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सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन
दमन), ज्ञान, चारित्र और तप को निरर्थक भार (बोझ ) स्वरूप बतलाया गया है ।'
उपासकाध्ययन में प्राप्त भागम और पदार्थों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बतलाया है। पूर्वोक्त रत्नकरण्ड में जो प्राप्त, श्रागम और तपस्वी के श्रद्धान को सम्यग्दन कहा गया है उसका अनुसरण करते हुए यहां 'तपोभूत' के स्थान में 'पदार्थ' को ग्रहण किया गया है । रत्नकरण्डक में तीन मूढ़ताओं से रहित और आठ प्रगो से सहित ये जो दो विशेषण श्रद्धान के लिए दिए गए हैं वे यहां भी है । विशेष यहां इतना है कि रत्नकरण्डक में श्रद्धान का अस्मय तीसरा विशेषण जहां ममय ( पाठ मदो से रहित) है, वहा प्रकृति उपासकाध्ययन में वह तीसरा विशेषण प्रशमादिभाक् - प्रशम - संवेगादि गुणों से युक्त है ।
प्रज्ञपना (पण्णवणा) धौर उत्तराध्ययन सूत्र में निर्दिष्ट सरागदर्शनार्यो के दस भेदों में प्रथम निःसर्गरुचि है । इसके स्वरूप का निरूपण करते हुए वहाँ कहा गया है कि जीवाजीवादि पदार्थ जिसे भूतार्थरूप से पदार्थ सद्भूत हैं इस प्रकार - सहसमति ( श्रात्मसंगतमति ) परोपदेशनिरपेक्ष जातिस्मरण व प्रतिभा प्रादि रूप मति से प्रधिगत (ज्ञात) है उसे निसर्गरुचि कहा जाता है' यहां जिस गाया द्वारा यह स्वरूप कहा गया है उसका पूर्व प्रा० कुन्दकुन्दविरचित समयप्राभूत की गा० १५ के पूर्वार्ध से सर्वथा समान है । प्रज्ञापना की उस गाथा में बन्ध, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का निर्देश नहीं है। उसकी टीका में भाचार्य मलयगिरि ने उन्हें 'च' शब्द से सूचित बतलाया है।
१. भारमानु. १० व १५०
२. प्राप्तागमपदार्थानां बद्धानं कारणमात् गूढाचपोळ मष्टांग सम्यक्त्व प्रशमादिभाक् ।। ४८, पृ. १३. ३. भूयत्थेणहिगया जीवाजीवे य पुण्णपावं च ।
सहसंमुइया प्रासव संवरे य रोएइ उनिसग्गो ॥ प्रज्ञाप. गा. ११६, पृ. ५६; उत्तरा ३८-१७. ४. भूवत्येणाभिगदा जीवाजीवा व पुष्णं-पावं च प्रासव संवर णिज्जर बघो मोक्खो य सम्मत्त ॥ समयप्रा. १५; मूलाचार ५-६०
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गो. जीवकाण्ड में कहा गया है कि जो न तो इन्द्रियविषयों से विरत है और न त्रस स्थावर जीवों के विषय में भी विरत है, पर जिन भगवान् के द्वारा प्ररूपित तत्व पर श्रद्धा रखता है वह सम्यग्दृष्टि है।
में
यहाँ तक जो सम्यग्दर्शन का स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है वह व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप है, निश्चय नया की अपेक्षा यह सम्भव नहीं है। उक्त लक्षणों में जो भिन्नता दिखती है उसका कारण विवक्षाभेद है, अभिप्राय कुछ भेद नहीं है । सामान्य से सात तत्व व नौ पदार्थ जीव और अजीव इन दो के ही सगंत है, उनसे भिन्न हैं नहीं है। नौ पदार्थों में जो पुण्य और पाप अधिक वे माधव पर बाध के मन्तर्गत है, विशेष विवक्षा से उन्हें पृथक स्वीकार कर नौ पदार्थ माने गये है। सात तत्व या नोपदार्थरूप यह विभाग ग्रात्मप्रयोजन को लक्ष्य में रखकर किया गया है ।
आत्मा का प्रयोजन मोक्ष है, जो जन्म-मरणरूप संसार का प्रतिपक्षी है उस ससार के कारण हैं प्रास्रव मौर बन्ध तथा मोक्ष के कारण हैं संवर और निर्जरा। उक्त मानव श्रोर बन्ध ये जीव और अजीव के प्राश्रित हैं। इस प्रकार श्रात्मप्रयोजन की सिद्धि में उक्त सात तत्त्व
या नौ पदार्थ उपयोगी ठहरते हैं। घतएव इनके श्रद्धान को सम्यक्य कहना सर्वथा उचित है।
इसी प्रकार छह द्रव्यों में जीव के प्रतिरिक्त शेष पांच अजीव ही हैं। अतः उक्त छह द्रव्य भी जीव धौर भजीव के ही अन्तर्गत हैं। उनकी पृथक्-पृथक् उपयोगिता को प्रकट करने के लिए ही उक्त भेद स्वीकार किये गये हैं।
प्राप्त, धागम और गुरु या पदार्थ की घड़ा को जो सम्यक्त्व कहा है वह भी अन्य लक्षणों से भिन्न नहीं है । कारण यह कि जब प्राप्त के ऊपर दृढ़ श्रद्धा हो जाती है तब उसके द्वारा प्ररूपित गुरु और पदार्थ विषयक श्रद्धा तो स्वमेव होने वाली है।
इन सबके मूल में एक यही अभिप्राय रहा है कि श्रात्महितैषी इस तत्वव्यवस्था को समझ कर स्व मौर
५. गो. जी. २८, सागारधर्मामृत (१-१३) में भी लग भग यही अभिप्राय प्रगट किया है।