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२०८, २४, कि०५
भनेकान्त पञ्चउपादान, स्कघरूप, संज्ञासंस्कार, विज्ञान और 'न कि मंग-मसूरादि का। इसी प्रकार सुख के अत्यन्त वेदना, ये भी दुःख हैं। पञ्चोपादान, स्कंधहेतु तथा प्रल्प होने से उसका कोई अस्तित्व नहीं है । यह एक प्रत्यय सहित प्रनित्य दुःख और अनात्म रूप कहा गया है, निकाय का व्याख्यान 'है'। बसुबन्धु ने 'इत्येके' करके अत: दुःख रूप है।
इसका उल्लेख किया है। कभी-कभी फोड़े के खुजलाने में पालि और संस्कृत ग्रंथों में इसकी बार-बार पुनरावृत्ति भी कुछ सुख (सुखाणुकेन) का ग्राभास होता है लेकिन हुई है कि "सम्बे सङ्गारा दुःखा (सर्वेसस्काराः दुःखाः) कौन इसे सुख कहेगा, वह तो दुःख ही है । इस लिए सभी संस्कार दु:ख हैं। वसुबन्धु ने अपने अभिधर्म कोश सौत्रान्तिकों का कहना है कि 'सुख का भी दुःख हेतु है'। :भाष्य में यह प्रश्न उठाया है कि जब केवल वेदना ही वास्तव मे दुःख ही है। लेकिन उस दुःख में इच्छा होने • दुख रूप होती है तो सब संस्कार दुःख क्यों कहे गये है ? के कारण ही (तदिष्टेः) दुःख-दुःख समझ लेते है परन्तु .वसुबन्धु ने व्याख्या करते हुए कहा है कि दुःख तीन प्रकार पार्य सूख सहित सर्व संस्कार को दुख रूप देखते हैं के हैं-दुःख दु:खता, संस्कार दुःखता और विपरिणाम क्योकि सब संस्कार दु:खमय है। इसलिए दुःख ही मार्य दुःखता । इन तीन दुःखतानों मे सास्रव सस्कार आ जाते सत्य व्यवस्थापित करते हैं न कि सुख को। पूर्व पक्ष का है। जो चीज अच्छी लगती है जो 'मनाप' है वह भी विपरि. कहना है कि "मुखावेदना” को दु:खतः क्यों देखते हैं ? णाम रूप होने के कारण विपरिणाम द:खता है। जो इसका उत्तर है क्योकि वह अनित्य है और प्रतिकूल है अपनाप (प्रच्छी न लगने वाली) है वह तो दुःख दु:खता यह कैसे है कि सुखानेदना है हो नही? यह कैसे जाना ही है। इन दोनों में से भिन्न बाकी सब सस्कार दःखता जाय ? वसुबन्धु कहते है कि यह युक्ति और सूत्र से हैं । इस लिए सुख वेदना मे भी जिसको मनाप वेदना की प्रमाणित किया जा सकता है। संज्ञा दी जा सकती है, विपरिणाम स्वरूप होने के कारण सूत्र में भगवान ने कहा है कि जो कुछ वेदनीय है वह दुःख रूप है। सूत्र में कहा गया है कि सुखाबंदना वया दख है, और सुखावेदना को भी द ख से देखना चाहिए, है ? जो उत्पत्ति में सुख है, स्थिति में भी सुख है किन्तु दःख म दुख को देखना मंज्ञाविप्रयाग है।" इत्यादि सूत्र विपरिणाम में दुख है। दुखवेदना तो उत्पत्ति, स्थिति वचन है । युक्ति से बह की प्रमाणित किया जा सकता और विपरिणाम तीनों में दुःख रूप है । अदुःख सुखावेदना है ? यह जो कभी-कभी पान, भोजन, ठण्डक, गर्मी आदि संस्कार (संस्कारेण) से ही दुःख है । इस प्रकार सब की चाहना (इप्टि। हता है और इनको सुख-हेतु समझा सासव संस्कारों को ग्रार्य (विज्ञजन) यथार्थ रूप में दुखतः जाता है लेकिन यदि नानादि भोजन में सुख होता तो देखते है किन्तु विद्वान् ग पार्य श्रेष्टनम लोक (भवान) अधिक खा लेने पर या अकाल में खा लेने पर पान भोजमैं भी दुख को अनुभव करत है।
नादि दुःख के कारण नहीं होते । वास्तव मे भोजन पानादि 'अभिषमं कोश भाष्य' में दुःख के अस्तित्व पर एक की कामना भूख-प्यास प्रादि दुःख के कारण होती है । बहुत ही दिलचस्प विवाद पाया है जो विवाद सौत्रान्तिकों उस दख की निवत्ति के लिए हम भोजनपानादि करते और वैभाषिकों के सुख-दुख आस्तित्व संबन्धी भिन्न-भिन्न हैं और उसे ही सुख समझते हैं, इस प्रकार से दुःख दृष्टि कोणो को प्रस्तुत करता है । वैभाषिक कहते है कि की निवृत्ति को ही सुख समझा जाता है। इसी प्रकार 'जब सुख है तो द ख ही केवल पार्यसत्य क्यों कहा गया? ईर्यापथ (सोने, बैठने, खड़े होने प्रादि) मे जो सुख इसके उत्तर म बसुबन्ध ने एक मत उद्धत करते हुए कहा है की अनुभूति होती है वह भी दुःख-(थकावट मादि) के कि 'सूख के अल्प होने के कारण (घल्पत्वात् ) सुख नही २ मावस्याल्पत्वात् मुदगादिभावेऽपि माषराश्यप देशहै जैस-उडद की दाल के ढेर में यदि मूंग, मगर ग्रादि क.
वदिस्य के ।"---अभि० को 'भा०६।३, पृ. ३२६ । कुछ कण हों तो हम उसे उड़द की दाल का ढेर ही कहेगे।
। ३. सह सुखेन सर्वम् भवमार्या दुःखतः पश्यन्ति संस्कार १. संयुक्तनिकाय २१११, ३४१३
दुःखतैक रसस्वात्। --वही० पु० ३३० ।