गोष्ठी प्रसिद्ध थी। उस गोष्ठी के प्रभाव से अनेक व्यक्ति जैनधर्म के घारक हुए थे । बनारसीदास, भगौतीदास, रूपचन्द, कुंवरपाल, भूधरदास, द्यानतराय, जगतराय, मानसिंह, विहारीदास, हीरानन्द, जगजीवन, बुलाकीदास, शालिवाहन, नथमल विलाला प्रादि कवियों की रचनाएं प्रागरा में ही रची गई हैं। पं० नयविलास ने ज्ञानार्णव की संस्कृत टीका साहू टोडर के पुत्र ऋषभदास की प्रेरणा से बनायी थी। प० दौलतराम कासलीवाल ने स. १७७७ मे पुण्यास्रव कथा कोष का पद्यानुवाद बनाया था। समयसार कलशा टीका के कर्ता पांडे राजमल को भी आगरा में अकबर के समय रहने का अवसर मिला था। कविवर भगवतीदास ने स० १६५१ मे अर्गलपुर जिनवन्दना बनाई थी, जिसमे अकबर कालीन दिगम्बर श्वेताम्बर मंदिरो का उल्लेख किया है प० नन्दलाल ने स० १६०४ मे योगसार को टीका बनाई है । इन सब उल्लेखो से प्रागरे की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है। अतः आगरे को जैन समाज का कर्तव्य है कि वह अागरा के जैन मन्दिरो के मूर्ति लेख और आगरा के शास्त्र भागे के हस्तलिखित ग्रन्थो की सूची का निर्माण कराये, जैन साहित्य और इतिहास के लिए इसकी महती आवश्यकता है, प्राशा है आगरा समाज इस प्रोर अपना ध्यान देगी। -सम्पादक] कृष्ण साहित्य में वृज के चौरासी वनो का उल्लेख उत्तर पश्चिम में है और प्रागग से गौरीपुर ४४ मोल मिलता है जिनमे एक अग्रवन भी है। वर्तमान आगरा की दक्षिण पूर्व में जमूना के किनारे स्थित है । मथुरा से स्थिति भी उसी अग्रवन में हैं (सम्भव है नगर बसने के शौरपर तक का क्षेत्र यादवो की क्रीडास्थल था प्रार उपरान्त अग्रलपुर-अग्रसेनपुर-अगलपुर या अग्रपूर- श्रीकृष्ण भक्त वैष्णवों तथा श्री नेमिनाथ भक्त जैनों अर्गलपुर प्रादि नाम पर हो) यह वन यमुना नदी के के लिए पूज्य पवित्र एवं तीर्थ तुल्य थी। प्रागरा, मथुरा किनार, यमुना के कछार में फैले हए थे। वन्दावन की व शौरीपुर के मध्य मार्ग पर स्थित होने से प्रागरे मे जैनो भौति अग्रवन भी जमुना के तीर पर बसा था । शौरीपुर का निवास निविवाद था और उनके मन्दिर प्रादि का या शूरसेन नगर यादवो की राजधानी थी। श्री कृष्ण के भी प्राचीन काल से होना इतिहास से सिद्ध होता है। पिता वसूदेव व ताऊ समुद्र विजय प्रादि दशार्णव व पिता- जैन साहित्य मे "निर्वाणकाण्ड अतिशय क्षेत्र मह अन्धक विष्णि प्रादि यादवो का निवास स्थान शौरी. काण्ड" नामक निर्वाण भक्ति प्राकृत भाषा में बहुत पुरानी घर था । प्रसिद्ध योद्धा कर्ण और जैनो के २२वे तीर्थ दुर एव प्रामाणिक स्तोत्र है । दश भक्तियों में निर्वाण भक्ति श्री नेमिनाथ का जन्म शौरीपूर मे हया था। वे श्री कृष्ण भी एक है जिसका नित्य पाठ करना, जैन साधु मौर के चचेरे भाई थे। उनके पिता का नाम समूद्र विजय था। श्रावकों के लिए प्रावश्यक होता है। इस में "प्रगल श्री कृष्णजी का जन्म मथुरा में अपनी ननसाल देव" नाम से एक प्रतिमा को नमस्कार किया गया है। (ननिहाल) में हुआ था । मथुरा से प्रागरा ३६ मील प्राकृत 'अग्गल, का संस्कृत रूप 'अर्गल, होता है । जैसा Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागरा से जैनों का सम्बन्ध और प्राचीन जैन मन्दिर २३६ कि शिलालेखो से जाना जाता है, प्रागरा का एक अर्थात् मुसलमान काल से पूर्व के प्राचीन अवशेष नाम अर्गल पुर भी है । मत: मालम पड़ता है कि मागरा मे बहुत थोड़े है। मागरा किले के जलद्वार के प्रागरा मे प्राचीन काल में कोई प्रतिशय क्षेत्र था जिस बाहर, किले और नदी (जमुन) के बीच कई काले पाषाण को पूजनीय प्रतिमा अग्गल देव के नाम से उस समय के स्तम्भ खदाई में पाये गये थे और एक बहुत भारी प्रख्यात थो । निर्वाण भक्ति वि. स. ४६ मे होने वाले विशाल काले पाषाण की कलापूर्ण मूर्ति जो जनो के २० श्री १०८ प्राचार्य कुन्द कुन्द की रचना मानी जाती है। वे तीर्थङ्कर श्री मुनिसुव्रत नाथ की थी, खुदाई मे मिली अतः अग्गल देव का अस्तित्व वि. की प्रथम शताब्दी से थी इस पर कुटिला अक्षरो मे स० १०६३ खुदा था। पूर्व होना चाहिए, क्योकि श्री कुन्द कुन्द के समय में वह निःसन्देह स्तम्भ प्राचीन जैन मन्दिर के द्वार के थे जो नदी मुख्य अतिशय क्षेत्रो में गिना जाता था, प्रसिद्धि प्राप्ति मे की ओर था और जो शायद जब किला बनाया गया, स्थापना से कम से कम २००-२५० वर्ष का समय गिरा दिया गया हो।" अवश्य लगा होगा। अतः अग्गल देव की स्थापना ई० पू० कनिंघम ने मवत् को विक्रम संवत मान कर दूसरी शताब्दी मे हुई होगी। १००६ ई० सन् माना है। परन्तु कुटिला अक्षर और उस इस समय अग्गल देव की प्रतिमा व मदिर का कोई समय के मवतों को देने की प्रथा को ध्यान में रखते हए चिन्ह प्रवशिष्ट नही है और इतने लम्बे काल में यह वीर संवत भी हो सकता है। इससे जान पड़ता मुस्लिम व अन्य लोगों द्वारा जैनों पर होने वाले अाक्रमणों है कि मुसलमानों के प्राने के पहिले से इस स्थान पर के कारण, पाया जाना भी सम्भव नही है। परन्तु कोई प्राचीन मन्दिर मौजद था। प्रतिमा के सम्बन्ध मे १८७३ में जार्ज कनिंघम को किले के पूर्व जमुना के पता नहीं लगता है कि वह कहाँ चली गई। बहतो का पास एक प्राचीन जैन मन्दिर के अवशेष व एक विशाल विचार है कि रोसन मुहल्ला मे स्थित श्री शीतल नाथ काय श्याम वर्ण प्रतिमा मिली थी। यथा की प्रतिमा यही है, परन्तु उम पर कोई चिन्ह या पोर "The ancient remains at Agra of the कोई शिलालेख नहीं दिखलाई पडता है सम्भव है मिट pre. Musalman period are very few. Out गया हो, अलबत्ता चरण चौकी पर जो फल-पत्तियां side the water gate of the fort of Agra, bet बनी हुई है वे कच्छुपा सरीखे भी दिखाई पड़ते हैं ween the fort and the river, several square शायद इस कारण से कनिपम ने उसको श्री मुनिसुव्रतनाथ pillars of black basalt have been unearthed की प्रतिमा मान लिया हो । प्रतिमा का वर्तमान नाम as well as a very massive and elaborately करण उस शिलालेख के कारण प्रचलित प्रा जान sculptured statue of black basalt representing पडता है जो मन्दिर मे दरवाजे के दाहिनी पोर लगा Munisuvrata Nath the twentieth Jain Tirtha- हया है । यथा-"प्रथम बसन्त सिरी सीतल ज देत्र है nkara, with a dedicatory inscription in Kutila की प्रतिमा नगन गुन दस दोय भरी।" characters, dated Samvat 1063 or A.D. 1006. शिला लेखो और मूर्ति प्रशस्तियों में प्रागरे का There can be no doubt that these pillars पुराना नाम उग्रसेन पर व अरगल पुर, मिलता है। formed the colonnade to the entrance, from शाहजहाँ तक के समय में उग्रसेन पुर व अर्गलपर प्रसिद्ध the river, of some ancient Jain temple which थे। अकबर के प्रागरा बसाने से पहिले शायद यही नाम are probably pulled down and destroyed when प्रचलित थे। अकबर के प्रागरा बसाने के बाद प्रकरावाट the fort was built."" quities and inscriptions N.W.P. and Oudh १. Archeological Reports, Vol. VI, page 221- Vol. II, 1891, Page 75. 247. सं० १९७३-७४ ब Monumental anti- २. प्राचीन जैन शिला लेख संग्रह भाग २ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०, वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त नाम दिया गया परन्तु वह ज्यादा प्रचलित हुप्रा मालूम मे कोई शिकार तक नहीं खेलता न मांस खाता है । इससे नहीं होता । यथा--'संवत १६८८ वर्षे असोज सुदी १५ जैन व वैष्णव प्रभाव प्रगट होता है। श्री अग्गलपुरे जलालुद्दीन पातिसाह श्री अकबर सुत मकबर व अन्य मुगल सम्राटों के राज्य मे जैनो का जहांगीर सुत सवाई साहिजा विजय राज्य......।' अच्छा सम्मान पाया जाता है। ऊपर उल्लेख किया जा ___... जैनागमे यन्मति तद्वाक्य श्रवणेन निर्मलघीयां चुका है कि जगद्गुरु हीरविजय जी को अकबर ने निर्मापितोय ग्रहं श्री अकबराबाद पुरे...।" आमंत्रित और सम्मानित किया था और उनसे जैन तत्वो "... १६७१ ... विक्रमादित्य भूपते.."उग्रसेनपुरे का वर्णन सुना था। पर्वो के दिनो में हिंसा न करने का रम्ये..." भी फरमान निकाला था। जगदगुरु प्राचार्य श्री हीर विजय जी व तीर्थमाला इन बादशाहो के समय में प्रागरा मे बहुत से जैन के लेखक श्री शीलविजय जी ने भी प्रागरा ही लिखा है, कवि व विद्वान व सेठ हए है। यहाँ दिगम्बर व श्वेताम्बर कभी-कभी अकबराबाद भी। पं. बनारसीदास जी, भैय्या दोनो आम्नाए वालो का अच्छा प्रभाव था मोर दोनो भगवतीदास जी, भूधरदास जी मादि ने 'मागरा' व सम्प्रदायो मे सौहार्द था । एक दूसरे के उत्सव आदि में मकबराबाद दोनों ही नाम लिखे है। बहुत सी प्रतिमा सम्मिलित होते थे। एक दूसरे की सहूलियत के लिए लेखो मे भी आगरा ही लिखा मिलता है इससे जान मदिरों में दोनो सम्प्रदाय की मूर्तिया रहती थी और पडता है कि १६वी, १७वी शताब्दी मे ही प्रागरा नाम बिना किसी रुकावट के दर्शन पूजन होती थी। प्रसिद्धि पा गया था। मुसलमानी राज्य के व गदर के प्रागरे की प्राचीन बस्तियो मे जमुना पार नुनिहाई, कुछ समय बाद भी लिखा मिलता है। शोरीपुर के सिकन्दरा (जो सिकन्दर लोदी के समय में बसा हुआ था) भट्टारको को जो सनद बादशाह शाह पालम गाजी ने शाहगंज, ताजगज, मोती कटरा, रोसन मुहल्ला मुख्य थे दी थी उनमे भी अकबराबाद ही लिखा है। जहाँ जैनियो की बस्तियाँ थी, मन्दिर थे और बडे-बडे उग्रसेनपुर पोर अर्गलपुर नाम प्रकवर के द्वारा राज्यमान संठ व धनाढय रहते थे। नगर बसाने के पहिले हिन्दू राज्य काल में रहा था। शाहगज मे प. भूधरदास जी रहते थे। उस पुरातत्व की खोजों से जान पडता है कि अकबर द्वारा समय वहां पाश्वनाथ स्वामी जो चिन्तामणि पाश्वनाथ नगर बसाने से बहुत पहिले यहाँ समृद्धशाली हिन्दू व कहे जाते थे का मन्दिर था। किसी समय वहाँ जन राज्य था जो माल म पडता है कि प्राम्भिक मुसल- जैनो की बस्ती न रहन से मन्दिर उठ गया। बताया मानी पाक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त कर दिया था। ११वी जाता है कि श्री पाश्वनाथ स्वामी की विशाल मूर्ति वहाँ शताब्दी में मोहम्मद गौरी और गजनी की आगरा के से लाकर ताजगज के मन्दिर में विराजमान कर दी गयी निकट रपरी" और चन्दवार' के चौहान राजानी से थी और अन्य बहुत-सी मति मोती कटरा के मन्दिर में लडाइयो का उल्लेख इतिहास में पाया जाता है। तहखाने में रख दी गई थी। इन मूर्तियो के शिलालेख जैनों का सम्बन्ध--इस प्रकार हम देखते है कि व प्रशस्तियों को संग्रह किया जाय तो प्रागर क प्राचान आगग प्रदेश से जैन धर्मावलम्बियो का सम्बन्ध प्राचीन जंन इतिहास पर अच्छा प्रकाश पडे परन्तु दुर्भाग्यवश काल से रहा है। प्रागरा के कलेक्टर नेविल ने अपने दिगम्बर जैनो मे नवीन प्रतिष्ठानो का अधिक महत्व है, प्रागग गजेटियर (१९०५) मे लिखा है कि प्रागरा से प्राचीन गौरव का नही । इस समय शाहगज के पास श्वेताइटावा तक का प्रदेश---जमुना, चम्बल और क्वारी के कानोका 'दादावाडी' नाम का प्राचीन मन्दिर है। त्रिकोण म बमा हुमा क्षेत्र पूर्णतया अहिंसक है। इस क्षेत्र ताजगंज के मन्दिर मे जो पाश्वं नाथ तीर्थङ्कर की २. .. ४. : प्राचीन जैन शिलाले ग्व सग्रह भाग २ श्याम वर्ण विशाल मूर्ति विराजमान है उसका प० ५.६ इस सम्बन्ध में विशेष खोज की आवश्यकता है। बनारसी दास जी, भूधर दास जी, नन्दराय जा आदि ने Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगरा से जैनों का सम्बन्ध और प्राचीन जैन मन्दिर विनामणि पार्श्वनाथ" के नाम से उल्लेख किया है । नन्दराम जी ने तो यहाँ तक लिखा है कि इनके दर्शन करने से मुझे स्वरूप प्रात्मा का ज्ञान सम्यक् दर्शन हुआ है" ताजगंज के मन्दिर में एक श्रुत यत्र है जिसकी प्रशस्ति से मालुम होता है कि पं० बनारसीदाम जी व भैय्या भगवतीदास यत्र को करहल (नपुरी मे पतिष्ठा करा कर लाये थे । यहाँ के सरस्वती भण्डार मे कई प्राचीन ग्रन्थ है जिनमे 'जीव सिद्धि' और स्वर्ण अक्षरी से लिखा हुआ उर्दू लिपि मे पं० बनारसी दास का समयसार नाटक भी था। जब १९३० मे हम लोगों ने श्राचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी के आगमन पर नशिया पीर कल्याणी पर शास्त्र प्रदर्शिनी की थी तब उक्त दोनो ग्रन्थों को देखा था । मोती कटरा में दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनो सम्प्रदाय के विशाल एवं प्राचीन मंदिर है जिनमे ऐतिहासिक प्रतिमाएँ विराजमान है। शास्त्र भण्डार भी है। दिगम्बर जैन बड़े मन्दिर को तो प्राचीन प्रतिमा और शास्त्रो का शागार ही कहना चाहिए। प० बनारसी दास जी भी मोती कटरा मे रहते थे । यहाँ के शास्त्रों व प्रतिमाओ की प्रशस्तियाँ यदि प्रकाश में आ जावे तो जैन इतिहास को बहुत सामग्री मिलें । सुना है शीघ्र ही यहाँ यंत्र कल्याणक प्रतिष्ठा होने जा रही है। अच्छा हो यदि सयोजक गण इस उपयोगी महत्वपूर्ण और आवश्यक कार्य के लिए भी आयोजन करें।ा के मन्दिरों की प्रतिमा वे दि.लालेख तो सरहीत होवर प्रकाशित हो चुके है। उन्ही के अधार पर आगरे के प्रार्थन जैन इतिहास की भलक मिलती है। यदि शास्त्रों को प्रशस्तिया भी प्रकाश में आ जाती तो और अधिक जानकारी मिलती। प्रसिद्ध स्वर्गीय जती माजी में रहते थे । उनके कारण ही उसका जती कटरा नाम पडा । स्व० जती जी यंत्र, मंत्र ज्योतिष व वैद्यक प्रादि के अच्छे ज्ञाता थे और दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों में उनका प्रभाव व मान था। अनेक दिगम्बर उनके शिष्य थे मोठी कटरा जैन जोहरियो की वस्ती होने से इस का नाम मोती कटरा पड़ा जान पड़ता है । जती कटरा में भी दिगम्बर व श्वेताम्बर मंन्दिर है । जिनमे प्राचीन व मनोग्य प्रतिमाएं विराजमान हैं । । २४१ नुनिहाई व सिकंदरा भी पुरानी बस्तियां है और दिगम्बर जैन मंदिर भी हैं परन्तु प्राचीनता प्रायः नष्ट हो गर्द या श्रावको की आधुनिक एवं नवीन प्रियता के कारण लुप्त हो गई है । बादशाही जमाने मे नुनहाई व शहादरा सम्पन्न वस्तिया थी । पुराने मकानों के खडहर भागवत के योतक है। निहाई सहादरा आगरा मुगलसराय मार्ग पर स्थित होने से बादशाही काल में मुगल फोजो का पड़ाव रहता था। नुनिहाई के पास ही जमुना किनारे-किनारे बादशाही इमारतो की लाइन है जिनमें रामबाग, संवद का बाग, चौबुरजा, चीनी का रोजा, ग्यारह सिड्डी आदि व नवलखा बाग (जो आजकल नवल गज कहलाता है । ) आदि मुख्य है । इस समय वेलनगज, धूलियागज, पत्तलगली गुदड़ी, घाटिया, अाजम ला, राजा मन्डी नाई भन्डी, छीपीटोना, पोर कल्याणी आदि मोहल्लों में करीब ३० मंदिर व स्यालय दिगम्बर जैन ग्राम्नाय के और मोती कटरा व रोशन मोहल्ला के अलावा वेलनगंज मे भी व्वेताम्बर आम्नाय के मंदिर है यह प्रायः सब मंदिर १०० साल के अन्दर के बने हुए है। कोई-कोई १०-१२ वर्ष के पुराने ही है। नित्य पूजन दर्शन करना यद्यपि प्रत्येक जैन स्त्री-पुरुषबालवृद्ध के लिए वस्तु यह प्रवृत्ति घटती जा रही है खास कर पढे-लिखे याधुनिक युवा वर्ग मे शिवाय मेवों मे मनोरजनायें सम्मलित होने के मंदिर जाने की प्रवृत्ति मिटती जाती है। कभी-कभी यह सोचकर कि इतने मंदिरों की रक्षा, व व्यवस्था भविष्य में किस प्रकार होगी, खेद होता है परन्तु फिर भी नित्य नवीन मंदिर और मूर्ति निर्माण की प्रवृत्ति-समाज मे धन वृद्धि के साथ-साथ वढ रही है। यह प्राचयं और चिन्ता का विषय है । ⭑ नोट- नुनिहाई मे वार्षिक कलशाभिषेक प्राचीन काल से होते चले आये है । उत्सव के उपरान्त जनता एतमादुल्ला के बगीचे में ठहर कर भोजन करती थी। गत २ वर्षों से जैनों की उपेक्षा और कम जोरी के कारण पुरातत्व विभाग बन्द कर दिया है । इसी प्रकार सिकन्दरा व ताऊ के बगीचो मे भी उत्सव के बाद भोजन करने का अधिकार बादशाही जमाने से चला भाता है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में आत्म-तत्त्व विचार श्री लालचन्द जैन शास्त्री एम. ए. प्रात्मा दार्शनिक जगत् का सबसे अधिक महत्वपूर्ण में स्पष्ट रूप से व्यापक बतलाकर सर्वत्र उसका निवासतत्व माना गया है । इसलिए संसार के सभी ऋषि, मुनि, स्थान स्वीकार किया गया है।' दार्शनिकों एवं वैज्ञानिकों ने प्रात्मा को अपने चिंतन का बाद के भारतीय दर्शन में प्रात्मा के परिमाण के केन्द्रबिन्दु बनाया है। जीवन के चारों पुरुषार्थ का एक विषय में तीन प्रकार की विचारधाराएं उपलब्ध होती मात्र साधन प्रात्मा ही है ऐसा प्रायः सभी दार्शनिकों ने स्वीकार किया है।' जैन दर्शन मे पात्मा उपयोगस्वरूप, स्वामी, कर्ता, भोक्ता, स्वदेह परिमाण, प्रमूर्तिक और कर्म १-मारमा प्रणुपरिमाण वाला है संयुक्त माना गया है। [प्रात्मा को स्वदेह परिमाण मान रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य, वल्लभ मतानुयायी, कर दार्शनिक जगत को आश्चर्य में डाल दिया ] अात्मा निम्बार्काचार्य, महाप्रभू चैतन्य, कबीरदास एवं मीराबाई का परिमाण एवं उसके निवासस्थान के विषय मे काफी ने प्रात्मा को बाल हजारवें भाग के बराबर अणुपरिमाण मतभेद दृष्टिगोचर होता है।' वाला माना है। यह अणु परिमाण बाला प्रात्मा हृदय पनिषदो मे प्रात्मा के परिमाण में कोई एक सुनि- में निवास करता है।" वादरायण का मत है कि जीवात्मा श्चित विचारधारा परिलक्षित नहीं होती है। कही पर एक शरीर को छोडकर लोकान्तर मे जाता है इससे पात्मा को व्यापक स्वीकार किया गया है तो अन्यत्र सिद्ध है कि प्रात्मा अणु रूप है। निम्बार्काचार्य ने प्रात्मा प्रणपरिमाण वाला मान कर हृदयस्थ माना गया है। का अणु परिमाण वाला मान कर प्रात्मगणों की अपेक्षा इसी प्रकार दूसरे स्थान में प्रात्मा को नख से सिख तक से उसे विभु स्वीकार किया है। रामानुजाचार्य का मन व्याप्त मानकर देह परिमाण माना गया है। किन्तु गीता है कि अणु परिमाण वाला जीव ज्ञानरूपी गुण के द्वारा समस्त शरीर के सुखादि संवेदन को अनुभव करने में १. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गये है। समर्थ है। जैसे दीपक की शिखा यद्यपि छोटी होती है २. भौतिकवादी दार्शनिकों को छोड़कर । तथापि सकोच विस्तार गुण से युक्त होने के कारण समस्त ३. पञ्चास्तिकाय गाथा २७ । पदार्थों को प्रकाशित करती है।" यदि प्रात्मा को अणु न ४. पञ्चदशी ६७८ । न माना जाय तो परलोक गमन नही हो सकता है। ५. महान्तं विभुमात्मान मत्वा धीरो न शोपति । प्रणु प्रात्म परिमाण मानने वालो का मत है कि व्यापक कठो० १।२।२२ मात्मा परलोक गमन नही कर सकता एवं देह परिमाण वेदाहमेतमजर पुराण, सर्वात्मान सर्वगत विभत्वात् । श्वे० २०१२ ६. गोता २१२४-नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचतोऽय सनातनः ६. संगुष्टमात्र: पुरुषो मात्मनि तिष्ठिति । १०. पञ्चदशी ६१। कठो०२।१:१३, श्वे० ३।१३, बृहदारण्यक ५६७, ११. डा० राधाकृष्ण-भारतीय दर्शन १.६६२। छा० ३७४।३। १२. डा० राधाकृष्णन-भारतीय दर्शन भाग २, पृ०७५३ ७. मेषीतकी ४।२०। १३. ब्रह्मसूत्र रामानुज भाष्य २।३।२४-२६, डा. राधा८. मनु० १०५६ । कृष्णन भारतीय दर्शन माग २ पृ.६६३ । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन दर्शन में प्रात्म-तत्त्व विध र . २४३ मात्मा अनित्य हो जाता है इसलिए प्रात्मा को प्रणु परि- तरह से प्राकाश सर्वत्र व्यापक है, कोई भी ऐसा स्थान माण मानना ही उचित है ।। नहीं है जहाँ प्रात्मा न हो उसी प्रकार प्रात्मा भी सर्वत्र अण परिमाणवाद की समीक्षा व्यापक है। विभ प्रात्मा अपने कर्म के अनुसार प्राप्त (१) प्रात्मा के अणु परिमाण के सिद्धान्त की मभी भोगायतन में रहकर अपने सुख-दुखो का अनुभव करता दार्शनिको ने आलोचना की है। जैन दार्शनिको का कहना है। ग्रात्मा को सर्वत्र व्यापक मानने वाले प्रात्मा को है कि प्रात्मा को अणु परिमाण मानने पर शरीर की निष्क्रिय मानते है । आत्मा को व्यापक मानने का कारण समस्त संवेदनामो का अनुभव होना असम्भव है।' जिस यह है कि अदृष्ट प्रात्मा का गुण है जो सर्वत्र व्याप्य स्थान विशेष मे प्रात्मा रहता है सिर्फ उमी स्थान के सवे. रहता है, क्योकि सर्वत्र भोग की उपलब्धि होती है। गुण दनों का वह अनुभव कर सकेगा। इसलिए प्रात्मा को बिना गुणी के नहीं रह सकता, इससे मानना पड़ता है कि प्रणु परिमाण पानना उचित नहीं है। मात्मा व्यापक है । यदि प्रात्मा को व्यापक न माना जाय (२) अणु रूप प्रात्मा अलात चक्र के समान पूरे शरीर तो उसे या तो प्रणु परिमाण मानना पड़ेगा या मध्यम मे तीव्र गति से घूम कर समस्त शरीर मे सुख दुःखादि का परिमाण किन्तु अणु परिमाण और मध्यम परिमाण दोनों अनुभव कर लेता है। ऐसा मानना भी उचित नही है सदोष हैं इसलिए प्रात्मा को व्यापक मानना ही उचित क्योकि जिस समय प्रात्मा किसी अंग मे; चक्कर करता है। देह परिमाण सिद्धान्त मे सावयव प्रात्मा प्रनित्य हो हुप्रा पहुंचेगा; उसी समय अन्य अगों से उसका संबध जायेगा, जिससे कृत नाथ प्रकृताम्यागम दोष उत्पन्न हो मही रहेगा इसलिए वे अचेतन हो जायेगे। अतः अन्तराल जायेगा । कहा भी है :मे ही सुख का विच्छेद हो जायेगा। इसलिए प्रात्मा को सांशस्य घटवन्नामो भवत्येव तथा सति । अणु रूप मानना उचित नही है। कृतनाशाऽकृताभ्यागमयोः को वारको भवेत् ॥" (३) अणु परिमाण आत्मा मानने से युगपद दो प्रतः प्रात्मा को व्यापक मानना ही उचित है। इन्द्रियों में ज्ञान नहीं होना चाहिए, मगर नीबू का नाम व्यापक प्रात्मवाद की समीक्षा सुनते ही रसना इन्द्रिय मे विकार उत्पन्न हो जाता है। जैन दार्शनिक प्रात्मा व्यापक नही मानते है क्योकि इससे सिद्ध है कि ग्रात्मा अणु परिमाण नहीं है। अमित प्रत्यक्ष प्रमाण से अपने शरीर मे ही सुखादि स्वभाव वाले गति श्रावकाचार (४॥३-४) मे एवं स्वामी कार्तिकेय ने प्रात्मा की प्रतीति होती है, दूसरे के शरीर मे और पन्त(क:० अनु० भाग०, २३५) मे इस मत की समीक्षा की है। राल (वीच) मे प्रात्मा का अनुभव नही होता है। यदि प्रात्मा सर्वत्र व्यापक है सभी को सर्वत्र अपनी प्रात्मा की प्रतीति होने लगे तो अणु परिमाण सिद्धान्त की शांकराय ने भी कड़ी सभी सर्वज्ञ हो जायेगे एवं भोजनादि व्यवहार मे भयकर मालोचना की है। इसलिए अद्वैत और बेदान्त, न्याय- (मिश्रता) दोष होने लगेगा। प्रतः प्रत्यक्ष प्रमाण से वैशेषिक साख्य-योग, प्रभाकर और कुमारिल ने प्रात्मा सिद्ध है कि प्रात्मा व्यापक नहीं है। को प्रण परिमाण न मान कर आकाश की तरह सर्वत्र आकाशवत्सवंगतो निरशः श्रुति संयतः ॥ व्यापक (विभ) एव महापरिमाण वाला माना है। जिस पञ्चदशी ६८६ १. तत्वार्थ श्लोक वार्तिक पृ० ४०९, प्रमे० २० मा. ५. प्रकरण पञ्चिका, पृ० १५७-८ । पृ०२६५। ६. स च सर्वत्र कायोपिलम्भाद विभुः, २. प्रमेय रत्नमाला प० २६५ । परममहत परिमाण वानित्यर्थ । ३. राधाकृष्णन - भारतीय दर्शन भाग २, पृ० ५९६-७, केशव मिश्र-तर्क भाषा, पृ० १४६ ब्रह्मसूत्र शांकर भाष्य २।३।२६ । ७. पञ्चदशी ६८५।। ४. तस्मादात्मा महानेव नवाण पि मध्यमः । ८. प्रमेयकमलमार्तण्ड १०५७०, न्याय कुमुदचंद्र पृ. २६१ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ वर्ष २४,कि.६ अनेकान्त अनुमान प्रमाण से भी यह सिद्ध नहीं होता है कि प्रसज्जरूप प्रभाव तुच्छाभाव होता है जो किसी प्रमाण जैसे-प्रात्मा परममहत् परिमाण का का विषय न होने से सिद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है कि अधिकरण नही है क्योंकि वह क्रियावाला है, जो क्रिया- यदि तुच्छाभाव को सिद्ध मान भी लिया जाय तो प्रश्न है वह परममहत-परिमाण का का अधिकरण होता है कि यह साध्य का स्वभाव है अथवा कार्य ? यदि नहीं होता है। मैं 'एव योजन गया', 'मैं मा गया' इत्यादि तच्छाभाव को माध्य का प्रभावों से प्रात्मा क्रिया वाला है, यह सिद्ध हो जाता तर माध्य मे भी: तरह साध्य मे भी तुच्छाभाव मानना पड़ेगा। तुच्छाभाव और मन अथवा शरीर क्रियावान नही है क्योकि 'मह' में कार्यत्व कभी सिद्ध नही हो सकने के कारण उसे साध्य प्रत्यय के द्वारा मन अथवा शरीर की प्रतीति नही होती का कार्य भी नहीं माना जा है। अन्यथा चार्वाक सिद्धान्त मानना पड़ेगा।' एक मोर व्यापक हम माय की मान में भी प्रात्मा मे अव्यापकत्व सिद्ध किया जा था वह सदोष होने से 'पारमा व्यापक है, यह सिद्ध नहीं सकता है-प्रात्मा व्यापक नही है क्योकि वह चेतन है, जो होता है।' व्यापक होता है वह चेतन नही होता है जैसे माकाश अदृष्ट प्रात्मा का गुण न होकर कर्म है, इसलिए प्रात्मा चेतन है इसलिए प्रात्मा व्यापक नही है। 'प्रदष्ट क्रिया का हेतु है' यह मानना भी ठीक नही है। प्रात्मा को व्यापक मानने मे यह तर्क दिया गया था यदि पूर्वपक्ष कहे कि अदष्ट क्रिया हेतु है। क्योकि देवदत्त किमामा व्यापक है क्योकि अणु रिमाण का अधिकरण के शरीर से संयुक्त प्रात्मप्रदेश में वर्तमान प्रदष्ट द्वीपान्तर नही है तथा प्राकाशादि की तरह नित्य द्रव्य है। वर्ती मणिमुक्तादि की देवदत्त की प्रतिक्रिया मे हेतु है। जैन दार्शनिको का कथन है कि 'प्रात्मा अणुपरिमाण ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर संयुक्त प्रात्मवाला नही है' यह निषेध पर्युदासरूप है अथवा प्रसज्य प्रदेश मे वर्तमान अदृष्ट का द्वीपान्तरवर्ती द्रव्यों से यदि निषेध पयुस रूप माना जाता है तो उस सबंध होना असभव है। अब यदि यह माना जाय कि प्रतिषध या तो महापरि होगा अथवा मध्यम परिमाण, द्वीपान्तरवर्ती द्रव्य से संयुक्त प्रात्म-प्रदेश में वर्तमान क्योंकि पयूस भावान्तर स्वरूप होता है। यदि पयुदास अदृष्ट मणिमुक्तादि की प्रतिक्रिया मे हेतु है तो यह भी महापरिमाण स्वरूप माना जाय, तो हेतु साध्य के समान ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र किया गया। हो जायेगा। इसलिए अणुपरिमाण निषेध का अर्थ महा- प्रयत्न दूसरे स्थान की क्रिया में हेतु नहीं हो सकता परिमाण तो माना नहो जा सकता है। इसी प्रकार से है। यदि कहा जाय कि सुप्रदृष्ट सर्वत्र रहता है इसलिए नावान्तर परिमाण भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि क्रिया मे हेतु है, तो ऐसा मानना भी ठीक नही है। क्यों देत प्रात्मा मे व्यापकरव की सिद्धि न करके मध्यम परिमाण कि यदि अदृष्ट सर्वत्र रहता है तो उसे द्रव्यों की क्रिया में की सिद्धि करेगा, इसलिए विरूद्ध हेत्वाभास नामक दोषसे हेतु होना चाहिए। ऐसा मानना भी ठीक नही कि जो देत दषित हो जायेगा। अत: 'अणुपरिमाण के निषेध' का अद्रष्ट जिस द्रव्य को उत्पन्न करता है वह उसी द्रव्य में अर्थ पयर्दास रूप नही है यह सिद्ध हो जाता है।' क्रिया करता है, अन्यथा नही। क्योंकि शरीर के प्रारम्भक यदि 'प्रणपरिमाण के प्रतिरोध' का तात्पर्य प्रसज्ज अणुनों की उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिए उनमे प्रदृष्ट से रूप माना जाय तो हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास से दूषित हो क्रिया न हो सकेगी। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है जाने के कारण साध्य की सिद्धि संभव नही है। क्योकि कि 'मदृष्ट' क्रिया में हेतु नहीं होने के कारण, मात्मा १. प्रमेयकमल मार्तण्ड पु. ५७० । व्यापक है यह सिद्ध नहीं होता है।' २. वही पृ० ५७१। ४. प्रमेय क० मा० पृ० ५७१, प्रमेयरत्नमाला पृ० २९७ ३. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ५७१, न्यायकुमुदयन्द पृ० ५. न्याय कुमुद चन्द्र पु० २६४ । २६२, प्रमेयरत्नमाला पृ० २६२ प्रमेय कमल मार्तण्ड पु. ५६४ । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में प्रात्म-सस्व विचार २४५ प्रात्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए दिया गया के गुण ज्ञानादि पात्मा में पाये जाते हैं। जिसके गुण अनमान "मात्मा के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है, जहाँ होते हैं वहाँ वह वस्तु होती है जैसे घड़ा के रूप-रंग इसलिए प्रात्मा प्राकाश की तरह व्यापक है।" यह भी प्रादि जिस स्थान पर पाये जाते हैं वहाँ घडा अवश्य होता ठीक नहीं है क्योंकि 'सर्वत्र गुणों की उपलब्धि होती है' है। इसी प्रकार प्रात्मा का गुण चैतन्य पूरे शरीर में ही इसका तात्पर्य क्या यह है कि अपने ही शरीर में सर्वत्र पाया जाता है। जिस वस्तु के जहाँ गण उपलब्ध नहीं गणों की उपलब्धि होती है ? यदि हाँ तो ऐसा मानने से होते है वहाँ वह वस्तु नहीं होती है जैसे अग्नि के गुण देत विरुद्ध हो जायेगा क्योंकि स्वशरीर मे गुणों की जल मे नही रहते हैं इसलिए अग्नि जल मे नही उपलब्ध उपलधिहोने से प्रात्मा भी स्वशरीर मे ही रहेगा अन्यत्र होती है । इसी प्रकार प्रात्मा के गण शरीर के बाहर कही नहीं । अब पूर्वपक्ष यह कहे कि स्वशरीर की तरह पर भी उपलब्ध नहीं होते है। इसलिए प्रात्मा शरीर के शरीर मे भी गणों की उपलब्धि होती है, इसलिए आत्मा बाहर कही नहीं है। अत: चेतनता परे शरीर में व्याप्त यापक पर शरीर में बुद्धयादिगुणो की उपलब्धि नहीं होने के कारण प्रात्मा को भी पूरे शरीर में व्याप्त मानना देखी जाती है इसलिए हेतु प्रसिद्ध हो जाने से उक्त कथन चाहिए । दूसरी बात यह है कि शरीर के किसी भी भाग भी ठीक नहीं है। यदि पर शरीर मे बुद्धधादि गुणों की में वेदना होती है उसकी प्रतिमासा उपलब्धि होने लगे तो प्रत्येक प्राणी को सर्वज्ञ मानना है। इससे सिद्ध होता है पडेगा। इसी प्रकार से शरीर शून्य प्रदेश मे गुणों की है। सुख-दुःख का प्रभाव शरीर के किसी स्थान विशेष उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए अन्तराल में भी गुणों को पर न पडकर शरीर के प्रत्येक भाग पर पड़ता है - जब उपलब्धि होती है, यह भी सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति को सुखद समाचार प्राप्त होता है जैसे मित हो जाता है कि गणो की सर्वत्र' उपलब्धि होती पूत्र रत्न की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, इष्ट सयोग प्रादि] है।' यह हेतु सदोष होने के कारण 'आत्मा व्यापक है' तो उस समय उसका चेहरा खिन जाता है एव एक नवीन यह सिद्ध नहीं होता। कान्ति की प्राभा मुख मण्डल पर छा जाती है, शरीर में - आत्मा को व्यापक मानने में एक कठिनाई यह भी है रोमाच उत्पन्न हो जाता है, शरीर में उत्साह उत्पन्न हो कि प्रात्मा ईश्वर मे भी व्याप्त हो जायेगी। जिसके कारण जाता है, पात्मिक शक्तियां विकसित हो जाती है। इसी मात्मा और ईश्वर मे भेद करना असभव हो जायेगा। प्रकार से दुखद समाचार सुनकर अथवा इष्ट जनो के इसी प्रकार से व्यापक प्रात्मा मानने से कर्ता, भोक्ता. वियोग होने से मुख उदास हो जाता है, अग शिथिल हो बघ मोक्ष प्रादि असम्भव हो जायेंगे। इसलिए प्रात्मा जाते है, हृदय उत्साहहीन हो जाता है, शरीर को चमक को व्यापक मानना ठीक नही है। अमतिगति ने एवं नष्ट हो जाती है एव आत्मिक शक्तियां मिकुड जाती है। स्वामी कार्तिकेय ने भी इस सिद्धान्त की समीक्षा की है। सुख-दुःखादि के प्रभाव से प्रात्मा एव शरीर दोनो प्रभा(३) प्रात्मा मध्यम परिमाण वाला है ६. जीवो तणुमेत्तत्थो जघ कुभो तम्गुणोवल भातो। जैन दर्शन में प्रात्मा को मध्यम परिमाण वाला अवधाऽणुवलभातो भिण्णम्मि घडे पडस्सेव ।। अर्थात् देह परिमाण के बराबर माना है। क्योकि प्रात्मा -विशेषावश्यक भाष्य (गणधर वाद) १५८६ १. प्रमेयक पृ० ५६६ । स्याद्वाद मञ्जरी श्लोक ६, २. स्याद्वाद मञ्जरी प०६६ । ७. दिगम्बरा मध्यमत्वमाहुरापादमस्तकम् । ३. विशेषावश्यक माहम (गण) गा० १३७६ । चैतन्यव्याप्तिसंदृष्टेदाननश्रुते रपि । ४. प्रमतिगति श्रा. ४।२५-२६, का. अनुप्रेक्षा गा. १७७ पञ्चदशी ६१८२ ८. जीव एव शरीरस्थश्चेष्टते सर्वदेहगः। ५. "वेहमात्र परिच्छिन्नो मध्यमो जिनसम्मतः॥" शरीर व्यापिनीः सर्वाः स च गृहातिसद्गति वेदनाः ।। दर्शन मीमांसा ५से उद्धत केशवमिश्र तर्कभाषा के. तर्कभाषा .. ५२ पृ० १५५ से उद्धजनसम्मतः॥"" Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६, बर्ष २४, कि०६ अनेकान्त वित होते हैं इससे सिद्ध है कि प्रात्मा पूरे शरीर में व्याप्त उक्त प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रात्मा में दीपक है। "मात्मा के रहने का स्थान विशेष जानने के लिए की तरह संकोच विस्तार की शक्ति होती है। इसी शक्ति मनुष्य के कमों को ध्यानपूर्वक देखना एवं अन्वीक्षण करना के कारण एक जीव लोक के मसंख्यातवें भाग में भी रह होगा।.......। इस प्रकार सुख या दुःख देने वाले कार्य सकता है। उमास्वामी ने तत्स्वार्थ सूत्र में कहा भी हैका प्रभाव प्रात्मा की प्रत्येक शक्ति, मानसिक चेष्टा एवं “प्रदेशसंहारविसम्यां प्रदीपवत' यहाँ पर 'सहार' शरीर के प्रत्येक भाग पर पड़ता है। ऐसा प्रतीत नहीं शब्द का अर्थ है सिकुड़ना, जिस तरह से सूखा चमड़ा होता है कि इन कार्यों का प्रभाव केवल मस्तिष्क, हृदय सिकुड़ कर छोटा हो जाता है, उसी प्रकार जीव के या अन्य किसी निश्चित स्थान पर पड़ता हो और अन्य प्रदेशों में भी संहार की शक्ति होती है। इसी प्रकार स्थान प्रभावित न होते हों। इस घटना से शरीर का विसर्प शब्द से तात्पर्य है फैलना । जिस प्रकार तेल की प्रत्येक भाग प्रभावित होता है-प्रकट होता है कि प्रात्मा एक बंद पूरे पानी में फैल जाती है उसी प्रकार जीव के शरीर के प्रत्येक भाग में विद्यमान है। प्रदेश विसर्प शक्ति के कारण शरीर मे फैल सकते है। आत्मा को मध्यम परिमाण मानने का दूसरा कारण उदाहरणार्थ-यदि एक दीपक को खुले मैदान में रख यह है कि प्रात्मा को जैन दर्शन में अस्तिकाय' नामक दिया जाय तो पूरे मैदान को प्रकाशित करता है। और स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है' । काय का अर्थ है प्रदेश, एक यदि उसी दीपक को एक बन्द कमरे मे रख दिया जाय तो अविभागी परमाणु प्राकाश के जितने स्थान को घेरता है वह प्रकाश को संकुचित करके उसी कमरे को प्रकाशित उसे प्रदेश कहते है। [यद्यपि 'प्रदेश' को अवयव कह करेगा । इसी प्रकार संसारी प्रात्मा संकोच रूप विसर्प सकते है मगर अवयव और 'प्रदेश' में भेद माना जाता शक्ति के कारण शरीर के परिमाण अनुसार होकर उसी है। स्याद्वाद म०प०६७] इस तरह के 'प्रदेश' एक में पूर्ण रूप से प्राप्त होकर रहता है। इसलिए यह सिद्ध आत्मा में असख्य होते है। ये असख्यात् प्रदेश वाले हो जाता है कि जिसका जैसा सूक्ष्म, स्थूल, छोटा, बड़ा अनन्तान्त जीव लोकाकाश में रहते है। किन्तु एक जीव शरीर होता है उसकी प्रात्मा भी उसी प्रकार की होती कम से कम लोकाकाश के असख्यातवें भाग में रह सकता है। जिस प्रकार शरीर की वृद्धि होती है उसी प्रकार है । यहाँ पर शंका यह होती है कि प्रात्मा और प्राकाश मात्मा का परिमाण भी बढ़ता है। यदि शरीर के अनुके प्रदेश के बराबर है तो एक जीव लोक के असख्यातवे सार वही आत्मा न बढती तो बचपन की स्मृति युवाभाग मे किस प्रकार रहता है ? वस्था मे नही होनी चाहिए, मगर स्मृति होती है इससे १. रतनलाल जैन-पात्म रहस्य पु० ६० । सिद्ध है कि शंशवास्था और युववस्था में वही प्रात्मा २. सति जदो तेणेदे प्रत्यित्ति, भणति जिणवरा जम्हा। रहती है जो शरीर के परिमाण के अनुसार 'घटती-बढ़ती काया इव बहुदेशा तम्हा, काया य अस्थिकाया य ।। रहती है। ___ an E४ मात्मा में संकोच विस्तार होने का कारण-मात्मा तत्त्वार्थ राजवातिक ११७ में संकोच विस्तार को शक्ति क्यो ? इसका उत्तर यह है जीवा पुग्गल काया धम्माघम्मा तहेव मायासं । ५. लोकासंस्सेयभागादावस्थानां शरीरिणाम् । अंशाः विसर्प-सहारी दीपानामिव कुर्वते ।। ते होंति अस्थि काया......" योगसार-प्राभूत २।१४ पञ्चास्तिकाय गाथा ४-५ ६.५।१६ । ३. प्रसस्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मक जीवानाम् । ७. तत्त्वार्थ राजवातिक ५।१६।। तत्त्वार्थ सूत्र शः ८. तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक पु०४०६ । ४. लोकाकाशेऽवगाहः ।-वही ५॥१२ ६. वही पृ० ४०६ । x Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवन में प्रात्म-सत्व विचार जिसे मन्य दर्शनों में सूक्ष्म शरीर कहा गया है उसी को देह परिमाण स्वीकार करके, उसे संकोच विस्तार गुण जैन दर्शन में कार्मण शरीर कहा गया है। यही कार्मण वाला माना है। शरीर के कारण प्रात्मा के प्रदेशों में सकोच विस्तार इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि संसारी मात्मा होता है। यद्यपि प्रात्मा स्वभाव से प्रमूर्तिक है किन्तु देहपरिमाण ही है और वह पूरे शरीर मे ही व्याप्त होकर मनादिकाल से कर्मों के साथ रहने के कारण कथंचित् रहता है। शरीर के बाहर मात्मा के गुण उपलब्ध न मूर्तिक भी है। इसलिए कर्म के अनुसार ससारी प्रात्मा होने से प्रात्मा शरीर के बाहर नहीं रहता है। मतः को जैसा शरीर उपलब्ध होता है उसे उसी में रहना प्रात्मा देहपरिमाण ही है। कहा भी हैपड़ता है । यहा तक कि चीटी की प्रात्मा हाथी के शरीर सुखमाल्हावनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । में [विसर्पण शक्ति के कारण पूर्व जन्म में] व्याप्त होकर शक्तिक्रियानुमेया स्याव्यनः कान्ता समागमे । रह सकता है और इसी प्रकार हाथी (कर्म के अनुसार माक्षेप और परिहार मृत्यु के बाद) की मात्मा चीटी के शरीर में रह सकता सभी भारतीय दर्शनों ने इस सिद्धान्त की तीव्र है। जब तक कार्मण शरीर रहता है तब तक ससारी मालोचना की है। संक्षेप मे कुछ प्राक्षेपों का विवेचन मात्मा में संकोच विस्तार अवश्य ही होता रहता है। किया जाता हैकिन्तु जब कार्मण शरीर के साथ नहीं होता है उस समय (१) यदि मात्मा संकोचविस्तार शक्ति युक्त है तो मात्मा मे संकोच विकास नहीं होता है। यही कारण है वह सिकुड़ते-सिकुड़ते इतना छोटा क्यों नहीं हो जाता है कि मुक्त प्रास्मा कार्मण शरीर से रहित होने के कारण कि प्राकाश के एक प्रदेश में एक ही जीव रह सके ? संकोच विस्तार की परिक्रमा से रहित होती है । मुक्ता और इसी प्रकार 'विसर्पण' शक्ति के कारण सम्पूर्ण लोक में वस्था में प्रात्मा अपने स्वाभाविक स्वरूप को प्राप्त कर (लोकाकाश और प्रलोकाकाश) क्यों नही फैल जाता लेता है। इसलिए ससारी प्रात्मा में ही कार्मण शरीर के है? प्रथम प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रात्मा कामण शरीर कारण सकोच विस्तार होता है। किन्तु केवली समुदघात के कारण असकुचित होता है और कार्मण शरीर छोटा से अवस्था की दृष्टि से प्रात्मा तीनो लोकों में व्याप्त हो छोटा अगुल के असंख्यातवें भाग के बराबर ही हो सकता सकता है। इसी तरह से ज्ञान की दृष्टि से भी प्रात्मा है, इसलिए जीव इससे छोटा नही हो सकता है। जीव को सर्वव्यापक जैन दर्शन मे माना गया है। क्योकि जैन कांड' में प्रगुल के असख्यातवे भाग शरीर परिमाण वाला दर्शन में ज्ञान और प्रात्मा को भिन्न-भिन्न न मानकर जीव मूक्ष्म निगोदियालब्धपर्याप्तक बतलाया गया है। अभिन्न माना गया है । ज्ञान एवंगत है इसलिए इस दृष्टि इससे छोटा कोई जीव नही होता है । इसी प्रकार विसर्पण से प्रात्मा सर्वव्यापक है। शक्ति के कारण प्रात्मा अपने को लोकाकाश तक ही विस्तृत कर सकता है। क्योकि लोकाकाश के बराबर ही मगर यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि इसके जीव के प्रदेश होते है। इसलिए स्वयंभूरमण समुद्र के मध्य विपरीत रामानुजाचार्य ने 'ज्ञान' की दृष्टि से प्रात्मा को में रहने वाला महामत्स्य, जो कि हजार योजन लम्बा १. पुंसा संहार विस्तरो संहारे कर्मनिमित्तौ । पाँचसौ योजन चौड़ा और ढाई सौ योजन मोटा होता है। तत्त्वानशासन २३२ सबसे बड़ा जीव है, इससे बड़ा कोई जीव नहीं होता है। २. पञ्चास्तिकाय गाथा ३२-३३, तत्त्वार्थ श्लोक मलोकाकाश तक जीव के फैलने का दूसरा कारण वहाँ वातिक पृ० ४००। 'धर्म' द्रव्य का प्रभाव है। ३. मुक्तो तु तस्य तो नएत: क्षयातर्खतुकर्मणाम् । तत्वानुशासन श्लो० २३२ ६. अनन्तवीर्य-प्रमेयरत्नमाला १० २९७ ४. स्यावाद मञ्जरी १०३ । ७. गोम्मटसार जीव कांड गाथा १४ ५. प्रवचनसार १०२३-२७ । ८. वही गाथा १५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८२४, कि०६ ( २ ) मध्य परिमाण सिद्धान्त में अन्यदर्शनों की भाँति शकर ने भी यह दोष बतलाया है कि आत्मा श्रवयव वाले एव अनित्य शरीर में रहता है तो उसे भी श्रनित्य मानना पड़ेगा और अनित्य होने से मोक्षादि संभव न हो सकेगे। उक्त प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि भात्मा को अनित्य तो उस समय माना जा सकता था, यदि उसके अवयव किसी अन्यद्रव्य के संघात से कारण पूर्वक बने होते । जिस वस्तु के अवयव सकारण होते हैं वह विनाशशील होती है जैसे कपड़ा तंतु वयवो सा बना होता है इसलिए तंतुओं के क्षीण-जीर्ण होने से कपड़ा नष्ट हो जाता है । किन्तु जिस पदार्थ के श्रवयव श्रकारण पूर्वक होते है उसके अवयव नष्ट नहीं होते है। जैसे परमाणु के अवयव किसी कारणपूर्वक नही होते हैं इसलिए श्रवयव विश्लेषण करने पर वह नष्ट नही होता है। इसी प्रकार प्रविभागी द्रव्यस्वरूप आत्मा के प्रवयव घट-पट जैन होकर परमाणु की तरह प्रकारण पूर्वक होते है इसलिए आत्मा श्रवयव विश्लेषण करने पर नष्ट नही होता है। अतः द्रव्यायिक नय की अपेक्षा से आत्मा नित्य या विनाशशील नही है । इसलिए मोक्षादि के नाव की समस्या जैन सिद्धान्त में नही उत्पन्न होती है। दूसरी बात यह है कि पर्यायार्थक नय की अपेक्षा जैन सिद्धान्त में प्रात्मा को कयचित् अनित्य माना है। कम्पन क्रिया विना क्योकि शरीर के कटे हुए अंग मे आत्मप्रदेशो के संभव नहीं हैं। कमल नाल का उदाहरण 이 यह भी बतलाया गया है कि छिन्न अंग मे श्रात्म अपने पहले वाले शरीर के भ्रात्मप्रदेशो मे पुनः पष्ट हो जाते हैं, यही कारण है कि यह नहीं कहा जा सकता है कि छिन्न अंग की श्रात्मा पूर्व शरीर की श्रात्मा म भिन्न है'। इसलिए यह कहना कि आत्मा अनित्य है पि नहीं होता। (३) मध्यम परिमाण सिद्धान्त में एक कठनाई यह शाकर भाष्य २।३३-३६, डा० राधा कृ० भा० द० भाग १ पृ० २८६ तवायंश्लोकवार्तिक पृ० ४०१ तत्वार्थ राजवार्तिक पृ० ४५६ ३. स्वाद्वादमञ्जरी पृ० १०२ प्रमेय क० मा० पृ० ५०६ ? २. अनेकान्त भी कही जाती है कि सक्रिय आत्मा मूर्तिक हो जाने से मूर्त शरीर में कैसे प्रवेश कर सकता है ? इसका उत्तर यह है कि यदि पूर्वपक्ष मूर्त का अर्थ 'असवंगत द्रव्य परिमाण मानता है तब तो जैन सिद्धान्त मे कोई दोष नही है क्योकि इस सिद्धान्त मे प्रसर्वगत द्रव्य परिमाण वाला श्रात्मा स्वीकार किया गया है । और यदि मूर्तिक सेवापर्य 'रूपादिवाला है, तो मानना भी ठीक नहीं है क्योंकि यह कोई व्याप्ति नहीं है कि जो सक्रिय हो वह मूर्तिक ही हो। श्रौर यदि उक्त व्याप्ति मानी भी जाय तो न्यायवैशेषिक सिद्धान्त मे सक्रिय मन को रूपादियुक्त मूर्ति को मानना पड़ेगा । श्रतः समान दोष होने से जिस प्रकार मूर्तिक मन शरीर मे प्रवेश कर सकता है उसी प्रकार मूर्तिक आत्मा का शरीर में प्रवेश समझना चाहिए' । इसके अलावा जल प्रादि रूपादियुक्त मूर्तिक द्रव्य का पृथ्वी आदि मूर्तिक द्रव्य मे प्रवेश प्रत्यक्ष देखा ही जाता है इसलिए मात्मा को सक्रिय मानने में कोई दोष नही है । यदि आत्मा को सक्रिय न माना जाय तो उसे निष्क्रिय मानना पड़ेगा और ऐसा मानने से संसार का प्रभाव हो जायेगा; क्योकि निष्क्रिय आत्मा एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में गमन क्रिया नही कर सकती है । (x) एक वह भी ग्रापत्ति दी जा सकती है। कि देह परिमाण प्रात्मा दिग्देशान्नवर्ती परमाणुओं को अपने शरीर के योग्य विना सयोग किये कैसे ग्रहण कर सकेगी ? इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया कि यह कोई नियम नहीं है कि दो संयुक्त पदार्थों में श्राकर्षण नहीं हो सकता है । यद्यपि लोहा चुम्बक से संयुक्त नहीं होता है तो भी लोहे को अपनी प्रोर आकर्षित कर लेता है, उसी प्रकार प्रात्मा भी अपने शरीर के योग्य परमाणुत्रों विना संयोग किये प्राकर्षित कर लेता है। इसलिए उक्त दोष म्रात्म देह परिमाण सिद्धांत मे सभव नहीं है । अतः श्रात्मा देह परिमाण है, और वह पूरे शरीर में व्याप्त रहता है। १. २. ३. ४. न्याय कुमुदचन्द्र पृ० २६८ स्याद्वाद मं० पृ० १०१ प्रमेय क० ना० पृ० ५८० न्याय कुमुदचन्द्र २६६ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणतभँवर (रणथंभौर) का कक्का : एक ऐतिहासिक रचना अनूपचन्द न्यायतीर्थ राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में कितनी ही ऐति- इस किले मे अनेक देवी-देवतामों के मन्दिर है जिनमें हासिक रचनाएं भी उपलब्ध हुई है उनमे से एक रण- गणेशजी तथा शकर के मन्दिर उल्लेखनीय हैं। इस थंभौर का कक्का है । इन भंडारों में कक्का या बारहखड़ी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक किले की ८४ घाटियाँ तथा चारों के रूप में कई रचनाए मिलती है किंतु रणथभौर का ओर ४ दरें हैं। महागणा-हम्मीर के समय में विद्वानों कवका नामक रचना एक नई कृति प्रतीत होती है । क एव बहादुरों का सम्मान किया जाता था। हिन्दू तथा से लेकर ह तक वर्गों के प्रथमाक्षर से दोहों में यह रचना मुसलमान का कोई भेदभाव नहीं था। पंडित तथा की गयी है। दोहे का पहला अक्षर कका, गगा, चचा, खानू सत्ती वहां रहते थे। मंदिर तथा मस्जिदें धर्माराधन पादि वर्ण से प्रारम्भ होता है। इस रचना मे व्यंजन के लिए बनी हुई थी। चारों ओर अनेक प्रकार के सुगसंख्यानुसार ३३ दोहे हैं । अन्तिम दोहा पूर्ण उपलब्ध नहीं न्धित फूलो एवं स्वादिष्ट फलो से वृक्ष सुशोभित थे। है । प्रति का अन्तिम पृष्ठ फट गया है । सभव है ३३ से बड़े अच्छे-अच्छे बगीचे थे। सदा नौबत तथा शहनाई मागे भी कोई परिचयात्मक दोहे दिये हो किन्तु कृति महाराणा हमीर का यशोगान करती रहती थी। यहाँ अप्राप्य है। रचना सीताराम गूजरगौड ब्राह्मण के पुत्र के प्रसिद्ध जोरा-भौरा दोनों ही भण्डार सदैव अटूट संपत्ति वेणीराम के पौत्र मोहन की है जिसका उल्लेख ३२वें दोहे से भरे रहते थे। यहां गुप्त गंगा का निवास लक्ष्मीनाथ मे निम्न प्रकार है रामचन्द्र विकटविहारी प्रादि के मन्दिर थे । राजमहलों ससा-सीताराम सुत मोहनो विरामण गूजर गोर। के बाहर नजदीक ही मे नौबतखाना तथा जले चौक नाती वणीराम को कको बणायो जोड ॥