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________________ २०, वर्ष २४, कि० १ शासनकाल में अपभ्रंश के उत्कृष्ट साहित्यकार महाकवि रइबू ने अपने जन्म से ग्वालियर को धन्य किया । सहाकवि र संघपति देवराय के पौत्र मौर विजयश्री तथा हरिसिंह संपति के पुत्र थे। इनके दो भाई और थे, बाहोल और माणसिंह | महाकवि रद्दधू ने प्राकृत भौर अपभ्रंश में लगभग २३ रचनाएँ कीं । महाराज डूंगरेन्द्र सिंह मोर कीर्तिसिंह महाकवि रद्दषू के परम भक्त थे । इनके समय में निर्मित पूर्वोक्त ५७ फुट ऊंची प्रतिमा की प्रतिष्ठा रद्दधू ने ही करायी थी । उन्होंने दिल्ली तथा हिसार तक की यात्रा की। हिसार में रहकर उन्होंने कुछ लिखना भी चाहा किन्तु ग्वालियर के प्रबल आकर्षण ने उन्हें वहाँ रहने न दिया । उन्होंने ग्वालियर को मालव जनपद के गले का हार और श्रेष्ठ नगरों के गुरुनों का भी गुरु ( गुरुणं वरणपरहं एहु गुरु ) कहा । यहाँ के नारी समाज के शीलव्रत, श्राचार, विचार, अतिथि सत्कार एवं उदार स्वभाव से वे इतने प्रभावित थे कि उसके विषय में उन्हें स्वतन्त्र रूप से ही कुछ पंक्तियां लिखनी पड़ीं। ग्वालियर में कुछ जैन उपाश्रय भी बने। इनमें से दो मुख्य उपाश्रय नेमिनाथ मन्दिर धौर वर्षमान मन्दिर के पास थे। इन दोनों में बैठकर रद्द ने अपनी कुछ रचनाएं लिखी, भतः उन्होंने उन भाश्रयों को सुन्दर कवितारूपी रसायन से रसाल ( सुकवित्त रसायण - णिहि-रसालु) कहा है । महाकवि रद्दधू की एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि उन्होंने पती प्रायः सभी कृतियों में विस्तृत प्रशfear frखी हैं जिनके माध्यम से ग्वालियर, पद्मावती; मनेकान्त संसार में जितने जीव अजीव पदार्थ है वे सब परिग्रह हैं । अतः दूध दही घृतादि भी स्पष्टतः परिग्रह हैं । ये सब संसार में ही हैं संसार से बाहर नहीं। दूध तो गाय भैस से उत्पन्न होता है घोर दूध से दही जमाया जाता है और दही से घृत तैयार किया जाता है। लाटी सहिता सर्ग ६ श्लोक १०७ में "कुप्प शब्दों घृतोद्यर्थः” । तत्त्वार्थ की श्रुतसागरी वृत्ति (प्र० ७ सू० १७) में— "घृत तेल गुड़ शर्करा प्रभृतिरचेतनो बाह्य परिग्रहः" उज्जयनी, दिल्ली, हिसार प्रादि से सम्बन्ध रखने वाली राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक प्रादि सभी प्रकार की परिस्थितियों पर प्रकाश पड़ता है । अपने प्राश्रयदातानों, राजाओं, नगरसेठों, पूर्ववर्ती, एवं समकालीन कवियों, विद्वानों और भट्टारकों के महत्व - पूर्ण उल्लेख भी उन्होंने किये । सन्धिकालीन कवि होने के नाते उनकी रचनाएं भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी प्रत्यंत महत्व की हैं। रहधू का साहित्य मभी पूरा प्रकाशित नहीं हो सका है। उत्तरवर्ती साहित्यकार सं० १५३१ में ग्वालियर के एक श्रावक पद्मसिंह ने महाकवि पुष्पदन्त (१०वीं शती) के भादि पुराण की प्रतिलिपि करायी। इस प्रतिलिपि के दानकर्ता की प्रशस्ति में लिखा है कि पद्मसिंह ने प्रादिनाथ का एक मन्दिर बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करायी । उसने एक लाख ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ भी करायीं मौर चौबीस जन मन्दिर भी बनवाये, वह विविध गुणों से सम्पन्न था । सं० १५२१ में ही यहाँ के किसी लुहाडियागोत्रीय खंडेलवाल श्रावक ने पउमचरिउ की प्रतिलिपि करायी । भट्टारक गुणभद्र ने १६वी शती के उत्तरार्ध में लगभग १५ कथाग्रन्थों की रचना की । संवत् १६५१ में यहाँ के निवासी श्री परिमल प्रागरा चले गये और वहाँ उन्हों श्रीपाल चरित्र की रचना की । इसके पश्चात् भी ग्वालियर में जन धर्म की अच्छी प्रभावना रही मोर आज भी है । (शेष पृ० १६ ) fear है तथा क्रिया कलाप पृ० ८० मे - "तथ्य बाहिरो परिग्गहो" भस्तपाणादिभेषण प्रणेमविहो" (बाह्य परिग्रह भोजन पान के भेद से अनेक प्रकार का है) ऐसा लिखा है जिससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूध दही घृतादि को शास्त्रकारों ने बाह्य परिग्रह माना 1 प्राशा है विद्वद्गण इस लेन पर गम्भीरता से विचार कर दस बाह्य परिग्रह के नामों में जो गलती प्रचलित हो रही है उसका संशोधन करने का प्रयत्न करेंगे।
SR No.538024
Book TitleAnekant 1971 Book 24 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1971
Total Pages305
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size16 MB
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