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________________ ५२, वर्ष २४, कि० २ अनेकान्त और अलंकरणादि का सूक्ष्म अध्ययन करने पर लगता है का सूक्ष्म अंकन कुषाण कालीन प्रतिमानों में मिलता है। कि ये सभी प्रतिमाएं एक ही काल की है और उस काल उपयुक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं । की हैं, जब मूर्तिकला का पर्याप्त विकास हो चुका था। कि जहां सम्राट सम्प्रति ने स्तम्भ निर्मित कराया और किले के भूगर्भ से इतनी प्रतिमाओं के मिलने से जहाँ प्राचीन जैन मन्दिर था, वहीं प्राचीन वट वृक्ष था। अवश्य ही निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते है :- वहीं भगवान के दोनों कल्याणक मनाये गये । और त्रिवेणी १- अत्यन्त प्राचीन काल में इस स्थान पर जैन संगम का निकटवर्ती प्रदेश- जहाँ किला खडा हुमा है जैन मन्दिर था। यह मन्दिर भगवान के दीक्षा और केवल तीर्थ क्षेत्र था। ज्ञान कल्याणकों के रूप में स्थान पर उनकी स्मृति में बना राजनैतिक इतिवत्त-प्रयाग प्राचीन काल में काफी था। जैन जनता में तीर्थ क्षेत्र के रूप में मान्य रहा और समय तक कौशल राज्य के अन्तर्गत रहा। पश्चात् यह जैन लोग तीर्थ-यात्रा के लिए यहाँ प्राते रहे । किन्तु वाद पाटिलपुत्र साम्राज्य का एक अग बन गया। सम्भवतः में किस काल में इस मन्दिर का विनाश हो गया या किया राजनैतिक इकाई के रूप मे प्रयाग का स्वतन्त्र अस्तित्व गया यह कहना कठिन है। कभी नहीं रहा, किन्तु शासन की सुविधा के दृष्टिकोण से २-प्राचीन काल में तीर्थंकर प्रतिमाश्री के साथ इसका महत्व अवश्य रहा है। शाहशाह अकबर ने अपने शासन देवताओं की मूर्ति बनाने का भी रिवाज था और राज्य को बारह सूत्रों में विभाजित किया था। शासन उनकी मान्यता भी करते थे। की दृष्टि से उसने सगम पर एक मजबूत किला भी बन३–मतियों के पाठ-मल में लेख अंकित करने की वाया। वह वहाँ बहुत समय तक रहा भी और उसी ने प्रथा कुषाण काल मे निश्चित रूप से प्रचलित हो गई थी। प्रयाग का नाम बदलकर इलाहाबाद कर दिया। साधारण अपवादों को छोड़कर मतियो पर लेख अंकित हिन्दू तीर्थ-हिन्दू भी प्रयाग को अपना तीर्थ मानते किये जाने लगे थे। कुषाण काल मूर्ति-कला के विकास है। त्रिवेणी सगम मे स्नान करने को वे बडा पुण्यप्रद की दृष्टि से स्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल की मानते है। हर छह वर्ष पीछे अर्ध कुम्भ और बारह वर्ष मूर्तियां पर्याप्त विकसित अवस्था में पाई जाती हैं। अग- पीछे कुम्भ होता है। उस समय लाखों यात्री यहा स्नान सौष्ठव, केशविन्यास और शरीर के उभारो मे रेखाओं करने आते है। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का प्रनिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे । ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याथियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें । और इस तरह जन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'भनेकान्त' -
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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