३२॥ सुशोभित था। बड़े-बडे कुण्ड तालाब बावडो प्रादि में रणथभौर के किले का कवि ने बडे ही सुन्दर ढग से कमल खिले हुए थे। किले का स्थान बड़ा ही रमणीक महत्व बतलाते हुए यशोगान किया है। यह किला था। इसके चारों मोर चार दाजे तथा सात पोल थे। संसार में प्रसिद्ध है तथा सभी बावन किलों का दुल्हा है । किले का वर्णन पढ़ने से ज्ञात होता है कि कवि मात्मा के परिमाण के विषय मे उपयुक्त विचार. मोहन जयपुर के महाराजा माधवसिंह मे प्रशंसको में से घारामों के विवेचन के पश्चात् यह निष्कर्ष निकालना एक था। इस किले पर महाराजा माधवसिंह का माधिकि कौनसा सिद्धान्त उत्तम है, असम्भव नहीं तो कठिन पत्य था, तथा वहां किसी समय पद्मऋषि तपस्या करते अवश्य है । पुनरपि अणुपरिमाण सिद्धान्त सर्वमान्य हो नहीं थे। सब प्रकार के फलफूल खिलते थे तथा वहां के स्थान सकता है, क्योंकि हरम में रहकर प्रात्मा शरीर के अन्य एक से एक बढ़ कर थे। जयपुर के हवामहल के सदृश भागों को किसी भी प्रकार से सचेतन नहीं बना सकता है जगन्नाथ के मन्दिर तथा महल थे। इस किले का नाम देकार्ड को भी अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा रणतभंवर था तथा इसकी शोभा अपरम्पार थी। इसका था। मात्मा का सर्व व्यापक सिद्धान्त पहले की अपेक्षा वर्णन कवि के शब्दों में देखिएयुक्तियुक्त है। पाश्चात्य दर्शन में स्पिनोजा ने ईश्वर का या शोभा रणथंभ की वरणी प्रकल विचार । गुणमान कर प्रात्मा को सर्व व्यापक ही स्वीकार यो किल्लो सुवस बसो रणत भंवर जगजाहर ।। किया है। * इस किले में शीतला माता की पूजा होती थी तथा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०, वर्ष,कि०६ अनेकान्त यहाँ बड़ा भारी मेला होता था। यहां सोलह सौ गण. चचा--चंप चमेली मोगरो, मधुमालती सुगंध । पतियों की पूजा होती थी तथा पीर पैगम्बर प्रादि और केलि के बड़ो केतकी, जाबिचि गढ रणथभ ।।६।। पूजे जाते थे। इस किले के पास मे ही शेरपुरा, खिलची. छछा--छाया सीजल वृक्ष की, राज बाग को मोज । पुरा, माधोपुर, पालणपुर मादि गाँव थे तथा चारों पोर होद कवल परवण कली जाणि सुकल की दोज ।७। पहाड पर परकोटा था एवं यह किला सब किलो का जजा--जगत सगवत है सबै, धन्य कहत सब देस । सरताज था। सके ग्राम दाडिम सरस, नागी अघ वेस ।।८।। यद्यपि रचना में कोई रचनाकाल नही दिया है किंतु मझा--कहां दणवत बजरगबनी चैन तलाई ढोर । सम्भवतः यह रचना वि० सं० १७८३ अर्थात् जयपुर सदा विराजत है त। खेतर पाल पोर ।।।। बसने की बाद की तो निश्चित ही है। इसमें अन्तिम नना--नोवत बाजत है तहां, पर बाजत सहनाय । ३३३ दोहे में महाराज जयसिंह के शासनकाल मे किले छोटी बड़ी असा है, हमीर के चढनाय ॥१०॥ पर उनकी अोर से किलेदार रखा जाना प्रतीत होता है। टटा-टोटा नहीं भंडार में भरेज दोन्यू खास । हवा महल के सदृश महलों की उपमा तथा जयपुर के जोरा भरा है दौर गपति गग को वाम ॥११ । जलेब चौक के सदृश वहां भी महलों के समीप मे जलेब ठठा-ठाकुर । मिदर वहाँ लिखमीपति रघनाथ । चौक बतलाना इसके प्रमाण है। रामलाल गोपाल जी विक्ट विहारी नाथ ।।१२।। रचना ढूंढारी भाषा में है। शब्दो का चयन बर्ड डडा--डंडोवन करिये सदा मरलीघर चित लाय । सुन्दर ढंग से किया गया है। शब्दों को तोड़ मरोड कर त्रिभवनपति महाराज ज ठाकुर दाने राय ॥१३॥ रखने का प्रयत्न कतई नही किया गया है।। रचना का ढढा-ढोल घडावलि बंदुभी, नोवति खानो ढीक । क्रम भी अधिक सुन्दर है। मामूली पढ़ा लिखा भी अच्छी उपमा चोक जले बकी. त सू महल नजीक ।।१४॥ तरह अर्थ को हृदयंगम कर लेता है। णणा-राणा गजा रास वे वाकै दुव ज्या बान । यह भी सम्भव हो सकता है कि उस समय मे सवाई येस भर रण धमक, वाकी प्राज्ञा मान ।।१५।। माधोपुर से जैनों के कई मन्दिर भ्रष्ट हो गये थे और तता-ताल जंगाली पदम लो सागराणी होद । उसी साम्प्रदायिक विवेक के कारण रचनामार मोहन बब वान बड़ी कप में, पाणी भरे कमोद ॥१॥ ब्राह्मण ने जैन मन्दिर का उल्लेख किया हो। कुछ भी हो। यया-थाडो रमणीक प्रति, जहां देवन को वास । रचना ऐतिहासिक एवं महत्वपूर्ण है अतः उसे पाठको की __ जहां देवी ककालिका, वीरमाण उजयास ॥१७॥ जानकारी के लिए ज्यों की त्यों दी जाती है। ददा-दरवाजा च्यार तरफ, प्ररसुन्दर सात पोलि । -प्रप रणतभंवर को करको लिख्यते दो वरवाजे हैं तहां, नवलख सूरज खोलि ॥१८॥ कका--कही कहं बांको विकट, किल्लो है रणथंव । घषा-धन्य बरवाजो वोह को, करयो मिसाको सोय । मासि पासि सुरंगुके, सदा बजावं बंब ॥१॥ दरवाजा सोहत सवा, माझ्या लागत मो ॥१६॥ खखा-खलकम्यान जानतसर्वे, महिमा मागम प्रगाष। नना-नरपति माधो सिंघ जी, पायो गढ रणथभ । लालो बावन गढन को, देत मरदर्दू दावि ॥२॥ प्रागण सुदि वारसि दिना, पदरा साल रंब (२).२०॥ गगा--गवरी पुत्र गणेश जी, राज रहे सुर गज । पपा-पदम रिषी सुर वहाँ तप, नीर भरत सब नारि । शिवशंकर राजत लहा, सकल सुधारत काज ।।३।। बंवा ऊपर घाट पै, कुसम बाग को भार । २१॥ घषा-घाटी चवरासी विकट, बरा ध्यार चोर । विरासा विकट, बरा व्यार चहोर। फफा-फूलत गुलतुर्ग तहां, चंप मोगरो वेस । घुपरमल भई दरो, छणि खुस्याली मोर ॥४॥ वहां राजत बजरंगबली, राजत और महेस ।।२२।। मना--नारी नर को कहा काह], चली जवी लारीत। बबा-बड़े एक सूं एक है, कमठाना अद्भुत । पंडित सान है सा और जमा महजीत ॥ ५॥ जगन्नाथ के महल है, हवा महल की सूत ॥२३॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो के जैन मन्दिरों के डोर-लिटल्स पर उत्कीर्ण जैन देवियां मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी चदेलो के शासनकाल में निमित खजुराहा के पाव. के उपयुक्त तीन प्राचीन जैन मदिरों से प्राप्त कुल ५ नायव प्रादिनाथ जैन मंदि। और अन्य कई नवीन जैन डोर-लिटल्स के प्रतिरिक्त अन्य १७ डोर-लिटल्स खजुराहो मदिर, जिनमे स्थित मूर्तियाँ चदेलो के काल की ही है। के पुरातात्विक सग्रहालयों (नवीन व जोर्डन) पौर एक विशाल किन्तु नवीन परकोटे मे स्थित है। चदेलो के प्रदिनाथ मदिर के पीछे बावली से सटे संग्रहालय में शासन काल में निमित एक अन्य जैन मदिर घण्टाई, स्थित है, और कई नवीन मदिरों के निर्माण में प्रवेश जिमका प्रब केवल अर्घमण्डप मोर महामण्डप ही शेष है, द्वार के रूप में प्रयुक्त हुए हैं । कुल २२ डोर-लिटल्स में से नवीन परकोटे से कुछ ही दूर पर पश्चिम की भोर स्थित १५ पर जैन सम्प्रदाय को विशिष्ट देवियो, यथा चक्रेश्वरी है। खजराहो के जैन जिला के अध्ययन की दृष्टि से विका, सरस्वती, लक्ष्मी पौर पद्यावती को अनेकशः समस्त जैन मंदिरो के डार-लिटल्म पर उत्कीण जैन उत्कीर्ण किया गया है, जब कि शेष ७ मे से ५ पर देवियो का अध्ययन विशिष्ट महत्व रखता है । खजुराहो तीर्थकरो की संक्षिप्त प्राकृतियाँ प्रकित है। अन्त दो भभा– भली भांति छतरी [वणों लग बतीसूं ख ।। डार-लिटल्स हिदू सम्प्रदाय के तीन प्रमुख देवो ब्रह्मा, बीठल की छतरी वहां, प्रति सोहत रणथव ॥ ४॥ विष्णु और हिश का चित्रण करते है। ये डोर-लिटल्स ममा--मीदर छतरी महल है, केती ही महजीत । शातिनाथ मदिर (मंदिर न. १) के प्रवेश द्वार में पौर को लग वरणो या छवी, सब देवन को रोति ।।२।। प्रादिनाथ मदिर के पीछे स्थित संग्रहालय (नं० के १०८) मे देखी जा सकती है। ये उदाहरण निश्चय रूप से हिन्दू यया-या सोभा रणथभ की, वरणी प्रकल विचार । मदिरो के डोर-लिटल्स प्रतीत होते है, क्योकि जैन मदिरो यो किल्नो सुवस बसो रणत भवर जग जाह।॥ ६॥ के डोर-लिटल्स पर सर्वदा इन्ही देवो का अकन प्राप्त ररा- रण के डूंगर शीतला, पूजत नारि सुधीर । होता है। इस प्रकार जैन मदिरो से सम्बन्धित २० डोरनर नारी पूजत सबा भामो भाणको पार । २७॥ लिटल्स, जिनमें से तीन तो पार्श्वनाथ मदिर मे देखे जा लला- लागत गढ प्यारो सवा, गंग बिहारी दास । मकते है, निश्चित रूप से खजुराहो में १७ जैन मदिरों के रोना भोना है वोऊ, सकल सुधारत काम ॥२८॥ अस्तित्व का मकेत करते है, जो पाश्र्वनाथ, घण्टई, पौर ववा-वहां मेला कई ज, होत धमाधम भीर । प्रादिनाथ मदिरों के समान विशाल न होकर छोटे छोटे सोल से गणपति पुजं, सदर दीन श्री पीर ।।२६।। देवालय रहे होये । प्रस्तुत लेख में हम पार्श्वनाथ व घण्टई शशा-शेरपुरी खिलची पुरो, बसत किला की बोट । मंदिरों के डोर-लिटल्स के अतिरिक्त कुछ अन्य विशिष्ट माधोपुर मालण पुरो, चहदिसि डूंगर कोट ॥३०॥ डोर-लिटल्स की मूर्तियों का भी प्रध्ययन करेगे । प्रादिनाथ षषा--साईतर बन कियो, कवल धार जग नेर - मंदिर के प्रवेश द्वार की मूर्तियों का अध्ययन हम अनेकान्त चसमा की सुन्दर हवा, वषा जाल की मेर ॥३१॥ के पिछले अंक में कर चुके हैं। डोर-लिटल्स की समस्त ससा-सीताराम सुत मोहनो विरामण गजर गोड । प्राकृतियों को ललितासन मुद्रा में एक पैर नीचे लटकाये नाती बेणी राम को, कको बणायो जाति ॥३२॥ और दूसरा मोडकर प्रासन पर रखे हुए चित्रित किया हहा-है नरपति जैस्यंध बली किलोवर ॥३३॥ गया है। सभी प्राकृतियां ग्रीवा मे हार, स्तनहार, कुण्डल, केयर, पायजेब, धोती प्रादि से सुसज्लित हैं। सभी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २५२, बर्ष २४,कि.. भाकृतियां मस्तक पर या तो प्रलंकृत मुकुट या घम्मिल पार्श्वनाथ मदिर के गर्भगृह के प्रवेशद्वार की प्राकसे युक्त है। तियां वस्तुतः डोर लिंटन के दाहिने पोर बाये दीवार पर सर्वप्रथम हम पर्श्विनाथ मंदिर (९५४ ईसवी) स उत्कीर्ण हैं । फलतः इसे डोर-लिटल का प्रकन स्वीकार प्राप्त होर-लिटल्स की देवियों का अध्ययन करेंगे । पाश्वं. नहीं भी किया जा सकता है, पर उनके प्रवेश द्वार की नाथ मंदिर से प्राप्त तीन डोर-लिटल्स में से दो मदिर के देवियां होने में कोई संदेह नहीं है । बायी मोर की चतुमण्डप और गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर और तीसरा मदिर भंज देवी को ऊर्ध्व भुजामो मे सनाल कमल प्रदर्शित है। के पश्चिमी भाग में सयुक्त अतिरिक्त छोटे मंदिर, जो मूल देवी की निचली दाहिनी व बायी भुजामों में क्रमशः प्रभयमंदिर मे सभवत: बाद मे जोड़ा गया था, के प्रवेश द्वार मुद्रा और कमण्डलु उत्कीर्ण है । भुजामों में पारित कमल पर देखे जा सकते हैं। पार्श्वनाथ मंदिर के मण्डप के डोर के ऊपर दोनों भोर गज प्राकृतियां उत्कीर्ण हैं । गज भाकलिटल के मध्य में (ललाट-बिंब) दस भुजामों से युक्त तियों और कमल के प्राधार पर इस प्राकृति की निश्चित चक्रेश्वरी को मान रूप में प्रदर्शित गरुड़ पर मासीन पहचान लक्ष्मी से की जा सकती है । दाहिनी मोर की चित्रित किया है । यहां यह ज्ञातव्य है कि ललाट-बिंब की भाकृति के ऊपरी दाहिने व बायें हाथों में क्रमशः सनाल चक्रेश्वरी प्राकृति, जो प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ की कमल और पुस्तक प्रदर्शित है, जबकि निचली दोनों भुजाओं यक्षी है, और साथ ही गर्भगृह में स्थापित मूल प्रतिमा में देवी ने वीणा धारण किया है । पुस्तक पौर वीणा के के सिंहासन पर उत्कीर्ण बैल चिन्ह के माधार पर इस माधार पर इस माकृति को निश्चित पहचान सरस्वती के मंदिर का ऋषभनाथ को समर्पित होना निश्चित है। की जानी चाहिए। पार्श्वनाथ मंदिर के पीछे सयुक्त एक १९वीं शती मे निर्मित काले प्रस्तर की पार्श्वनाथ अतिरिक्त छोटे मंदिर के डोर-लिटन के मध्य की प्राकृति प्रतिमा के माधार पर ही इसे मल से पार्श्वनाथ के ऊपरी दोनों हाथों में सनाल कमल स्थित है, जबकि मंदिर समझा जाने लगा। देवी की दाहिनी भुजाओं निचली दाहिनी भुजा भग्न है, मोर बायीं में देवी ने कममे क्रमशः ऊपर से नीचे, पद्म (१), चक्र, गदा, डल धारण किया है । हाथों में प्रदर्शित पद्म इसके लक्ष्मी खड्ग और वरदमुद्रा प्रदर्शित है, और वाम भुजामों में से पहचान की पुष्टि करता है । बायीं मोर की प्राकृति के उसी क्रम से चक्र, धनुष, खेटक, गदा और शंख। खजुराहो परी दाहिनी व बायौं भुजामों में क्रमशः सनाल कमब में चक्रेश्वरी का यह अकेला चित्रण है, जिसमें देवी को मोर पुस्तक चित्रित है, जबकि निचली दोनों भुजामों मे दस भजामों से युक्त प्रदर्शित किया गया है। डोर-लिटल वीणा प्रदर्शित है । दाहिनी भोर की प्राकृति के हाथों में के बायें कोने पर चतुर्भुज ब्रह्माणी की त्रिमुख मूर्ति भी पूर्ववत सनाल कमल और पुस्तक प्रदर्शित है, जबकि उत्कीर्ण हैं। देवी का वाहन हस अनुपलब्ध है। देवी निचली दोनो भुजामों मे वीणा के स्थान पर वरद मुद्रा की ऊपरी दाहिनी व बायीं भुजामो क्रमशः शक्ति और और कमण्डलु चित्रित है। उपर्य क्त दोनों ही प्राकृतिया पुस्तक चित्रित है, जबकि निचली भुजामों में मभयमुद्रा(?) (दाहिनी) भोर (बायीं) देखा जा सकता है। दाहिनी निःसंदेह सरस्वती का अंकन करती हैं। योजना मे पार्श्वनाथ मंदिर के सदश घन्टई मन्दिर को भोर को आकृति भी चतुर्भ ज भोर त्रिमुख ब्रह्माणी का अंकन करती है। देवी के समीप ही उसका वाहन हस स्थापत्य. मूतिकला और स्तंभों पर उत्कीर्ण लिपि संबधी चित्रित है । देवी की ऊवं भुजायों में पूर्ववत् शक्ति और साक्ष्य के माधार पर दसवी शती के अंत में निर्मित माना पुस्तक प्रदर्शित है, जबकि निचली दाहिनी भुजा मे बीज- जा सकता है । प्रवेश द्वार के ललाटबिब में चक्रेश्वरी की पुरक (फल) और बायों में कमण्डलु अकित है। यहां यह अष्टभुजी मूर्ति उत्कीर्ण है, जिसमे देवी को मानब रूप में उल्लेखनीय है कि उक्त डोर-लिटन के अतिरिक्त अन्य किसी उत्कीर्ण गरुड़ पर आसीन व्यक्त किया गया है । चक्रेश्वरी भी डोर-लिटन पर ब्रह्माणी को उत्कीर्ण नहीं किया गया की ऊपरी चार भुजामों में चक्र प्रदर्शित है, जबकि शेष तीसरी चौथी दाहिनी भुजामों में षण्ट और मातुलिंग Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बबुराहो के जन मन्दिर मेर- तिस पर उत्कीर्ण गरेवियां ९ . सिथित है । तीसरी और चौथी बायो भुजामों में क्रमश: निचली दाहिनी व बायी भुजामो मे क्रमशः बरद मुद्रा अनुश (?) मोर कलश (?) उत्कीर्ण है। डोर-लिटल के मोर शख प्रदर्शित है। डोर लिटम के दोनों कोनों पर दोनो कोनों पर जैन देवियों के स्थान पर तीर्थंकरो की बिका की चतुर्भज पाकृतिया उत्कीर्ण है, जिनके हाथों संक्षिप्त (खड़ी) प्राकृतिया उत्कीर्ण है। मे प्रदर्शित प्रतीक समान है। चरण के समीप देवी का एक विशिष्ट डोर-लिटन सप्रति पुरातात्विक संग्रहा- वाहन सिंह उत्कीर्ण है, मोर शीर्ष भाग में भी प्राम्रफल से लय (जार्डेन संग्रहालयः नं. १४६७) में संगृहीत है युक्त टहनिया अंकित है । प्रबिका के ऊपरी दाहिनी व (चित्र स०-१)। मध्य में गरुड़ पर प्रासीन चतुर्भज बायी भुजामो मे कमल पोर पुस्तक प्रदर्शित है और निचली चक्रेश्वरी को प्राकृति उत्कीणं है । देवी की ऊर्ध्व दाहिनी दाहिनी में आम्रखंब पोर बायी भुजा से गोद में बैठे बालक व बायी भुजाओं में क्रमशः गदा और चक प्रदर्शित है, को सहारा दे रही है। जबकि निचली दाहिनी भुजा से वरद मुद्रा व्यक्त है । देवी एक अन्य विशिष्ट उदाहरण शातिनाथ मंदिर के की निचली वाम भुजा सप्रति खण्डित है। बाये कोने की अन्दर स्थित मंदिर नं०११ के प्रवेश द्वार पर देखा जा चतुर्भज माकृति २२वे तीर्थंकर नेमिनाथ की यक्षी अंबिका सकता है। मध्य मे चक्रेश्वरी की षष्ठभुजी प्राकृति उत्कीर्ण का चित्रण करती है। देवी ने दो ऊपरी भुजामों में सनाल है, जो अन्य चित्रणों के समान ही गरुड पर ही भासीन कमल धारण किया है, जबकि निचली दाहिनी मजा मे है। देवी के ऊपरी चार भुजामो मे चक्र प्रदर्शित है, जबकि पाम्रलंबि चित्रित है। देवी का निचला वाम हस्त बायी निचली दाहनी व बायी भुजामों में क्रमश: वरद मुद्रा और गोद मे बैठे बालक को सहारा दे रहा है । बालक अपने शंख स्थित है । बायी भोर की लक्ष्मी की चतुर्भज प्राकृति हाथों से देवी का स्तन स्पर्श कर रहा है । देवी के दाहिने ऊध्वं भाग मे दो गजों द्वारा अभिषिक्त हो रही है । देवी पाव में मासीन एक प्राकृति, जिसकी भुजामों मे फल की ऊपरी दो भुजाभो मे कमन पोर निचली में अभयप्रदर्शित है, की पहचान देवी के दूसरे पुत्र से की जा मुद्रा (दाहिनी) भोर कमण्डलु (बायी) प्रदर्शित है। सकती है । देवी के शीर्ष भाग में पाम्र फल से युक्त दह- दाहिनी मोर की प्राकृति चतुभंज सरस्वती का अंकन नियां भी चित्रित हैं, जिसके मध्य एक संक्षिप्त जिन मूर्ति करती है । देवी की ऊपरी दाहिनी व बायी भुजाओं में उत्कीर्ण है। देवी के पासन के समीप ही उसका वाहन क्रमशः कमल पोर पुस्तक प्रदर्शित है, जबकि निचले दोनों सिंह उत्कीर्ण है । दाहिने कोने की चतुर्भज भाकृति २३वें हाथो में वीणा स्थित है। तीर्थकर पाश्वनाथ की यक्षी पद्मावती का अकन करती एक अन्य विशिष्ट उदाहरण नवीन मदिर में नं० २४ है। शीर्ष भाग में सप्त सर्प फणों के घटाटोपों से के प्रवेश द्वार पर देखा जा सकता है । लताबिब को पाच्छादित देवी के ऊपरी व निचली दाहिनी भुजानो में चतुर्भज मानि की दाहिनी ऊपरी व निचली भुजामों में क्रमश: पाश और वरद मुद्रा प्रदर्शित है, जबकि ऊपरी क्रमश. कमल और वरद मुद्रा प्रदर्शित हैं। देवो की ऊपरी वाम भुजा मे अकुश चित्रित है। देवी की निचली भुजा बायां हाथ खण्डित है, जबकि निचले मे कमण्डलु धारण भग्न हो चुकी है। देवी के चरण के समीप उसका वाहन किया है । देवी की संभावित पहचान लक्ष्मी से की जा इस चित्रित है। यहां यह ध्यातव्य है कि ग्रथों में देवी का सकती है। बायी ओर की प्राकृति के दोनों दाहिनी वाहन सर्प या कुक्कुट वणित है । इस डोर-लिटल को भुजामों में कमल (ऊपरी) और वरद मुद्रा (निचली) निश्चत रूप से ११वी शती के प्रारंभ मे तिथ्यांकित किया प्रदर्शित हैं । देवी के दोनों वाम हस्त खण्डित है। देवी के जा सकता है। दाहिने पार्श्व में उसका वाहन मयूर उत्कीर्ण है, जिसके आदिनाथ मदिर के संग्रहालय में स्थित एक डोर- प्रांधार पर इसकी पहचान सरस्वती से की जा सकती है, लिटल में मध्य में चतुर्भूज चक्रेश्वरी की गरुड़ासीन मूर्ति और माना जा सकता है कि देवी के खण्डित दोनों हाथों उत्कीर्ण है। देवी की ऊपरी दोनों भुजाएं खण्डित हैं, पौर में पुस्तक और कमण्डलु स्थित रहा होगा। दाहिनी मो. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४, वर्ष २४, कि० ६ . अनेकान्त की प्राकृति के ऊपरी दाहिनी व बाग भुजामो मे क्रमशः गोद में बैठे बालक को महारा दे रही है । तीसरी प्राकृति खड्ग और चक्र (या खेटक.? ) स्थित है, जबकि निचले की दोनों भजामों में एक हार प्रदर्शित है। बायी मोर की दोनो हाथों में वरद-मुद्रा और कमण्डल चित्रित है । देवी पहवान लक्ष्मो और दाहिनी ओर को दो द्विभुज प्राकृ. के चरणो के समीप प्रदशित वाहन सिंह है । इस प्राकृति तियो को पहचान अम्बिका से की जा सकती है । पार्श्वको निश्चित पहचान २४वे तीर्थकर महावीर की यक्षी नाथ, घन्टई, और जान संग्रहालय के डोर-लिटल्स के सिद्धायिका स की जा सकती है, क्योकि खजुराहो से प्राप्त अतिरिक्त समस्त उदाहरणों को १०वी १२वीं शती में महावीर की मूतियो मे यक्षी के रूप मे उत्कीर्ण चतुर्भ ज निमित स्वीकार किया जा सकता है। सिद्धायिका की भुजा मे चक्र और वाहन के रूप मे सिंह अन्य सभी डोर लिटल्स पर चतुर्भज चक्रेश्वरी, का उपास्थति सभा उदाहरणो में देखी जा सकती है। अबिका लक्ष्मी और सरस्वती को चित्रित किया गया है, साथ हो नवीन मदिर न० २१ के पीछे के दीवाल पर जिनके प्रकन में कोई नवीनता नही प्राप्त होती है और रखा महावीर की मूर्ति (क २८ ॥