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________________ मूक- साहित्य सेवी श्री पन्नालाल जी अग्रवाल श्री माईदयाल जैन, बी. ए. श्रानर्स बी. टी. साहित्य सेवा या सरस्वतीदेवी की पूजा के अनेक ढग और विभिन्न तरीके हैं। पुस्तक लेखन, प्रकाशन, पत्रपत्रिकाका सम्पादन तथा प्रकाशन और पुस्तकालय तथा संग्रहालय खोलना तो सर्वविदित है । साहित्यकारों तथा कवियों को राजाश्रय, पुरुस्कार तथा सहायता देना भी साहित्य सेवा है । साहित्यकारों के लिए सुविधाओं का प्रबन्ध करना और उसको साहित्यिक सामग्री भेंट करने से भी साहित्यकारों को बड़ी प्रासानी हो जाती है । साहित्यिक संस्थाओं के संचालन के लिए द्रव्य देना भी मावश्यक है । साहित्यकार समस्त संसार में प्रायः आर्थिक संकटों से घिरे रहते हैं, इसलिए उनके जीवन काल में उनकी अार्थिक कठिनाइयों से बचाने की बड़ी आवश्यकता है और यह काम साहित्यकारों के देहान्त के पश्चात् आदर सम्मान करने से कहीं अधिक जरूरी है । बड़े नामी साहित्यकारों के साथ-साथ छोटे या कम ख्याति प्राप्त स्थानीय लेखकों तथा कवियों को प्रोत्साहन देना और उनकी सहायता करना भी साहित्यिक परम्परा को जारी रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है. क्योकि जिस प्रकार सेना में सेनापतियों के अतिरिक्त सिपाही और दूसरे बीच के कप्तान इत्यादि होते है, इसी प्रकार देश की साहित्यिक सेवा केवल चन्द बड़े-बड़े साहित्यकार ही नहीं करते, वरन छोटे-छोटे सह- साहित्यकार तथा मध्यम श्रेणी के सैकड़ों कवि और लेखक भी सेवा करते है, जिनकी श्रावश्यकताएं भी बड़े-बड़े साहित्यकारों के समान हैं । यदि उनकी समुचित देखभाल न की जाय या उनको प्रोत्साहन न दिया जाय तो साहित्यकारों की परम्परा को हानि पहुँच सकती है । अच्छी-अच्छी पुस्तकों की बीसतीस प्रतियां मंगाकर पुस्तकालयों तथा विद्वानों को भेंट करने से भी साहित्य का प्रचार होता है और प्रकाशकों तथा लेखकों को लाभ होता है । बम्बई में स्वर्गीय प्रसिद्ध दानवीर सेठ माणिकचन्द्र जी अच्छे जैन ग्रन्थों को चार सो प्रतियाँ तक मंगाकर मन्दिरों तथा विद्वानों इत्यादि को भेंट कर दिया करते थे। इनके अतिरिक्त साहित्यसेवा के और भी ढंग हो सकते है । पर हमारे देश के साहित्योद्धार का एक और श्रावश्यक मार्ग भी है । यहाँ बहुत-सा प्राचीन संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश और हिन्दी साहित्य अभी हस्तलिखित है और शास्त्र भण्डारों में बन्द पड़ा है। ऐसे जैन शास्त्र भण्डार तो सैकड़ों की संख्या में है । हस्तलिखित होने के कारण एक ही ग्रंथ की कई प्रतियों में पाठ भेद भी है श्रौर लेखक की प्रशुद्धियाँ, लोप तथा प्रक्षेपन भी है । इसलिए किसी प्राचीन ग्रंथ को प्रकाशित करने से पहले यह आवश्यक है कि दस-पाँच स्थानों से उस ग्रंथ की अनेक प्रतियां इकट्ठी करके तुलना की जाय और शुद्ध पाठ की प्रेस कापी तैयार की जाय । शास्त्र भण्डारों का प्रबंध अच्छा न होने से सम्पादकों को अनेक प्रतियों का मिलना कठिन है । इसलिए भारत के प्राचीन साहित्य के उद्धार के लिए यह आवश्यक है, कि जहाँ-जहाँ अच्छे पुराने शास्त्र भण्डार है, वहाँ ऐसे उत्साही साहित्य-प्रेमी हों जो अपने यहाँ के प्राचीन ग्रंथों को प्रकाशन संस्थानो या योग्य संस्थाओं को आवश्यकतानुसार सुविधापूर्वक पहुँचा सकें, जिससे प्राचीन ग्रन्थ शुद्ध पाठ तथा अनुवाद के साथ प्रकाशित हो सके वरना अशुद्ध पाठ होने से व्यर्थ का अनर्थ होगा और लाभ की अपेक्षा हानि ही अधिक होगी । इस लेख के द्वारा ऐसे ही एक साहित्य सेवी का परिar साहित्य जगत को कराया जा रहा है, जो ३०-३५ वर्ष से इस ढंग से सरस्वती की आराधना या साहित्यसेवा कर रहे है। बहुत प्राचीन ग्रंथों के उद्धार, अनुवाद और नवीन साहित्य की तैयारी में इन्होंने इस रूप से सहयोग दिया है। इसका कुछ व्यौरा आगे दिया जायगा ।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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