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२४ वर्ष २४,कि.६
अनेकान्त
अनुमान प्रमाण से भी यह सिद्ध नहीं होता है कि प्रसज्जरूप प्रभाव तुच्छाभाव होता है जो किसी प्रमाण
जैसे-प्रात्मा परममहत् परिमाण का का विषय न होने से सिद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है कि अधिकरण नही है क्योंकि वह क्रियावाला है, जो क्रिया- यदि तुच्छाभाव को सिद्ध मान भी लिया जाय तो प्रश्न
है वह परममहत-परिमाण का का अधिकरण होता है कि यह साध्य का स्वभाव है अथवा कार्य ? यदि नहीं होता है। मैं 'एव योजन गया', 'मैं मा गया' इत्यादि तच्छाभाव को माध्य का प्रभावों से प्रात्मा क्रिया वाला है, यह सिद्ध हो जाता तर माध्य मे भी:
तरह साध्य मे भी तुच्छाभाव मानना पड़ेगा। तुच्छाभाव और मन अथवा शरीर क्रियावान नही है क्योकि 'मह' में कार्यत्व कभी सिद्ध नही हो सकने के कारण उसे साध्य प्रत्यय के द्वारा मन अथवा शरीर की प्रतीति नही होती का कार्य भी नहीं माना जा है। अन्यथा चार्वाक सिद्धान्त मानना पड़ेगा।' एक मोर व्यापक हम माय की
मान में भी प्रात्मा मे अव्यापकत्व सिद्ध किया जा था वह सदोष होने से 'पारमा व्यापक है, यह सिद्ध नहीं सकता है-प्रात्मा व्यापक नही है क्योकि वह चेतन है, जो होता है।' व्यापक होता है वह चेतन नही होता है जैसे माकाश अदृष्ट प्रात्मा का गुण न होकर कर्म है, इसलिए प्रात्मा चेतन है इसलिए प्रात्मा व्यापक नही है। 'प्रदष्ट क्रिया का हेतु है' यह मानना भी ठीक नही है।
प्रात्मा को व्यापक मानने मे यह तर्क दिया गया था यदि पूर्वपक्ष कहे कि अदष्ट क्रिया हेतु है। क्योकि देवदत्त किमामा व्यापक है क्योकि अणु रिमाण का अधिकरण के शरीर से संयुक्त प्रात्मप्रदेश में वर्तमान प्रदष्ट द्वीपान्तर नही है तथा प्राकाशादि की तरह नित्य द्रव्य है। वर्ती मणिमुक्तादि की देवदत्त की प्रतिक्रिया मे हेतु है।
जैन दार्शनिको का कथन है कि 'प्रात्मा अणुपरिमाण ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर संयुक्त प्रात्मवाला नही है' यह निषेध पर्युदासरूप है अथवा प्रसज्य प्रदेश मे वर्तमान अदृष्ट का द्वीपान्तरवर्ती द्रव्यों से
यदि निषेध पयुस रूप माना जाता है तो उस सबंध होना असभव है। अब यदि यह माना जाय कि प्रतिषध या तो महापरि होगा अथवा मध्यम परिमाण, द्वीपान्तरवर्ती द्रव्य से संयुक्त प्रात्म-प्रदेश में वर्तमान क्योंकि पयूस भावान्तर स्वरूप होता है। यदि पयुदास अदृष्ट मणिमुक्तादि की प्रतिक्रिया मे हेतु है तो यह भी महापरिमाण स्वरूप माना जाय, तो हेतु साध्य के समान ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यत्र किया गया। हो जायेगा। इसलिए अणुपरिमाण निषेध का अर्थ महा- प्रयत्न दूसरे स्थान की क्रिया में हेतु नहीं हो सकता परिमाण तो माना नहो जा सकता है। इसी प्रकार से है। यदि कहा जाय कि सुप्रदृष्ट सर्वत्र रहता है इसलिए नावान्तर परिमाण भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि क्रिया मे हेतु है, तो ऐसा मानना भी ठीक नही है। क्यों देत प्रात्मा मे व्यापकरव की सिद्धि न करके मध्यम परिमाण कि यदि अदृष्ट सर्वत्र रहता है तो उसे द्रव्यों की क्रिया में की सिद्धि करेगा, इसलिए विरूद्ध हेत्वाभास नामक दोषसे हेतु होना चाहिए। ऐसा मानना भी ठीक नही कि जो देत दषित हो जायेगा। अत: 'अणुपरिमाण के निषेध' का अद्रष्ट जिस द्रव्य को उत्पन्न करता है वह उसी द्रव्य में अर्थ पयर्दास रूप नही है यह सिद्ध हो जाता है।' क्रिया करता है, अन्यथा नही। क्योंकि शरीर के प्रारम्भक
यदि 'प्रणपरिमाण के प्रतिरोध' का तात्पर्य प्रसज्ज अणुनों की उत्पत्ति नहीं होती है, इसलिए उनमे प्रदृष्ट से रूप माना जाय तो हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास से दूषित हो क्रिया न हो सकेगी। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है जाने के कारण साध्य की सिद्धि संभव नही है। क्योकि कि 'मदृष्ट' क्रिया में हेतु नहीं होने के कारण, मात्मा १. प्रमेयकमल मार्तण्ड पु. ५७० ।
व्यापक है यह सिद्ध नहीं होता है।' २. वही पृ० ५७१।
४. प्रमेय क० मा० पृ० ५७१, प्रमेयरत्नमाला पृ० २९७ ३. प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० ५७१, न्यायकुमुदयन्द पृ० ५. न्याय कुमुद चन्द्र पु० २६४ । २६२, प्रमेयरत्नमाला पृ० २६२
प्रमेय कमल मार्तण्ड पु. ५६४ ।