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________________ २४६, बर्ष २४, कि०६ अनेकान्त वित होते हैं इससे सिद्ध है कि प्रात्मा पूरे शरीर में व्याप्त उक्त प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रात्मा में दीपक है। "मात्मा के रहने का स्थान विशेष जानने के लिए की तरह संकोच विस्तार की शक्ति होती है। इसी शक्ति मनुष्य के कमों को ध्यानपूर्वक देखना एवं अन्वीक्षण करना के कारण एक जीव लोक के मसंख्यातवें भाग में भी रह होगा।.......। इस प्रकार सुख या दुःख देने वाले कार्य सकता है। उमास्वामी ने तत्स्वार्थ सूत्र में कहा भी हैका प्रभाव प्रात्मा की प्रत्येक शक्ति, मानसिक चेष्टा एवं “प्रदेशसंहारविसम्यां प्रदीपवत' यहाँ पर 'सहार' शरीर के प्रत्येक भाग पर पड़ता है। ऐसा प्रतीत नहीं शब्द का अर्थ है सिकुड़ना, जिस तरह से सूखा चमड़ा होता है कि इन कार्यों का प्रभाव केवल मस्तिष्क, हृदय सिकुड़ कर छोटा हो जाता है, उसी प्रकार जीव के या अन्य किसी निश्चित स्थान पर पड़ता हो और अन्य प्रदेशों में भी संहार की शक्ति होती है। इसी प्रकार स्थान प्रभावित न होते हों। इस घटना से शरीर का विसर्प शब्द से तात्पर्य है फैलना । जिस प्रकार तेल की प्रत्येक भाग प्रभावित होता है-प्रकट होता है कि प्रात्मा एक बंद पूरे पानी में फैल जाती है उसी प्रकार जीव के शरीर के प्रत्येक भाग में विद्यमान है। प्रदेश विसर्प शक्ति के कारण शरीर मे फैल सकते है। आत्मा को मध्यम परिमाण मानने का दूसरा कारण उदाहरणार्थ-यदि एक दीपक को खुले मैदान में रख यह है कि प्रात्मा को जैन दर्शन में अस्तिकाय' नामक दिया जाय तो पूरे मैदान को प्रकाशित करता है। और स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है' । काय का अर्थ है प्रदेश, एक यदि उसी दीपक को एक बन्द कमरे मे रख दिया जाय तो अविभागी परमाणु प्राकाश के जितने स्थान को घेरता है वह प्रकाश को संकुचित करके उसी कमरे को प्रकाशित उसे प्रदेश कहते है। [यद्यपि 'प्रदेश' को अवयव कह करेगा । इसी प्रकार संसारी प्रात्मा संकोच रूप विसर्प सकते है मगर अवयव और 'प्रदेश' में भेद माना जाता शक्ति के कारण शरीर के परिमाण अनुसार होकर उसी है। स्याद्वाद म०प०६७] इस तरह के 'प्रदेश' एक में पूर्ण रूप से प्राप्त होकर रहता है। इसलिए यह सिद्ध आत्मा में असख्य होते है। ये असख्यात् प्रदेश वाले हो जाता है कि जिसका जैसा सूक्ष्म, स्थूल, छोटा, बड़ा अनन्तान्त जीव लोकाकाश में रहते है। किन्तु एक जीव शरीर होता है उसकी प्रात्मा भी उसी प्रकार की होती कम से कम लोकाकाश के असख्यातवें भाग में रह सकता है। जिस प्रकार शरीर की वृद्धि होती है उसी प्रकार है । यहाँ पर शंका यह होती है कि प्रात्मा और प्राकाश मात्मा का परिमाण भी बढ़ता है। यदि शरीर के अनुके प्रदेश के बराबर है तो एक जीव लोक के असख्यातवे सार वही आत्मा न बढती तो बचपन की स्मृति युवाभाग मे किस प्रकार रहता है ? वस्था मे नही होनी चाहिए, मगर स्मृति होती है इससे १. रतनलाल जैन-पात्म रहस्य पु० ६० । सिद्ध है कि शंशवास्था और युववस्था में वही प्रात्मा २. सति जदो तेणेदे प्रत्यित्ति, भणति जिणवरा जम्हा। रहती है जो शरीर के परिमाण के अनुसार 'घटती-बढ़ती काया इव बहुदेशा तम्हा, काया य अस्थिकाया य ।। रहती है। ___ an E४ मात्मा में संकोच विस्तार होने का कारण-मात्मा तत्त्वार्थ राजवातिक ११७ में संकोच विस्तार को शक्ति क्यो ? इसका उत्तर यह है जीवा पुग्गल काया धम्माघम्मा तहेव मायासं । ५. लोकासंस्सेयभागादावस्थानां शरीरिणाम् । अंशाः विसर्प-सहारी दीपानामिव कुर्वते ।। ते होंति अस्थि काया......" योगसार-प्राभूत २।१४ पञ्चास्तिकाय गाथा ४-५ ६.५।१६ । ३. प्रसस्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मक जीवानाम् । ७. तत्त्वार्थ राजवातिक ५।१६।। तत्त्वार्थ सूत्र शः ८. तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक पु०४०६ । ४. लोकाकाशेऽवगाहः ।-वही ५॥१२ ६. वही पृ० ४०६ । x
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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