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________________ भद्रबाहु श्रुतकेवलो परमानन्द जैन शास्त्री अन्तिम केवली जम्ब स्वामी के निर्वाण के बाद हूँ और मेरा नाम भद्रबाहु है। प्राचार्य श्री ने कहा, क्या दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायो की गुर्वावलियाँ तुम चलकर अपने पिता का घर बतला सकते हो? भिन्न-भिन्न हो जाती है। किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय बालक तत्काल प्राचार्यश्री को अपने पिता के घर ले वे गगा-यमुना संगम के समान पुनः मिल जाती हैं। तथा गया। प्राचार्यश्री को देखकर सोमशर्मा ने भक्ति पूर्वक भद्रबाहु श्रुत केवली के स्वर्गवास के पश्चात् जैन परम्परा उनकी वन्दना की। और बैठने के लिए उच्चासन दिया। स्थायी रूप से दो विभिन्न श्रोतों में प्रवाहित होने लगती प्राचार्यश्री ने सोमर्शा से कहा कि माप अपना बालक है। अतएव भद्रबाह श्रुत केवली दोनों ही परम्परामो मे हमारे साथ पढ़ने के लिये भेज दीजिये । सोमशर्मा ने मान्य है। प्राचार्यश्री से निवेदन किया कि बालक को प्राप खुशी भद्रबाहु रग्रिम: समग्रबुद्धि सम्पदा, से लेजाइये, और पढाइये। माता-पिता की प्राजा से सुशब्द सिद्ध शासनं सुशब्द-बन्ध-सुन्दरम् । प्राचार्यश्री ने बालक को अपने सरक्षण में ले लिया। इद्ध-वृत्त-सिद्धिरत्रबद्धकर्मभित्तपो, और उसे सर्व विद्याए पढ़ाई। कुछ ही वर्षों में भद्रबाहु वृद्धि-वद्धित-प्रकोतिरुद्दधे महधिकः । सब विद्यानो मे निष्णात हो गया। तब गोवर्द्धनाचार्य यो भद्रबाहुश्रुतिकेवलोना मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । ने उसे अपने माता-पिता के पास भेज दिया। माताअपश्चिमोऽभूविदुषां विनेता, सर्वश्रुतार्थप्रतिपादनेन ।। पिता को उसे सर्व विद्या सम्पन्न देखकर प्रत्यन्त हर्ष हुप्रा। श्रवण वेल्गोल शिला० १०८ भद्रबाहु ने माता-पिता से दीक्षा लेने की अनुमति मागी पुण्डवर्घन देश मे देवकोट्ट नाम का एक नगर था, और वह माता-पिता की प्राज्ञा लेकर अपने गुरु के पास जिसका प्राचीन नाम 'कोटिपुर' था। इस नगर में सोम वापिस पा गया। निष्णात बुद्धि भद्रबाहु ने महावैराग्य शर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का सम्पन्न होकर यथा समय जिन दीक्षा ले ली । पोर दिगनाम सोमश्री से भद्रबाहु का जन्म हुमा थ।। बालक म्बर साघु बनकर प्रान्म-साधना में तत्पर हो गया । स्वभाव से ही होनहार और बुद्धि का धनी था। उसका ___एक दिन योगी भद्रबाहु प्रातःकाल कायोत्सर्ग मे लीन क्षयोपशम और धारणा शक्ति प्रबल थी। प्राकृति सौम्य थे कि भक्तिवश देव असुर और मनुष्यों से पूजित हुए। मात्र पौर सुन्दर थी। वाणी मधुर मोर स्पष्ट थी। एक दिन कुछ समय बाद गोवर्दन स्वामी का स्वर्गवास हो गया । वह बालक नगर के अन्य बालकों के साथ गंटों गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् भटजाहु बहु सिद्धि सम्पन्न (गोलियों) से खेल रहा था। खेलते-खेलते उसने चौदह । है मुनि पुंगव हुए । चतुर्दश पूर्वधर और अष्टांग महानिमित्त गोलियो को एक पर एक पंक्तिबद्ध खड़ा कर दिया। के पारगामी श्रुतकेवली विद्वान हुए। अपने संघके साथ उन्हों ऊर्जयन्तगिरि (गिरिनार) के भगवान नेमिनाथ की यात्रा ने अनेक देशों मे विहार कर धर्मोपदेश द्वारा जनता का से वापिस भाते हुए चतुर्थ श्रुतकेवली गोवईन स्वामी कल्याण किया। सघ साहत काटि ग्राम पहुच । उन्हान बालक भद्रबाहु का भद्रबाहु श्रुतकेवली यत्र-तत्र देशों में द्वादश सहस देखकर जान लिया कि यही बालक थोड़े दिनों मे मन्तिम मुनियों के सघ के साथ विहार करते हुए उज्जैन पधारे, श्रुतकेवली मोर घोर तपस्वी होगा। प्रतः उन्होंने उस और सिप्रा नदी के किनारे उपवन में ठहरे । वहाँ सम्राट बालक से पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है, और तुम किसके __चन्द्रगुप्त मौर्य ने उनकी वन्दना की, जो उस समय प्रांतीय पुत्र हो। तब भद्रबाहु ने कहा कि मैं सोमशर्मा का पुत्र राजधानी में ठहरा हुमा था। एक दिन भद्रबाहु श्रुत.
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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