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परमानन्द जैन शास्त्री
हिन्दी के कुछ अज्ञात जैन कवि और उनकी अप्रकाशित रचनाएँ
भारतीय जैन साहित्य मे हिन्दी भाषा के जैन कवियो का पूरा इतिवृत्त अभीतक प्रकाश मे नही आ पाया है। और न उनकी कोई शताब्दीवार सूची ही बन सकी है। अनेक कवियों की रचनाओ का पता भी नही चल रहा है । जो कुछ थोड़े से जैन कवि और उनकी कृतिया का परिचय प्रकाशित हो सका है उनसे कुछ नवीन तथ्य प्रकाश मे आए है । फिर भी जैन इतिहास की कडी श्रपूर्ण ही रह गई है । जैन ग्रन्थागारों में अनेक कवियो की रचनाएँ भनेक गुच्छकों (गुटको ) मे उपलब्ध होती हैं जिनसे ज्ञात होता है कि भारतीय जैन कवियो की सख्या पाँच सौ से भी अधिक होगी। इस लेख द्वारा हिन्दी के कुछ प्रकाशित जैन कवियो और उनकी कृतियो का परिचय कराया जाता है। सबसे पहले कविवर शकर और उनकी एकमात्र कृति का परिचय कराया जाता है:
कवि शकर मूलसंघ सरस्वती गच्छ और बलात्कार गण का विद्वान था । कवि ने अपने समसामयिक होने वाले दो भट्टारकों का उल्लेख किया है । भ० प्रभाचन्द्र श्रर रत्नकीर्ति का । संवत् १५२६, १५२७ और सवत् १५३० की लिपि प्रशस्तियों मे भट्टारक प्रभाचन्द्र और उनकी कीर्ति का उल्लेख मिलता है। ये दोनों ही भट्टारक जिनचन्द्र की प्राम्नाय के विद्वान् थे । कवि शंकर का वश गोला पूर्व और पिता का नाम पण्डित भीमदेव था ।
१. जैन समाज की चौरामी उपजातियो मे से गोला पूर्व भी एक उपजाति है, जिसका निकास गोल्लागढ ( गोलाकोट) से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा मे रहने वाले गोला पूर्व कहे जाते हैं और उसके समीपवर्ती इलाके मे रहने वाले गोलालारे तथा सामूहिक रूप में रहने वाले गोलसिंघारे कहे जाते हैं। इन तीनों जातियों के निकास का कारण होने से इस स्थान की महत्ता स्पष्ट ही है ।
कवि शकर की एकमात्र कृति 'हरिषेण चरित' है जिसमें कत्रिने २०वे तीर्थङ्कर मुनिसुव्रतनाथ के समय होने वाले दशवे चक्रवर्ती हरिषेण की जीवन गाथा को अंकित किया गया है । कवि ने इस ग्रन्थ को संवत् १५२६ में बनाकर समाप्त किया था जैसा कि ग्रथ के अन्तिम पद्यों से प्रकट है:
"गोलापुव्व वंश सुपवित्त,
भीमदेव पंडित कउ पुत्त । सकर कथा पुरद्द यह कही,
दिक्खा कारण कोसउ चौपही ।
संवत् पन्द्रह सइ हो गए,
afरिस छबीस अधिक तह भए ।
भादव सुदि परिवा ससिवार,
दिक्खा पर तह प्रक्खियउ सारु ।
अब यह कब्द सपूरण भयउ,
गोलापूर्वी का
सिरि हरिसेणु संघ कहु जयउ || अधिकतर निवास बुन्देलखण्ड में पाया जाता है । इनका निकास कब हुआ ? यह निश्चित नही है । हाँ, इसके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां सं० १९६६ स अबतक की पाई जाती है । अनेक मन्दिर प्रतिष्ठा महोत्सव और गजरथों का सचालन किया है । ये प्राचीन मूर्तियाँ मध्यभारत के प्राचीन स्थानों - महोबा, छतरपुर, पपरा, प्रहार, नावई और बुहीबन्द प्रादि स्थानो मे पाई जाती है । १६त्रों १७वी शताब्दी की रचनाएं भी उपलब्ध होती है, सचित्र विज्ञप्ति पत्र और भक्तामर स्तोत्र का हिन्दी-संस्कृत मे अनुवाद करने तथा उसकी सचित्र प्रति लिखाने का श्रेय भी उन्हे प्राप्त है। वर्तमान मे इस जाति मे अनेक प्रतिष्ठित विद्वान और श्रीमान् पाये जाते है । यदि अन्वेषण किया जाय तो इस उपजाति के अनेक ऐतिहासिक उल्लेख और तथ्य प्राप्त हो सकते हैं, जिनपर से उसके इतिहास पर अच्छा प्रकाश पड़ सकता है।