१) मे देवी को ऊपरी प्रायुधों आदि का प्रदर्शन पूर्व वणित उदाहरणों के सदृश भुजा में प्रस्तुत मूर्ति के समान ही खड्ग भी प्रदर्शित है ही है। उपर्य क्त अध्ययन से स्पष्ट है कि चक्रेश्वरी और शेष भुजामो के प्रायुध भी समान है, मात्र निचली जिसको बहुलता से ललाट बिंब में उत्कीर्ण किया गया है, वाम भजा को छोड़कर, जिसम दवो न प्रस्तुत मूर्ति के अतिमिन सभी टेवियो सदेव चतर्भज प्रकित की कमण्डल क स्थान पर फन धारण किया है । सिद्धायिका समस्त प्रमख जैन देविया क प्रकन मे उनसे का अकन करने वाला यह अकेला डोर-लिटल है। ग्रादि- मंबधित विशिष्टतामों का प्रदर्शन इस बात का सकेत नाथ मदिर के डोर-लिटल के समान ही इस उदाहरण मे करता है कि कलाकार ने उनक चित्रण में प्रतिमाभा मध्यवर्ती प्राकृति क दाना पोर तोन-तीन स्त्री प्राकृ- शास्त्रीय प्रथों मे वणित मूलभूत विशेषताओं का निर्वाह तिया उत्कीर्ण है। मध्यवर्ती प्राकृति के वाम पाश्व की किया है। पर साथ ही प्रायुधो के प्रदर्शन के क्रम में अतर समस्त चतुभं ज प्राकृतियो के ऊपरी दोनो भुजाओं में और कुछ नवीनतानों का समावेश या तो किसी प्रप्राप्य कमल, और निचली में वरद मुद्रा (दाहिनी) और कमण्डल प्रतिमालामाणिक ग्रंथ के आधार पर उनके निर्मित होने (बायी) चित्रित है। मध्य को प्राकृति के दाहिने पाव के कारण है, या फिर स्वयं कलाकार या प्राचार्य, जिसके की तीनों प्राकृतिया द्विभुज है । प्रथम दो प्राकृतियों की निर्देशन में मूर्तियां उत्कीर्ण की गई, की देन है। दाहिनी भुजा से अभय मुद्रा व्यक्त है और बायी से वे 'तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का तीसवां सूत्र' एक अध्ययन सनमत कुमार जैन एम० ए० शोष-छात्र मागमकाल में प्राकृत भाषा में निबद्ध सम्यक्ज्ञान के जिज्ञासा का शमन करने हेतु उपस्थित किया गया :पाँच भेदो का जब तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सर्व प्रथम सस्कृत "एकादीनि भाज्यानि युगपरेकस्मिन्ना चतुर्यः" में सूत्र रूप से सूत्रित किया तब यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई प्रथात् "एक मात्मा मे एक साथ एक से लेकर चार कि एक साथ एक मात्मा मे कितने ज्ञान हो सका है? ज्ञानो तक का विभाग करना चाहिए।" वस, इस जिज्ञासा के उत्पन्न होने के पूर्व तत्त्वार्थ सूत्र. क्या इस सूत्र से जिज्ञासु की जिज्ञासा शान्त हो कार ज्ञान के पांचो भेदो का सम्पक प्रतिपादन कर चुके सकी? नहीं, उसकी जिज्ञासा की शान्ति के लिए भाष्य, थ । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम प्रध्याय का तीसवां सूत्र उपयुक्त १. तत्त्वार्थ सू० १।३०। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का तीसवां सूत्र एक प्रध्ययन टीका-प्रटीकाओं का प्रणयन किया गया। राई को पर्वत बनाया गया। सूत्र का आपरेशन किया गया, उसका विश्लेषण किया गया । दिगम्बर सम्प्रदाय मे उपलब्ध सर्वप्रथम प्राचीन टीका 'सिद्ध' है इसके रचयिता पाचार्य पूज्यपाद इन्होंने सूत्र को विश्लेषित करते हुए बतलाया कि श्रात्मा में यदि एक ज्ञान होता है तो वह केवल ज्ञान होता है क्योंकि वह असहाय है तथा क्षायिक है। यदि दो होने हैं तो वह मति श्रुत होते है तीन होते है मति, श्रुति अवधि या मनः पर्यय होते हैं। यदि चार होने है तो मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय होते हैं परन्तु पांचों ज्ञान एक साथ नदी हो सकते। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उलब्ध 'स्वोपज्ञ'. कहा जाने वाला वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थाधिगमभ ष्य' मे मात्मा में एक ज्ञान की विवक्षा में मतिज्ञान को स्वीकार किया गया है। उन्होने पूज्यपाद की तरह 'एकादीनि में एक का तत्पर्य केवलज्ञान से नहीं लिया है । तस्वार्थ राजवातिक' में कलंक ने यद्यपि दोनों मतों का कथन किया है फिर भी उनके विवेचन से यह स्पष्ट भलकता है कि उनका 'एकादीनि' में एक' का तात्पर्य मतिज्ञान से है न कि केवलज्ञान से उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि 'एक' शब्द अनेकों में प्रयुक्त देखा जाता है परन्तु यहाँ विवक्षा से प्राथम्य वचन रूप जानना १. एक तारकेवलज्ञान, न तेन सहाण्यामि क्षायोपशमि कानि युगपदवतिष्ठन्ते मति श्रुते। त्रीणि मतिनावधिज्ञानानि, मतिश्रुत मन:पर्यय ज्ञानानि वा चत्वारि मतिवधिमनः पर्वयज्ञानानि ।" सर्वार्थसि० १३० २. कस्मिश्चिज्जीवे मत्यादीनामेक भवति तत्त्वार्थाविगम भा० (वाचक उमा०) १।३१ । ३. स्वार्थ रा० वा० (अकलक) १०३० । ४. श्रयमेकशब्दोऽनेकस्मिन्नर्थे दृष्टप्रयोगाः । क्वचित्सं ख्यायां वर्तते, एको द्वो बहवः इति । क्वचिदन्य-वे, एके प्राचार्यान्ये प्राचार्याः इति वचिदसहाये, एकाकिनस्ते विचरन्ति बीराः इति । कचित्प्राथम्येएकमागमनम् प्रथममागमनम् इति क्वचित्प्राधान्ये एक हतां तेनां करोमि प्रधान हता सेनां करोमिइत्यर्थः । तत्वार्थ रा० वा० (प्रकलक) १|३०|१ २५५ चाहिए। इस प्रकार से प्राथम्य वचन रूप मतिज्ञान ही होता है। अतः इस रूप मे बाचक उमास्वाति' पौर 'अकलंक' एकमत हैं । परन्तु 'कलंक' ने 'अपर ग्राह" के द्वारा 'सर्वार्थसिद्धि' मान्य प्रधान रूप से या प्रसहाय रूप से 'केवलज्ञान' का भी उल्लेख किया है । वे इससे सहमत है या असहमत यह नही कहा जा सकता । यदि प्रसहमत हो तो rest atter या समीक्षा करते और यदि होते इसकी मीमांसा सहमत होते तो इसका स्पष्टीकरण करते । परन्तु उन्होंने उल्लेख भर किया है, अपना मन तो सूत्र के प्रथम वार्तिक में 'एक' का तात्पर्य प्राथम्य वचन कह कर ही प्रकट कर दिया था । तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिककार 'विद्यानन्द' ने अपनी समन्वयात्मक दृष्टि का पूरा उपयोग करते हुए – 'एक' शब्द के 'प्रथम' तात्पर्य की विवक्षा में मतिज्ञान प्रथवा 'एक' शब्द के 'पान' पर्य की विवक्षा मे केवलज्ञान दोनों को ही ग्रहण किया है। परन्तु प्रश्न इस बात का है कि 'सर्वार्थसिद्धिकार' ने 'एकादीनि' ने 'एक' का तात्पर्य मतिज्ञान से क्यों नहीं लिया केवलज्ञान से ही क्यों लिया? या अन्य प्राचार्यो ने 'एकादीनि' में 'एक' का नारायं मतिज्ञान से हो क्यो लिया केवलज्ञान से क्यो नहीं लिया? क्या ये सूत्रकार के मन्तव्य को भलीभाँति नहीं समझ सके थे ? एक ही परम्परा के प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न प्रतिपादन क्यो किया ? क्या प्रकलक 'अपर आह' के द्वारा सर्वार्थसिद्धिकार की ओर इगित नही कर रहे हैं ? यदि कर रहे है, तो फिर उसका खण्डन क्यों नहीं किया जबकि उन्होने 'एक' का तात्पर्य प्रथम वचन लेकर मनिज्ञान स्वीकारकर लिया था ? इस प्रकार नाना शकाए उद्भूत होती है । प्रथम शका के समाधान हेतु यह कहा जा सकता है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने 'एकादीनि' पद का विच्छेद करके ही 'एक' का तात्पर्य 'केवलज्ञान' से लिया है। उनके ५. वह विज्ञातः प्राथम्यवचन एकशब्द वेदितव्यः। बहो० १३०१ ६. वही० १३०११० भाष्य ७. प्राच्यमेकं मतिज्ञान श्रुतिभेदानपेक्षया । प्रधान केवल वा स्यादेकाम यगपन्नरि: तत्वार्थ इनोवा (नि) १३०२ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६, २४,कि.६ मोकास विभाजन के अनुसार-एक मादिर्यषा तानि इमान्येका• तथा 'एक' का तात्पर्य प्राथम्य वचन लेकर मतिज्ञान को दीनि" अर्थात एक है प्रादि जिनका अर्थात् जिन ज्ञानों स्वीकार किया गया है। तत्वार्थ सूत्रकार का मन्तव्य तो का मादि अर्थात् प्रारम्भ एक है वह एकादि है। पांच इतना ही था कि एक साथ एक प्रास्मा में पांचों ज्ञान ज्ञानों में मात्र केवल ही एक ऐसा शान है जो एक है नहीं हो सकते, चार तक ही होंगे। अकेला है और असहाय हैं। एक मात्मा में एक साथ सूत्र पर जब मैं गहन दृष्टि डालता है तो एक उलमति और श्रृत दो हो सकते है, मति, श्रुत और अवधि मन मस्तिष्क मे सहसा उठ खड़ी होती है कि-एक ज्ञान या मन: पर्यय तीन हो सकते हैं तथा मति, श्रुत, अवधि की विवक्षा में 'युगपद' पद का व्यवहार कैसे होगा जबकि और मनः पर्यय चार हो सकते हैं परन्तु केवलज्ञान अकेला 'क' का तात्पर्य मनिजात' से लिया जाये ? na aur ही होगा, एक ही होगा। इस धारणा को ध्यान में रख में एक साथ एक ज्ञान नही बतलाया गया है वरन् प्रादि कर ही सर्वार्थसिद्धिकार ने 'एक' का तात्पर्य 'केवलज्ञान' से के चारो ज्ञानो का कथन किया गया है। 'युगपद्' की लिया है। व्याप्ति चारों ज्ञानों के साथ है न कि एक ज्ञान के साथ। दूसरे, सर्वार्थ सिद्धिकार सैद्धान्तिक अधिक थे, जबकि कि अकलक तार्किक । अकलक स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि तो फिर एक प्रात्मा में 'युगपत्' मति और श्रुत दो हो एक शब्द सख्यावाची मानकर अकेला मति ज्ञान भी एक सकते है या मति, श्रुत और अवधि या मन:पर्याय तीन हो हो सकता है क्योकि अग प्रविष्ट प्रादि रूप श्रुतज्ञान सकते है. ये कथन कैसे बनेंगे ? बस यही माकर उलझन प्रत्येक को हो भी और न भी हो। प्रस्तु, इतना तो की वास्तविकता का एहसास हो जाता है । अतएव सर्वार्थ सिद्धिकार ने एक' की विवक्षा में प्रधान रूप से जो स्पष्ट है कि अकलंक को दृष्टि मतिज्ञान की पोर ही झुक रही है । तभी तो परवर्ती टीकाकार विद्यानन्दि ने दोनों कंवलज्ञान का स्वाकार किया है वह उचित ही जान पड़ता के समन्वय की ओर ध्यान दिया। 'भपर माह के द्वारा है। क्योकि नारा है। क्योंकि 'केवलज्ञान' ज्ञान के अन्य भेदों के साथ नही अकलंक का लक्ष्य 'सर्वार्थसिद्धि' के शब्दो की पोर है। रह सकता, तथा केवलज्ञान क्षायिक अन्य ज्ञान क्षायोपयह कोई आवश्यक नहीं कि उसका खण्डन या मण्डन शमिक । परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक ज्ञान की किया ही जाय। उल्लेख मात्र हो उसको स्वीकारता की विवक्षा में मनिज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि जिस जीव के कसौटी है अर्थात् यदि 'एक' का तात्पर्य केवलज्ञान से केवलमति ज्ञानवरण कम का क्षयोपशम हपा है उसके लिया जाता हैं तो अकलक को कोई प्रापत्ति नही। तो केवल मतिज्ञान ही होता है इसीलिए अकलंक 'एक' इम प्रकार क्या पकलंक के ऊपर बाचक उमास्वाति का प्राथम्य ग्रहण करके मनिज्ञान स्वीकार करते है। का प्रभाव पड़ा जो 'क' का तात्पर्य मतिजान मेरो साथसिद्धिकार का एक' की विवक्षा में केवलान रखने का यह भी कारण हो सकता है कि मति ज्ञान है ? वैसे वाचक उमास्वाति ने एक का तात्पर्य मतिज्ञान पौर श्रुतज्ञान कारण कार्य रूप है और कारण के होने मे लिया है परन्तु प्रकला ने 'एकादीनि' पद में 'एक पर कार्य होता है प्रतः मति, श्रुत दो हो सकते हैं अकेला का, 'पादि' का और एकादीनि का पूर्ण रूप से विवेचन मति नही परन्तु क्षयोपशम की दृष्टि से अकेला मतिज्ञान करके ही उसे स्वीकार किया है। पूर्ववर्ती होने म वाचक भी हो सकता है। उमास्वानि का प्रभाव माना जा सकता है परन्तु विवे. इस प्रकार प्रधान और प्राथम्य रूप दो दृष्टियों के चना की दृष्टि से उनकी मौलिक उदमावना भी हो माध्यम से हम सूत्र का विश्वेषण किया गया है। एक सकती है। प्रात्मा में एक साथ प्रादि के चारों ज्ञान रह सकते हैं पर इस प्रकार प्रधान, असहाय और क्षायिक होने से उनका उपयोग ततद् ज्ञान को अपेक्षा ही होता है अर्थात 'एकादीनि' में एक का तात्पर्य केवलज्ञान' से लिया गया किसी जीव में यदि तीन ज्ञान हैं तो एक काल में एक ही १. मर्वार्थसि. १३० । जान का उपयोग होगा प्रन्य ज्ञान लब्धि रूप से रहेंगे। २. तत्वार्थ रा. वा०२३०११० भाष्य । प्रस्तुत लेख मे उठाई गई शकामों के बारे में विद्वान् ३. वही० ११३०११,२,५। अपने-अपने विचार लिखें तथा विषय को विशद बनायें। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्रबाहु श्रुतकेवलो परमानन्द जैन शास्त्री अन्तिम केवली जम्ब स्वामी के निर्वाण के बाद हूँ और मेरा नाम भद्रबाहु है। प्राचार्य श्री ने कहा, क्या दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायो की गुर्वावलियाँ तुम चलकर अपने पिता का घर बतला सकते हो? भिन्न-भिन्न हो जाती है। किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय बालक तत्काल प्राचार्यश्री को अपने पिता के घर ले वे गगा-यमुना संगम के समान पुनः मिल जाती हैं। तथा गया। प्राचार्यश्री को देखकर सोमशर्मा ने भक्ति पूर्वक भद्रबाहु श्रुत केवली के स्वर्गवास के पश्चात् जैन परम्परा उनकी वन्दना की। और बैठने के लिए उच्चासन दिया। स्थायी रूप से दो विभिन्न श्रोतों में प्रवाहित होने लगती प्राचार्यश्री ने सोमर्शा से कहा कि माप अपना बालक है। अतएव भद्रबाह श्रुत केवली दोनों ही परम्परामो मे हमारे साथ पढ़ने के लिये भेज दीजिये । सोमशर्मा ने मान्य है। प्राचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को प्राप खुशी भद्रबाहु रग्रिम: समग्रबुद्धि सम्पदा, से लेजाइये, और पढाइये। माता-पिता की प्राजा से सुशब्द सिद्ध शासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दरम् । प्राचार्यश्री ने बालक को अपने सरक्षण में ले लिया। इद्ध-वृत्त-सिद्धिरत्रबद्धकर्मभित्तपो, और उसे सर्व विद्याए पढ़ाई। कुछ ही वर्षों में भद्रबाहु वृद्धि-वद्धित-प्रकोतिरुद्दधे महधिकः । सब विद्यानो मे निष्णात हो गया। तब गोवर्द्धनाचार्य यो भद्रबाहुश्रुतिकेवलोना मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । ने उसे अपने माता-पिता के पास भेज दिया। माताअपश्चिमोऽभूविदुषां विनेता, सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन ।। पिता को उसे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर प्रत्यन्त हर्ष हुप्रा। श्रवण वेल्गोल शिला० १०८ भद्रबाहु ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मागी पुण्डवर्घन देश मे देवकोट्ट नाम का एक नगर था, और वह माता-पिता की प्राज्ञा लेकर अपने गुरु के पास जिसका प्राचीन नाम 'कोटिपुर' था। इस नगर में सोम वापिस पा गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहु ने महावैराग्य शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का सम्पन्न होकर यथा समय जिन दीक्षा ले ली । पोर दिगनाम सोमश्री से भद्रबाहु का जन्म हुमा थ।। बालक म्बर साघु बनकर प्रान्म-साधना में तत्पर हो गया । स्वभाव से ही होनहार और बुद्धि का धनी था। उसका ___एक दिन योगी भद्रबाहु प्रातःकाल कायोत्सर्ग मे लीन क्षयोपशम और धारणा शक्ति प्रबल थी। प्राकृति सौम्य थे कि भक्तिवश देव असुर और मनुष्यों से पूजित हुए। मात्र पौर सुन्दर थी। वाणी मधुर मोर स्पष्ट थी। एक दिन कुछ समय बाद गोवर्दन स्वामी का स्वर्गवास हो गया । वह बालक नगर के अन्य बालकों के साथ गंटों गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भटजाहु बहु सिद्धि सम्पन्न (गोलियों) से खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह । है मुनि पुंगव हुए । चतुर्दश पूर्वधर और अष्टांग महानिमित्त गोलियो को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। के पारगामी श्रुतकेवली विद्वान हुए। अपने संघके साथ उन्हों ऊर्जयन्तगिरि (गिरिनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा ने अनेक देशों मे विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जनता का से वापिस भाते हुए चतुर्थ श्रुतकेवली गोवईन स्वामी कल्याण किया। सघ साहत काटि ग्राम पहुच । उन्हान बालक भद्रबाहु का भद्रबाहु श्रुतकेवली यत्र-तत्र देशों में द्वादश सहस देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनों मे मन्तिम मुनियों के सघ के साथ विहार करते हुए उज्जैन पधारे, श्रुतकेवली मोर घोर तपस्वी होगा। प्रतः उन्होंने उस और सिप्रा नदी के किनारे उपवन में ठहरे । वहाँ सम्राट बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके __चन्द्रगुप्त मौर्य ने उनकी वन्दना की, जो उस समय प्रांतीय पुत्र हो। तब भद्रबाहु ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र राजधानी में ठहरा हुमा था। एक दिन भद्रबाहु श्रुत. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८, वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त केवली प्रहार के लिए नगरी मे गए । वे एक मकान के मोर उन्होंने वहीं समाधिमरण किया । भद्रबाहु की समाधि प्रांगन में प्रविष्ट हुए, जिसमें कोई मनुष्य नहीं था, किन्तु का भगवती पाराधना की निम्न गाथा में उल्लेख है:पालना में झुलते हुए एक बालक ने कहा, मुनि तुम यहाँ प्रोमोदरिये भद्रबाहूय सकिलिट्ठ मदी से शीघ्र चले जामो, चले जायो । तब भद्रबाह ने अपने घोराए तिगिच्छाए पडिवण्णो उत्तम ठाणं ॥१५४४ निमित्तज्ञान से जाना कि यहा बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने इस गाथा मे बतलाया गया है कि भद्रबाह ने अवमोवाला है। १२ वर्ष तक वहां वर्षा न होने से अन्नादि उत्पन्न दर्य द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ न होगे । धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जायेगा। को प्राप्त की। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरू की खूब सेवा और भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जायेगा। यह देश की । भद्रबाहु के दिवगत होने के बाद श्रुतकेवली का राजा. मनुष्य और स्करादि से विहीन हो जायेगा । ऐसा प्रभाव हो गया। क्योंकि वे अन्तिम श्रुति केवली थे। जानकर प्राहार लिए बिना ही जिन मन्दिर में प्राकर दिगम्पर परम्परा में भद्रबाह के जन्मादि का परिभावश्यक क्रियाए सम्पन्न की। और अपराह्न काल मे चय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्रकथाकोष और भद्र बाहु समस्त सघ में घोषणा की कि यहा बारह वर्ष का घोर चरित प्रादि मे मिलता है। और भद्रबाहु के बाद उनकी भिक्ष होने वाला है। अतः सब सघ को समुद्र के समीप शिष्य परम्परा अग-पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है। दक्षिण देश में जाना चाहिए। जिसका परिचय प्रागे दिया जायगा। माट चन्द गप्त ने यह सना कि यहाँ द्वादश वर्ष श्वेताम्बर परम्परा मे, कल्पसत्र, यावश्यक सुत्र, नन्दिका घोरभिक्ष पडने वाला है । तब उसने भी भद्रबाहु से सूत्र, ऋषि-मडलसूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व मे ण की। जैसा कि तिलोयपण्णत्ती की निम्न भद्रबाहु की जानकारी मिलती है । कल्पसूत्र की स्थविरागाथा से स्पष्ट है: वली मे उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है। पर मउडघरसं चरिमो जिण दिक्खं घरदि चंदगुतो। वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए। प्रतएव भद्रबाहु की शिष्य तत्तो मउडपरा, पव्वज्ज व गेहति ॥ -तिलोय पण्णत्ती ४.१४८१ परम्परा प्रागे न बढ़ सकी। किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाह भद्रबाह वहां से चलकर ससघ श्रवण देल्गोल तक के गुरू भाई सभूति विजयके शिष्य स्थल मद्र से प्रागे बढ़ी। आये। भद्रबाहु ने कहा मेरा प्रायुष्य अल्प है अतः मै यहीं वहाँ स्थूलभद्र को अन्तिम श्रुत केवली माना गया है। दिगम्बर परम्परा मे भद्रबाहु का पट्टकाल २६ वर्ष रहेगा और विशाखाचार्य ससंघ प्रागे चले गए। भद्रबाहु माना जाता है। और चन्द्रगुप्त वहीं रह गए । चन्द्रगिरि पर्वत के शिला और श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाया है लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त का दीक्षा नाम मोर व्यवहार सूत्र- छेद सूत्रादि ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली 'प्रमाचन्द्र' था, वे भद्रबाहु के साथ कटवा पर ठहर गए। द्वारा रचित कहे जाते है । और वीर निर्वाण सवत्से १७० भद्रबाहु वचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः । वर्ष बीतने पर स्वर्गवास माना है। दिगम्बरपरम्परा अस्यैव योगिनः पावें दधौ जैनेश्वर तपः । के अनुसार भद्रबाह का स्वर्गवास वीर नि. स.के चन्द्रगुप्त मुनि शीघ्र प्रथमो दश पूविणाम् । सर्व सघाधिपो जातो विसषाचार्य सज्ञकः ।। ६२वें वर्ष अर्थात् ३६५ वर्ष ई० पूर्व माना जाता है। हरिषेण कथाकोष ३८,३६ दिगम्बर परम्परा में भद्रबाह श्रतके वली द्वारा रचित साहित्य नहीं मिलता। इसमें पाठ वर्ष का अन्तर (अ) चरिमो म उडधरीसो जरवाणा चदगुप्त णामाए। विचारणीय है। पचमहव्यय गहिया प्रवरि रिक्खा (य)-वोच्छिणा॥ श्रुत स्कंघ ब्र० हेमचन्द्र १. योगीन्द्र स्थूलभद्रो ऽभूद थान्त्य श्रुतकेवली । (अ) तदीय शिष्योजनिचन्द्रगुप्तः समग्रशीलानत देववृद्धः। -पट्टावली समुच्चय १२५ विवेश यस्तीव्रतपः प्रभावप्रभूत-कीर्तिर्भुवनान्त- २. श्रीवीर मोक्षात् वर्ष शते सप्तत्पने गते सति । राणि ॥६ भद्रबाहु रपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ।। श्रवणबेलगोल शि० पृ० २१० परिशिष्ट पर्व हेमचन्द Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकट की स्थिति में समाज कल्याण बोडों का योगदान एम. सी.जैन देश में समाज कल्याण गतिविधियों के प्रोत्साहित करने के लिए बोर्ड की मशीनरी का उपयोग किया गया करने और उन्हें बडावा देने की प्रावश्यकता हमेशा से था। मोर्चे पर जाने वाले जवानों को सुख-सुविधाएं पहुँमहसूस की जा रही है, परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह चाने की दृष्टि से केटीनों का संगठनकिया गया । हिमाअनुभव किया गया कि राष्ट्रीय स्तर पर समाज कल्याण लय के सीमावर्ती क्षेत्रों और राजस्थान के मरुस्थलों में कार्यक्रमों का संचालन तभी किया जा सकता है जब प्रसूति सेवानों, डाक्टरी सहायता बालवाड़ी, शिल्प प्रशिस्वेच्छिक संगठन और स्वेच्छिक कार्यकर्ता इन कार्यक्रमो क्षण तथा महिलामो के लिए समाज शिक्षा जैसी बहुद्देशीय के लिए साधन जुटाने मे गहरी दिलचस्पी लें। एक अोर गतिविधियो से युक्त कल्याण विस्तार परियोजनाएं संगस्वेच्छिक अभिकरणों और स्वेच्छिक कार्यकर्तामो और ठित की गई थी। इन परियोजनामों का उद्देश्य सीमादूसरी ओर सरकारी मशीनरी के प्रयासो को मजबत बनाने वर्ती क्षेत्रों के लोगो मे विश्वास पैदा करना तथा देश के के लिए केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड का गठन किया गया। शेष भागो के साथ उनका सांस्कृतिक और भावनात्मक यह एक सर्वथा नवीन प्रयोग था। गत अठारह वर्षों के एकीकरण करना था। कार्यकाल में बोर्ड ने राष्ट्रीय स्तर पर कल्याण कार्यक्रमों सन् १९६५ में पाकिस्तानी माक्रमण के समय भी को बढावा देने के साथ-साथ समाज के दर्बल वोके मोच पर जाने वाले जवानों को सुख-सुविधाएं पहुँचाने प्रति जन-चेतना पैदा की है और राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय और जवानों के परिवारों के लिए कल्याण कार्यक्रम संगस्तर पर गैर सरकारी कार्यकर्तामों को केन्द्रीय तथा राज्य ठित करने की दिशा में बोर्ड किसी से पीछे नही रहा । सरकारो के सरकारी अभिकरणों के साथ कधे से कंधा हाल ही में सन् १९६६ में जब प्राध्र में बाढ़ आई मिलाकर काम करने के लिए प्रेरित किया है। विभिन्न तो इन दोनों राज्यों के समाज कल्याण संगठनों ने बाढ़ स्तरो पर बोर्ड के विभिन्न कार्यक्रमों का सचालन करने पीडितों के लिए धन राशि तथा सामग्री के सग्रह में वाले अभिकरणों में ५० हजार के ऊपर कार्यकर्ता सलग्न सक्रिय भाग लिया । सन् १९७१ के प्रत में जब उड़ीसा है और इनमें से लगभग २० हजार व्यक्ति स्वेच्छिक में तूफान प्राया तो उड़ीसा राज्य बोर्ड ने पीड़ितों के लिए संस्थानों के कार्य में सक्रिय रूप से सलग्न है। बोर्ड के धन राशि तथा सामग्री के संग्रह के साथ-साथ कल्याण कार्य के लिए क्षेत्र ढूंढ निकाले हैं, जिनमें सहस्रों निःस्वार्थ सेवामों का संगठन भी किया। कार्यकर्ता, विशेष रूप से महिलाए स्वेच्छा से कार्यरत है। शरणार्थी शिवरों की स्थापना अब इन स्वेच्छिक तथा वैतनिक कार्यकर्तामों पर हमेशा मई, १९७१ में पाकिस्तानी सैनिक शासकों के जघन्य पूरी तरह निर्भर रहा जा सकता है मोर राष्ट्रीय, प्राकृ. भत्याचारों और कत्लेग्राम के कारण हमारे देश में पूर्व तिक या अन्य विपत्तियों की अवस्था में लोगों को राहत बंगाल से लाखों शरणार्थियों के माने से बड़ी गम्भीर पहुंचाने के उद्देश्य से इन पर उपयोग लिया जा सकता स्थिति पैदा हो गई। इस कस्लेग्राम से लोगों में दहशत फैल गई और वे मासाम, मेघालय, त्रिपुरा तथा पश्चिमी सीमावर्ती क्षेत्रों में कल्याण-कार्य बंगाल के शिविरों में इकट्ठे होने लगे। सरकार और पहली बार सन् १९६२ मे चीनी प्राक्रमण के समय बंगला देश सहायता समिति के प्रयासों की पूर्ति के लिए. जवानों के लिए सामग्री, उपहार और ऊनी वस्त्र इकट्ठे केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड की अध्यक्षता की मोर से Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० बर्ष २४,कि.