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अपभ्रंश भाषा के जैन-कवियों का नीति-वर्णन
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काव्य से पर्याप्त नीति वचन उद्धृत किये जा सकते हैं- ही संसार की प्रसारता का एक कथन, नयनंदी के द्वितीय सप्पुरिसहो कि बहुगुणहिं पज्जतं दोसहि णणहेव । खड काव्य-"सयल विधि विधान" से उद्धत हैतउि विप्फुरण व रोसु मणे मित्ती पाहण रेहा इवा ।। उययं चडण पडणं तिणि बिठाणाइ इक्क विय हमि । अमिलताण व दीसइ हो दूरे वि संठियाणं पि । सूरस्स य एस गई, अण्णस्स य केतियं यामं ।। ६-६-८ जहविद्व रवि गयणयले इह तह बिहुलह मुह णलिणी ॥८.४ अर्थात् जब एक ही दिन में सूर्य जैसे पराक्रमी को
अर्थात दूरस्थ प्रेमियो मे भी स्नेह देखा जाता है। भी उदय, उपरिगमन और पतन इन तीनों प्रवस्थाओं का जिस प्रकार रवि गगनतल में स्थित रहता है, किन्तु अनुभव करना पड़ता है तो फिर औरों का क्या कहना? (उसकी अनन्य प्रेमिका) नलिनी पृथ्वी पर तालाब मे निश्चयत. यह कथन निवेद सम्बन्धी होते हुए भी काव्य विकसित हो जाती है। इसी प्रकार योवन, युवती, प्रेम, वैदग्ध का सुन्दर उदाहरण है। इसी प्रकार जीवन व उपहासादि पर सुन्दर नीति वचन कहे गये है। योवन के यौवन प्रादि की झठी चमक, अस्थिर गति तथा क्षणवेग को पहाडी नदी के वेग के समान बताया गया है। भगुरता आदि का सुन्दर वर्णन नयनदी ने किया है। एक स्त्रियों के चरित्र को पहचान देवताओं के लिए भी दुर्लभ स्थान पर जीवन की, नलिनी दलगत जल बिन्दु से दो बतायी गयी है। प्रेम से दुख की अनिवार्यता का कथन गई अपमान किया गया है
प्रबन्ध और खड काव्यो के अतिरिक्त जैन कवियों ___ जहण कवणु णेहें मताविउ । (७-२)
ने कथा-साहित्य की भी सृष्टि की। इन कथानो पर कही करकंड चरिउ
यह एक सुन्दर खड काव्य है। १०संधियो (अध्याओं) तो जातको का प्रभाव था और कही रामायण, महामें विभाजित यह कृति मूलतः निवेद भावनाओं की भारतादि संस्कृत ग्रथों का। इन कहानियो का प्रधान प्रतिपादक है। कृतिकार मूनि कनकामर मत्य लोक में स्वर भी जैन-धर्म का प्रचार तथा निर्वदादि भावनामो यद्यपि स्वल्प भोग विद्यमान पाते हैं, किन्तु मूलतः वे संसार का प्रसार है। काव्य से सम्बन्धित होने के कारण यह को दुःख का अपार पारावार ही समझते है। यह ससार कथा साहित्य हमारी विवेचन-सीमा मे नही पाता। परन्तु एक वन है। इसमे नश्वरता की दावाग्नि लगी हुई है। उनमें कहीं-कही गाथादि छन्दों में नीति कथा भी बीचजिस प्रकार अग्नि गत जंगल मे (ककाल निम्न-कुटज में सुगुम्फित है। इनमे गुरु-सेवा, शास्त्राभ्यास, सयम, तप,
और चदनादि अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े पेड़ों में से कोई भी नहीं दान, धर्म, कष्ट, सहिष्णुता मादि पर उपयोगी कथन बचता। उसी प्रकार यहां काल के गाल से कोई नहीं बच विद्यमान हैं, परन्तु उपदेश शैली को प्रधानता के कारण पाता । यूवा, वृद्ध, बालक, विद्याधर, किन्नर, खेचर, सूर ये गाथायें भी निरी पथ मात्र होकर रह गयी है। उनमें अमरपति सभी काल के वशवर्ती है। न श्रोत्रिय ब्राह्मण काव्यात्मक सरसता या विदग्धता मादि नहीं प्रा पायी बच पाता है और न तपस्वी; न धनवान वच पाता है पोर है। इस प्रकार के ग्रन्थों में अमर कोनि के छक्कम्मोवएस न कोई निर्धन
(षट्कर्मोपदेश) माला, अणुवयरयणपईव (अणुव्रतपत्ता- सोत्तिउ बंभणु परिहरह,
उ छंडा तवसिउ तवि ठियउ। रत्न प्रदीप) प्रादि का स्थान महत्वपूर्ण है। घणवंतु ण छुट्टह ण वि णिहणु,
निष्कर्ष यह है कि नीति के प्रचार एवं प्रसार मे जह काणणे जलणु समुट्टियउ।। (8-५-१०) अपभ्रश के जैन कवियों का योगदान उतना ही सराहनीय इसी प्रकार सांसारिक विषयों की क्षण भंगुरता, लोभ,
है, जितना कबीर-मानक-दादू मादि निगुणिये संतो का। गुरु जन-सगति इत्यादि के सम्बन्ध में सुन्दर कथन किये गये
उनकी काव्य-कृतियों में नीति के अमूल्य और असंख्य होरे है। लक्ष्मी की चचलता तथा नारी हृदय की अस्थिरता
जड़े हुए हैं। प्रावश्यकता उनके प्रध्ययन, प्रचार, प्रसार का भी अच्छा वर्णन किया गया है।
स्तुतः इस प्रकार निर्वेद सम्बन्धी नीति कथन जैन एवं जीणोद्धार की है। काश, जैन समाज या यों कहिये काव्य का सर्वस्व है। उक्त विचारों से मिलता-जुलता कि भारतीय साहित्य जगत यह पुनीत व्रत ले पाता।