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मनेकान्त
करने के लिए स्वयं ग्वालियर प्राये मौर तत्कालीन शासक भुवनपाल कच्छपघट को प्रभावित कर उन्होंने उस मंदिर की सुव्यवस्था करवायी ।
१८ वर्ष २४, कि० १
सम्मिलित थे । " राजा श्राम ने एक वणिक् कन्या से विवाह किया जिसकी सन्तान कोष्ठागारिक ( कोठरी ) कहलायी और बाद को श्रोसवाल वंश मे मिल गई ।" ८६० वि. में इसका देहान्त हुआ। इसके पुत्र दुन्दुक का पुत्र भोजदेव कदाचित् वही भोज था जिसका उल्लेख देवगढ़ के एक शिलालेख में हुआ है । यह भोजदेव जैनधर्मानुयायी प्रौर
भट्टसूरि के गुरु भाई श्री नन्नसूरि का परम भक्त था । इसने उक्त सूरिजी के पास श्रावक के व्रत लिए और तीर्थ यात्रा में संघ भी निकाला ।" यह वंश १६वीं शती ई० तक विद्यमान था ।
स्वयं वप्पभट्टसूरि एक अच्छे श्राचार्य थे । उसका जन्म ८०७ वि. में और मृत्यु ८६५ वि. में हुई । प्रभावकचरित के अनुसार इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे, यद्यपि उनमें से अब सरस्वती स्तोत्र और चौवीसस्तवन ही उपलब्ध हैं । कन्नौज नरेश नाम के अतिरिक्त लक्षणावती के नरेश धर्मराज को भी इन्होंने जैन बनाया । धर्मराज की सभा में इन्होंने किसी बौद्ध विद्वान् वर्धनकुञ्जर को शास्त्रार्थ में पराजित कर "वादिकुञ्जरकेशरी ” उपाधि प्राप्ति की । मथुरा में इन्होंने प्रतिष्ठा भी करायी । जैन साहित्य में इन्हें 'राजपूजित' के नाम से संबोधित किया गया है, कदाचित् इसलिए कि ये अपने जीवन के अधिकांश भागमें राजाओं द्वारा पूजित रहे । धर्मराज की सभा के भारत प्रसिद्ध कवि वाक्पतिराजने गोडबघ श्रौर महामहविजय नाम के दो काव्य-ग्रन्थों का निर्माण कर बप्पभट्टसूरि श्रौर श्राम नरेश को अमर कर दिया । मध्यकाल में
कच्छपघट शासक वज्रदामन ( १०३४ वि०) ने ग्वालियर में एक जैन मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी ।
प्राचार्य प्रद्म ुम्नसूरि ने ११वीं शताब्दी में ग्वालियर के राजा को अपनी वादशक्ति से रंजित किया और १२वीं शताब्दी के विद्वान् वादिदेवसूरि ने गंगाधर द्विज को ग्वालियर मे परास्त किया, ऐसा तत्कालीन साहित्य से ज्ञात होता है ।
गुर्जर नरेश सिद्धराज द्वारा सम्मानित वोराचार्य ने ग्वालियर प्राकर वहाँ के राजा द्वारा भी सम्मान पाया ।
मलघारी अभयदेवसूरि जो वीराचार्य के समकालीन थे, पूर्वोक्त नरेश श्राम द्वारा निर्मित मन्दिर की दुर्व्यवस्था दूर
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किसी संस्कृत कवि द्वारा १३वीं शती ई० में रचित सकलतर्क स्तोत्र में ग्वालियर की गणना तीर्थों में की गयी ।
मुनि विजयकीति के उपदेश से जैसवालवंशी श्रावक वाह कूकेक, सूर्पट, देवधर, महीचन्द्र श्रादि चतुर श्रावकों ने वि. सं. ११४५ में विशाल जैन मन्दिर का निर्माण कराया। उसके पूजन, संरक्षण एवं जीर्णोद्धार आदि कार्यों के लिए कच्छपवशी राजा विक्रमसिंह ने महाचक्र नाम के ग्राम में कुछ जमीन आदि भी प्रदान की ।
त्रिक्रम की १५वी शताब्दी के अन्त में भट्टारक यश: कीर्ति ने (वि.सं. १४६७ में ) पाण्डव पुराण और (सं. १५०० मे) हरिवशपुराण की रचना अपभ्रंश भाषा मे की। जिन रात्रिकथा और रबिव्रतकथा भी इन्हीने बनायी है । चन्द्रप्रभचरित्र भी इन्हीं यशः कीर्ति का बनाया हुआ कहा जाता है । स्वयभूदेव के हरिवंशपुराण की जीर्णशीर्ण खण्डित प्रति का समुद्धार भी इन्होंने किया था । यह भट्टारक गुणकीर्ति के लघुभ्राता धौर शिष्य थे । तोमर शासकों का योगदान
ग्वालियर पर सन् १३७५ से लगभग सवा सौ वर्ष तोमरों का शासन रहा। इस वंश के वीरसिंह, उद्धरणदेव, विक्रमदेव, गणपतिदेव, डूंगर रेन्द्रसिंह, कीर्तिसिंह श्रोर मानसिंह के नाम श्रद्वितीय वीरों एवं कला के श्राश्रयदाताओं के रूप में आज भी प्रसिद्ध है ।
डूंगरेन्द्रदेव अपनी राजनीतिक चातुरी एवं वीरता के लिए तो प्रसिद्ध है ही, उसका नाम ग्वालियर गढ़ की जैनमूर्तियों के निर्माता के रूप में भी भ्रमर रहेगा । उसके राज्यकाल में इन अद्वितीय मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हो गया था । अनेक समृद्ध भक्तों ने भी अपनी श्रद्धा एवं सामर्थ्य के अनुरूप विशाल जैन मूर्तियों का निर्माण कराया और इन मूर्तियों के पादपीठों पर अपने साथ अपने नरेश का भी उल्लेख किया। १४६७ वि०, १५१० वि० प्रादि की कुछ मूर्तियों के पादपीठों पर उनके निर्माण संवत् के साथ गोपाचल दुर्ग और महाराजा डूंगरेन्द्रसिंह का उल्लेख है ।