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________________ राजगिर या राजव्ह st केरल नरेश को युद्ध मे विजित करके मगधराज की श्री कि "प्राचीन राजगिरि उक्त पांचों पर्वतों के मध्य में बसा वृद्धि की, उसी जम्ब कुमार ने एक ही रात्रि मे विवाहित हमा था।" इन पर्वतों के मध्य की घाटी में एक स्तूप के स्त्रियों को विजित कर महावीर सघ में जिन दीक्षा ग्रहण खडभाग मिलते है। अब वह इंटों का टीला मात्र है। कर तपश्चरण द्वारा कर्मशृखला को तोडकर केवलज्ञान लगभग २० फुट ऊचा होगा । उसके ऊपर एक छोटा-सा प्राप्त किया और जनता को धर्म मार्ग बतलाकर इसी जैन मन्दिर है, जो सन् १७८० का बना हुआ था, इसे विपुलगिरि से प्रात्म-सिद्धि को भी प्राप्त किया था। और 'मनियार मठ' कहते है : इसी मनियार मठ के पास एक भी भनेक महत्वपूर्ण कार्य इस पर्वत पर होते रहे है। पुराने कुएं को साफ करते समय तीन मूर्तियां प्राप्त हुई इससे इस पर्वत की पवित्रता और महत्ता का मूल्याकन थी। उनमे एक मूति मायादेवी की थी और दूसरी सप्तहो जाता है। इसे लोग पहला पर्वत मानते है। फण मडित दिगम्बर मति पार्श्वनाथ की प्राप्त हुई थी। बलाहक (छिन्न या स्वर्णगिरि)-यह पर्वत इन्द्र यहाँ जैनियों की दो गुफाएं हैं। एक सप्तपर्णी की पौर चनष के प्राकार का है और तीनों दिशामा को घर हुए जैन मन्दिर के नीचे है। दूसरी सोनभद्र गुफा । यह गुफा वैभारगिरि के उत्तर तरफ है। इस पर दो मन्दिर हैं। एक मन्दिर फीरोजपुर सोमभद्र गुफा पहली है । इस गुफा के भीतर जाने के निवासी लाला तुलसीराम ने बनवाया है । इस नये मंदिर द्वार के दाहिनी ओर एक शिलालेख दो पंक्तियों में मे शान्तिनाथ की श्यामवर्ण प्रतिमा विराजमान है, और तीसरी-चौथी शताब्दी का है। नेमिनाथ तथा प्रादिनाथ के चरण चिन्ह है। यहाँ एक निर्वाण लाभाय तपस्वियोग्ये शुभ गृहेऽहत्प्रतिमा प्रतिष्ठ। खड्गासन प्राचीन मूति भी है। पुराने मन्दिर में भगवान प्राचार्यरत्न मनि वैरदेवः विमक्तिए कारय दीर्घतेजः ।।" राजा महावीर के चरण चिन्ह है । यह मन्दिर छोटा-सा है, और एक छोटी सी मूर्ति किसी तीर्थर की उत्कीर्णित है। प्राचीन है। आजकल लोग इसे चौथा नवीन पर्वत कहते वैभारगिरि के नीचे सात झरने हैं-कुण्ड हैं । जिनके है । इस पर भी एक श्वेताम्बर मन्दिर है । नाम गंगा, यमुना, अनन्तऋषि, सप्तऋषि, ब्रह्मकुण्ड, पांडक-पांचवां पर्वत पाडु या पांडुक है जो गोला- कश्यप ऋषि, पास कुण्ड और मारकुण्ड । कार और पूर्व दिशा में स्थित है। यहाँ एक मन्दिर है, राजगिरि के नीचे दिगम्बर जैन धर्मशाला और दो जिसमें शान्तिनाथ और पाश्वनाथ की प्राचीन प्रतिमाएं मन्दिर हैं। जिनमें एक मन्दिर दिल्ली निवासी ला. और मादिनाथ के चरण चिन्ह विराजमान है। महावीर न्यादरमल धर्मदास जी ने एक लाख रुपये की लागत से स्वामी की एक खड़गासन प्राचीन मूर्ति भी है। कलकत्ता ६ फरवरी १९२५ में बनवाया है। इसमे पाँच वेदिकाएं निवासी सेठ रामवल्लभ रामेश्वर जी ने एक नये मन्दिर है। दूसरा मन्दिर गिरीडीह निवासी स्व० सेठ हजारीमल का भी निर्माण कराया है। इसे उदयगिरि के नाम से किशोरीलाल ने बनाया है, जिसकी प्रतिष्ठा सं० १८४१ पुकारते हैं। और गणना में इसे तीसरा पर्वत मानते हैं। माघ शुक्ला १३ है। इसकी बगल में पाश्र्वनाथ स्वामी यहाँ एक श्वेताम्बर मन्दिर है और स० १८१६ तथा सं० की स० १५४८ की जीवराज पापड़ीवाल द्वारा प्रतिष्ठित १८२३ में प्रतिष्ठित अभिनन्दन, सुमतिनाथ और पार्श्व दो मतियाँ विराजमान हैं। एक श्वेताम्बर मन्दिर पार नाथ के चरण स्थापित है। धर्मशाला है। बौद्ध मठ और हिन्दू मन्दिर भी है। इस मनियार मठ-राजा श्रेणिक ने राजगृह में विशाल- तरह राजगिरि जैन बौद्ध और हिन्दू तीनों का तीर्थ स्थान काय एक किला बनवाया था। जिसके निशान अब भी बन गया है । इस वन्दनीय तीर्थ स्थान से जनता का बड़ा मौजूद हैं और इसे मगध देश की राजधानी बनाया था। हितहमा है। मगधराज के समय राजगिर की जो शोभा उस समय इसका विस्तार बहुत विशाल था। तीर्थंकर थी वह उसके विनाश से जाती रही है। महावीर और महात्मा बुद्ध आदि के कारण इसका यश 1. Archaelogical Survey of India Vol. I सुदूर देशो में फैला हुआ था। कनिधम साहब ने लिखा है । (871) P. 25-26
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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