SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजगिर या राजगृह बसा है । पुन्नाट संघी जिनमेनाचार्य के हरिवंश पुराण में अनुष्ठान कर रहे थे। तब बुद्ध ने उनसे पूछा किभी इसका नाम 'पंच शैलपुर' दिया है। यह मुनिसुव्रत 'पापलोग इतना कठोर तपश्चरण क्यों कर रहे हो? तब भगवान के जन्म से पवित्र है। और शत्रु सेनामों के उन्होंने कहा कि भगवान महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी लिए दुर्गम है। ऋषिगिरि, वैभारगिरि, विपुलाचल, हैं-वे सब जानते देखते हैं। उन्होंने यह भी कहा किबलाहक, जिसे छिन्न पर्वत भी कहा गया है और पांचवां 'तुमने पहले जो पाप किये हैं, उनकी कठोर तपश्चरण से 'पाण्ड' है, इन पांचों पर्वतों के कारण इसे पंच शैलपुर निर्जरा कर दो; क्योंकि मन-वचन-बाय को रोक देने से कहा जाता था । बौद्ध ग्रंथो में इनके नाम वेपुल्ल, बेभार, पाप बन्ध नहीं होता, और तप से पुरातन पापों की निर्जरा पाण्डव, इसिगिलि (ऋषिगिरि) और गिउझकूट नाम होने से कर्म क्षय होता है और कर्म क्षय से दुःखों का उल्लिखित मिलते हैं। क्षय होता है, उससे वेदना का प्रभाव होता है। तब ऋषिगिरि-पूर्व दिशा में चौकोर प्राकार को लिए बुद्ध कहते है कि यह बात मुझे अच्छी लगती है और हए है। पूर्व काल में इस पर्वत पर अनेक ऋषिगण कठोर मेरे मन को ठीक मालम होती है। इसके चारों मोर तपश्चरण करते थे, और तपश्चरण से अान्तरिक कर्म- झरने निकलते हैं। शत्रुओं का क्षय करने के योग्य प्रात्म-शक्ति का विकास इस पर्वत पर इस समय दो मन्दिर है। एक प्राचीन करते थे। बौद्धों के मज्झिमनिकाय नामक ग्रंथ से प्रकट दूसरा नवीन । प्राचीन मन्दिर में श्यामवर्ण महावीर है कि-'इस पर्वत की काल शिला पर कुछ निर्ग्रन्थ स्वामी की चरण पादुका है। और नवीन मन्दिर श्रीमती (दिगम्बर साधु) प्रतापन योग द्वारा प्रात्म-साधना का पंडिता, चन्दाबाई जी मारा का बनवाया हुमा है, जिसमें १. 'पंचशैलपुरं पुतं मुनि सुव्रत जन्मना । २. "एके मिदाहं महानाम समये राजगृहे विहरामि यत्परम्वजिनीं दुर्ग पंचशंलपरिष्कृतसू ।। ५२ गिज्झकूटे पन्वते । ते खोपन समयेन संबहला निग्गंठा ऋषिपूर्वागिरिस्तत्र चतुरस्रः स निर्भरः । इसिगिलियकालसिलायं उन्भत्थका होति प्रासन दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभं भूषयत्यलम् ।।५३ परिक्खिवत्ता, प्रत्येक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृति राश्रितः। वेदना वेरयति । अथ खोस महानाम सायण्ह समयं दक्षिणा परदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ।।५४ पटिसल्लाण बुड्डितो येन इसिगिलि पस्सयकालसिला सज्य चापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । -येन ते निग्गंठा तेन उपसंकमिम उपसंकमिता ते शोभते पाण्डको वृत्तः पूर्वोत्तर दिगन्तरे ॥५५ निग्गंठे एतदबोचायः। किन्तु तुम्हें पावसो निग्गंठा फल-पुष्प-भरानम्रलतापादपशोभिताः । उन्भट्टका प्रासन पट्टिक्खिता, प्रोक्कमिका दुक्खा पतन्निर्भरसंघात हारिणो गिरयस्तु ते ॥५६ तिप्पा कटुका वेदना वेदिय याति, एवं बुत्ते महा -हरिवंशपुराण-३ नाम ते निग्गंठा मं एतदवोचं, निग्गंठो प्रावुसी नाठ'ऋषिगिरि रेन्द्राशायां चतुरस्त्रोयाम्यदिशि च वैभारः। पुत्तो सवण्णु सम्बदस्सावीअपरिसेसं ज्ञान दस्सनं विपुलगिरि नैऋत्या मुभौ त्रिकोणो स्थिती तत्र ॥ पक्खु पट्टितंति । सो एवमाह-पत्थि खोवो निग्गंठा धनुराकारश्छिन्नो वारुणवायवसौम्यदिक्षु ततः ॥ पुचे पावं कम्गं कतं,तं इमाय कटुकाम दुक्करि कारिवृत्ताकृतिरंशान्यां पांडु सर्वकुसाग्रवृताः'। कायनिज्जरेय यं पतेत्य एतारिह कार्यनसंवुत्ता; -घवला० पू० १, पृ० ६२ मनसासंधुत्ता, तं भापति पापस्स कम्मस्स प्रकारण 'चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो।। प्रायति मनवस्सवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया, दुक्खगरिदि दिसाए विउलो दोणितिकोणट्टिदायारा॥ क्खयो दुक्खखया वेदनाक्खयो वेदनाक्खया सवं चावसरिच्छो छिण्णो वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु । दुक्खं निज्जरणं भविस्सति । तं चपन म्हाक ईसाणाए पडू वण्णासवे कुसग्गपरियरणा ।।' रुच्चति चेव खमति च तेन च प्रम्हा पचि मनाति ।" -तिलो०१०१,६६,६७ -मज्झिमनिकाय १९२-९३
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy