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दुःख आर्यसत्य-एक विवेचन
धर्मचन्द्र जैन (शोध-छात्र)
चार आर्यसत्यो का सिद्धान्त बौद्ध धर्म के मूलभूत जिस प्रकार प्रार्य इनको यथार्थ रूप में देखते हैं, दूसरे सि.द्वानो में से एक है। जिनका वर्णन पालि तथा सस्कृत उनको उस प्रकार से नही देखते है, अतः ये पार्यसत्य बौद्ध ग्रन्थो में प्रचुरता से मिलता है। बौद्ध-धर्म सम्बन्धी कहे जाते है। आधुनिक भाषा के ग्रथो में भी इसकी खूब चर्चा हुद है। वसुबन्धु एक गाथा उद्धृत करने है जिसमें कहा गया
आर्यसत्योंका उपदेश भगवान बुद्धने अपने प्रथम 'धम- है कि 'जिसको प्रार्य सुख कहते है, दूसरे उन्ह दुःख जानते चक्र प्रवर्तन' में पचवर्षीय भिक्षो को ऋषिपत्तनमृगदाव में है, जिनको दूसरे सुख बतलाते है प्रार्य उसको दुःख दिया था। जिनका साक्षात्कार उन्होने सम्यक सम्बधि जानने हैप्राप्त करते समय किया था। आर्य मत्य चार है
यदार्यासुखतः प्राहुस्तत्परे दुःखती विदुः । । दु.ख आर्यसत्य', 'दुःख समुदय पार्यसत्य', 'दु.ख निरोध
यत्परेसुखत. प्रास्तदार्या दु.खतो विदुः" ।
अभिधर्मकोश के छठे को स्थान मे वसुबन्ध ने चार आर्यसत्य' पीर दुख निरोध गामिनी प्रतिपद् आर्यसत्य' ।
प्रार्य सत्यो की व्याख्या की है। वहाँ यह प्रश्न उठाया इनमें से प्रथम 'दुष' पार्यपत्य ही प्रस्तुत अनुबन्ध का
गया है कि-दुख मार्य सत्य प्रथम क्यो लिया गया? इसके विषय है।
उत्तर म बसुयाधु कहते है कि 'ग्रार्य मत्यो का क्रम जिजाम निकाय' में सार्प गब्द का अर्थ इस प्रकार
अभिसमय क - नुसार हैय! गा पारकास्यहोन्ति पापका अकुशता धम्माति
"सत्यानि उक्तानि चत्वारि दुख समुदयस्तथा । 'अरियो' होति । वसुबन्धु ने भी 'आर्य' शब्द की
निरोधी मागस्तेषां यया अभिसमयं श्रमः" ।।' व्याख्या इस प्रकार का हे -"यारात् याता. पापकेभ्यो"
प्रथा जिम मत्य का पूर्व अभिसमय' (अभिसम्बोघ) होता ऽकूशलेभ्योधर्मपः इत्यार्या' अार्य वह है जो कुशल
है अर्थात् जिम मत्य का पहले अभिममय होता है उसी का पाप धमो से दूर हो गया है.
पूर्वनिर्देन किया गया है। प्रश्न है कि 'तृष्णा जो दुःख वसुबन्धु और बुद्धघोष 'कार्यसत्य" शब्द की एक ही
का हेतु है उसका पूर्व निर्देश क्यो नही है और दुःख जो प्रकार में व्याख्या करते है यथा-'य पार्यों के मत्य है।
तृष्णा के कारण उत्पन्न होता है जो फल रूप भी है उसका प्रश्न उठता है कि क्या ये दूसरो के लिए सत्य नहीं
" सत्य नहा बाद में निर्देश क्या नहीं किया गया है । इसका उत्तर है या दूसरों के लिए भूठ है ? (किमन्येषा मृषा)।
न किम के
लि५. भिधमकाशभाष्य ६३, पृ० ३२८% अर्थविनिश्चयअविपरीत होने के कारण (विपरीतत्वात्)। किन्तु सूत्र पृ० १५८ ।
६. तुलना कीजिए १.देखिए : महावग्ग-धम्मचक्कपवत्तन-ललितविस्तरसत्र
यं परे दुःखतो शाहतार या ग्राहू दुःखतो। परि. २६, पृ० २६५-२०२ ।
य परे दुःखतो पाहू तरिया सुखतोविइ ।। २. देखिए : मज्झिमनिकाय १, ३४३ ।
-सं०नि०४, पृ० १२७ । ३. देखिए अभिवर्मकोश ३/४४ ।
७. अभिधर्म कोश ६।२।। ४. अभिधर्मकोश भाष्य ६३ पृ० ३२८; स०नि० भा० ८. अभिसमयकोऽर्थः। अघिसम्बोधइणो बोघनत्वात्
५ पृ० ४२५, ४३५; विशुद्धिमग्ग १६०२०-२२। अभि० को० भाष्य० ६।३, पृ० ३३८ ।