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हिन्दी के कुछ प्रज्ञात जैन कवि और उनकी रचनाएं
अपने चित जिनि कर सन्देह,
जिनि मारगु उत्तम हइ एकु । हउँ त लेउ मापने काज,
इमि कहत तुही नाही लाज ॥१२३ चिरकाल वयण मइ बुत्तु,
हास-कोडि इह कोह संजनु । त म प्रज्ज खमह णिरु सब्बु,
चढ़ि विमाण जाहि घर बप्पु ॥६३४ इह संबोह मति पाठयउ,
प्रापुणु दिक्व लइ बि संठियउ । हार टोर अंवर सुविशेष,
उसारिय प्राभरण निश्शेष ॥६३५ प्रोंकार मंत्त उच्चरिउ,
पंच मूठ लोच वि सिर करिउ । होइ निग्गंथ सल्लतय होण,
परमप्पह कियउ मण लीण ॥६३६ दुद्धर महा उग्गतउ चरिउ,
एतहिं मति णयर सचरिउ । बहु संवेहु चित्त सासउ परिउ,
विलख बदन रावल संचरिउ ॥६३७ तहडी दीठि सभामहि जाइ,
खूट एक बइठउ दुचिताइ । चक्क वट्टि अवलोवइ जाय,
हरिवाहणु णवि पेखद ताम ॥६३८
नाम णरेसर दिनु कर चित्त,
पुच्छह मति कहइ जं चित्तु ।। ६४२ तब मंती सयलुवि प्रक्खियउ,
एकु व गुज्न ण तह रक्खियउ । जिम कहलास सिहरि सपत्त,
तिम संसारह - भयउ • विरत्तु ।। ६४३ पुण अति गाहु अप्पु ज कियउ,
जिम तहि दिक्ख लेवि संठियउ । जिम खमितब्बु कहिय घर जाइ,
तं सव तिहि कहिय निकुताइ ॥ ६४४ मंती वयण सुणि विणिरु जाम,
मच्छिउ राउ धरणि पडियउ ताम। सभा मांहि हा हाकार जु भयउ,
तबहि अंतेवरु मण विभियउ॥ ६४५ कि बि सुयगु पुछियउ बुलाइ,
तिहि पणिउ कि प्रक्खउ माइ। णिविण्ण दइय कियउ जु अणिछु,
हरिवाहण तउ लयउ गरिछु ।। ६४६ सुणिवि गरेसर सोयह भरिउ,
मच्छिमाइ धरणीयल पडिउ । इय णिसुणि वि जयचंदा माइ
पडिय धरणि सत्ति कुम्हिलाइ ॥ ६४७ जणु कमलिणि तुसारइ हई,
___ खण इक माहि विकल हुइ गई। ताम बयंसी प्राकउ भरइ,
जलसिंचई किवि वाउस करइ ।। ६४० इयर अंतेवर पंहुती प्राइ,
___ जयचन्दा कह लेह बचाई। करुण - पलाउ करती तहां,
चक्कट्टि हइ मच्छिउ जहाँ ॥ ६४६ हा। पिय कि कियउ प्रजुत्त,
जइ वि तवोहण संठित पुत्त । काहे राज भंगु तुम कियउ,
पुत्त वियोग जीउ कि दियउ॥६५० चक्रवर्ती हरिषेण और रानी जयचन्दा ने पुत्र-वियोग से दुखी हो अत्यन्त विलाप किया। वह विलाप करती
नाहि तर केम सभी विणु रहइ,
जिहि विण सयल सभाणवि सहइ । मह णिसु चित्तु विलंबिउ जहा,
सो हरिबाहण रहियउ कहा ।। ६४० सब बकवइ मति पुंछियउ,
तुहि संग हरिवाहण थियउ । बिलख बयण मंतो तव होइ,
णिय कर मलइ वत्थु मुंह बेइ॥६४१ मंसु पवाह-णयण परिचवइ,
गह भरि पायउ किपि लवहा