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________________ जैन यक्ष-यक्षणियाँ और उनके लक्षण गोपीलाल 'अमर' एम. ए., शास्त्रो, काव्यतीर्थ, साहित्यरत्न, धर्मालंकार प्रत्येक तीर्थकर की सेवा में एक यक्ष मौर एक यक्षी द्वार पर उकेरी गई, जिन्हें देखते ही भक्तगण समझ सकते भी रहती थी, ऐसा विधान है। सातवी शताब्दी के थे कि उस मन्दिर में मुख्य मूति किस तीर्थकर की है। प्राचार्य यति वृषभ ने अपने ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती मे इनके कालान्तर में उनकी मूर्तियाँ मन्दिर के भीतरी द्वार पर नामो का कदाचित् प्रथम बार उल्लेख किया। जयसेन- भी उकेरी जाने लगी। क्योकि भट्टारकों ने कुछ यक्षप्रतिष्ठापाठ मे भी इनका उल्लेख है, पर यह ग्रन्थ, जैसा यक्षियों के साथ अनेक ऐसी कहानियां जोड़ दी थी जिनमें कि कुछ विद्वान् मानते है, प्रथम शताब्दी का नही बल्कि उनके चमात्कारप्रिय तथा वैभवप्रेमी भक्तों के लिए वरलगभग दसवी शताब्दी का होना चाहिए । तिलोयपण्णत्ती दान, दुष्टों के दलन प्रादि का अतिशयपूर्ण वर्णन होता, के अनन्तर अनेक दिगम्बर-श्वेताम्बर शास्त्रकारों ने यक्ष- अतः चमत्कारप्रिय तथा वैभवप्रेमी भक्तों ने वीतरागी यक्षियों के वाहन, वर्ण, हाथों में धारण की गई वस्तुओं तीर्थंकरों की अपेक्षा रागी यक्ष-यक्षियों को अधिक महत्व पादि का उल्लेख किया। कालान्तर में इनकी मूर्तियां भी दिया। यही कारण है कि उनकी मूर्तियाँ मन्दिर के बनाई जाने लगीं। भीतरी द्वार से भी प्रागे बढकर गर्भालय में जा पहुँची, ये यक्ष और यक्षियाँ वस्तुत: कौन है ? कुछ विद्वान् और धीरे-धीरे तीर्थकर वे सिंहासन में भी उन्होने अपना इन्हे एक विशेष जाति के मनुष्य ही मानते है। यदि ये स्थान बना लिया। इतना ही नहीं, उनकी मूर्तियों का देव है तो किस निकाय के ? व्यन्तर निकाय की पाठ प्राकार जो प्रारम्भ में तीर्थकर मूर्ति का लगभग बीसवाँ जातियो मे ही पाचवी जाति यक्षो की है. किन्तु न तो भाग होता था, "ब तीव्र गति से बढ़ने लगा। अन्त में उनके नामों में प्रस्तुत यक्ष-यक्षियों के नाम पाते है और स्थिति यहाँ तक पहुँनी कि मूर्ति वस्तुतः यक्ष या यक्षी की न उनकी कोई विशेषता इनमे दृष्टिगत होती है। दूसरी ही बनाई जाने लगः, केवल उसमे जैनत्व की झलक देने पोर इन यक्ष-यक्षियो के कुछ नामों और विशेषतामों मे के लिए मूर्ति के मस्तक पर तीर्थकर-मूति को बहुत ही पाशिक समानता भवनवासी निकाय के देवों में दिखती छोटे प्राकार में स्थान दिया गया। इस सबके अन्य परिहै। जो भी हो, यह प्रश्न विचारणीय है । णाम जो भी हुए हों, इतना अवश्य हमा कि जैन धर्म एक प्रश्न यह भी है कि इन यक्ष-यक्षियो का उल्लेख मे प्रवृत्तिमार्ग मोर बहिमखी उन्नति को अपेक्षाकृत नभी से क्यो नही मिलता जबमे तीर्थकरों के नामों का अधिक प्रोत्साहन मिला। मिलता है। उत्तर यह है कि अन्य अनेक मान्यतामों की यह प्रश्न भी विचारणीय है कि हजारों की संख्या मे तरह यक्ष-यक्षियों की मान्यता भी भट्टारको की देन है। पाई जाने वाली ये मूर्तियां पूज्य है या अपूज्य । उत्तर अनेक कारणों से उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर की सेवा में एक स्पष्ट है। हालांकि इनकी पूजा का प्रचलन प्राज अनेक एक यक्ष-यक्षी का रहना भी प्रावश्यक समझा कि उनके स्थानों पर है लेकिन वह पूर्वोक्त कारणो से ही है। स्वरूप उन्होंने कुछ जैनेतर से लेकर, कुछ परिवर्तित प्राचीन शास्त्रों में उनकी पूजा का कोई विधान नहीं है। करके और कुछ अपनी कल्पना से निर्धारित किये । शिल्प- बल्कि निषेध है। इसके कारण स्पष्ट है । जैन धर्म में कारों ने उन्हे मूर्त रूप प्रदान कर दिया। पंच-परमेष्ठियो के अतिरिक्त किसी की भी पूजा का यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां प्रारम्भ में मन्दिर के बाहरी विधान नही है। यक्ष-यक्षी पंच-परमेष्टियों के अन्तगत
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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