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जैन भक्तिकाव्य में प्रगति
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करते, तभी तो स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं :
पास प्रभु मास पूरो, देवो शिवपुर वास । जिनेश्वर मोहि तारोजी, हो जोहूं तो धारू सदा पण थारी। त्रास गर्भावास मेटो, ह चरणां रो दास ॥ बदन निहालंगुन उरचारूं, हो जो मैं तो भान सरन सब पारी उठत बैठत सोबत जागत, बस रह्यो हृदय मंझार । पाप भरे तारे बहु सुनिये, मैं तिन ते कहा भारी । मात तात पर नाप तू ही, तू रवाविंद करतार । पूजा स्तवन जापच्यानलय हो जी मोहं 'नयन'
सज्जन वल्लभ मित्र तू ही, तू ही तारणहार ॥ तिहारी प्यारी ।।
भक्त नवल के अनुसार तो तीर्थकर हो जीवन-प्राण अपने पाराध्य को पतित-पावनता मे अग्रणी जानकर है। ज बवह उनकी शरण मे है तो फिर उनकी छवि व तथा उसके ध्यान और गुणगान में अपने को संलग्न देख- गुणगान को एक पल भी विस्मरण करना कसा? कर बुधजन भी विश्वास कर लेते है कि महावीर जी। जिन मेरे जीवन प्रान, और न मोहि सुहावंदा । गाते-गाते और ध्यान करते हुए देखकर मुझे तार ही इस भव में इक सरनि तिहारी,हम जो भावं देगे :
ज्यों ज्यादा गाता ध्याता तारसी, भरोसो महावीर को,
मान वेव को कबहुं न सेऊ, छवियां मेरे जिन भावंदा। हेरि थक्यो सब मांही ऐसो, नाहीं कोऊ पीर को।। 'नवल' कहै पल येक न विसरौं, रैन दिवस गुन गावदा।। ४. गोपत्त्व वरण :
६. कापर्य :प्रपन्न भक्ता ने ससार-सागर स पार उतरन क लिए अपने दुर्गुणो के कारण ससार-सागर को पार करने भगवान को गोप्त के रूप में वरण करना आवश्यक माना में अपनी असमर्थता माराध्य को दु:ख के साथ दिखलाना है। सभी वैष्णव भक्तो ने अहिल्या, प्रह्लाद, वाल्मिीकि, कायरता या कार्पण्य कहा जाता है। सभी जैन भक्तों ने गज प्रादि के उद्धार की चर्चा करते हुए पाराध्य से अपने अपनी कायरता का वर्णन जी खोलकर किया है । बुधजन उद्धार का अधिकार चाहा है। जैन ग्रन्थों में भगवान
का एक पद दृष्टव्य है :'जिन' द्वारा रक्षित श्रीपाल, मानतंग, वादिराज, सिहोदर, म्हारी सुणिज्यो परम दयाल, तुम सों परज करूं । कुमुदचन्द्र प्रादि नाम उल्लेखनीय है। जैन भक्तों ने
मान उपाय नहीं या जग में, जगतारक, प्राराध्य को अपने उद्धार मे दृढ़तापूर्वक रुचि लिवाने के
जिनराज तेरे पाय पह॥ लिए कहीं तो उक्त भक्तों के उद्धार प्रसंगों की चर्चा की
साथ प्रनादि लागि विधि मेरी, है, नहीं तो संसार के असीम कष्ट बतलाते हुए उनसे
करत रहत वेहाल इनको को लै मरन । मुक्ति के लिए अधिक आतुरता दिखलाई है । यथा :- चरन सरन तुम पाय अनूपम, मों को तारो जी, तारो जो किरपा करिक,
'बुधजन' मांगत यह गति गति नाय फिर्क। अनादिकाल को दु:खी रहत हूं, टेरत हंजम ते डरि के।
साराश यह है कि अपने पाराध्य की शरण में जाने भ्रमित फिरति चारों गति भीतर, भव माहीं भरि-भरिक पर उसके अनुकूल सत्कायों का सम्पादन, प्रतिकूल पथका बत अगम अथाह जलधि में, राखो हाथ पकरि करिका परित्याग, उसकी रक्षा-शक्ति मे विश्वास, सर्वस्व सम५. प्रात्म-निक्षेप :
पण तथा अहंकार का विगलन आदि शरणागति के सभी प्रभु को अपना सर्वस्व मानते हुए अपना तन, मन व तत्त्व केवल तुलसी और सूर जैसे वैष्णव भक्तो की रचसमस्त पदार्थ समर्पित कर देना प्रात्म-निक्षेप है। प्रात्म- नामों में ही नहीं, अपितु जैन पद साहित्य मे भी मननिक्षेप शरणागति की चरम परिणति है। जैन भक्तों ने स्यूत हैं । वैष्णव और जैन भक्त अपने दर्शन और विचारों माता, पिता, स्वामी, प्रिय, मित्र अर्थात् सर्वस्व जिनेन्द्र में थोड़ी भिन्नता रखते हुए भी भक्तिभाव के क्षेत्र में एक को ही समझा है। सोते-जागते, उठते-बैठते वही उनके दूसरे के बहुत समीप अनायास ही प्रा गये हैं। हिन्दी हृदय में भी बसे हुए हैं। भगवान पार्श्वनाथ के प्रति भक्तिकाव्य की सम्पूर्णता के लिए जैन भक्तों की रचनामों रतनचन्द की यह उक्ति दृष्टव्य है :
का प्रकाश में आना प्रत्यावश्यक है।