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________________ २२. वर्ष २४, कि० १ सम्यग्दर्शन का स्वरूप अनेक प्रकार 1 सम्यग्दर्शन का स्वरूप विविध ग्रंथों में का देखा जाता है । ये प्रकार देखने में अनेक हैं, पर अभिप्राय उनका एक ही है । यह भागे निर्दिष्ट किये जाने वाले उसके लक्षणों के अध्ययन से स्वयं स्पष्ट हो जाता है । यथा अनेकान्त दर्शनप्रभूत औौर गो. जीवकाण्ड में छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय श्रौर सात तत्त्व इनका जो श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि कहा गया है' । सूत्रप्राभूत में जिनप्रणीत सूत्रार्थं, बहुत प्रकार के जीवादि पदार्थ तथा हेय श्रहेय को जो जानता है उसे सम्यग्दृष्टि कहा गया है। मोक्षप्राभूत में ऐसे गृहस्थ को भी गया है जो उस सम्यग्दर्शन का ध्यान और जो उस सम्यक्त्व से परिणत हो माठों कर्मों को नष्ट कर डालता है' । सम्यग्दृष्टि कहा मात्र करता है । जाता है वह तो नियमसार में सम्यक्त्व की उत्पत्ति प्राप्त, भागम और तत्वों के श्रद्धान से निर्दिष्ट की गई है । आगे यहाँ नाना गुण-पर्यायों से युक्त जीव, पुद्गलकाय, धर्म, श्रधर्म, काल और प्राकाश इन द्रव्यों को ही तस्वार्थ कहा गया है । पश्चात् इन्हें द्रव्य भी कहा गया है । प्रादसहावादण्णं सच्चित्ताचित्तमिस्वयं हवदि । तं परद्रव्यं भणियं भवितत्थं सम्बदरसीहि ॥ मो. प्रा. १७ १. व्य व पयत्या पंचस्थी सततच्च गिट्ठिा । सहहह ताण रूवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो । पंचा, का. १६, गो. जी. ५६० जीवादी द्दणं सम्मत्तं जिणवरेहि पण्णत्तं । बवाहारा पिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं ॥ दर्श. प्रा. २० २. सुतत्यं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं प्रत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जागई सो सट्ठी ||५|| ३. सम्मत्तं जो झायदि सम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो । सम्मत परिणदो उण खत्रेइ दुद्रुठ्ठ कम्माणि ॥ ८७ ४. प्रत्तागमत्तच्चाणं सद्दद्दणादो हुवेइ सम्मत ||५|| (पू.) जीवा पोग्गलकाया धम्माघम्मा य काल प्रायास । तवत्था इदि भणिदा णाणागुणजएहि संजुत्ता | पंचास्तिकाय में भावों ( पदार्थों) के श्रद्धानकों सम्यक्त्व बतलाते हुए जीव, प्रजीव, पुष्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध प्रोर मोक्ष इनको अर्थ कहा गया है । भागे यह भी कहा गया है कि धर्मादि द्रव्यों का जो श्रद्धान है, वही सम्यक्त्व है। इसी प्रकार भगवती श्राराधना में भी धर्मादि द्रव्यों का श्रद्धान करने वालों को सम्यक्त्वाधक (सम्यग्दृष्टि ) बतलाया है । तस्वार्थ सूत्र, श्रावकप्रज्ञप्ति, पंचाशक, तस्वार्थसार और पुरुषार्थ सिद्धघुपाय में तस्वार्थश्रद्धान को सम्यक्त्व बतलाये हुए जीव प्रजीवादि सात को तस्वार्थ कहा गया है । पुरुषार्थसिद्धयुपाय मे आगे यह भी स्पष्ट कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र मे सर्वप्रथम उस सम्यग्दर्शन का ही श्राश्रय लेना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र होते है । ७. ८. रत्नकरण्डक में परमार्थभूत प्राप्त, भागम भोर तपोसूत (गुरु) के तीन मूढ़ताओं से रहित, माठ अंगों से सहित और माठ मदों से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहा है । आगे उसे यहाँ ज्ञान और चारित्र की उत्पत्ति व स्थिति प्रादि का प्रमुख कारण भी कहा गया है। भात्मानुशासन में नौ व सात तत्वों से श्रद्धान को सम्यक्त्व बतलाते हुए उसे तीन प्रकार के प्रज्ञान की शुद्धि का कारण एवं प्रथम प्राराधना निर्दिष्ट किया गया है । प्रागे वहाँ उक्त सम्यक्त्व के बिना शम ( कषायों का ५. सम्मत्तं सद्दहणं भावाणं X XX। पंचा. का. १०७ (पू.); भ. प्रा. ३८; जीवाजीवा भावा पुष्णं पावं च प्रासवं तेसि । संवर- णिज्जर- बंधो मोक्खो य हवंति ते भट्ठा || १०८ || धम्मादीसहहणं सम्मतं । १६० (पू.) ; धम्माम्मागासाणि पोग्यला कालदव्व जीवे य । प्राणाए सद्दहंतो सम्मत्त राम्रो भणिदो ॥ भ. प्रा. ३६. ६. त. मू. प्र. १, सू. २ व ४; श्रा. प्र. ६२-६३; पंचा. १-३; त. सा. १-४ व १-६; पु. सि. २२. पु. सि. २१. र. क. ४ व ३२.
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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