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स्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का तीसवां सूत्र एक प्रध्ययन
टीका-प्रटीकाओं का प्रणयन किया गया। राई को पर्वत बनाया गया। सूत्र का आपरेशन किया गया, उसका विश्लेषण किया गया ।
दिगम्बर सम्प्रदाय मे उपलब्ध सर्वप्रथम प्राचीन टीका 'सिद्ध' है इसके रचयिता पाचार्य पूज्यपाद इन्होंने सूत्र को विश्लेषित करते हुए बतलाया कि श्रात्मा में यदि एक ज्ञान होता है तो वह केवल ज्ञान होता है क्योंकि वह असहाय है तथा क्षायिक है। यदि दो होने हैं तो वह मति श्रुत होते है तीन होते है मति, श्रुति अवधि या मनः पर्यय होते हैं। यदि चार होने है तो मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय होते हैं परन्तु पांचों ज्ञान एक साथ नदी हो सकते।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय में उलब्ध 'स्वोपज्ञ'. कहा जाने वाला वाचक उमास्वाति कृत तत्त्वार्थाधिगमभ ष्य' मे मात्मा में एक ज्ञान की विवक्षा में मतिज्ञान को स्वीकार किया गया है। उन्होने पूज्यपाद की तरह 'एकादीनि में एक का तत्पर्य केवलज्ञान से नहीं लिया है ।
तस्वार्थ राजवातिक' में कलंक ने यद्यपि दोनों मतों का कथन किया है फिर भी उनके विवेचन से यह स्पष्ट भलकता है कि उनका 'एकादीनि' में एक' का तात्पर्य मतिज्ञान से है न कि केवलज्ञान से उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि 'एक' शब्द अनेकों में प्रयुक्त देखा जाता है परन्तु यहाँ विवक्षा से प्राथम्य वचन रूप जानना १. एक तारकेवलज्ञान, न तेन सहाण्यामि क्षायोपशमि कानि युगपदवतिष्ठन्ते मति श्रुते। त्रीणि मतिनावधिज्ञानानि, मतिश्रुत मन:पर्यय ज्ञानानि वा चत्वारि मतिवधिमनः पर्वयज्ञानानि ।" सर्वार्थसि० १३० २. कस्मिश्चिज्जीवे मत्यादीनामेक भवति तत्त्वार्थाविगम भा० (वाचक उमा०) १।३१ । ३. स्वार्थ रा० वा० (अकलक) १०३० । ४. श्रयमेकशब्दोऽनेकस्मिन्नर्थे दृष्टप्रयोगाः । क्वचित्सं ख्यायां वर्तते, एको द्वो बहवः इति । क्वचिदन्य-वे, एके प्राचार्यान्ये प्राचार्याः इति वचिदसहाये, एकाकिनस्ते विचरन्ति बीराः इति । कचित्प्राथम्येएकमागमनम् प्रथममागमनम् इति क्वचित्प्राधान्ये एक हतां तेनां करोमि प्रधान हता सेनां करोमिइत्यर्थः । तत्वार्थ रा० वा० (प्रकलक) १|३०|१
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चाहिए। इस प्रकार से प्राथम्य वचन रूप मतिज्ञान ही होता है। अतः इस रूप मे बाचक उमास्वाति' पौर 'अकलंक' एकमत हैं । परन्तु 'कलंक' ने 'अपर ग्राह" के द्वारा 'सर्वार्थसिद्धि' मान्य प्रधान रूप से या प्रसहाय रूप से 'केवलज्ञान' का भी उल्लेख किया है । वे इससे सहमत है या असहमत यह नही कहा जा सकता । यदि प्रसहमत हो तो rest atter या समीक्षा करते और यदि होते इसकी मीमांसा
सहमत होते तो इसका स्पष्टीकरण करते । परन्तु उन्होंने उल्लेख भर किया है, अपना मन तो सूत्र के प्रथम वार्तिक में 'एक' का तात्पर्य प्राथम्य वचन कह कर ही प्रकट कर दिया था ।
तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिककार 'विद्यानन्द' ने अपनी समन्वयात्मक दृष्टि का पूरा उपयोग करते हुए – 'एक' शब्द के 'प्रथम' तात्पर्य की विवक्षा में मतिज्ञान प्रथवा 'एक' शब्द के 'पान' पर्य की विवक्षा मे केवलज्ञान दोनों को ही ग्रहण किया है।
परन्तु प्रश्न इस बात का है कि 'सर्वार्थसिद्धिकार' ने 'एकादीनि' ने 'एक' का तात्पर्य मतिज्ञान से क्यों नहीं लिया केवलज्ञान से ही क्यों लिया? या अन्य प्राचार्यो ने 'एकादीनि' में 'एक' का नारायं मतिज्ञान से हो क्यो लिया केवलज्ञान से क्यो नहीं लिया? क्या ये सूत्रकार के मन्तव्य को भलीभाँति नहीं समझ सके थे ? एक ही परम्परा के प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न प्रतिपादन क्यो किया ? क्या प्रकलक 'अपर आह' के द्वारा सर्वार्थसिद्धिकार की ओर इगित नही कर रहे हैं ? यदि कर रहे है, तो फिर उसका खण्डन क्यों नहीं किया जबकि उन्होने 'एक' का तात्पर्य प्रथम वचन लेकर मनिज्ञान स्वीकारकर लिया था ? इस प्रकार नाना शकाए उद्भूत होती है ।
प्रथम शका के समाधान हेतु यह कहा जा सकता है कि प्राचार्य पूज्यपाद ने 'एकादीनि' पद का विच्छेद करके ही 'एक' का तात्पर्य 'केवलज्ञान' से लिया है। उनके ५. वह विज्ञातः प्राथम्यवचन एकशब्द वेदितव्यः। बहो० १३०१
६. वही० १३०११० भाष्य ७. प्राच्यमेकं मतिज्ञान श्रुतिभेदानपेक्षया । प्रधान केवल वा स्यादेकाम यगपन्नरि:
तत्वार्थ इनोवा (नि) १३०२