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ग्वालियर में जन धर्म
महाराज डूंगरेन्द्रदेव के तीस वर्षीय शासनकाल के इसी प्रकार उत्तर-पूर्व समूह भी कलाकी दृष्टि से महत्वहीन पश्चात् उनके पुत्र कीर्तिसिंह का राज्य प्रारम्भ हुमा, है । मूर्तियां छोटी है और उन पर कोई लेख नहीं है । जिसे अपने २५ वर्ष के लम्बे शासनकाल में कभी जौनपुर दक्षिण-पूर्व समूह मूर्तिकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण और कभी दिल्ली के सुल्तानों को मित्र बनाना पड़ा। है। मूर्ति समूह फूल बाबा के ग्वालियर दरवाजे से इसके शासनकाल मे ग्वालियर गढ़ की शेष जैन प्रतिमाओं निकलते ही लगभग प्राध मील तक चट्टानों पर उत्कीर्ण का निर्माण हुआ।
दीखती है। इसमें लगभग २० प्रतिमाएं २० से ३० फुट प्रतिमानों पर एक वृष्टि
तक ऊंची हैं और इतनी ही ८ से १५ फुट तक । इनमें ग्वालियर गढ़ की इन प्रतिमानों को ५ भागों में आदिनाथ, नेमिनाथ, पद्मप्रभ, चन्द्रप्रभ, सम्भवनाथ, विभाजित किया जा सकता है :-(१) उरवाही समूह, नेमिनाथ, महावीर, कुन्थुनाथ की मूर्तियां हैं। इनमें से (२) दक्षिण-पश्चिम समूह, (३) उत्तर-पश्चिम समूह, कुछ दूर पर संवत् १५२५ से १५३० तक के अभिलेख (४) उत्तर-पूर्व समूह, (५) दक्षिण-पूर्व समूह । इनमें से उत्कीर्ण हैं। उरवाही द्वार के एवं किंग जार्ज पार्क के पास के समूह प्रतिमानों की महत्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उरवाही समूह अपनी विशालता से जैसा कि लिखा जा चुका है, डुंगरेन्द्रसिंह तथा एवं दक्षिण-पूर्व समूह अपनी अलकृत कला द्वारा ध्यान कीर्तिसिंह के शासनकाल में ईसवी सन् १४४० तथा प्राकृष्ट करता है।
१४७३ के बीच ग्वालियर गढ़ की सम्पूर्ण प्रतिमानों का उरवाही समूह में २२ प्रतिमाएं हैं जिनमें ६ पर निर्माण हुआ। इस विशाल गढ़ की प्रायः प्रत्येक चटान सं० १४६७ से १५१० के बीच के अभिलेख है। इनमे को खोदकर उत्कीर्णकर्ता ने अपने अपार धैर्य का परिचय सबसे ऊंची खड़ी प्रतिमा २० नवम्बर की है। इसे बाबर दिया है। इन दो नरेशों के राज्य में जैनधर्म को जो ने २० गज का समझा था, वास्तव में यह ५७ फीट ऊंची प्रश्रय मिला और उनके द्वारा मूर्तिकला का जो विकास है। चरणों के पास यह ६ फुट चौड़ी है। २२ नम्बर हुआ उसकी ये भावनामयी प्रतिमाएं प्रतीक हैं। तीस वर्ष की नेमिनाथ जी की पद्मासन मृति ३० फुट ऊंची है। के थोड़े समय में ही गढ़ की प्रत्येक मूक एवं बेडोल चट्टान १७ नम्बर की प्रतिमा पर तथा प्रादिनाथ की प्रतिमा भव्यता, शान्ति एवं तपस्या की भावना से मुखरित हो की चरण चौकी पर इंगरेन्द्रसिंह के राज्यकाल के संवत् उठी। प्रत्येक निर्माणकर्ता ऐसी प्रतिमा का निर्माण १४६७ का लम्बा अभिलेख है।
करना चाहता था जो उसकी श्रद्धा एवं भक्ति के अनुपात दूसरा दक्षिण-पश्चिम समूह एकखम्भा ताल के नीचे में ही विशाल हो और उत्कीर्णकर्ता ने उस विशालता में उरवाही दीवाल के बाहर की शिला पर है। इस समूह सौन्दर्य का पुट देकर कला की अपूर्व कृतियां खडी करदी। मे पाँच मतियाँ प्रधान है। दो नम्बर की लेटी हुई छोटी मूर्तियों में जिस बारीकी और कौशल की प्रावश्यप्रतिमा ८ फूट लम्बी है। इस पर मोप है। यह प्रतिमा कता होती है वह इन प्रतिमानों में विद्यमान है। तीर्थंकर की माता की है। देवगढ़ प्रादि में ऐसी ही अनेक प्रतिमानों का भंजन प्रतिमाएं हैं। तीन नम्बर की प्रतिमा समूह में एक स्त्री. इन मूर्तियों के निर्माण के लगभग ६० वर्ष पश्चात पुरुष तथा बालक है। कुछ लोग इसे महाराज सिद्धार्थ, ही बाबर ने अपने साथियों के साथ इन सबके मुख मादि
नाना महावीर स्वामी की मानते है, पर खण्डित कर दिये । सन् १५२७ मे उसने उरवाही द्वार की यह धरणेन्द्र-पमावती की है, ऐसी प्रतिमाएं भी देवगढ़ प्रतिमानों को भी नष्ट कराया। इस घटना का बाबर ने मादि में सैकड़ों की संख्या में है।
अपनी प्रात्मकथा में बड़े गौरव के साथ उल्लेख किया है। उत्तर-पश्चिम समूह में केवल एक मादिनाय की प्रतिमा महाकवि रह महत्वपूर्ण है। इस पर सं० १५२७ का अभिलेख है। महाराज डूंगरेन्दसिंह और उनके पुत्र कीतिसिंह के