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हिन्दी के कुछ प्रज्ञात जैन कवि और अप्रकाशित रचनाएँ
विस्तीर्ण क्यों न हो, तो भी अग्नि का एक कण उसे पांचवीं रचना श्रीपाल रास है, जिसमें श्रीपाल और जलाने में सक्षम होता है। उसी तरह बालक भी अपने मैना सुन्दरी के चरित्र का चित्रण हुमा है। साथ मे शूरवीर स्वभाव को नही छोड़ता।
सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य का भी उल्लेख किया गया है। बालक जब रवि उदय कराय,
रास के पद्यों की संख्या २६७ है । ग्रन्थ सवत् १६३ के अन्धकार सब जाय पलाय ।
शुभवर्ष के शक्ल पक्ष की त्रयोदशी को बनाकर समाप्त बालक सिंह होय अति सूरो, दन्ति घात करे चकचूरो।। किया गया है। सघन वक्ष वन अति विस्तारो, रत्ति अग्नि करे वह छारो। जो बाल क्षत्रिय को होय, सूर स्वभाव न छांडे कोय ॥
छठवीं रचना भविष्यदत्त कथा है। भविष्यदत्त कथा
पर अपभ्रंश संस्कृत और हिन्दी में अनेक ग्रन्थों का निर्माण ____ इस तरह कवि ने कथा को सुन्दर एव सरस बनाने
हुआ है । ग्रन्थ का कथानक प्रिय रहा है। इसमे श्रुत का यत्न किया है। कथा का रचना समय सवत् सोलह से सोलह वैशाख कृष्णा नवमी शनिवार है'।
पचमी व्रत का माहात्म्य बतलाया गया है, जिनेन्द्र भक्ति तीसरी रचना प्रद्युम्नरास है, जिसमे यदुवंशी राजा
के प्रसाद से भविष्यदत्त अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त द्वारा श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्नकुमार की जीवन कथा दी हुई है।
दिये गए भीषण दुखो का उन्मूलन कर सका। इस रास जिसे कवि ने हरसौरगढ़ मे सं० १६२६ मे भाद्रपद शुक्ला
की रचना सांगानेर (जयपुर) मे हई है। कवि ने सांगादोइज बुधवार के दिन बनाकर समाप्त किया है। हर
नेर का सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है। उस समय वहाँ सौरगढ मे जिनेन्द्र का मन्दिर बना हया था और वहां के
भगवानदास नामक राजा राज्य कर रहा था। वहाँ की श्रावकदेव-शास्त्र गुरु के भक्त थे।
प्रजा सुखी थी वहाँ के श्रावक धनी थे और परहंत देव ___ चौथी रचना सुदर्शन रास है, जिसमें चम्पापुर के
की पूजा करते थे । वहाँ का सधी जी का मन्दिर कलासेठ सुदर्शन के पावन जीवन की झांकी का निदर्शन है।
त्मक और मनोहर है, वहाँ और भी मन्दिर है। खेद है अथ सूचिपों में इसे शील रास कहा गया है । सेठ सुदर्शन
कि इस समय सांगानेर वीरान-सा नजर पाता है। शीलव्रत के संपालन में विघ्न-वाघा उपस्थित होने पर भी
खण्डहरों को देख कर लगता है कि १६वीं १७वीं शताब्दी अडिग रहा-अपने व्रत से जरा भी नही डिगा। उसी का
मे यह एक अच्छा सम्पन्न नगर रहा होगा। कवि ने इस कवि ने विस्तृत वर्णन दिया है। कवि ने उसे सवत् १६२६
ग्रन्थ को सं० १६३३ कार्तिक सुदी चतुर्दशी शनिवार के में वैशाख शुक्ला सप्तमी के दिन समाप्त किया है।
दिन बनाकर समाप्त किया है। ३. भणई कथा मनि धरि हरष,
सातवीं रचना परमहस चौपई है, जो एक रूपकसोला से सोलोत्तर शुभ शाख ।
काव्य है। ब्रह्म जिनदास ने भी परमहंस नामक रूपकरुति वसत मास वैशाख, नवमी शनि अघार पाख । काव्य लिखा है, संभव है उसका कुछ प्रभाव इस पर भी ४. हो सोलह से अठवीस विचारो,
हो, क्योकि यह रचना बाद मे रची गई है। इसमें परमभादवा सुदि दुतिय बुधवारो।
हंस की विजय मोहादि शत्रुनों पर हुई है, उसका सविस्तर गढ हरसौर महा भलो जी,
वर्णन दिया हुमा है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना सं. तिह मैं भला जिनेसुर थान ।
१६३६ की ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी शनिवार के दिन श्रावक लोग वस जी देव-शास्त्र, गुरु राखै मानतो॥ - अहो सोलहस गुणतीसइ जी वर्ष,
६. हो सोला से तीसा शुभ वर्ष, तिथि तेरस सित सोभिता। वैशाख सात जी ऊजलो पाख ।
हो अनुराधा नषित्र सुभसार, वटन जोग दीस साहि प्रकव्वर राजई प्रहो,
भलहो ? भने वार सनीचरवार । भोगवं राज प्रतिइंद्र समान ॥
७. सोलास तेतीसासार कातिगसूदी चौदसि सनिवार ।
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