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________________ जैन भक्तिकाव्य में प्रगति ग. गंगारामगर्ग धर्म-प्राण देश होने के कारण भक्ति भारत के समस्त हो सके । पतः बुधजन अपने कई पदों में जिनेन्द्र के गुण काव्य में प्रमुख वर्ण्य हैं। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी का गाने, वाणी सुनने तथा उनके चरणों में मन बसाने का हिन्दी काव्य तो भक्ति प्रधान रहा ही है परवर्ती काल में संकल्प करते है । जयचन्द पाराध्य के ध्यान, वंदन तथा भी भक्ति की मंदाकिनी अपनी अक्षुण्य गति से प्रवाहित गुणगान के अतिरिक्त उनकी छवि निरखते रहने का होती रही। इसके प्रवाह को प्रवेगमय बनाये रखने में निश्चय करते है :निगुण और वैष्णव भक्तों के अतिरिक्त जैन भक्तों का अहो जिनराज घावोगे निधि मेरी, बड़ा योगदान रहा । पाश्चर्य की बात तो यह है कि मैं सरन लियो तुम प्राय । जिस समय बिहारी, कृष्णभट्ट, पद्माकर आदि दरबारी तुम गुन घ्याऊ, न गाऊं और कू, अरज करू सिर नाय । कवि काव्य-प्रेमियो को कवित्त, सवैयों और दोहों के प्रब जो पाऊ फिर न गमाऊं नींद न लेऊ पास दिखाय । माध्यम से शृगार-माधुरी पिलाकर मदोन्मत्त कर रहे थे; नयन देखि विलस पल पल, प्रभु यहै नेम तुम भाय । उस समय भी नवल जयचन्द, माणिकचन्द, बुधजन, पार्श्व- २. प्रातिकूल्य का वर्जन :दास, प्रभृति अनेक श्रावको ने विपुल पदो की रचना कर प्राराध्य के अनुकूल भी हुआ जा सकता है जबकि उन्हें भक्ति संजीवनी दी। भक्तिकाल मे भी बनारसी- आराधक इन्द्रिय, सुग्व, राग-द्वेष प्रादि को प्रतिकूल समझ दास, भूघरदास प्रादि कई जैन भक्त हुए, किन्तु रीति- कर उनकी तरफ से अपना हाथ खीच ले । जैन भक्तों ने काल की अपेक्षा कम । प्रपत्ति मे बाधक मंग, कर्म व स्वभाव के परित्याग का 'प्रपत्ति' का अर्थ स्वामी हरिदास द्वारा रहस्यमय निश्चय कई पदों में प्रकट किया है :में शरणागति बतलाया गया है' शरणागत का अर्थ होता प्रष्ट कर्म म्हारो काई करसी जी, मै म्हारे घट राखू राम । है-शरण मे पाया हुअा। जब भक्त अपने प्राराध्य की इन्द्री द्वारे चित दौरत है, तिनवश वनहिं करिस्यू काम। शरण में चला जाता है तो उसे कोई भी चिन्ता नहीं इनको जोर इतौ ही मुझ प, दुख दिखला इन्त्री गाम । रहती। उसके समस्त भय दूर हो जाते है। तुलसी के जाकं जान में नहिं मान भेद विज्ञान करूं विसराय । इष्ट राम ने तो स्वय स्वीकार भी किया है-मय पन है-मय पन कहूँ राग कहूँ दोष करत थी, तब विधि पाते मेरे ग्राम । सरनागत भय हारी।' सर्वकामप्रदा प्रयत्ति के प्रति भक्तों उक्त पदांश मे भक्त बुधजन प्रष्ट कर्म, राग-द्वेष का बडा लगाव रहा है। पांचरात्र की लक्ष्मी सहिता में डा लगाव रहा ह । पाचरात्र का लक्ष्मा साहता म प्रादि का परित्याग करके शद्ध स्वभाव धारण करने के प्रपत्ति के छ: अगों का वर्णन है। वे सभी जैन भक्ति लिए दृढप्रतिज्ञ हैं । काव्य मे भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है-- ३. रक्षयिष्यतीति विश्वास :१. रामचरितमानस, सुन्दर काण्ड, दो०४३ । भगवान् मेरी रक्षा अवश्य करेगे यह विश्वास भक्त १. अनुकूल्य का संकल्प : को दो कारणों से होता है-आराध्य की पतित-पावनता जब कई व्यक्ति किसी की शरण में आ जाते हैं तो और उनके प्रति अपनी अनुकूलता। जैन भक्तों को वह उसके अनुकूल व्यवहार का सम्पादन करना अपना जिनेन्द्र द्वारा अपनी रक्षा होने में पूर्ण विश्वास है । जयलक्ष्य बनाता है। इस प्रकार प्रपन्न भक्त भी स्वयं में चन्द मन को जिनेन्द्र की पूजा, स्तुति, जप व दर्शन में ऐसे गुणों का समायोजन करता है, जिससे माराध्य प्रसन्न लीन देखकर अपने उद्धार में किञ्चिन्मात्र भी सन्देह नहीं
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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