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________________ , वर्ष २४, कि० २ , बनेकान्त मुनिबनस्वामी की विशाल प्रतिमा विराजमान है। मूति महाबीर भगवान की भी है, जिसे लोग पाठवीं इसे लोग दूसरा पर्वत 'रत्नगिरि' के नाम से पुकारते है। शताब्दी की बतलाते है। प्रन्तिम मन्दिर की बेदिका में परन्त इसका प्राचीन नाम ऋषिगिरि ही जान पड़ता है। भी महावीर की श्वेतवर्ण प्रतिमा विराजमान है । बगल इस द्वितीय पर्वत पर एक मन्दिर श्वेताम्बर सम्प्रदाय का मे एक श्यामवर्ण मुनिसुव्रत प्रतिमा मोर दूसरी पोर उन्हीं भी है जिसमे अभी शान्तिनाथ, वासु पूज्य और पार्श्वनाथ के चरण है। विपुल गिरि के नीचे छह कुण्ड है सीता कुण्ड, की चरण पादुकाए प्रतिष्ठित हैं। सूरजकुण्ड, रामकुण्ड, गणेशकुण्ड, चन्द्रमानुण्ड और श्रृंग२. भारगिरि-यह तिकोने आकार को लिए हुए ऋषि कुण्ड । इस पर्वत पर पहला और अन्तिम मन्दिर दक्षिण दिशा में विद्यमान है, अनेक ऋषि पुगवों की श्वेताम्बर गम्प्रदाय का है। तपस्या से यह भी पवित्र हो चुका है। सातवीं शताब्दी निपुगिरि का वैशिष्ट-इस पर्वत का खास विशेगे चीनी यात्री हगसाग पाया था, उसने लिखा है कि पता यह है कि यहा जैनियों के प्रतिम तीर्थकर भगवान - 'यहां पर बहुत से निम्रन्थ साधु देये गये ।' इससे स्पष्ट महावीर को केवल ज्ञान होने के पश्चात उनकी गलसे है कि उस काल में भी वहाँ साधु तपश्चरण करते थे। पहली धर्म देशना श्रावण कृष्णा प्रतिपदा में दिन अभि इस पर एक ही मन्दिर है, जिसमें एक चौबीसी प्रतिमा, जित नक्षत्र में हुई थी। धर्मतीर्थ का प्रवनन हुआ था। महावीर स्वामी, नेमिनाथ और मुनि सुव्रत की श्याम ससार के समस्त जीवों के लिए हितमार्ग का प्रदर्शन हुप्रा वर्ण पाषाण की प्राचीन प्रतिमाएं है। नेमिनाथ के चरण- था--सर्वोदय तीर्थ की पावन धारा प्रवाहित हुई थी। चिन्ह भी है। सातवीं शताब्दी तक वैभार गिरि पर जैन महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्र भूति, सुघम स्वामी और स्तूप विद्यमान था, और गुप्तकालीन कई जैन मूर्तियां भी अग्निस केवली जंब स्वामी का निर्वाण इसी विपुल गिरि थी । सोनभद्र गुफा में यद्यपि गुप्तकालीन लेख है पर इस पर हम' । पोर वैशाख मुनि को कवल ज्ञान की गुफा का निर्माण मौर्यकाल के जैन राजाओं ने किया था। प्राप्ति हुई थी। जीव वर कुमार ने भी विपुलाचल से इस पर जो मन्दिर बने हुए है, उनके ऊपर का भाग तो मोक्ष प्राप्त किया था। गौर भी अनेक साधुनों ने तपप्राधूनिक है किन्तु उनकी चौकी प्राचीन है। जनता इसे चरण द्वारा ग्रात्म-सिद्धि प्राप्ति की थी। महावीर की पावधां पर्वत मानती है। इस पर्वत पर श्वेताम्बर सम्प्र- इस सभा का प्रधान श्रोता मगध नरेश बिम्बसार या दाय के तीन श्वेताम्बरीय मन्दिर है जिनमें एक मन्दिर श्रेणिक था, जिमने बौद्ध धर्म का परित्याग कर महावीर धन्नाशालिभद्र का भी कहलाता है। के पादमूल में क्षाका सम्यक्त्व प्राप्त किया था । इतना विपनगिरि-यह दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य ही नहीं किन्तु श्रेणिकः के पुत्र अभयकुमार, मंघकुमार में गव तक स्थित है, और त्रिकोणाकार है। इस पर और वारिषेण ने यही प्रवृज्या (दीक्षा) ग्रहण की थी। वनपचार दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। नीचे छोटे माथ ही श्रेणिक के सेनापति श्रेष्ठी पुत्र जम्बकुमार ने मन्दिर में दयामवर्ण कमल के ऊपर भगवान महावार की - १. तपो मामे मिते पक्षे सप्तम्यां च शुभे दिने । नरणादुका है। मन्दिर भी पुराना है। मध्यवाले मन्दिर निर्वाणं प्राप सौधर्मों विपुलाचलमस्तकात् ।। ग चन्द्रभ की श्वेतवर्णवाली मूर्ति विराजमान है । वेदी . २. विपुलादि गिरी स्थित्वा ध्यानेनायं मुनीश्वरः । के नीचे दोनों ओर हाथी उत्कीर्ण हैं, बीच में एक वृक्ष है। निहत्यघाति कर्माणि केवलज्ञान माप्तवान ।। बगल मे एक अोर सं० १५४८ की प्रतिष्ठित पाठवें विदित्वाऽऽसन कम्पेन वैशाखस्य मुनेरिदम् । तीर्थका की मूर्ति है। यहां श्यामवर्ण की एक प्राचीन झेवलज्ञानमुत्पन्नं सहसाऽगुः सुरेश्वराः ।। 1. Indian Historical quarterly Vol. XXV. -हरिषेण कथाकोष ८, २१, २२ P. 205-210. ३. विपुलाद्रोहताशेषकर्माशर्मान मेष्यति । 2. Journal of the Bihar and Orissa Rea Soc. इष्टाष्टगुणसम्पूर्णो निष्ठितात्मा निरञ्जनः ।। Vol. XXII June 1935. -उत्तरपुराण ७५, ६८७
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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