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४४, वर्ष २४, कि०१
अनेकान्त
ग्रन्थ में ७१२ पद्य दिए हए हैं। ग्रन्थ की प्रति केवल शक्ति को जागृत किया जा सकता है जिससे भव-वन्धन एक जीर्ण-शीर्ण गुच्छक में उपलब्ध होती है। प्रति अशुद्ध की कड़ियाँ सहज ही टूट पड़ें। संसार के दुःखों से छूटने है, जान पड़ता है लेखक प्रति की लिपि से अधिक परि. के लिए प्रात्म-शोधन करना नितान्त आवश्यक है। चित नही था । अतः अन्य प्रतियो के अन्वेषण की जरूरत उसके लिए जिन मारग ही उकृष्ट है, पंच परमेष्ठी ही है । संभव है अन्य किसी ज्ञान भडार मे उसकी उपलब्धि मेरी शरण है । अतः दीक्षा अवश्य ग्रहण करूंगा। ऐसा हो जाय । ग्रन्थ प्रकाशन के योग्य है।
विचार कर हरिवाहन ने मन्त्री को बुलाकर कहा कि ____चक्रवर्ती हरिषेण का जीवन बड़ा पावन और धार्मिक हे मन्त्री, तुम चक्रवर्ती से जाकर यह निवेदन करो कि रहा है। क्षत्रिय होते हुए भी दीन-दुखीजनो की रक्षा हरिवाहन ने कर्मगन्धन से छूटने के लिए तप ग्रहण कर द्वारा उसे सार्थक किया है । वे अपनी माता के आज्ञाकारी लिया है। प्रतएव मुझसे जो कुछ अनुचित कहा गया हो सुपुत्र थे । उन्होने अपनी माता की धार्मिक भावना को सो तुम क्षमा करो और स्वयं दीक्षा ले प्रात्म-साधना पूरा किया था। माता जन रथ निकालना चाहती थी, में निरत हो गया । शल्यत्रय से हीन हो गया। परन्तु वह अपनी सौत के कट एव द्वेषपूर्ण व्यवहार के मन्त्री ने बहुत अनुनय विनय की, किन्तु हरिवाहन कारण उसमे सफल न हो सको। सौत का प्राग्रह था कि ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि अब मैं यहाँ से वापस पहले मेरा रथ निकलेगा । इस विवाद मे कितना ही समय नहीं जाऊँगा और मन्त्री को चक्रवर्ती के पास भेज दिया। व्यतीत हो गया। इससे हरिषेण की माता को बड़ा कष्ट मन्त्री ने डरते-डरते सब समाचार चक्रवर्ती से निवेदन हमा, परन्तु वह अपनी धार्मिक भावना मे दृढ रही। किया जिसे सुनकर चक्रवर्ती पुत्रमोहवश अत्यन्त शोक को हरिषेण ने दिग्विजय कर चक्रती पद प्राप्त किया, प्रजा प्राप्त हुआ, जो कवि के शब्दों मे निम्न प्रकार है:का पुत्रवत् पालन किया और अपनी माता की धार्मिक एतहि जहि चकवइ कुमार, भावना को पल्लवित पुष्पित किया। अनेक जैन मन्दिरों
हरिवाहण बहु गुण सार । का निर्माण कराया और उनके प्रतिष्ठा महोत्सव भी गहि संवेउ चबइ तहि वयण, किए।
णिसुणि बप्प वर मंतिय रयणु ॥६१८ चक्रवर्ती पुत्र हरिवाहन एक दिन कैलाश पर्वत पर
हडं संसार सरणि भय भीऊ, गया, और वहां उसने भरत चक्रवर्ती द्वारा बनवाए हुए
दुख प्रणंतु सहियउ इहि जीऊ । मन्दिरों में स्थित जैन प्रतिमानो के दर्शन किए और
चउ गइ फिरत भयउ खिद खिण्ण, कैलाश के चारो पोर खुदी हुई गहरी खाई देखी तथा
किवि समत्य कवि जाय उविष्णु ॥६१६ भगीरथ द्वारा गंगा के लाने का वृतान्त भी सुना। और
इष्ट वियोग-सोय-दुह भरिउ, घरणेन्द्र के कोप से सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों के
प्रणिष्ट जोग बेयण प्रण सरिउ । मुछित हो जाने का समाचार भी सुना। उन्हीं सगर
कवहिक दुख नय प्रसराल, चक्रवर्ती के पुत्रों ने कैलाश की रक्षा के लिए खाई खोदी
छिदणाइ बह पंच पयार ॥६२. थी। इन सब कथानकों से हरिवाहन को संसार की इस परिवर्तनशीलता, अनित्यता और प्रशरणता का परिज्ञान हा। उसने सांसारिक देह-भोगो से विरक्त हो दीक्षा तो जिण उत्तु करउ तव रयण, लेने का विचार किया और निश्चय किया कि भव-बन्धन
मण गिरोष इविय बस करण ।
हउ के दुःखों से छूटने का एकमात्र कारण जिन दीक्षा है।
ससंक जम्मण-जण-मरण, मुनि जीवन द्वारा कठोर प्रात्म-साधना से कर्म क्षय हो
अब महि पंच परम गुरु सरणु ॥६२३ सकता है। तपश्चरण और इन्द्रिय निरोध द्वारा प्रात्म