________________
जैन दर्शन में प्रात्म-सस्व विचार
२४५
प्रात्मा को व्यापक सिद्ध करने के लिए दिया गया के गुण ज्ञानादि पात्मा में पाये जाते हैं। जिसके गुण अनमान "मात्मा के गुणों की सर्वत्र उपलब्धि होती है, जहाँ होते हैं वहाँ वह वस्तु होती है जैसे घड़ा के रूप-रंग इसलिए प्रात्मा प्राकाश की तरह व्यापक है।" यह भी प्रादि जिस स्थान पर पाये जाते हैं वहाँ घडा अवश्य होता ठीक नहीं है क्योंकि 'सर्वत्र गुणों की उपलब्धि होती है' है। इसी प्रकार प्रात्मा का गुण चैतन्य पूरे शरीर में ही इसका तात्पर्य क्या यह है कि अपने ही शरीर में सर्वत्र पाया जाता है। जिस वस्तु के जहाँ गण उपलब्ध नहीं गणों की उपलब्धि होती है ? यदि हाँ तो ऐसा मानने से होते है वहाँ वह वस्तु नहीं होती है जैसे अग्नि के गुण देत विरुद्ध हो जायेगा क्योंकि स्वशरीर मे गुणों की जल मे नही रहते हैं इसलिए अग्नि जल मे नही उपलब्ध उपलधिहोने से प्रात्मा भी स्वशरीर मे ही रहेगा अन्यत्र होती है । इसी प्रकार प्रात्मा के गण शरीर के बाहर कही नहीं । अब पूर्वपक्ष यह कहे कि स्वशरीर की तरह पर भी उपलब्ध नहीं होते है। इसलिए प्रात्मा शरीर के शरीर मे भी गणों की उपलब्धि होती है, इसलिए आत्मा बाहर कही नहीं है। अत: चेतनता परे शरीर में व्याप्त यापक पर शरीर में बुद्धयादिगुणो की उपलब्धि नहीं होने के कारण प्रात्मा को भी पूरे शरीर में व्याप्त मानना देखी जाती है इसलिए हेतु प्रसिद्ध हो जाने से उक्त कथन चाहिए । दूसरी बात यह है कि शरीर के किसी भी भाग भी ठीक नहीं है। यदि पर शरीर मे बुद्धधादि गुणों की में वेदना होती है उसकी प्रतिमासा उपलब्धि होने लगे तो प्रत्येक प्राणी को सर्वज्ञ मानना है। इससे सिद्ध होता है पडेगा। इसी प्रकार से शरीर शून्य प्रदेश मे गुणों की है। सुख-दुःख का प्रभाव शरीर के किसी स्थान विशेष उपलब्धि नहीं होती है, इसलिए अन्तराल में भी गुणों को पर न पडकर शरीर के प्रत्येक भाग पर पड़ता है - जब उपलब्धि होती है, यह भी सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार किसी व्यक्ति को सुखद समाचार प्राप्त होता है जैसे
मित हो जाता है कि गणो की सर्वत्र' उपलब्धि होती पूत्र रत्न की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, इष्ट सयोग प्रादि] है।' यह हेतु सदोष होने के कारण 'आत्मा व्यापक है' तो उस समय उसका चेहरा खिन जाता है एव एक नवीन यह सिद्ध नहीं होता।
कान्ति की प्राभा मुख मण्डल पर छा जाती है, शरीर में - आत्मा को व्यापक मानने में एक कठिनाई यह भी है
रोमाच उत्पन्न हो जाता है, शरीर में उत्साह उत्पन्न हो कि प्रात्मा ईश्वर मे भी व्याप्त हो जायेगी। जिसके कारण
जाता है, पात्मिक शक्तियां विकसित हो जाती है। इसी मात्मा और ईश्वर मे भेद करना असभव हो जायेगा।
प्रकार से दुखद समाचार सुनकर अथवा इष्ट जनो के इसी प्रकार से व्यापक प्रात्मा मानने से कर्ता, भोक्ता.
वियोग होने से मुख उदास हो जाता है, अग शिथिल हो बघ मोक्ष प्रादि असम्भव हो जायेंगे। इसलिए प्रात्मा
जाते है, हृदय उत्साहहीन हो जाता है, शरीर को चमक को व्यापक मानना ठीक नही है। अमतिगति ने एवं
नष्ट हो जाती है एव आत्मिक शक्तियां मिकुड जाती है। स्वामी कार्तिकेय ने भी इस सिद्धान्त की समीक्षा की है।
सुख-दुःखादि के प्रभाव से प्रात्मा एव शरीर दोनो प्रभा(३) प्रात्मा मध्यम परिमाण वाला है
६. जीवो तणुमेत्तत्थो जघ कुभो तम्गुणोवल भातो। जैन दर्शन में प्रात्मा को मध्यम परिमाण वाला
अवधाऽणुवलभातो भिण्णम्मि घडे पडस्सेव ।। अर्थात् देह परिमाण के बराबर माना है। क्योकि प्रात्मा
-विशेषावश्यक भाष्य (गणधर वाद) १५८६ १. प्रमेयक पृ० ५६६ ।
स्याद्वाद मञ्जरी श्लोक ६, २. स्याद्वाद मञ्जरी प०६६ ।
७. दिगम्बरा मध्यमत्वमाहुरापादमस्तकम् । ३. विशेषावश्यक माहम (गण) गा० १३७६ ।
चैतन्यव्याप्तिसंदृष्टेदाननश्रुते रपि । ४. प्रमतिगति श्रा. ४।२५-२६, का. अनुप्रेक्षा गा. १७७
पञ्चदशी ६१८२
८. जीव एव शरीरस्थश्चेष्टते सर्वदेहगः। ५. "वेहमात्र परिच्छिन्नो मध्यमो जिनसम्मतः॥"
शरीर व्यापिनीः सर्वाः स च गृहातिसद्गति वेदनाः ।। दर्शन मीमांसा ५से उद्धत केशवमिश्र तर्कभाषा
के. तर्कभाषा .. ५२
पृ० १५५ से उद्धजनसम्मतः॥""