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________________ २५४, वर्ष २४, कि० ६ . अनेकान्त की प्राकृति के ऊपरी दाहिनी व बाग भुजामो मे क्रमशः गोद में बैठे बालक को महारा दे रही है । तीसरी प्राकृति खड्ग और चक्र (या खेटक.? ) स्थित है, जबकि निचले की दोनों भजामों में एक हार प्रदर्शित है। बायी मोर की दोनो हाथों में वरद-मुद्रा और कमण्डल चित्रित है । देवी पहवान लक्ष्मो और दाहिनी ओर को दो द्विभुज प्राकृ. के चरणो के समीप प्रदशित वाहन सिंह है । इस प्राकृति तियो को पहचान अम्बिका से की जा सकती है । पार्श्वको निश्चित पहचान २४वे तीर्थकर महावीर की यक्षी नाथ, घन्टई, और जान संग्रहालय के डोर-लिटल्स के सिद्धायिका स की जा सकती है, क्योकि खजुराहो से प्राप्त अतिरिक्त समस्त उदाहरणों को १०वी १२वीं शती में महावीर की मूतियो मे यक्षी के रूप मे उत्कीर्ण चतुर्भ ज निमित स्वीकार किया जा सकता है। सिद्धायिका की भुजा मे चक्र और वाहन के रूप मे सिंह अन्य सभी डोर लिटल्स पर चतुर्भज चक्रेश्वरी, का उपास्थति सभा उदाहरणो में देखी जा सकती है। अबिका लक्ष्मी और सरस्वती को चित्रित किया गया है, साथ हो नवीन मदिर न० २१ के पीछे के दीवाल पर जिनके प्रकन में कोई नवीनता नही प्राप्त होती है और रखा महावीर की मूर्ति (क २८ ॥१) मे देवी को ऊपरी प्रायुधों आदि का प्रदर्शन पूर्व वणित उदाहरणों के सदृश भुजा में प्रस्तुत मूर्ति के समान ही खड्ग भी प्रदर्शित है ही है। उपर्य क्त अध्ययन से स्पष्ट है कि चक्रेश्वरी और शेष भुजामो के प्रायुध भी समान है, मात्र निचली जिसको बहुलता से ललाट बिंब में उत्कीर्ण किया गया है, वाम भजा को छोड़कर, जिसम दवो न प्रस्तुत मूर्ति के अतिमिन सभी टेवियो सदेव चतर्भज प्रकित की कमण्डल क स्थान पर फन धारण किया है । सिद्धायिका समस्त प्रमख जैन देविया क प्रकन मे उनसे का अकन करने वाला यह अकेला डोर-लिटल है। ग्रादि- मंबधित विशिष्टतामों का प्रदर्शन इस बात का सकेत नाथ मदिर के डोर-लिटल के समान ही इस उदाहरण मे करता है कि कलाकार ने उनक चित्रण में प्रतिमाभा मध्यवर्ती प्राकृति क दाना पोर तोन-तीन स्त्री प्राकृ- शास्त्रीय प्रथों मे वणित मूलभूत विशेषताओं का निर्वाह तिया उत्कीर्ण है। मध्यवर्ती प्राकृति के वाम पाश्व की किया है। पर साथ ही प्रायुधो के प्रदर्शन के क्रम में अतर समस्त चतुभं ज प्राकृतियो के ऊपरी दोनो भुजाओं में और कुछ नवीनतानों का समावेश या तो किसी प्रप्राप्य कमल, और निचली में वरद मुद्रा (दाहिनी) और कमण्डल प्रतिमालामाणिक ग्रंथ के आधार पर उनके निर्मित होने (बायी) चित्रित है। मध्य को प्राकृति के दाहिने पाव के कारण है, या फिर स्वयं कलाकार या प्राचार्य, जिसके की तीनों प्राकृतिया द्विभुज है । प्रथम दो प्राकृतियों की निर्देशन में मूर्तियां उत्कीर्ण की गई, की देन है। दाहिनी भुजा से अभय मुद्रा व्यक्त है और बायी से वे 'तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का तीसवां सूत्र' एक अध्ययन सनमत कुमार जैन एम० ए० शोष-छात्र मागमकाल में प्राकृत भाषा में निबद्ध सम्यक्ज्ञान के जिज्ञासा का शमन करने हेतु उपस्थित किया गया :पाँच भेदो का जब तत्त्वार्थ सूत्रकार ने सर्व प्रथम सस्कृत "एकादीनि भाज्यानि युगपरेकस्मिन्ना चतुर्यः" में सूत्र रूप से सूत्रित किया तब यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई प्रथात् "एक मात्मा मे एक साथ एक से लेकर चार कि एक साथ एक मात्मा मे कितने ज्ञान हो सका है? ज्ञानो तक का विभाग करना चाहिए।" वस, इस जिज्ञासा के उत्पन्न होने के पूर्व तत्त्वार्थ सूत्र. क्या इस सूत्र से जिज्ञासु की जिज्ञासा शान्त हो कार ज्ञान के पांचो भेदो का सम्पक प्रतिपादन कर चुके सकी? नहीं, उसकी जिज्ञासा की शान्ति के लिए भाष्य, थ । तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम प्रध्याय का तीसवां सूत्र उपयुक्त १. तत्त्वार्थ सू० १।३०।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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