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सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन
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बिना-उत्पन्न होता है वह निसर्गज कहलाता है तथा जो और परमावगाढ सम्यग्दर्शन । वीतराग सर्वज्ञ की प्राज्ञा परोपदेशपूर्वक जीवादिविषयक अधिगम (ज्ञान) के निमित्त मात्र के प्राश्रय से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे प्राज्ञासे होना है उसे अधिगमज कहा जाता है । अन्तरग कारण सम्यक्त्व कहते है। निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग के सुनने मात्र से जो दर्शनमोहनीय का उपशमादि है वह इन दोनों ही मे जो रुचि होती है उसे मार्गसम्यग्दर्शन कहा जाता है। समान है-पावश्यक है।
तीर्थकर व बलदेव प्रादि के पवित्र चरित्रविषयक उप___प्रौपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक के भेद से देश के आलम्बन से जो श्रद्धा होती है वह उपदेशसम्पवह तीन प्रकार का भी है। इनमे प्रौपशमिक दो प्रकार क्त्व कहलाता है । दीक्षा और मर्यादा के प्ररूपक प्राचारका है, प्रथमोपशम और द्वितीयोपशम । प्रथमोपशम का शास्त्र के सुनने मात्र से उत्पन्न होने वाले तत्त्वश्रद्धान स्वरूप कहा जा चुका है। सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानवर्ती को सूत्रसम्यक्त्व कहा जाता है। बीजपदों के निमित्त से जीव जब उषशमश्रेणिपर प्रारूढ़ होने के अभिमुख होता जो सूक्ष्म तत्त्वो का श्रद्धान उत्पन्न होता है, इसका नाम है तब वह अनन्तानुबन्धिचतुष्टय का विसयोजन करता बीजसम्यक्त्व है। जीवादि पदार्थों का सक्षिप्त ज्ञान हुमा क्षायोपशमिक सम्यवत्व से जिस उपशम सम्यवत्व को कराने से उत्पन्न होने वाली श्रद्धा को संक्षेपसम्यवस्व प्राप्त करता है वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है। कहते है । अंग-पूर्वो के विषयभूत जीवादि पदार्थों का
दर्शनमोहनीय के क्षय से जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता प्रमाण व नयादि के साथ विस्तार से निरूपण करने पर है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते है। इस दर्शनमोहनीय की जो तत्त्वश्रद्धा होती है उसे विस्तारसम्यग्दर्शन कहते है। क्षपणा को पढ़ाई द्वीपों में वर्तमान कर्मभूमि का मनुष्य वचनविस्तार के बिना अर्थ के ग्रहण से जो तत्त्वरुचि ही प्रारम्भ करता है। अढाई द्वीपो मे भी जहां तीर्थंकर उत्पन्न होती है उसे अर्थसम्यग्दर्शन कहा जाता है। केवली जिन (अथवा जिन-श्रुतकेवली, सामान्य केवली द्वादशांग के विषय में जो स्थिर अभिप्रायपूर्वक श्रद्धान या तीर्थकर केवली) विद्यमान हों वहाँ उनके पादमूल में ही होता है उसे प्रवगाढसम्यग्दर्शन कहते है। परमावधि. वह उसे प्रारम्भ करता है। परन्तु उस क्षपणा की समाप्ति केवलज्ञान और केवलदर्शन से प्रकाशित जीवादि पदार्थों चारों गतियो में भी सम्भव है, प्रारम्भ उसका केवल मनुष्य
के प्राश्रय से जो पात्मा मे निर्मलता होती है, इसका गति मे होता है।
नाम परमावगाढ़सम्यग्दर्शन है। __ अनन्तानुबन्धिचतुष्टय, मिथ्यात्व पोर सम्यमिथ्या- सम्यक्त्व के दस भेद प्रज्ञापनासूत्र और उत्तराध्ययन त्व के उदयक्षय से, सदवस्थारूप उपशम से तथा सम्य- मे भी उपलब्ध होते है, पर उनमे वे इनसे कुछ भिन्न भी क्त्व प्रकृति के देशघाती स्पर्धकों के उदय से जो तत्त्वार्थ- हैं। यथा-निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, प्राज्ञारुचि, सूत्ररुचि, श्रद्धान होता है उसे क्षायोपशामक या वेदकसम्यक्त्व कहा बीजरुचि, अधिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपजाता है। इसमें चूंकि सम्यक्त्वप्रकृति का वेदन (अनुभवन) रुचि और धर्मरुचि । जैसे तत्त्वार्थवातिक में दर्शनमार्यों होता है, अतः क्षायोपशमिक के समान उसको वेदक सज्ञा के प्रसंग मे उक्त दस भेद निर्दिष्ट किए गये है वैसे ही भी सार्थक है।
यहाँ भी सराग दर्शनार्यों के ये सम्यक्त्वभित दस भेद उक्त सम्यग्दर्शन दस प्रकार का भी है-प्राज्ञा, कहे गये हैं। उनका स्वरूप यहां इस प्रकार कहा गया मार्ग, उपदेश, सूत्र, वीज, सक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ हैं-ये पदार्थ सद्भूत है, इस प्रकार से जिसे जीवाजीवादि १. दसणमोहणीयं कम्म खवेदमाढवेंतो कम्हि साढवेदि ? नौ पदार्थ प्रात्मसंगतमति से-जातिस्मरणादिरूप बुद्धि
मड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्दे सु पण्णारसकम्मभूमीसु जम्हि से-ज्ञात हैं, उसे निसर्गरुचि कहा जाता है। इसी को जिणा केवली तिस्थयरा तम्हि पाढवेदि ।। णिट्रवनो १. त. वा. ३-३६, पृ. २०१ प्रात्मानु. ११-१४; उत्तर. पुण चदुसु वि गदीसु णिटुवेदि ।। (षट्खं. १, ६-८, पु. ७४, ४३६-४६; उपासका. पृ. ११३-१४; अन. ११-१२. पु. ६, पृ. २४३-४७.)
घ. २-६२.