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दुःख पार्यसत्य-एक विवेचन
२०६ कारण होती है। मौत्रान्तिक कहते हैं कि वास्तव मे दुःख इसके बाद वैभाषिक सत्र से उत्पन्न सुख के अस्तित्व के प्रतिकार में या दःख के विकल्प के रूप में सूख की के सम्बन्ध मे उठाई गई मापत्तियों का समाधान करते अनुभूति होती है । तब तक दख की अनुभति नही होती हैं। यह जो भगवान ने कहा है कि जो कुछ वेदनीय है जब तक मनुष्य किसी दु:ख विशेष मे यथा-भव प्याम, वह द ख है'। इस पर उनका (वैभाषिकों का) कहना है सर्दी, गर्मी, थकावट, काम, रागादि से उपद्रुत नही होता। कि यह सत्र' नीतार्य है, क्योकि एक अोर मन में कहा इस प्रकार दु.ख के प्रतिकार में ही सुख बुद्धि होती है, न गया है कि 'संस्कार अनित्य को लेकर हो कहा गया है कि सुख में। अथवा दुख के विकल्पमान में अज्ञजन क्योंकि जो कुछ वेदनीय है वह दुःख है। यह केवल दुःख (बाल) सुखानुभव करता है यथा-भार को एक कन्धे से के संदर्भ में ही नहीं कहा गया है। दूसरे कन्धे पर रखने मे सुख प्रतीत होता है । अतः
वैभाषिक प्रागे पूछते हैं कि स्वलक्षणत: (स्वभावत:) मौत्रान्तिकों के अनुसार यथार्थता सूख रूपी कोई द्रव्य
समस्त वेदनीय धर्म दुःख यदि होते, तो तीन वेदनामोंनहीं है, किन्तु अभिधार्मिकों (वैभाषिकों) का सौत्रान्तिकों
सुखा, दुःखा, असुखा-दुखा-सूत्र में प्रतिपादित कैसे होती। से सुख के अस्तित्व पर बहुत बडा मतभेद है । बसुबन्धु
इसलिए स्वभावतः तीनों वेदनापों का अस्तित्व है। ने 'प्रभिधर्म कोश भाष्य' के छठे कोश स्थान में जहाँ
वैभाषिक प्रागे कहते है कि 'यह जो प्रतिपक्ष (सौत्राउन्होंने चार आर्य सत्यों की व्याख्या की है इसका विशद
न्तिकों) का कहना है कि सूत्र में कहा है कि-सुखावेदना वर्णन दिया है। वैभाषिकों का कहना है कि "सुख नाम
को दुःखतः देखना चाहिए, इसका क्या अर्थ है । वैभाषिक का द्रव्य है। वैभाषिक सूस की सत्ता को इंकार करने
उत्तर देता है कि सूत्र में दोनों वेदनायें-सुख और दुःख वाले (सूखापवादी) सौत्रान्तिकों से पूछते है कि दुःख क्या
अभिप्रेत हैं। अच्छे लगने के कारण (मनापत्वात् ) है ? (किमिदं दुःखम) यदि वह बाघनात्मक है तो किस
स्वभावतः सुखत्व है और विपरिणामत्व तथा अनित्यत्व के प्रकार से है, यह बतलाइये ? यदि आप दुःख को
कारण वही वेदना दुःख है। अर्थात् दुःखत्व की प्रतीति उपपातक समझते हैं तो इसमे अनुग्राहक सुख की सिद्धि
कराती है। प्रास्वाद के कारण सुख दृष्टि से जब मनुष्य प्रमाणित होती है । यदि दुःख अनभिप्रेत है तो अभिप्रेत
देखता है तो वह बन्धन मे आता है किन्तु वैराग्य के सूख की सिद्धि होती है। जो वेदना अपने लक्षण
कारण जब दुःख दृष्टि से देखता है तो वह मुक्त होता है। (सुख त्व)से अभिप्रेत है उसी से अनभिप्रेत नहीं हो सकती।
जिस दृष्टि से देखने के लिए मोक्ष की प्राप्ति हो उस वह अनभिप्रेत तभी होती है जग पार्य (विज्ञजन) उसको
दृष्टि से देखने के लिए ही बद्धों का उपदेश होता है। प्रयत्न साध्य, प्रमाद युक्त, विपरिणामिनी अनित्य समझते ।
इसलिए ही कहा गया है कि 'सुखावेदना को दुःख जानना है। इस दृष्टि से वह अवश्य अनभिप्रेत है किन्तु स्वलक्षण चाहिए।' प्रतः स्वभावतः सुखावेदना का अस्तित्व है। से सूख-वेदना अनभिप्रेत नहीं है । यदि वह स्वलक्षण से बंभाषिक एक गाथा को उद्धृत करते हैंअनभिप्रेत होती तो किसी को भी सुख में राग नहीं होता, संस्कारानित्यताज्ञात्वा प्रयो विपरिणामता । प्रकारान्तर से वह उसे दोष-युक्त देखता तथा उससे विरक्ति वेदना दुखतः प्रोक्ता सुबोन प्रजानता' इति ।' (वैराग्य) पाने का अभिलाषी होता। अतः वैभाषिक
३. यत्किञ्चिद्वेदितमिदमत्रदुःखस्येति ।" वही पृ० ३३१ कहते हैं कि "सुख (सुखावेदना) स्वलक्षणतः है।"
४. संस्कारानित्यमानन्दमयासंघाय भाषितं संस्कारविप१. तस्मिन्नस्त्येव सुखमिति-सौत्रान्तिकाः ।
रिणामतां च यत् किञ्चिद्वेतमिदमत्रदुःखस्येति । वही. -अस्तिएव अभिमिका:-वही०। ५. तुलना कीजिए-तिस्सो वेदना-सुखा वेदना, २. उपघातक चेत् । अनुग्राहक सुख मिति सिद्धम् । मनभि- दुक्खावेदना, अदुक्खासुखा वेदना।" प्रेतं चेत् । अनभिप्रेत सुखमिति सिद्धम् ।
-दीर्घनिका संगीति पर्याय सूत्र, पृ० १७१ वही० ५० ३३१ । ६. दे० अंगुत्तरनिकाय ४ पृ० २१६ ।