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________________ २४, वर्ष २४,कि.. अनेकान्त घर के भेद को समझे प्रौर पर में राग-द्वेष को छोड़ कर ज्ञान भौर उपेक्षा होती है। यह सम्यक्त्व, ज्ञान और पर से भिन्न शुद्ध मात्मा के विषय में रुचि करें। यही चारित्रस्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है। अपने पुरुषार्थ तो निश्चय सम्यग्दर्शन है। इसी अभिप्राय को लक्ष्य में सिद्धघुपाय में उक्त प्रमतचन्द्र सूरि ने किसी एक धर्म को रखकर ही तो यथार्थस्वरूप से जाने गये जीव, मजीव, प्रधान और दूसरे धर्म को गौण करके वस्तुस्वरूप को पुण्य, पाप, मानव, संवर, निर्जरा, बन्ध मोर मोक्ष को प्रकट करने वाली इस प्रनेकान्तमयी जैनी नीति के विषय सम्यक्त्व कहा गया है। में, एक पोर से मथानी की रस्सी को खींचने वाली और _ निश्चय पोर व्यवहार के भेद से मोक्षमागं दो प्रकार दूसरी भोर से उसे ढीली करने वाली ग्वालिन का, उदाका है। जीव का स्वभाव निरावरण शान-दर्शन है जो हरण देते हुए उस जैनी नीति का जयकार मनाया है। उससे भिन्न है। शान-दर्शनरूप इस स्वभाव में जो सम्यक्त्व की प्राप्ति नियम से प्रनिन्दित-राग-द्वेष से रहित-उत्पाद, व्यय प्रनादि मिथ्यादष्टि जीव प्रर्ष पुद्गलपरिवर्तन मात्र पौर प्रीव्यस्वरूप अस्तित्व है, यह निश्चय मोक्षमार्ग है। के शेष रहने पर सर्वप्रथम प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त जो पभिन्नस्वरूप पात्मा का स्वयं भाचरण करता है - करता है। उसकी प्राप्ति के अभिमुख हपा जी नियम स्वभावनियत उस भस्तित्व का अनुभव करता है से पंचेन्द्रिय, संजी, मिथ्यादृष्टि, भव्य और पर्याप्त होता (चारित्र), स्वप्रकाशकस्वरूप से जानता है (ज्ञान) और है एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी, पंचेन्द्रिय और अपर्याप्त देखता है-यथार्थस्वरूप का अवलोकन करता है (सम्यर- जीव उस सम्यग्दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकते। इस दर्शन) वही निश्चयसे चारित्र, ज्ञान और दर्शन है-मात्मा प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और वेदकसे भिन्न वे चारित्र, ज्ञान व दर्शन नहीं है। इन तीनों सम्यग्दष्टि भी उक्त प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त स्वरूप मात्मा को ही, जो कि अन्य कुछ भी नहीं करता है, नहीं होते । पूर्वोक्त जीव भी जब अधःकरण, अपूर्वकरण निश्चयनय की अपेक्षा मोक्ष मार्ग कहा गया है। इसी को और अनिवतिकरणरूप तीन प्रकार की विशुद्धि से विशुद्ध स्वचरित या स्वसमय कहा जाता है। यह निश्चय मोक्ष होता है तब वह अनिवृत्तिकरणरूप विशुद्धि के मन्तिम मार्ग साध्य है और उसका साधक है पूर्वोक्त व्यवहार समय में उस प्रथमोपशमसम्यक्त्व को प्राप्त होता है। मोक्षमार्ग। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पंचारितकाय गा. सम्यक्त्वग्रहण के पूर्व जीव के ये पांच लब्धियाँ होती है१६० की उत्थानिका में निश्चय और व्यवहार में साध्य क्षयोपशम, विशद्धि,देशना, प्रायोग्य भौर करण लब्धि । सापकभाव को प्रगट करते हुए पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तना पूर्वसंचित कर्मों के अनुभागस्पर्धक जब विशुद्धि के बल को उक्त दोनों नयों के अधीन बतलाया है। से उत्तरोतर प्रत्येक समय में अनन्तगुणे हीन होते हुए प्राचार्य ममतचन्द्र ने तत्वार्थसार में भी स्पष्ट रूप से उदय को प्राप्त होते है तब क्षयोपशमलब्धि होती है। यह कहा है कि निश्चय और व्यवहाररूप से मोक्षमार्ग ४. निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो विधा स्थितः । दो प्रकार का है। उनमें प्रथम (निश्चय मोक्षमार्ग) साध्य तत्राद्यः साध्यरूपः स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥ मोर दूसरा साधन है। शुद्ध मात्मविषयक जो श्रद्धान, श्रवानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः । १. समयप्रा. १५. सम्यक्त्व-ज्ञान-वृत्तामा मोक्षमार्गः स निश्चयः॥ २. पंचास्तिकाय गा. १५४ व १६१-६२. श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना । ३. यत्तु पूर्वमुद्दिष्टं तत् स्व-परप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसा- सम्भक्त्व-शान-वृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ।। ध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् । न चैत त. सा. उपसं. २-४. विप्रतिषितम्, निश्चय-व्यवहारनयोः साध्य-साधनभाव. ५. एकनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतस्वभितरेण । त्वात सुवर्ण-सुवर्णपाषाणक्त् । प्रत एवोभयनयायत्ता मन्तेन जयति जैनी नीतिमन्याननेत्रमिव गोपी। पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति । पु. सि. २२५०
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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