६ अनेकान्त देश के स्वेच्छिक और वैतनिक कार्यकर्तामों से मनरोष लिए पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें इकट्ठी की गई। किया गया कि वे सहायता मोर माश्रय के लिए सामाजिक कार्यकर्तामों और स्वेच्छक संगठनों का योगदान भारत के द्वार खटखटाने वाले शरणार्थियों के लिए दिल राज्य बोडो की अध्यक्षानों ने जवानों के लिए उपखोलकर दान दें । बोर्ड ने बंगला देश के शरणार्थी शिविरों हार; सिगरेट, मेवा प्रसाधन वस्तुएं तथा ऊनी वस्त्र के लिए पूर्णत: सजिजात चलते-फिरते अस्पतालों के लिए इकट्ठा करने के लिए स्वेच्छि सगठनों पोर स्वेच्छिक धनराशि देने का प्रस्ताव रखा। कार्यकर्तामों के नाम अपील जारी की। स्वेच्छिक कार्यपश्चिम बगाल मौर त्रिपुरा मे बंगाल देश सहायता कर्ता जिला मोर ग्राम स्तरों पर जवानों के परिवारों की समिति के क्षेत्रीय अधिकारियों को बोर्ड के राज्य स्तर के मावश्यकतामों का प्राकलन करने के लिए, उनके साथ अभिकरणों ने शरणार्थियों के लिए सीधे ही सामग्री प्रोर सीधे संपर्क स्थापित कर रहे हैं और शिक्षा में सक्षिप्त वस्त्र भेजे । इसके अलावा बोर्ड के स्वेच्छिक तथा वैतनिक पाठ्यक्रम जैसे समुचित पुनर्वास कार्यक्रमों की योजना बना कर्मचारियों ने इन शरणार्थियों को राहत पहुँचाने की रहे हैं ताकि दो साल के अन्दर-अन्दर जवानों की महिला दृष्टि से ५० हजार रुपये से अधिक इकट्ठे किए। इसके सदस्यों को मिडिल या मैट्रिक तक की शिक्षा दी जा सके अतिरिक्त प्ररुणांचल, त्रिपुरा पश्चिम बगाल, हिमाचल मौर उन्हें उत्पादन एकतों मे प्रशिक्षण दिया जा सके प्रदेश और हरियाणा के राज्य बोडों ने एक लाख रुपये से जहां वे काम द्वारा अपनी रोजी कमा सकें और परिवार अधिक संग्रह किए और यह धनराशि सीधे ही प्रधान मंत्री, की प्राय में पर्याप्त वद्धि कर सकें। सबद्ध राज्यों के मुख्य मंत्री या बगला देश सहायता संघर्ष के दौरान बोर्ड के स्वेच्छिक संगठनों ने जनता समिति के अधिकारियो को दी। के मनोबल को ऊचा उठाने की दिशा में कार्य किया और त्रिपुरा, अरुणाचल और पश्चिम बगाल के राज्य उसे रक्तदान के लिए प्रेरित किया। महिला सामाजिक बोडों की अध्यक्षाम्रो के नेतृत्व मे स्वेच्छिक कार्यकर्तामों कार्यकर्ता अस्पतालो में गए और उन्होंने घायल जवानों के ने अपने सीमित साधनो और दुर्गम सचार व्यवस्था के लिए कल्याण सेवाओं की व्यवस्था की। राजस्थान मे बावजूद बगला देश के लाखों शरणार्थियों को प्राश्रय स्वेच्छिक संगठनों ने बाड़मेर पोर जैसलमेर के इलाकों मे दिया। कार्यकर्तृ यो ने शरणार्थियो को बहुमुखी सेवाएं लड़ने वाले जवानों के लिए शानदार काम किया। जवानों उपलब्ध कराने की दष्टि से शरणार्थी राहत समिति का के परिवारों के लिए ट्रांजिस्टर, प्रेशर कुकर तथा अन्य निर्माण किया। उपहार और घायल सैनिकों के लिए वस्त्र इकट्ठे किए बगला देश में स्वतंत्र नागरिक के रूप मे स्वदेश गए। उन्होने युद्ध में वीर गति प्राप्त या अपंग परिवारों वापस लौटाने वाले शरणार्थियों के लिए महिला सामा- के पते इकट्ठे किए और उन्हें सहायता पहुँचाने के लिए जिक कार्यकर्ता प्रावश्यक सुविधाएं जुटा रहे हैं। उनसे सपर्क स्थापित किया। जवानों की विषवानों और परिवारों के लिए कल्याण उत्तर प्रदेश में कल्याण कार्यों का सगठन कार्यक्रम उत्तर प्रदेश राज्य बोर्ड के एक अधिकारी ने बुलन्दहाल ही में दिसम्बर, १९७१ मे पाकिस्तान के साथ शहर जिले में एक घायल जवानों की पत्नी से संपर्क संघर्ष के दौरान बोर्ड ने चुनौती का फिर सामना किया। स्थापित किया और उसके कई नजदीकी संबन्धियों, पड़ोयुद्ध में स्थानीय रूप से अपंग होने वाले या वीर गति पाने सियों, और अस्पताल तथा जिला अधिकारियो के वाले जवानो की विधवात्रों और परिवारों के पुनर्वास के सहयोग से इस प्रकार की समुचित व्यवस्था की, जिससे लिए केन्द्रीय नागरिक परिषद तथा स्थल, जल एव वायु- उसे कोई कठिनाई न हो । एक जवान से कुछ महत्वपूर्ण सेना पत्नी संघों के साथ घनिष्ठ सहयोग से काम किया। सैनिक कागजात खो गए थे। उत्तर प्रदेश के महिला कार्यकेन्द्रीय स्तर पर, अस्पतालों में जवानों के मनोरजन के कर्तामों ने इन कागजात की छानबीन करने और उन्हें Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकट की स्थिति में समाज कल्याणबोडों का योगराम समुचित प्रधिकारियों तक पहुँचाने की दिशा में बहुत की ऊन मिलों से रियायती कीमतों पर उन उपलब्ध 'शानदार काम किया। कराने के लिए उत्तर प्रदेश राज्य बोर्ड के साथ संपर्क उत्तर प्रदेश में, सभी जिलों में, जिलामजिस्ट्रेटों के स्थापित कर रहे है। सहयोग से केन्द्रीय जिला नागरिक परिषदे बनाई गई। सार्वजनिक कार्यकर्तामों के प्रयासों का ही यह परिपरियोजना स्तर पर परियोजना के कर्मचारी प्रौर णाम है कि तमिलनाडू के लोग राज्य सरकार और स्वेछिक कार्यकर्ता जवानों के लिए चंदा और सामान सैनिक अधिकारियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। बकत्रित करने की दिशा मे हर सभव प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने सैनिकों को सुख-सुविधाए पहुँचाने की दृष्टि से देहरादून में कई स्वेच्छिक संगठनों ने केन्द्रीय समाज सरकारी अधिकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, व्यापारियों कल्याण बोर्ड के एक सदस्य के प्रभावशाली नेतृत्व में तथा सैनिक अधिकारियो की बैठकों का पायोजन किया सहस्रों रुपये मूल्य की प्रसाधन सामग्री प्रौर ऊनी वस्त्र है। उन्होंने सैनिकों के लिए सामान इकट्ठा किया है, इकट् किए। उनके लिए अस्पतालों में सेवाएं उपलब्ध कराई है पौर रक्तदान के प्रान्दोलन को बढ़ावा दिया है। मरुणांचल में शिलांग के ठेलट्स क्लब की महिलामों ने, अरुणांचल राज्य बोर्ड की अध्यक्षा के नेतृत्व में, पंजाब के कनिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ३ दिसम्बर, १९७१ से ही युद्ध प्रयासो मे अपना निरंतर पंजाब मे स्वेच्छिक कार्यकर्तापों ने हास्पिटल वेलयोगदान देना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होने प्रार्थामक फेयर सोसाइटी और पंजाब की केन्द्रीय नागरिक परिषद चिकित्सा कक्षामों का संगठन किया, ब्लैक आउट सबधी के साथ मिलकर जवानों के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराई निर्देशो का पालन कराने में अधिकारियों की सहायता है। परिवार और बाल कल्याण परियोजनामों को कार्यकी, लोगों को रक्त दान के लिए प्रेरित किया, अस्पतालों कारी समितियो ने जिला अधिकारियों के साथ मिलकर में वे घायलों को देखने गए, घायल जवानों में उन्होंने काम किया और जवानों के कल्याण के लिए अधिक से पाठय सामग्री, फल, सिगरेट, अन्तर्देशीय पत्र, बिजली के अधिक सहायता दी। उन्होने जवानो के लिए कैटीनों का हीटर, मिट्टी के बर्तन और जुराबें वितरित की। उन्होने सगठन किया और उन सैनिकों को चिकित्सा सेवाएं तक पस्पतालों मे एम्प्लीहायर और लाउडस्पीकर उपलब्ध कराई, जिन्हे इनकी आवश्यकता थी। उन्होने लगा। अब वे अपग सैनिकों के घर वापस लोटने पर रक्त दान के लिए वातावरण तैयार किया और जवानों एक नई चनौती का सामना करने के लिए अपने को के लिए धनराशि एकत्रित की तथा अन्य सामान जटाया। तैयार कर रहे है। उन्होने युद्ध मे वीरगति प्राप्त या अपग सैनिकों को संभव राज्य प्रतिज्ञा समितियों के साथ युद्धयोग सहायता पहुँचाने की दिशा मे शानदार काम किया और उनके परिवारों के पुनर्वास के लिए समूचित योजनाएं जवानो के परिवारों के साथ सपर्क स्थापित करने । और राज्य सरकार द्वारा स्थापित राज्य प्रतिरक्षा समि- बनाई। तियों के साथ सक्रिय सहयोग करने के अलावा, प्रान्ध्र. माधापुर गांव की महिलाओं का प्रशंसनीय कार्य प्रदेश को स्वेक्षिक संस्थानो ने स्थानीय कपडा मिलों से हाल के हिन्द-पाक सघर्ष मे जब दुश्मन के हवाई शिक का कपड़ा इकट्ठा किया और हमलों से हमारे एक हवाई अड्डे को भीषण क्षति पहुँची वितरण के लिए इसके वस्त्र तैयार तो भुज-खवाड-बन्नी परिवार और बाल कल्याण परियो र उनके परिवारो की न्यूनतम जना के मुख्य केन्द्र माघापुर गाव की लगभग १५० कामभावश्यकतामों की शर्त हेतु धन संग्रह के लिए वे फिल्म काजी महिलाभों ने प्रतिर -शो मोर चेरिट शो का प्रायोजन कर रहे हैं। वे कानपुर तत्काल ही नजदीक के गांवों में लामों ने प्रतिरक्षा अधिकारियो के अनुरोध पर Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२, वर्ष २४, कि.६ मावश्यक सामग्री ..का प्रबन्ध किया और बिना कुछ . सामना करने के लिए केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने पारिश्रमिक लिए प्रार दिन के अन्दर हवाई पट्टी की शिक्षा के संक्षिप्त पाठ्यक्रम और उत्पादन एकर जैसे मरम्मत कर दी। प्रतिरक्षा अधिकारियों के प्राकलन के विशिष्ट कार्यक्रम शुरू.करने के लिए सन् १९७१-१९७२ अनुसार उन्हें इस प्रकार की मरम्मत में एक महीने से में अपने बजट में से ६५ लाख रुपये की धनराशि ऊपर लगता। निर्धारित की है। समस्या की विशालता को देखते हुए गुजरात बोर्ड की अध्यक्षता का दौरा यह धनराशि अपर्याप्त है, इसलिए बोर्ड ने जवानों के गुजरात राज्य बोर्ड की अध्यक्षा ने युद्ध-पीडित परिवारो के लिए कल्याण कोष की स्थापना की है और लोगों से मिलने के कुछ, बनामकण्ठा और जामनगर जिलों बोर्ड की अध्यक्षता में इस कोष मे दिल खोलकर दान के सीमावर्ती गांवों का निरीक्षण किया। वह दन्तिवाडा, देने के लिए जनता से अपील की है। विशिष्ट मावश्कभज, जामनगर, अहमदाबाद, धंगाना और प्रोखा मे तानों और स्थानीय परिस्थिलियों को दृष्टि मे रखते हुए सेना मुख्यालय के सैन्य अधिकारियों से मिली ताकि शत्र और कल्याण योजनाए शुरू की जाएगी। बोर्ड द्वारा सहाके हवाई और समुद्री हमलो के कारण क्षतिग्रस्त समुद्र यता प्राप्त ६ हजार संस्थानों के अलावा, अब भी बहुत तटवर्ती गांवो मे कल्याण विस्तार परियोजनाए संचालित से लोगो की विशाल सख्या ऐसी है जो समाज की सेवा की जा सके और गाव वालों के मनोबल को ऊचा के लिए आतुर हैं. परन्तु नेतृत्व और समुचित मार्गदर्शन उठाया जा सके । इन क्षेत्रो मे दर्जीगिरि पोर बनाई के के प्रभाव में उसका प्रभावकारी और ठीक ढंग से उपएकक, बालवाडी तथा महिला मडल और महिलामो के योग नही किया जा सका है। केन्द्रीय समाज कल्याण लिए वयस्क साक्षरता कक्षाए स्थापित करने का प्रस्ताव बोर्ड देश भर के सामाजिक कार्यकर्तामो पौर स्वेच्छिक संस्थानों को प्रोत्साहित करने का सदैव यत्न करता रहा जवानों के परिवारों के लिए कल्याण कोष है ताकि वे न केवल समाज के दुर्बल वर्गों के लिए विशिष्ट केन्द्रीय समाज कल्याण बोर्ड ने सारे देश के स्वेच्छिक कार्यक्रम सगठित करने की दिशा में अपने प्रयासों को कार्यकर्तामों को सक्रिय करने, बाहरी प्राकान्तायो की एकजुट कर सके बल्कि राष्ट्रीय स्थानीय स्तरों पर मानव चुनौती का सामना करने तथा बाढ़ और तूफान जैसी देवी या प्रकृति द्वारा प्रस्तुत चुनौती का सामना करने के लिए विपत्तियो का मुकाबला करने के अलावा, सभी अवसरों ___समुचित वातावरण की दृष्टि कर सके और जनता को पर स्फतिमान नेतृत्व प्रदान किया है। युद्ध में मारे गए प्रोत्साहित कर सकें। या अपग हुए जवानों के परिवारो पुनर्वास की चुनौती का शोध-कण परमानन्द जैन शास्त्री हिन्दी साहित्य के कवियों का प्रभी तक जो इतिवृत्त सा साहित्य रचा गया है जिस पर तुलनात्मक और समा. संकलित हुपा है, उसमे बहुत से कवियों का इतिवृत्त लोचनात्मक निबन्धों के लिखे जाने की प्रावश्यकता है। संकलित नहीं हो सका, इतना ही नहीं किन्तु उनका वर्तमान में हिन्दी साहित्य पर जो थीसिस (निबन्ध). नाम और रचनादि का कोई परिचय नही लिखा लिखे जा रहे हैं, जिन पर लेख को को यूनिवर्सिटियो से गया । उसका कारण तद्विषयक अनुसन्धान की कमी है। पी० एच०डी० की डिग्री मिलती है। उग थीसिसो मे अन्य भाषाम्रो की तरह हिन्दी भाषा मे जैनियो का बहुत अनेक स्थल और भद्दी भूले रहने पर भी उनको सुधारने . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोषण २१२ की मोर कोई कदम नहीं उठाया जाता, और न उनका प्रस्तुत हेमराज गोदिकाने प्रागरे वाले हेमराजकी टीका को निर्णय करने वाले विद्वान उन निबन्धों का आद्योपान्त देखकर प्रवचनसार का पद्यानुवाद बनाया है। प्रथम हेम. अध्ययन ही करते है इसलिए परिमार्जन की पोर उनका राज की रचना प्रवचनसार टीका, भक्तामर स्तोत्र पद्यानुध्यान जाता ही नही। ऐसी स्थिति में उन निबन्धो मे वाद, श्वेताम्बर चौरासीबोल, ममयसार टीका, कर्मप्रकृति निहित भूलों का परिमार्जन नहीं हो पाता, और वे भूलें टीका आदि ग्रन्थों की रचना की है। और दूसरे हेमराज बराबर बनी रहती है। यहाँ एक ऐसे ही निबन्ध की भूल ने प्रवचनसार पद्यानुवाद, दोहा शतक प्रादि ग्रथ लिखे की पोर पाठको का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जो है। इम सक्षिप्त परिचय पर से डा. वासुदेवमिह अपनी दिबन्ध 'अपभ्रश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद' पर भूल का परिमार्जन करने में समर्थ हो सकेगे। लिखा गया है । जिसके लेखक है डा० वसुदेव सिह एम० यह तो थीसिम की सबसे स्थूल भूल का नमूना मात्र यह शोध प्रबध सं. २०२२ मे प्रकाशित भी हो चुका है। जिसमें दो विभिन्न जातीय विद्वानो के माताहै। मैंने उसकी एक प्रति प्रभी मुन्शीलाल, मनोहरलाल पितामों, स्थानो और कृतियों को एक ही बतलाया गया नई सडक से खरीदी है। उसके तृतीय अध्याय के पृष्ठ है, जिससे स्पष्ट जान पडता है कि लेखक ने इस पर १२२ पर (१६) पाडे हेमराज शीर्षक के नीचे उनका और शोध करने का प्रयत्न नहीं किया। अन्यथा ऐसी स्थल उनकी कृतियों का परिचय कराया गया है। जिसमे भूल नही हो सकती थी। अब लेखक की दूसरी भल का हेमराज नाम के दो विभिन्न जानियो के विद्वानो को एक परिचय देखिए। हेमराज के रूप मे संकलित कर लिया है और दोनो की इसी प्रबन्ध के पृष्ठ ८६-८७ पर भगवनीदास का रचनामों को भी एक हेमराज की रचना मान ली गई है। परिचय देते हुए लिखा है कि-"प० परमानन्द शास्त्री ने साथ ही प्रागरावासी पाडे हेमराज अग्रवाल का भगवतीदास नाम के चार विद्वानों की कल्पना की। परिचय और सागानेर तथा कामावासी हेमराज खंडेल- आपके मन से प्रथम भगवतीदास पाण्डं जिनदास के शिष्य थे बाल गोदिका परिचय दोनों को एक रूप मे सम्बद्ध कर दूसरे बनारसीदास के मित्र थे। तीसरे अम्बला के निवासी दिया है। अनेकान्त पत्र में द्वितीय हेमराज ने अपने और प्रसिद्ध कवि तथा अनेक ग्रंथो के रचयिता थे और निसार के पद्यानुवाद में लिखा है कि इसके सम्बन्ध चौथे भैया भगवतीदास १८वी शताब्दी के कवि थे शास्त्री नेमकेत भी किया जा चुका है लेखक ने इस संबंध जी का यह अनुमान प्रस्पष्ट और कथन परस्पर विरोधी में कोई अन्वेषण नहीं किया, और न यह सोचने-समझने है। बनारसीदास के मित्र भगोतीदास और कवि भगोतीका प्रयत्न ही किया है कि आगरावासी हेमराज की दास को भिन्न-भिन्न व्यक्ति क्यों माना गया शास्त्री प्रवचनसार की गद्यटीका' (सं० १७०६) को देखकर जो जी ने इसका कोई कारण नहीं बतलाया।" भाई उसे देखकर कामावाले हेमराज गोदिका ने इस प्रबन्ध के लेखक डा. वासूदेवसिंह जी ने जो 7 का पद्यानवाद' करने का उल्लेख किया है। निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया है, वह युक्त यक्ति नही है। क्योंकि मैने अपने भगवतीदास नाम के चार विद्वान १. सत्रहस नव प्रौतर माघमास सित पाख । नामक के लेख मे उनका प्राधार भी दिया है और लिखा पंचमि प्रादितवार को पूरन कीनो काम । है एक पाण्डे जिनदास के गुरु ब्रह्मचारी भगवतीदास थे। २. सत्रह पच्चीसको वरतै सवत सार । मैंने अपने लेख में यह कही नही लिखा कि-"प्रथम कातिक सुदि तिथि पचमी पूरन सभी विचार । -प्रवचनसार पद्यानुवाद टीका पाडे हेमराज उपगारी नगर पागरे मे हितकारी। ३. पांडे हेमराज कृत टीका पढ़त बढ़त सबका हित नीका गोपि प्ररथ परगट करि दीनो, सरल वचनि का तिन यह प्रथसटीक बनायो बालबोधकरि प्रगट दिखायो। रचि सुख लीन्हों। वही प्रवचनसार टीका प्रशस्ति प्रवचनसार टीका हेमराज गोदिका स. १७२५ में १. देखे भनेकान्त वर्ष ७किरण .. X Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४, वर्ष २४, कि० ६ भगवतादास पाण्डे जिनदास के शिष्य थे ।" यह वाक्य आपने कैसे? मैंने ब्रहाचारी भरतीदास को पाण्डे जिनदास का शिष्य नहीं गुरु लिखा है । अतः यह ग्रापकी दूसरी भूल है। मैंने तो पाण्डे जिनदास के जयू स्वामी चरित की प्रशस्तिका निम्न वाक्य भी प्रस्तुत किया है जिससे स्पष्ट हो जाता है कि पाण्डे जिनदान बह्म भगantares frog थे। "ब्रह्मचारी भगोतीदास, ताको शिष्य पाण्डे जिनदास ।" अतः स्पष्ट है कि ब्रह्मचारी भगवनी दाम के शिष्य जिनदास थे न कि जिनदास के शिष्य भगवतीदास | ऐसी उल्टो मान्यता की कल्पना आपने कैसे करली, इसका कोई प्रमाण उपस्थित नही किया । लेखक को चाहिए कि वह अपने इस विप रीत कयन की पुष्टि में कोई ठोस प्रमाण उपस्थित करे । अन्यथा अपनी भूल स्वीकार करें । दूसरे यह भी विचारणीय है कि पाडे जिनदास के गुरु भगवतीदाम सं० १६४० से पूर्व के विद्वान है । उनका कोई परिचय अभी तक नहीं मिला । सम्भवतः इन ब्रह्मचारी भगवतीदाम से बनारसीदास का परिचय भी नहीं हुआ जान पड़ता। क्योंकि इनके शिष्य जिनदास ने स० १६४०] जम्बूस्वामी चरित बताया तब बनारसीदास का जन्म भी नहीं हुआ था । दूसरे भगवतीदास जिन्हे बनारसीदास ने नाटक समयसार प्रशस्ति में 'सुमति भगोतीदास' लिखा है । भोर १० हीरानन्द जी ने पचास्तिकाय की प्रशस्ति मे 'वहाँ भगोतीदास है ज्ञाता' रूप से उल्लेख किया है । वे कौन से भगोनीदास है, और कहाँ के निवासी है, कुछ कुछ ज्ञात नहीं होता । बूढ़ियावाले तृतीय भगवतीदास का सम्बन्ध आगरा से जरूर रहा है। धनेकान्त रहे तीसरे भगवतीदास जी बूड़िया विधा के निवासी थे उनकी जाति अग्रवाल थी, उनके पिता का नाम किसनदास था। यह दिल्ली के भट्टारक महेन्द्रसेन के शिष्य थे । पर इन्होने बनारसीदास का उल्लेख तक नहीं किया । १. सवत्सर सोरह भए चालीस तास ऊपर ह्न गए । भादोवदि पांचमि गुरुवार, ता दिन कियो कथा उच्चार | श्रीर न धन्य सूत्रो से ही ज्ञात हो सका कि प्रस्तुत भग वतीदास बनारसीदास की गोष्ठी के विद्वान हैं। भट्टारक विद्वान होने के नाते इनसे उनका साक्षात्कार भी नहीं हुना जान पडता । यह भगवोदास आगरा में जरूर रहे है'। स. १६५१ मे उन्होने श्रर्गलपुर जिन वन्दना नाम की रचना बनाई थी, वहाँ के मन्दिरों का दर्शन किया। उनके साथ रामनगर के अनेक सज्जन उस यात्रा मे साथ थे। स० १३९६ में आगरा में उन्होंने कोई प्रथ भी लिखायें। इनकी रचनाएँ सं० १६५१, १६६४, १६८०, १६८७ १७०१ और अन्तिम रचना म० १७०४ मे सुलतानपुर (आगरा ) में लिखी गई यह दीर्घजीवी विद्वान थे । यह भट्टारकीय विद्वान थे तथा कवि थे । इन्हें डाक्टर साहब ने है, यह अम्बाला के निवासी अम्बाला का निवासी लिखा नहीं है । यह जगाधरी के पास बूढिया के निवासी हैं पहले यह सम्पन्न कस्बा था । अब यह खंडहरों में परिणत होगया है । यह कस्वा पंजाब मे था, और उसका जिला अम्दाला है। जिला मे रहने स कवि अम्बाला के निवामी नहीं कहे जा सकते । चतुर्थ भगवतीदास ग्रोसवाल थे। और अध्यात्म विषय के अच्छे विद्वान थे, उनकी कविता है और अध्यात्म रस से सराबोर है । यह १८वी शताब्दी के विद्वान है और ब्रहादिनास के कर्ता है। इनका गोष कटारिया या बिनास में इनकी १७ रचनाओं का सं० १७३१ से १७५५ तक का संकलन है । पाठक देखे इनके परिचय मे क्या असमंजस श्रीर असम्बद्धता है यह पाठकों पर ही छोड़ा जाता है। वे इसे पढ़कर डा० वासुदेवसिंह को सम्बद्धता का अच्छा परिषय पा सकेंगे । और इससे उनका भी समाधान हो सकेगा । २. नगर बूडिए वसे भागोती, जन्मभूमि है प्रासि भगोती । अग्रवाल कुलवंसल गोती, पडित पद जन निरख भगोती सीतास प्रवास्ति इनका विशेष परिचय के लिए देखे । - अनेकान्त वर्ष २०, किरण २, पृ० १०४ ३. इनके परिचय के लिए देखें । - अनेकान्त वर्ष १४, किरण १० १० २२७ मोर ३५६ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर पंचाल को राजधानी अहिच्छत्र परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय इतिहास में अहिच्छत्र का प्राचीन नगर के गया था । किन्तु यह जिस जनपद की राजधानी थी उसका रूप में उल्लेख मिलता है। यह नगर उत्तर पाचाल की नाम 'पाचाल' था । पुराणों में जनपद का पांचाल नाम राजधानी था। यहाँ अनेक राजामों ने राज्य किया है। पड़ने का कारण एक राजा के पाच लडके थे । उनमें पहिच्छत्र भगवान पाश्वं नाथ की वह तपो भूमि थी, जहा राज्य के पांच भाग बाटे जाने के कारण इसे 'पांचाल उन्होने ८४६ ईसवी पूर्व पापी कमठ के जीव द्वारा किये सज्ञा प्राप्त हुई। हो सकता है इसका और अन्य कोई गए घोर उपसगों को सहा था। और धरणेन्द्र पद्मावती कारण रहा हो, विष्णु पुराण मे लिखा है कि जिस राज्य ने उसका निवारण किया था। उपसर्ग दूर होते ही के संरक्षण करने के लिए पांच समर्थ व्यक्ति यथेष्ट हों पार्श्वनाथ को कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। उसी समय से उस राज्य की संज्ञा पाचाल है' 'पञ्च प्रलं इति पंचालम् । इसका नाम अहिच्छत्र पड़ा। यजुर्वेद, ब्राह्मण प्रन्थों, पारण्यको तथा उपनिषदों में महाभारत के अनुसार पांचाल का विशाल क्षेत्र हिमा देश तथा उसमें निवास करने वाले लोगो के लिए पचाल लय पर्वत से चम्बल नदी तक विस्तृत था। उत्तरीपांचाल नाम का उल्लेख पाया जाता है । परवर्ती सस्कृत साहित्य, या रुहेलखण्ड की राजधानी अहिच्छत्र थी । और दक्षिण पाली निकाय ग्रथों और जैन साहित्य मे पंचाल के अनेक पाचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। महाभारत के युद्ध उल्लेख मिलते है। से पूर्व (१४३० ईसवी के लगभग) पाचाल में द्रपद नाम प्राचीन अहिच्छत्र नगर के अवशेष उत्तर प्रदेश के का राजा राज्य करता था। कौरव-पाण्डवके गरू द्रोणाचार्य बरेली जिले मे वर्तमान राम नगर गाव के समीप टीलों ने उस पर विजय प्राप्त की थी । द्रोण ने उत्तरी पाचाल पर स्वय अधिकार कर लिया था । परन्तु राज्य का मे विखरे पड़े है । अहिच्छत्र पहुँचने के लिए पहले बरेली दक्षिणी भाग द्रुपद को वापिस कर दिया था। अहिच्छत्र से पावला नामक स्टेशन जाना पड़ता है। और प्रावला जिस जनपद की राजधानी थी उसका नाम महाभारत में से कच्ची सद्रक द्वारा १० मील उत्तर मे मोटर या तांगे एक स्थान पर अहिच्छत्र विषय उल्लिखित है: से चलकर अहिच्छत्र पहुँचते है। इस पुरातन नगरी के अहिच्छत्र च विषयं द्रोणः समभिपद्यत । ढह कई मील के विस्तार में फैले हुए है। रामनगर से एव राजन्नहिच्छात्रा पुरी जनपदा यता॥ लगभग डेढ़ मोल भागे पहिच्छत्र के पुराने अवशेष मिलते उत्तर और दक्षिण पंचाल की सीमा के मध्य गगा हैं। यह किला अाजकल मादि कोट के नाम से प्रसिद्ध है। इस किले के सम्बन्ध में यह जनश्रुति है कि इसे राजा नदी थी । किन्तु उत्तरी पांचाल की सीमा निश्चित नहीं आदि ने बनवाया था, और वह जाति से महीर था। थी। संभवत: हिमालय पर्वत उसकी उत्तरी सीमा का एक दिन वह किले की भूमि पर सोया हुप्रा था, उसके निर्मापक रहा हो । वैदिक साहित्य में अहिच्छत्र का नाम 'परिचक्रा' .. ऊपर एक नाग ने छाया कर दी थी । द्रोणाचार्य उसे इस मिलता है । हो सकता है कि उस समय इस नगर का १. विमल चरण लाहा पंचालज एण्ड देयर केपिटल स्वरूप चक्राकार या गोलाकार रहा हो। महा भारत 'अहिच्छवा' (मवायर प्राफ दि प्रार्केलाजिकल सर्वे काल मे परिचका के स्थान पर अहिछत्र' नाम रूट हो ग्राफ इडिया सख्या ६७) पृ० १.३ । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त अवस्था में देखकर भविष्य वाणी की था कि वह किसी कमठ का जीव संवर देव विमान में कही जा रहा था। दिन उत्तर प्रदेश का राजा होगा। कहते हैं कि वह उसका विमान इकाइक रुक गया, उसने नीचे उतरकर भविष्य वाणी सत्य सिद्ध हुई, और वह इस नगर का राजा देखा तो उसे पार्श्वनाथ दिखाई पड़े। उन्हें देखते ही बना । कोट का वर्तमान घेरा साढ़े तीन मील के लगभग उसके पूर्व भव का वैर स्मृत हो उठा, पूर्व वैर के स्मृत है। इस किले के चारों मोर एक चौड़ी परिखा खाई होते ही उनने क्षमाशील पावं नाथ पर घोर उपसर्ग थी जिसमें पानी भरा रहता था । खाई के चिन्ह प्रव किया । इतनी अधिक वर्षा की कि पानी पार्श्वनाथ की भी दिखाई पड़ते हैं। पुराने कोट के टीले रामनगर के ग्रीवा तक पहुँच गया, किन्तु फिर भी पार्श्वनाथ अपने प्रास-पास तक फैले हुए हैं । ये टीले प्राचीन मदिरों, ध्यान से विचलित नहीं हुए । तभी धरणेन्द्र का प्रासन स्तूपों और अन्य इमारतों के सूचक जान पड़ते हैं। कम्पायमान हुमा मोर उसने प्रवधिज्ञान से पाश्वनाथ बौदों ने उक्त जनश्रुति मे परिवर्तन किया । क्यों पर भयानक उपसर्ग होना जानकर तत्काल घरणेन्द्र पनाकिनसांग ने लिखा है कि नगर के बाहर नागहृद वती सहित पाकर उन्हें ऊपर उठाकर उनके सिर पर अथवा सपं सरोवर था जिसके समीप बुद्ध ने सात दिवस फण का क्षत्र तान दिया । उपसर्ग दूर होते ही उन्हें तक नागराज के पक्ष में प्रचार किया था । और सम्राट् ज्ञान प्राप्त हो गया । पश्चात् उस सम्बर देव ने भी अशोक ने इस स्थान पर स्तूप बनवाया था मेरा अनुमान उनकी शरण मे सम्यकत्व प्राप्त किया। पोर अन्य सात है कि बौद्ध कथा मे नागराज को फण फैलाकर बुद्ध पर सौ तपस्वियो ने भी जिन दीक्षा लेकर मात्म कल्याण माया करते दिखलाया गया है मेरा यह भी विचार है कि किया। इस घटना का उल्लेख भाचार्य समन्तभद्र ने उक्त घटना के स्थान पर बनाए गए स्तूप का नाम महि- वृहत्स्वयंभू स्तोत्र में किया है। च्छत्र (सर्पछत्र) रखा होगा। अहिच्छत्र का उल्लेख प्राचार्य सोमदेव ने अपने पाश्र्वनाथ बनारस के राजा विश्वसेन भोर वामा यशस्तिलक चम्पू [शक सं०८८१ --वि० सं०१० देवी के पुत्र थे। पार्श्वनाथ कुमार अवस्था मे एक दिन के उपासकाध्ययन में किया है। हो जाने कळतप हरिषेण ने अपने कथाकोश की १२वीं कथा मे पहिसियो को अग्नि जलाकर तप करते देखा। पाश्र्वनाथ ने छत्र के राजा दुर्मुख का उल्लेख किया है। पोर २० अपने विशिष्ट ज्ञान से यह जानकर उन्होने तापस से कहा वी कथा मे केवल पहिच्छत्र का उल्लेख ही नहीं किया मिली का गल किन्तु वहाँ के राजा वसुपाल ने एक उत्तुग सहस्त्र कूट है। लकडी चीरने पर उसमे से सर्प युगल निकला। चैत्यालय का निर्माण कराया था और भगवान पार्श्वनाथ पार्श्वनाथ ने उन्हे मरणासन्न जानकर पच नमस्कार की एक सुन्दर कलात्मक मूर्ति तय्यार कराकर उसमें मत्र उनके कान में पढ़ा । उसके प्रभाव से वह युगल विराजमान की थी। राजा ने एक कलाकार द्वारा पाव मर कर नाग कुमार देवों का अधिपति धरणेन्द्र और नाथ की मूर्ति का निर्माण कराया, किन्तु वह उसे पूरी पद्मावती हुमा । इस घटना के बाद पार्श्वनाथ दीक्षित नहीं बना सका । पौर भी अनेक कलाकार पाए, पर वे हो गए । विहार करते हुए वे अहिच्छत्र पहुंचे। भी उसे बना नहीं सके । बहुत दिनों बाद दूसरा कुशल वास्तव में यह घटना सन् ८७६ ईसवो पूर्व तीर्थकर १. पाञ्चाल देशेषु श्रीमत्पावनाथ परमेश्वरयशः पार्षनाथ के तपस्वी जीवन से सम्बन्धित है । बुद्ध तो प्रकाशने मन्त्रे पहिच्छेत्रे चन्द्राननाङ्गनारतिकुसुम उस समय पंदा भी नहीं हुए थे। और न उनके जीवन के चापस्य द्विष तपस्य भूपते रुदितोदित.........." साथ ऐसी कोई घटना ही घटी है। ऐसी स्थित में बौद्धों -उपासकाध्ययन पृ०८४ के साथ इस घटना का सम्बन्ध बतलाना उचित प्रतीत २. पहिच्छत्रपुरे राजा दुर्मुखोऽभवदिद्धधी। नहीं होता। जब वे अहिच्छत्र में ध्यानस्थ थे उस समय -हरिषेण कथाकोश पृ० २२ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर पवाल की राजधानी पहिल्डन २६७ कलाकार पाया बह विनीत वेश में राजा के सामने उप. की। प्रतः उसका नाम पहिच्छत्र लोक में प्रसिटमा। स्थित हुमा । राजा ने बड़े कोष में उससे कहा । कलाकार उत्तरपुराण में भी पाश्र्वनाथ के उपसर्ग निवारण देखो, हमने अनेकों कलाकारों को असीम धन दिया, का उल्लेख है। पौर' उपसर्ग दूर होते ही कैवलज्ञानकिन्तु वे मुखं थे इसीलिए मूर्ति का निर्माण नहीं कर प्राप्ति का वर्णन किया गया है। सके। तुम अद्भुत चित्रकार के रूप में पाए हो, प्रतः दक्षिणी पंचाल की राजधानी काम्पिल्य में दशवां इस प्रतिमा को शीघ्र तम्यार करो । इस उपलक्ष पक्रवर्ती हरिषेण हुमा और बारहवा पक्रवर्ती ब्रह्मदत्त । मे मैं तुम्हें बहुत धन दूंगा । यदि तुम कला में पारंगत रामायण में भी पांचाल के राजा ब्रह्मदत्त की पर्चा न हो तो इसी समय यहां से चले जाम्रो । कलाकार ने मिलती है। कहा कि पाप प्रब अधिक न कहिए । मैं प्रतिमा तय्यार महाभारत युद्ध के बाद उत्तर पांचाल तथा पहिकरता है। राजा ने कलाकार को ताम्बल देकर विदा च्छत्र के सम्बन्ध में कुछ विशेष ज्ञात नहीं होता। कहा किया । कलाकार घर चला गया। वहां उसने बड़ी भक्ति । र चला गया । वहा उसने बड़ा भावत जाता है कि पंचाल के उत्तर पश्चिम मे नाग जाति का से जिनेन्द्र भगवान की पूजा की, और वहां स्थित प्राचा- प्राबल्य हा पोर इस जाति के नेता द्वारा परीक्षित की रनिष्ठ मुनि का स्तवन किया । और गुरू के समक्ष बैठकर मत्यु हुई । कुरु पांचाल जनपद पर उसका क्षणिक प्रभुत्व भक्ति से उनकी विनय करने लगा। उसने मुनिराज से रही। परन्तु जन्मेजय ने उन्हें बड़ी संख्या में विन निवेदन किया, कि हे मुनि नाथ ! जब तक भगवान किया। पाश्र्वनाथ की पूजा नही हो जाती तब तक के लिए का पूजा नहा हा जाता तब तक के लिए सोलह जनपदो मे पचाल का नाम पाया है। इनमें मुझे मद्य, मास, मधु, पंचोदुम्बर फल, दूध, दही घी, पंचाल जनपद के दो भाग बतलाये गए हैं । उत्तर परि मौर स्त्री सेवन के त्याग का नियम प्रदान कीजिए। दक्षिण । उत्तर पांचाल की राजधानी पहिच्छत्र पोर कलाकार की इच्छानुसार मुनि ने कलाकार को व्रत दिए दक्षिण की राजधानी काम्पिल्य थी। इन जनपदों को और उनका विधि-विधान भी बतलाया । कलाकार अपने स्थिति बहत काल तक एक सी न रह सकी। इनमें से घर लौट प्राया। पौर सर्वलक्षण-सम्पन्न, सर्वाङ्ग सुन्दर १. इहेव जंवदीवे भारहेवासे मज्झिमखडे कुरु जगल पार्श्वनाथ की प्रतिमा का निर्माण किया । जब राजा जणवए सखावई णाम नगरी रिद्धसमिद्धा होत्था। वसुपाल ने उस नव निर्मित प्रतिमा के दर्शन किए तब तत्थ भयव पाससामी छउमत्थविहारेण विहरतो उसका शरीर हर्ष से भर गया। उसने उस कलाकार को काम्रोसग्गे ठिपो । पूचनिबद्धवरेण कमठासुरेण विपुल धन दिया। प्रविच्छिन्नधारापवाऐहि वरिसंतो प्रबुहेरो विउम्विविविध तीर्थकल्प मे अहिच्छत्र नगर का प्राचीन मो। तेण सयले महिमडले एगवण्णवीभूए पाकंठनाम-'सख्यावती' लिखा है। जो कुरुजांगल प्रदेश की मग्गंग भगवंतं मोहिणा माभोएऊण पचग्गि साहगजधानी थी। उसमे लिखा है कि जब भगवान पार्श्व- णुज्जय कमढमुणि पाणाविभकट्टखोडीनंतरडज्झत नाथ उक्त सख्यावती नगरी मे ठहरे हुए थे। तब कमठ सप्पभवउवयारं सुमरतेण घरणिदेण नागराएण नामक दानव ने उनके ऊपर वर्षा की झडी लगा दी। अग्गमहिसीहि सह मागंतूण मणिरयण चिचइमं जब नागराज घरणेन्द्र को यह बात मालूम हुई तब वह सहस्सफणा मडलछत्तं सामिणी उरिकरेऊण हिट्ठ सपत्नीक उस स्थान पर पाया, जहां पाश्वनाथ ध्यानस्थ कंडलीकय भोगेण संगिहिम सो उपसग्गे निवारियो। थे। उसने भगवान के शरीर को चारों पोर से परिवे- तमो परंतीये णयरीए अहिच्छत्त ति नाम संजायं । ष्टित कर लिया। और फणो द्वारा उनके शिर की रक्षा -विविधतीर्थकल्प पृ० १४ २. देखो, उत्तरपुराण ७३।१३६-१४४ श्लोक, पृ. २३८ । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८, ब , कि.६ अनेकान्त ने दसरों को दबाना या उन पर अधिकार करने का रूप में रहा ज्ञात होता है। इस काल को अनेक कलाप्रयत्न करना शुरू कर दिया । महात्मा बुद्ध के समय कृतियों वहाँ मिली है। तक मगध, कोशल, वत्स और प्रवन्ति। ये चार राज्य कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में अहिच्छत्रा के मुक्तामों उत्तर भारत में प्रवशिष्ट थे। शेष की स्थिति गौण हो का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि सम्भवतः गई। बुद्ध की मृत्यु के एक सी वर्ष बाद शायद पंचाल उस समय पहिच्छत्र नगर मुक्ता व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध स्वतन्त्र रहा। चौथी शताब्दी ई० पूर्व मे उसे महापप- हो गया था। नन्द ने मगध साम्राज्य में मिला लिया। नन्दों के बाद अशोक के बाद मौर्य साम्राज्य का ह्रास प्रारम्भ पंचाल क्रमशः मौर्य और शुंग शासन के अन्तर्गत रहा। हो गया। विविध प्रान्तों में शासक स्वतन्त्र रहने लगे। शंग कालीन जिन शासकों के सिक्के इस प्रदेश में बड़ी उत्तर भारत में राजनैतिक अस्थिरता मुखरित हो उठी। संख्या में मिले हैं। उनके नाम अग्नि मित्र, भानु मित्र, और सन् १८५ ई० पूर्व अन्तिम मौर्य शासक वृहद्रथ को भद्रघोष, जेठ मित्र, भूमि मित्र मादि मिलते है। मार कर पुष्पमित्र ने शुंग साम्राज्य की स्थापना की। ईस्वी सन के प्रारम्भ में उत्तर पांचाल का राजा अन्य प्रदेशो की तरह पांचाल भी स्वतन्त्र हो गया। यह पालादसेन था, जिसके समय के दो लेख कोशाम्बी के पास स्वतत्रता लगभग २००ई० पूर्व प्राप्त हुई। उस समय पभोसा से मिले है। एक लेख में प्राषाढसेन को राजा से लेकर ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य तक पाचाल वहस्पति मित्र का मामा बताया गया है। मित्रवशी मे कई राजवंशों ने शासन किया। इन राजामों की राजशासकों के बाद अच्युत नाम के राजा का पता चलता धानी अहिच्छत्र ही रही । पहिच्छत्र मे मोर उसके पासहै। इसके सिक्के अहिच्छत्र तथा रुहेलखण्ड के अन्य कई पास जो सिक्के मिले है। उनसे ज्ञात होता है कि ई. स्थानो से प्राप्त हुए है। सम्भवतः यह वीर राजा था। पूर्व २०० के लगभग ५० ईस्वी पूर्व तक अहिच्छत्र पर जिसे सम्राट् समुद्रगुप्त ने परास्त कर पचाल पर अपना पाल भोर सेन नाम के राजामो ने शासन किया है। अधिकार कर लिया था और तब से पचाल गुप्त मगध शुगवशी शासको के साथ इनका क्या सम्बन्ध था यह साम्राज्य के अन्तर्गत रहा जान पड़ता है। क्योकि कुछ ज्ञात नही हुमा । गुप्त नाम वाले रुद्र गुप्त, जय गुप्त अहिच्छत्र के उत्खनन मे एक मुहर मिली है जो गुप्त और दास गप्त । तीन शासको के सिक्के मिले है। पाल कालीन है, जिससे स्पष्ट है कि महिच्छत्र गुप्त साम्राज्य वंशी राजानो मे बगपाल का नामोल्लेख मिलता है। की भुक्ति बना' । गुप्त काल मे अहिच्छत्र बड़े नगर के इनका समय ईस्वी पूर्व दूसरी सताब्दी का अन्तिम भाग १. अधिछत्रा या राबो शोनकायन पुत्रस्य वंगपालस्य, माना जाता है। बगपाल के उत्तराधिकारी विश्वपाल पुत्रस्य राज्ञो तेवणी पुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण, यज्ञपाल हुए । इनके नाम सिक्कों से ही ज्ञात हो सके हैं। वहिदरी पुत्रेण प्राषाढसेनेन कारित ।" पहिच्छत्र मे अभिलिखित कुशान कालीन जो बुद्ध २. दसरे लेख में प्राषाढसेन को राजा वृहस्पति मित्र प्रतिमा मिली है, वह मथुरा के लाल बलुए पत्थर की है। का मामा कहा गया है। उसकी निर्माण शैली से स्पष्ट है कि वह मथुरा से एपि ग्राफिया इण्डिक। जिल्द २०२४०.४१ अहिच्छत्र लाई गई होगी । कुषाण काल मे मथुग मूर्ति(क) राज्ञो गोपालीपुत्रस, बहसति मित्रस मातुलेन निर्माण कला का बड़ा केन्द्र हो गया था। कुशाण काल गोपाली या वहिदरीपुत्रन [प्रासा] आसाढ़सेनेन लेन में निर्मित मूर्तियाँ पश्चिमोत्ता मे तक्ष शिला से लेकर कारित [उदाकस] दसमे सवछरे कश्शयोमानं पूर्व मे सारनाथ तक और उत्तर में श्रावस्ती से लेकर अरह [त] व। -जैन लेख स० अ० २ १० १३ दक्षिण में सांची तक भेजी जाती थी। उस काल की ३. 'श्रीअहिच्छत्रा भुक्तो कुमारामात्यकारणस्य' निमित मूर्तिया सुन्दर एव कलापूर्ण होती थी। उन्हें देखते देखो अहिच्छत्रा-कृष्णदत्त बाजपेयी संग्रहाध्यक्ष मथुरा पृ० ११ ४.दाखए अर्थशास्त्र का शामशास्त्री सस्करण । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर पचाल की राजधानी पहिण्यत्र ही दर्शक का हृदय हषोंफुल्ल हो जाता था। अहिच्छत्र कंठस्थ हो जाया करते थे। अतः उन्हें देवागमः स्तोत्र में भी मूर्तियों का निर्माण होता था। जैसा कि हरिषेण कंठस्थ हो गया। वे उसका अर्थ विचारने लगे। उससे कथा कोष की १२वीं कथा से जान पड़ता है। प्रतीत हपा कि भगवान ने जीवादिक पदायों का जो अहिच्छत्र के विद्वान पात्र केसरी स्वरूप कहा है, वह सत्य है । पर अनुमान के सम्बन्ध में अहिछत्र के निवासी पात्रकेसरी ब्राह्मण विद्वान उन्हें कुछ सन्देह हमा। वे घर पर यह सोच ही रहे थे थे। जो वेद वेदाग प्रादि में निपुण थे। उनके पाचसो कि पद्मावती देवी का पासन कम्पायमान हुमा । वह वहाँ विद्वान शिष्य थे । जो अवनिपाल राजा के राज्य कार्य में पाई और उसने पात्र केसरी से कहा कि भापको जनधर्म सहायता करते थे। उन्हे अपने कुल (ब्राह्मणत्व) का के सम्बन्ध में कृछ सन्देह है। माप इसकी चिन्ता न करे। बडा अभिमान था। पात्र केशरी प्रात: और सायंकाल कल भापको सब ज्ञात हो जावेगा। वहां से पद्मावतीदेवी संध्या वन्दनादि नित्य कर्म करते थे और राज्य कार्य को पाश्वनाथ के मन्दिर मे गई। और पावनायक मूति जाते समय कौतूहलवश वहाँ के पार्श्वनाथ मन्दिर मे उनकी के फण पर निम्न श्लोक अंकित किया। प्रशान्त मुद्रा का दर्शन करके जाया करते थे। एक दिन "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । उस मन्दिर में चारित्रभूषण नाम के मुनि भगवान पार्श्व- नान्यथानुपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" नाय के सन्मुख 'देवागम स्तोत्र' का पाठ कर रहे थे। प्रात:काल जब पात्र केसरी ने पाश्वनाथ मन्दिर मे पात्रकेसरी सध्या वन्दनादि कार्य सम्पन्न कर जब वे प्रवेश किया तब वहां उन्हे फण पर भकित वह श्लोक पार्श्वनाथ मन्दिर मे पाये, तब उन्होंने मुनि से पूछा कि किवाई दिया। उन्होंने उसे पढकर उस पर गहरा विचार प्राप प्रभी जिस स्तवन का पाठ कर रहे थे। क्या उसका किया, उसी समय उनकी शंका निवृत्त हो गई। भौर प्रर्थ भी जानते है । तब मुनि ने कहा मैं इसका अर्थ नही ससार के पदार्थों से उसकी उदासीनता बढ़ गई। उन्होने जानता। तब पात्रकेसरी ने कहा, पाप इस स्तोत्र का विचार किया कि प्रात्म-हित का साधन वीतराग पूनः एक वार पाठ करे। मुनिवर ने उसका पाट पुनः मुद्रा से ही हो सकता है। और वही प्रात्मा का सच्चा धीरे-धीरे पढ़कर सुनाया। पात्र केसरी की धारणा शक्ति । स्वरूप है। जैनधर्म मे पात्रकेसरी की प्रास्था अत्यधिक बडी विलक्षण थी। उन्हें एक बार सुनकर ही स्तोत्रादि सुदृढ हो गई । और उन्होंने दिगम्बर मृद्रा धारण कर १. हरिषेण कथा कोष। ली। प्रात्म साधना करते हुए उन्होने विभिन्न देशों में २. विप्र वशाग्रणी : सूरिः पवित्रः पात्र केशरी । विहार किया और जैन धर्म को प्रभावना की। स जीयर्याज्जिन-पादाब्ज-सेवनक मधुवतः ।। पात्र केसरी दर्शनशास्त्र के प्रौढ विद्वान थे। उनकी -सुदर्शन चरित्र दो कृतियो का उल्लेख मिलता है। उनमे पहला ग्रंथ भूभतादानुवर्ती सन् राजमेवापरांगमुखः । विलक्षण कदर्थन है। जिसे उन्होने बौद्धाचार्य दिङ्नाग सयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रकेशरी ॥ द्वारा प्रस्थापित अनुमान विषयक हेतु के रूपात्मक लक्षण -नगरतानुकशिलालेख का खण्डन करने के लिए बनाया था इससे हेतु के रूप्य ३. निवासे सारसम्पत्ते देशे श्रीमगघामिधे । का निरसन हो जाता है। यद्यपि यह ग्रन्थ इस समय पहिच्छत्रे जगच्चित्र नागरनगरे वरे ॥१८॥ अनुपलब्ध है किन्तु वह अन्य बौद्ध विद्वान शान्तिरक्षित पुण्यादवनिपालाख्यो राजा राजकलान्वितः । और कमलशील के समय उपलब्ध था। और अकलंकप्रान्तं राज्यं करोत्युच्च विप्रैः पञ्चशतव्रतः ॥१६॥ देवादि के समय भी रहा था । तत्वसंग्रहकार शान्ति विप्रास्ते वेद वेदाङ्ग पारगाः कुलगविताः। रक्षित ने तो पृ० ४०४ में तो उसका खडन करने का areai मध्या च निरंतरम् ।२०। प्रयल किया है। पात्रकेसरीने उक्त 'त्रिलक्षकदर्थन' में हेत -माराधना कथाकोष बप्य का युक्ति पुरस्सर खंडन किया था। इस कारण Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०, वर्ष २४,कि.६ पोवात यह अन्य एक महत्त्वपूर्ण कृति था। मापकी दूसरी कृति शासन किया है इससे स्पष्ट है कि पहिच्छत्र में जैन, बहुत छोटी सी 'बिनेन गुण संस्तुति' नाम की है। बोट, वैष्णव भोर शिव के मन्दिर रहे हैं । इन सभी धर्मों जिसका पपर नाम 'पात्र केसरी स्तोत्र' है। जो स्तति ग्रंथ की मूर्तियां भी वहाँ मिली हैं। जो कला की दृष्टि से होते हुए भी उसमें दार्शनिक दृष्टि से महन्त के विविध प्रत्यन्त मूल्यवान हैं । गुणों को अनेक युक्तियो से पुष्ट किया गया है। सन् १८६१-६२ के उत्खनन में डा० फुरहर को इससे स्पष्ट है कि प्राचार्य पात्र केसरी अपने समय पार्श्वनाथ का एक मन्दिर मिला था, जिसकी के बहुत बड़े विद्वान थे। शिला लेखों में सुमति या सुम- तारीख कुशान काल की बतलाई गई है। पौर कई भग्न तिदेव से पहले पात्र स्वामी का नाम प्राता है। उनका दिगम्बर मूर्तियां भी प्राप्त हुई थीं, जिनमे से कुछ पेर सबसे पुरातन लेख बौद्धाचार्य शान्तिरक्षित का समय सन् ६३ से १५२ तक की तारीखें थीं। इसके उत्तर में (ई.७०५-७६३) है। और कणंगोमी का समय ईसा एक छोटे मन्दिर के खडहर भी मिले थे। कटारी खेड़ा की ७वी शताब्दी का उत्तरार्द्ध पोर ८वीं का पूर्वार्द्ध है। से कनिंघम को एक बहुत बड़ी नग्न जैन मूर्ति मिली थी। प्रतः पात्र स्वामी का समय बौद्धाचार्य दिग्नाग (ई. वहाँ डा० फुरहर को जो स्तम्भ मिला था उस पर निम्न ४२५) के बाद और शान्ति रक्षित के मध्य होना चाहिए। लेख अंकित था'-'महाचार्य इन्द्रनन्दि शिष्य पार्व पर्थात् पात्र स्वामी ईसा की छठी शताब्दी के उत्तराई पतिस्स कोट्टारी' इसके अतिरिक्त छोटा पाषाण भी मिला और ७वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध के विद्वान होना चाहिए। था जिस पर नवग्रह बने हुए थे। अहिच्छत्र का उत्खनन इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पहिच्छत्र प्राचीन काल पहिच्छत्र की खुदाई मे जो बहमूल्य कलात्मक से लामक से ही जैनों का केन्द्र रहा है । वह प्राज भी जैन तीर्थ के वस्तुएं प्राप्त हुई, उनमे मूर्तियां, मिट्टी के वर्तन, पशु- रूप रूप में प्रसिद्ध है। अनेक यात्री वहाँ दर्शन-पूजन के लिए पक्षियों की प्राकृतियाँ, सभा मण्डप, स्तूप और प्रयाग पहुँचते है । वार्षिक मेला भी वहाँ लगता है। पट प्रादि मिले है । सभा मन्दिर और मोहरों से भरा हुमा १. एपि ग्राफिया इडिका जिल्द १०, सन् १६०६-१० वर्तन भी मिला था। अनेक ताँबे के सिक्के भी मिले थे प० १०६.