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अनेकान्त
विन्यस्ताकरण इस प्रथ की बहुत बड़ी विशेषता है। धर्म, नीति और ज्ञान के प्रति कवि के हृदय में भगाध धनुराग है
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वरि सह समुद्वारि मंदरो णमे । ण विदव्य भातिय प्रणाहवे ।।
मर्थात् चाहे समुद्र जल शुष्क हो जाये, चाहे प्रचल, मंदराचल पर्वत झुक जाये किन्तु विद्वानों (ज्ञानियों) के कथन कभी भी धन्यथा नहीं होते । कहने की आवश्यकता नहीं कि इस कथन में जितना बल है, उतना ही विश्वास है। साथ ही मे एक प्रकार की सर्वकालिकता भी है जो तब भी सत्य थी घोर प्राज भी सत्य है । ऐसे त्रिकाल सत्यों का निर्वचन अनेक स्थलों पर हुमा है। भाज की परिस्थितियों का मार्गदर्शक एक अन्य उदाहरण लीजिए—
जहि पहु दुच्चयरिउ समायर । तहि जणु सामण्णु का करइ ।।
अर्थात् जहाँ स्वामी दुश्चरिष होगा, वहाँ जन सामान्य क्या करेगे भाज भी राष्ट्रीय एवं सामाजिक स्थिति में यह कथा धौर भी विचारणीय है । यह किसी से छिपा नहीं है कि राजनैतिक सामाजिक एवं भाषिक दुर्दशा का प्रमुख कारण हमारा भ्रष्ट चरित्र ही है । भारत में प्रन्नजल - घन-घान्य किसी भी भौतिक - प्रभौतिक वस्तु की कमी नही है, कमी है तो केवल चरित्र की भोर यह भी अपने में कटु सत्य है कि चरित्र की यह गिरावट, सम्भ्रान्त घरानों, राजकुलों एवं नेता कहलाने वाले वर्ग से ही आई है । श्रतः सदियों पुराने हमारे इस जैन कवि का कथन अपने में शाश्वत है, अपने मे सिद्ध है । लोक मे भी यह कहावत प्रचलित है-यथा राजा तथा प्रजा ।
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यहाँ हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति विशेष पर कीचड़ उछालना नहीं, किन्तु सत्य, सत्य ही है । और यह कहने मे कोई भी संकोच नहीं करेगा कि हमारा नेता वर्ग नैतिक एवं चारित्रिक प्रादर्श प्रस्तुत करने में सर्वदा सफल रहा है। हाँ इस कथन में कुछ अपवाद भी है जो गेहूं के साथ घुन की भवस्था प्राप्त कर पिसते मोर लोकापवाद का कारण बनते हैं । सज्जनों घोर समझदारों के हृदय में आज भी सच्चरित्र राष्ट्र नेताओं, समाज सेवियों एवं गृह
श्रद्धा
स्वामियों के प्रति बढा है और उनका निरन्तर यश-गा होता रहता है जो दुर्जन ऐसा पुनीत चरियों का भी छिद्रान्वेषण करते हैं, वह उनके स्वभाव का दोष है भौर इसे कोई बदल नहीं सकता । 'महापुराण' के सुप्रसिद्ध जैन कवि पुष्पदंत जी ने इस तथ्य पर बड़ी मनोरमता से प्रकाश डाला है । उन्होंने ऐसे दुर्जनों को चन्द्रमा पर मौकने वाले कुत्तों की संज्ञा दी है और कहा है कि सज्जनों को अपना कार्य निरन्तर करते रहना चाहिए; क्योंकि कुसे कितने भी भौंके इससे चन्द्रमा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता भोर यही विचार कर महाकवि सज्जनों की प्रशंसा करता हुमा, 'महापुराण' लिखने में प्रवृत्त हुआ है। उसने ६३ जैन महापुरुषों की चरित्र - गाथा गाते हुए, बीच-बीच में नीति-याचार-धर्म मौर दर्शन पर सुन्दर छन्द लिखे हैं । नीति-निरूपण ही नहीं, काव्यात्मक निदर्शन के कारण भी इन कथनों का महत्व बहुत अधिक है। प्रश्न शैली का एक उदाहरण लीजिए—
खगे मेहे कि णिज्जलेण, तरुणा सरेण कि णिपफलेण । मेहे कामे कि जिवेण, मुण्णिा कुलेण कि वित्तपेण ॥ कपडे कि गीरसेन,
रज्जें भोज्जे कि पर वसेण । ( १-८-७ )
अर्थात् पानी रहित मेघ (बादल) और खड़ग ( तलवार) से क्या ? फल रहित तरु (वृक्ष) और (सर) वाण से क्या ? श्रद्रवणशील (न पिघलने वाले) बादल श्रीर यौवन से क्या ? तप हीन मुनि और कुल से क्या ? नीरस काव्य और नट से क्या ? पराधीन भोजन और राज्य से क्या ? यहाँ पानी ( जल तथा चमक ), फल ( खाने के काम पाने वाले फल तथा बाण की नोक ), प्रद्रवणशील ( न बरसने वाले तथा भाव विभोर न होने वाले ), तप कर ( कष्ट साधन और कुल-व्रत ) नीरस (शृंगार-वीरशांतादि नवरस विहीन तथा शुष्क ) परवश (पराया शासन तथा दूसरे का कब्जा ) आदि शब्दों के दो-दो अर्थ है। इन दोनों वर्षों का प्रयोग करने पर सुन्दर एवं उपयोगी सन्देश सामने भाता है। उस बादल के उमड घुमड़
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