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अपभ्रंश भाषा के जैन कषियों का नीति-वर्णन
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कर पिर-घिर माना व्यर्थ है जो तषित घरा को अपनी में पोर मागे न बढ़ते हुए एक अन्य कृति, "भक्सियत सीतल जल-वृष्टि से शांत न कर दे, उस तलवार की कहा' की मोर ध्यान माकर्षित करना चाहेंगे। इसे हमने विशालता मोर सुन्दरता व्यर्थ है जिसको चमचमाती हुई उक्त बृहद्रयो के साथ इसलिए नहीं रखा क्योंकि इसका पार में तेजी न हो। उस सुन्दर तथा सुहावने वृक्ष की नायक, एक लौकिक पुरुष है। किन्तु इससे क्या? कृति शोभा भी अधूरी ही है जिस पर मीठे फल न लगते हों, अपने नैतिक मूल्य मे स्पृहणीय है। नायक के लौकिक उस वाण का धारण करना भी व्यर्थ है जिसके प्रागे की पुरुष होने के कारण, काव्यकार श्री धनपाल बक्कड़ को पैनी नोक ही गायब है। इसी प्रकार भावोद्रेक से शून्य गृहस्थ जीवन के विविध प्रसंगों के नैतिक निर्वचन का पौर पुवक-युवती, चुटीले हास्य व्यंग्यादि से शुन्य नट, विभावा- भी अच्छा अवसर प्राप्त हो गया है। किन्तु कवि का नुभाव संचारी प्रवाह से शुन्य काव्य, विदेशी के अधिकार हृदय गृहस्थ-वर्णन प्रसंगों में न रमकर उनके नैतिक एवं में फंसा राज्य तथा दूसरे की पोटली मे बंधा भोजन धार्मिक निदर्शन में अधिक रमता प्रतीत होता है। वे व्यर्थ है, बेकार है, अपने लिए किसी प्रकार भी उपयोगी परम्परागत मान्यतामों का खण्डन करते हुए उनका नहीं है । कहना न होगा कि यहाँ कथ्य की उपयोग्यता के नवीन नैतिक मूल्य निर्धारित करते हैं। केवल बानगी के साथ कविता की सुन्दरता भी विद्यमान है। दोहरे प्रों लिए, शूरता को हिंसा से हटा कर नैतिक निष्कर्ष प्रदान के निर्वाह ने श्लेष अलंकार की सुन्दरता भी ला दी है। करने वाली दो पंक्तियां प्रस्तुत हैंऐसा ही एक प्रतीतात्मक कथन भोर लीजिए
बोग्वण बियार रस बस पसारि, सो सूरउ सो पंडियर। जो गोवाल गाइ उ पालइ ।
चलम्मण बयणुल्लावएहि, जो पर सियहिं ण मंडियउ।" सो जीवंतु बुद्ध ण णिहाला ॥
३-१०-६ जो मालारू बेल्लि उ पोसह ।
मर्थात् शुर भी वही है, पण्डित भी वही है जो परसो सुफुल्ल फल केंद्र लहेसह। (५-१२-१) नारी के कामोद्दीपक प्रपंचों एवं वचनों के द्वारा खंडित अर्थात् जो गुवाला गो नहीं पालेगा, वह जीवन भर नहीं होता । यहाँ यह निर्देश कर देना अनुचित नहीं होगा दुध को नहीं निहार सकेगा। जो माली बेल-बटों का कि जैन-नैतिकता केवल अहिंसा पर ही नहीं अपितु पालन-पोषण नहीं करेगा, उसे फल-फल कैसे प्राप्त हो इन्द्रिय-संगम एवं प्रात्म त्याग इत्यादि मानवीय चरित्र के सकेंगे-शब्द बड़े साधारण हैं। किन्तु काव्य के विद्यार्थी उदात्त मंशों पर भी पूरा-पूरा बल देती है। जो दूसरों के के लिए इनकी व्यंजनाएँ इतनी अधिक है कि उसमें प्रति पापाचरण द्वारा हानि पहुंचाने की बात सोचता है, व्यक्ति से लेकर सारे राष्ट्र के नैतिक मूल्य सन्निहित
र पारेर ति मतिहित उसका पाप उल्टा उसे ही नष्ट कर देता है॥६.१०.३॥ दिखाई देते हैं। यहाँ ग्वाला और माली राष्ट्रनायक के
कर्म निश्चित ही देवाधीन हैं किन्तु पुरुषार्थ करना, प्राणी प्रतीक है, गौ पोर बेलें सज्जन-समाज की प्रतीक हैं, द्रष का परम पुनीत कर्तव्य है। यह ठीक है कि लाभ के
और फूल समृद्धि एवं सुराज्य के प्रतीक जान पड़ते हैं। विचार से किए हुए कर्म में कभी-कभी मूल भी नष्ट हो जिस राष्ट्र या समाज में सज्जनों की अपेक्षा चार सौ जाता है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि पुरुषार्थ कर्मों वीस, तस्कर तथा जमानेसाज लोगों को बल-धन-प्रादर को त्याग दिया जाय ॥३-११-५॥ इस प्रकार के शताधिक भौर मारक्षण प्राप्त होता है वह जीवन भर पुष्ट-बलिष्ट, कथन सहज सुलभ है। दान, उपकार, क्षमा, दया तथा पल्लवित एवं पुष्पित नहीं हो सकता । यह तथ्य महाकवि महिंसादि विषयक कथनों के लिए तो यह ग्रन्थ अक्षय पुष्पदन्त के समय में भी सत्य था, सहस्राब्द पश्चात् प्राज भण्डार है। भी सत्य है और सहस्रों वर्षों पश्चात् भी सत्य रहेगा। जैसा कि प्रारम्भ में निवेदन किया जा चुका है कि
इस प्रकार के मनमाने नीति-कथन उक्त महाकाव्य अपभ्रंश के जैन कवियों ने महाकाव्यों के अतिरिक्त कथात्रय से संकलित किए जा सकते हैं किन्तु हम उस दिशा रूपक खण्ड काव्यों की भी रचनाएँ की हैं । जो महाकाव्यों