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२५८, वर्ष २४, कि०६
अनेकान्त
केवली प्रहार के लिए नगरी मे गए । वे एक मकान के मोर उन्होंने वहीं समाधिमरण किया । भद्रबाहु की समाधि प्रांगन में प्रविष्ट हुए, जिसमें कोई मनुष्य नहीं था, किन्तु का भगवती पाराधना की निम्न गाथा में उल्लेख है:पालना में झुलते हुए एक बालक ने कहा, मुनि तुम यहाँ प्रोमोदरिये भद्रबाहूय सकिलिट्ठ मदी से शीघ्र चले जामो, चले जायो । तब भद्रबाह ने अपने घोराए तिगिच्छाए पडिवण्णो उत्तम ठाणं ॥१५४४ निमित्तज्ञान से जाना कि यहा बारह वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ने इस गाथा मे बतलाया गया है कि भद्रबाह ने अवमोवाला है। १२ वर्ष तक वहां वर्षा न होने से अन्नादि उत्पन्न दर्य द्वारा न्यून भोजन की घोर वेदना सहकर उत्तमार्थ न होगे । धन-धान्य से समृद्ध यह देश शून्य हो जायेगा। को प्राप्त की। चन्द्रगुप्त ने अपने गुरू की खूब सेवा और भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खा जायेगा। यह देश की । भद्रबाहु के दिवगत होने के बाद श्रुतकेवली का राजा. मनुष्य और स्करादि से विहीन हो जायेगा । ऐसा प्रभाव हो गया। क्योंकि वे अन्तिम श्रुति केवली थे। जानकर प्राहार लिए बिना ही जिन मन्दिर में प्राकर दिगम्पर परम्परा में भद्रबाह के जन्मादि का परिभावश्यक क्रियाए सम्पन्न की। और अपराह्न काल मे चय हरिषेण कथाकोष, श्रीचन्द्रकथाकोष और भद्र बाहु समस्त सघ में घोषणा की कि यहा बारह वर्ष का घोर चरित प्रादि मे मिलता है। और भद्रबाहु के बाद उनकी भिक्ष होने वाला है। अतः सब सघ को समुद्र के समीप शिष्य परम्परा अग-पूर्वादि के पाठियों के साथ चलती है। दक्षिण देश में जाना चाहिए।
जिसका परिचय प्रागे दिया जायगा। माट चन्द गप्त ने यह सना कि यहाँ द्वादश वर्ष श्वेताम्बर परम्परा मे, कल्पसत्र, यावश्यक सुत्र, नन्दिका घोरभिक्ष पडने वाला है । तब उसने भी भद्रबाहु से सूत्र, ऋषि-मडलसूत्र और हेमचन्द्र के परिशिष्ट पर्व मे
ण की। जैसा कि तिलोयपण्णत्ती की निम्न भद्रबाहु की जानकारी मिलती है । कल्पसूत्र की स्थविरागाथा से स्पष्ट है:
वली मे उनके चार शिष्यों का उल्लेख मिलता है। पर मउडघरसं चरिमो जिण दिक्खं घरदि चंदगुतो।
वे चारों ही स्वर्गवासी हो गए। प्रतएव भद्रबाहु की शिष्य तत्तो मउडपरा, पव्वज्ज व गेहति ॥
-तिलोय पण्णत्ती ४.१४८१ परम्परा प्रागे न बढ़ सकी। किन्तु उक्त परम्परा भद्रबाह भद्रबाह वहां से चलकर ससघ श्रवण देल्गोल तक के गुरू भाई सभूति विजयके शिष्य स्थल मद्र से प्रागे बढ़ी। आये। भद्रबाहु ने कहा मेरा प्रायुष्य अल्प है अतः मै यहीं वहाँ स्थूलभद्र को अन्तिम श्रुत केवली माना गया है।
दिगम्बर परम्परा मे भद्रबाहु का पट्टकाल २६ वर्ष रहेगा और विशाखाचार्य ससंघ प्रागे चले गए। भद्रबाहु
माना जाता है। और चन्द्रगुप्त वहीं रह गए । चन्द्रगिरि पर्वत के शिला
और श्वेताम्बर परम्परा में पट्टकाल १४ वर्ष बतलाया है लेख से ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त का दीक्षा नाम
मोर व्यवहार सूत्र- छेद सूत्रादि ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवली 'प्रमाचन्द्र' था, वे भद्रबाहु के साथ कटवा पर ठहर गए।
द्वारा रचित कहे जाते है । और वीर निर्वाण सवत्से १७० भद्रबाहु वचः श्रुत्वा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः ।
वर्ष बीतने पर स्वर्गवास माना है। दिगम्बरपरम्परा अस्यैव योगिनः पावें दधौ जैनेश्वर तपः ।
के अनुसार भद्रबाह का स्वर्गवास वीर नि. स.के चन्द्रगुप्त मुनि शीघ्र प्रथमो दश पूविणाम् । सर्व सघाधिपो जातो विसषाचार्य सज्ञकः ।।
६२वें वर्ष अर्थात् ३६५ वर्ष ई० पूर्व माना जाता है। हरिषेण कथाकोष ३८,३६ दिगम्बर परम्परा में भद्रबाह श्रतके वली द्वारा रचित
साहित्य नहीं मिलता। इसमें पाठ वर्ष का अन्तर (अ) चरिमो म उडधरीसो जरवाणा चदगुप्त णामाए।
विचारणीय है। पचमहव्यय गहिया प्रवरि रिक्खा (य)-वोच्छिणा॥
श्रुत स्कंघ ब्र० हेमचन्द्र १. योगीन्द्र स्थूलभद्रो ऽभूद थान्त्य श्रुतकेवली । (अ) तदीय शिष्योजनिचन्द्रगुप्तः समग्रशीलानत देववृद्धः।
-पट्टावली समुच्चय १२५ विवेश यस्तीव्रतपः प्रभावप्रभूत-कीर्तिर्भुवनान्त- २. श्रीवीर मोक्षात् वर्ष शते सप्तत्पने गते सति ।
राणि ॥६
भद्रबाहु रपि स्वामी ययौ स्वर्ग समाधिना ।। श्रवणबेलगोल शि० पृ० २१०
परिशिष्ट पर्व हेमचन्द