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२१० वर्ष २४, कि०५
भनेकान्त
(संस्कारों की प्रनित्यता पौर विपरिणाम को जानकर करता है उनके दुःखों को सहने में उन्हे अद्भुत प्रसन्नता ही बुद्ध ने वेदना को दुःखतः बतलाया है।)
होती है। वास्तव में देखा जाय तो महायान में दुःख का यदि सुखावेदना केवल दःख रूप होती तो संस्कार स्थान करुणा ने ले लिया है भोर महायान ग्रन्थो का करुणा पनित्यता पौर विपरिणामता का उल्लेख न होता।
जलेवन रोता
ही मूल माघार है। हरदयाल ने बोधिसत्व डाक दिन में वंभाषिक एक और सत्र वचन से उत्पन्न प्रापति का चन्द्रगोविन्द के शिष्य लेख नामक ग्रथ से एक उक्ति को समाधान करते हैं कि 'सूत्र में कहा गया है-'दुःख मे सुख
(श्लो. १४) उद्धृत किया है जिसमे उन्होने कहा है कि की प्रतीति संशाविप्रयास है।' वे(वैभाषिक) इसका उत्तर देते 'दूसरों के लिए दुःख सहन करना ही सुख है। इसी हुए कहते कि यह 'भाभिप्रायिक उपदेश है। लोगों की प्रकार के विचार 'प्रवदान कल्पलता' और 'महायान काम गुण पौर मव (दूसरे जम्मादि) मादि मे सुख संज्ञा सूत्रालंकार' में भी पाते है । 'शिक्षा समुच्चय' में इतना होती है उस संशा को एकान्त सख समझना ही संज्ञा तक कहा गया है कि 'बोधिसत्व सब सत्वो के दःखों का विप्रयास है। कारण की सुखावेदना अन्ततोगत्वा विपरि
वापर भार अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार है।' वह भीषण जामखील पोर पनित्य है पत: उसे नित्य सख समझना अपायों के दारुण दुःखों को भी सहन करता है ताकि सत्व गलत है। पतः सुख की प्रभाव सिद्घि प्रमाणित नही मुक्ति प्राप्त करें, कितनी उदारता से वह कहते हैहोती। इस प्रकार वैभाषिक भोर कई सूत्रों तथा युक्तियों "वरम् खलु पुनरहमेको दु:खित: स्याम न चे मे सर्वसे सुख की द्रव्य-सत्ता सिद्ध करता है। वैभाषिक सुख सत्वा अपाय भूमि प्रपतिताः।" इस प्रकार दुःख की कोदव्य-सत्ता मानते हुए भी यह स्वीकार करने में हिच. कल्पना को महायान में एक नया मोड़ दिया गया है। किचाहट नहीं करते हैं कि अन्ततोगत्वा सख प्रनित्य है दुःख से मुक्ति पाने की इच्छा नही अपितु दुःख सहन करने विपरिणाम शील है और दुःख में परिणत होता है। में ही सुख की अनुभूति महायान मे बोधिसत्व के भादर्श वास्तव में विदुःलता' (दु:ख-दुःखता, संस्कार-दुःखता मौर में परिलक्षित होती है। विपरिणाम दु:खता के कारण ही सब सानव दुःख हैं । इस
इस प्रकार हम देखते हैं कि महायान मे दुःख को प्रकार 'पभिधर्म कोश भाष्य' में दु:ख सत्य का गम्भीर
हेय दृष्टि से नही देखा गया है या उससे मुक्ति पाने विवेचन किया गया है। अब महायान मे दुःख के विवेचन के लिए बोधिसत्व प्रयत्न शील नही दिखाई देता है। को देखें-महायान में दुःख को कुछ मोर ही दृष्टि से वहां तो सब सत्यों के प्रति करुणा के कारण बोधिसत्व रेखा गया है, बोधिसत्व दूसरों के दुःखों का परिवहन
दुःखों को सहन करने के लिए अग्रसर है। १. पमि० को० भा०, पृ. ३३३ । १. मिलाइये-दुक्कादुक्खतासलारवृक्खता, विपरिणाम- १. वाखये-बोधिसत्व डाक्टिन, पृ०१६० ।
दुक्खता।" -दी. नि. संगीतिपर्याय सूत्र पृ. १७१ २. देखिये-शिक्षा समुच्चय, १६।३० पृ० १४१८
"सज्जन मोर दुर्जन अपने ही सुगुण, दुर्गुणों के कारण होता है , सर्प के दांत में विष होता है। विच्छू के डंक में मौर ततइया के डंक में, और मक्खी के मुख में विष होता है। किन्तु दुर्जन के सर्व शरीर में विष रहता है। विषैले जन्तु पीड़ित होने पर ही अपने अस्त्र का उपयोग करते हैं, किन्तु दुर्जन बिना किसी कारण के ही उसका प्रहार करते हैं।"