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२८, वर्ष २४, कि०१
अनेकान्त
स्पष्ट करते हुए पुनः का गया है कि द्रव्य-क्षेत्राद अथवा नाम कारक (कराने वाला) सम्यक्त्व है। जो प्रागमोक्त नाम-स्थापनादि के भेद से चार भेदों में विभक्त उक्त अनुष्ठान में रुचि मात्र कराता है उसे रोचक सम्यग्दर्शन जीवाजीवादि पदार्थ जिस प्रकार से जिनदेव के द्वारा देखे कहते हैं। स्वयं मिथ्यादष्टि होकर भी जिस परिणाम के गये है वे उसी प्रकार है, अन्यथा नही है। इस प्रकार से द्वारा घर्मकथा (धर्मोपदेश) प्रादि के निमित्त से श्रोता को जो स्वय-परोपदेश के विना-~श्रद्धान करता है उसे सम्यक्त्व प्रगट कराता है उसे कारण मे कार्य के उपचार निसर्गरुचि जानना चाहिए। २. जो पर से-दमस्थ से दीपक सम्यग्दर्शन कहा जाता है। अथवा जिनसे-उपदिष्ट इन्ही पदार्थों का श्रद्धान करता है उस सम्यग्दर्शन के सामान्य से सराग और वीतराग उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए। ३. जो विवक्षित ये दो भेद भी निर्दिष्ट किये गये है। सराग जीव केअर्थ के ज्ञापक हेतु को न जानता हुमा प्राज्ञा मात्र से असंयतसम्यग्दृष्टि से सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक-जो प्रागमोक्त पदार्थो का श्रद्धान करता है उसे प्राज्ञारुचि प्रशम-संवेगादि गुणों की अभिव्यक्तिरूप सम्यग्दर्शन होता कहा जाता है। ४. जो सूत्रों को पड़ता हुअा अग और है उसे सराग सम्यग्दर्शन कहा जाता है। उपशान्तकषाय अगबाह्य श्रुत से सम्यक्त्वका अवगाहन करता है उसे सूत्र. आदि वीतराग जीवों के जो आत्मविशुद्धिस्वरूप है उसका रुचि जानना चाहिए । ५. जिस प्रकार तेल की एक बद नाम वीतरागसम्यग्दर्शन है। जल के एक देश में गिरकर समस्त जल के ऊपर फैल प्रज्ञापनासूत्र मे दर्शनार्यों के दो भेद निर्दिष्ट जाती है इसी प्रकार जो सम्यक्त्व-सम्यग्दृष्टि जीव-- किये गये है-सरागदर्शन-पार्य और वीतरागदर्शनएक पद से जीवादि अनेक पदो मे फैलता है-उन्हे जानता आर्य । इनमे सरागदर्शन-आर्यों के जो दस भेद है-वह बीजरुचि कहलाता है। ६. जिसका श्रुतज्ञान निर्दिष्ट किये गये है वे ऊपर कहे जा चुके है। अर्थतः ग्यारह अगो, प्रकीर्णको (उत्तराध्ययनादि) और वीतरागदर्शन-पार्यो के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं, दृष्टिवाद को विषय करता है उसका नाम अधिगमहाच उपशान्तकषायवीतरागदर्शन-आर्य और क्षीणकषायवीतहै। ५. जिसे द्रव्यों को सब पर्यायें प्रमाण और नयों के रागदर्शन-प्रार्य । आगे इनके भी अवान्तरभेदों को गिनाते पाश्रय से उपलब्ध (ज्ञात) है उसे विस्ताररुचि जानना हए क्षीणकषाय-वीतरागदर्शन-मार्यो के छद्मस्थक्षीणकषायचाहिए। ८. दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय तथा सब वीतरागदर्शन-प्रार्य और केवलिक्षीणकषायवीतरागदर्शनसमितियो व गुप्तियो के आचरण मे जिसे भाव से रुचि
२. दर्शनप्राभृत में (२२) कहा गया है कि जो अनुहै उसे क्रियारुचि कहा जाता है। ६. जो मिथ्याबुद्धि से
प्ठान शक्य है-किया जा सकता है-उसे किया गृहीत नही है तथा जो प्रवचन (जिनागम) में निपुण
जाता है, पर जो शक्य नही है उसका श्रद्धान करना नही है, पर शेष मे-कपिलादिप्रणीत दर्शनों में-अनभि
चाहिए-उसमे रुचि अवश्य रखना चाहिए । इस गृहीत है -उन्हे उपादेय मानकर ग्रहण नहीं करता है--
प्रकार से श्रद्धा या रुचि रखने वाले जीव के सम्यक्त्व उसे संक्षेपरुचि जानना चाहिए । १०. जो जीवादि अस्ति
कहा गया है। कायों के धर्म (स्वभाव) का, श्रुतधर्म का और चारित्र
३. श्रा. प्र. ४६-५०; धर्मसंग्रहणी ८०२-३. धर्म का श्रद्धान करता है उसका नाम धर्मरुचि है। इनके अतिरिक्त उक्त सम्यग्दर्शन के कारक, रोचक
४. तद्विविधम्-सराग-वीतरागविषयभेदात् । प्रशमऔर दीपक आदि अन्य भी कुछ भेद देखे जाते है। जिस
सवेगानुकम्पास्तिक्याद्यभिव्यक्तिलक्षणं प्रथमम् । सम्यग्दर्शन के होने पर पागम में जहाँ जैसा अनुष्ठान
आत्मशुद्धिमात्रमितरत् । स. सि. १-२ त. वा. १, कहा गया है उसे उसी प्रकार से जो किया जाता है, इसका
२, २६.३१; तत् सरागं विरागं च द्विधाxxxm
ज्ञे सरागे सरागं स्याच्छमादिव्यक्तिलक्षम् । विरागे १. प्रज्ञापना १, गा. ११५-२६, उत्तराध्ययन २८, दर्शन स्वात्सशुद्धिमात्र विरागकम् ।। अन. घ. २,
१६-२७.