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________________ २६, वर्ष २४, कि.१ अनेकान्त को कोडाकोड़ि के भीतर करके उस अन्तःकोडाकोडि मे मी के भेदने मे अशक्त जीव पूनः कर्मों की स्थिति को वृद्धिजब पल्योपम का असख्यातवां भाग क्षीण हो जाता है तब गत करते है। ग्रन्थि का प्राविर्भाव होता है। यह ग्रन्थि उत्कट राग- दसरा दष्टान्त तीन पथिकों का भी दिया गया देष परिणामरूप है। जिस प्रकार किसी लकड़ी की कठोर है-जिस प्रकार कोई तीन पथिक स्वाभाविक गमन गांठ कठिनता से तोड़ी जा सकती है, उसी प्रकार प्रकृत करते हए किसी सघन वन को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ सघन राग-द्वेष को भी कठिनता से नष्ट किया जा सकता भयस्थान को देख कर शीघ्रगति से लबा मार्ग लांघने में है। इसी से उन्हे प्रन्थि के समान होने से 'ग्रन्थि' नाम से उद्यत होते है । इतने में दो चोर प्राप्त होते हैं। उन्हें कहा गया है। इस ग्रन्थि के विदीर्ण होने पर ही मोक्ष के देखकर उक्त तीन पथिकों मे मे ॥ देखकर उक्त तीन पथिकों में से एक तो पीछे लोट पड़ता हेतुभूत उक्त सम्यक्त्वादि का लाभ होता है। है, दूसरा उनके द्वारा पकड़ लिया जाता है, तथा तीसरा उस ग्रन्थि का विदारण करणविशेप के द्वारा होता उनसे अस्पृष्ट होकर अभीष्ट स्थान को प्राप्त हो जाता है। करण से अभिप्राय परिणाम का है। वह तीन प्रकार है। प्रकृत मे यहाँ तीन पथिकों के समान तीन प्रकार के का है-प्रथाप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। ससारी प्राणी है, मार्ग के समान अतिशय दीर्घ कर्मस्थिति इनमें प्रयाप्रवृत्त करण भव्य के समान प्रभव्य के भी है, भयस्थान ग्रन्थिदेश है, दो चोर राग-द्वेष है, लौटने सम्भव है। पर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये दो वाले पथिक के समान कर्म स्थिति को बढ़ाने वाला अनिष्ट करण तो भव्य के ही होते हैं, अभव्य के नहीं। प्रथम परिणाम है, चोरों से पकडा गया प्रबल राग-द्वेषयुक्त प्रथाप्रवृत्तकरण ग्रन्थिस्थान तक रहता है। जिस प्रकार ग्रन्थिकसत्त्व है-ग्रन्थिभेदन में अशक्त अथवा उसके भेदन पहाड़ी नदी के अन्तर्गत पाषाण परस्पर के संघर्षण से में संलग्न जीव है, और अभीष्ट स्थान को प्राप्त हुप्रा बिना किसी प्रकार के अभिप्राय के स्वयमेव अनेक प्रकारों सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने वाला जीव है। मे परिणत होते है उसो प्रकार प्रथाप्रवृत्तकरण के द्वारा जिस प्रकार कोई ज्वर तो स्वय नष्ट हो जाता है, कोई ग्रन्थिस्थान तक कर्मों की प्रतिशय दीर्घ स्थिति की हीनता औषधि के प्रयोग से नष्ट होता है, और कोई ज्वर नष्ट भी स्वयमेव होती है। पर अपूर्वकरण परिणाम उस होता ही नही है। इसी प्रकार कोई मिथ्यादर्शनरूप ज्वर ग्रन्थि के भेदन करने वाले के ही होता है। और अनि- स्वय नष्ट हो जाता है, कोई जिनवचनरूप औषधि के वत्तिकरण परिणाम उसी के होता है जो सम्यक्त्व के प्रयोग से नष्ट होता है, और कोई नष्ट होता ही नही है। अभिमुख है। इन तीनों करणों के लिए चीटियो के दृष्टान्त सम्यक्त्व के अभिमुख जीव अपूर्वकरण परिणाम के इस प्रकार दिये गये है-जिस प्रकार चीटियों का स्वा- द्वारा कोदो (एक प्रकार का छोटे दाने वाला धान्य) के भाविक गमन पृथिवी के ऊपर होता है इसी प्रकार पूर्व समान मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है-अनुभाग को प्रवृत्त या प्रथाप्रवृत्त करण स्वभाव से होता है । वे ही अपेक्षा उसे सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व मे चीटियां जिस प्रकार ठूठ के ऊपर चढती है, इसी प्रकार परिणत करता है। और अनिवृत्तिकरण के द्वारा वह से अपूर्वकरण परिणाम ग्रन्थि के भेदन करने वाले के सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। होता है । जिस प्रकार चीटियां उड़कर ठूठ के ऊपर जा सम्यग्दर्शन के भेद बैठती हैं उसी प्रकार अनिवृत्तिकरण परिणाम के द्वारा वह सम्यग्दर्शन निसर्गज व अधिगमज के भेद से दो जीव सम्यक्त्व-शिखर पर जा बैठता है। ठूठ ग्रन्थि के प्रकार का है। जो सम्यग्दर्शन स्वभाव से-परोपदेश के समान है। जिस प्रकार चीटियां ढूठ से लौट कर पुनः २. विशेषा. १२०५-७. प्रथिवी पर परिभ्रमण करती हैं उसी प्रकार उक्त ग्रन्थि ३. वही १२०८-११. १. विशेषा. (ला. द. भा. सं. विद्यामन्दिर अहमदावाद) ४. वही १२१३. से ११८८.६३. ५. वही १२१५.
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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