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________________ ऊपर प्रियदर्शी-जो सम्प्रति की उपाधि थी-उसकी प्रकार उटा नहीं सकता। रानी, सम्राट् समुद्रगुप्त, वीरवल और जहागीर के लेव इसके अतिरिक्त शेष चार प्रतिमाएं भगवान ऋषभभी खुदे हुए है ? देव की है, मभी बलुए लाल पत्थर की हैं। अवगाहना यहाँ चाहचन्द गहल्ला सरावगियान में एक पाव. प्रायः चार से पांच फट है। टन प्रतिमाओं की विशेषता नाथ पचायती मदिर है। इसके सम्बन्ध मे यह अनुश्रुति इनके जटाजूट है, जो मज ही दर्शक का ध्यान अपनी है कि इस मन्दिर का निर्माण नौमी शताब्दी मे हुआ था। भोर प्राषित कर लेती है। इनकी केश विन्यास शैली इस प्रकार यह मन्दिर ११०० वर्ष प्राचीन है। यद्यपि विविध प्रकार की है। किसी की जटायें स्कन्धों पर समय समय पर मन्दिर का जीर्णोद्धार होता रहा है, अतः छितरी हुई है किसी का जटाजूट शव साधुओं कैसा है। प्राचीनता के चिह्न पाना कठिन है। किन्तु परम्परागत किमी का जटा नगरोसा है, जिस पवार स्त्रियाँ स्नान अनुश्रुति इस प्रकार की है। के पश्चात् गीले बालो का जला बाध लेती है। किन्तु ___कुछ वर्ष पूर्व किले को खुदाई मे कुछ जैन तीर्थंकरों लहराती हई केश-गशि अथवा जटाजूट का तक्षण-कौशल और यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियाँ निकली थीं। जैन समाज ने इतना वारी और विपूर्ण है कि केशों की रेखाएं सरकारसे लेकर ये मूर्तियाँ इसी मदिरमें विराजमान कर दी स्पष्ट परिलक्षित होनी है। हैं । ये मूर्तियों केवल पुरातत्त्व की दृष्टि से ही, नही बल्कि समान्यत: तीर्थंकर प्रतिमानों के केशकुन्तल धुंधराले कलाकी दृष्टिसे भी बढी मूल्यवान है । शासन देवतायो में और छाटे जाने से उनके जटा एव जटा जट नहीं होते। क्षेत्रपान, मातृरूपिणी अम्बिका की पाषाण मूर्तियां है तथा किन्तु भगवान नभदेव भी कुछ प्रतिमाओं में इस प्रकार छह शासन देवियों की धातु मूर्तियाँ हैं। के जटा-जूट अथवा जटा देखने में पाती है। इसका इनके अतिरिक्त पाच तीर्थङ्कर प्रतिमाएं भी प्रान्त कारण यह है कि तीर्थकरों के बाल नही बढते, ऐसा हई थीं। ये सभी प्रतिमाएं चतुर्थकाल की कही जाती हैं। नियम है किन्तु अपभदेव के तपस्यारत रूप का वर्णन इनमें एक प्रतिमा पार्श्वनाथ की है। इसकी अवगाहना करते हुए कुछ आचार्यों ने उन्हे जटायुक्त बताया है। प्राय: साढ़े चार फुट की है। इसका पाषाण सादार पाचार्य जिनसेनकृत हरिवंशरण में उल्ने ग्व पाया है। है ऊपर फण है। फण के अगल-बगल मे पुष्पमाल सलम्ब जटाभार भ्राजिष्ण जिष्णु रावभौ। पारिणी देवियां है। और फण के कार ऐरावत रूढ़ प्रारोह शाखायो यथा न्यग्रोधपादपः॥९-२०४ हाथी है। किम्बदन्ती है कि यह प्रतिमा किले मे खुदाई लम्बी लम्बी जटाओं के भार मे सुशोभित प्रादि करते समय निकली थी। हिन्दुनों ने इसे अपने भगवान जिनेन्द्र उस ममय ऐसे वट वृक्ष के समान सुशोभित हो की मति कहकर ले जाना चाहा। किन्तु जब जैनों को रहे थे, जिसकी शाखामों से पाये लटक रहे हो। इसका पता चला तो हिन्दू लोग इसे लेने नही पाये। इसी प्रकार प्राचार्य रविषेण पद्मपुराण में वर्णन करते किन्तु अधिकारी ने यह शर्त लगा दी कि यदि यह जनों है :की प्रतिमा है तो इसे एक ही व्यक्ति उठाकर ले जाय । बातोता जटातस्य रेजुराष्ट्रलमर्तयः । तब एक धार्मिक सज्जन रात भर सामायिक करते रहे धूमाल्य इव सध्यान वन्हि सक्तस्य कर्मणः।३-२८८ और सुबह भगवान की पूजा करने के बाद मति लेने हवा से उड़ती हुई उनकी जटाएं ऐसी जान पड़ती पहुँचे । और शुद्ध भाव से भगवान का स्मरण करके इसे, थीं, मानों समीचीन ध्यानरूपी अग्नि से जलते हुए कर्म के उठाया तो यह मासानी से उठ पाई। किले के बाहर से घम की पक्ति हो। वे उसे गाड़ी में रखकर ले पाये और इस मन्दिर मे लाकर इस प्रकार हम देखते है कि ऋषभदेव की प्रतिमानों विराजमान कर दिया। प्रतिमा काफी विशाल और का जटाजूट संयुक्त रूप परम्परानुकूल रहा है । इन प्रतिवजनदार है और साधारणतः एक पादमी इसे किसी मानों की रचना शैली, तक्षण कौशल, भावाभिव्यक्ति
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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