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________________ ४६, वर्ष २४, कि०१ अनेकान्त हुई कहती है कि हे पुत्र, तेरे बिना मुझे सर्वत्र अधकार मुनिराज ने चक्रवर्ती से कहा कि तुम विषाद मत करो, दिखाई देता है । हे कुलचन्द ! तेरे बिना मेरा मन नही वह वश स्थान, क्षेत्र और माता पितादि धन्य है जहाँ लगता, तूने मेरा मन-मन्दिर सूना कर दिया । नगर के इस जीव ने प्रात्मकल्याण के लिए प्रयत्न किया है, वे लोगों ने दोनों को समझाने का यत्न किया, और कहा चक्षु धन्य है जिन्होंने कुरूप नहीं देखा किन्तु केवल कि यह सम्बन्ध इस प्रकार से होना था, आप क्यों व्यर्थ स्वरूप की पोर ही दृष्टि दी है। वे हाथ धन्य है जिनसे मोह कर दुखी हो रहे हैं। आपके पुत्र ने बड़ा सुन्दर जिन पूजा सौर सत्पात्रों को दान दिया है। हरिवाहन ने उपाय किया है। हे नाथ ! पाप छह खण्ड पृथ्वी के जिन निर्दिष्ट तप का प्राचरण किया, इसमें विषाद का पालक हैं अतः अपने मन में विषाद न कीजिए । इस तरह कोई कारण नहीं है । ससार के समस्त पदार्थ प्रनित्य हैलोगों के समझाने पर भी चक्रवर्ती के मन में सन्तोष नहीं देखते-देखते विनष्ट होने वाले है, रूप लावण्यादि क्षणभंगुर होता था और बार-बार मोहवश वत्स पुकारता था। हैं, इन्द्र विद्याधरादि की पर्याये भी क्षण मे नाश होने वाली राजा रानी ने खान पान भोग और शृंगार आदि का है। इस जीव का कोई शरण नही है मरते हुए जीव को त्याग कर दिया, केवल एक पुत्र से ही अनुराग रहा। कोई बचाने वाला नही है मणि मत्र-तत्र औषधि प्रादि इतने में ही उन्हें महा तपस्वी मति सागर नामक साधु भी रक्षा नही कर सकती। जिन प्रतिपादित धर्म ही इस का समाचार मिला, और वे उनकी शरण में गए। उन्हे जीव का शरण है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप ही धर्म देखकर मनि ने धर्मवृद्धिरूप पाशीर्वाद दिया। तब चक्र है वही ससार बन्धन का नाश कर मोक्ष पा सकता है । वर्ती ने कहा कि मेरे धर्म वृद्धि क्या होगी? महाराज ! यह अकेला ही जीव सुख तथा दुःख भोगता है । इस तरह *पत्र वियोग के शोक से संतप्त हूँ। मेरे पुत्र हरिवाहन गुरु उपदेश से चक्रवर्ती का शोक दूर हो गया और उसकी ने कैलाश पर्वत पर जाकर तप धारण कर लिया है। प्रात्मा में निर्मल धर्म का प्रकाश हा । मिथ्या मोह 1. एतहि सीलवंतु गुण सहिउ, धुल गया और अन्तर्मानस पावन हो गया चक्रवर्ती चद्रसल्ल कसाय-दोस णिरु रहिउ । कुंवर को राज्य देकर साधु हो गया और तपश्चरण द्वारा दसण-णाण - चरण सम जुत्तु, प्रात्म-शोधन करने लगा। मइसागर णामे मुणि पत्तु ॥ बहु तप-तेय तयउ जिम तरणि, हरिवाहन ने घोर तपश्चरण द्वारा प्रात्मशक्ति से जो अग्नि प्रज्वलित की, उससे धाति कर्म का क्षय हो गया दिछु णेरस सार घम्म घरणि । तिण्णि पयाहि य देपिणु जाइ, और विशुद्ध केवल ज्ञान प्राप्त किया, पश्चात् अधाति कर्म पूणि लागउ मुणिवर के पाइ ।। ६६६ का विनाश कर अविनाशी अनुपम सिद्ध पद प्राप्त किया। मुणिवर घम्म विद्धि हो सवण, चक्रवर्ती भी प्रात्म-साधना द्वारा सर्वार्थ सिद्धि का ताम पयंपइ पहु मिहि धनी। अहमिन्द्र बना। इस तरह चक्रवर्ती हरिषेण का चरित्र मुहि किम धम्म विद्धि हो सवण, बड़ा पावन है । ग्रन्थ की भाषा हिन्दी होते हुए भी उसमे अपभ्रश और देशी शब्दों की भरमार है, उससे हिन्दी के पुत्त वियोग दिठ्ठ मइ णयण ॥ ६६७ विकास क्रम के जानने में सहायता मिल सकती है । हरिवाहणु जु पुत्तु मण हरण, तिहि कइलास लय उ तव यरणु । ता णिसुणि वि जंपइ मुनि राउ, चक्कवट्टि मा करहि विसाउ ।। ६६८-हरिषेण चरित १. देखो हरिषेण चरित
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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