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________________ २५६, २४,कि.६ मोकास विभाजन के अनुसार-एक मादिर्यषा तानि इमान्येका• तथा 'एक' का तात्पर्य प्राथम्य वचन लेकर मतिज्ञान को दीनि" अर्थात एक है प्रादि जिनका अर्थात् जिन ज्ञानों स्वीकार किया गया है। तत्वार्थ सूत्रकार का मन्तव्य तो का मादि अर्थात् प्रारम्भ एक है वह एकादि है। पांच इतना ही था कि एक साथ एक प्रास्मा में पांचों ज्ञान ज्ञानों में मात्र केवल ही एक ऐसा शान है जो एक है नहीं हो सकते, चार तक ही होंगे। अकेला है और असहाय हैं। एक मात्मा में एक साथ सूत्र पर जब मैं गहन दृष्टि डालता है तो एक उलमति और श्रृत दो हो सकते है, मति, श्रुत और अवधि मन मस्तिष्क मे सहसा उठ खड़ी होती है कि-एक ज्ञान या मन: पर्यय तीन हो सकते हैं तथा मति, श्रुत, अवधि की विवक्षा में 'युगपद' पद का व्यवहार कैसे होगा जबकि और मनः पर्यय चार हो सकते हैं परन्तु केवलज्ञान अकेला 'क' का तात्पर्य मनिजात' से लिया जाये ? na aur ही होगा, एक ही होगा। इस धारणा को ध्यान में रख में एक साथ एक ज्ञान नही बतलाया गया है वरन् प्रादि कर ही सर्वार्थसिद्धिकार ने 'एक' का तात्पर्य 'केवलज्ञान' से के चारो ज्ञानो का कथन किया गया है। 'युगपद्' की लिया है। व्याप्ति चारों ज्ञानों के साथ है न कि एक ज्ञान के साथ। दूसरे, सर्वार्थ सिद्धिकार सैद्धान्तिक अधिक थे, जबकि कि अकलक तार्किक । अकलक स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि तो फिर एक प्रात्मा में 'युगपत्' मति और श्रुत दो हो एक शब्द सख्यावाची मानकर अकेला मति ज्ञान भी एक सकते है या मति, श्रुत और अवधि या मन:पर्याय तीन हो हो सकता है क्योकि अग प्रविष्ट प्रादि रूप श्रुतज्ञान सकते है. ये कथन कैसे बनेंगे ? बस यही माकर उलझन प्रत्येक को हो भी और न भी हो। प्रस्तु, इतना तो की वास्तविकता का एहसास हो जाता है । अतएव सर्वार्थ सिद्धिकार ने एक' की विवक्षा में प्रधान रूप से जो स्पष्ट है कि अकलंक को दृष्टि मतिज्ञान की पोर ही झुक रही है । तभी तो परवर्ती टीकाकार विद्यानन्दि ने दोनों कंवलज्ञान का स्वाकार किया है वह उचित ही जान पड़ता के समन्वय की ओर ध्यान दिया। 'भपर माह के द्वारा है। क्योकि नारा है। क्योंकि 'केवलज्ञान' ज्ञान के अन्य भेदों के साथ नही अकलंक का लक्ष्य 'सर्वार्थसिद्धि' के शब्दो की पोर है। रह सकता, तथा केवलज्ञान क्षायिक अन्य ज्ञान क्षायोपयह कोई आवश्यक नहीं कि उसका खण्डन या मण्डन शमिक । परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक ज्ञान की किया ही जाय। उल्लेख मात्र हो उसको स्वीकारता की विवक्षा में मनिज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि जिस जीव के कसौटी है अर्थात् यदि 'एक' का तात्पर्य केवलज्ञान से केवलमति ज्ञानवरण कम का क्षयोपशम हपा है उसके लिया जाता हैं तो अकलक को कोई प्रापत्ति नही। तो केवल मतिज्ञान ही होता है इसीलिए अकलंक 'एक' इम प्रकार क्या पकलंक के ऊपर बाचक उमास्वाति का प्राथम्य ग्रहण करके मनिज्ञान स्वीकार करते है। का प्रभाव पड़ा जो 'क' का तात्पर्य मतिजान मेरो साथसिद्धिकार का एक' की विवक्षा में केवलान रखने का यह भी कारण हो सकता है कि मति ज्ञान है ? वैसे वाचक उमास्वाति ने एक का तात्पर्य मतिज्ञान पौर श्रुतज्ञान कारण कार्य रूप है और कारण के होने मे लिया है परन्तु प्रकला ने 'एकादीनि' पद में 'एक पर कार्य होता है प्रतः मति, श्रुत दो हो सकते हैं अकेला का, 'पादि' का और एकादीनि का पूर्ण रूप से विवेचन मति नही परन्तु क्षयोपशम की दृष्टि से अकेला मतिज्ञान करके ही उसे स्वीकार किया है। पूर्ववर्ती होने म वाचक भी हो सकता है। उमास्वानि का प्रभाव माना जा सकता है परन्तु विवे. इस प्रकार प्रधान और प्राथम्य रूप दो दृष्टियों के चना की दृष्टि से उनकी मौलिक उदमावना भी हो माध्यम से हम सूत्र का विश्वेषण किया गया है। एक सकती है। प्रात्मा में एक साथ प्रादि के चारों ज्ञान रह सकते हैं पर इस प्रकार प्रधान, असहाय और क्षायिक होने से उनका उपयोग ततद् ज्ञान को अपेक्षा ही होता है अर्थात 'एकादीनि' में एक का तात्पर्य केवलज्ञान' से लिया गया किसी जीव में यदि तीन ज्ञान हैं तो एक काल में एक ही १. मर्वार्थसि. १३० । जान का उपयोग होगा प्रन्य ज्ञान लब्धि रूप से रहेंगे। २. तत्वार्थ रा. वा०२३०११० भाष्य । प्रस्तुत लेख मे उठाई गई शकामों के बारे में विद्वान् ३. वही० ११३०११,२,५। अपने-अपने विचार लिखें तथा विषय को विशद बनायें।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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