________________
राजगिर या राजगृह
परमानन्द जैन शास्त्री
राजगिरि या राजगृह एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान है, जो पटना से लगभग ६० मील पूर्व में स्थित है । इसे गिरिव्रज भी कहते हैं। रामायण काल में इसे गिरिव्रज कहा जाता था, और महाभारत काल में भी यह गिरि व्रज जरासंघ की राजधानी था। यह पर्वतों के मध्य में बसा हुआ था । राजगृह को शिशुनाग वंश की राजधानी वनने का सौभाग्य मिला है। इसे पचशैलपुर और कुशाग्रनगर' भी कहा जाता था। भगवान महावीर और बुद्ध ने यहाँ अनेक वर्षावास बिताये थे । यहाँ बौद्धों भोर जैनियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। बौद्धों, जंनियों श्रीर हिन्दुनों के अनेक मन्दिर बने हुए है । बोद्ध मन्दिरों में वर्मा, जापान और थाईलैण्ड के मन्दिर प्रसिद्ध हैं । यहाँ के गृद्धकूट पर्वत पर बुद्ध अपना वर्षा काल बिताते थे ।
और अपना उपदेश भी देते थे । इस कारण यह उनका भी प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । यह जैन श्रमणों की केवल तपोभूमि ही नही है किन्तु निर्वाण भूमि भी है । भगवान महावीर के प्रथम गणधर गौतम इन्द्रभूति, सुधर्मस्वामी मौर जंबूस्वामी प्रादि अनेक मुनि पुंगवों का निर्वाणस्थल १. एन्शियेन्ट जागरफी ग्राफ इंडिया बाई कनिंघम पृ० ५३०
२. पंचशैलपुरे रम्ये विउले पव्वदुत्तमे । णाणा- दुम समाइणे देव-दानव वदिदे ||
घवला० पु. १ पृ० ६१ सुर रमणहरणे गुणणामे पचशैलणयरम्मि || तिलो० प० १-६५ ३ राजगृह को कुशाग्रनगर भी कहते थे, क्योंकि वहां के पहाड़ कुश समूह से वेष्टित थे। विमलसूरि ने पउमचरिउ में कुशाग्रनगर रूप में ही उसका उल्लेख किया है- 'कुसग्गनयरं समणुपत्तो
- पउमचरिउ २, ६८
है । राजगिर के पंच पहाड़ों पर जैनियों के अनेक मन्दिर मोजूद हैं। इस कारण जैनियों का यह प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है । विपुलगिरि, ऋषिगिरि और वैभार प्रादि पर्वतों पर सहस्रों जैन श्रमणों ने कठोर तपश्चरण किया है । विपुल गिरि पर तो अब से कोई ढाई हजार वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन अभिजितनक्षत्र में सूर्योदय समय प्रातःकाल भगवान महावीर का सबसे पहला धर्मोपदेश हुमा था - घर्मतीर्थंका प्रवर्तन हुआ था – संसार के समस्त जीवों को कल्याण का मार्ग मिला था और पशुओं को भी अभयदान मिला था । श्रावण कृष्णा प्रतिपदा महावीर के शासन की जन्म तिथि है, जो वर्ष का पहला महीना, पहला पक्ष और प्रथम दिन बतलाया गया है ।
कनिंघम साहब ने लिखा है कि- 'प्राचीन राजगृह पांचों पर्वतों के मध्य में वर्तमान था' काशीप्रसाद जायस वाल ने 'मनियारमठ' वाली पाषाण मूर्ति का लेख पढ़कर बतलाया था कि यह लेख पहली शताब्दी का है और उसमें सम्राट् श्रेणिक तथा विपुलाचल का उल्लेख है' । किन्तु वर्तमान राजगिरि पुराने राजगिर से कुछ हट कर ४. सावण बहुले पाडिव रुद्दमुहते सुहोदए रविणो ।
अभिजिस्स पढम जोए जुगस्स प्रादी इमस्स पुढं ॥ तिलो० प० १-७०
सावण बहुल पडिवदे रुद्द मुहुत्ते सुहोदए रविणो । अभिजिस्स पढम जोए तत्य जुगादी मुणेयब्वो । धत्र० १ पृ० ६३
५. वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले । पाडवद-पुण्य - दिवसे तित्त्युत्पत्ती दु श्रभिजम्हि | धव० पु. १ पृ० ६३
वासस्स पढम मासे सावण णामम्मि बहुलपडियाये । प्रभिजीणक्खत्तम्मिय उपपत्ती धम्म तिस्स्थस ||
तिलो० प० १-६६