१२१ तथा गजेटियर १६१०, १९११। जो विभिन्न राजवंशों के थे। जिन्होंने अहिच्छत्र पर देखो अहिच्छत्रा पु. जैन दर्शन में आत्म-तत्त्व विचार [पृष्ठ २४६ का शेषांश] मगर विचार करने पर यह सिद्धान्त भी बाल की दीवार की तरह ढह जाता है। क्योकि व्यापक पात्मा शरीर के बाहर पाज तक किसी भी योगी, महात्मा को दिखलाई नहीं दिया है। इसलिए निष्कर्ष यही निकला कि प्रात्मा स्वदेह परिमाण वाला है। स्वामी कार्तिकेय जी ने कहा भी है : लोय पमाणो जीवो देह-पमाणो वि अच्छिदे खेत्ते ।। उग्गाहण-सत्ती दो संहरण विसप्प-धम्मादेण' ॥१७६ अर्थात् जीव लोक प्रमाण है और व्यवहार नय की अपेक्षा देह प्रमाण भी है क्योंकि इसमें संकोच विस्तार करने की शक्ति रहती है। इससे स्पष्ट है पात्मा देह प्रमाण है। १. स्वामी का अनु० गा० १०६ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानशतक : एक परिचय बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ध्यानशतक-यह एक ध्यानविषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ किया गया। है। भाषा उसकी प्राकृत व गाथासख्या १०५ है। वह कुछ हस्तलिखित प्रतियों में एक गाथा (१०६) और सुप्रसिद्ध हरिभद्र सूरि विरचित टीका के साथ श्री विनय- भी उपलब्ध होती है, जिसमे यह सूचित किया गया है भक्तिसुन्दरचरण ग्रन्थमाला द्वारा वि. सं. १९९७ में कि जिनभद्र क्षमाश्रमण ने मुनि जन के लिए कमविशुद्धयर्थ प्रकाशित हो चुका है। हरिभद्र सूरि ने उसे अपनी १०५ गाथामों मे ध्यान का व्याख्यान किया है। श्री पावश्यकसूत्र की टीका मे पूर्ण रूप से उद्धृत कर दिया पं. दलसुख भाई मालवणिया की कल्पना है कि वह है। प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ प्रावश्यक के प्रकरण में 'पाड- नियंक्तिकार भद्रबाह के द्वारा रचा गया है। कमामि तिहि सल्लेहि' इत्यादि सूत्र के अन्तर्गत 'पडिक्क- रचयिता उसका कोई भी रहा हो' पर प्रन्थ की an - मामि उहि माहि-पट्टेणं झाणेणं कद्देणं. धम्मण० रचना सुव्यवस्थित व विषय का विवेचन उत्कृष्ट एवं सुक्केणं.' इसकी वहा व्याख्या करते हुए उन्होने ध्यान के प्रसाम्प्रदायिक है-दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही निरुक्तार्थ, काल, भेद और फल का निर्देश मात्र करते सम्प्रदायों में वह प्रतिष्ठित रहा है। हरिभद्र सूरि ने हुए यह कह दिया है कि 'यह ध्यान का समासार्थ है, उसका जहां अपनी आवश्यकसूत्र की टीकामें उसे पूरा ही उद्विस्तृत प्रथं ध्यानशतक से जानना चाहिए। वह यह है' घृत कर दिया है वहा षट्खण्डागम के प्रसिद्ध टीकाकार इतना कहते हुए उन्होंने उसे महान् पर्थ से गभित शास्त्रा- प्राचार्य वीरसेन ने ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नामनिर्देश तर-एक पृथक् ही प्रन्थ बतलाया है। के बिना उक्त षट्खण्डागम के अन्तर्गत वर्गणा खण्ड मे प्रन्थकार-यहां हरिभद्र सूरि ने उसके रचयिता के कर्म अनुयोगद्वारगत तपःकर्म का व्याख्यान करते हुए नाम प्रादि का कुछ निर्देश नहीं किया। श्री विनयभक्ति प्रस्तुत ग्रन्थ की लगभग ४१ गाथामो को उद्धृत किया सन्दरचरण ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित उसके सस्करण में है। वहाँ तपश्चरण का प्रकरण होने से उन्होने प्रार्तउसे "जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण विरचित' निर्दिष्ट किया पर लिखा गया है, जो स्वतंत्र रूप मे देवचन्द्र लालगया है, पर वहा इसका प्राधार कुछ नहीं बतलाया। इसी भाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत से मुद्रित हुमा है. संस्करण के अन्त मे मुद्रित उक्त हरिभद्र सूरि विरचित __ (ई. १९२०)। वत्ति के कार मलघारगच्छीय हेमचन्द्र सूरि द्वारा निमित ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, प. २५०.५१ टिप्पण' में भी प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता प्रादि का निदश नही ४. तत्त्वार्थसूत्र के अन्तर्गत वें अध्याय मे २७-४५ १. प्रय ध्यानसमासार्थः, व्यासार्थस्तु ध्यानशतकादवसेयः। (इवे. २७-४६) सूत्रो के द्वारा जो ध्यान का विवे तच्चेदम्-ध्यानशतकस्य च महार्थत्वाद्वस्तुतः शास्त्रा- चन किया गया है उसकी प्रस्तुत ग्रन्थगत उस न्तरत्वात् प्रारम्भ एव विघ्नविनायकोपशान्तये मङ्ग- ध्यान के विवेचन से तुलना करने पर ऐसा प्रतीत लार्थमिष्टदेवतानमस्कारमाह होता है कि वह तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् उसके (माव. सू. पूर्व भाग पृ. ५८२) प्राधार से रचा गया है। कारण यह कि तत्त्वार्थसूत्र २. यह टिप्पण मलधारगच्छीय हेमचन्द्र सूरि द्वारा हरि- का प्रभाव इसके ऊपर स्पष्ट रहा दिखता है। भद्र सूरि विरचित आवश्यक सूत्र की समस्त वृत्ति ५. षट्खण्डागम पु. १३, पृ. ६४-७७. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२, वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त .." २० रौद्र ध्यानो की उपेक्षा करके अधिकांश गाथायें धर्मध्यान के कहने की प्रतिज्ञा की है। इससे ऐसा प्रतीत होता है प्रकरण की उद्घत की हैं, कुछ गाथाये शुक्लध्यान प्रकरण कि ग्रन्थकार की दृष्टि में प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम ध्यानाकी भी है। ध्यानशतक की जिन गाथानों को षट् खण्डा. ध्ययन रहा है। पर जैसा कि ऊपर निर्देश किया गया है, गम की उक्त टीका में उद्धृत किया गया है उनकी क्रमिक हरिभद्र सूरि ने उसका उल्लेख 'ध्यानशतक' नाम से संख्या इस प्रकार है किया है। ध्यानशतक धवला पु. १३ ध्यानसामान्य का लक्षण व काल-यहाँ स्थिर पृष्ठ गा. अध्यवसान को-एकाग्रता का अवलम्बन लेने वाली मन ... ६४ १२ की परिणति को-ध्यान कहा गया है। वह एक वस्तु३६.४० ६६ १४.१५ विषयक छद्मस्थ (अल्पज्ञ) जीवो के अन्तर्मुहूर्त काल तक ३७ ही हो सकता है, इससे अधिक काल तक वह नहीं हो ६६-६७ १७-१८ सकता । इस स्थिर अध्यवसानरूप ध्यान को छोड़कर जो ... ६७ १६ मन की च चलता होती है उसे चित्त कहा गया है जो भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता स्वरूप है। ध्यान के ४२-४३ २१-२२ ३०-३४ . २३.२७ अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है। ध्यान से च्युत ४५-४६ ... ७१ होने पर जो मन की चेष्टा होती है उसे अनुप्रेक्षा कहा ३३-३७ गया है। भावना व अनुप्रेक्षा से रहित मन की प्रवृत्ति का ४१ नाम चिन्ता है। ५२-५६ ४३-४७ केवलियो का ध्यान चित्त की स्थिरतारूप न होकर योगो के निरोधस्वरूप है प्रोर वह उन्ही के होता है, ६६.६८ ५३-५५ छनस्थों के नही होता। ६३. ... छद्मस्थों के अन्तर्मुहुर्त के बाद या तो पूर्वोक्त चिन्ता १०२ ... ... ... ५७ होती है या फिर ध्यानान्तर होता है। ध्यानान्तर से ___ दोनों ग्रन्थगत इन गाथानों में जो थोडा सा शब्दभेद यहाँ अन्य ध्यान का अभिप्राय नहीं रहा, किन्तु उससे है वह प्रायः नगण्य है। जैसे-होज्ज होइ, झाइज्जा- भावना या अनुप्रेक्षारूप चित्त को ग्रहण किया गया है। ज्झाएजजो, पसम थेज्जाइ -पसमत्येयादि इत्यादि । इस प्रकार का ध्यानान्तर उसके पश्चात् होने वाले ध्यान ग्रन्थ का विषय-परिचय के होने पर ही सम्भव है । इस प्रकार बहुत-प्रन्यान्यग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्थकर्ता ने शक्लध्यानरूप अग्नि वस्तुओं के संक्रमण द्वारा ध्यान की परम्परा दीर्घ काल के द्वारा कर्मरूप इंधन को भस्मसात् कर देने वाले योगी. तक भी सम्भव है।। श्वर' वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए ध्यानाध्ययन ध्यान के भेद-वह ध्यान प्रात, रौद्र, धर्म और १. गाथाक्त 'जोईसर' शब्द का अर्थ रिभट सरिर शुक्ल के भेद से चार प्रकार का है। इनमे अन्तिम दो श्वर योगोश्वर वा किया है। योगेश्वर के अर्थ को धर्म और शुक्ल-ध्यान निर्वाण (मुक्ति) के साधक हैं प्रगट करते हुए उन्होंने वीर को अनुपम योगो से और प्रादि के दो-पात और रोद्र-संसार के कारण प्रधान बतलाया है। तत्पश्चात् विकल्प रूप में _है। यह सामान्य निर्देश है। विशेष रूप से प्रातं ध्यान 'योगोश्वर' को ग्रहण करते हुए उन्होंने उसके स्पष्टीकरण में केवलज्ञानादि से योग (सम्बन्ध) करा देने को तियंचगति, रौद्र ध्यान को नरकगति, धर्मध्यान को वाले धर्म व शुक्ल ध्यानो से यूक्त ऐसे योगियों ने वैमानिक देवगति और शुक्लध्यान को सिद्धगति का अथवा योगियो का ईश्वर बतलाया है। कारण समझना चाहिए । : ::::::::::::::: Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानशतक : एक परिचय २७३ पार्तध्यान-इसके चार भेदों का विवेचन करते हुए धर्मध्यान-इसका विवेचन करते हुए यहाँ प्रपमतः कहा गया है कि मनिष्ट इन्द्रियविषयों के वियोग का दो गाधामों(२८-२९) में भावना, देश, काल, भासनविशेष, एवं भविष्य में उनके प्रसंयोग का निरन्तर चिन्तन, शूल मालम्बन, क्रम, ध्यातव्य, ध्याता, अनुप्रेक्षा, लेश्या, लिंग व शिरोरोगादि जनित वेदना के वियोग का एवं भविष्य और फल; इन बारह द्वारों-उक्त धर्मध्यान के प्ररूपक में उनके पुनः उद्भूत न होने का चिन्तन, अभीष्ट इन्द्रिय- अन्तराधिकारी-का निर्देश करते हुए उनको जानकर विषयों के सर्वदा बने रहने का चिन्तन, तथा इन्द्र व चक्र- मुनि से उसके चिन्तन के लिए प्रेरणा की गई है। तत्पवर्ती भादि की विभूति को प्रार्थना; यह सब मार्तध्यान श्चात् इम धर्मध्यान का अभ्यास हो जाने पर ध्याता को है । वह राग, द्वेष व मोह से कलुषित रहने वाले प्राणियों शुक्लध्यान की पोर प्राकृष्ट किया गया है। प्रागे क्रमशः के होता है जो तियंचगति का प्रधान कारण होने से संमार उक्त बारह द्वारों के अनुसार उस धर्मध्यान का विवेचन का बढ़ाने वाला है। इष्टवियोग व अनिष्ट संयोग आदि किया गया है । के निमित्त से जो शोक व विलाप प्रादि होता है, ये १. भावना-भावनामो के द्वारा धर्मध्यान का पूर्व उसके परिचायक लिंग है। वह अविरत-मिथ्यादृष्टि व में अभ्यास कर लेने पर ध्याता चकि ध्यान की योग्यता सम्यग्दृष्टि, देशविरत (धावक) और प्रमादयुक्त सयत को प्राप्त होता है, इसीलिए उन भावनाओं का जान लेना जीवों के होता है। (गा.५-१० व १८) रौद्रध्यान-यह भी हिसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, आवश्यक है । वे भावनाएं चार है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र स्तेयानुबन्धी और विषयसंरक्षणानुबन्धी के भेद से चार और वैराग्य । ज्ञान (श्रुत) के प्रयास से मन की प्रवृत्ति प्रकार का है। रौद्रध्यानी प्राणी सदा क्रोध के वशीभूत होता प्रशुभ को छोड़कर शुभ व्यापार में होती है तथा उसके हुमा निर्दयतापूर्ण अन्तःकरण से दूसरे प्राणियो के बघ, प्राश्रय से जीवादि तत्त्वों का यथार्थ बोध होता है, जिससे बन्धन एवं जलाने प्रादि का चिन्तन किश करता है। वह ध्याता स्थिरबुद्धि होकर ध्यान में प्रवृत्त होता है। यह धूर्तता से अपने पापाचरण को छिपाता हुमा अनेक प्रकार ज्ञान-भावना का प्रभाव है । जो सम्यक्त्व के प्रतिचार रूप से असत्य, कठोर एव गहित प्रादि भाषण करता है; तीव्र शका-कांक्षा प्रादि दोषों से रहित होता हुमा प्रशमादिक्रोध व लोभ से अभिभूत होकर निरन्तर दूसरे के द्रव्य के प्रशम'. सवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और प्रास्तिक्य-गुणों के अपहरण का विचार करता हुआ उससे होने वाली साथ जिनशासनविषयक स्थिरता प्रादि गुणो से युक्त नरकादि दुर्गति की ओर भी ध्यान नहीं देता तथा विषयो होता है उसका होता है उसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध होता है। इस विशुद्ध के साधनभूत धन के सरक्षण मे सदा व्यापत रहता हुपा - सम्यग्दर्शन के प्रभाव से नह ध्यान के विषय मे निश्चल 'न जाने कोन कब क्या करेगा' इस प्रकार से शंकाल होता है। यह दर्शनभावना की महिमा है। चारित्रहोकर मभी के धात का कलुषित विचार किया करता है। भावना से-सर्वसावधनिवृत्तिरूप चारित्र के प्रयास से यह चारों प्रकार का रोद्रध्यान चूंकि राग, द्वेष व मोह -नवीन कर्मों का अनास्रव (सवर) और पूर्वसचित से मलिन जीव के होता है; इसीलिए वह नरकगति का मूल कर्म की निर्जरा होती है, इससे ध्याता अनायास ही ध्यान कारण होकर संसार का-~जन्म-मरण की परम्परा का-- को प्राप्त होता है। वैराग्यभावना से मन के सुवासित बढ़ाने वाला है । रौद्रध्यानो निर्दय होकर दूसरो की र हो जाने पर जगत् के स्वभाव का ज्ञाता ध्याता विषया है विपत्ति में अकारण ही हपित होता है तथा इसके लिए ३. गाथोक्त (३२) 'पसम' शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट वह कभी पश्चाताप भी नहीं करता। इसके अतिरिक्त करते हुए हरिभद्र सूरि ने प्रथमतः उसका सस्कृत वह स्वय पाप कार्य करके यानन्द का अनुभव करता है। रूप प्रश्रम' मानकर उसका अर्थ स्व-पर तत्त्व के पधि(गा. १६.२४) गमविषयक प्रकृष्ट खेद किया है, तत्पश्चात् विकल्प १. तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखिये । त. सू.६, २७१४ रूप में 'प्रशम' संस्कृत रूप को ग्रहण करके उससे २.त. सू. ६-३५. प्रकृत प्रशमादि पाँच गुणों को ग्रहण किया गया है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २७४, वर्ष २४,कि. ६ नुराग से रहित, निर्भय और इस लोक व परलोक संबंधी जिस प्रकार विषम स्थान के ऊपर चढ़ने के लिये लाठी या प्राशसा (प्रभिलाषा) से विहीन होता हुमा ध्यान में रस्सी प्रादि का सहारा लिया जाता है उसी प्रकार उत्तम निश्चल होता है। ध्यान पर प्रारूढ़ होने के लिये उक्त वाचना प्रादि का २. देश-ध्यान के योग्य स्थान वह होता हे जहाँ मालम्बन लेना आवश्यक समझना चाहिए। यवती स्त्री, पशु, नपुसक और कुशील-जुवारी व ६. क्रम- ध्यान की प्रतिपत्ति का क्रम केवली के शराबी प्रादि-जन का संचार न हो। यह अपरिपक्व भवकाल मे-मुक्तिप्राप्ति के निकटवर्ती अन्तमहतं में ध्याता को लक्ष्य करके कहा गया है. किन्तु जो सहनन (शैलेशी अवस्था में)-मनोनिग्रह प्रादि रूप है-प्रथमतः और धैर्य से बलिष्ठ होते हुए ज्ञानादि भावनामो के मनोयोग का निग्रह, पश्चात् वचन योग का निग्रह और व्यापार मे अभ्यस्त हो चुके है ऐसे मुनि जन के लिए ध्यान तत्पश्चात् काययोग का निग्रह करना है। केवली को का कोई स्थान नियत नही है उनके लिए जनसमुदाय छोड़कर अन्य ध्याता के जिस प्रकार से भी समाधान समाप्त ग्राम और निर्जन वन में कोई विशेषता नहीं होता है उसे ही ध्यान की प्रतिपत्ति का क्रम जानना है। तात्पर्य यह कि मन को स्थिर कर लेने वाले वैसे चाहि मनि जन जिस किमी भी स्थान में निश्चलतापूर्वक धम- ७. ध्यातव्य-ध्यातव्य का अर्थ है ध्यान का विषय, ध्यान कर सकते है। ध्याता के लिए जहाँ भी मन, वचन जिसका कि उस में चिन्तन किया जाता है। वह प्राज्ञा, व काय योगो का स्वास्थ्य-स्वरूपस्थिति-सम्भव है वही अपाय, विपाक और संस्थान के भेद से चार प्रकार का स्थान ध्याता के लिए उप क्त होता है। इतना अवश्य है है। ग्राजा के विषय मे ध्याता वह विचार करता है कि कि वह प्राणिहिमा ग्रादि से रहित होना चाहिए। जिन भगवान् उस दीपक के समान है जो समीपवर्ती पदार्थों ३काल- इसी प्रकार काल भी ध्यान के लिए वह को बिना किसी भेदभाव के प्रकाशित करता है। दीपक उत्तम माना गया है जिसमे उपयुक्त योगा को समाधान से उनमे यह एक विशेषता भी है कि वे लोक मे वर्तमान प्राप्त होता है-उसके लिए दिन-रात आदि का कुछ सभी त्रिकालवी पदार्थों को प्रकाशित करते है-उन्हे नियम नही है। उदासीनभाव से केवल जानते-देखते है । इस प्रकार सर्वज्ञ ४. प्रासन-यही बात प्रासन के विषय में भी सम व वीतराग होने के कारण वे तत्व का अन्यथा प्ररूपण झना चाहिए-पद्मासनादि रूप शरीर की जो अवस्था नही कर सकते । इसीलिये उनके द्वारा उपदिष्ट वस्तुस्व. ध्याता के धर्मध्यान में बाधक नही होती वही प्रासन ध्यान । रूप का जिनाज्ञा के प्राश्रय से उसी प्रकार का श्रद्धान के लिए उचित माना गया है। विशेष इतना है कि उसमे करना चाहिए। यदि बुद्धि की मन्दता, उपदेशक प्राचार्य भी योगो का समाधान होना चाहिए। अभिप्राय यही है मादि के प्रभाव अथवा सूक्ष्म पदार्थों की दुरवबोधता के कि ध्यान के लिये देश, काल और चेष्टा (पासनादि रूप कारण जिज्ञासित पदार्थ का निर्णय नही होता है तो शरीर की अवस्था) का कोई नियम नही है। इन सबमें भी "जिन भगवान् अन्यथा कथन करने वाले नही है' इस । केवल योगो का समाधान अभीष्ट है। कारण यह कि प्रकार की दृढ श्रद्धा के साथ उसे वैसा ही मानकर उसके कैवल्य प्रादि की प्राप्ति का एक प्रधान कारण वही है। विषय मे शका प्रादि से राहत होना चाहिए। y. प्रालम्बन-पागम से सम्बद्ध वाचना, प्रच्छना, अपायके विषय में ध्याता यह विचार करता है कि जो परावर्तन और अनुचिन्तन ये तथा समीचीन धर्म से अनुः जीव राग, द्वेष एवं प्रास्रव प्रादि क्रियानों में प्रवृत्त रहते गत सामायिक आदि ये सब धर्मध्यान के पालम्बन है। है वे इस लोक और परलोक दोनों लोकों में दुःख भोगते १. प्रात्मानमात्मन्यवलोकमानस्त्व दर्शन-ज्ञानमयो वि- है, इसीलिए आत्महितेच्छु के लिए उनका त्याग करना शुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोऽपि साधु प्रावश्यक है। लभत समाधिम् ॥ (द्वात्रिंशतिका अमित. २५) २.त. सू.६-३६ । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानशतक : एक परिचय २७५ विपाक का अर्थ कर्मका परिपाक है। यह प्रकृति, स्थिति, धर्मध्या 7 के ध्याता पूर्व दो शुक्लध्यानों-पृथक्त्ववितर्क प्रदेश मोर अनुभाग के भेद से चार प्रकार का है । इन सविचार पोर एकत्ववितर्क भविचार-के भी ध्याता हैं। चारों में प्रत्येक शुभ व अशुभ के भेद से दो प्रकार का है। विशेष इतना है कि वे अतिशय प्रशस्त संहनन (प्रथम) यह कर्म का विपाक मिथ्यादर्शनादि के प्राश्रय से विविध से युक्त होते हुए चौदह पूर्वो के धारक होते है । अन्तिम प्रकारों में परिणत होता है। इस प्रकार धर्मध्यान का दो शुक्लध्यानो-सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति और व्यूपरतक्रियाध्याता कर्मविपाक के विषय में अनेक प्रकार से चिन्तन प्रतिपाती के ध्याता क्रम से सयोग के वली और किया करता है। प्रयोगके वली होते है। ध्यातव्य के चतुर्ग भेद (सस्थान) मे ध्याता धर्म व अनप्रेक्षा-जिस मुनि ने पूर्व में धर्मध्यान के द्वारा अधर्म प्रादि द्रव्यो के लक्षण. ग्राकार, आधार, भेद और अपने अन्तःकरण को सवासित कर लिया है वह धर्मध्यान प्रमाण के साथ उनकी उत्पाद, स्थिति एवं भग (पय) के समाप्त हो जाने पर भी सदा प्रनित्यादि बारह रूप अवस्थानों का भी विचार करता है। साथ ही वह अनुप्रेक्षाग्रो के चिन्तन में निरत होता है। पंचास्तिकायस्वरूप अनादिनिधन व नाम-स्थापनादि रूप १०. लेश्या-धर्मध्यानी के क्रम से विशुद्धि को प्राप्त चार करता हुआ होने वाली तीव्र-मध्यमादि भेदयुक्त पीत, पद्म प्रोर शुक्ल उसमें अवस्थित पथिवियो, वात वलयो, द्वीप-समुद्रों, नारक- नीलेशी विलों, देवविमानों और भवनो आदि के प्राकार का ११. लिंग-धमध्यान का परिचायक लिंग जिनविचार करता है । वह यह भी विचार करता है कि उप प्ररूपित पदार्थों का श्रद्धान है जो पागम (सूत्र), उपदेश योगस्वरूप जो जीव है वह अनादिनिधन, शरीर से -सत्र के अनुसार कथन, प्राज्ञा (अर्थ) और निसर्ग भिन्न, अरूपी, कर्ता और अपने कर्म का भोक्ता है । (स्वभाव) से होता है। प्रकृत धर्मध्यानी जिन-साधुओ के अपने ही कर्म से निर्मित उसका ससाररूप समुद्र जन्म गुणों का कीर्तन-सामान्य से उल्लेख-और उनकी भक्तिमरणादिरूप अपरिमित जल से परिपूर्ण, मोहरूप प्रावों पूर्वक प्रशमा करता हुमा विनय और दान से सम्पन्न (भवगे) से सहित और अज्ञानरूप वायु से प्रेरित सयोग होता है। साथ ही वह सामायिकादि बिन्दुमार पर्यन्त श्रुत, व वियोग रूप लहरों से व्याप्त है। उससे पार कराने मे व्रतादि के समाघानस्वरूप शोल और सयम में रत समर्थ वह चारित्ररूप विशाल नौका है जिसका बन्धन रहता है। सम्यग्दर्शन और कर्णधार (नाविक या मल्लाह) सम्यग्ज्ञान १२. फल-पुण्य का प्रास्रव, सबर, निर्जरा और है। इसी चारित्ररूप नाव पर चढ़कर मुनिजनरूप व्या- देवसख की प्राप्ति यह सब शभानुबन्धी उस घमध्यान का पारी निर्वाणरूप नगर को प्राप्त हुए है। फल है । इस प्रकार उपयुक्त बारह द्वारो के समाप्त हो ८ ध्याता-उक्त धर्मध्यान के ध्याता सब प्रमादो से जाने रहित व ज्ञान रूप धन से सम्पन्न क्षीण मोह (क्षाक) पौर शक्लध्यान-'शोधयति अष्टप्रकार कर्ममल शुचं व उपशान्त मोह (उपशामक) मुनि माने गये है। ये ही क्लमयतीति शक्लम' इस निरुक्तिके अनूमार जो ज्ञानावर१. यहा टीकाकार हरिभद्र सूरि ने धर्माधर्नादि द्रव्यो १. यहा (६४) हरिभद्रसूरि ने गाथोक्त 'पूर्वघर' की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूपता को सिद्ध करते समय विशेषण अप्रमाद वालो (अप्रमत्ता) का बतलाया है। प्रमाण के रूप मे "घट-मौलि-सुवर्णार्थी .." आदि इसे स्पष्ट करते हुए उन्होने यह कहा है कि इस जिन दो कारिकाओं को उद्घन किया है वे प्राप्त- प्रकार से उक्त प्रादि के दो शुक्ल ध्यान माष तुष मीमांसा की ५६-६० सख्या की कारिकाये है। ये मरुदेवी प्रादि अपूर्वधरों के भी घटित होते हैं। दोनो कारिकाए उक्त हरिभद्र सूरि के शास्त्रवार्ता- २. इस फल का निरूपण यहा न करके प्रागे शुक्लध्यान समुच्चय (७, २-३) मे भी समाविष्ट है। के प्रकरण में (गा. ६३) किया गया है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६. वर्ष २४, कि० ६ मनेकान्त गादि रूप माठ प्रकार के कर्म मल को शुद्ध करता है अथवा शोक को दूर करता है उसका नाम शुक्लध्यान है। इस शुक्लध्यान की प्ररूपणा मे भी वे ही बारह द्वार हैं जिनका निरूपण धर्मध्यान में किया जा चुका है। उनमे भावना, देश, काल धोर पासनविशेष इनकी प्ररूपणा घध्यान के ही समान हैं—उससे कुछ विशेषता नहीं है— इसीलिये इनका निरूपण यहां फिर से नहीं किया गया है । प्रालम्बन-- क्रोध, मान, माया और लोभ के परि त्यागस्वरूप, क्रम से क्षान्ति, मार्दव, प्रार्जव प्रौर मुक्ति ये प्रकृत शुक्लध्यान के श्रालम्बन है; जिनके माश्रय से मुनि उस पर आरूढ होता है । 1 क्रम - प्रथम दो शुक्लध्यानो के क्रम का कथन धर्मध्यान के प्रकरण में किया जा चुका है (४४) । विशेषता यहां यह है कि छद्मस्थ (पल्प) ध्याता तीनों लोकों को विषय करने वाले मन को क्रम से प्रतिवस्तु के परित्याग रूप परिपाटी से - परमाणु में सकुचित करके श्रतिशय निश्चल होता हुआ शुक्लध्यान का चिन्तन करता है। तत्पश्चात् प्रयत्नपूर्वक मन को उससे भी हटाकर अमन ( मन से रहित ) जिन होता हुआ अन्तिम दो शुक्लध्यानों का ध्याता होता है । उनमे भी शैलेशी प्रवस्था की प्राप्ति के पूर्व पन्तमुहूर्त सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिशुक्लध्यान का ध्याता होता है और नेशी धवस्था मे अन्तिम स्युपरतक्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान का ध्याता होता है । उपत छद्मस्थ ध्याता तीनों लोकों के विषय करने वाले मन को किस प्रकार से परमाणु में संकुचित करता है और तत्पश्चात् उससे भी उसे कैसे हटाता है, इसे निम्न दो-तीन उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मान्त्रिक सब शरीर मे व्याप्त विच्छू आदि के विष को मत्र द्वारा डंक ( भक्षणस्थान ) मे रोकता है मौर तत्पश्चात् अतिशय प्रधान मंत्र के योग से उसे डक से भी दूर कर देता है उसी प्रकार तीनो लोको के विषय करने वाले मन रूप विष को ध्यान रूप मत्र के सामर्थ्य से जिनदेव रूप वैद्य उसे परमाणु में स्थापित करता है और तत्पश्चात् उससे भी उसे हटा देता है । अथवा जिस प्रकार ईधन के समूह को क्रम से हटाने पर श्रग्नि अल्प मात्रा में शेष रह जाती है और पन्त में थोड़े से शेष रहे ईधन के भी हट जाने पर वह पूर्णतया बुझ जाती है इसी प्रकार प्रकृत मन के विषय में भी समझना चाहिये। इसी प्रकार क्रम से वचनयोग का पौर काययोग का भी निरोध कर केशो के स्वामी मेरु के समान स्थिर होकर शैलेशी' केवली हो जाता है । ध्यातव्य - पूर्वगत श्रुत के अनुसार अनेक नयों के माश्रय से उत्पाद, स्थिति और भंग (व्यय) आदि पर्यायों का जो प्रण प्रादि रूप एक द्रव्य मे चिन्तन होता है यह पृथक्त्ववितकं सविचार नाम का प्रथम शुक्लध्यान है । वह राग परिणाम से रहित ( वीतराग ) के होता है । पर्व (द्रव्य), व्यजन (शब्द) और योग इनके सक्रमण-अर्थ से व्यंजन व व्यंजन से अर्थ आदि के परिवर्तनका नाम विचार है। इस विचार से सहित होने के कारण इसे सविचार कहा गया है (७८ ) । जो चित्त ( प्रन्तःकरण ) वायुविहीन दीपक के समान अतिशय निश्चल रहकर पूर्वोक्त उत्पादादि पर्यायों में से किसी एक ही पर्याय को विषय करता है। वह पूर्वोक्त विचार से रहित होने के कारण एकत्ववितर्क- अविचार (द्वितीय) शुक्लध्यान कहलाता है' (८०) । यह भी पूर्वगत श्रुत के अनुसार होता है । निर्वाणकाल मे कुछ योगों का विरोध करने वाले मन व वचन योगों का पूर्णतया निशेध करके साये काययोग का भी निरोध कर देने वाले केवली के तीसरा - सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती शुक्लध्यान होता है उस समय केवली के उच्छ्वास निःश्वास रूप सूक्ष्म काय की क्रिया रह जाती है। वे ही केवली योगों का पूर्ण रूप से निशेष हो -- १. शैलेशी का अर्थ हरिभद्र सूरि ने कुछ प्राचीन गाथानों के आधार से अनेक प्रकार किया है। जैसे- १ शैलेश (मेरु) के समान जो स्थिरता को प्राप्त हो चुका है उसे शैलेशी कहा जाता है, २ शैल के समान स्थिर ( अडिग ) ऋषि शैलपि ( प्रा. संलेसी) कहलाता है, लेशी पर्यात् लेश्या से रहित वही केवली, यहां 'अ' का लोप हो गया है, ४ शील का अर्थ सर्वसंवर है, उसका जो ईश (स्वामी) हो चुका है वह शीलेश या शैलेशी है। २. . . ६, ४१.४४ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यानशतक : एक परिचय २७७ जाने पर जब शैल (पर्वत) के समान स्थिर होकर शैलेशी कारणभूत ध्यान को उनके मानना ही चाहिये। तीसरा भाव को प्राप्त हो जाते हैं तब उनके व्युच्छिन्नक्रिया- हेतु शब्द की प्रर्थबहुलता है। तदनुसार शब्द के अनेक अप्रतिपाती (अनूपरत स्वभाववाला) नाम का चौथा परम अर्थ सम्भव होने से यहां ध्यान शब्द का काययोग के शुक्लध्यान होता है। निरोध रूप अर्थ ग्रहण करना चाहिए। मन्तिम (चौथा) उक्त चार शुक्लध्यानों में प्रथम-पृथक्त्ववितक- हेतु जिनागम है, जिसका अभिप्राय यह है कि ऐसे प्रतीसविचार शुक्लध्यान-मन प्रादि एक योग में अथवा सभी न्द्रिय पदार्थो के सदभाव के विषय में पागम को प्रमाणयोगो में होता है। दूसरा-एकत्ववितर्क अविचार शुक्ल- भूत मानना चाहिए। ध्यान-तीन योगो मे से किसी एक ही योग वाले के होता अनुप्रेक्षा-जिमका अन्तःकरण शक्लध्यान से सुवाहै, क्योकि इसमे योगसंक्रमण का अभाव हो चुका है। सित हो चुका है वह ध्यान के समाप्त हो जाने पर भी तीसरा-सूक्ष्मक्रिया-प्रनिवर्ती शुक्लध्यान-एक काय- चारित्र से सम्पन्न ध्याता प्रास्रवद्वाराऽपाय, ससाराऽशुयोगमे ही होता है, अन्य किसी योगमे नही होता है । चौथा भानुभाव, अनन्त भवसन्तान और वस्तुप्रो का विपरि -व्यपरतक्रिया-प्रप्रतिपाती शुक्ल ध्यान काययोग का भी णाम; इन चार अनुप्रेक्षानों का चिन्तन करता है। पूर्णतया निरोध कर देने वाले प्रयोगकेवली के होता लेश्या-प्रादि के दा शुक्लध्यानो के ममय सामान्य स शुक्ल लेश्या और तीमरे में परम शकनलेश्या रहती है। यहाँ यह शका हो सकती थी कि केवली के जब मन चोथा शक्नध्यान लेश्या में रहित है। नष्ट हो चुका है तब उनके अन्तिम दो शुक्लध्यान कैसे लिंग-अवघ, प्रसम्मोह, विवेक और व्युत्मर्ग ये उस सम्भव है, क्योकि मनविशेष का नाम ही तो ध्यान है। शुक्ल ध्यान के लिंग-ग्रनुमापक हेतु है ; जिनसे यह जाना इसके समाधान रूप मे यहाँ यह कहा गया है कि जिस जाता है कि मुनि का चित्त शक्नध्यान में निरत है। प्रकार छनस्थ के अतिशय निश्चल मन का ध्यान कहा शुक्लध्यानी परीषहो । उपसगों के द्वाग न ध्यान में जाता है उसी प्रकार केवली के अतिशय निश्चल काय को विचलित होता है और न भयभीत होता है, यह अवध ध्यान कहा जाता है। कारण यह कि योगसामान्य की लिंग है । वह सूक्ष्म पदार्थों के विषय मे व अनेक प्रकार की अपेक्षा मनयोग और काययोग मे कुछ विशेषता नही है। देवमाया में सम्मोह को प्राप्त नही होता। वह प्रात्मा इस पर पुनः यह शका उपस्थित हो सकती थी कि को शरीर प्रादि से भिन्न देखता है, यह विवेक लिंग है । प्रयोगकेवली के तो काययोग का भी निरोध हो चुका है, तथा वह शरीर और अन्य बाह्य उपधि का परित्याग करता फिर ऐसी अवस्था मे उनके चौथा शुक्लध्यान कैसे माना है, यह उसका व्यत्सर्ग लिंग है। जा सकता है ? इसके समाधान में कहा गया है कि जिस फल-धर्मध्यानके फलरूप मे जिन शुम भासाव मादि प्रकार कुम्हार का चाक' धूमने के निमित्तभूत दण्ड के का निर्देश पूर्वमे (देखो पीछे प.२७५)किया गया है वे उनकी अलग कर देने पर भी पूर्व के प्रयोग से घूमता रहता है प्राप्ति अनुत्तर विमानवासी देवो के सुख की प्राप्ति, यह उसी प्रकार केवली के मन प्रादि योगों का प्रभाव हो [शेष टाइटिल पेज ३ पर] जाने पर भी उपयोग के सद्भाव मे भावमन के रहने से ३. त. सू. ६-२६ मे अभ्यन्तर तप के भेदभूत व्युत्सर्ग केवली के भी ध्यान सम्भव है। दूसरा हेतु कर्म निर्जरा तप के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-बायोपधिदिया गया है। जिसका अभिप्राय है यह कि निजंरा का व्यत्म और अभ्यन्तर-उपधिव्यत्सर्ग। इनमें बाह्यकारण जब ध्यान है तब उस कर्मनिर्जरा के होने से उसके उपधिव्युत्सर्ग मे धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह का १.त. सू. ६-४०। त्याग तथा अभ्यन्तर-उपधिव्युत्सर्ग मे कषायो व २. त. सू. १०-७ मे इसका दृष्टान्त मुक्त जीव के शरीर का त्याग अभिप्रेत रहा है (स. सि. ६-२६ व ऊर्ध्वगमन को सिद्ध करते हुए दिया गया है। त. भा. ६-२६)। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा १. जैनधर्म का मौलिक इतिहास (प्रथम खण्ड) वे अचेलक का अर्थ नग्न कैसे कर सकते थे? जब महावीर लेखक एव निर्देशक प्राचार्य हस्तीमल जी, प्रकाशक जैन का अचेलक धर्म सचेल बन गया, तब भगवान पार्श्वनाथ इतिहास समिति प्राचार्य श्री विनयचन्द्र ज्ञानभंडार, लाल का सान्तोत्तर धर्म महा मूल्यवान वस्त्र धारण करने वाला भवन, चौड़ा रास्ता, जयपुर - पृष्ठ संख्या ७३३, मूल्य हो गया इसमे पाश्चर्य की कौन सी बात है ? सवस्त्र सजिल्द प्रति का २५) रुपया। मान्यता के समर्थन मे केशी गौतम सवाट की भी कल्पना की प्रस्तुत ग्रथ जैन धर्म के मौलिक इतिहास का तीर्थकर गई है । केशी ने गौतम का पचयाम तो स्वीकृत कर लिया नाम का प्रयम म्खण्ड है। इसमे २४ तीर्थडुकरो का परन्तु वस्त्र का परित्याग करना स्वीकार नही किया। ऐसी इतिवृत्त श्वेताम्बरीय पागम साहित्य के प्राधार पर दिया स्थिति में अचेल का वह साम्प्रदायिक अर्थ उचित ही है । गया है। श्वेताम्बर माहित्य मे उक्त सम्बन्ध मे जो प्रस्तुत ग्रन्थ मे बासुपूज्य, मल्लिनाथ और नेमिनाथ सामग्री मिलती है उमे इम ग्रथ मे सुन्दर ढंग से सजाया को तो अविवाहित माना है और पाश्वनाथ तथा महावीर गया है । ग्रन्थ मे यथा स्थान मतभेदो और दिगम्बर को विवाहित स्वीकृत किया है । जब कि पांचो ही तीर्थकर मान्यताप्रो का निर्देश किया है । लेखन शैली में कही भी कूमार अवस्था मे दीक्षित हुए है । कुमार शब्द का प्रसिद्ध कटुता और साम्प्रदायिक अभिनिवेश का उभार नही होने पर्थ कुमारा ही है किन्तु कुमार शब्द का अर्थ युवराज पाया है। स्वीकृत कर पार्श्वनाथ और महावीर को तो विवाहिता ग्रन्थ के प्रारम्भ मे अपनी बात और सम्पादकीय मे घोषित कर दिया। भले ही कुमार शब्द का उक्त प्रथंकर अनेक सैद्धान्तिक मान्यताप्रो का स्पष्टीकरण कर दिया समवायाग तथ। ठाणांग सत्रो पौर अावश्यक नियुक्ति से है । भगवान महावीर के निर्वाण समय तक का इतिवृत्त विरुद्ध पडता हो । क्योंकि प्रावश्यक नियुक्ति की गाथा इस प्रथ मे अकित किया गया है । ग्रन्थ के प्राधे भाग मे २५१ मे स्पष्ट लिखा है कि कुमार अवस्था मे दीक्षा ऋषभेदवादि तेईस तीर्थकरो का जीवन परिचय संक्षिप्त एव धारण करने वाले महावीर, अरिष्ट, नेमि, पाव, मल्लि सरल रूप में जीवन घटनाप्रो के साथ दिया गया है। और और वासुपूज्य इन पांच तीर्थंकरो को छोडकर शेष १९ शेष प्राधे भाग में भगवान महावीर का जीवन परिचय अनेक तीर्थकरो ने ही विषयो का सेवन किया है। इससे स्पष्ट घटनाक्रमो के साथ निबद्ध है। तीर्थ करो के जीवन परि है कि श्वेताम्बरो मे महावीर के विवाह सम्बन्ध की दो चय लिखने में बहुत कुछ सावधानी बर्ती गई है । ब्रह्मदत्त मान्यताए है। चक्रवर्ती का जीवन परिचय तुलनात्मक रूप में दिया गया दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थो मे वासुपूज्य, मल्लि, नेमि है । जैन और जैनेतर ग्रथो के प्राधार पर तीर्थकर अरिष्ट और पार्श्वनाथ तथा वर्द्धमान को बाल ब्रह्मचारी और नेमि की वशावली भी दी है। तीन परिशिष्ट भी दिये कुमार काल मे दीक्षित माना गया है। इसका उल्लेख है । भाषा सरल और मुहावरेदार है। उसमे गति एवं भी किया है। परिशिष्टों में तीर्थ करो को लेकर विविध प्रवाह है। मान्यता भेद श्वेताम्बर दिगम्बर ग्रन्थों के प्राधार पर चाटों प्रागमिक टीकाकारों ने 'अचेल' शब्द का जो अर्थ द्वारा प्रदर्शित किये है , जो बहुत उपयोगी है। सम्पादक अल्पमूल्य वाले जीर्ण-शीर्ण वस्त्र दिया है वही अर्थ इस मण्डल की शैली प्रशसनीय है। पुस्तक पठनीय मोर ग्रन्थ मे भी दिया गया है । टीकाकारी के समय में उनके सग्राह्य है। कागज, छपाई, वाइंडिंग और प्रकाशन सभी संभवतः सम्प्रदाय के सब मुनि वस्त्र धारण करते थे। अतः अाकर्षक और सुन्दर है। -परमानन्द जैन शास्त्री Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के २४वें वर्ष की वाषिक विषय-सूची २२ ११४ १ प्राज्ञात जैन कवि और उनकी रचनाएं १६ कोषाध्यक्ष, मत्री और मेनापति हुल्लराज -डा० गगाराम गर्ग --परमानन्द जैन शास्त्री २ अपभ्रश का एक प्रचचित चरित्र काव्य १७ खजुराहो के ग्रादिनाथ मन्दिर के प्रवेश द्वार -डा. देवेंन्द्रकुमार शास्त्री की मतियां--मानिनन्दन प्रसाद तिवारी' २१८ ३ अपभ्रंश का जयमाला साहित्य १८ खजुराहो के जैन मन्दिगे के डोर लिटल्स पर -डा० देदेन्द्र कुमार शास्त्री उत्कीर्ण-जन देविया २५१ ४ अपभ्रश की एक अज्ञात जयमाला १६ खजुगही के पावनाथ मन्दिर को भित्तियो की। -डा० देवेन्द्रकमार शास्त्री थिकामो मे जैन देवियाँ-मारुतिनन्दन ५ अपम्रश भापा के जैन कवियो का नीति-वर्णन प्रसाद तिवारी -डा. वालकृष्ण अकिचिन ३४७ २० खण्डार के मेन परम्परा कलेख ६ अपभ्र श भाषा के जैन कवियों का नीति-वर्णन -गमवल्लभ सोमाणी -डा बालकृष्ण अकिचन २१ गुणकीतिकृत चौपदी ७ अभय कुमार--जोवन परिचय -डा० विद्याधर जोहरापुरकर परमानन्द जैन शास्त्री २२ ग्वालियर में जैन धर्म-- गोपीलाल 'अमर' ८ अभिनन्दन जिनस्तवन २३ चन्द्रघाड का इतिहास -प्राचार्य समन्तभद्र -परमानन्द जैन शास्त्री ६ अर्हत् परमेष्ठी स्तवन २४ जिनवरस्तवनम्-मुनि पचनन्दि -मुनि पद्मनन्दि १८५ २५ जैन कला में प्रतीक तथा प्रतीकवाद १० प्रागरा से जैनो का सम्बन्ध और प्राचीन -मू० लेखक ए० के० भट्टाचार्य, अनु० जन मन्दिर डा० मानसिंह १६३ बाबू ताराचन्द रपरिया २३८ २६ जैन दर्शन में प्रात्मतत्त्व विचार ११ प्रात्म-विजय की राह -श्री लालचन्द जैन शास्त्री २४२ -श्री 'ठाकर' २७ जैनधर्म के सम्बन्ध में भ्रान्तिया एवं उनके १२ उत्तर पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र निराकरण का मार्ग -परमानन्द जैन शास्त्री --40 वंशीधर शास्त्री एम. ए. १३ उपदेशी पद (गीत) २८ जन भक्ति काव्य में प्रगति कविवर द्यानतराय -डा० गंगाराम गर्ग १४ कलचुरि कालीन एक नवीन जैन भव्य शिल्प २६ जैन यक्ष-यणियाँ और उनके लक्षण -कस्तूरचन्द 'सुमन' - गोपीलाल 'अमर एम० ए० १५ कलिङ्ग का इतिहास और सम्राट खारवेल एक ३० जैन शिल्प मे बाहुबली अध्ययन-परमानन्द जैन शास्त्री -मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी २६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०, वर्ष २४, कि०६ अनेकान्त ६९ ૨૨૨ GK १० ३१ जैन शिल्प में सरस्वती की मूर्तियां ५२ मूक साहित्य-सेवी-श्री पन्नालाल जी अग्रवाल -मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी -बा. माईदयाल जैन ३२ तत्वार्थसत्र के प्रथम अध्याय का तीसवां सत्र ५३ रणतभंवर (रणथंभोर) का कक्का : एक एक अध्ययन-मनमतकुमार जैन एम० ए० ऐतिहासिक रचना-अनूपचन्द न्यायतीर्थ २४९ (शोधछात्र) २५४ ५४ राजगिरि या राजगृह १३ नीर्थकर भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण -परमानन्द जैन शास्त्री ८६ महोत्सव का उद्देश्य एव दृष्टि ५५ राजस्थान मे जैनधर्म साहित्य: एक सिंहावलोकन -श्री ऋषभदास रांका -डा. गजानन मिश्र एम० ए० ३४ त्रिपुरी की कलचुरि-कालीन जैन प्रतिमाए ५६ विशालकीति व अजितकीर्ति -कस्तूरचन्द 'सुमन' एम० ए० ४० -डा० विद्याधर जोहरापुरकर ३५ दशबाह्य-परिग्रह -१० रतनलाल कटारिया १० ५७ वीर-शासन-जयन्ती-प्रेमचन्द जैन ३६ दुःख पायंसत्य: एक विवेचन ५८ शान्तिनाथ जिनस्तवन-मुनि पद्मनन्दि -धर्मचन्द्र जैन (शोध छात्र) ५६ शिलालेखों में गोलापूर्वान्वय ३७ ध्यानशतक: एक परिचय -परमानन्द जैन शास्त्री १०२ -बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री ६० शोधकण-श्री नीरज जैन ११० ३८ नरेणा का इतिहास-डा. कैलाशचन्द्र जैन २१५ ६१ शोधकण-यशवंत कुमार मलया २१३ ३६ पारसनाथ किला के जैन अवशेष ६२ शोधकण-परमानन्द जैन शास्त्री २६२ -कृष्णदत्त वाजपेयी ६३ श्रावक्र की ५३ क्रियाएं ४. पावापुर-श्री बलभद्र जैन १६५ -वंशीधर शास्त्री एम० ए० ४१ पुनीत पागम साहित्य का नीति शास्त्रीय ६४ श्रेयास जिन सवन -स्वामि समन्तभद्र १३७ सिंहावलोकन-डा. बालकृष्ण 'अकिचन' ६५ संकट की स्थिति में समाज कल्याणबोडों एम० ए० पी० एच० डी० २२१ का योगदान-एम० सी० जेन । २५६ ४२ पांडे जीवनदासका बारहमासा-गिन्नीलाल जैन ६६ ६E संत कबीर और धानतराय-डा० गगाराम गर्ग ६२ ४३ प्रयाग-श्री १० बलभद्र जैन ७६६७ सदोषता-मुनि श्री कन्हैयालाल ४४ ब्रह्म जिनदास एक अध्ययन ६८ सम्यग्दर्शन: एक अध्ययन -परमानन्द जैन शास्त्री २२६ -4. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ४५ ब्रह्म साधारण कृत दुद्धारसि कथा ६६ माहित्य-ममीक्षा-परमानन्द शास्त्री ४७,६७,१३३ -डा० भागचन्द जैन ७० सिद्ध स्तुति-मुनि श्री १अनन्दि, टाइटल ४६ भद्रबाह श्रुत केबली-परमानन्द जैन शास्त्री २५७ पेज ३ कि०५ ४७ भारत कला भवन का जैन पुरातत्त्व ७१ सेन परम्पग क कुछ प्रज्ञात साधु -मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी ५१ -रामवल्लभ सोमाणी २३३ ४८ भारतीय दर्शन की एक अप्रतिम कृति ७२ हडपा तथा जैनधर्म म० ले० टी०एन० प्रष्ट सहस्त्री-डा० दरबारीलाल कोठिया २ रामचन्द्रन-अनु० डा० मानसिंह १५६ ४६ मध्य प्रदेश मे काकागंज का जैन पुरातत्व ७३ हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित ---कस्तूरचन्द सुमन एम० ए० रचनाए-परमानन्द जैन शास्त्री ४३,५८,१३८ ५० महामात्य कुशराज-परमानन्द जैन शास्त्री ७४ हिन्दी भाषा का महावीर साहित्य ५१ मानव की स्वाधीनता का संघर्ष --डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ५० बलभद्र जैन ४२ ७५ हेलाचायं--परमानन्द जैन शास्त्री W Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-लक्षणावली (पारिभाषिक शब्द-कोश) इसका स्वरान्त (अ से औ तक) प्रथम भाग छप कर तैयार हो चुका है। इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के लगभग ४०० ग्रन्थों से पारिभाषिक शब्दों को संकलित किया गया है। इन ग्रन्थों से जो उसमें लक्षण संगृहीत हैं उन्हें यथासम्भव कालक्रम से रखा गया है। यह शोध-खोज करने वाले विद्वानों के लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ समझा जायगा । माथ ही वह तत्त्व जिज्ञासुमो के लिए भी उपयोगी हैं । विवक्षित विविध लक्षणों में से १-२ ग्रन्थो के ग्राथय से प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद भी प्रत्येक लाक्षणिक शब्द के नीचे दे दिया गया है। प्रस्तावना में १०२ महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का परिचय करा दिया है तथा परिशिष्ट में ग्रन्थकारों के काल का भी निर्देश कर दिया गया है। छपाई उत्तम और पूर्णरूप से कपड़े की सुन्दर व टिकाऊ जिल्द है। बडे आकार में पृष्ट सख्या ४४० है । लागत मूल्य रु. २५-०० रखा गया है। [पृष्ठ २७७ का शेषांश] प्रथम दो-शुक्लध्यानों का सल है। अन्तिम दो शुक्ल- मे मग्न है बह ईा, विषाद व शोकादिरूप मानसिक ध्यानों का फल मोक्ष की प्राप्ति है। चिरसंचित कर्मरूप दु:खों से तथा शीत व प्रातप मादि शारीरिक दुःखों से ईधन को भस्मसात् करने का उपाय यह ध्यानरूप अग्नि भी सक्लेश को प्राप्त नही होता (१०३-४)। इस प्रकार ही है, इस बात को यहां अनेक उदाहरणों (६७-१०२) वह अतिशय प्रशस्त ध्यान चूंकि दृष्ट व अदृष्ट सुख का द्वारा पुष्ट किया गया है। अन्त में ऐहलोकिक फल का साधक है, इसीलिए यहाँ (१०५) उसके प्रदान करने भी निर्देश करते हुए कहा गया है कि जिसका चित्त ध्यान व चिन्तन करने की प्रेरणा दी गई है। 000 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 0594/04 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्यो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्यो मे उद्धृत दुमरे पद्यो को भी अनुक्रमणी लगी हुई है। मब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो का मूवी । सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जो की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से प्रलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की म्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८.०० स्वयम्भस्तोत्र : ममन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । २.०० स्तुतिविद्या : स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित । १-५० अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १-५० पुक्त्यनशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हप्रा था । मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र : आचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद महित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर __ जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । ३-०० जैनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा. १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण महित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों मोर पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ४.०० भनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ तत्त्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या में युक्त। श्रवणबलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । १-२५ महावीर का सर्योदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : प. प्राशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दा अनुवाद सहित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ . अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोको प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह। पचपन ग्रन्थ कागे के ऐतिहामिक ग्रंथ-परिचय और परिगिष्टो महित। सं.पं० परमानन्द शास्त्री। मजिल्द। १२-०० न्याय-दीपिका : प्रा अभिनव धर्मभूपण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० जन माहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पष्ट मख्या ७४० सजिल्द ५-०० कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज मे दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपडे की पक्की जिल्द । ... २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी में पनुवाद बड़े प्राकार के ३०० प. पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ५.०० प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित । و ___ २५ ६.०० Page #305 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