SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन २९ प्रार्य ये दो भेद कहे गये है। इनमे भी केवलिक्षीणकषाय वर्ती और इन्द्र के सुख को परिणामतः दुख ही मानता है। वीतरागदर्शन-मार्य सयोगिकेवलिक्षीणकपाय वीतरागदर्शन- इस प्रकार से वह सवेग गुण से विभूषित होकर मोक्ष के प्रार्य और अयोगिकेवलिक्षीणकषाय वीतरागदर्शन-पार्य के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहता है । नारक आदि भेद से दो प्रकार कहे गये है। चारो गनियो में रहता हुआ वह परलोक में हितप्रद अनुसम्यक्त्व को पहिचान प्ठान को छोड़कर अन्य सबको असार मानता है । इस सम्यक्त्व यह प्रमूतिक आत्मा का परिणाम है, अतएव निर्वेद गुण के कारण वह ममत्वभाव से रहित होता है। उसे छद्मस्थ देख तो नहीं सकता, पर सम्यग्दृष्टि मे जो वह ससार मे परिभ्रमण करते हुए दुखी जीवों के विषय कुछ विशेष गुण हा करते है उनके द्वारा उसका--- मे स्वकीय प्रौर परकीय की कल्पना से रहित होकर सराग सम्यक्त्वका- अनुमान किया जा सकता है । वे गुण शक्ति के अनुसार सबसे दयापूर्ण व्यवहार करता है। वह है प्रशम, सवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य । रागादि की निःशक होकर उसी को सत्य मानता है, जिसे जिनेन्द्र ने तीव्रता का न होना, इसका नाम प्रशम है । ससार से कहा है। वह काक्षा आदि सम्यक्त्वविरोधी प्रतिकूल भयभीत रहना, इसे सवेग कहा जाता है। समस्त प्राणियो परिणामों से दूर रहता है । इस प्रकार की शुभ परिणति में मित्र जैसा स्नेह रखना, इसे अनुकम्पा कहते है । जीवा- वाला सम्यग्दष्टि जीव थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त दिक पदार्थ यथायोग्य अपने-अपने स्वभाव के अनुसार है, कर लेता है। अन्त में यहाँ इस प्रकार के सम्यक्त्व को ऐसा निश्चय करना; इसका नाम प्रास्तिक्य है। ये ऐसे ही मनिधर्म और मनिधर्म को ही सम्यक्त्व निर्दिष्ट किया हेत है, जिनके द्वारा उस सम्यक्त्व के अस्तित्व का अनुमान गया है। मात्र किया जा सकता है। पर उनके प्रभाव में सम्यक्त्व गुण-दोषविचार के अभाव का निश्चय अवश्य किया जा सकता है । सम्यक्त्व के परिचायक उपर्युक्त प्रशमादि गुणो के श्रावकज्ञप्ति और धर्म संग्रहणी' में सम्यग्दृष्टि अतिरिक्त उसको विशुद्ध बनाने वाले नि शकित आदि जीव की परिणति को प्रगट करते हुए कहा गया है कि पाठ अगो या गुणों का परिपालन भी सम्यग्दष्टि के लिए सम्यक्त्व, जो प्रात्मा का परिणाम है, वह उपशम (प्रशम) आवश्यक बतलाया गया है। प्राचार्य समन्तभद्र ने कहा और संवेग आदि (निर्वेद, अनुकम्पा व आस्तिक्य) प्रशस्त । है कि जिस प्रकार एक प्राध अक्षर से विहीन मंत्र कभी व्यापारस्वरूप बाह्य उपायो के द्वारा जाना जाता है । यहाँ सदि के विष की वेदना को दूर नही कर सकता है उसी उदाहरण देते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार कीट प्रकार निःशकतादि अगों से रहित सम्यग्दर्शन ससारकालिमा से रहित सुवर्ण कभी मलिन नही होता है, उसी परिभ्रमण को नष्ट नहीं कर सकता है। इसे दूसरे प्रकार प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव का परिणाम दर्शनमोहादिरूप मल- से भी समझा जा सकता है - जिस प्रकार हमारे शरीर कलक से रहित हो जाने के कारण कभी अशुभ-रागद्वेषादि का यदि कोई अग-हाथ-पांव प्रादि-खण्डित हो जाता रूप-नही होता है, किन्तु वह प्रशमादिरूप शुभ ही होता है तो उससे सम्पन्न होने वाले कार्य को हम नही कर है । वह स्वभाव से कर्मों के प्रशभ परिपाक को जानता सकते है, इसी प्रकार सम्यक्त्व के अगभूत उक्त निःशकिहमा अपराधी के भी ऊपर कभी क्रोध नहीं करता । यह तादि अंगों में किसी एक के न होने पर वह सम्यक्त्व उसके उपशम (प्रशग) गुण का परिणाम है । वह चक्र- जन्म-मरण के विनाशरूप अपने कार्य को पूरा नही कर १. प्रज्ञापना सूत्र ३७, पृ. ५६-५७. सकता है। अतः दर्शनविशुद्धि के लिए अगों का परि२. इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वाच्छवस्थेन दुर्ल पालन आवश्यक है। वे अंग पाठ ये है-निःशकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगृहन, स्थितिध्यमिति लक्षणमाह-श्रा. प्र. टीका (गा. ५३ की करण, वात्सल्य और प्रभावना। उत्थानिका) ३. त. वा. १, २, ३०. ४. टा. प्र. ५३-६१. ५. घ. स. ८०६.१४. ६. रत्नकरण्डक २१.
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy