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________________ २०४, वर्ष २४, कि० ५ अनेकान्त से कहीं अधिक मात्रा में प्राप्त हैं। ये काव्य कृतियां भी शान्ति एवं वीतरागता की अनुभूति होती है। निष्ठावान नैतिक दृष्टि से, संस्कृत प्राकृतादि भाषाओं के काव्यो से अध्येतानो पर तो यह प्रभाव और भी गहनतर होता है। कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं । इसका कारण जैनधर्म के उदात्त कनकामर जी के कथनो मे कुछ इस प्रकार की साजनैतिक संस्कार ही है। उच्च संस्कार सम्पन्न कवियो की भौमिकता एवं सार्वकालिकता है कि उनके निवेद-वचन कृतियों में उच्च विचारों का प्राप्त होना स्वाभाविक है। आज के सामाजिक संदर्भो मे भी खरे उतरते प्रतीत होते ये उच्च विचार काव्य की चाश्नी में पग कर और भी है। सम्पूर्ण कृति एक कल्याणमय आनन्द की सृष्टि करती गृहणीय हो गये है। इस दृष्टि से 'सुदसण चरिउ' तथा है परन्तु यह मानन्द अन्यान्य कवियो के प्रानन्द से 'करकंड चरिउ' इत्यादि काव्य, अपना सानी नही रखते । निश्चित ही भिन्न है । उस अनुभूति मे उतना ही अन्तर इन काव्यों में दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तो की अपेक्षा है जितना युवती मुख दर्शन तथा देवमूर्ति दर्शन की अनुनित्य नैमित्तिक जीवन के आचरण एव मनोभावो की भूति में होता है। कनकामर जी लौकिक अनुभूति की व्याख्या अधिक हुई है। तुलना एक दाहक ऊष्मा से करते है। उनके मत मे सारा नयनदी ने अपनी सुप्रसिद्ध काव्य कृति सुदसण ससार एक सघन वन के ममान है जिसमे नश्वरता की चरिउ (सुदर्शन चरित्र) में प्रेम, स्त्री, पुरुष, भाग्य, यौवन, भयंकर दावाग्नि प्रज्वलित है और उसमें ककोल, निम्ब उपहास, हिसा, कोध प्रादि पर बहुत ही सारगर्भित छन्द कुटज और चंदन सभी भस्म हो जाते है । काल अपने लिखे है । वे प्रेम को समय एव दूरी के व्यवधान से परे विकराल गाल में युवा, बृद्ध, बालक, विद्याधर, किन्नर, की वस्तु मानते है और कहते है दो सच्चे प्रेमियो में खेचर, सुर, अमरपति सभी को समेट लेता है, न श्रोत्रिय भौतिक अन्तराल बाधा उपस्थित नहीं कर सकन इसके ब्राह्मण बचपाते है, न तपस्वी, न वह धनवानो को छोड़ता निा वे सूर्य एवं नलिनी ता उदाहरण प्रस्तुत करते है। है और न निर्धनो को। इस लिए धर्म-पथ का सम्बल कहाँ माकाश विहारीम्र्य प्रार कहा उसकी अनन्य प्रमिका । जितनी शीघ्रता से प्राप्त किया जाय उतना ही श्रेयस्कर कमलनी परन्तु वह उसे गगनतल में देखकर ही हलसित रहती है- जइ विह रवि गयपायले इह तहवि सुहू पाउ सोक्तिउ बभणु परिहरई, गलिणी । ८-४ ।। यह उल्लास तथा आकर्षण अतीन्द्रिय णव छंडइ तवसिउ तवि ढियउ । होता हुया भी इन्द्रिय गम्य है, अनुभव जन्य है । परन्तु घणवंतु पर कुट्टइ ण विणिहण, इसके अनुभव का परिणाग सुख नही होता । जहाँ भा प्रेम जह काणणे जलणु समट्टियउ ॥ है, ममत्व है, प्रामक्ति है, वहाँ दुःन निश्चित है। कौन ऐसा प्राणी है जिसे स्नेह ने सताप न दिया हो-ग्रहण इस प्रकार के अन्य अनेक काव्य रत्नो सम्रश कवणु णेहें संताविउ ।। ७.२ । इसी प्रकार यौवन वेग वाङ्गमय का विशाल भतन पालोकित है । अावश्यकता को पहाड़ी नदी के चढाव की भांति क्षणिक, हिंसा को उसको पढ़ने, समझने तथा सुलभ कराने की है। न जाने अनिवार्यतः दुखद तथा स्त्री चरित्र को देवताग्री के लिए कितनी अमर कृतिया अब भी जैन ग्रथागारो व मदिरो भी दुर्वाध सिद्ध किया गया है-देवेहं वि दुलक्खउ तिय मे अब भी अप्रकाशित पड़ी है। वह दिन विश्व-बागमय चरितु ।। ६-१८ ।। के लिए स्वणिम दिवस कहा जायेगा जब कि विशाल जैन मुनि कनकाभर जी का दशाध्यायी खड काव्य ज्ञान पिण्ड प्रकाशित होकर अपने दिव्य प्रालोक से करकड चरिउ, निवेदपरक नीति वथनों का अक्षय भडार मानवता के अनैतिक अंधकार को समाप्त कर देगे। है। ग्रंथ को माद्योपान्त पढ़ जाने पर एक अलौकिक
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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