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बालचन्द्र सिदान्त-शास्त्री
सम्यग्दर्शन : एक अध्ययन
सम्यग्दर्शन का महत्व
सम्यग्दर्शन से ही प्राप्त होता है। ____ सम्यग्दर्शन, दर्शन, सदृष्टि, सम्यक्त्व, तत्त्वरुचि और यह उस सम्यग्दर्शन का ही प्रभाव है जो सम्यक्त्व तत्त्वश्रद्धा आदि शब्द समनाथंक हैं। प्रस्तुत सम्यग्दर्शन से संयुक्त चाण्डालकुलोत्पन्न (हिंसक) मनुष्य को भी पूज्य समस्त धर्माचरण का मूल-प्रधान-कारण माना गया तथा उस सम्यक्त्व के बिना मुनिधर्म का परिपालन करने है। इस सम्यग्दर्शन से जो भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट ही हैं, उन्हें वाले साधु (द्रव्यलिंगी) को एक सम्यग्दृष्टि गृहस्थ की कभी मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती । कारण कि जो सम्यग- प्रपेक्षा भी हीन माना गया है। सम्यग्दृष्टि जीव परभव दर्शन से भ्रष्ट होते हैं वे ज्ञान और चारित्र से भी नियमतः में नारफ मादि निकृष्ट पर्याय को भी पर्याप्त नहीं करता, भ्रष्ट होते हैं । इस प्रकार वे जब मोक्षमार्ग से ही दूर हैं।
यदि सम्यक्त्व ग्रहण से पूर्व उसने मन्य किसी मायु का तब भला उन्हें मुक्ति की प्राप्ति हो ही कैसे सकती है? बन्ध नही कर लिया है तो वह सम्यक्त्व के प्रभाव से जिस प्रकार मूल (जड़) के विनष्ट होने पर वृक्ष के उत्तम देव ही होता है। परिवार की शाखा, पत्र, पुष्प और फल प्रादि की
। फल प्रादि की- जो जीव अन्त मुहूर्त मात्र सम्पग्दृष्टि रहकर पश्चात वृद्धि नहीं होती उसी प्रकार धर्म के मूलस्वरूप सम्यग्- उस सम्यक्त्व से व्युत हो गया है वह भी मनातानम्त दर्शन के विनष्ट होने पर धर्म के परिवारस्वरूप ज्ञान और कास संसार में नहीं रहता-अधिक से अधिक प्रर्वपक्षणल चारित्र प्रादि की भी वृद्धि सम्भव नहीं है। इस प्रकार परिवर्तनमात्र संसारी रहकर मुक्त हो जाता।
यह व्यवहार सम्यक्त्व का प्रभाव समझना चाहिए। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीब कभी मुक्त नही हो सकते।
र निश्चयसम्यग्दृष्टि तो दुष्ट पाठकों जिस ज्ञान के द्वारा सेव्य-प्रसेव्य या हेयाहेय के स्वरूप को
को नष्ट करके
मुक्ति को प्राप्त करता है। निश्चयसम्यग्दृष्टि परद्रव्य जानकर प्राणी हेय को छोड़कर महेय (उपादेय) में प्रवृत्त
से भिन्न स्वद्रव्य में ही निरत रहता है। कर्म-मल से होता है-चारित को स्वीकार करता है-वह ज्ञान इस
रहित ज्ञानस्वरूप जो शुद्ध पारमा है वह स्वद्रव्य है तथा १. दसणमलो धम्मो उबटो जिणवरेहि सिस्साणं। उस प्रात्मस्वभाव से भिन्न जो बेतन, प्रचेतब और मिश्र
द. प्रा.२ द्रव्य हैं उन्हें परखम्म जानना चाहिए। २. जह मूलम्मि विण? दुमस्स परिवार त्यि परिवड्ढी।
र पत्थि पारवड्ढो। ३. सम्मत्तादो गाणं गाणादो सव्वभाउवलधी। तह जिणदसणभट्ठा मुलविणष्ट्रा ण सिझति॥
उवलद्धपयत्ये पुण सेयासुयं वियाणेदि। द.प्रा. १५
६.प्रा. १० ४. रत्नकरण्डक २८, ३३ पौर ३५. विद्या-वृत्तस्य संभूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः ।
५. भ. मा. ५३. न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ र.क.३२ ६. जीवो सहावणियदो मणियदगुणपज्जमोऽध परसममो। मोह-तिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः ।
जदि कुणदि सगं समयं पम्भस्सदि कम्मबंबायो। रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ।। र.क. ४७
पंचा.१२ त्र्यशानशुद्धिप्रदम् । प्रात्मानु.१०० अन.ब. २.४७ सबब्बरमो सवणो सम्माइट्री हवेहणियमेण। तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाययणीयमखिलयलेन ।
सम्मतपरिणदो उण सवेह दुट्टकम्माणि । मोप्रा.१४ तस्मिन सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरिषं च ।। ७. द्रट्रकम्मरहियं मणोवर्म जाणविगणि
पु. सि. २१ सुखं विहिपहिया हतिसरा .१५